कू लकं षासाहित्यमासिकe-पत्रिका अकं जुलाई-अगस्त, 2023 (ऑस्ट्ेरलिया संस्करण) 1अ6ंक डॉ. अजय त्रिपाठी \"वाकिफ़\" (य.ू के .) वरिष्ठ साहित्यकार श्री अजय त्रिपाठी वाकिफ़ लन्दन (यू.के .) पर विशषे ांक मखु ्य संरक्षक प्रधान सम्पादक सम्पादक उप सम्पादक डॉ. विकास दवे प्रमोद ठाकु र सषु मा गर््ग मिष्ठा सरिता श्रीवास्तव अणिमा शुक्ल भोपाल, भारत ग्वालियर, भारत सिडनी, ऑस्ट्ेरलिया धौलपुर (भारत) गढ़वा, भारत
कू लंकषा सम्पादकीय साहित्य मासिक e-पत्रिका वर््ष : 0 । अंक : 0 । जून, 2023 । मूल्य : 00/- सषु मा गर््ग मिष्ठा सिडनी (ऑस्र्ट ेलिया) मुख््य सरं क्षक कू लं कषा पत्रिका निरंतर नए आयाम तय कर रही है। आज एक ऐसे ग़ज़लकार से आपको रूबरू कराने जा रही है। जो अपनी कलम से विदेशी डॉ. विकास दवे फिज़ाओं को महका रही है। आपकी लिखी गज़लेंे देश-विदेश मेें पढ़ी जा रही है। (निदशे क - हिदं ी साहित््य अकादमी जी हाँ , मै बात कर रही हूूँ एक ऐसे ही ग़ज़ल निगार डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ भोपाल, मध््य प्रदशे , भारत सरकार) जो बर््ममिघम (य.ू के ) मेंे रह कर हिंदी साहित्य को नए आयाम दे रहेंे है। डॉ अजय त्रिपाठी वाकिफ़ की ग़ज़लो के माध्यम से उनकी साहित्यिक जिंदगी से रूबरू होगं ।े मुख््य सपं ादक कू लं कषा पत्रिका उनका आज विशेषांक प्रकाशित कर अपने आपको गौरान्वित कर रही है। प्रमोद ठाकु र (ग््ववालियर), भारत आपका एक ग़ज़ल सं ग्रह प्रकाशित हो चुका है। डॉक्टर अजय त्रिपाठी सपं ादक वाकिफ़ एक अच्ेछ डॉक्टर होते हुए एक अच्छे ग़ज़लकार भी है। इस अंक को पढ़कर आप यही कहेंेगेें कि डॉ अजय त्रिपाठी वाकिफ़ की साहित्यिक यात्रा सषु मा गर््ग मिष्ठा, सिडनी, ऑस्ट्रेलिया अनवरत जारी है। डॉक्टर अजय त्रिपाठी वाकिफ़ जी को अनन्त शभु कामनाएं । उप सपं ादिका उप सपं ादकीय अणिमा शकु ््ल गढ़वा, भारत सरिता श्रीवास्तव “श्री” सरिता श्रीवास््तव, धौलपरु (भारत) धौलपरु (राजस्थान ग्राफिक््स अनोखे रिश्ेत से जडु ़़ा होता है परिवार। आपस मेें खनू का रिश्ता तो है ही अजं नी प्रकाशन जो सबसे मजबूत है, किन्तु थोड़़ा ऊपर उठेंे तो इस ख़ऩू के रिश्ेत को सर््ववाधिक कोलकाता, भारत मजबतू ी देता है! वह है अहसास! प्रेम, प्यार, स्ेनह का अहसास! एक-दसू रे की दरू भाष : +918820127806 अहमियत का अहसास! खदु को पीछे रख के प्रियजन की खशु ी और जरूरतेंे पूरा करने का अहसास! सबसे अहम है, हर खशु ी और हर छोटी-बड़़ी परेशानी मेंे प्रकाशन सम््पर््क सतू ्र मजबूती के साथ एक-दसू रे के लिए खड़े़ रहने का अहसास और विश्वास। महशे परु ा, अजयपरु रोड, सिकन््दर कम््पपू, माता-पिता बच््चों के हाव-भाव और उनकी कार््य शैली से तरु न्त भापं जाते लश््कर, ग््ववालियर, मध््य प्रदशे - 474001 है कि बच्चा किसी समस्या से ग्रसित हैंै। दरू भाष : +919753877785 कोई परेशानी है। पिता या माता बिना कु छ कहे परेशान बच्ेच के सिर पर ई-मले : [email protected] प्यार से हाथ रखेंे या सहलाएं तो बच्चा बिना बोले ही अहसास करेगा कि मेरी परेशानी उन््होंने भापं ली है वह समस्या अवश्य सलु झा लेगंे े। नोट: पत्रिका मेंे प्रकाशित लखे ों से सं पादक या सं पादक मण्डल की सहमति यह होता है। एक अहसास! विश्वास और अपनों का स्पर््श। अनिवार्य् नहीं है। किसी भी विवाद के निस्तारण का न्याय क्षेत्र ग्वालियर, मध्यप्रदेश, भारत होगा। 2 जून-अगस्त (संयकु ््तांका ), 2023
अणिमा शुक्ल उप संपादकीय गढ़वा (भारत) हवा के पं ख लगा भारत से शरु ू हुई मासिक ई पत्रिका कू लं कषा का सफर अब विदेशी धरती पर सरिता की तरह इठलाते हुए यह साहित्यिक पत्रिका हिंदी साहित्य की एक अविरल धारा बन गयी है। यह अविरल धारा न जाने कितने हिंदी साहित्य मरुस्थल देशों को अपने हिंदी साहित्य से गुलज़ार करेगी। अभी तो हिंदी साहित्य की इस धारा ने ऑस्रट् ेलिया मेें हिंदी साहित्य से ऑस्रट् ेलिया की भमू ि को हरा-भरा किया है। अब न जाने यह कू लं कषा किन-किन देशों को हिंदी साहित्य से हरा-भरा करेगी। कू लं कषा मासिक ई पत्रिका के प्रधान सं पादक आदरणीय प्रमोद ठाकु र जी को अनन्त शुभकामनाएं जिन््होंने विगत आठ माह मेें भारत, ऑस्रट् ेलिया और लन्दन तक पत्रिका को पहुँुचाया। आज मैैं भी इस पत्रिका का हिस्सा बनकर अपने आपको गौरान्वित महसूस कर रही हूँू। डॉ अजय त्रिपाठी डॉ अजय त्रिपाठी वाकिफ़ का ग़ज़लनामा वाकिफ़ का व्यक्तित्व प्रमोद ठाकु र डॉ.मंजू अरोरा (ग्वालियर), भारत जालं धर (पं जाब) डॉक्टर का पशे ा और ग़ज़ल लेखन कितना अतं र नज़र आता है। एक अगर मैंै यह कहूँू कि विदेशी धरती पर ग़ज़ल की शायर जो ख्यालों मेंे शब््दों के स्वर और व्यं जनों को कलमबद्ध कर एक ग़ज़ल नुमाईंदगी करने वाले एक ही शख़्स ही उम्दा ग़ज़लकार का सजृ न करना और दसू री तरफ एक डॉक्टर का पशे ा, वही दवाइयाँ , वही है। जो ग़ज़ल के फ़न मेंे माहिर है। तो यह अतिशयोक्ति मरीज़ और वही डॉक्टरी उपकरण लके िन इन जनाब को कोई फर््क नहीं नहीं होगा। ऐसे ही एक ग़ज़लकार है। बर््ममिघम (यू.के .) पड़ता। जितनी जिम्ेदम ारी से ये अपना पशे ा निभाते है। उससे कहीं अधिक के डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ जो पेशे से डॉक्टर है लके िन सादगी से साहित्य का सृजन करते है। अब आप लोग सोच रहेंे होगं े कि मैंै बहतरीन ग़ज़लों का सजृ न करने वाले एक हरफ़नमौला किसकी बात कर रहा हूँू। तो आपको बता दँ।ू यह है विदेशी भूमि (यू.के ) ग़ज़लकार भी। इनकी ग़ज़ल पढ़कर मुझे एक मशहूर पर हिंदी साहित्य को नए आयाम दे रहेंे। डॉ अजय त्रिपाठी वाकिफ़ जी, यह शायर की याद आती है। जनाब अमीर कज़लबाश की ज़नाब बर््ममिघम (य.ू के ) मेंे रहते है। डॉक्टरी इनका पशे ा है। और शौक है। उनकी एक ग़ज़ल थी। जिसे गाया था लता मं गेशकर और निराला! ग़ज़ल लेखन और क्या खबू लिखते है कि--- सरु ेश वाडेकर साहब ने कि--- कु छ भी खोया नहीं कु छ भी पाया नही।ं कि मझु को देखोगे जहाँ तक इस गलु शन मेें कहीं दिल लगाया नही।ं मझु को पाओगे वहाँ तक तरे ी चाहत ने मुझको वो सदमा दिया। रास््तों से कारवाँ तक अब तो मैंनै े यहाँ कु छ भी चाहा नही।ं इस ज़मी से आसमां तक मैंै ही मैैं हूँू, मैंै ही मैंै हूूँ। ज़नाब की ग़ज़ल के एक-एक हरूफ़ दिल मेें उतर जाते है। आपकी एक ग़ज़ल है। जो मुझे बहुत पसं द है कि--- सही कहा था कज़लबाश साहब ने मुझे भी यही लगता है। कि डॉक्टर साहब की कलम भी यही कहती है। किसने खोले राज़ हमारे पता नही।ं कि मैैं ही मैंै हूँू। मैंै तो कहती हूूँ कि अगर डॉक्टर साहब दीवारों के कान तो है, पर जबु ां नही।ं की ग़ज़लों को सं गीतबद्ध किया जाये तो हिंदसु ्तान को अपना ही होगा जिसने ये दगा दिया। एक अच्छा ग़ज़ल की नमु ाईंदगी करने बाला शख््स मिल ग़रै ों को तो हमारे राज़ पता ही नही।ं जाएगा। आपका एक ग़ज़ल सं ग्रह और कई साझा सं ग्रह प्रकाशित हो चुके है। आपकी साहित्यिक यात्रा अनवरत यह वो ग़ज़ल है। जो पशे े से एक डॉक्टर अजय त्रिपाठी वाकिफ़ जारी है। अनन्त शुभकामनाएं ... बर््ममिघम (य.ू के ) की कलम से निकली है। नमन है आपकी कलम को, आपकी साहित्यिक यात्रा जारी रहेें। राम-राम ऑस्ट्रेलिया ससं ्करण 3
अनुक्रमणिका क्र. शीर्षक् पृष्ठ वक़्त का दरिया 1 सं पादकीय एवं उप सं पादकीय 2-3 वक़्त के दरिया मेंे बह जाना ठीक नहीं 2 डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ का ग़ज़लनामा : प्रमोद ठाकु र 3 चपु के -चपु के सब सह जाना ठीक नहीं 3 डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ का व्यक्तित्व : डॉ. मं जू अरोरा 3 4 वक़़ील साहिब की दावत : डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ 5 आए हो तो हर-दम साथ रहो मेरे 5 डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ की कविताएं 6-17 महमानों सा आना-जाना ठीक नहीं ठोस इरादा और लगन आवश्यक है आलेख, कहानी, लघकु था एवं अन्य लेख : – 18 रुक-रुक कर यँ ू क़दम बढ़़ाना ठीक नहीं 19 बोलो उतना ही जितना तुम कर पाओ 6 नारी जीवन \"परकाष्ठा या समर््पण\" (लघकु था) : रीमा महेंेद्र ठाकु र 20 सबको झठू े ख़््वाब दिखाना ठीक नहीं 7 सं बेदनहीन होती इंसानियत (सत्य घटना पर आधारित कहानी) : मणि बने द्विवदे ी 21 वसै े तो सब कु छ चलता है दनु िया मेें 8 विदाई (लघकु था): अजित कु मार कुं भकार 22 मज़हब की सरकार चलाना ठीक नहीं 9 ख़जाना (कहानी) : सविता मिश्रा 'अक्षजा' 23 10 धमू िल होती गुरु-शिष्य की महत्ता (आलेख) : भीम कु मार 24 ऐस-े वैसे लोगों के बहकाने पर 11 सं घर््ष (कहानी) : अजय शर््ममा 25 “वाक़़िफ़” पर इल्जज़ाम लगाना ठीक नहीं 12 बिल्ुक ल झठू (लघुकथा) : माला वर््ममा 13 नतै िकता का पर््ययाय (आलेख) : डॉ. अर््चना वर््ममा दिल के राज कविताएं : – 26 दिल मेें कितने राज़ छुपे बतलाओ ना 26 जलवा अपना हम को भी दिखलाओ ना 14 कौन हो तमु : रंजना लता 27 15 मर््द हूँू मैैं कु छ ना कहता हूँू : वीना आडवाणी तन्वी 27 कितना वक़्त लगाया तुमने आने मेंे 16 जातिवाद एक अभिशाप : गजराज सिंह 28 देखो अब तमु इतनी जल्दी जाओ ना 17 मनहरण घनाक्षरी : राज किशोर वाजपेयी \"अभय\" 28 लाखों नज़रेंे देख रही हैैं तुम को ही 18 जिंदगी अधूरी क््यों लगती : डॉ. अरुण प्रताप सिंह भदौरिया 29 सब लोगों को इतना तमु तड़पाओ ना 19 बाबजू ी !! : शखे र \"अस्तित्व\" 29 बातों ही बातों मेंे दिल को ले लने ा 20 मसु ्कु राहटेंे : भावना सोनी 'भाव' 30 किस से सीखा है तमु ने बतलाओ ना 21 छुट्टी : डॉ. ज्योति प्रियदर््शशिनी श्रीवास्तव 30 जब जी चाहे खुल के तमु इज़हार करो 22 मुहोब्बत पाक है (ग़ज़ल) : अभिलाज चावला 31 “वाक़़िफ़” से कै सा शर््ममाना, आओ ना 23 मजदरू (ग़ज़ल) : भानु झा 31 24 महु ोब्बत के झरोखे (ग़ज़ल) : शायर देव महे रानियाँ 32 25 अके लापन : नीना महाजन नीर 32 26 बुजरु ्गगों की अहमियत : कमलदीप कौर 33 27 साँ सों के रहते मकु ्ति नहीं मिलती : डॉ. विनय कु मार श्रीवास्तव 33 28 अगर आप... मगर आप... : गरिमा राके श गौतम 'गर््वविता' 33 29 मरे े पिता : डॉ. आर बी पटेल 'अनजान' 34 30 सच को भी तोला गया है : निर््भय नारायण गुप्त 'निर््भय' 34 31 मर््द को दर््द नहीं होता...? : अनिल कु मार के सरी 35 32 नवगीत : डॉ. अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' 35 33 पावस ऋतु : नागेश्वरी 36 34 गीत-उं गली किस-किस पर... : शिखा गर््ग 36 35 नई दनु िया : देवप्रिया 'अमर' तिवारी 37 36 जीवन का पतझड़ : विशाल जनै 'पवा' 37 37 वारिस : प्रीति अभिषेक दबु े 38 38 बावरा मन : सीमा भावसिहका 38 39 अन्ेषम : सनु ीता के सरवानी 39 40 तयै ार हूँू मैैं : डॉ. मं जु अरोरा 40 41 विज्ञापन 42 कू लं कषा पत्रिका के साथ इस अंक मेें पं जीकृ त साहित्यकारगण 4 जून-अगस्त (संयकु ््तांाक), 2023
