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SANSKRITI E-Magazine GST Audit-II Mumbai

Published by Praveen Kaki, 2020-08-15 13:26:42

Description: SANSKRITI E-Magazine GST Audit-II Mumbai

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नींद कै से आएगी साहब, ठंडी सदा रातों म।ंे फु टपाथों पर सोने वालों को, एक आहशयाना हमल जाए। कै से सो पाएगी वो मााँ, हजसका भखू ा बच्चा सोया ह।ै काश ऐसे लोगों को, दो वक्त का, हनवाला हमल जाए। हमट जाए भ्रष्टाचार इस दशे स,े हर हाथ मंे रोजगार होना चाहहए। सारे जहााँ से अच्छा……....... हगर जाएंगी, ये मजहबी दीवारंे, जब भाई के गले से, भाई हमल जाएगा। बरसेंगी खहु शयों की, हर तरफ फु हारंे, जब गीता और कु रान का, हमलन हो जाएगा। नफ़रतों का खात्मा, पल भर में हो जाएगा। जब इसं ान को इसं ान मंे, एक इसं ान हदख जाएगा। ना मोब-हलहं चगं हो कभी, जय श्रीराम बोलकर, अल्लाह के नाम पर भी, आतकं वाद खत्म होना चाहहए। सारे जहााँ से अच्छा……....... कजाा लके र कज,ा कभी चकु ाया नहीं जाता। अगं ारों से आग को, कभी बझु ाया नहीं जाता। कजा के बोझ से बाहर, हनकल जाए हर इसं ान। ना झलू ,ें फं दा गले मंे डालकर, इस दशे के हकसान। कजाा माफ हो, या ना हो, लेहकन हकसानों की हालत मंे, सधु ार होना चाहहए। सारे जहााँ से अच्छा……....... खलु ी आंखों स,े दखे ा जो सपना, ये सपना अब, परू ा होना चाहहए। सारे जहााँ से अच्छा, हहदं सु ्तान होना चाहहए। 40

श्री रामनिवास मीिा, कर सहायक जी.एस.टी. (लखे ा परीक्षा-II) मबुं ई नजररया यँू तो सोचता बहतु था, पर सोचा नहीं मंनै े कभी बदलने से ना बदल,े वो जमाना बदल जाएगा नीले गगन में पंछी, फिरंेगे करते कलरव घरों में कै द इसं ान, मायस नजर आएगा थोडे पराए से हो गए, कु छ थे जो अपने सरपट दौडत,े इस फजंदगी की रेस मंे अब दखे ता हँू फिद्दत से, िु ससत मंे अपनों को दरकते ररश्तों मंे, जैसे प्यार भर जाएगा हर तरि थी घटु न, धल और धएं से ऑक्सीजन थी मायस, काबनस के आगोि में प्रदषण फनयतं ्रण मंे कहीं, फलखा नहीं था ये उपाय कोरोना से आकाि का, रूप फनखर जाएगा 41

लोग दखे नहीं सकते यहाूँ, इसं ान मंे इसं ान को और तलािते फिरते ह,ैं पत्थरों में भगवान को मफं दरों में, मफजजदों म,ंे दखे ा फगरजाघरों में भी जजतज थी बहुत, पर नहीं दखे ा भगवान को फिर एक फदन गौर से, दखे ा हर इसं ान को सीमा पर तैनात, वीर फदलवाले को फचलफचलाती धप में, खडे पफु लसवाले को अजपताल मंे दखे ा, सिे द कपडे वाले को फदन रात मेहनत करके , पररवार पालने वाले को तडप गई थी मेरी रूह, जब हर जगह मनंै े दखे ा पर-पीडा की खाफतर, खदु को तडपाने वाले को जो फदखता था, कहीं नहीं, अब फदख रहा ह,ै हर कहीं, बदल गई हंै नजरें, और नजारे भी बदल गए जब से दखे ना िरु ू फकया, इसं ान में इसं ान को... 42

