प्रेमचंदि मानसरोवर भाग 4 ह दंि ीकोश www.hindikosh.in
Manasarovar – Part 4 By Premchand य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि समाप्त ो चकु ी ंै। This work is in the public domain in India because its term of copyright has expired. यूनीकोड ससंि ्करण: सजंि य खत्री. 2012 Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012 आवरण धचत्र: ववककपीडडया (प्रेमचदिं , मानसरोवर झील) Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake). ह दिं ीकोश Hindikosh.in http://www.hindikosh.in
Contents प्रेरणा........................................................................................................... 4 सदगतत...................................................................................................... 18 तगादा........................................................................................................ 29 दो कब्रे.......................................................................................................40 ढपोरसखंि ....................................................................................................60 डडमासंि ्रेशन.................................................................................................86 दारोगाजी.................................................................................................... 98 अभभलाषा .................................................................................................109 खुचड़ .......................................................................................................117 आगा-पीछा ...............................................................................................132 प्रेम का उदय............................................................................................158 सती ........................................................................................................173 मतृ क-भोज...............................................................................................184 भतू .........................................................................................................208 सवा सेर गंे ूँ ............................................................................................224 सभ्यता का र स्य ....................................................................................233 समस्या .................................................................................................... 242 दो सखखयाँू ...............................................................................................249 मागूँ े की घड़ी............................................................................................322 नाग-पजू ा .................................................................................................344 ववनोद ...................................................................................................... 356