कहानी वक़़ील साहिब की दावत डॉ. अजय त्रिपाठी वाकिफ़ बर््ममिघम (यू.के .) आ ज शनिवार है। विदेशों मेंे इस दिन का ख़़ास बुलाया। कै से कोई ख़़ुद ही अपनी बे-इज़्ज़ती कर लेता है महत्व है। सोमवार से शकु ्रवार तक काम करने ऐसे सवालात कर के । वक़़ील साहिब का बस चल तो दो- के बाद, इस दिन थका-माँ दा इंसान अपने-अपने तरीक़़े से तीन लोगों के सिवा किसी से ना मिले।ें वो पुरुष थे, ऐसा तनावमुक्त होना चाहता है। कोई मयखाने की तरफ़ निकल सोच सकते थे, शायद कर भी सकते थ।े परंतु उनकी पत्नी पड़़ा है तो कोई नाइट क्लब के बाहर लाइन मेें लगा है। व्यवहार कु शल थी,ं समाज की बारीकियों को उनसे बहे तर कोई प्रेमिका के साथ है तो कोई प्रेमिका की तलाश मेंे समझती थी।ं लोगों को बुला लेती थी-ं कभी मन से कभी है। कोई जिम मेें पसीना बहा रहा है तो कोई तरणताल अनमने। के किनारे बैठ अपनी तपन मिटा रहा है। इन सब चीज़़ोों के साथ-साथ वीक-एं ड पार््टटियाँ भी होती रहती हैंै। ऐसी तो आज भी पार्टी है। शाम सात बजे का निमं त्रण है। ही एक पार्टी आज वक़़ील साहिब ने आयोजित की है। ये पहला मेहमान आठ बजे भी पहुँुचे तो ग़नीमत समझिए। एक ऐसा सं योजन है जिसके चर्ेच आने वाले कई दिनों तक भई तैयार होने मेें वक़्त तो लगता ही है। हर आमं त्रित घरों मेें, सोशल मीडिया पर, वहाट्सप्प ग्रुप पर होते रहेंेगे। ये महिला पिछले पाँ च हफ़्तों से पशोपश मेंे है कि क्या पहना एक सनसनीख़़ेज़ शाम होगी। आहिस्ता-आहिस्ता आपको जाए पार्टी में।े अलमारियाँ ख़़ाली कर ली हैैं। सारे लिबास समझ आएगा। बिस्तर पर सजे हैंै। एक-एक कर के पहने जा रहे हैैं। आईने के सामने हर कोण से अपने आपको परखा जा रहा कु छ वर्षषों पहले तक, पार्टी आयोजित करने मेंे वक़़ील है। ख़़दु को ही ख़़दु की छवि पसं द नहीं आ रही है। ऐसे साहिब और उनकी पत्नी को बहुत आनं द आता था। बड़े़ लिबास की तलाश है जो उन्हहें ख़बू़ सरू त बना सके । अतं मेें चाव से अतिथि सचू ि बनाई जाती, निमं त्रण भेजे जात,े खाने थक कर ऐलान किया जाता है, “मरे े पास तो कु छ पहनने का मेन्ूय बनता, घर की साफ़-सफ़़ाई होती, शाम से ही घर को है ही नही,ं क्या करूँू ?” पति एक असहाय, मढू ़ जीव मेें सारी बिजलियाँ चमकने लगती और नपे थ्य मेें, धीमी की तरह कभी बिस्तर पे फै ले लिबास देखता है तो कभी आवाज़ मे,ंे पुराने मनभावन फ़़िल्मी गाने चला दिए जात।े अपनी जेब की गहराई टटोलता है और फिर मन ही मन महे मान वक़्त पे आते थे, अच्छी-अच्छी बातेें भी होती, मेंे वक़़ील साहिब की पार्टी को कोसता हुआ कहता है- शालीनता की सीमा मेें मदिरापान भी होता और फिर होता no problem darling, let’s go out and buy था सं गीत। वक़़ील साहिब अच्ेछ गायक थे। मनमोहक something nice for you. अन्दाज़ था। वास्तव मेंे बहुरंगी प्रतिभा के मालिक थे। अच्छा गाते थ,े अच्छा बोलते थ,े शायरी का शौक़ था, हर आठ बज गए हैैं। मेहमान आने लगे हैंै। महिलाएँ एक महफ़़िल मेंे छा जाते थे। से बढ़ कर एक परिधान पहने हैैं- कु छ लम्ेब तो कु छ बहुत छोटे, कु छ ढील-े ढाले तो कु छ इतने तं ग कि दर्जज़ी ने कौन लेकिन पिछले कु छ वर्षषों से समाज मेें काफ़़ी तेज़़ी से से धागे इस्तेमाल किए हैंै एक अचरज का विषय मालूम परिवर््तन आया। लोगों मेें अच्छे-बरु े की समझ ना रही। होता है। सभी महिलाएँ एक दसू रे की सं ुदरता बखान कर छिछोरापन उभर के आने लगा। अब पार््टटियाँ करना एक रही हैंै, एक दसू रे के लिबास की तारीफ़ कर रही हैंै। अजब तनाव का विषय था। किसे बुलाएँ , किसे ना बुलाएँ । लोग तमाशा है। सब को पता है सब झठू बोल रहे हैंै, फिर भी अपनी मर््ययादा व स्वाभिमान खो चुके थे। न बुलाने पर सब ख़़ुश हैंै। ये आज का समाज है। घर के एक कोने मेें पछू लेते थे और कु छ तो लड़ भी लते े थे कि हमेें क््यों नहीं अब फ़़ोटो सेशन चलगे ा। हज़़ारों तस्वीरेें ली जाएँ गी। हर ऑस्ट्ेरलिया ससं ्करण 5
महिला परू े झं ुड मेें सिर्फ़ अपना फ़़ोटो देखेगी और नाक-भौं सिकोड़ ज़़िंि दगी एक लहर के कहेगी, “मरे ी ठीक नहीं आई, फिर से लेते हैैं”। देर तक चलगे ा ये कार्कय् ्रम। इक लहर आती रही इक लहर जाती रही उधर सारे मर््द लोग मयखाने की तरफ़ चले गए हैंै। जाम चल मैैं किनारे पर खड़़ा था रहे हैैं, भद्दे चुटकु ले हो रहे हैंै, बिना वजह के ठहाके लिए जा रहे और खड़़ा ही रह गया हैैं। वक़़ील साहिब और एक-दो मित्र असहाय देख रहे हैैं, पार्टी शरु ू आज कल की सोचता होने से पहले ही ख़त्म होने का इंतज़़ार कर रहे हैंै। बातेंे तो ख़ू़ब हो कल सोचता था आज की रही हैंै मगर सब खोखली। कौन सी फ़़िल्म देखी, किस का किस वक़्त निकला मैंै उसे बस से प्रेम चल रहा है, कौन किस हॉलिडे से आया है या कहाँ जा रहा देखता ही रह गया है। कु छ राजनतै िक विशेषज्ञ भी आए हैंै जिनकी नज़रों मेें सब नेता ये हमारी ज़़ििंदगी का एक ऐसा सच है जो बेकार हैंै, कु छ मज़हब पर बहस कर के गरम हो रहे हैैं, कु छ क्रिके ट जानते हैैं सब मगर मेें corruption और match fixing की बात कर रहे हैैं। मनाने से है परहेज़ आज मेें जी लेंे अगर इतने मेें स्टारटर्ज़ लग गए हैैं। अचानक कु छ देर के लिए तो ज़़ििंदगी ज़़ििंदा रहे फ़़िज़़ा मेंे ख़़ामोशी आती है, कु छ खाया जाता है और फिर सारा कौन समझाए हमें?े समहू मयखाने मेें फिर जा पहुुँचता है। अब मदिरा अपना रंग दिखा रही है। महिलाएँ भी बढे ंगे मज़़ाक़ करने मेें मर्ददों से पीछे नहीं हैैं, झूठे इल्जज़ाम और क््यों हो, आज के समाज मेंे परु ुष और नारी समान ही तो हैंै। मदिरापान का एक मज़़ा ये है कि आपको कु छ मालमू ही नहीं कि सुनो इक घाव ताज़़ा चाहता हूँू क्या हो रहा है, कौन क्या कह रहा है। बस एक स्वचालित यं त्र की मगर सब से छुपाना चाहता हूँू तरह हर दस पं द्रह सके ं ड मेंे हँसना होता है। आँ चल सरक रहे हैैं, कु र््ससियों पर बैठने वालों को अपनी छोटी ड्रेस का ख़याल नहीं है। चला वो लटू कर घर-बार मेरा कु छ ऐसे भी लोग हैैं जो इन नज़़ारों का लुत्फ उठा रहे हैैं। कहते हैैं न ज़ख़्मों को दिखाना चाहता हूूँ कि भारतीय लोग बहुत मिलनसार होते हैैं, जहाँ जाते हैंै वहीं के हो जाते हैंै। इस पार्टी मेें ये बख़ूब़ ी नज़र आ रहा है। दिन मेें भारतीय यहाँ कब कौन कै सा कर रहा है सं स्कृति की दहु ाई देने वाले लोग शाम को किस क़दर अगं ्रेज़ बन ख़दु़ ा को सब बताना चाहता हूँू जाते हैंै ये देखने के बात है। सभी इल्जज़ाम झठू े ही लगे थे पहले स्टारटर्ज़ के बाद अक्सर वक़़ील साहिब कु छ अच्छी ये सर फिर भी झुकाना चाहता हूूँ शायरी सनु ाते थे व कु छ अच्ेछ गीत सुनाते थ-े पर अब उनका मन नहीं करता। कै से बीन बजाएँ भैसैं ों के सामने, और क््यों बजाएँ ? वैसे वो हमदम हो या वो दशु ्मन हो मेरा भी ज़््यादातर लोग रक़्स करना चाहते हैैं दसू रों की पत्नियों के साथ, मैंै ‘वाक़़िफ़’ हूूँ सभी को चाहता हूँू उन गानों पर जो कभी महान होते थे लेकिन आजकल उनकी आत्मा को निकाल कर शोर-शराबे वाले ढोल बजा कर रीमिक्स कर दिया गया है। सचमुच, आदमी की भी तो आत्मा खो गयी है, आज का आदमी एक रेमिक्स जीव है, नाचो, जी भर के नाचो। खाना लग गया है, सारी जमात पेट पूजा कर रही है। जो खा चकु े हैैं, अपनी व्यस्तता की दहु ाई दे कर खिसकने लगे हैंै। शोर आहिस्ता-आहिस्ता कम हो रहा है। अब दो-तीन ही दोस्त बचे हैंै- अलग क़़िस्म के । अब कु छ बातेंे भी होगं ी कु छ देर। फिर वो भी चले जाएँ ग।े वक़़ील साहिब और पत्नी थक चकु े हैैं सो जाएँ गे। कल सबु ह जब रसोई साफ़ करेंेगे तो फिर सोचेगें े- अगली पार्टी मेें किसे बुलाएँ गे या किसे नहीं बुलाएँ ग।े 6 जून-अगस्त (संयकु ््तांका ), 2023
है याद मुझे है याद मुझे फिर एक दिन वो भी आ पहुुँचा आया हूूँ तो सब बदल गया है याद मझु े वो गलियारा जब मुझ को दरू ही जाना था पनघट, चक्की, झूले, मं दिर वो इक आँ गन वो चौबारा विद्या अर््जजित कर के अपना कोई मुझको ना बता सका वो चं चल बहती शोख़ नदी जीवन ये सफल बनाना था दादी को कहाँ सलु ाया है मादक समीर वो वन प्यारा उस कु म्हलाए से चेहरे पर वो प्रेम मूर््तति कहाँ गई वहाँ ऊँ चे थे कु छ पडे ़ बहुत रेखाएँ कु छ थर्राई थीं जीवन की पँ ूजी कहाँ गई जो नभ को छुपा ही लेते थे शिक्षा की देवी कहाँ गई उनके पत््तों को बीधं -बीधं प्यार भरी वो आँ खेें फिर वो एक कहानी कहाँ गई और फिर धरती पर गिर-गिर कर झिलमिल-झिलमिल हो आई थीं है कौन मझु े जो बतलाए छाँ व और धूप के कु छ टुकड़़े मैैं जीवन मेें यँ ू क््यों हारा मैैं छोड़ चला फिर साथ तरे ा क््यों छूट गया था प्रभु मरे े आपस मेें खले ा करते थे और सफ़र बना जीवन सारा वो एक आँ गन वो चौबारा जाने किस मोड़ पे छूट गया उस आँ गन मेें ऐ दादी तमु वो एक आँ गन वो चौबारा अपने आँ गन से प्यार करो मुझको ख़़ूब खिलाती थीं कब बचपन के वो खेल-खिलौने अपने गलियारे मेंे खेलो अच्छाई का सच्चाई का अपनी नदिया के तीर चलो मुझको नित पाठ पढ़़ाती थीं छूट गए कु छ याद नहीं तुम चं चल लहरों से खले ो सीधे साधे उन क़़िस््सों मेंे कब दरू चला आया तुमसे जो वक़्त गजु ़र अब जाएगा तमु सीख बड़़ी दे जाती थीं क्या बोलँ ू मैंै कु छ याद नहीं कब आएगा फिर दोबारा हर इंसाँ को इंसाँ समझो तमु तरसोगे फिर आँ गन को ये बात रोज़ समझाती थीं वो शहर जहाँ मेें जा पहुँुचा ढूँढोगे अपना गलियारा एक जगह अजबू ी थी यारों वहाँ सहज सरल मैंै जीता था चालाकी झठू का राज वहाँ है याद मुझे वो गलियारा वहाँ बचपन मेरा बीता था वो एक आँ गन वो चौबारा वहाँ भोलेपन की माटी मेंे सच्चाई कुं ठित थी यारों सपनों का अकं ु र फू टा था बचपन की शिक्षा ने मुझको पेड़़ों पर सावन के झलू े पल-पल पर दिया सहारा था भूलेें तो कै से हम भूलेंे अब एक कमरे के भीतर ही हर छोटी बात पे हँसता था आँ गन भी था, चौबारा था जीवन झिलमिल कै से भलू ेें कु छ पा लेने के बाद मुझे अब याद गाँ व ही आया है बचपन की यादों ने मझु को फिर वापस यहाँ बलु ाया है ऑस्ट्रेलिया संस्करण 7
मैैं डरने लगा हूूँ इल्जज़ाम हमीीं पर मैैं अपने आप से डरने लगा हूँू किस ने खोले राज़ हमारे पता नहीं और अपने नाम से डरने लगा हूँू दीवारों के कान तो हैैं पर ज़़ुबाँ नहीं मेरा ये नाम मुझ पर एक विज्ञापन लगाता है अपना ही होगा जिसने ये दग़़ा दिया ना जाने क््यों मेरा ये आपको मज़हब बताता है ग़़ैरों को तो राज़ हमारे पता नहीं ये नाम कु छ ख़तरों को पदै ा कर रहा है उसने सब इल्जज़ाम हमीं पर लगा दिए ये इक रंजिश को शैदा कर रहा है हम फिर भी ख़़ामोश रहे, कु छ कहा नहीं मरे े चहे रे की दाढ़़ी भी कोई पगै ़़ाम देती है जाने से पहले सब कर्जज़े अदा किए वो टोपी हो या हो पगड़़ी वो कु छ तो बोल देती है लेना-देना कोई किसी से रखा नहीं मेरा ये रंग भी मुझको किसी दनु िया का बतलाता मरे े लब खलु ने से पहले है मेरा ख़़ाका खिं च जाता देखा है हर रोज़ सितम ये शहर-शहर क़़ातिल को तो मिलती है अब सज़़ा नहीं मेरे मिलने से पहले किरदार मरे ा सोच लेते हैैं मैैं ऐसा हूूँ या वसै ा हूूँ वो अक़्सर सोच लेते हैंै कर ले कोशिश कितनी भी तू यहाँ मगर अब तक तो सनु “वाक़़िफ़” से कु छ छुपा नहीं मैंै परेशाँ हूँू मैंै परेशाँ हूँू इस नस्ली भदे का दोषी किसे बोलँ ू अक़्स बनाया जिसने है सबको उसी का भदे मैंै खोलँ ू ! कभी देखा है तुमने उसे डर था अक़्स उसे डर था कि ग़र सब प्यार से रहने लगे तो फिर टूटे शीशे मेंे उसे फिर कौन पूछेगा, सहारा कौन माँ गेगा एक ही शख़्स के चेहरे अमन का चाँ द उसके नाम तक को भी भुला देगा तमाम दिखते हैंै ये साज़़िश उस की ही है इनमेंे कोई तो चहे रा असली होगा ये साज़़िश उस की ही है सब मेें जो कु छ फ़र्क़ रखा है जो पता लगे तो मझु को बतलाना इन््हीं फ़र्क़ों ने हम को बारहा उलझा के रखा है बहुत हैरान हूँू मैंै नस्ल की आग मेें जब आप और हम यँ ू झलु सते हैैं तभी हम दे दहु ाई नाम उसका लेते रहते हैैं यहाँ हम मरते रहते हैंै वहाँ वो ज़़ििंदा रहता है तमाशा चलता रहता है तमाशा चलता रहता है 8 जनू -अगस्त (सयं कु ््तांाक), 2023
