ज्वैलर�, �फल्मे, �कट� पाट�, रोमान्स, और भी ना जाने �कतनी बात.े ... नौजवान� क� बाते जोश-उत्साह उमंग और नये हौसले से लबरेज़ होती ह�। नौकर�, व्यापार, राजनी�त, खेल आ�द उनक� बातचीत के मखु ्य प्रकरण ह�गे और प्रे�मयो क� गफु -त-गू का तो कहना ह� क्या? कु छ लोग बात बनाने म� मा�हर होते ह�, सामने वाले को उल्लू बनाकर बात ह� बात म� अपनी बात बना लेते ह� ले�कन कु छ को बात करने का सल�का ह� नह�ं होता। मंशा कु छ होती है, बोलते कु छ और है फलत: बनती हुई बात भी �बगड जाती है। क�व वनृ ्द ने कु छ यूँ फरमाया –“बात करन क� र��त म� है अतं र अ�धकाय , एक वचन ते �रस बढे एक वचन ते जाय’’। हर बात का अपना खास अदं ाज़ होता है, खास-म-खास मतलब होता है। मसलन �कसी क� बात �दल को छू जाती है तो कोई बात कानो म� �मसर�-सी घोल देती है। कोई बात मन को गदु गदु ाती है तो कोई तीखी बात छु र�-सी भेदती है। �कसी क� बात �कसी के �लए प्रेरणा बन जाती है तो कोई बात �कसी के �वनाश का कारण बन जाती है। बात चाहे �दल से �दल क� हो या �फर घर-प�रवार क� हो, कारोबार क� हो अथवा राजनी�त के ग�लयारो क�, जब चलती है तो दरू तक जाती है। पहले बाते रु-ब-रु हुआ करती थी, घर-आँगन, गल� मोहल्लो म�, पनघट पर चौपालो म� नुक्कड पर ब�तयाते लोग, सुख-दखु बाटँ ते लोग, �शकवे–�शकायते करते हुए लोग, सिू क्तय� और मुहावर� से जडी उनक� बाते हास-�वलास, भाव-अभाव, स्वाथ-र् परमाथ्र से युक्त होकर जीवन के सत्य को बडी सहजता से अनावतृ कर देती थी। आज तो लोग फोन,मोबाइल,फे सबुक,�टवटर आ�द पर ब�तयाते ह�, घंट� बाते करते ह� । अजीब –गर�ब सैकड़� �कस्म क� बात,े सुबह उठने से देर रात तक सोने तक क� सार� बाते शये र करते ह�। पर पते क� बात यह है �क इन सार� बातो म� वो बात नह�ं है, अपनापन नह�ं है,सवं ेदना नह�ं है, �दल को छू लेने वाल� क�शश नह� है। गर है तो बस औपचा�रकता, आत्मप्रदशनर् , .. खरै जो बीत गयी सो बात गयी, अब बात बढाने से बात नह� बनगे ी। समझदार� तो इसी म� है �क बात को सम्भाल �लया जाए और लाख टके क� बात तो यह है �क मन क� बात पढने या जानने के �लए �कसी ताम-झाम क� आवश्यकता नह�ं होती, उसके �लए तो बस आपसी �वश्वास और प्रेम ह� पया्पर ्त है। डॉ. ममता गुप्ता (प्र�श��त स्नातको�र �श��का) 51
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संस्कृ त-�वभागः सरस्वती स्तुितः या कु न्दने ्दतु षु ारहारधवला या शभु ्रव�ावतृ ा या वीणावरदण्डमिण्डतकरा या �ते पद्मासना। या ब्र�ाच्यतु शकं रप्रभिृ तिभद्र व्ेर ःै सदा विन्दता सा मां पातु सरस्वती भगवती िनःशेषजाड्यापहा ॥ शकु ्लां ब्र�िवचारसारपरमामाद्यां जगदव् ्यािपनीं वीणापसु ्तकधा�रणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् । हस्ते स्फािटकमािलकां च दधतीं पद्मासने सिं स्थतां वन्दे तां परम�े रीं भगवतीं बिु द्धप्रदां शारदाम् ॥ �ोकाः *1. उद्यमेन िह िसध्यिन्त कायारि् ण न मनोरथःै ।* *न िह स�ु स्य िसंहस्य प्रिवशिन्त मखु े मगृ ा: ।।* महे नत से ही काय्र पणू ्र होते ह,ंै िसफर् इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये ह�ए शरे के महँु में िहरण स्वयं प्रवशे नहीं करता, शरे को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता ह।