प्ररे णा मेरी कक्षा मंे सूयपय ्रकाश से ज्यादा ऊिमी कोई लड़का न था, बल्कक यों क ो कक अध्यापन-काल के दस वषों में मेरा ऐसी ववषम प्रकृ तत के भशष्य से सामना न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और धचढाने, पररश्रमी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ी उसे आनन्द आता था। ऐसे- ऐसे षड़यन्त्र रचता, ऐसे ऐसे फन्दे डालता, ऐसे-ऐसे बन्िन बाूँिता कक देखकर आश्चयय ोता था। धगरो बन्दी मंे अभ्यस्त था। खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतकंि से पाठशाला पर शासन करता था। मखु ्य अधिष्ठाता (वप्रभिं सपल) का आञा ा टल जाए, मगर क्या मजाल कक कोई उसके ुक्म की अवञा ा कर सके । स्कू ल के चपरासी और अदयली उससे थर-थर कापूँ ते थी। इंिस्पेक्टर का मआु इना ोने वाला था, मखु ्य अधिष्ठाता ने ुक्म हदया कक लड़के तनहदयष्ट समय से आि घंटि ा प ले आ जाए, मगर मतलब य था कक लड़को को मुआइने के बारे मंे कु छ जरूरी बातें बता दी जाए। दस बज गए, इिंस्पेक्टर सा ब आकर बठै गए, और मदरसे मंे एक लड़का भी न ीि।ं ग्यार बजे सब छात्र तनकल पड़े, जसै े कोई वपजंि रा खोल हदया गया ो। इंिस्पेक्टर सा स ने कै कफयत मंे भलखा - डडसील्प्लन ब ुत खराब ंै। वप्रभंि सपल सा ब की ककरककरी ुई, अध्यापक बदनाम ुए और य सारी शरारत सूयपय ्रकाश की थी, मगर ब ुत पछु -ताछ करने पर भी ककसी ने सयू पय ्रकाश का नाम तक न भलया, मुझे अपनी संिचालन-ववधि पर गवय था, रेतनगिं कॉलेज में इस ववषय मंे मनैं े ख्यातत प्राप्त की थी, मगर य ाँू मेरा सारा संिचालन-कौशल जैसे मोचाय खा गया था। कु छ अक्ल ी काम न करती कक शैतान को कै से सिंमागय पर लाए। कई बार अध्यापकों की बैठक ुई, पर य धगर न खुली। नई भशक्षा-ववधि के अनसु ार में दंिडनीतत का पक्षपाती न था, मगर य ाँू म इस नीतत से के वल इसभलए ववरक्त थे कक क ीिं उपचार से रोग असाध्य न ो जाए। सूयपय ्रकाश को
स्कू ल से तनकाल देने का प्रस्ताव भी ककया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर म इस नीतत का व्यव ार करने का सा स न कर सके । बीस- बाईस अनुभवी और भशक्षा-शासत्र से आचायय एक बार -तरे साल के उद्दडिं बालक का सिु ार न कर सकंे , य ववचार तनराशाजनक था। यों तो सारा स्कू ल उससे त्राह -त्राह करता था, मगर सबसे ज्यादा सकिं ट मंे मैं था, क्योंकक व मेरी कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कु फल मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कू ल आता, तो रदम य ी खटका लगा र ता था कक देखंे आज क्या ववपल्तत आती ैं। एक हदन मनंै े अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा मेढक तनकल पड़ा। मंै चौंककर पीछे टा तो क्लास में शोर मच गया। उसकी ओर सरोष नेत्रों से देखकर र गया। सारा घिंटा उपदेश मंे बीत गया और व पट्ठा भसर झुकाए नीचे मसु ्करा र ा था। मुझे आश्चयय ोता था कक य नीचे की कक्षाओिं में कै से पास ुआ था। एक हदन मनैं े गुस्से से क ा- 'तमु इस कक्षा से उम्र भर न ींि पास ो सकत।े ' सूयपय ्रकाश ने अववचभलत भाव से क ा - 'आप मेरे पास ोने की धचन्ता न करंे , मंै मेश पास ुआ ूँ और अबकी भी ूँगा।' 'असम्भव!' 'असम्भव सम्भव ो जाएगा!' मंै आश्चयय से उसका मूँु देखना लगा। ज ीन-से-ज ीन लड़का भी अपनी सफलता का दावा इतने तनववयवाद रूप से न कर सकता था। मनैं े सोचा - 'व प्रश्न-पत्र उड़ा लेता ोगा। मनैं े प्रततञा ा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने दँूगू ा। देख,ूँ ककतने हदन इस कक्षा मंे पड़ा र ता ैं। आप घबराकर तनकल जाएगा।'