मैंै उम्मीद जगाने आया हूँू कु छ मायसू ों की बस्ती मेें जहाँ धर््म ने बोई है नफ़रत हो पार््थ तमु ््हीीं, तुम गुडाके श मैंै ख़््वाब बेचने आया हूूँ और लहू बहा है नदियों मेें तुम को ही बाण चलाने हैैं उन मरु ्ददों का जो ज़़ििंदा हैैं मैैं घुस कर ऐसे दलदल मेें मैैं दिल बहलाने आया हूँू इक पुष्प खिलाने आया हूूँ है कु रुक्षेत्र ये रणभमू ि मैंै सारथी बन के आया हूूँ बेनूर निगाहों की ख़़ातिर मैंै गोवर््धन के पर््वत को ख़ु़द ही सोचो क्या अच्छा है ले कर प्रकाश मेंे आया हूँू ऊँ गली पे आज उठा लँ ूगा ख़़दु ही सोचो क्या करना है मैैं वस्त्रहीन कं कालों की शोषण से मुक्ति का ले कर ख़़ातिर कु छ कपड़े़ लाया हूँू एक मं त्र बाण मैैं आया हूूँ तमु चं द्रगपु ्त मैैं चाणक्य ये बात बताने आया हूूँ चहे रे की चाँ द लकीरेें जो शशे नाग तुम मुझे बना इस गाथा का हो अतं सखु द जीवन गाथा बतलाती हैैं जीवन सागर मं थन कर लो उम्मीद जगाने आया हूँू उस गाथा का हो अतं सखु द अमृत तो अपने पास रखो उम्मीद जगाने आया हूँू मैैं विष को चरु ाने आया हूूँ हर गाथा का हो अतं सुखद जब तक तुम सहते जाओ उम्मीद जगाने आया हूँू मैंै नाक़़ामी के मरुथल मेें इक बँ ूद ओस की बन कर के ज़़ुल्म करेगा ही ज़़ुल्मी ख़़दु को मिटवाने की ख़़ातिर मिल साथ उठो सं घर््ष करो हिम्मत जुटलाने आया हूँू ही अपने घर से आया हूूँ मैैं कल का मानव मैैं बं द अंधरे ों का इंसाँ मैैं प्यार भावना मेें उलझा मैैं रौशन महफ़़िल क्या जानँ ू मैैं तमु को कै से पहचानँ ू मैैं प्यार भावना मेंे उलझा मैंै जडु ़़ा जड़़ों से हूूँ अब तक मैैं तमु को कै से पहचानँ ू तुम आसमान मेंे उड़ते हो मैंै प्यार को खोजा करता हूूँ मैंै डगमग-डगमग क़दम रखँ ू तमु भौतिकता पर मरते हो तमु तीव्र गति से जाते हो इन नए रिवाजों का मतलब मैैं सोच-समझ कर पाँ व धरूूँ मैंै कल का मानव क्या जानँ ू तमु आनन-फ़़ानन जाते हो मैंै प्यार भावना मेंे उलझा इन रस््तों को इस मं ज़़िल को मैंै तुमको कै से पहचानँ ू मैैं क्या समझँ ू मैैं क्या जानँ ू ऑस्ट्ेरलिया ससं ्करण 9
जीवन बड़़ा संग्राम शिखर पर मैंै अके ला हूँू जीवन बड़़ा सं ग्राम है जीवन को ना दंडित करो/आनं द शिखर पर मैैं अके ला हूँू कभी जीत है कभी हार है ना सीमित करो न दखु ी हूँू, मैैं न ख़़ुश हूूँ कभी सच यहाँ कभी दःु ख यहाँ इस जहाँ मेंे न कु छ हूँू कोई डूबा तो कोई पार है पं ख आशा के लगा ना तो मैंै भीड़ हूँू और इस बार की तमु हार का साहस करो तमु भी उड़़ो ना ही मैंै कोई मले ा हूूँ शिखर पर मैंै अके ला हूूँ इतना ना मातम करो सूनी गलियाँ रात काली पं ख आशा के लगा घोर सन्नाटा यहाँ ज़मीन पे था तो साथी थे साहस करो तुम भी उड़़ो आँ ख मेंे चाँ द तारे थे बाँ हों मेें जो थाम ले तमु धरा पर ऐसा ना कोई है यहाँ चढ़़ा जितना भी, लोगों को पाँ व कोमल धूल धसु रित हैैं तुम्हारे काल जब विपरीत हो लगा मैंै इक झमले ा हूँू हौसला ज़़ििंदा रखो शिखर पर मैैं अके ला हूूँ मन है चं चल पं ख आशा के लगा स्वप्न मेें तोड़े़ है नभ से चाँ द तारे साहस करो तमु भी उड़़ो हज़़ारों ज़ख़्म खाए हैंै कई आँ सँ ू बहाए हैंै प्रयास के अभाव मेंे जीवन डगर दरु ््गम सही है ये जो खेल क़़िस्मत का स्वप्न ना धमू िल करो घबराओ मत आगे बढ़़ो बड़़ी मुश्किल से खले ा हूँू पं ख आशा के लगा शिखर पर मैंै अके ला हूँू साहस करो तुम भी उड़़ो ना अधं ेरे से डरो चलते रहो चलते रहो भला था जब उठा ना था है मौत निश्चित जान लो किसी को भी ख़ला ना था ये प्रेमिका है जन्म की इस रात का सूरज जबसे हुआ है जन्म उसको उदय होगा यक़़ीं इतना करो चमकता राह का राही लगन इस से मिलन की मैंै बिल्ुक ल नवले ा हूूँ तो मतृ ्यु के इस भय से तुम पं ख आशा के लगा शिखर पर मैैं अके ला हूँू साहस करो तमु भी उड़़ो तो क्या है ठीक बतलाओ पिछड़ जाना या उठ जाना अधं ेरे मेंे भटकना या उजाला बन के छा जाना जहाँ हूूँ मैैं वहाँ ख़़ुश हूूँ ख़़ुशी का एक रेला हूँू भले ही मैंै अके ला हूँू शिखर पर मैैं अके ला हूूँ 10 जनू -अगस्त (संयकु ््ताांक), 2023
मरे े सपनोों मेें तुम आयीीं सब नया-नया हो कु छ बहकी-बहकी हवा चली तिलतलियाँ फू ल पर झूम रहीं काश कभी ऐसा भी हो कु छ महकी सी ख़़ुशबू आयी मधमु ास सरस्व ही छाया है सब नया-नया हो पल मेंे बसं त की रितु आयी अधखिले अधर हैैं कलियों के भँ वरा चुम्बन को आया है आँ ख खलु े सब नया-नया हो ये क़़ायनात है मसु काई बस नया-नया हो हर लम्हा जसै े झमू उठा श््रििंगार मघे से बरस रहा सब नया-नया हो और मौसम ने ली अंगड़़ाई कै सी कामकु ता है छायी मेरे सपनों मेंे तमु आयीं मरे े सपनों मेें तमु आयीं धरती अम्बर चं दा तारे मेरे सपनों मेें तुम आयीं मेरे सपनों मेें तुम आयीं नदियाँ पर््वत और नज़़ारे सब मेें एक उन्माद भरा हो है मधु टपकता अम्बर से हर दिन अब होली के रंग मेें अमृत बहता है नदियों मेंे हर रात दिवाली है छायी सब नया-नया हो अब चं दनवन है हर उपवन मेरे सपनों मेंे तमु आयीं नवजीवन आया सदियों मेंे मेरे सपनों मेें तुम आयीं नया बनँ ू मैंै मन चहक उठा दिल धड़क तुम भी नए हो ये सपना कब सच्चा होगा सं गी-साथी दोस्त नए हों उठा कब आलिंगन कर पाऊँ गा रिश््तों की दीवारों से भी दीमक निकले हर धड़कन मेंे हो तमु छायीं और हर््षविकम्पित अधरों पर सब नया-नया हो चुम्बन अंकित कर पाऊँ गा मेरे सपनों मेंे तुम आयीं कब कह पाऊँ गा मैैं तमु से एक विश्व हो एक हो आशा मेरे सपनों मेें तुम आयीं एक रंग हो एक हो भाषा साँ सों से सांसेें टकरायीं हथियारों को पिघला कर औज़़ार बनेें हर मं ज़र सं दु र दिखता है अब सपनों की दनु िया से हर राह सुहानी लगती है सब नया-नया हो चिर यौवन से अब लदी हुई निकल ये सारी वादी लगती है तमु मेरे जीवन मेें आयीं काश कभी ऐसा भी हो वो चाँ द छिप गया बदली मेें तमु मरे े जीवन मेंे आयीं सब नया-नया हो तमु से क़ु़ दरत भी शर््ममायी मरे े सपनों मेें तमु आयीं आँ ख खलु े सब नया-नया हो मरे े सपनों मेंे तमु आयीं बस नया-नया हो सब नया-नया हो ऑस्ट्ेरलिया ससं ्करण 11
आध-े अधरू े लोग फिर क्या होगा सम्पूर््ण होना कल्पना है ग़म दसू रों के देख कर वो जो मुजरिम नज़र आता है ज़माने भर को इक अधरू ा ख़््वाब है ख़शु़ ियाँ मनाते लोग हैैं कल वही तख़्त पे बठै े गा तो फिर क्या होगा सच तो ये है हम सभी सच तो ये है हम सभी आध-े अधरू े लोग हैंै अमन की राह पर ये ख़़ार बिछाने वाला परू े की बस चाह मेंे आधे-अधूरे लोग हैंै बात यारी की करेगा तो फिर क्या होगा हैैं भागते रहते सदा मरे ा मज़हब तेरा मज़हब जो यँ ू टकराएगा थक चुके हैंै हम सभी जो सम्पन्न है उसे ख़़ौफ़ है ख़ऩू नदियों मेें बहेगा तो फिर क्या होगा आध-े अधूरे लोग हैैं नीदं उस से दरू है तुम्हारे देवता के हाथ मेें हथियार तो हैंै शस्त्र हर शख़्स उठाएगा तो फिर क्या होगा जो पास है उस से विमखु बेख़़ौफ़ वो जो सो रहा बिना मतलब की बहस मेें यँ ू उलझने वालों जो दरू उसकी लालसा कमज़़ोर है मजबरू है अहम मदु ्दा कोई आएगा तो फिर क्या होगा त्याग-बेड़़ी, प्रेम-बं धन अपनी-अपनी ज़़ििंदगी और आज महफ़़िल मेें मेरी बात नहीं सुनते हो कामना बस कामना अपने-अपने भोग हैंै कल से महफ़़िल मेंे ना आऊँ गा तो फिर क्या होगा राहेंे हमारी खो गयी हैंै सच तो ये है हम सभी मत मिटाने पे जुटो इंसानियत तो ऐ लोगों हम भटकते लोग हैंै आधे-अधरू े लोग हैंै तमु भी तो साथ मिटोगे तो फिर क्या होगा सच तो ये है हम सभी आध-े अधरू े लोग हैंै बालक कहे मैैं कब वो तो हर दम हँसता था बड़़ा हो अपने मन की कर सकँू जो साथ हैंै, साथी नहीं वो तो हर दम हँसता था जो पास है काफ़़ी नहीं मैैं कहूँू बालक बनँ ू सह कर हर ग़म हँसता था अपनी ख़़ुशी से क्या ख़़ुशी जीवन सरल ये कर सकूँ कोई ख़़ुशी काफ़़ी नहीं कभी शांति कोई न पा सका दःु ख का हो या सुख का हो वो हर मौसम हँसता था कै सा लगा ये रोग है सच तो ये है हम सभी आधे-अधरू े लोग हैैं फू लों की पाँ खुरियों पर बन कर शबनम हँसता था निर््बल न बना ख़़ुद पर ख़ू़ब ठहाके थे औरों पर कम हँसता था कई बार माना है दिल तेरा फू लों सा चोट खा कर बहुत नाज़़ुक सब के घावों पे हर पल वो तिलमिला कर बहुत कोमल बन कर मरहम हँसता था दोस््तों की बेवफ़़ाई सहने के पर बारिश की बँ ूदों से धलू कर बाद सह न पाए ये कभी पल-पल छम-छम हँसता था कहता हूूँ ख़़ुद से काँ टों की चुभन हसरतेंे यँ ू ना बढ़़ा रोता था भीतर-भीतर मन को समं दर न बना इसको इतना भी तो बाहर हर दम हँसता था निर््बल न बना उसके सीने से लग कर तो “वाक़़िफ़” हर ग़म हँसता था 12 जनू -अगस्त (संयुक््तांाक), 2023
जो माटी है वो माटी मेें मिलेगा तुम देना मरे ा साथ जो माटी है वो माटी मेें मिलेगा चला चल राह पर हर दम अके ला जो लिक्खा भाग्य मेंे वो ना मिटेगा कभी ना सोच कि जग क्या कहेगा तमु देना मेरा साथ प्रिये जतन कर ले जो माटी है वो माटी मेंे मिलेगा जब रुदन कर ले मन मरे ा घबराता हो कोई भी चाल चल ले किसी से लड़ना कै सा समझ मेें कु छ ना आता हो ये ऐसा वक़्त है जो ना टलेगा किसी से डरना कै सा हर अपना ठुकराता हो जो माटी है वो माटी मेें मिलगे ा ये है माटी का पतु ला ज़हर विश्व बरसाता हो स्वजन के हाथ से ही वो जलेगा तुम देना मेरा साथ प्रिये तेरी कोशिश जो माटी है वो माटी मेंे मिलेगा तेरा साहस जब ही तरे े साथ हैैं हर दम कहीं फू लों ने पाला हवा शलू सी चुभती हो तपेगा आग मेंे तू तब ढलगे ा कहीं काँ टों से पाला शबनम जलती सी लगती हो जो माटी है वो माटी मेंे मिलगे ा यही प्रारब्ध है सनु रात नहीं जब कटती हो जो जसै ा बीज है वैसा फलेगा ख़तरे मेंे जब हस्ती हो महल हो या कि झोपड़ जो माटी है वो माटी मेंे मिलेगा तमु देना मेरा साथ प्रिये वो राजा हो या मफु ़लिस ना जब तू पास होगा जब हैैं अजं ाम वो ही किसे आभास होगा क्रोध जगत मेंे पलता हो ना कोई रह पाया है ना ही रहेगा ये यादेंे धँ ुधली होगं ी औरों का मज़हब खलता हो जो माटी है वो माटी मेंे मिलेगा यहाँ पर कोई ना फिर नाम लेगा इंसाफ़ कोई ना करता हो जो माटी है वो माटी मेंे मिलेगा पापी का घड़़ा ना भरता हो जो अच्छा है वो कर ले तमु देना मरे ा साथ प्रिये यहाँ ख़श़ु ियाँ तू भर दे मैैं जा कर भी ना जाऊँ गा दिल के राज़ यादों को मैैं महकाऊँ गा फिर रूप बदल कर आऊँ गा दिल मेें कितने राज़ छुपे बतलाओ ना बाहों मेंे तमु ्हंहे उठाऊँ गा जलवा अपना हम को भी दिखलाओ ना तुम देना मरे ा साथ प्रिये कितना वक़्त लगाया तुमने आने मेें ऑस्ट्रेलिया संस्करण देखो अब तमु इतनी जल्दी जाओ ना लाखों नज़रेें देख रही हैंै तमु को ही सब लोगों को इतना तमु तड़पाओ ना बातों ही बातों मेें दिल को ले लने ा किस से सीखा है तमु ने बतलाओ ना जब जी चाहे खलु के तुम इज़हार करो “वाक़़िफ़” से कै सा शर््ममाना, आओ ना 13