रोज़ सुबह, र्ह पनु जीकर्त होता है। अपनी छह गुणा तीन फीट, ी ब्र से बाहर कन लता है। और अपने सीकमत अस्त्र-शस्त्रों ो सहेज र ू द पड़ता है जीर्न े महासमर मंे, अकभमन्यु ी तरह.....(1) क िं तु उस े पास नहीं है, क सी कपतामह ा आशीर्ााद। ोई अनरु क्ष दल, न ही, चक्रव्यहू भेदने ी ला ा गभा मंे सशु ्रुत ज्ञान। किर भी जूझता है अ े ले! छल- पट, मत्सरता, ु कटलता े महारकियों से, झेलता है असिलता, अपमान, कतरस् ार े गदा-प्रहार, सहता है भय, कनराशा, िंु ठा, क्षोभ े र्ो तीर, और ज़ख्मी हो र, यदु ्ध भकू म मंे असहाय पड़ा, राहता है ममाान्त पीड़ा में, कनिःशब्द.....(2) तभी, साँझा ढले होती है घोषणा यदु ्ध-कर्राम ी। अपनी अर्कशष्ट ऊजाा समेट र, क्षत-कर्क्षत हृदय, मस्तिष्क और शरीर कलए, र्ह पराकजत सा लौट आता है। और समा जाता है, उसी छह गणु ा तीन फीट ी ब्र में, अगले कदन किर से अकभमन्यु बनने े कलए....(3) श्री चन्दन स हिं सिष्ट हायक आयकु ्त, ीमा शलु ्क (सेवानिवृत्त) 43





















श्री दिनेश कु मार वोहरा सहायक आयकु ्त, सदविस टैक्स (सवे ानिवतृ ्त) साहित्य मंे बाज़ारवाद: श्रेष्ठता और लोकहियता का अतं रद्वदं आज के यगु में जब बाजारवाद अपनी चरम सीमा पर ह,ै उपभोक्ता और उपयोगगता के ऊपर भी के वल बाज़ार ही बाज़ार ह,ै ऐसे मंे मन में एक प्रश्न उभर कर आता है गक क्या सागहत्य इस बाज़ारवाद से अछू ता है या नहीं? उदाहरण के गलए कोई वस्तु का गनमाणा होता ह,ै उसकी साज सज्जा होती है, उसका मलू ्य निर्ाारित होता ह,ै गिर वह बाज़ार मंे गवक्रय के गलए आती ह।ै बाज़ार मंे तो के वल क्रय-गवक्रय का चलन होता ह।ै जो अगिक सदंु र होता है के वल वही गबकता है लगे कन ऐसा भी जरूरी नहीं क्योंगक आवश्यकता भी बाज़ार को समदृ ्ध बनाती है। आवश्यकता के इस बाज़ारवाद में जो वस्तु अच्छी तरह से प्रदगशता हो जाती हंै, सजिज जाती ह,ै वह गबक जाती है या उपभोक्ता अनायास ही उसकी ओर आकगषात हो जाता ह।