वावषकय परीक्षा के अवसर पर मनंै े असािारण देखभाल से काम भलया, मगर जब सूयपय ्रकाश का उततर-पत्र देखा, तो मेरे ववस्मय की सीमा न र ी। मेरे दो पचे थे, दोनों ी में उसके नम्बर कक्षा मंे सबसे अधिक थे। मझु े खूब मालूम था कक व मेरे ककसी पचे का कोई प्रश्न भी ल न ीिं कर सकता। मैं इसे भस्ध कर सकता था मगर उसके उततर-पत्र का क्या करता! भलवप में इतना भेद न था जो कोई सन्दे उतपन्न कर सकता। मनंै े वप्रभंि सपल से क ा, तो व भी चकरा गए, मगर उन् ंे भी जान-बूझकर मक्खी तनगलनी पड़ी। मैं कदाधचत स्वभाव ी से तनराशावादी ूँ। अन्य अध्यापकों को मंै सयू पय ्रकाश के ववषय मंे जरा भी धचल्न्तत न पाता था। मानो ऐसे लड़को का स्कू ल मंे आना कोई नई बात न ींि, मगर मेरे भलए व एक ववकट र स्य था। अगर य ी ढंिग र े, तो एक हदन या तो जेल मंे ोगा, या पागलखाने में। उसी साल मेरी तबादला ो गया। यद्यवप य ाँू की जलवायु मेरे अनकु ू ल थी, वप्रभंि सपल और अन्य अध्यापकों से मतै ्री ो गई थी। मैं अपने तबादले से खशु ुआ क्योंकक सयू पय ्रकाश मेरे मागय का काँूटा न र ेगा। लड़कों ने मझु े ववदाई की दावत दी और सब-के -सब स्टेशन तक प ुँूचाने आए। उस वक्त सभी लड़के आखँू ों में आँसू ू भरे ुए थ।े मैं भी अपने आसूँ ुओंि को न रोक सका। स सा मेरी तनगा सयू पय ्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लल्ज्जत खड़ा था। मझु े ऐसा मालूम ूआ कक उसकी आखूँ ंे भी भीगी थी। मेरा जी बार-बार चा ता था कक चलते-चलते उससे दो-चार बातें कर लूँ। शायद व भी मुझसे कु छ क ना चा ता था, मगर न मनैं े प ले बात की, न उसने, ालाकिं क मझु े ब ुत हदनों तक इसका खेद र ा। उसकी खझझक तो क्षमा के योग्य थी, पर मेरा अवरोि अक्षम्य था, सम्भव था, उस करुणा और ग्लातन की दशा मंे मेरी दो-चार तनष्कपट बातंे उसके हदल पर असर कर जाती, मगर इन् ींि खोए ुए अवसरों का नाम तो जीवन ैं। गाड़ी मन्द गतत से चली, लड़के कई कदम तक उसके साथ दौड़े, मैं खखड़की से बा र भसर तनकालंे खड़ा था। कु छ देर मुझे उनके ह लते रूमाल नजर आए। कफर
वे रेखाएूँ आकाश में ववलीन ो गई, मगर एक अकपकाय मूततय अब भी प्लेटफामय पर खड़ी थी। मनंै े अनमु ान ककया व सयू पय ्रकाश ैं। उस समय मेरा हृदय ककसी ववकल कै दी की भातँू त घणृ ा, माभलन्य और उदासीनता के बन्िनों को तोड़-तोड़कर उसके गले भमलने के भलए तड़प उठा। नए स्थान की नई धचन्ताओिं ने ब ुत जकद मुझे अपनी ओर आकवषतय कर भलया। वपछले हदनों की याद एक सरत बनकर र गई। न ककसी का खत आया, न मनैं े ी कोई खत भलखा। शायद दतु नया का य ी दस्तरू ंै। वषाय के बाद वषाय का ररयाली ककतने हदनों र ती ंै। सिंयोग से मुझे इिंग्लडंै में ववद्याभ्यास करने का अवसर भमल गया। व ाँू तीन साल लग गए। व ाँू से लौटा तो एक कॉलेज का वप्रभंि सपल बना हदया गया। य भसव्ध मेरे भलए बबककु ल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दरू न उड़ी थी, ककन्तु पदभलप्सा अब ककसी और भी ऊूँ ची डाली पर आश्रय लेना चा ती थी। भशक्षामतिं ्री से रब्त-जब्त पदै ा ककया। मतिं ्री म ोदय मझु पर कृ पा रखते थे, मगर वास्तव मंे भशक्षा के मौभलक भस्ध ान्तों का उन् ंे ञा ान न था। मुझे पाकर उन् ोंने सारा भार मझु पर डाल हदया। घोडे पर सवार थे, लगाम मेरे ाथ में थी। फल य ुआ कक उनके राजनतै तक ववपक्षक्षयों से मेरा ववरोि ो गया। मझु पर जा-बेजा आक्रमण ोने लगे। मंै भस्ध ान्त रूप से अतनवायय भशक्षा का ववरोिी ूँ, मेरा ववचार ैं कक र मनषु ्य को उन ववष्यों में ज्यादा स्वािीनता ोनी चाह ए, ल्जनका उनसे तनज सम्बन्ि ैं। मेरा ववचार ंै कक यरू ोप में अतनवायय भशक्षा की जरूरत ैं, भारत मंे न ीि।