ै *2. अ�ादश परु ाणषे ु व्यासस्य वचनं द्वयम् ।* *परोपकारः पणु ्याय पापाय परपीडनम् ॥* परु ाणों में व्यास के दो ही वचन हंै “परोपकार ही पणु ्य ह”ै और “दसू रों को दःु ख दने ा पाप है । *3. न कि�त कस्यिचत िमत्रं न कि�त कस्यिचत �रप:ु ।* *व्यवहारेण जायन्त,े िमत्रािण �रप्वस्तथा।।* कोई िकसी का िमत्र होता ह,ै न कोई िकसी का शत्र।ु व्यवहार से ही िमत्र या शत्रु बनते हैं । *4. िप्रयवाक्यप्रदानने सव्रे तषु ्यिन्त जन्तवः ।* *तस्मात तदवै व�व्यम वचने का द�रद्रता।।* वचन बोलने से सभी जीव सतं �ु हो जाते ह,ैं इसिलए सदवै िप्रय वाक्य ही बोलने चािहए। िप्रय वचन बोलने में कं जसू ी कै सी। *5. यत्र नायस्र ्तु पजू ्यन्ते रमन्ते तत्र दवे ताः।* *यत्र तास्तु न पजू ्यन्ते तत्र सवारफ् लिक्रयाः॥* नारी क� पजू ा होती ह,ै वहाँ दवे ता िनवास करते ह.ैं जहाँ नारी को नहीं पजू ा जाता, वहाँ सब व्यथर् ह|ै *6. दवे ो ��े ग�ु �ाता गरु ो ��े न क�न:।* *ग�ु �ाता ग�ु �ाता ग�ु �ाता न संशयः।।* दवे (भगवान)�ठ जाए तो ग�ु र�ा करता ह,ै ग�ु �ठ जाए तो कोई नहीं होता। ग�ु ही र�क ह,ै ग�ु ही र�क ह,ै ग�ु ही र�क ह,ै इसमंे कोई संदहे नहीं। *7. पसु ्तकस्था तु या िवद्या,परहस्तगतं च धनम् ।* *कायकर् ाले सम�ु पन्ने न सा िवद्या न तद् धनम् ।।* पसु ्तक मंे रखी िवद्या तथा दसू रे के हाथ में गया धन, ये दोनों ही ज़�रत के समय हमारे िकसी भी काम नहीं आया करते| क�ा –आठवीं'स' -नाम - इिषका िसहं �ोकाः 1. िवद्या ददाित िवनयं िवनयाद् याित पात्रताम।् पात्रत्वाद्धनमाप्नोित धनाद्धम्ंर ततः सखु म॥् अथातर् :- िवद्या से िवनय (नम्रता) आती ह,ै िवनय से पात्रता (योग्यता) आती है पात्रता से धन क� प्राि� होती ह,ै धन से धमर् और धम्र से सखु क� प्राि� होती है । 53
2. चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादिप चन्द्रमाः | चन्द्रचन्दनयोम्रध्ये शीतला साधुसगं ितः || अथात्र : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लिे कन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे िमत्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों क� तलु ना मंे अिधक शीतलता दने े वाला होता है | 3. श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुं डलेन, दानेन पािणन्र तु कं कणेन, िवभाित कायः क�णापराणां, परोपकारैनर् तु चन्दनेन || अथात्र :कानों क� शोभा कु ण्डलों से नहीं अिपतु �ान क� बातंे सनु ने से होती है | हाथ दान करने से सशु ोिभत होते हैं न िक कं गनों से | दयाल/ु सज्जन व्यि�यों का शरीर चन्दन से नहीं बिल्क दसू रों का िहत करने से शोभा पाता है | -नाम – वभै वी जोशी क�ा – बारहवी 'ब' वीर: भगतिसहं ः भगतिसंहः स्वतन्त्रभारताय स्वप्राणाह�ितं द�वा अमरः अभवत।् क�न सायन्तनः कालः। ित्रवषीर्यः क�न बालकः स्विपत्रा सह िवहारं कु व्नर ् आसीत।् ताभ्यां सह क�न वदृ ्धः अिप आसीत।् सम्भाषणं कु वर्न्तः ते ग्रामसीमां प्रा�वन्तः। तत्र सस्यानां ह�रतवणेरन् प�रसरः आ�ादकरः �श्यते स्म। भाषणं कु वर्न्तः ते एकस्य सस्य�ते ्रस्य घट: प्रा�वन्तः। बालकस्य आगमनशब्दः न श्रयू ते इित िपता प�रवतृ ्य ��वान।् बालकः �ते ्रे उपिवश्य िकमिप खनित स्म। ” िकं करोित वत्स ? ” इित िपता प�ृ वान।