ंै कु ल गमलाकर यह सत्यता सामने आती है गक जो आकगषात करता है अथवा जो मन को भाता है वह लोकगप्रय हो जाता है। यहाँा यह गबलकु ल भी जरूरी नहीं गक वह वस्तु वास्तव मंे गणु वत्ता के आिार पर श्रेष्ठ हो। तो हम इसी क्रम में बात कर रहें थे सागहत्य की। एक लेखक बड़े मनोयोग से गकसी रचना को आकार दते ा ह।ै इस दौरान वह गकसी न गकसी वैचाररक उथल-पथु ल से गजु रता भी ह।ै बड़े मनोयोग से अपने मनोभावों को साकार कर पाठकों को समगपता करना चाहता ह।ै यहाँा रचनाकार की प्रसव-पीड़ा और रचना का प्रसव-काल दोनों ही उसके गलए महत्वपणू ा ह।ैं अुंततः वह रचना एक पसु ्तक के रूप में बाज़ार मंे आती ह।ै दसू रे शब्दों मंे कहंे तो वह बाज़ारवाद की अंिु ी दौड़ मंे शागमल हो जाती ह।ंै कोई तो हो जो उस पसु ्तक को खरीद,े पढ।े पसु ्तक मले े में भी बहुत अच्छी-अच्छी, स्तरीय सागहत्य की पसु ्तकें गवक्रय के गलए सजाई जाती ह।ंै पाठकों का और खरीददारों का वहाँा मजमा लगा होता है। गकन्तु गकतनी गकताबें गबकती ह,ंै यह बहतु बड़ा प्रश्न ह।ै एक रचनाकार अपनी पसु ्तक के माध्यम से गकतने पाठकों तक पहचुाँ पाता ह,ै यह भी एक कगठन प्रश्न ह।ै गकताबों की गुणवत्ता और मौगलकता पर कोई प्रश्न नहीं ह,ै लेखक के भाव और शब्द संुयोजन में भी कोई कमी नहीं है गिर क्यों नहीं गबकती गकताबंे? क्या श्रेष्ठता के मापदडुं बदल गए हंै या गणु वत्ता की पररभाषा? सत्य तो यह है गक लोकगप्रयता और गणु वत्ता सािारणतः साथ-साथ पररलगित नहीं होती। गकन्तु कु छ पौरागणक रचनाएाँ और सागहत्यकार/ रचनाकार इनका अपवाद भी ह।ैं रामचररतमानस, भगवत गीता, रामायण जसै े हमारे सनातन ग्रन्थों की श्रेष्ठता और लोकगप्रयता आज भी स्थागपत है और रहगे ी। गनराला, गगररजा कु मार, पतंु , गदनकर, प्रेमचंदु , महादवे ी, सभु द्रा कु मारी, अमतृ ा प्रीतम, रवीन्द्रनाथ, दषु ्यंतु कु मार, गशवकु मार बटालवी, हररवशंु राय बच्चन, कै िी आज़मी, गलु ज़ार, जावदे अख्तर और नीरज जसै े कई लोकगप्रय और श्रषे ्ठ सागहत्यकार आज भी उतने ही प्रासंगु गक हंै गजतने पहले थे। 54