दिल से दिल का नाता घाव ताज़़ा चाहता हूूँ दिल से दिल का नाता आख़़िर कब जोड़़ोगे सनु ो इक घाव ताज़़ा चाहता हूूँ जं ग के इश्तहे ार लगाना कब छोड़़ोगे मगर सब से छुपाना चाहता हूँू चला वो लटू कर घर-बार मेरा मानवता को बाँ ट रहे हो जाने कब से न ज़ख़्मों को दिखाना चाहता हूँू मज़हब की दीवार बताओ कब तोड़़ोगे यहाँ कब कौन कै सा कर रहा है ख़ु़दा को सब बताना चाहता हूूँ कब से अपना उल्ूल सीधा करते आए सभी इल्जज़ाम झठू े ही लगे थे पं डित-मलु ्ला से यँ ू डरना कब छोड़़ोगे ये सर फिर भी झकु ाना चाहता हूँू वो हमदम हो या वो दशु ्मन हो मेरा दरू किनारे पर रुकने से कु छ ना होगा मैैं ‘वाक़़िफ़’ हूूँ सभी को चाहता हूँू दरिया का रुख़ आगे बढ़ कर कब मोड़़ोगे सभी मशहूर होना चाहते हैैं रूढ़़िवाद की मटकी कब से सर पर लादी इस मटकी को ज़़ोर लगा कर कब फोड़़ोगे सभी मशहूर होना चाहते हैंै ज़रा मग़रूर रहना चाहते हैैं ऐसे-वसै े लोगों के जं जाल से बच कर “वाक़़िफ़” से तुम अपना नाता कब जोड़़ोगे कभी औरों की तो सनु ते नहीं हैैं सदा अपनी ही कहना चाहते हैैं औरोों के दःु ख मेंे रोया कर सबु ह से बोझ था सर पर उठाया औरों के दःु ख मेंे रोया कर थके हैंै अब वो सोना चाहते हैंै यारा तू भूखा सोया कर भले ही ख़ू़न न टपके रगों से ग़़ैरों के ग़म की ख़़ातिर तू पर आँ सू हैैं ये बहना चाहते हैैं अपनी कु छ ख़ु़शियाँ खोया कर ज़ख़्म “वाक़़िफ़” को जो तमु से मिले हैंै कभी दोपहरी मेें चल कर तू वो अब नासरू बनना चाहते हैंै औरों का बोझा ढोया कर 14 जून-अगस्त (संयुक््ताांक), 2023 दिल पर जितना मलै चढ़़ा है उसको आँ सू से धोया कर नफ़रत करता थक जाएगा बीज प्यार के भी बोया कर जब भी मन घबराए तेरा “वाक़़िफ़” से मिल कर रोया कर
बेक़रार दिल दनु िया उसको भलु ा ना पाई दिल बहुत बेक़रार रहता है कोई तरक़़ीब ना कहीं पाई बस तेरा इंतज़़ार रहता है मेरी दनु िया सं भल नहीं पाई तेरी तस्वीर है बसी दिल मेें कोशिश तो लाख की यहाँ मैंैने हर घड़़ी इक ख़़ुमार रहता है कोई सूरत निकल नहीं पाई वो जो हँसता व खेलता सा था मैैं भी नादाँ रहा हमेशा से सुनते हैैं अब बीमार रहता है तनू े भी ज़हनियत नहीं पाई चाह की आँ च देख बझु ती है सारी दनु िया बदल गयी लके िन ता-उम्र किस को प्यार रहता है मरे ी दनु िया बदल नहीं पाई तमु भी “वाक़़िफ़” को कम नहीं समझो मैंै भी था क़़ै द कु छ अधं ेरों मेंे शातिरों मेें शुमार रहता है तूने भी रौशनी नहीं पाई इज़हारी के सौदे यँ ू तो हम साथ ही चले बरसों फिर भी पहचान हो नहीं पाई जीना कै से इस दनु िया मेें ये सोचा है दिल मेंे दिल की बात रखेंगे े ये सोचा है है “वाक़़िफ़” कायनात भलू चकु ा दनु िया उसको भलु ा नहीं पाई इज़हारी के सौदे मेें नकु ़सान उठाया अब बस हम चपु चाप रहेंेगे ये सोचा है हर दम ही नाकाम हुए लोगों पर ना जाने कितना वक़्त गँ वाया हर दम ही नाकाम हुए कु छ पल अपने साथ रहेेंगे ये सोचा है यँ ू ही हम बदनाम हुए जिसको छोड़़ा दनु िया ने कह के सच्ची बातेें हासिल रुसवाई की उसके तो बस राम हुए अब हम सच से दरू रहेंेगे ये सोचा है जिनका काफ़़ी नाम सुना पहले वो नीलाम हुए ख़ूब़ शिकायत कर के देखी कु छ ना पाया सच की जिसने बात करी “वाक़़िफ़” हम शिकवा न करेेंगे ये सोचा है देखो वो ग़़ुमनाम हुए “वाक़़िफ़” के सब राज़ यहाँ अब तो खुल के आम हुए ऑस्ट्रेलिया संस्करण 15
तुझसे रिश्ता फ़रियाद जब तक तुझ से रिश्ता ना था ख़ूऩ ज़ख़्मों से मरे े रिसता रहा मझु को तुझ से ख़तरा ना था मैंै मगर फिर भी यँ ू ही चलता रहा कै से मुझ को राह दिखाता उस ने जो चाहा था वो उसने किया उस को ख़ुद़ भी दिखता ना था मुझ को जो करना था मैैं करता रहा आगे तो वो बढ़ ना पाया यँ ू तो मं ुसिफ था, वो था बहरा मग़र चाह बहुत थी रस्ता ना था मैंै वहाँ फ़रियाद क््यों करता रहा उसको सबने पत्थर मारे क््यों सनु ाया झठू ा अफ़साना मुझे चपु रहता था रोता ना था सोच कर मैैं सिर को बस धुनता रहा वो कोई अख़बार नहीं था मोड़ पर आ के हैंै नादाँ सब खड़े़ सच कहता था डरता ना था वो जो “वाक़़िफ़” था वही चलता रहा कब तक ख़ऱै मनाती इस्मत कभी-कभी ऐसा होता है खिड़की तो थी पर््ददा ना था कभी-कभी ऐसा होता है ऐसा कोई शख़्स नहीं था लब हँसते हैंै मन रोता है जो “वाक़़िफ़” ने परखा ना था सब कु छ पा लने े की ज़़िद मेें जो पाया है वो खोता है चलते-चलते हारा आख़़िर आज पथिक थक के सोता है दक़़ियानसू ी का ये बोझा देखो सदियों से ढोता है शायद कल की भोर न देखे “वाक़़िफ़” अब ऐसे सोता है 16 जनू -अगस्त (संयुक््तांाक), 2023
रिश्ततों मेंे गरमी माशकू ़ सितमग़र रिश््तों मेें गरमी आने मेें वक़्त लगेगा तू भी ख़़ूब धुरंदर निकला गतु ्थी ये सुलझा पाने मेें वक़्त लगेगा दरिया नहीं समं दर निकला आँ खों मेें तो अक़्स उतर आएगा इक दम तझु को कब से ढूँढ रहा था दिल तक पर तुम को आने मेें वक़्त लगेगा तू तो मेरे अंदर निकला प्यार के धागे तोड़ दिए जो तमु ने झट से दिल की बाज़़ी हारी जिसने गाँ ठ लगगे ी, सलु झाने मेंे वक़्त लगेगा वो जाँ बाज़ सिकं दर निकला सोच समझ के कहना जो भी कहना चाहो वो जितना बाहर दिखता था बिगड़़ी बात बना पाने मेें वक़्त लगेगा उस से दनू ा अदं र निकला उस दिलबर ने राह भलु ाई तो फिर हमदम ना बोला, न सुना, ना देखा अपने ही घर तक जाने मेंे वक़्त लगेगा वो बापू का बं दर निकला दनु िया भर को भटकाना आसान यहाँ , पर “वाक़़िफ़” की भी क़़िस्मत देखो “वाक़़िफ़” को फु सला पाने मेें वक़्त लगगे ा हर माशकू ़ सितमग़र निकला नाज़़ुक दिल कभी अचानक पल भर को ससु ्ताने मैैं जो ठहर गया वक़्त न ठहरा साथ मरे े वो यँ ू गुज़रा बस गजु ़र गया तपन-तपन जीवन अपना इक मरुथल जसै ा लगा मझु े बसं त कहीं से आया भी तो पल भर मेंे ही गुज़र गया समझ सका ना अब तक कोई, नाज़़ुक दिल था किसे कहूूँ ज़रा कभी भी सदमा खाया शीशे जसै ा बिखर गया अगर वो मेरे साथ चला था तो फिर है वो छुपा कहाँ इधर-उधर ढूँढा उसको पर वो ना जाने किधर गया यहाँ वो जब तक दर-दर भटका तमु ने उसको दिए गिले कहाँ उसे ढूँढोगं े अब तुम “वाक़़िफ़” कब का गजु ़र गया ऑस्ट्रेलिया ससं ्करण 17
लघुकथा नारी जीवन \"परकाष्ठा या समर््पण\" रीमा महेंेद्र ठाकु र राणापुर, झाबआु , मध्य प्रदेश अ तीत भविष्य या फिर वर््तमान, हर स्थिति हर समय घुटन शुरू, सपने बड़े पर साहस खत्म जाने कितने विचार, वही ढाक के तीन पात, कमियां ही कमियां, जहां मस्तिष्क पर कब्जा करके बठै गये\" नारियो की पजू ा होती है देवता निवास करते है, सुनते आ रहे है, देवता निवास करते भी होगे\" इस बीच रिश्ता गलती से आ गया तो माता-पिता के विचार चेेजं , बेटी के सपने धूलधसू रित, बिटिया पढ़- सत्य होगा हमारे पूर््वज कह गये है तो गलत तो होगा, लिखकर कौन सा तीर मार लोगी, टिपनी तो रोटियां ही है, नही,ं उनके द्वारा कहा गया कोई शब्द किसी न किसी मां के शब्द, सच ही तो है, आशय से जुडा होता है\" बस हो गया सपनों का दहन, चूल्ेह की आग पर\" पर आज वर््तमान मेें जो परु ूष रूपी देवता हर रूप ये अब आगे का चरण दहेज, महंगाई वर के लिए भी तो है, हमारे साथ है उनका क्या \"वो न मनुष्य न देवता आखिर जितनी गड्डियां नोटो की उतने बडे घर का रिश्ता, माता- किस रूप मेंे रखेें उन्हहें\" उनका साथ नारी को जहां सम्मान पिता का सपना बटे ियां ऊं चे घर मेें जाय,े भले खुद का कद देता है वही अपमान भी\" अपमान कै से धैर्य् रखिए बताते छोटा हो जाये\" है, नारी का बटे ी रूप, बेटी का जन्म हुआ, कु छ चहे रे उतर गय,े पर मुखौटा ओढ कर खुशियां दिखा रहे है, लक्ष्मी एक बार मेें रोज-रोज की किचकिच खत्म, बटे ी पर क्या आयी है \"हमारे घर, उस जगह से ही मतभेद, उस जगह बीती किसी को खबर नही,ं बटे ी भी मखु ौटे को पहन कर पर ये भी तो बोला जा सकता है कि एक जीवन आया है मरे े नयी गृहस्थी मेंे आ गयी, अगला चरण परू ा करत-े करते कब वजूद का, पर नही,ं एक भारी भरकम लबादा पहना देेंग\"े आचरण मेें परिवर््तन आ गया पता न चला, एक पुरूष का साथ, पाने के लिए हजारों रिश््तों पर खरा उतरने की परु जोर धीरे-धीरे समय का पायदान बटे ी ख़़बू सरू त तो चिंता कोशिश, पर नाकाम, अब क्या कै से बहुत कु छ घट जाता बदसरू त तो भी चिंता, बेटी को पता नहीं की वो बड़ी हो है कु छ वर्षषों मेे\"ं रही है पर समाज को पता है कि लडकी कब बडी हो गयी, पर नहीं घटती एक स्त्री, पिता से पोते तक का सफर, बस रोक-टोक पाबं दियां शरु ू, अब बात मानसिकता की जीवं त या जीवन पर्तय् , इस सफर मेंे कितनी बार अवहेलना है, ऊं ची शिक्षा की है, गली की नकु ्कड से लके र रिश्ेतदारों कितनी बार टूटना-बिखरना वो सब जिसे सोचकर सी घुटन तक बस यही चर््चचा की ज़््यादा आज़़ादी सही नही,ं नकु ्कड होने लगती, इसी महीने की घटना, कु छ महीने पहले ही पर बैठे बेवजह बरे ोजगारी ढोते युवा, तुरंत अपने विचार ब्याहता बेटी की निर््मम हत्या, जीवन पर भारी पड़ गया, प्रकट करेेंगेें\" लालच, नारी जीवन लोलपता का शिकार, आज इक्कीसवी सदी फिर भी ये सारी घटनाएँ सोचने पर मजबूर करती है छीटाकसी के रूप मेंे \"आपस मेंे बं टवारा कर देंेगे वो कि कु छ लोग अपनी मानसिकता कभी न बदलेगें ,े जान तेरी वाली, वो मेरी वाली\" जैसे किसी दकु ान का समान हो\" क््यों लते े हो आजाद कर दो उस,े सोचो, उसका समर््पण, सबकु छ छोड़कर आयी थी और उससे उसको ही छीन पर वही छीटाकसी बेटियों के पैर की रस्सी निर््ममित हो लिया, कौन सा समर््पण कम पड़ गया था कु छ दिनों मेें \"जो जाती है, बच्चियां बचे कै से, परिवार मेंे बोले तो पढाई बं द, अंतहीन पराकाष्ठा पार कर दी, आख़़िर कौन हैैं दोषी, हम बाहर बोले तो अनावश्यक घटनाओं का डर, अब फै सला आप या समाज, या फिर नियति\" खदु लके र चपु चाप आगे बढ़ जाने मेें ही भलाई, पर मन मेें जो फोबिया फै ल गया उससे निकलना मशु ्किल, बस 18 जून-अगस्त (संयकु ््तांाक), 2023