् ” पश्य तात ! अिस्मन् �ते ्रे अहं सवर्िवधसस्यािन सफलािन करोिम। ” इित बालकः उ�वान।् तस्य बालस्य नयनद्वयं द्योतते स्म। �ेत्रे अवश्यं फलं प्राप्नोिम इित िव�ासः तस्य वचनेषु ध्वन्यते स्म। तस्य स्वरेण तौ ज्ये�ौ आ�या्रिन्वतौ अभवताम।् सः बालकः एव भगतिसंहः। अनन्तरकाले मातभृ िू मं स्वतन्त्रं कतरं्ु वीरोिचतं यदु ्धं कृ तवान् अयं समरिसंहः। पञ्जाबप्रान्तेलाहोरजनपदे बङ् गा इित ग्रामः। सरदारिकषनिसंह इत्यते स्य वीरप�ु षस्य वशं जाः तत्र िनवसिन्त स्म। तिस्मन् वशं े अनेके वीराः आङ् ग्लेभ्यः भारतस्य िवमोचनं कारियतंु यदु ्धं कृ तवन्तः। बालके भगतिसहं े सवर्े िस्न�िन्त स्म। अग्रे कदािचत् एषः बालकः प्रिसद्धो भिवष्यतीित सवे्र परस्परं कथयिन्त स्म। तस्य तु िवद्यावत्याः जीवनम् आरम्भतः अिप क�रै ेव यातम।् क्रािन्तकारी तस्याः पितः सवर्दा अ�ाततया पयट्र न् गहृ तः दरू े एव भवित स्म। भगतिसहं स्य किन�िपतवृ ्यौ आस्ताम।् तयोः स्वरणिसंहम् आङ् ग्लेयाः िद्वतीयपयाय्र ाथ्ंर कारगारं प्रेिषतवन्तः। रागारजीवनं दभु रर् म् आसीत।् अतः स्वरणिसंहः रोगग्रस्तः अभवत।् कारागारतः िवमोचनानन्तरमिप तस्य स्वास्थ्यं सम्यक् नाभवत।् कितपयिदनेषु सः िदवङ् गतः। दोिषणां िवषये न्यायालये वादप्रितवादमारब्धम।् तेषु िदनेषु राजनिै तककारणःै बद्धानां िवषये अिधका�रणः सम्यक् न व्यवहरिन्त स्म। तभे ्यः। उ�मं भोजनं न ददाित स्म। तान् अनके धा पीडयिन्त स्म। भगतिसंहः , तस्य अनचु रा� ता�शलज्जास्पदानां काया्रणां िवषये सङ् घषर् कतं्रु िनि�तवन्तः। -नाम - सौिमली चक्रबतीर् क�ा - नवमी 'अ' जय व�ृ ! जय व�ृ ! श्रयू ताम् सवरे् व�ृ परु ाणम,् िक्रयताम् तथा व�ृ ारोपणम।् व�ृ स्यािस्त सनु ्दरम् याित मलू ं बह�दरू म।् । मलू े अिप अन्नम,् तस्य का�ं किठनम,् का�ं किठनं भवित इन्धनाथमर् ।् पणष्रे ु भवित ह�रतद्रव्यम,् अतो िह अिस्त रे पण्र ह�रतम।् । 54
पषु ्पम् सनु ्दरम,् अतीव मोहकम,् पषु ्पम् तस्य भवित रे दवे पजू ाथ्रम।् फलम् रसमयं, तस्य फलं स्वादपणू रम् ,् फलम् िह अिस्त रे खगस्य अन्नम।् । जलवातप्रकाशैः िनमा्रित अन्नम,् तने िह अन्नेन वधर्ते िनत्यम।् व�ृ स्य �श्यताम् सवमर् ् िह कायरम् ,् जीवनं तस्यािस्त परोपकाराथम्र ।् । व�ृ े िह कु व्रिन्त िवहगाः नीडम,् के िचत् तु कु वर्िन्त का�े िह िछद्रम।् आतपे ित�ित वषान्र वु ष्मर ,् अन्यषे ां करोित छायाप्रदानम।् । व�ृ ो नवै अि� रे स्वक�यं फलम,् सवम्र ् िह अगं म् तस्य लोकिहताथरम् ।् जनाः न स्मरिन्त तस्य उपकारम,् बहध� ा कु व्िर न्त व�ृ च्छेदनम।् । मास्तु रे मास्तु ई�शं पाप,ं यथाशि� िक्रयताम् व�ृ ारोपणम।् नवै रे नवै ास्तु व�ृ कतर्नम’् , सव्रे िह कु वन्र ्तु तदस् वं ध्रनम।् । - नाम - आिदत्या राज क�ा -आठवीं 'अ' �ोकाः सव्ंर परवशं दःु खं सवर्मात्मवशं सखु म।् एतद् िवद्यात् समासने ल�णं सखु दःु खयोः॥ सेिवतव्यो महाव�ृ : फ़लच्छाया समिन्वत:। यिद दवे ाद फलं नािस्त,छाया के न िनवायतर् ।े । स्वगहृ े पजू ्यते मखू ः्र स्वग्रामे पजू ्यते प्रभःु । स्वदशे े पजू ्यते राजा िवद्वान्सवतर् ्र पजू ्यते॥ अिग्नना िसच्यमानोऽिप व�ृ ो विृ द्धं न चाप्नयु ात् । तथा सत्यं िवना धमःर् पिु �ं नायाित किहि्र चत् ॥ 55