क्यों एक रचना जो श्रषे ्ठ होती ह,ै वह लोकगप्रय नहीं हो पाती और क्यों कोई लोकगप्रय रचना श्रेष्ठता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती? अतएव इस प्रश्न के साथ मन मंे एक प्रश्न और करवट ले रहा है गक लोकगप्रयता और श्रेष्ठता के मध्य अंतु रगवरोि का वास्तगवक कारण क्या होगा? दरअसल, गजन सागहत्य अथवा सागहत्यकारों को बाज़ार गमल जाता है या कोई ‘प्लटे िामा’ गमल जाता है वे अपने सागहत्य को लके र स्थागपत हो जाते ह।ैं उन्हें अवसर/मौका गमल जाता है अपनी कलम से लोकगप्रयता हागसल करने का। इस समय बाजारवाद का सबसे बड़ा अचकू मंतु ्र है ‘माके गटुंग अथवा पगब्लगसटी’ गजसे हम प्रचार-प्रसार कहते ह।ैं चाहे वह टेलीगवज़न के माध्यम से हो, रेगडयो के माध्यम से हो अथवा समाचार पत्रों से हो। कहते है न ‘जो गदखता है, वो गबकता ह’ै इसी आिार पर वतामान का बाजारवाद िल-िू ल रहा ह।ै आजकल ‘ब्ाुंड’ भी बहतु चलन में ह।ंै के वल नाम से भी सागहत्य या गकताबंे गबकती हंै इसमंे यह गबलकु ल भी जरूरी नहीं गक जो लोकगप्रय होकर गबक रहा है वह श्रषे ्ठ हो ही। क्योंगक यहाँा माके गटुंग और पगब्लगसटी अपना चमत्कार गदखाते ह।ैं लगे कन गजन लखे कों के पास श्रषे ्ठ सागहत्य है, गजनकी कलम में िार ह,ै पनै ापन ह,ै मौगलकता ह,ै सहजता ह,ै सजीवता ह,ै लगे कन वे प्रचार-प्रसार के महगुं े शतरुंज की गबसात नहीं गबछा सकते इसगलए वे श्रषे ्ठ होने के बावजदू भी गमु नामी में खो जाते ह,ंै यह बड़े दखु की बात ह।ै उन्हंे कोई नहीं जानता क्योंगक उनका श्रषे ्ठ सागहत्य लोगों तक पहुचाँ ही नहीं पाता इसीगलए वे लोकगप्रय भी नहीं हो पात।े बाज़ारवाद हमेशा ही नकारात्मक या बरु ा भी नहीं होता क्योंगक इसी बाज़ारवाद ने हमंे नीरज, गलु जार, जावेद अख़्तर, शलै ंेद्र, सागहल, कै िी आज़मी, शकील बदायुनी जसै े गीतकारों से पररचय करवाया और उनके श्रषे ्ठ गीतों से हम पररगचत हएु । इन सभी गीतकारों को गसनेमा का एक गवशाल प्लेटिामा गमला गजससे वे प्रगसद्ध हुए। हालांुगक इस प्लटे िामा के गलए इन्हें भी कोई कम सघंु षा नहीं करना पड़ा। हर प्रगसद्ध सागहत्यकार स्थागपत होने की कीमत चकु ाता ह।ै रातों-रात प्रगसगद्ध नहीं गमलती। उसके गलए संुघषा का ताप सहना पड़ता ह।ै बाज़ारवाद चाहे तो एक गदन मंे लोकगप्रयता की चोटी पर पहुचं ा द,े या नीचे गगरा द,े यह बहतु कु छ लखे क के ऊपर भी होता ह।ै एक बार लखे क स्थागपत हो गया तो वह हर हाल मंे बाज़ार की नस पकड़ कर आगे बढ़ता ह।ै हालागुं क यह दःु ख की बात है गक बाज़ारवाद की इस प्रगतयोगगता मंे कई उत्तम सागहत्य पढ़ने से हम वगुं चत रह जाते हंै इसगलए हम सब प्रयास करंे गक जो सागहत्य अच्छा लगे उसे खरीद कर अवश्य पढ़ं।े सागहत्य मंे आज भी बहुत श्रेष्ठ सागहत्य का सजृ न हो रहा ह।ै लगे कन बाज़ार की महगंु ाई उसे बाज़ार मंे स्थागपत होने का मौका नहीं दे रही ह।ै लोकगप्रयता के मापदडुं तो गनगित हैं लगे कन श्रेष्ठता के मापदडंु इन गदनों समय के साथ बदल रहंे हैं इसगलए आज भी लोकगप्रयता और श्रेष्ठता के बीच का अुंतरद्वंदु हमारे भीतर की गजज्ञासाओुं को तपृ ्त नहीं कर पाता। एक प्रश्न के बाद दसू रा प्रश्न हमारे समि हाथ बाािँ े खड़ा रहता ह।ै (लेखक पररचय: कई समाचार पत्रों मंे वैज्ञाहिक, आहथिक और समसामहयक हवषयों पर सम्पादकीय पषृ ्ठ लेखक) 55