ं भौततकता पल्श्चमी सभ्यता का मलू तततव ैं। व ाँू ककसी काम की प्रेरणा, आधथकय लाभ के आिार पर ोती ंै। ल्जन्दगी की जरूरत ज्यादा ंै, इसभलए जीवन-संगि ्राम भी अधिक भीषण ंै। माता-वपता भोग के दास ोकर बच्चों को जकद-से-जकद कु छ कमाने पर मजबरू करते ंै। इसकी जग कक य मद का तयाग करके एक भशभलगिं रोज बचत कर लें, वे अपने कमभसन बच्चों के एक भशभलगंि की मजदरू ी करने के भलए दबाएूँगें। भारतीय जीवन मंे साल्तवक सरलता ंै। म उस वक्त तक बच्चों से मजदरू ी न ीिं करात,े जब तक पररल्स्थतत में
वववश न कर दे। दररद्र-से-दररद्र ह न्दसु ्तानी मजदरू भी भशक्षा के उपकारों का कायल ैं। उसके मन मंे य अभभलाषा ोती ैं कक मेरा बच्चा चार अक्षर पढ जाए। इसभलए न ींि कक उसे कोई अधिकार भमलेगा, बल्कक इसभलए की ववद्या मानवी शील का एक शंिगृ ार ैं। अगर य जानकर भी व अपने बच्चंे को मदरसे न ीिं भेजता, तो समझ लेना चाह ए कक व मजबरू ैं। ऐसी दशा में उस पर काननू का प्र ार करना मेरी दृल्ष्ट मंे न्याय-संिगत न ींि ंै। इसके भसवाय मेरे ववचार मंे अभी मारे देश मंे योग्य भशक्षकों का अभाव ंै। अ्ध य-भशक्षक्षत और अकपवते न पाने वाले अध्यापकों से आप य आशा न ींि रख सकते ैं कक व कोई ऊँू चा आदशय आपके सामने रख सकंे । अधिक-से-अधिक इतना ोगा कक चार-पाूचँ वषय मंे बालक को अक्षर-ञा ान ो जाएगा। मंै इसे पवतय -खोदकर चहु या तनकालने के तुकय समझता ूँ। व्यस्कता प्राप्त ो जाने पर य मसला एक म ीने मंे आसानी से तय ककया जा सकता ंै। मैं अनभु व से क सकता ूँ कक यवु ावस्था मंे म ल्जनता ञा ान एक म ाने में प्राप्त कर सकते ैं, उतना बाकयवस्था में तीन साल में भी न ींि कर सकते, कफर खामख्वा बच्चों को मदरसे में कै द करने से क्या लाभ? मदरसे के बा र र कर उसे स्वच्छ वायु तो भमलती ैं, प्राकृ ततक अनुभव तो ोत।े पाठशाला में बन्द करके आप उसके मानभसक औऱ शारीररक दोनों वविानों की जड़ काट देते ैं। इसीभलए जब प्रािंतीय व्यवस्थापक-सभा मंे अतनवायय भशक्षा का प्रस्ताव पेश ुआ, तो मेरी प्रेरणा से भमतनस्टर सा ब ने उसका ववरोि ककया। नतीजा य ुआ कक प्रस्ताव अस्वीकृ त ो गया, कफर क्या था, भमतनस्टर सा ब की और मेरी व ले-दे शुरू ुई कक कु छ न पतू छए। व्यक्तगत आक्षेप ककए जाने लगे। मैं गरीब की बीवी था, मुझे सबकी भाभी बनना पड़ा। मुझे देशद्रो ी, उन्नतत का शत्रु और नौकरशा ी का गलु ाम क ा गया। मेरे कॉलेज में जरा-सी भी कोई बात ोती तो कौंभसल में मुझ पर दोषारोपण की वषाय ोने लगती। मनैं े एक चपरासी को पथृ क ककया। सारी कौंभसल पजिं े झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई। आखखर भमतनस्टर सा ब को मजबूर ोकर उस चपरासी को ब ाल करना पड़ा। य अपमान मेरे भलए असह्य था। शायद कोई भी इसे स न न कर सकता।
भमतनस्टर सा ब से मुझे भशकायत न ी।ंि व मजबरू थे। ाँू, इस वातावरण में काम करना मेरे भलए दसु ्साध्य ो गया। मुझे अपने कॉलेज के आितं ररक संिगठन का भी अधिकार न ी।िं अमुक क्यों न ीिं परीक्षा में भेजा गया, अमुक के बदले अमकु को क्यों न ींि छात्रावतृ त दी गई, अमुक अध्यापक को अमुक कक्षा क्यों न ीिं दी जाती, इस तर के सार ीन आक्षेपों ने मेरी नाक में दम कर हदया था। इस नई चोट ने कमर तोड़ दी। मनैं े इस्तीफा दे हदया। मझु े भमतनस्टर सा ब से इतनी आशा अवश्य थी कक व कम-स-े कम इस ववषय मंे न्याय-परायणता से काम लंेगे, मगर उन् ोंने न्याय की जग नीतत को मान्य समझा और मझु े कई साल की भल्क्त का य फल भमला कक मंै पदच्यतु कर हदया गया। सिंसार का ऐसा कटु अनभु व मझु े अब तक न ुआ था। ग्र भी कु छ बुरे आ गए थ।