सत्य घटना पर आधारित संबेदनहीन होती इं सानियत मणि बने द्विवेदी वाराणसी ब ा त करीब 2016 की है जब मेरे पति बरौनी दिए मिले तक नहीं बात भी नहीं किए। थर््मल पावर स्टेशन मेंे अधीक्षण अभियं ता के पद पर नियकु ्त थ।े लके िन हाल ही मेें उनका स्थानांतरण पटना कु छ लोग बोले भी कि सिन्हा जी के साथ पटना चले के हेड ऑफिस मेें हो गया था। जाइए वो भी निकल रहे हैंै, मरे े घर का माली जा कर उनको बता आया कि ऐसी घटना हो गई है। हम लोगों को बरौनी का क्वाटर छोड़ देना था। लके िन वो बात तब किए जब आधे रास्ते मेें पहुुँच कर मझु े भली भाँ ती याद है कि मेरा सारा सामान एक ट््रक के । मेंे लोड हो चुका था। अब हम लोग भी कु छ देर मेें वहां से निकलने ही वाले थ।े चं कू ि बड़े ट््रकों को शहर के भीतर ६ मझु े और मरे े पति को भी काफी दःु ख हुआ। बजे सबु ह के बाद प्रवशे नहीं करने दिया जाता है इसलिए वो आठ बजे रात को ही निकल गया ताकि पटना पहुँुच क््योोंकि वहां के प्रबं धक होने के नाते उनका इतना तो जाए और सुबह होते ही सामान उतार कर वापस आ सके । कर््तव्य बनता था। अतः सामान का ट््रक तो निकल गया था। लेकिन मेरे पति विचलित नहीं हुए मुझसे बोले मुझ पर अब हम लोग भी खाना खा कर थोड़़े देर मेें निकलने भरोसा करो मैंै ले चलँ ूगा पटना तक। ही वाले थे लेकिन अगले पल क्या होगा इससे अनभिज्ञ थे। मैैं बहुत परेशान हो गई कि एक हाथ की कलाई परू ््ण कोई समान लने े के लिए मेरे पति जैसे ही आगे बढ़़े कि रूप से अलग हो चकु ी है। एक हाथ से गाड़़ी कै से ले जायेेंगे तभी फर््श पर थोड़ा पानी गिरने की वज़ह से मेरे पति का आप? परै फिसला और वो नीचे गिर पड़े मरे े तो समझ मेें कु छ भी नहीं आया मैैं क्या करूँू मैंै घबरा कर रोने लगी। मैनैं े लाख मना किया अपने पति को कि न चले लेकिन वो 9 बजे रात मेें यह बोल कर चल पड़े़ की सामान का लके िन मरे े हिम्मती पति ने मुझसे चुप रहने को कहा ट््रक जा चकु ा है सुबह उसको कौन रिसीव करेगा? एक ही और मेरा दपु ट्टा ले कर कु छ लकड़ी के चौकोर और पतले हाथ से कार ड््रराइव कर चल दिए मैैं उनके टूटे हाथ को फट्टे मागं कर अपने एक हाथ से ही बाएं हाथ को बाँ ध अपने हाथ से पकड़ी थी। वो चालीस की स्पीड से गाड़ी लिया और गले मेें लटका लिए,.... इस घटना को ..सनु चला रहे थे। कर काफी लोग मरे े घर आ गए थे लेकिन मरे े पति का धरै ््य देख किसी को भी नहीं लगा कि इनका हाथ टूट चकू ा है। लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दरू ी तै करनी थी आराम फिर भी किसी ने दवा ला कर दिया कोई हॉस्पिटल चलने से सावधानी पूर््वक गाड़़ी सरक रही थी के लिए आग्रह किया, कोई रुकने को कहने लगे। तभी करीब रात के 11 बजे थे चारों तरफ सिर््फ खते ही कई मित्र खाना ले कर आये थे। खते काफी दरू तलक कोई गांव घर भी नहीं दिख रहा था,. सन्नाटा पसरा हुआ था....तभी अचानक यं ू कहेंे कि बिजली मुझे बेहद दःु ख उस बात से हुआ की जो वहां के की गति से सन्नाटेंे को चीरती हुई खेत के तरफ से दौड़ती मनै ेजर थे वो मेरे पति के परम मित्र थे और जब उन्हहें पता एक नील गाय आई और तेजी से मेरी गाड़ी के बिल्कु ल चला की मेरे पति को चोट लगी है वो उसी वक़्त पटना भी सामने से छलांग लगा गयी और उसके पीछे का परै मेरी जा रहे थे लके िन ये खबर सुन कर वो पटना के लिए चल गाडी से काफी जोर से टकराया और आं ख से ओझल हो ऑस्ट्ेरलिया संस्करण 19
गया अचानक खट का तेज़-तज़े आवाज़ हुआ और एक पल भगवान का लाख-लाख धन्यवाद देते हुए पनु ः हम के लिए हम दोनों ही विचलित हो गए मेरे पति तजे ी से लोग आगे बढ़़े और आख़िरकार हम लोग पटना पहुुंच गए। अपना टूटा हुआ हाथ भी उठा लिए, लेकिन आज भी ऊपर वाले का शकु ्र मनाती हूँू कि मेरी भी अचानक से चीख निकल गयी उस रात अगर कु छ भी होता तो उस वीराने मेें कौन बचाने आता? और क्या से क्या हो जाता? हे नारायण ये क्या हुआ?? उस दृश्य को सोच करके आज भी रोगं टे खड़े हो गाड़़ी चलती रही रोके भी नहीं हम लोग सनु सान जगह जाते हैंै। सर्दी का मौसम, और यही कहूंूगी कि इंसान क्या साथ देगा उसका कु छ किलो मीटर चलने के बाद एक गांव और कु छ जिसके साथ भगवान खड़़े हो।ं घर दिखेंे वहां जा कर गाड़़ी खड़़ा करके पानी पिए हम लोग हाथ को अचानक उठाने से पति के हाथ मेें काफी दर््द होने लगा था तो एक पने किलर भी दिए उनको। लघु कथा विदाई अजीत कु मार कंु भकार ******** श ा दी के बाद पहली बार पति, पति के आख़़िर रस्ता और वक्त को कटना था और जीजू दीदी के साथ अपने मायके जा सब के साथ मकै े पहुुँची, पति, पति के जीजू रही थी, रास्ता भर उतावला थी कि घर कब दीदी का बड़ी आवभगत हुई सबको बड़े आदर पहुँुचे। सहेली, भैया-भाभी, माँ -पिता से मिलँ ूगी से बठै ाया, मिठाई नास्ता चाय आदि सभी को दे मैैं सभी का बहुत कमी महससू कर रही थी। आवभगत की गई मैंै खड़ी-खड़ी टुकु र-टुकु र देख रही थी न किसी ने प्यार से गले लगाया न किसी पल बीत नहीं रहे थे एक-एक पल लग रहे ने चाय तक पूछा, सबका नास्ता चाय होने के बाद थे मानो वर््ष भर, बचपन से अब तक बिताए मम्मी बोली जाओ नास्ता चाय ले लो। मैंै खड़ी एक-एक पल आँ खों मेें फ़िल्म रील की तरह देखती रह गई रस्ेत भर क्या-क्या सपने देख रही चल रहे थे बहुत सुखी सम्पन्न तो नहीं पर बहुत थी। सब दौड़ आयेेगं े गले लगायेगें े बोलेेंगे अरी तेरे गरीबी मेें नहीं बीते थे ठीक-ठाक ही थी ज़़ििंदगी। बिन कितना सनु ा-सुना लगता था देख कर कितना पाँ च बहनों मेंे बड़ी दसू री थी, दीदी की शादी सुकू न लग रहा है। पर ऐसा कु छ हुआ नहीं न हो चकु ी थी भयै ा की भी शादी हो चुकी थी। ही मझु े देख कर उन्हहें बहुत खशु ी हुई, अब लगा सहेली सब के साथ बिताए पल याद कर आँ खों सच मेंे बेटी पराई होती है और पराई हो गई। अब मेें आँ सू भर रहे थ।े इतनी जल्दी सब से बिछुड़ महससू हो रहा था सच मेंे बेटी के हाथ पीले कर जाऊँ गी पता नहीं था, एक लड़का देखने आया घर से विदाई दे मम्मा-पापा गं गा नहा लिए हैैं। था पापा को भा गए और चट मं गनी पट व्याह हो गया और पीहर आ गई। 20 जून-अगस्त (संयुक््ताकां ), 2023
कहानी खज़ाना सविता मिश्रा 'अक्षजा' आगरा (उत्तर प्रदेश) \"पाँ च सौ और हजार के नोट बन्द हो गए माँ , पैसे मागं े थे कि पसै े नहीं हैैं। पति जब-तब दो दिन बाद ही बैकंै खुलगे ा। तब इन्हहें बदलवा ओवरटाइम करके उसके हाथ मेंे रुपये धर देता पाऊँ गा।\" फोन पर बेटे से यह सुनते ही दीप्ती का था। चहे रा पीला पड़ गया। \"ये सारे कड़क नोट अब हमारे पति-पत्नी के दो दिन कै से करेगा! यह पछू ने के बजाय रिश्ेत मेंे खटास पदै ा कर देंेगे।\" भुनभुनाई वह। वह जल्दी से फोन रख बदहवास-सी अलमारी मेें रखी सारी साड़ियाँ निकालकर पलं ग पर फेें कने \"क्या हुआ दीप्ति! सोई नहीं हो अब तक?\" लगी| परु ानी साड़ियों की तहों मेें से हरे-लाल आँ खेंे मिचमिचाते हुए पति ने पछू ा। अचानक नोटों को मुस्ुक राते देखते ही सरू जमखु ी-सा खिलने पति को सामने खड़ा देख वह हड़बड़ा गई। वाला दीप्ती का चेहरा मरु झाए फू ल-सा हो जाता था। फिर अचानक कु छ याद आते ही रसोई मेें \"अरे वाह! तू तो बड़ी धनी है भई!\" पलकेें जा पहुुँची। दाल-चावल के सारे ड््रम उसने पलट खलु ते ही आश्चर््य से पति की आँ खेें फै ल गयी।ं दिये। चावल के ढ़ेर से झांकते कड़क नोट उसको मँ हु चिढ़ा रहे थ।े ड््रम और मसालों के डिब््बोों से \"आपसे छुपाकर रखा गया मरे ा खजाना निकले नोट इकट्ठा करके वह फिर से कमरे मेें आज खोटा हो गया जी !\" आ गयी। \"परिवार के गाढ़े वक्त के लिए ही तो जमा अलमारी मेंे बिछे अखबारों के नीचे भी उसने करके रखी है न! फिर खोटा कै से हो सकता है नजर दौड़ाई। अखबार की तह को हल्का-सा भला! दो महीने का समय है। मैैं सारे रुपये उठाते ही लम्बवत लटे े नोट खिल उठते। परू ा बदलवाकर तरे ा खजाना फिर से खरा कर दँगू ा।\" अखबार उठाते ही बिछे सारे नोट हौले से अखबार के साथ अठखले ियाँ करने लगे। कल तक जिन्हहें \"गुस्सा नहीं हैंै आप?\" देखकर वह ठं डक पाती थी आज सरकार पर उबल पड़ी। रसोई और अलमारी से सारे नोट \"अरे पगली! गसु ्सा क््यों होऊँ गा! अपने लिए इकट्ेठ होते ही आश्चर्य् से वह बदु बदु ा उठी– 'इतना थोड़ी इकट्ठा किया है तूने! मुझे पता होता कि तू रुपया था मेरे पास।' लाखों छुपा रखी है तो मैैं हीरे का हार ही गढ़वा देता तरे े लिए।\" कहकर हँस दिया। चार दिन पहले ही तो पतिदेव से यह कहकर बिस्तर पर बिखरा खोटा-खज़ाना छोड़, पिता द्वारा खोजा गया खरा-खज़ाना से लिपट गयी वह। ऑस्ट्रेलिया ससं ्करण 21
आलखे धमू िल होती गरु ु-शिष्य की महत्ता भीम कु मार गावं ा, गिरिडीह, झारखं ड पु रातन काल से ही गुरु-शिष्य की परंपरा चली पद-प्रतिष्ठा मेंे कमी होती जा रही है। इसके आ रही है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत लिए शिक्षक स्वयं जिम्देम ार हैंै या फिर सरकार। काल से ही गरु ुओं का स्थान सर्वोपरि माना गया सरकार शिक्षकों को शिक्षा के मूल उद्देश््योों से है। \"गरु ुर ब्रह्म गुरुर विष्ुण: गुरुर देवो महेश्वर:, भटकाकर उन्हहें गैर शैक्षणिक कार्ययों मेंे लगाते हैंै गुरुर साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।\" जिससे उनकी मर््ययादा कमतर हो रही है। पूज्य कु लगरु ु वशिष्ठ, विश्वामित्र, सादं ीपनी, परशुराम, माने जाने वाले प्रतिष्ठित पद की गरिमा धमू िल द्रोणाचार्य,् ऋषि धौम्य, चाणक्य, समर््थ गरु ू होती जा रही है। रामदास, रामकृ ष्ण परमहंस आदि ने अपने ज्ञान, विद्या और ओज से अपने शिष््योों को महानता लोग आज गरु ुजी को हीन भावना से ग्रसित की श्ेरणी मेंे खड़़ा कर दिया। बात चाहे राम, हो कर विकृ त उपाधियों से पकु ारते हैैं। गुरुजी से कृ ष्ण, कर््ण, एकलव्य, अर््जजुन, आरुणि, चं द्रगुप्त, मास्टर जी, मास्टर जी से मास्टर साहेब, मास्टर या फिर छत्रपति शिवाजी व स्वामी विवके ानं द साहेब से मासाब और मासाब से मस्टरवा हो गये की हो। कु छ ने नर से नारायण तथा मानव से हैंै। महामानव का स्थान पाये, इसमेें उनके गुरुओं का ही योगदान रहा है। उस समय शिक्षा का केें द्र शिक्षक जिन्हहें \"राष्टर्-निर््ममाता \"कहा जाता गरु ुकु ल हुआ करता था जहां शिक्षा के साथ-साथ है, जिन््होंने समाज मेें एक से बढ़कर एक सं स्कार, ईमानदारी,परोपकार, सहिष्ुणता, भ्राततृ ्व सपतू वजै ्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रधानमं त्री, भावना का विकास हुआ करता था। राष्ट्रपति, राजनते ा और अभिनते ा पैदा किये आज उनकी ही गरिमा धूमिल हो गई है। शिक्षक को आदर््श माना जाता था। आज शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी की परिभाषा ही हमेें इस अपमान और उपके ्षा के विष को बदल गई। शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। समाप्त कर सम्मान की सधु ा बरसानी होगी, जिससे शिक्षक को उनके कर्तत्तव्य और दायित््वोों से विमुख पुन: शिक्षक की मर््ययादा स्थापित हो सके । फिर कर दिया गया है। पहले शिक्षा का स्तर शकै ्षिक, से शिक्षा और शिक्षक की गरिमा को स्वीकारना सामाजिक हित और राष्ट्र हित के लिए हुआ करता होगा। आचार्य् देवो भव: समझना होगा। 'शिक्षा' था। आज शिक्षा आत्महित का पर््ययाय बन गया ही समाज का आईना होता है और 'शिक्षक' ही है। शिक्षा का ध्येय शिक्षक के लिए धनोपार््जन सही मार््ग पर ले जाने वाला पथ प्रदर््शक। तथा विद्यार््थथियों के लिए स्वार््थहित ज्ञानोपार््जन हो गया है। समाज मेंे गुरुओं का मान-सम्मान, \"आओ शिक्षा का मान बढ़़ाएं ,\" \"शिक्षक का सम्मान बढ़़ाएं ।\" 22 जून-अगस्त (संयकु ््ताकां ), 2023