श्री मनोज कु मार ममश्रा, अधीक्षक मुबं ई परू ्व जी.एस.टी. आयकु ्तालय मगर मेरे ग ंाव में अपन पन व हररय ली है बहुत मिया इस गाुंर् ने तझु को, तझु को भी फजव मनभाना है। मपछड़ गया जो मर्कास पथ पर, उसे आगे और बढ़ाना ह।ै अब तो गारुं ्ों से होकर, मर्कास के स्र्मणवम चतभु वजु भी तैयार हैं। संपु कव क्ाुमं त भी गारंु ्ों के , मर्कास का आधार है। बड़ा है तू, मानूुगं ा मफर म,ंै पहले बड़प्पन मिखलाना होगा। खमु ियों की सौगात मलए, गारुं ्ों में तझु को आना होगा। कारण, तेरे िहर में, प्रिषू ण व्यर्साय ह,ै मगर मरे े गांुर् मंे अपनापन र् हररयाली है। 56

अनिष्का निन्हा, उम्र १४ वर्ष िपु तु ्री श्री निनपि कु मार निन्हा, अधीक्षक जी.एि.टी. (लखे ा परीक्षा-II) मुिं ई 57

अनिष्का निन्हा, उम्र १४ वर्ष िपु तु ्री श्री निनपि कु मार निन्हा, अधीक्षक जी.एि.टी. (लखे ा परीक्षा-II) मुिं ई 58

चल गांुव चलंे यह शहर श्री मनोज कु मार ममश्रा, अधीक्षक जी.एस.टी. मंुबई परू ्व आयकु ्तालय सलु गता जलता धधकता और धधुं लाया धक्कम पेल, गाड़ी रेल भागती भीड़.... पीपल, नीम और अमराई चल गाुंव चलें….(१) ममट्टी, हवा जहांु सौमधयाई पलास, रोमल, महुआ की गुधं मितराये फू ल हररयाये खेत बहती नदी, भरा ताल और खेत की रौनक चल पगडण्डी, बैल की शांुमत, और मजधर पररवार चलंे चल गांुव चलें....(२) बरखा से भीगे खेत पी रहे जहाुं आकाशी स्वेत अम्मा बड़ी जहाुं रौंद रही खीर भाग्य िोड़ यह कड़क तंुदूरी चल वही खायेंगंे मबरे की पूरी चल मन मेरे गांुव चलें चल मन, हम दोनों गांुव चलंे….(३) 59 59

श्री प्रियंक राज, प्रिरीक्षक जी.एस.टी. (लखे ा परीक्षा-II) मबं ई राजभाषा हिन्दी प्रहियोहििाएँ \"मंै दनु िया की सभी भाषाओं की इज्जत करता ह,ँू परन्तु मेरे देश में नहदं ी की इज्जत ि हो, यह मैं सह िहीं सकता\" -नििोबा भाि।े \"नहन्दी ि जाििे से गगं ा रहिा बेहतर ह\"ै - राष्ट्रनपता महात्मा गाधँू ी। नकसी भी दशे की पहचाि उसकी भाषा और ससं ्कृ नत से होती है इसनिए दनु िया के िगभग सभी दशे अपिी-अपिी भाषा और संस्कृ नत के उत्थाि और निस्तार के निए सदैि प्रयासरत रहते ह।ंै भारतीय संस्कृ नत और नहन्दी भाषा हम सभी देशिानसयों के निए गिव का निषय ह।ै नहन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है। निद्वािों का मत है नक नजस देश को अपिी भाषा और अपिे सानहत्य के गौरि का अिभु ि िहीं है, िह कभी उन्ित िहीं हो सकता। नहन्दी भारतीय ससं ्कृ नत की आत्मा ह।ै हमारी सनं िधाि सभा िे १४ नसतंबर १९४९ को सिवसम्मनत से नहन्दी को भारत की राजभाषा का दजाव नदया और तभी से यह नदि प्रनत िषव नहन्दी नदिस के रूप में मिाया जाता ह।ै नहन्दी के प्रचार-प्रसार और इसके प्रनत जागरूकता प्रसाररत करिे के उद्देश्य से राजभाषा कायावन्ियि सनमनत द्वारा नहन्दी की निनभन्ि प्रनतयोनगताओं का आयोजि नकया जाता ह।ै इस कायाविय के द्वारा भी नहन्दी की निनभन्ि प्रनतयोनगताएं आयोनजत की गई। इि प्रनतयोनगताओं मंे श्री रामनििास मीिा, कर सहायक, जीएसटी (लखे ा परीक्षा-II) मंबु ई िे उल्िेखिीय प्रदशवि नकया और नहन्दी कनिता रचिा, एकि गायि एिं नहन्दी-अंग्रेजी & अंग्रेजी-नहन्दी अििु ाद इत्यानद प्रनतयोनगताओं में उत्कृ ष्ट प्रदशवि के निए भारत सरकार की ओर से पाररतोनषक के रूप में 5000/- रूपये की िकद प्रोत्साहि रानश हानसि की। हम इनके उज्ज्िि भनिष्ट्य की कामिा करते ह।ैं श्रीमती एस. डी. म्हात्रे, सहायक मख्य लखे ा अधिकारी महोदया, श्री रामनििास मीिा (कर सहायक) को पाररतोनषक प्रदाि करते हुए। 60