-नाम – सजु ल पािटल क�ा – सातवी 'अ' ससं ्कृ त सामान्य वाता्रलापः ह�र: ओम- हले ो सपु ्रभातम-् सपु ्रभात नमस्कार: - नमस्कार शभु राित्र: - शभु राित्र �म्यताम-् �मा क�िजए िचतं ा मास्त-ु िचतं ा मत करो पनु : िमलाम: - िफर िमलंेगे अस्तु – ठीक है श्रीमन-् श्रीमान बह� समीचीनम - बह�त अच्छा तथैव अस्तु – ऐसा ही हो स्वल्पं एव – जरा सा समीचीना सचू ना – अच्छी सचू ना है अथ िकम-् और क्या िकम् अन्यत-् और क्या ित�तु भो: - जरा ठह�रए कथम् अस्तु भवान-् आप कै से हैं नाम – यश अवस्थी क�ा – अ�मी स �ोकाः 1- यत्र नायसर् ्तु पजू ्यन्ते रमन्ते तत्र दवे ताः। यत्रतै ास्तु न पजू ्यन्ते सवा्सर ्तत्राफलाः िक्रयाः। (अथ)र् - िजस घर मंे ि�यों का आदर होता ह,ै उस घर में दवे ता िनवास करते ह।ंै जहां ि�यों का आदर नहीं होता, वहाँ सभी कम्र िनष्फल हो जाते ह।ंै 2 - �ः कायम्र द्य कु वीर्त पवू ा्नर ्हे चापरािन्हकम।् न िह प्रती�ते मतृ ्यःु कृ तमस्य न वा कृ तम।् । (अथ)र् - कल िकया जाने वाला काम आज और सायंकाल मंे िकया जाने वाला काम प्रातःकाल मंे ही परू ा कर लेना चािहए। क्योंिक मतृ ्यु यह नहीं दखे ती िक इसका काम परू ा ह�आ िक नहीं। स्वगोर् धनं वा धान् 3- स्वगोर् धनं वा धान्यं वा िवद्या पतु ्राः सखु ािन च। ग�ु वतृ ्यनरु ोधेन न िकिञ्चदिप दलु ्रभम।् । (अथ)्र - ग�ु जनों क� सेवा से स्वग्,र धन-धान्य, िवद्या, पतु ्र और सखु कु छ भी दलु ्रभ नहीं ह।ै 4- व्यसने वाथर्कृ च्छ्रे वा भये वा जीिवतान्तगते। िवमशृ ं� स्वया बदु ध् ्या धिृ तमान नावसीदित।। (अथ)्र - शोक म,ंे आिथ्कर संकट मंे या प्राणों का संकट होने पर जो अपनी बिु द्ध से िवचार करते ह�ए धैयर् धारण करता ह।ै उसे अिधक क� नहीं उठाना पड़ता। 56
नाम- अिशय्र ा पोल क�ा - आठवी \"स\" महाराणा प्रताप का जीवन 'मेवाड' इित स्थानं राजस्थाने अत्यन्तं प्रिसद्धमासीत् । तत् स्थानं तत्र उत्पन्नानां शरू राजानां शौयेर्ण आत्माहत� ्या च महतीं प्रिसिद्धम् आप । अत्रत्ये िससीिदयावंशे बाप्परावलः राणाहमीरः, राणासांगा प्रभतृ यः शरू ाः जन्म लेिभरे । एतिस्मन्नवे पणु ्यवशं े महाराणाप्रतापिसंहः िकस्ताब्दीयचत्वा�रंशद�ु रपञ्चदशशततमे वषेर् जातः । तस्य िपता उदयिसहं ः । तिस्मन् समये बहवो राजानः मोगलचक्रविति्र भः सह आयधु ्य पराजयम् अनभु यू तानवे िदल्ली�रान् भावयिन्त स्म । के चन तषे ामेव सवे या आत्मनः धन्यान् मिे नरे । तिस्मन् काले अकबरमहाशयः दहे ल्यां शासनं करोित स्म ।यदा राणाप्रतापिसंहः अरण्ये वसित स्म तदा तस्य प�रवारः महत्क�म् अनबु भवू । एकत्र सव्रदा वैया्कर ्रमणशङ् का अन्यत्र आहाराभावात् पतु ्रकलत्राणां क�परम्परा अतीव वेदनाकरी बभवू । एकिस्मन् िदने राणाप्रतापस्य पत्नी अरण्यतणृ जणू ने्र रोिटकाः सज्जीकृ त्य सव्भेर ्यः िकिञ्चत् - िकिञ्चद्भागं द�वती । स्वपतु्र्यै अिप रोिटकां द�वा \"तस्याः अध्रमवे खािदत्वा अविश�मधर्ं परेद्यःु भ�णाथंर् र� \" इित सिू चतवती । स्विप्रयदिु हतःु परेद्यःु आहारः लप्स्यते वा न वा इित शङ् कया प्रेममयी माता तथावोचत् । एता�शं दा�णं का�ण्यपणू ञर् ्च जीवनं सव्रेऽिप प�रवारः व्यतीयाय ।