कहानी संघर्ष् अजय शर््ममा जयपरु , राजस्थान \"चिल्लाओं मत। सारा घर सिर पर उठा रखा है। तं ग वही हिंदी साहित्य से परास्नातक अध्ययन परू ््ण करने के बाद आ चकु ी हूंू मैैं तमु ्हारी इस रोज-रोज की किच-किच स।े \", अनिता ने नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर््ण करके विश्वविद्यालय अनिता ने तजे आवाज मेें अपने पति आलोक से कह तो से ही 'समकालीन साहित्य मेंे नारी चेतना की प्रवृतियां' दिया, लेकिन ऐसा महससू हुआ जसै े अतं र््मन मेें कोई काचं विषय पर शोध कार्य् आरंभ कर दिया था। एक दसू रे तड़क गया हो और उसकी किर्चंेच बिखर कर उसके समचू े के लिए बके रारी इस कदर बढ़़ी कि दोनों ने अपने लक्ष्य व्यक्तित्व को घायल कर गई हो।ं भलु ाकर एक होने का निर््णय ले लिया। लेकिन आलोक के धनाढ्य पृष्ठभूमि वाले माता-पिता ने इस रिश्ेत को कभी भी यों देखा जाए तो आलोक हमेशा से ऐसा नहीं था। मन से स्वीकार नहीं किया। अतीत के झरोखे से झांकती अनिता विश्वविद्यालय के उस हरे भरे विशालकाय परिसर मेें भ्रमण करने लगी, जहां कु छ दिन तो मधुमास और उसकी सखु द स्मृतियों मेंे वह हिंदी साहित्य मेंे परास्नातक अध्ययन परू ््ण करने के ही बीत गए। अनिता की गोद मेंे अन्वी नामक एक सुहानी लिए प्रविष्ट हुई थी। आलोक के अध्ययन का विषय था परी आ गई थी। अब धीरे-धीरे जिंदगी का यथार््थ सामने -दर््शनशास्त्र। आने लगा। आलोक के माता-पिता की अनिता के प्रति नापसं द खलु कर जाहिर होने लगी। हालात इतने बिगड़़े भारतीय सभ्यता व सं स्कृति की स्वर््णणिम धरोहर का कि आखिरकार उन दोनों को घर से अलग होकर अपना अध्ययन करने के अलावा प्रशासनिक परीक्षाओं मेंे बठै कर आशियाना बनाना पड़़ा। आलोक अब तक अपनी जिंदगी अपना भाग्य आजमाने का विचार भी इसके मलू मेंे था। मेंे स्थापित नहीं हो पाया था। धीरे-धीरे उसका एक नया पिछले कु छ वर्षषों से यूपीएससी व राज्य सवे ा परीक्षाओं मेंे रूप सामने आने लगा- पराजित, टूटा हुआ और पलायन वादी आलोक। उच्च सरकारी पद के सपने टूट गए थे और दर््शनशास्त्र के विद्यार्थी अच्छी सफलताएं प्राप्त कर रहे वह एक निजी विद्यालय मेंे निम्न वेतनमान पर कार्य् करने थे। एक सं पन्न माता-पिता की इकलौती और लाडली सं तान के लिए विवश हो गया था। अनिता पर चिल्लाना, अन्वी आलोक भी शायद इन््हीं मधरु सपनों मेंे डूबा हुआ अपनी पर हाथ उठाना, पड़़ोसियों और दकु ानदारों से अनावश्यक मं जिल की तरफ बढ़ता जा रहा था। इसी अवधि मेें दोनों झगड़़ा मोल लेना, उसकी आदत बन गई थी। की मुलाकात एक सासं ्कृतिक कार्कय् ्रम के दौरान हुई थी। आलोक, अनिता के कत्थक नतृ ्य को देखकर अपनी सुध जाने कब तक अनिता बैठे -बैठे सूजी हुई लाल आं खों बधु खो बैठा। और अनिता 'भारतीय सभ्यता और सं स्कृति से अतीत के गलियारों मेें भटकती रहती कि अन्वी ने उसकी के विषय मेंे वर््तमान पीढ़़ी का दृष्टिकोण' व्याख्यान माला तं द्रा तोड़़ी,\" मां उठो ना। बहुत भूख लगी है। कु छ खाने को मेंे आलोक के प्रभावशाली व्यक्तित्व और अकाट्य तर््क दो।\"दोपहर के 2:00 बज गए थे। अन्वी स्ूक ल से घर आ शलै ी को देखकर व सनु कर मं त्रमुग्ध रह गई थी। बस, गई थी। फटाफट गरम फु ल्के सेकें कर उसको खाना परोस बधाई देने की पारस्परिक मुलाकात का यह औपचारिक ही रही थी कि अचानक अन्वी ने कहा,\"जानती हो मम्मी, क्षण आगे चलकर कभी ना साथ छोड़ने वाले कसमों वादों आज हमारे सर ने क्या कहा? उन््होंने कहा कि हर इंसान व जीवनसाथी बनने के सपनों मेें कब परिणित हो गया,पता को अपने आप से तीन सवाल पछू ने चाहिए। पहला, मैैं ही नहीं चला। समय मानो पं ख लगाकर उड़ता जा रहा कौन हूूं? दसू रा, मैंै इस सं सार मेंे क््यों आया हूूं? और तीसरा, था। आलोक की एम ए दर््शनशास्त्र पूरी होने के बाद से ही मैैं इस क्षण क्या कर रहा हूूं?\" अन्वी के मं हु से निकले इन उसने प्रशासनिक परीक्षाओं मेंे बैठना शरु ू कर दिया था। ऑस्ट्रेलिया ससं ्करण 23
वाक््यों ने मानो पल भर मेें अनिता के अतं र््मन को प्रकाशित व प्रशकै ्षणिक दस्तावजे ों को सं भाल रही थी। कल सबु ह कर दिया। सच ही तो कह रही है मरे ी छोटी बच्ची। आखिर जाकर शहर के एक प्रतिष्ठित बालिका महाविद्यालय मेें मैैं भी तो परमात्मा का एक अव्यक्त अंश हूंू और इस हिंदी साहित्य की प्रवक्ता के रूप मेंे अपने जीवन सं घर््ष की अंश का सम्यक उद्भासन ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। हर शरु ुआत करता उसका उज्ज्वल व्यक्तित्व उसकी आं खों मेंे जीवित प्राणी का लक्ष्य है। फिर मैंै क््यों हार मान कर बठै प्रतिबिंबित हो रहा था। ढलती हुई शाम का सूरज भी मानो गई। अपना दीपक खुद बनं गू ी। अपना पथ खुद आलोकित अपनी किरणों के साथ यह सं देश बिखेर रहा था कि एक करूूं गी। पराई रोशनी की आस कभी नहीं करूूं गी। सपने का अंत, जीवन का अतं नहीं है। जीवन हर हाल मेें जीवन है... जीने के लिए... रहने के लिए... चलते रहने रसोई का काम समाप्त करके अनायास ही अनिता के लिए... गोदरेज की अलमारी के ऊपरी हिस्से मेें रखे अपने शकै ्षणिक लघकु था बिल्ुक ल झूठ माला वर््ममा हाजीनगर, पश्चिम बं गाल “माँ , तुम हमशे ा कहती हो ऊपर इधर से उधर साफ-सफाई करती हो, बठै ा ईश्वर पूरी धरती को चलाता है। वो जो ईश्वर पूरी धरती को चलाता है वो कै से किस वस्ुत स,े धरती को चलाता दो-चार कदम भी अपने से नहीं चल है! मैनंै े तो कभी नहीं देखा कोई ईश्वर सकता! फिर किस बात की शक्ति! धरती को चलाने के लिए कोई प्रयास अपने ईश्वर को कहो वो धरती को भी करता है। अगर ये सच है तो इसे चलाना छोड़ यहाँ चं द कदम चल कर सभी देखते!” दिखाये फिर मैंै मानँ गू ा कि वो शक्तिमान है। मरे ी नजर मेें उस ईश्वर से तुम ज्यादा “ना बेटा ना, ईश्वर को ऐसे नहीं महान हो जो सुबह से रात तक खटती बोलते। वो ऊपर बैठा पृथ्वी की हर हो और पूरे परिवार को चलायमान गतिविधि को देखता सुनता और बनाती हो। एक दिन तुम न चलो तो अपनी मर्जी से चलाता है। ईश्वर बहुत हम अचल हो जाये।” शक्तिशाली है, परू ी धरती को रचने वाला एकमात्र ईश्वर है” माँ निरुत्तर किन्तु बेटा उतना ही आश्वस्त, आत्मविश्वास से भरा था... “झूठ बिल्कु ल झूठ। मैंै नहीं मानता। माँ तुम जो रोज ईश्वर की पजू ा घर मेंे करती हो। रोजाना ईश्वर को उठा 24 जून-अगस्त (संयकु ््ताांक), 2023
आलखे नतै िकता का पर््ययाय डॉ अर््चना वर््ममा लखनऊ उत्तर प्रदेश नतै िकता मनुष्य का वह गुण है जो उसे ईश्वर के होड़ मची है। सं यम और सं तृप्ति तो बस बीते जमाने की नजदीक ले जाता है। यदि मनषु ्य के अंदर नैतिकता नहीं बात हो चकु ी है। लालच ने अनेक विकारों को जन्म दिया हो तो जानवर और मनुष्य मेंे कोई फर््क नहीं रह जाता है। इन विकारों के चलते ही समाज मेंे टूटन की स्थिति बन है। वदे ों तथा धर््मगं थों मेंे नतै िक शिक्षा और सदाचार पर रही है। यह सब एक स्वस्थ्य और विकसित समाज के लिए विशषे बल दिया गया है। समाज मेें व्यक्ति दो चीजों से दखु दायी है। हमारे देश मेंे अनेक महापुरुष हुए जिन््होंने पहचाना जाता है एक ज्ञान और दसू रा नतै िक व्यवहार, अपने जीवनकाल मेंे वह सब कु छ किया जो सत्य, अहिंसा मनषु ्य के सर््वाांगीण विकास के लिए दोनों ही आवश्यक हैैं। और सद्मार््ग की ओर ले जाय।े आज हम अलग से चिंहित आज के परिवेश मेंे नैतिक शिक्षा की प्रासं गिकता विशेष हैैं तो इन परु खों के उन कार्ययों के कारण जिनको आज सारा महत्व रखती है। समाज मेें जिस गति से निरंकु शता, सं सार मान रहा है। नैतिक शिक्षा ही सत्य और अहिंसा व्यभिचार, और आधुनिकता की आड़ मेें सं स्कारों का लोप का मार््ग प्रशस्त करती है किन्तु वर््तमान समय भटकाव हो रहा है ऐसे मेंे नतै िक शिक्षा को अपने व युवा पीढ़़ी के का है। यांत्रिक रूप से हम विकसित हो चकु े हैैं किन्तु कार्य् व्यवहार व आचरण मेंे ढालने की महती आवश्यकता व्यावहारिक रूप से, चरित्र के तौर पर हमारा पतन आरंभ है। प्राथमिक स्तर से ही नतै िक शिक्षा को अनिवार््य करके हो चुका है, इस बात पर ऐतराज करने का कोई कारण शेष विद्यार््थथियों के राष्ट्रीय चरित्र एवं नतै िक चरित्र के निर््ममाण नहीं रहता है। ऐसा भी नहीं है कि इस बिगड़ रही स्थिति मेें सहयोग देने की आवश्यकता है तथा इसके व्यावहारिक से हम बाहर नहीं आ सकते हैैं। इसके लिए आवश्यक है पक्ष पर भी बल देना चाहिए क््योोंकि कोई शिक्षा तब तक आत्मबल, आत्ममं थन व दृढ़ सं कल्प की। महात्मा गाँ धी कारगर सिद्ध नहीं होती जब तक उसे व्यवहार मेें न लाया की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ मेें इस बात का विस्ततृ जाए। प्राचीन समय मेें ऋषियों और विचारकों ने यह वर््णन किया गया है। महापरु ुषों के जन्म या पुण्यतिथि घोषणा की थी कि शिक्षा से मानव की बुद्धि परिष्कृ त और पर हमेें उनका स्मरण के वल इसलिए नहीं करना चाहिए परिमार््जजित होती है। शिक्षा से मनषु ्य मेें सत्य और असत्य कि तारीखेंे याद रह जाए बल्कि इसलिए करना चाहिए का विवके जागता है। भारतीय शिक्षा का उद्ेदश्य मानव को कि उनके बताये रास्ेत का हम पुर््नपाठ कर सकेें और उन्हहें परू ््ण ज्ञान करवाना, उसे ज्ञान के प्रकाश की ओर आगे करना आत्मसात कर सकेें और एक नई दनु िया की शुरूआत करेंे। और उसमेें सं स्कारों को जगाना है। प्राचीन शिक्षा पद्धति निष्कर््ष यह है कि हमेें पुनः महात्मा गाधं ी, विवके ानं द और मेें नैतिक शिक्षा का बहुत महत्वपूर््ण स्थान होता था। आज सभु ाषचं द्र बोस जसै े महापरु ुषों को याद करते हुए उनके हम जिस दौर से गुजर रहे हैैं कहीं न कहीं नैतिक शिक्षा का बताये रास्ेत पर चलकर सं कल्प लने े की आवश्यकता है अभाव ही है। प्राथमिक शिक्षा मेें नतै िक शिक्षा का पाठ और आने वाली पीढ़़ी को नैतिक शिक्षा के महत्व और इसलिए ही पढ़़ाया जाता था कि बच्चे बड़े़ होकर जीवन को उसकी व्यवहारिकता से परिचित कराने की आवश्यकता सही परिप्रेक्ष्य मेंे समझेें किं तु आज नतै िक शिक्षा के अभाव है। तभी हम अपने नैतिक पतन पर लगाम लगा सकते हैंै। मेंे दसू रों से अधिक मैैं कै से और कितना प्राप्त कर लँ ू , इसकी ऑस्ट्रेलिया संस्करण 25
कौन हो तमु मर््द हूूं मैैं कु छ ना कहता हूूं तपती रेत सी जिंदगी मेें, कु छ बं ूदों की बारिश तमु , खामोश मं ज़र, गहरा समं दर आहत मन, बिखरे भावों मेे,ं छोटी सी हो ख्वाहिश तुम, दिल मेंे छुपाए बस सब सहता हूंू॥ जज़़्बबात, एहसासों को दिल मेंे छुपा सोचती हूंू, आखिर कौन हो तुम? हर ख्वाहि दिल मेंे मैैं दबाए रहता हूूं॥ खाली-खाली सी शामों मेंे, एक कप चाय की प्याली तमु , मर््द हूूं मैंै कु छ ना कहता हूूं॥ 1॥ किसी दरखत़् की शाखों पर, फू लों से लदी डाली तुम, सोचती हूूं, आखिर कौन हो तमु ? आवाज़ दिल मेंे रोज़ घटु ती जाती मेरी आवाज़ उठा ना पाऊं बस चुप रहता हूंू॥ किसी डूबती कश्ती का, मिल जाए वो साहिल तमु , किसी भटकती राहों की, दिख जाए वो मं जिल तुम, आराम चाहता मैैं भी अपनी जिंदगी मेंे जिम्दमे ारी के बोझ के आगे सब सहता हूंू॥ सोचती हूंू, आखिर कौन हो तुम? मर््द हूूं मैंै कु छ ना कहता हूंू॥ 2॥ लहर हो समं दर का, या दरिया के गीत तमु , रात के गहरे सन्नाटे मेे,ं मनभावन सं गीत तमु , अपनी खुशी के लिए जियं ू जो कु छ पल मिले मझु े भी खशु ी, खुशी ढूंढ़ता रहता हूूं॥ सोचती हूूं, आखिर कौन हो तुम? कह ना पा रहा खलु का अपना हर दर््द ठहरे-ठहरे से पानी मे,ंे उठती हुई तरंग तुम, हाथ-पैरों के छाले अपनों से छुपाए बठै ा हूूं॥ किसी मासमू बचपन का, अल्हड़ सा उमं ग तुम, मर््द हूूं मैंै कु छ ना कहता हूंू॥ 3॥ सोचती हूंू, आखिर कौन हो तमु ? कर पूरी जिम्ेमदारी बैठंू जब मैंै अपनों सं ग कोरे सफे द कागज पर, लिखी हुई गजल तमु , अपनों के लबों कि मसु ्कान देख मैैं हस देता हूंू॥ ज़ख्मी रूह का मरहम, या खुदा का फ़ज़ल तमु , मिले जब मझु े अपनों से प्रेम और अपनापन सोचती हूंू, आखिर कौन हो तुम? भूल हर दर््द मैंै तरल प्रवाह नदी सा बहता हूूं॥ खुदा से जो मागं ी थी, वो मुकम्मल दआु तुम, मर््द हूूं मैैं कु छ ना कहता हूंू॥ 4॥ रूह को जो छू जाए, हो दिलकश अदा तमु , मुझे भी जीने दो, खदु के ही लिए हर कोई सोचती हूंू, आखिर कौन हो तुम? ये अभिलाषा दिल मेंे दबाए खामोश रहता हूंू॥ सदियों से जर््द अधरों पर, खिली हुई मसु ्कान तमु , मर््द हूूं मैैं कु छ ना कहता हूंू॥ 5॥ मैैं कहां अब मैैं रही, मेरी तो पहचान तुम, सोचती हूंू, आखिर कौन हो तमु ? सोचती हूूं, आखिर कौन हो तुम? रजं ना लता (नर््स) वीना आडवाणी तन्वी समस्तीपुर, बिहार नागपुर, महाराष्टर् 26 जून-अगस्त (सयं ुक््तांका ), 2023
