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कूलंकषा, अंक जून 2023

Published by Anjani Prakashan, 2023-06-04 06:23:18

Description: कूलंकषा, अंक जून 2023

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कू लंकषासाहित्यमासिकe-पत्रिका अकं - जून 2023 स्वर्गीय श्री चन्द्र भषू ण श्रीवास्तव वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय श्री चन्द्र भूषण श्रीवास्तव \"विमल\" पर विशेषांक प्रधान सम्पादक सम्पादक उप सम्पादक मुख्य संरक्षक प्रमोद ठाकु र (ग्वालियर) श्रीकांत तैलंग (जयपुर) डॉ. मजं ू अरोरा (जलंधर) डॉ. विकास दवे



























\" प्रिय खो गया है \" शनू ्य मेें प्रिय आज मेरा खो गया है। हर झनक उन पायलों की, ढूंढ लं गू ा मैैं, उसे शत निमं त्रण। अटल विश्वास मझु को हो गया है। हर ढलकती बं दू , मरे ा, हर सांस जो चलती रही, एक सावन। कहती रही अपनी कहानी। जिस जगह पावन चरण तरे े पड़े, दो हिचकियों के फासले पर, हर ठौर मरे ा आज तीरथ हो गया है। बोलती यह जिंदगानी। शून्य मेंे प्रिय आज -------। हर डगर इस मार््ग का परिचित नहीं है। हर नयन जो जल भरे, कौन जाने कौन पग हो जाय होनी। तरे े नयन। सुप्त चते न को सजगकर, सं वरकर, हर किरण आलोक मय, तरे ी किरण। चिर नीदं मेंे प्रिय आज मरे ा सो गया गया है। हर सिसकते प्राण, शनू ्य मेंे प्रिय आज ----। तरे ी ही निशानी। हर चिता की राख, हर सिंदरु ी मांग कहती मैैं वही हूूं, तरे ी ही कहानी। जो दिखाती मार््ग जीने का सदा। हर महकते फू ल, गोल बिंदिया झाकं ती हर भाल की, झरते धलू मेे,ं प्राण विह्लल को थमा देती सदा। हर छवि है किं तु मूरत वह नहीं है, आभास तेरा आज मुझको हो गया है। पणू ्य मेें अभिशाप जसै ा हो गया है। शनू ्य मेें प्रिय आज मरे ा खो गया है। शून्य मेंे प्रिय आज -------। ढूंढ लं गू ा मैैं उसे, हर मधरु मसु ्कान तरे ी एक शतदल। अटल विश्वास मझु को हो गया है। हर खनक उन चड़ू ियों की, तं ुग उर बल। इंदिरा गिरा ध्वनित, \" इं दिरा - गिरा \" साठ कोटि कं ठों का दिशा दिशायेंे हो गईं। कं ठ हार हो गईं श्यामला, समजु ्जवला, सुरभित के साथ साथ, निशा, निषाएं हो गईं॥ गं ध नई हो गईं। सं जय का प्राण दान, रौप्य सरि, स्वर््ण शलै , क्या यही था इक निदान, हीरक सी गलै गैल, बीस सतू ्र गर््जनी की एक तजे पतु ्र खो आप ! भारती के भाल पर, तर््जनी उठी जिधर, उषा उषायेें बो गईं॥ उधर ही विश्व की सभी, महान हो गईं। स्वर््णणिम यह सु प्रभात, निगाह निगाहेें हो गईं। इंदिरा - गिरा ध्वनित, पुलकित सब गात गात, अस्त व्यस्त, धरती के , दिशा दिशाएं हो गईं। आं चल सुव्यस्त आज, जून, 2023 मट मलै े हाथों के , उज्ज्वल सब साज काज 15