मवे ाडराज्यस्य मखु ्यसङ् घषरः् मघु लसेनया सह आसीत् । प्रतापस्य शासनावधौ 'अकबर'इित नामकः मधु लसम्राट् आसीत् । प्रतापस्य २५ वषार्णां शासनकाले अकबरस्य सेनया सह अनेकवारं यदु ्धम् अभवत् । मखु ्यं यदु ्धं हल्दीघाटीस्थाने अभवत,् अतः एव एतत् 'हल्दीघाटीयदु ्धम'् इित नाम्ना प्रिसद्धम् अिस्त ।प्रतापः स्वजन्मस्थानमवे प�रत्यज्य गतवािनित तस्य शत्रवः प�रहासरताः आसन् । इतः परं पनु ः स योद्धम् आगच्छेिदित स्वप्नेऽिप ते न िचन्तयिन्त स्म । िकन्तु महाराणाप्रतापः तेषां िनरी�ां िमथ्यां कृ त्वा पराक्रन्तां स्वक�यराज्यसीमाम् अपवू ्रेण पराक्रमेण स्वाधीनां कतम्रु ् अभ्यपतत् । नाम- इिशका िसंह क�ा - आठवी 'स' स�ू यः 1- सत्यमेव जयते | सत्य क� ही िवजय होती ह|ै 2- संहित: कायर्सािधका | एकता से काय्र िसद्ध होता है | 3- यथा बीज: तथाङ् कु रः | जसै ी करनी वैसी भरनी | 4- लोभ: पापस्य कारणम् | लोभ पाप का कारण होता ह|ै 5- िमत्रस्य िनकषो िवपत् | िमत्र क� पहचान िवपि� के समय होती है | 6- आचार: परमोधम:्र | आचरण ही मनसु ्य का सबसे बड़ा धम्र ह|ै 7- समय एव करोित बलाबलम् | समय ही बलवान एवं िनबर्ल बनाता ह|ै 8- िहतं मनोहा�र च दलु र्भम् वच: | िहतकारी एव मन को प्रसन्न करने वाली वाणी दलु ्रभ ह|ैं -नाम – पी.के . उ�रा क�ा – नवमी 'अ' सत्सगं ितः सतां सज्जनानां संगितः । 57
सज्जनानां सगं त्या ह्रदयं िवचारं च पिवत्रम् भवित । अनया जनः स्वाथरभ् ावं प�रत्यज्य लोककल्याणकामः भवित । दजु न्र ानां सगं त्या दबु र्िु द्धः आगच्छित । दबु र्िु द्धः दःु खजननी अिस्त । सज्जनानां संगत्या दजु रन् ः अिप सज्जनः भवित । द�ु दयु ोर्धनसगं त्या भीष्मोऽिप गोहरणे गतः । ऋषीणाम् सगं त्या व्याधः वाल्मीिकः अिप किव वाल्मीिकः अभवत् । रावणसंगत्या समदु ्रः अिप �दु ्र नदीव बन्धनं प्रा�ः । अतः सािध्वदमचु ्यत-े सत्सगं ितः कथय िकं न करोित पसंु ाम् । दरू ीकरोित कु मितं िवमलीकरोित चेतिश्र्चरंतनमधं चलु कु �करोित । भतू ेषु िकं च क�णां बहल� ीकरोित सगं ः सतां िकमु न मंगलमातनोित ॥ नाम- राम सरु ोड क�ा- आठवी ‘ब’ जननी जन्मभूिम� स्वगार्दिप गरीयसी अिस्मन् ससं ारे जनन्याः सवा्रिधकं महत्वं वतर्ते। ‘मातदृ वे ो भव’, ‘माता परं दवै तम’् इत्यािद वचनःै अिप जननीगौरवं िसद्धं भवित। जननी एव स्वसन्तती: पालयित, पषु ्यित र�ित च। अतः शा�षे ु जनन्याः स्वगाद्र िप श्र�े त्वम् उ�म।् यथा जननी सव्रेषां पजू ्या मान्या च भवित तथैव जन्मभिू मरिप मातवृ त् सवषर्े ां पजू ्या मान्या च वतर्त।े यथा जननी दगु्धािद-दानेन स्वसन्तती: पालयित तथैव जन्मभिू मः शस्यािदिभः जनान् पालयित पषु ्यित च। मानवः स्वजन्मभमू ौ यत्सखु ं लभते स्वगर्ऽे िप तत्सखु ं दलु र्भम् अिस्त। भगवता रामचन्द्रणे रावणस्य वधानन्तरं स्वगस्र ्य अपे�ा जन्मभमू ःे महत्वं प्रितपािदतम् । यथा च – अिप स्वणम्र यी लंका न मे ल�मण रोचते। जननी जन्मभिू म� स्वगार्दिप गरीयसी ॥ -नाम – पी.के . उ�रा क�ा – नवमी 'अ' संस्कृ त �ोकाः 1. िमत्रसंग्रहणे बलं सम्पद्यत॥े भावाथर्:अच्छेऔर योग्य िमत्रों क� अिधकता से बल प्रा� होता ह।ै 2. सत्यमेव जयते॥ भावाथ्र:सत्य अपनआे प िवजय प्रा� करती ह।ै 3. उपायपवू ्ंर न दषु्करं स्यात॥् भावाथर्:उपाय से काय्र किठन नहीं होता । 4. िव�ान दीपेन ससं ार भयं िनवत्रते॥ भावाथ्र:िव�ानं के दीप से संसार का भय भाग जाता ह।ै 5. नािस्त बुिध्दमतां शत्रःु ॥ भावाथर्:बिु द्धमानो का कोई शत्रु नहीं होता । 6. िवद्या परमं बलम ॥ भावाथ्र:िवद्या सबसे महत्वपणू र् ताकत ह।ै 58