जातिवाद एक अभिशाप मनहरण घनाक्षरी चलो साथियों जातिवाद तज, भारतीयता को प्यार करेें। ईश-भाव मानवता अति सर््वश्रेष्ट है, इसका क््यों तिरस्कार करेंे॥ पषु ्प-गं ध जब मिली, जातिपात का ग्रहण कलं कित, छाया रहा है दीर््घ काल से। दिख गयी खिली कली, छिन्नभिन्न जनगण जो हो गये, धर््मज््ञों की निम्न चाल स॥े निर््झरों को देख कर, मनुष्य जाति को घृणा करना, वेद विमुख है सभी जानत।े ईश भाव छा गया। मानवता पर घोर कलं क यह, क््यों हृदय से नहीं मानत॥े वर््ष तीन सहस्र मेें नष्ट हुए, इन परू ््वजों की अज्ञानी से। उत्ंुत्ग श्ंृर्ग श्ंृर्खला, तिरस्ृक त सारे भाग उठे झट, पौराणिक मनमानी स॥े ऋतु हँसी बसं त पा, छुआछूत एक कारण हो लिया, धर््ममान्तरण की ज्वलं त लहर का। चहक उठे पक्षी भी, फिर आरक्षण भी जड़ पकड़ गया, पनु र्प्रज्वलित उक्त कहर का॥ मन खशु ी पा गया। राष््टरीय एकता कायम रखना, कर््तव्य है हर व्यक्ति का। हो भदे भाव ना जातिधर््म का, मिल दर््शशाओं शक्ति का॥ हँसती धरा चपल, उक्त जातिपात के भदे भाव न,े निर््बल हमको बना दिया। भाव भी लिये नवल, राजनते ाओं ने रोटी सखे ी,ं अवसर को झट भुना लिया॥ अनुराग पा धरा का, कौए जैसी कपट चाल को, आज समझ लो भ्रातागण। नभ भू को पा गया। विलम्ब पड़ेगा महँगा अत्यँ त, यदि ना जाने हे जनगण॥ हैंै सभी भारतीय भाई-भाई, मिल वेदों को साकार करो। प्रकृ ति है सजी-सजी, जातियता है कलं क समाज पर, सहृदय स्वीकार करो॥ भाव नये रच रही, समय आ चकु ा इसे मिटाने, हो ना जाय आपसी महारण। चाह लिये घन मन जातिपात की सं कीर््णता अब, सता रही है हे 'गज' जनगण॥ प्रेम ही मिला गया।। गजराज सिंह राज किशोर वाजपेयी ”अभय” ग्रेटर नोएडा ग्वालियर ऑस्ट्ेरलिया ससं ्करण 27
ज़़ििं दगी अधरू ी क्ययों लगती बाबजू ी !! ज़़ििंदगी अधरू ी क््यों लगती है, कविता, ग़ज़लें,े गीत, रूबाई, बाबूजी की देन है जी! कई लम््होों मेें हम खो जाते हैैं। मेरा फक्कड़पन, सच्चाई, बाबजू ी की देन है जी! मन मेंे कु छ अनिर््ददिष्ट चाहते होती हैैं, जो हमेंे सदा परेशान करती हैैं। मेरे शब््दों का उथलापन, बशे क! मरे ा अपना है! लके िन भावों की गहराई, बाबजू ी की देन है जी! हम सब कु छ प्राप्त करने की चाह मेंे होते हैैं, जब उनकी प्राप्ति नहीं होती हम रहते उदास। दसवीं तक बस दस प्रतिशत ही विद्यालय मेंे पढ़ पाया! कभी-कभी हमेें सफलता पाने के बाद भी, नब्बे प्रतिशत मेरी पढ़ाई, बाबूजी की देन है जी! जिंदगी अधूरी सी लगती है अपने आस-पास। बुरी आदतेंे जितनी भी हैंै, वो सब मैंैने बोई हैंै! हम अपने सपनों की परू ््तति के लिए कु छ करते हैैं, जो कु छ मुझमेें है अच्छाई, बाबूजी की देन है जी! लके िन सब नहीं होता जैसा चाहते हैंै हम। फिर भी ज़़ििंदगी चलती रहती है, कृ पा भले ही ईश्वर की हो, ज़रिया चाहे जो भी हो! अधूरी रह जाती है कभी-कभी हमारी कहानी। पर जो कु छ है मेरी कमाई, बाबजू ी की देन है जी! हम जीवन के किसी एक पल मेंे समझते हैैं, समझौतों की लाश जलाकर, बचपन मेंे ही फँू क चुका! कि जिंदगी अधूरी हो गई है हमारी। सिद्धान््तोों की ये परछाई, बाबजू ी की देन है जी! लेकिन हम भूल जाते हैंै कि जिंदगी नहीं थमती, हर पल नया उत्साह और उमं ग लके र आती है है मेरा 'अस्तित्व' उन््हीं से, धलू हूँू उनके चरणों की! मानवता की सीख जो पाई, बाबजू ी की देन है जी! जिंदगी अधरू ी नहीं होती दोस््तों, हम खुद ही अपनी सीमाओं मेें जकड़ जाते हैैं। बदलाव लाने के लिए तैयार रहेंे, हर पल को जीवं त बनाए जिंदगी सं दु र बनाए। डॉ. अरुण प्रताप सिंह भदौरिया शखे र “अस्तित्व” शाहजहाँ परु (उ.प्र.) ******** 28 जून-अगस्त (संयुक््ताांक), 2023
मुस्कुराहटेें छु ट्टी मैंै मसु ्कु राहटेें बाँ टती हूूँ । आफिस से मैैंने छुट्टी कर ली लोगों के चहे रों पर छाई उदासी मेें व्यस्तता से मैनंै े कु ट्टी कर ली।। जिंदगी की तकलीफों मेें बच््चों सं ग मैैं देर से जागी हँसी का अहसास लाती हूँू खत्म कर दी भागम भागी ॥ मैैं मुस्ुक राहटेें बाँ टती हूूँ । लाड़ ,दलु ार मनहु ार किया जानती हूँू जिंदगी मेंे तकलीफेंे हजार हैंै घड़ी सं ग चलने से इनकार किया॥ दर््द और गम का हर पल साथ है इस दर््द और गम के पलों मेंे से पल भर को हुई तक़रार एक पल खशु ी का छाँ टती हूँू । मनपसं द नाश्ते की लगी गहु ार॥ मैंै मुस्ुक राहटेंे बाँ टती हूँू । ऐसा नहीं के मुझे कोई गम नहीं बच्चे खशु थ,े रौनक पसरी मुश्किलेंे मरे े दर पर भी कम नहीं चौके से खुशबू थी फै ली॥ हँस कर इन मुश्किलों को काटती हूँू छत पर आया धूप का टुकड़ा मैैं मसु ्कु राहटेंे बाँ टती हूूँ। मन मयूर खुशी से फड़का॥ आशा निराशा लम्हा दर लम्हा रहती हैैं निबट गए सलीके से काम पर क्या जिंदगी कभी ठहरती हैंै? दपु हरिया मिला सुकू न्, आराम॥ इस चक्र से भाव एक पल का विराम चाहती हूूँ घर का कोना-कोना सं ुदर मैैं मुस्कु राहटेंे बाँ टती हूूँ । जीवन गति हुई है मं थर॥ चौबीस घं टे दिन की परिधि, किन्तु खशु ियों की बढ़ गई अवधि॥ आफिस से मैनैं े छुट्टी कर ली व्यस्तता से मैंनै े कु ट्टी कर ली। भावना सोनी ‘भाव’ डॉ. ज्योति प्रियदर््शशि नी श्रीवास्तव ******** ग्वालियर (म.प्र.) ऑस्ट्रेलिया संस्करण 29
ग़ज़ल मुहोब्बत पाक है मज़दरू मिली जो शाम है हमको सुनो सबसे सुहानी है, मज़दरू हैैं, छुट्टी का कोई वार नहीं होता पता है यह हसीना आपकी पगली दिवानी है। इतवार नहीं होता कि त्योहार नहीं होता। दनु िया मेंे अगर मरे ा भी परिवार नहीं होता नहीं टिकती बहुत दिन जान लो तुम बात यह जानम, जीवन मेंे मैैं भी इतना तो लाचार नहीं होता। तिरी हो या मिरी हो, सच कहूँू यह ज़़ििंदगानी है। जीवन मेंे कभी भी दो व दो चार नहीं होता हमेें रक्खा हमेशा एक ही घर मेें सदा उसन,े तुम चाहो जिस,े तमु से उसे प्यार नहीं होता। ख़़दु ा का शुक्र है यह तो सही मेंे गुलफ़़िशानी है। मैंै जब कभी मिलने के लिए यार से जाता हूूँ बदक़़िस्मती से घर पे मेरा यार नहीं होता। नहीं कोई कमी दिखी कभी तुझ मेंे मझु े है सच, मैैं हार नहीं जाता कि तू जीत नहीं जाता भला तेरी वफ़़ा क््यों आज फ़़िर से आज़मानी है? गर तेरा मिरे पीठ पे यँ ू वार नहीं होता। महु ब्बत पाक है अपनी ख़ु़दाया मैंै कहूँू सच मे,ंे अलग सच मेंे तिरी मेरी सभी से ही कहानी है। मिरी चनू र उड़़े है साथ ख़््वाबों के , तझु े लके र, तिरा अदं ाज़ सच यह चनू री तो आसमानी है। नहीं कु छ भी भरोसा सासं का तुम बात यह सुन लो, बताओ साथ क्या आई मरे ी ख़़ातिर निशानी है? अभिलाज चावला भानू झा मुम्बई भागलपरु , बिहार 30 जून-अगस्त (सयं ुक््ताकां ), 2023
ग़ज़ल अके लापन मुहब्बत के झरोखे उफ्फ.. ये अके लापन रुलाओगे बहुत खुद को मुहब्बत यार मत करना! कितना बढ़ गया है बड़़े घाटे की शय ठहरी, कभी व्यापार मत करना।। अके लापन एक आभास ही तो है सताएँ गे रुलायेेगं ,े जताके चाहते अपनी, सूनापन है व्याप्त नहीं कोई दवा इसकी दिले-बीमार मत करना। बस यादों का मेला है बसा लने ा दिलों मेंे तुम बना के धड़कने अपनी, आज फिर मगर इतना समझ लो तमु निगाहेें चार मत करना। मिल बठै ा हूंू तन्हाई से... तुम्हारी चाहतों का ये सिला जाने क्या फिर देेंगे ये तन्हाई भी अजीब है बडे शातिर बहुत हैैं य,े कभी इजहार मत करना। भीगी आं खेंे... कहेें सब लोग दरिया है बहुत गहरा ये उल्फत का, पता नहीं लगोगे डुबने इसमेें कभी भी पार मत करना। किन यादों मेें खोई हैैं रो रही हैंै आं खें.े .. रखोगे कब तलक जिंदा, मुहब्बत के झरोखे मेे,ं परिदं ा है बहुत नादाँ ,जरा भी वार मत करना। अपनी बेबसी पर बीते लम्हेहं किया है अब तलक घायल तिरे दिलकश कलामो ने, चलाए तीर जो दिल पे वही अश््आर मत करना। आज भी बरक़रार है वही शामेें है ये पर क््यों किसी की ज़रूरत किसी का इंतज़़ार नहीं तन्हाई... दिखती है अके ली मैंै पड़़ा सनु ता रहता हूंू ख़़ामोशी का चिल्लाना भटकती आं खेें.. अधं रे ों मेें छत से टकराकर रुक सी गई है अब मैैं अके ला.. उन यादों को याद कर इस अके लपे न को सहलाता हूंू बोये ख़््वाब.… और अके लापन काटता हूंू... शायर देव मेहरानियाँ राजस्थान नीना महाजन नीर गाज़़ियाबाद, उत्तर प्रदेश ऑस्ट्रेलिया संस्करण 31
बुजरु ्गगों की अहमियत साँसोों के रहते मकु ्ति नहीीं मिलती बुजरु ्गगों की अहमियत बं द दरवाजे से पछू िए, कोई नहीं धरा पर ऐसा है, जो जीवन मेंे मुक्ति पाया। जो हर वक्त मिलता था बाहेें पसार। जीवन रहते नहीं ये सं भव, अंतिम क्षण मकु ्ति पाया।। बुजरु ्गगों की अहमियत सूने आं गन से पूछिए, जिसमेें रहती थी हर वक्त कहकहों की बौछार। जीवन भर ये मानव अपना, धर््म-कर््म सभी निभाया। बुजुर्गगों की अहमियत उजड़़ी बगिया से पूछिए, एक जिम्दमे ारी परू ््ण हुई तो, दजू ा भी सर पर आया।। जिसमेंे रहती थी हर वक्त निखरी बाहर। बुजुर्गगों की अहमियत रसोई से पूछिए, जन्मा मानव तन मेें है शिश,ु लिए बढु ापे तक आया। जिसमेें बनते थे पकवान शानदार। अपने हर वय मेें इंसा कु छ, न कु छ करते ही आया।। बुजरु ्गगों की अहमियत इतिहास से पूछिए, हर तरह का जिनके पास है ज्ञान भण्डार। कभी पढ़ाई,कभी नौकरी, कभी शादी ब्याह रचाया। बच्ेच पाला,उन्हहें पढ़ाया, उनका भी घर है बसाया।। बुजरु ्गगों का न करते जो मान सम्मान, उनके जीवन का न रहता कोई आधार। सामाजिक कर््तव्य से मुक्त हुए,आध्यात्मिक आया। बुजरु ््ग हमारे समाज की हैैं धरोहर, धर््म एवं आध्यात्म मेंे थोड़ा,अपनी रुचि है बढ़ाया।। उनका करो आदर सत्कार। बुजरु ्गगों की जो समझोगे अहमियत, इधर उम्र बढ़े,उधर नाती-पोते,का समय भी आया। हर पल मिलगे ा प्यार दलु ार। मन बच््चों मेंे है लगा रहे, कोई भाग न इससे पाया।। समाज को सीखना होगा बुजरु ्गगों से करना व्यवहार, नहीं तो फं स जाएगी आने वाली पीढ़़ी की नाव बीच मं झधार। जीवन रहते नाती-पोतों सं ग, खेला है उन्हहें खेलाया। जितना सं भव था जीवन मेे,ं हर एक बोझ उठाया।। बुजुर्गगों का आशीर््ववाद अगर लेते रहोगे, जिंदगी मेंे सफलता की ऊं चाईयों को छूते रहोग।े कोई इंसान कभी जीवन मे,ंे कहाँ मुक्त वो हो पाया। बजु रु ्गगों को जो वक्त न दोग,े एक जिम्ेमदारी से मुक्त हुए, तो अगली पे है धाया।। सही गलत का फासला कै से समझोगे । बुजरु ्गगों को जो घर पर न रखोग,े मानव जीवन ये ऐसा ही है, वह नहीं मुक्त हो पाया। सं स्कारों की इफाजत कै से करोग।े मोह माया के जाल मेंे फँ स, हरदम ये दौड़ लगाया।। समय रहते जो न समझोगे, खाली झोली लिए फिर पछताओग।े कोई नहीं धरा पर ऐसा है, जीवन रहते मकु ्ति पाया। बुजुर््ग जो तमु से रूठ जाएं गे,ंे साँ सेंे रहते नहीं है सं भव, अंतिम क्षण मुक्ति पाया।। किस्मत के दरवाजे बं द हो जाएं गे। कमलदीप कौर डॉ. विनय कु मार श्रीवास्तव तलवाड़ा, पं जाब प्रतापगढ़, उ.प्र. 32 जनू -अगस्त (संयुक््ताकां ), 2023