े उन् ींि हदनों पतनी का दे ान्त ो गया। अल्न्तम दशनय भी न कर सका। सन्ध्या-समय नदी-तट पर सरै करने गया था। व कु छ अस्वस््य थी। लौटा, तो उसकी लाश भमली। कदाधचत हृदय की गतत बन्द ो गई थी। इस आघात ने कमर तोड़ दी। माता के प्रसाद और आशीवादय से बड़े-बड़े म ान पुरुष कृ ताथय ो गए ैं। मंै जो कु छ ुआ, पतनी के प्रसाद और आशीवायद से ुआ, व मेरे भाग्य की वविात्री थी। ककतना अलौककक तयाग था, ककतना ववशाल िैय।य उनके मािुयय मंे तीक्ष्णता का नाम भी न था। मुझे याद न ींि आता कक मनंै े कभी उनकी भकृ ु टी सिंकु धचत देखी ो, व तनराश ोना तो जानती ी न थी। मंै कई बार सख्त बीमार पड़ा ूँ। वैद्य तनराश ो गए, पर व अपने िैयय और शाल्न्त से अणु-मात्र भी ववचभलत न ीिं ुई। उन् ंे ववश्वास था कक मैं अपने पतत के जीवन- काल मंे मरूूँ गी और व ी ुआ भी। मंै जीवन में अब तक उन् ीिं के स ारे खड़ा था! अब व अवलम्ब ी न र ा, तो जीवन क ाँू र ता। खाने और सोने का नाम जीवन न ीिं ंै। जीवन का नाम ैं, सदैव आगे बढते र ने की लगन का। य लगन गायब ो गई। मैं संिसार से ववरक्त ो गया और एकान्तवास में जीवन के हदन व्यतीत करने का तनश्चय करके एक छोटे से गावँू मंे जा बसा। चारों तरफ
ऊँू चे-ऊूँ चे टीले थे, एक ओर गगंि ा ब ती थी। मनंै े गगिं ा के ककनारे एक छोटा-सा घर बना भलया औऱ उसी में र ने लगा, मगर काम करना तो मानवी स्वभाव ैं। बेकारी में जीवन कै से कटता। मनंै े एक छोटी-सी पाठशाला खोल ली, एक वकृ ्ष की छाूँ मंे गाँवू के लड़कों का जमा करके कु छ पढाया करता था। उसकी य ाूँ इतनी ख्यातत ुई कक आस-पास के गावँू के छात्र भी आने लगे। एक हदन जब मंै अपनी कक्षा को पढा र ा था कक पाठशाला के पास एक मोटर आकर रूकी और उसमंे से उस ल्जले के डडप्टी कभमश्नर उतर पड़।े मैं उस समय के वल एक कु ताय और िोती प ने ुए था। इस वशे मंे एक ाककम से भमलते मझु े शमय आ र ी थी। डडप्टी कभमश्नर मेरे पास आए तो मनैं े झंेपते ुए ाथ बढाया, मगर व मुझसे ाथ भमलाने के बदले मेरे परै ों की ओर झुके और उनपर भसर रख हदया। मंै कु छ ऐसा भसटवपटा गया कक मेरे मूँु से एक शब्द भी न तनकला। मंै अिंग्रेजी अच्छी भलखता ूँ, दशयनशास्त्र का भी आचायय ूँ, व्याख्यान भी अच्छे दे लेता ूँ, मगर इन गुणों में एक भी श्र्ध ा के योग्य न ींि। श्र्ध ा तो ञा ातनयों और सािुओंि ी के अधिकार ी वस्तु ैं। अगर मैं ब्राह्मण ोता तो एक बात थी। ाँूलाकक एक भसववभलयन का ककसी ब्राह्मण के पैरों पर भसर रखना अधचतंि नीय ैं। मैं अभी इसी ववस्मय में पड़ा था कक डडप्टी कभमश्नर ने भसर उठाया और मेरी तरफ देखकर क ा - 'आपने शायद मझु े प चाना न ीि।ं ' इतना सुनते ी मेरे स्मतृ त-नेत्र खुल गए, बोला - 'आपका नाम सयू पय ्रकाश तो न ींि ैं?' 'जी ाँू, मैं आपका व ी अभागा भशष्य ूँ।' 'बार -तरे वषय ो गए।'
सूयपय ्रकाश ने मसु ्कराकर क ा - 'अध्यापक लड़कों को भूल जाते ंै, पर लड़के उन् ंे मेशा याद रखते ैं।' मनै े उसी ववनोद के भाव से क ा - 'तुम जसै े लड़कों को भलू ना असम्भव ंै।' सूयपुय ्रकाश ने ववनीत स्वर मंे क ा - 'उन् ीिं अपरािों को क्षमा कराने के भलए आपकी सेवा में आया ूँ। मंै सदैव आपकी खबर लेता र ता था। जब आप इिंग्लडैं गए, तो मनंै े आपके भलए बिाई का पत्र भलखा, पर उसे भेज न सका। जब आप वप्रभिं सपल ुए, मंै इंिग्लडंै जाने को तैयार था, व ाँू मंै पबत्रकाओंि में आपके लेख पढता र ता था। जब लौटा तो मालमू ुआ कक आपने इस्तीफा दे हदया और ककसी दे ात मंे चले गए ंै। इस