7. स�मात् सवषरे् ों काय्िर सिद्धभव्रित॥ भावाथर्:�मा करने से सभी कायर्े में सफलता िमलती है | 8. न ससं ार भयं �ानवताम॥् भावाथ्र:�ािनयों को संसार का भय नहीं होता । 9. वधृ ्दसेवया िव�ानत॥् भावाथ्र:वधृ ्द - सेवा से सत्य �ान प्रा� होता ह।ै 10. सहायः समसखु दःु खः ॥ भावाथर्:जो सखु और दःु ख मंे बराबर साथ दने े वाला होता है वह सच्चा सहायक होताह।ै -नाम – सत्यम अटुगडे क�ा - आठवी 'अ' महिष्र पतञ्जिलः भाष्यकारःपतञ्जिलःसवस्यस्वोप�प्र�याअद्भुतने िचत्र-िविचत्रणे प्रितभा बलेन शब्दप्रयोगद्वारासतू ्रकारिनिद�र् पद्धितम् अनसु रन्प्रभतू ानभु िू तसम्भतू याअद्भुतस�ू मबदु ध् ्याशब्दिसद्धेःसगु मंमागं्रबोधयित।तदीयाशलै ीनवनवोन्मषे शािलनी, नानािवधतक्र समिन्वता, महत्स�ू मिे �कयतु ाच।शा�ीयिसद्धान्तंसःयथोिचतरीत्याप्रितपादयित।अिस्मिन्सद्धान्तप्रितपादनप्रिक्रयायासं ःस्वस्यप�रष्कृ तमिस्तष्कातउ् द्भूमहिष्तर ाःिचर� िचरानल्पाःकल्पनाःअिपसमायोजयित।एताःिनगढू ाकू ितकल्पनाःगढू ाशयमअ् वगन्तंनु के वलंपले ावधीअिपतवु ्यतु ्पन्नमितःअिपक�मअ् नभु वित।अतःएवटी काकाराणामिपअनके त्रमतभदे ाः�श्यन्त।े भाष्यकारःअनभु वीन्यायवादीइवअद्भुततक्ैर ःस्वस्यवादपं ्रितपादयित।अतःपवू रप् �स्यउपस्थापनावसरेतदीयंप्रबलंतकरं् ��्वाअप्रबदु ्धःपाठकःकदािचित्चन्तयेत् अयमेवउ�रप�ःइित।अग्रउे �रप�स्यउपस्थापनावसरेसःपवू ोर्�ानातं का्रणांसवषे्र ाकं ृ तसे मीचीनपं ्रत्य�ु रंयच्छित। नाम-मणृ ्मयी इनामदार क�ा – नवमी 'अ' जयतुजननी जयतजु ननीजन्मभिू म: पणु ्यभवु नं भारतम।् जयतजु म्ब-ू द्वीपमिखलं सनु ्दरं धामामतृ म।् पणु ्यभवु नं भारतम॥् ध�रत्रीयं सवद्र ात्रीशस्यसफु ला शा�ती। रत्नगभाकर् ामधेन:ु कल्पवल्लीभास्वती। िवन्ध्य-भषू ािसन्ध-ु रशनािशखा-िहमिग�रशमद्र ा। रम्य-गंगा-यमनु यासहमहानद्यथनमरद् ा। कम-्र तपसांसाथर्-तीथप्ंर ्रकृ ित-िवभवालंकृ तम॥् जयत…ु ॥ आकु मारी-िहमिगरेनोर्लभ्यतसे ासभ्यता। एक-मात:ु सतु ा: सवभरे् ाितिदव्याभव्यता। यत्रभाषा-वषे -भषू ा-रीित-चलनिै व्रिवधता। तथाप्येका�ािद्वतीयाराजतेजातीयता। 59
ऐक्य-मैत्री-साम्य-सतू ्रंपरम्परयासम्भतृ म॥् जयत…ु ॥ आत्मिश�ा-ब्र�दी�ा-�ानदीप�ै ज्ज्वलम।् योग-भोग-त्याग-सवे ा-शािन्त-सगु णु :ै पषु ्कलम।् यित्त्ररंगध्वजंिवदधत्वषरम् ाषिं्र वजयत।े सावर्भौमंलोकतन्त्रधं मरर् ाष्ट्रंगीयते। मानवाना-ं प्रेमगीतंिवबधु -�दयेझकं ृ तम॥् जयत…ु ॥ नाम- रेहानशेख क�ा- नवमी‘अ’ बक-ककर् टक-कथा “भ�ियत्वा बह�न्मत्स्यानु�माधममध्यमान् । अितलौल्याद् बकः कि�न्मृतः ककर् टग्रहात् ॥” अिस्त किस्मिं �द्वनप्रदशे े नानाजलचरसनाथं महत्सरः । तत्र च कृ ताश्रयो बक: एको वदृ ्धभावमपु गतो मत्स्यान् व्यापादियतमु समथ्रः । तत� �तु ्�ामकण्ठः सरस्तीर उपिव�ो म�ु ाफलप्रकरस�शैरश्रपु ्रवाहधै र्रातलमिभिषञ्चन् रोद । एकः कु लीरको नानाजलचरसमेतः समेत्य तस्य दःु खने दःु िखतः सादरिमदमचू े — “माम! िकमद्य त्वया नाहारविृ �रन�ु ीयते । के वलमश्रपु णू नर् ते ्राभ्यां स िनः�ासेन स्थीयते ।” स आह — “वत्स सत्यमपु लि�तं भवता, मया िह मत्स्यादनं प्रित परमवैराग्यतया सांप्रतं प्रायोपवशे नं कृ तम् , तेनाहं समीपगतानिप मत्स्यान्न भ�यािम।” कु लीरकस्तच्छ्�रत्वा प्राह — “माम! िकं तद्वरै ाग्यकारणम् ?” सप्राह — “वत्स! अहमिस्मन्सरिस जातो विृ द्धं गत� । तन्मयैतच्छ तं यद् द्वादशवािष्रक्यानाविृ �ः संपद्यते लग्ना ।” कु लरीक आह — “कस्मा�च्छ्�रतम् ?” बक आह — “दवै �मखु ात।