आदित्य दिन्हा, उम्र ९ वर्ष िपु तु ्र श्री दिदपन कु मार दिन्हा, अधीक्षक जी.एि.टी. (लेखा परीक्षा-II) मिुं ई मेरी शरारत मंै हूँ एक छोटा बालक, करता मंै रोज शरारत, माँू की नहीं सनु ता बात, पड़ती मुझे रोज डांाट। माूँ बनाती हैल्थी फ़ू ड, मेरा हो जाता ऑफ मूड, मुझे चाहहए फ़ास्ट फ़ू ड, माूँ हचल्लाती ईट हैल्थी फ़ू ड। पढाई मंे नहीं लगता मन, हमेशा चाहहए मुझे फन, माूँ हचल्लाती ओनली लनन, मैं कर देता यू टनन। रोज हिट-हपट चलती रहती, कभी मैं कभी माँू मुझे सताती, हफर भी मुझे मेरी माूँ ही भाती। 61

दृष्टंात: अतीत से श्री तपन कु मटर, सयां कु ्त आयकु ्त जी.एस.टी, बले टपरु आयकु ्तटलय मांबु ई रामायण के अनसु ार, जन-नायक राम की सेना और लकं ापति रावण की सेना में १३ तिन िक यदु ्ध हुआ, जो िशानन की मतृ ्यु के साथ समाप्त हुआ। कतविा में १३वंे तिन का दृश्य 'कतपपि' है, जब अपने तिय पतु ्र 'मेघनाि' के मारे जाने के बाि, तवषािपूणण तकन्िु अत्यंि क्रोतिि रावण, रणक्षते ्र मंे पनु ः अपनी समस्ि शतियों के साथ उिरिा है। अतं िम तिन रावण तकसी के रोके रुकिा नहीं और यहााँ िक तक महावीर लक्ष्मण को भी मूतछणि कर ििे ा है। समस्ि वानर सेना में कोहराम मच जािा है और सभी अपने िाणों की रक्षा हिे ु रणक्षते ्र से पलायन करने लगिे हैं। ऐसे में श्री राम रावण को ललकारिे हैं और एक भीषण यदु ्ध के बाि िमण की पसु ्थाणपना करिे हंै। तकन्िु रावण अपने अिं से पूवण कु छ िश्नों के माध्यम से उतचि-अनतु चि का तवमशण छोड़ जािा ह,ै जो असहज िो है ही, संभविः अनतु ्तररि भी। िमण में आस्था और ईश-तनंिा का भय ही, इसका सवोत्तम समािान है। रही आग बरसिी, सूयण िखर स,े नाि भयंकर, जयूाँ मेघ हों खंतिि, तसिं ,ु चढ़िा-तगरिा-उफनािा ह,ै श्रवण से, वानरिल अकु लािा है, चितु िणश, अपार वेग पवमान बहे, उछाह पनु सणतृ जि राक्षस वीरों मे,ं अतवरल, तत्रकू ट अचल थराणिा ह.ै 01 क्रोिान्मि रावण रण में आिा ह.ै 02 तिखे पार न कोई, गज-अश्वों का, है तवकराल िहे और रि नयन, है अंि नहीं कोई, रथी-रथों का, यज्ञ-भस्माभूतषि, िेतजि आनन, अगतणि आयिु , सतजजि सतै नक, ये पषु ्ट भजु ाए,ाँ वटवकृ ्ष सम जंघा, िानवी लंकाबल, बढ़िा जािा ह.ै 03 लकं ापति हि-व्याघ्र सा घुराणिा ह.ै 04 तवतक्षप्त कंु जर सम, रण मंे िोल,े बरसायंे सहस्त्र, तशतलमखु शोले, काट-काटकर, वानर और भालू, िशानन, ‘चन्रहास’ लहरािा है. 05 62










































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