ल्जले मंे आए ुए मझु े एक वषय से अधिक ुआ, पर इसका जरा भी अनमु ान न था कक आप य ाूँ एकान्त सेवन कर र े ंै। इस उजाड़ गाूवँ मंे आपका जी कै से लगता ैं? इतनी ी अवस्था मंे आपने वानप्रस्थ ले भलया?' मंै न ींि क सकता कक सयू पय ्रकाश की उन्नतत देखकर मझु े ककतना आश्चयय ुआ। अगर व मेरा पुत्र ोता तो भी इससे अधिक आनन्द न ोता। मंै उसे अपने झोपड़े मंे लाया और अपनी रामक ानी क सुनाई। सूयपय ्रकाश ने क ा - 'तो य कह ए कक आप अपने ी भाई के ववश्वासघात के भशकार ुए। मेरा अनुभव तो अभी ब ुत कम ैं, मगर इतने हदनों मंे मझु े मालूम ो गया ैं, कक म लोग अभी अपनी ल्जम्मेदाररयों को परू ा करना न ीिं जानत।े भमतनस्टर से भेंट ुई तो पछू ू ूँगा, कक य ी आपकी िमय था।' मैने जबाव हदया - 'भाई, उनका दोष न ींि ंै, सम्भव ैं, इस दशा मंे मंै भी व ी करता, जो उन् ोंने ककया। मझु े अपनी स्वाथभय लप्सा की सजा भमल गई और उसके भलए मैं उनकी ऋणी ूँ। बनावट न ींि, सतय क ता ूँ कक य ाूँ मुझे जो शाल्न्त ैं, व और क ींि न थी। इस एकान्त-जीवन मंे कु छ जीवन के तततवों का व ञा ान ुआ, जो सम्पल्तत और अधिकार की दौड़ से ककसी तर सम्भव न था, इतत ास
और भूगोल के पोथे चाटकर और यूरोप के ववद्यालयों की शरण में जाकर भी मंै अपनी ममता को न भमटा सका, बल्कक य रोग हदन-हदन और भी असाध्य ोता जाता था। आप सीहढयों पर पावँू रखे बगैर छत की ऊूँ चाई तक न ींि प ुँूच सकते, सम्पल्तत की अट्टाभलका तक प ुूँचने मंे दसू रो की ल्जन्दगी ी जीनों का काम देती ैं। आप कु चलकर ी लक्ष्य तक प ुूँच सकते ैं. व ाँू सौजन्य और स ानभु ूतत का स्थान ी न ीं।ि मझु े ऐसा मालूम ोता ैं कक उस वक्त मंै ह सिं क जन्तुओिं से तघरा ुआ था और मेरी शल्क्तयाँू अपनी आतमरक्षा मंे ी लगी र ती थीि।ं य ाँू मैं अपने चारों और सन्तोष और सरलता देखता ूँ। मेरे पास जो लोग आते ंै, कोई स्वाथय लेकर न ीिं आते और न मेरी सेवाओंि से प्रशंिसा या गौरव की लालसा ंै।' य क कर मनंै े सूयपय ्रकाश के च ेरे की ओर गौर से देखा, कपट मुस्कान की जग ग्लातन का रंिग था। शायद य हदखाने आया था कक आप ल्जसकी तरफ से इतने तनराश ो गए थे, व अब इस पद को सशु ोभभत कर र ा ैं। व मझु से अपने सददु ्योग का बखान कराना चा ता था, मुझे अब अपनी भूल मालूम ुई, एक सम्पन्न आदमी के सामने समवृ ्ध की तनन्दा उधचत न ी।िं मनैं े तुरन्त बात पलट कर क ा - 'मगर तुम अपना ाल तो क ो। तमु ् ारी य काया पलट कै से ुई? तमु ् ारी शरारतों को याद करता ूँ तो अब भी रोएँू खड़े ो जाते ंै, ककसी देवता के वरदान के भसवा और तो क ींि य ववभतू त न प्राप्त ो सकती थी।' सूयपय ्रकाश ने मुस्कराकर क ा - 'आपका आशीवायद था।' मेरे ब ुत आग्र करने पर सूययप्रकाश ने अपना वतृ ान्त सनु ाना शुरू ककया - 'आपके चले आने के कई हदनों बाद मेरा ममेरा भाई स्कू ल में दाखखल ुआ, उसकी उम्र आठ-नौ साल से ज्यादा न थी, वप्रभिं सपल सा ब उसे ोस्टल मंे न लेते थे और न मामा सा ब उसके ठ रने का प्रबन्ि कर सकते थे। उन् ें इस सिंकट मंे देखकर मनंै े वप्रभिं सपल सा ब से क ा - उसे मेरे कमरे मंे ठ रा दील्जए।