् एष शन�ै रो िह रोिहणीसकटं िभ�वा भौमं शकु ्रं च प्रयास्यित ।” उ�ञ्च वराहिमिहरेण – यिद िभन्ते सयू ्रसतु ो रोिहण्याः शकटिमह लोके । द्वादशवषा्िर ण तदै निह वषिर् त वासवो भमू ौ ॥ प्राजापत्ये शकचे िभन्ने कृ त्ववे पातकं वसधु ा । भस्मामािस्थषकलक�णा्र कापािलकिमव व्रतं ध�े ॥ तथा च — रोिहणीशकटमक्र नन्दन�ेिद्भनि� �िधरोऽथवा शशी । िकं वदािम तदिन�सागरे सवरल् ोकमपु याित स�ं यम् ॥ रोिहणीशकटमध्यसिं स्थते चन्द्रमस्य शरणीकृ ता जनाः ।। क्वािप यािन्त िशशपु ािचताशनाः सयू तर् �िभदरु ाम्बपु ाियनः ॥ तदते त्सरः स्वल्पतोयं वततर् ,े शीघ्रं शोषं यास्यित । अिस्मञ्छु ष्के यैः सहाहं विृ द्धं गतः सदवै क्र�िडत� ते सवर्े तोयाभावान्नाशं यास्यिन्त; त�ेषां िवयोगं द्र��मसमथ्रः । तेनैतत्प्रायोपवेशनं कृ तम् । सांप्रतं सवेर्षां स्वल्पजलाशयानां जलचरा ग�ु जलाशयेषु स्वस्वजनैनीर्यन्ते । के िचच्च मकरगोधािशशमु ारजलहिस्तप्रभतृ यः स्वयमवे गच्छिन्त । अत्र पनु ः सरिस ये जलचरास् ते िनि�न्ताः सिन्त । तेनाहं िवशेषाद्रोिदिम, यदु बीजशषे मात्रमप्यत्र नोद्ध�रष्यित ।” ततः स तदाकण्र्यान्येषामिप जलचराणां त�स्य वचनं िनवेदयामास । अथ ते सव्रेभयत्रस्तमनसो सत्स्यकच्छपप्रभतृ यस्तमभ्यपु ेत्य पप्रच्छु ः — “माम! अिस्त कि�दपु ायो येनास्माकं र�ा भवित ?” बक आह — “अस्तस्य जलाशयस्य नाितदरू े प्रभतू जलसनाथर् सरः । पिद्मनीखण्डमिण्डतं यच्चतिु व शत्यािप वषार्णामनाव�ृ ्या न शोषमेष्यित । तद्यिद मम प�ृ ं कि�दारोहित तदहं तं तत्र नयािम ।” अथ तते त्र िव�ासमापन्नाः “तात, मातलु , भ्रातः ! “इित ब्रवु ाणा अहं पवू ्मर हं पवू रम् ् , इित समन्तात्प�रतस्थःु । सोऽिप द�ु ाशयः क्रमेण तान् प�ृ े आरोप्य जलाशयस्य नाितदरू े िशलां समासाद्य तस्यामाि�प्य स्वाच्छया भ�ियत्वा भयू ोऽिप दलासयं समासाद्य जलचराणां िमथ्यावातासर् न्दशे कै म्रनािं स रञ्जयिन्नत्यमेवाहारविृ �मकरोत् । अन्यिस्मन्दने च कु लीरके णो�ः — ” माम! मया सह ते प्रथमः स्नेहसभं ाषः सञ्जातः तित्कं मां प�रत्यज्यान्नयिस ? तस्मादद्य मे प्राणत्राणं कु � ।” तदाकय्र सो s िप द�ु ाशयि�िन्ततवान् — “िनिव्रण्णो S है मत्स्यमांसादनने , तदये ैनं कु लीरकं व्यञ्जनस्थाने करोिम ।” इित िविचन्त्य तं प�ृ े समारोप्य तां वध्यिशलामिु द्दश्य प्रिस्थतः । कु लीरकोऽिप दरू ादवे ािस्थतपवरत् ं िशलाश्रयमवलोक्य मत्स्यास्थीिन प�र�ाय तमपचृ ्छत् — “माम! िकयद् दरू े स जलाशय ? मदीयभारेणाितश्रान्तस्त्वम् तत्कथय ?” सोऽिप मन्दधीजर्लचरोऽयं स्तले न प्रभावतीित मत्वा सिस्मतिमदमाह — “कु लीर ! कु तयोऽन्यो जलाशयः ? मम प्राणयात्रेयम् । तस्मात्स्मयर्तात्मनोऽभी�दवे ता, तवामप्यसयां िशलायां िनि�प्य भ�ियष्यािम ।” इत्य�ु वित तिस्मन् स्वबदनदशं द्वयने मणृ ालनालधवलायां मदृ गु ्रीवायां गहृ ीतो मतृ � । अथ स तां बकग्रीवां