\"श्रम - दीप आज सुलगाना है। \" उठो धरा के लाड़लों ! जीवित लाशों के आर््तनाद, श्रम दीप आज सुलगाना है। भूखो,ं नं गों का ये क्रं दन। युग यगु से छाये अंधकार को, कब तक और सहेेंगे हम, मिलकर आज भगाना है। परदेशी के दारुण बं धन। उधर दरू प्राची मेें अपन,े मिला कन्ध से कन्ध, काली छायाएं उठी हुई हैैं। कु दालेें लेें हाथों मेंे, इधर निकट पश्चिम मेें अपन,े बोवेंे श्रम के बीज, माटी लाली से सनी हुई है। तोड़ बं धन आलस के । यदि प्रकाश हम करेंे ऐक्य का, उठो परिश्रम से भारत की, काली छाया सब हट जायगे ी। कर््म शिखा चमकाना है। यदि बीज बोवेंे हम श्रम का, उठो धरा के लाड़लों ! लाली हरियाली हो जावगे ी। श्रम - दीप आज सुलगाना है। श्रम सीकर की बं ूदों से, भारत मां का भाल सजाना है। उठो धरा के -----। \"अभी मेरे युग का तुलसी पैदा नहीीं हुआ \" हे राम ! तमु ्हारा रुदन विश्व का रुदन बन गया। मरे े दीपक मेें शेष रही के वल एक बाती। रामायण लिख गई, विश्व का गान बन गया। स्नहे चुक गया, राख रह गई दीप शिखा का नाम रह गया। सीता तो तुम्हारी के वल छल से हरी गई थी। रामायण लिख गई, विश्व का गान बन गया। लक्ष्मण रेखा लाघं दरू वह चली गई थी। कौन हुआ अपना इस जग मेें कब न हुआ मरण यहां ? सीता मरे ी छिन गई काल के कलषु ित कर से, क्या जीवन रेखा देव! यहीं तक खिं ची गई थी ? कब न अधूरे गीत रहे प्रिय!, कब न अधूरा सजृ न यहां ? तमु वभै वशाली, राज पुत्र साधन सम्पन्न। तुम भी तो परित्याग कर गये, सीता जसै ी नारी का, मैैं साधारण सा मनुज पतु ्र हूूँ एक अकिं चन। बोलो क््यों कर गए मौन तुम! यह कै से अन्याय हुआ ? मरे े मानस का राम तमु ्ेह देगा उत्तर, इतने पर भी खोज न पाये और रो दिय,े अभी मेरे यगु का तुलसी पदै ा नहीं हुआ, रुदन आपका, जगती का सीता का दर्दीला जीवन, गीता सा सम गान बन गया। अभिमान बन गया। रामायण लिख गई विश्व का गान बन गया। रामायण लिख गई, विश्व का गान हो गया। प्रेरित कवि का हृदय लिख गया जीवन थाती। 16 जनू , 2023

























साईकिल के जो बिछड़ गया जमाने मेंे फिर ना मिला दोस््तों को पीछे बिठाकर, जो बिछड़ गया, फिर ना मिला, साईकिल की घण्टी बवे जह बजाते जाना, हम ढूँढते ही रह गये। रो-रो के आँ खेें थक गयी, एक शोक था साईकिल के जमाने मेें। आँ सू भी सारे बह गये। अपने कद से बड़़ी साईकिल, कु छ शिकवे उनको हमसे थे, बड़़ी साईकिल पर छोटी सवारियाँ , कु छ हमको भी थी शिकायते।ें अनोखे सपनों की सवारी थी एक जमाने मे।ंे जो पसं द न आयी मझु े, दोस्ती पर अंधा भरोसा करके , बदली न उनकी आदते।ंे दोस्ती निभाने साईकिल पर चढ़ जाना, कु छ वो तनु ककर चल दिय,े ऐसा भी दोस्ताना था साईकिल के जमाने मे।ंे कु छ हम अकड़के रह गये। साईकिल की वह पहली सवारी, बीते दिवस पर दिवस, सपनों के जी उठने की खशु ियों से भरा, कितने बरस बीते पता नही। एक अनोखा सपना रहा था उस जमाने मे।ंे आँ खेंे तरसकर रह गयी, दोस््तों का पीछे दौड़ता शोर, पर दरस तेरा मिला नही।ं मस्ती मेें दौड़ आता था साईकिल के पीछे, आकर बसन्त चला गया, साईकिल भी के ची चलाते थे जिस जमाने मे।ंे हम देखते ही रह गये । साईकिल की दौलत लेकर, चातक चिढ़ाये पुकार कर, दोस््तों से साईकिल की रेस लगाना, कोयल की कू क है हूक सी। बड़़ी मजदे ार जीत-हार थी उस जमाने मेें। शशि की वो शीतल चाँ दनी, साईकिल को दलु ्हन-सा सजाकर, सबका अपनी साईकिल सं ुदर बताना, चभु ती है तीखी धूप सी। एक सं दु र जमाना था साईकिल के जमाने मेें। सावन की जब झड़़ियाँ लगी, तो हम झुलस के रह गये। अनिल कु मार के सरी अनिल कु मार वर््ममा “मधरु ” भारतीय राजस्थानी 29 जनू , 2023






















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