'वप्रभंि सपल सा ब ने इसे तनयम-ववरू्ध बतलाया, इस पर मनंै े बबगड़ उसी हदन ोस्टल छोड़ हदया और एक ककराए का मकान लेकर मो न के साथ र ने लगा। उसकी माूँ कई साल प ले मर चकु ी थी। इतना दबु ला-पतला, कमजोर और गरीब लड़का था कक प ले ी हदन से मुझे उस पर दया आने लगी। कभी उसके भसर में ददय ोता, कभी ज्वर ो आता। आए हदन कोई-न-कोई बीमारी खड़ी र ती थी। इिर साूझँ ुआ और झपककयाँू आने लगी। बड़ी मुल्श्कल से भोजन करने उठता। हदन चढे सोया करता औऱ जब तक मंै गोद मंे उठाकर बबठा न देता, उठने का नाम न लेता। रात को ब ुिा चौंक कर मेरी चारपाई पर आ जाता। मेरे गले से भलपटकर सोता। मुझे उस पर कभी क्रोि न आता। क न ींि सकता, क्यों उससे प्रेम ो गया। मंै ज ाँू प ले नौ बजे सोकर उठता था, अब तड़के उठ बठै ता और उसके भलए दिू गरम करता। कफर उसे उठा कर ाथ-मँूु िुलाता और नाश्ता कराता। उसके स्वास््य के ववचार से तनतय वायु सेवन को ले जाता। मैं जो कभी ककताब लेकर न बठै ता था, उसे घन्टों पढाया करता। मझु े अपने दातयतव का इतना ञा ान कै से ो गया, इसका मुझे आश्चयय ैं, उसे कोई भशकायत ो जाती तो मेरे प्राण नखों मे समा जात।े डॉक्टर के पास दौड़ता, दवाएँू लाता और मो न की खशु ामद करके दवा वपलाता। सदैव य धचन्ता लगी र ती थी कक कोई बात उसकी इच्छा के ववरु्ध न जाए, इस बेचारे का य ाँू मेरे भसवा दसू रा कौन ंै? मेरे चंिचल भमत्रों मंे से कोई उसे धचढाता या छे ड़ता तो मेरी तयोररयाूँ बदल जाती थी! कई लड़के तो मझु े बढू ी दाई क कर धचढाते थे, पर मैं ूँस कर टाल देता था, मैं उसके सामने एक अनधु चत शब्द भी मँूु से न तनकालता। य शिंका ोती थी कक क ींि मेरी देखा-देखी य भी खराब न ो जाए, मंै उसके सामने इस तर र ना चा ता था कक व मझु े अपना आदशय समझे और इसके भलए य मानी ुई बात थी कक मैं अपना चररत्र सुिारूँू । व मेरा नौ बजे सोकर उठना, बार बडे तक मटरगश्ती करना, नई-नई शरारतों के मंसि बू े बाँिू ना और अध्यापकों की आँूख बचाकर स्कू ल से उड़ जाना, सब आप- ी-आप जाता र ा। स्वास््य और चररत्र पालन के भस्ध ान्तों का मंै शत्रु था, पर अब मुझसे बढकर तनयमों को रक्षक दसू रा न था। मैं ईश्वर का उप ास ककया करता, मगर अब पक्का आल्स्तक ो
गया था। व बड़े सरल भाव से पूछता, परमातमा सब जग र ते ंै, तो मेरे पास भी र तें ोंगे, इस प्रश्न का मजाक उड़ाना मेरे भलए असम्भव था।' 'मैं क ता - ाूँ परमातमा तुम् ारे, मारे सबके पास र ते ंै और मारी रक्षा करते ंै। य आश्वासन पाकर उसका चे रा आनन्द से खखल उठता था, कदाधचत व परमातमा की सतता का अनभु व करने लगता था, साल भर में मो न कु छ से कु छ ो गया। मामा सा ब दोबारा आए, तो उसे देकर चककत ो गए। आूँखों में आसँू ू भरकर बोले - बेटा! तमु ने इसको ल्जला भलया, न ीिं तो मंै तनराश ो चकु ा था, इसका पुनीत फल तमु ् ें ईश्वर दंेगे। इसकी माँू स्वगय में बैठी ुई तुम् ें आशीवादय दे र ी ंै। 'सूयपय ्रकाश की आँखू ंे भी उस वक्त सजल ो गई थी। 'मैने पछू ा - मो न भी तुम् ें ब ुत प्यार करता ोगा? 'सयू पय ्रकाश ने सजल नते ्रों मंे सरत भरा आनन्द कफर चमक उठा, कफर बोला - व मझु े एक भमनट के भलए भी न छोड़ता था, मेरे साथ बैठता, मेरे साथ खाता, मेरे साथ सोता, मैं ी उसका सब कु छ था। आ ! व संिसार में न ींि ैं, मगर मेरे भलए व अब भी उसी तर जीता- जागता ंै। मैं जो कु छ ूँ, उसी का बनाया ुआ ूँ, अगर व दैवी वविान की भातूँ त मेरा पथ-प्रदशयक न बन जाता, तो शायद आज मंै ककसी जले में पड़ा ोता। एक हदन मनंै े क हदया था, अगर तमु रोज न ा न भलया करोगे तो मंै तमु से न बोलँूगा। न ाने से व न जाने क्यों जी चुराता था, मेरी िमकी का फल य ुआ कक व तनतय प्रातःकाल न ाने लगा, ककतनी ी सदी क्यों न ो, ककतनी ी ठंि डी वा चले, लेककन स्नान अवश्य करता था। देखता र ता था, मैं ककस बात से खुश ोता ूँ। एक हदन भमत्रों के साथ धथयेटर देखने चला गया, ताकीद कर गया था कक तुम खाना खाकर सो र ना। तीन बजे रात को लौटा, तो देखा कक व बठै ा ुआ ैं!