समादाय शनःै शनसै ्तज्जलाशयमाससाद । ततः सव्रैर ेव जलचरैः प�ृ ः — “भोः कु लीरक! िकं िनव�ृ स्त्वम् ? स मातलु ोऽिप नायातः । ति�ं िचरयित वयं सव्र सोत्सकु ाः कृ त�णािस्त�ामः ।” एवं तरै िभिहते कु लीरकोऽिप िवहस्योवाच – “मखू ा्ःर ! सवेर् जलचरास्तेन िमथ्यावािदना वञ्चियत्वा नाितदरू े िशलातले प्रि�प्य भि�ताः । तन्ममायःु शेषतया तस्य िव�ासघातकस्यािभप्रायं �ात्वा ग्रीवयमे ानीताः तदलं संभमेण, अधनु ा सव्जर लचराणां �ेमं भिवष्यित । “ 60
-नाम – शखे र समु न परोपकारस्य लाभाः, गुणाः, मह�वम च क�ा- ८ ‘ब’ ससं ारे परोपकार एव स गणु ो िवद्यते, येन मनषु ्यषे ु जीवेषु वा सखु स्य प्रित�ा वत्रत।े समाजसेवाया भावना, दशे प्रेमभावना दशे भि�भावना, दीनोद्धरणभावना, परदःु खकातरता, सहानभु िू तगणु स्य स�ा च परोपकारगणस्य ग्रहणने वै भवित। परोपकारकरणने �दयं पिवत्र। स�वभावसमिन्वतं सरल िवनयोपेतं सरसं सदयं च भवित। परोपका�रणः परेषां दःु खं स्वीयं दखु ं मत्वा तन्नाशाय यतन्ते। ते दीनभे ्यो दानं ददित, िनधन्र ेभ्यो धनम,् व�हीनभे ्यो व�म,् िपपािसतेभ्यो जलम,् ‘ बभु िु �तभे ्योऽन्नम,् अिशि�तेभ्य� िश�ां ददित। सज्जना : परोपकारेणवै प्रसन्ना भविन्त। ते परोपकरणे स्वीयं द : खं न गणयिन्त। ❖ परेषां उपकाराय कृ तम् कमर् उपकारः कथयते ❖ अिस्मन् जगित सवे्रजनाः स्वीयं सखु ं वाञ्छिन्त ❖ अिस्मन् एव जगित एविवधाः अिप जनाः सिन्त ये आत्मनः अकल्याणं कृ त्वाऽिप परेषां कल्याणं कु वरि् न्त ते एवम् परोपका�रणः सिन्त। ❖ परोपकारः दवै भावः अिस्त। ❖ अस्य भावस्य उदयेन एव समाजस्य दशे स्य च प्रगितः भवित। ❖ अचेतनाः परोपकमरि् ण रताः �श्यन्ते। ❖ मघे ाः परोपकाराय जलं वहिन्त। ❖ नद्यः अिप स्वीयं जलं न स्वयं िपबिन्त। ❖ व�ृ ाः परोपकाराय एव फलािन दधित एवं िह सज्जनाः परोपकाराय एव जीवनम् धारयिन्त।। ❖ आत्माथ्ंर जीवलोके ऽिस्मन को न जीवित मानवः। ❖ परं परोपकाराथ्रं यो जीवित स जीवित ॥ -नाम – गौरांश क�ा – आठवी ‘द’ प्रकृ ितः -नाम –प्र�ा पािटल क�ा – आठवी ‘द’ योगस्य मह�वम् 61
योगःभारतस्यआधारःअिस्त। योगिं वनावयसं ्वस्थःसानन्दःचभिवतमु नशक्नमु ः। सव्रप्रथममहिषप्र तञ्जिलःयोगस�ु म्प्रितपािदतम। अिस्मन्ग्रन्थेअ�ांग-योगस्यवणन्र मअ् िस्त। सम्प्रितमहानगरेप्रदषू णस्यसमस्याअिस्त। ध्विन, वायःु एवम्जलप्रदषू ण: महानगरस्यजीवनस्यिवकटसमस्याअिस्त। एकलप�रवारःमहानगरस्ययथाथ:र् एतेनकारणेनजनाः�ग्नाःभिवन्त। समयाभावेनजनषे पु रस्परम्प्रेमःस्नेहःचनअिस्त। वयम्सवेर्तनावग्रस्ताःभवामः। अतएववयम्ननू यं ोगःकरणीय:। प्रितिदनम्प्रातःसायंयोगम्पजू नीयम।् के वलम्योगेनवयम्स्वस्थःभिवष्यामःशा�र�रकम्मािन्सकम्चप�ु येयोगःमहत्वपणू ः्र अिस्त। गीतायामअ् िपकथ्यते– योगःकमर्सकु ौशलम।् अधनु ाअिखलिम्व�मअ् िपजनू मासस्यएकएकिवशित: ितिथःयोगिदवसःइितमन्यते। समस्तदशे ाःसम्प्रितयोगस्यमहत्वम्स्वीकु व्रिन्त। जयतयु ोगःजयतभु ारतःएवम्जयतिु व�म।् नाम - श्यामसरु ोड क�ा- आठवी‘अ’ 62
नाम- प्रिसिद्धितवारी क�ा- आठवीं‘ड’ 63
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VIDYALAYA ACTIVITIES 65
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THANK YOU 71
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