अगर आप... मगर आप सच को भी तोला गया है अगर आप लक्ष्मण बनते हो, मरे े पिता हमारे सच को भी तोलागया है, तो आप कर््तव्य को चनु ते हो। पिटारा झूठ का खोला गया है ।। ईश रूप साक्षात पिता हैैं, मगर आप भरत बनते हो, बच््चों का अभिमान पिता हैैं। अमां कै सा ज़माना आ गया है, तो कर््तव्य आपको चुनता है। भले को भी बरु ा बोला गया है।। कोई कु छ भी कहले उनको, अगर आप ध्रुव बनते हो, बच््चों का धनधान्य पिता है। उड़़ी अफ़वाहों से क्या बच सकोग,े तो आप भगवान को चनु ते हो। सलीके से इन्हहें ढ़़ोला गया है ।। मगर आप प्रहलाद बनते हो, मरे ा जीवन जिसने गढा है, तो भगवान आपको चनु ते है । गढने वाला एक पिता है। बदल कर वेष धोखा दे रहे थ,े उतारा अब कहीं चोला गया है ।। अगर आप कर््ण बनते हो, आसमान सा छाया रहता, तो आप गुरु को चनु ते हो। बच्चो का अरमान पिता है। छुपा था क्या तभी हम जान पाय,े मगर आप चन्द्रगुप्त बनते हो, टटोला उनका जब झोला गया है।। तो गरु ु आपको चुनता है। चिंता हो या हो इच्छायेंे, अगर आप वं दृ ा बनती हो, सबका समाधान पिता है। जहॉं भी भूल कर जाते हैंै हम सब, तो आप भक्ति को चुनते हो। वहीं पर आग का शोला गया है ।। मगर आप शबरी बनती हो, नारियल जसै ा ऊपर दिखता, तो भक्ति आप को चुनती है । भीतर तो रसदार पिता है। सभी बातेंे लगी उनकी भली सी, अगर आप सीता बनती हो, भला फिर क््यों ये विष घोला गया है ।। तो आप त्याग को चनु ते है ब्रम्हा विष्णु महेश एक ही, मगर आप उर््ममिला बनती हो । तीनों का प्रतिरूप पिता है। सभी तो चोर मौसेरे हैैं भाई, तो त्याग आप को चनु ता है । तभी तो राज कब खोला गया है ।। \"अगर आप राधा बनती हो, तो आप प्रेम को चनु ती हो। नहीं वाहनमिला, जाना जरूरी, मगर आप मीरा बनती हो, पकड़ कर वो अभी ओला गया है।। तो प्रेम आपको चनु ता है\"। उड़़ी है धलू कितनी दरू तक ये, चली आं धी कि फिर टोला गया है।। अगर थी चाह 'निर््भय' शान्ति की तो, चलाया क््यों ये बम गोला गया है ।। गरिमा राके श गौतम ‘गर््वविता ‘ डॉ. आर बी पटेल ‘अनजान’ कोटा, राजस्थान छतरपरु निर््भय नारायण गपु ्त ‘निर््भय’ गोमतीनगर, लखनऊ ऑस्ट्रेलिया संस्करण 33
अनिल कु मार के सरी मर््द को दर््द नवगीत नहीीं होता...? राजस्थानी बँ दू -बँ दू पानी की किल्लत और मर््द को दर््द नहीं होता? गलियों मेंे मच रहा बबाल परु ुष, मर््द है... लाचारी मे.ें .., पनघट जाने कहाँ खो गया और मर््द होना ही उसका, प्यासा यह कर रहा सवाल। सबसे बड़़ा सिर-दर््द है। उसका लाचारी दिखलाना; दनु िया को नहीं भाता? मेघ दे गए धोखा कहते है- नदियाँ पथ को छोड़ गई मर््द को दर््द नहीं होता? वह छिपकर रो ल,े भले ही, पजू े मठ, मन्दिर, गरु ुद्वारे दःु ख आने पर भी वह, लेकिन..., पर बारिश मुख मोड़ गई औरत की तरह नहीं रोता। सन्नाटा छाया खेतों पर मर््द का ऐसे आँ सू बहाना, चपु हैंै ढोल, मं जीरा ताल। लके िन, पूछो... दनु िया की नज़रों मेें, उन मर्ददों स,े हरित वकृ ्ष भी काट दिए उसका, पौरुष है लजाता। यह भलू गए वे पतु ्र समान कितने मर््द है दनु िया मेंे; दर््द मेें आँ सू बहाकर, वहाँ नहीं आकर््षषित बादल जिनको दर््द नहीं होता? ऐसा मिलता सदा प्रमाण मर््द की मर््ददानी घट जाती; सूखी धरती सोच रही अब वह रोया नही,ं मर््द, मर््द नहीं रहता? कै से हो जीवन खुशहाल। यह दनु िया ने देखा। मर््द का फौलादी सीना, उसके अंदर की बाढ़, पानी है इस भू पर अमतृ कितनी उफ़न रही है ? चाहे, छिदा हुआ हो गोली स;े मत इसको बर््बबाद करो कितना सुलग रहा है वह? लके िन, बिन पानी जीवन है मुश्किल यह, दनु िया को नहीं पता। इससे मत खिलवाड़ करो पुरुष, मर््द है... जल-जं गल ही सच्ची पँ ूजी घँ ूट-घँ टू करके , और मर््द को दर््द नहीं होता...? इनको रखना सदा सं भाल। वह सारा विष पी गया, उसका टुकड़़ा-टुकड़़ा मरना, डॉ. अरविंद श्रीवास्तव ‘असीम‘ न तमु ने देखा, न हमने देखा। छोटा बाजार दतिया (मध्यप्रदेश) फिर भी, पुरुष, मर््द है... जून-अगस्त (संयकु ््तााकं ), 2023 34
पावस ऋतु शिखा गर््ग गीत-उँ गली किस-किस पर.. पावस ऋतु मेें बादल छाया, उरई, उत्तर प्रदेश वर््षषा अब तो खशु ी दिलाए। क्लान्त नदियों की रवानी बरखा रानी आकर अब तो, उँ गली किस-किस पर उठाऊँ जल नहीं अब आसमानी, भीषण गर्मी दरू भगाए।। ग़लतियाँ कितनी गिनाऊँ , आ रहे हैंै जो बवं डर निर््झरों के स्रोत सखू े नाचे गाए मोर पपीहा, दोष मैंै किसका बताऊँ , रह गयी के वल कहानी, हरियाली से धरा निराली। जाग रे, मुझको बचा ले शुष्क है सावन सलु गता वन उपवन से शोभित होती, मैैं धरा, तेरे हवाले! रूठे मेघों को मनाऊँ ! देखो नभ मेंे घन है काली।। जाग रे मझु को बचा ल.े ..... हूँू न अब, जो कल रही नभ पर गड़-गड़ बादल गरज,े शूलों मेंे ही ढल रही हूँू, है क्षुधित कितना तू प्यासा कड़-कड़ करती बिजली चमकी। फट गया मरे ा ये आँ चल रेत, जं गल सब चबाता, मैंै व्यथा से जल रही हूँू, तुष्ट पर होती न तषृ ्णा टिप-टिप पहले बँ दू े गिरती, सृष्टि के सुन हे रचयिता पी रहा प्याले पे प्याला, फिर धीरे से वर््षषा धमकी।। रात-दिन तझु को मनाऊँ ! लटू कर मझु को दिये जो पावस ऋतु के आने पर तो, जाग रे मझु को बचा.... घाव वे किसको दिखाऊँ , हलधर इसका गणु ही गाता। जाग रे, मुझको बचा ले-- पानी होता मट मैला सा, खते पी-पी विष को सखू े लेकिन फिर भी सबको भाता।। हैैं कलेवर तरु के रूखे, मैैं धरा तेरे हवाल!े पर नहीं सन्तुष्टि इनको ऋतु पावस तो लगे सहु ानी आदमी कितने हैैं भखू ,े पोखर नदियाँ सब भर जात।े जानते हैंै फिर भी भूले जन जीवन तो हर््षषित होते, राह किस-किस को दिखाऊँ ? जलचर जल मेंे खुशी मनात।े । जाग रे मझु को..... नागेश्वरी 35 चने ्नई ऑस्ट्ेरलिया संस्करण
नई दनु िया जीवन का पतझड़ ए खुदा एक दनु िया नई दे तू फिर से बसा मानव का जीवन बड़ा अनमोल होता है, प्रेम से मिल जुल के रहे हम जिसमेें सदा जो पतझड़ की तरह पल-पल झड़ता है। खुशियों के अभाव मेंे जीवन का पतझड़ है, साफ़ दिल वाले ही लोग बसते हो जहाँ अवसाद और तनाव तो जीवन मेंे हरक्षण है। प्रेम ही प्रेम हो बस न नफरतेें हो वहाँ जीवन के पतझड़ मेें कोई उमं ग नहीं होती, हो अमन शांति हीजिस मेंे चारों तरफ़ उलझनों के साथ जीने की तरंग नहीं होती। ऐसी निश्चल दनु िया तू कर दे हमको अता जीवन के पतझड़ मेंे अपनों का सहारा नही,ं ए खुदा एक दनु िया नई दे तू फिर से बसा गम भरी जिंदगी मेें तो सुख भी गं वारा नही।ं जीवन के पतझड़ मेें स्व का कोई मूल्य नही,ं न अमीरी न गरीबी की दीवारेें हो वहाँ किससे अपके ्षा रखेंे निजकाया भी स्ूथल नही।ं बस हक़ीक़त ही होहो न दिखावा जहाँ जीवन के पतझड़ मेंे उड़ान कटी पतं ग सी है, एक दजू े के सुख दखु जहाँ अपने लगने लगे जिंदगी उसकी उझड़े हुए वीरान चमन सी है। ऐसे पावन भावों को मन मेें तू सबके जगा जीवन के पतझड़ मेें हृदय कमल न खिलता, ए खदु ा एक दनु िया नई दे तू फिर से बसा बसं त ऋतु मेें काक-पिक का भदे न मिलता। जीवन का पतझड़ सखू े हुए तरुवर जैसी है। एक ही जात बस एक ही धर््म हो उम्मीद शषे रहते कोपं ल सी निकल आती है। मेहनत का लिखा जीवन का पतझड़ जब परू ््णतः को पाता है, ही बस कर््म हो कोई भखू ा नं गा यह शरीर सखू ी लकड़ी के समान जलता है। न हो जहाँ आदमी सबके चेहरों को देना तू फू लों सा खिला ए खुदा एक दनु िया नई दे तू फिर से बसा देवप्रिया ‘अमर’ तिवारी विशाल जनै ‘पवा’ ******** तालबहे ट (ललितपरु ) उ. प्र. 36 जनू -अगस्त (संयुक््तााकं ), 2023
बावरा मन वारिस मन; ये वारिस अब न बरसो! इतना बावरा है रे क्ँूय् तू? न ढाओ इतना कहर! ये वारिस अब न बरसो! कभी चुप-चपु तो, सीमा भावसिहका कै से करू शब््दों मेंे बया!ं कभी अनवरत है बोलता सा, बारिस मेंे गरीबों के हृदय की पीर! कभी लगता बगे ाना तो, ******* उड़ गई छत से पयार की चादर! टूट गए खपड़े़ सारे ! कभी एकदम अपना सा, जहां सिलगता था चूल्हा! बहा लगी है जल की धारा! मन;, बच्चे भखू से बिलख रहे है! बेबस मा नहीं खिला पा रही उन्हहें एक इतना बावरा है रे क्ँूय् त?ू निवाला ! अधगिली साडी के आं चल मेें समटे े कभी भीतर ही भीतर चित्कार करता, अपने कलेजे के टुकड़़ों को ! आं खों से गिर रही निरंतर अश््कोों की धारा! तो कभी बपे रवाह खिलखिलाता, खेतों को देखो समं दर जसै े दिख रहे! सड़केंे भी नदियां बनी हुई हैैं! कभी अन्दर से कु छ टूटता तो, बेबस बाप भी जाए कहा! स्तम्भ होकर ये सब देख रहा ! कभी लगता है कु छ जुड़ता सा, किस बात कि हमको मिल रही हैंै ये सजा! ये वारिस अब न बरसो! मन; इतना बावरा है रे क्ँूय् त?ू प्रीति अभिषेक दबु े कभी घर के डहे छत की तरह तो, कभी बन जाता है नीवं सा, जबलपरु , म.प्र. कभी रिश््तों से टूटता तो, कभी रिश््तों से है जुड़ता सा, मन; इतना बावरा है रे क्ँूय् त?ू कभी अपने भावनाओं को छुपाता, तो कभी पन््नों पे है, स्याही बिखेरता सा, कभी खुशी के गीत गनु गुनाता, तो कभी बपे रवाह, पगडंडियों पर चलता सा, मन; इतना बावरा है रे क्ँूय् तू? ऑस्ट्रेलिया ससं ्करण 37
उन्मेष तयै ार हूंू मैंै क्या भूत क्या भविष्य, यहाँ तो वर््तमान ही बिखरा है जिंदगी बता मेरी खता क्या है जीवन की दरु ्बोध जटिलता ने हर मानव को पकड़़ा है इस नासाज़ से दर््द की दवा क्या है? मधरु स्मृति आँ खों मेंे भरकर मन अतीत मेंे भटक रहा है नहीं दवा नही,ं दआु दो मझु े ! जी रहे जिस जीवन को वह परू ा का पूरा बदल रहा है मरे ी खता नही,ं मरे ी लडाई़ दो मुझे ! नए स्वप्न सं घर््ष भरे हैैं,दरू हिमालय पिघल रहा है मरे े हिस्ेस की रुबाई दो मझु े सं दु र ख्वाब नए भविष्य का,हर आँ खों से छिटक रहा है। शिकायत क््यों ही करुंु मैैं जिंदगी ? बड़़े-बड़़े बाहुबलियों का ,इस महंगाई से दम निकल रहा है कि मरे ी खता क्या है बं द पड़़ा व्यापार भखू से व्याकु ल पशु इंसान हो रहा है तयै ार हूूं बता, मरे ी सजा़ क्या है ! जो तू सख्त है, तो सीने मेंे धड़कते दिल कर््ज मेें डूबा कृ षक खेत मेें हल लेकर सं घर््ष कर रहा है और मन की ताकत तझु े भी पता क्या है ? नवजीवन का स्वर््णणिम प्रभात कण कण मेें उदित हो रहा हैैं। जीत से पहले हार मान लं ू घूम रहा है काल चक्र यह कै सा परिवर््तन है ऐसी भी वजह क्या है। धरती पर क्या फिर से नव युग का उन्ेमष हो रहा है। डॉ. मजं ू अरोरा भारत माँ का वीर पुत्र सीमा पर बलिदान दे रहा है देश भक्ति की खातिर योद्धा देश भक्ति की शपथ ले रहा है जलन्धर पं जाब भारत माँ की सं तानों तुम द्वेष भलु ाकर हाथ मिलाओ स्वार््थ भाव को छोड़ राष्टर् की वदे ी पर शीश झुकाओ विपदा बहुत बड़़ी है अनशु ासन से उसे दरू भगाओ देश के बच्चे बच्चे की आँ खों मेंे विश्वास दिलाओ। सनु ीता के सरवानी नागपरु महाराष्टर् 38 जून-अगस्त (संयुक््ताकां ), 2023
ऑस्ट्ेरलिया ससं ्करण 39
कू लकं षा पत्रिका के साथ इस अंक मेंे पजं ीकृ त साहित्यकारगण प्रकाशन सम््पर्क् सतू ्र महेश पुरा, अजयपुर रोड, सिकन््दर कम््पपू, लश््कर ग््ववालियर, मध््य प्रदेश - 474001 दूरभाष : +919753877785 ई-मेल : [email protected]
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