मनैं े पछू ा - तमु सोए न ींि? 'उसने क ा - नीिदं न ींि आई। 'उस हदन से मनंै े धथयेटर जाने का नाम न भलया। बच्चों में प्यार की जो भखू ोती ै - दिू , भमठाई और खखलौनों से भी ज्यादा मादक, जो माूँ की गोद के सामने संसि ार की तनधि की भी परवा न ींि करती, मो न की व भखू कभी सन्तुष्ट न ोती थी। प ाड़ों से टकराने वाली सारस की आवाज की तर व सदैव उसकी नसों में गूँजा करता थी। जसै े भूभम पर फै ली ुई लता कोई स ारा पाते ी उससे धचपट जाती ंै, व ी ाल मो न का था। व मुझसे ऐसा धचपट गया था कक पथृ क ककया जाता, तो उसकी कोमल बेल के टु कड़े-टु कड़े ो जात।े व मेरे साथ तीन साल र ा औऱ तब मेरे जीवन मंे प्रकाश की एक रेखा डालकर अन्िकार नंे ववलीन ो गया। उस जीणय काया में कै से-कै से अरमान भरे ुए थे। कदाधचत ईश्वर ने मेरे जीवन में एक अवलम्ब की सलृ ्ष्ट के भलए उसे भेजा था। उद्देश्य पूरा ो गया तो व क्यों र ता। 'गभमयय ों की तातील थी। दो तातीलों मंे मो न मेरे साथ ी र ा था। मामाजी के आग्र करने पर भी घर न आया। अबकी कॉलेज के छात्रों ने कश्मीर-यात्रा करने का तनश्च ककया और मझु े उसका अध्यक्ष बनाया। कश्मीर यात्रा की अभभलाषा मझु े धचरकाल से थी। इसी अवसर को गनीमत समझा। मो न को मामाजी के पास भेजकर मैं कश्मीर चला गया। दो म ीने बाद लौटा तो मालमू ुआ मो न बीमार ैं। कश्मीर मंे मुझे बार-बार मो न की याद आती थी और जी चा ता था, लौट जाऊूँ । मुझे उस पर इतना प्रेम ंै , इसका अन्दाज मझु े कश्मीर जाकर ुआ, लेककन भमत्रों ने पीछा न छोड़ा। उसकी बीमारी की खबर पाते ी मंै अिीर ो उठा और दसू रे ी हदन उसके पास जा प ुँूचा। मझु े देखते ी उसके पीले और सूखे चे रे पर आनन्द की स्फू ततय झलक पड़ी। मंै दौड़कर उसके गले से भलपट
गया। उसकी आूँखों मंे व दरू दृल्ष्ट और चे रे पर व अलौककक आभा थी जो मिंडराती ुई मतृ यु की सचू ना देती ंै। 'मैने आवशे से कापूँ ते ुए स्वर मंे पूछा - य तमु ् ारी क्या दशा ंै मो न? दो म ीने में य नौबत प ुँूच गई? 'मो न ने सरल मुस्कान के साथ क ा - आप कश्मीर की सरै करने गए थे, मैं आकाश की सैर करने जा र ा ूँ। 'मगर य दःु ख की क ानी क कर मैं रोना और रूलाना न ींि चा ता। मेरे चले जाने के बाद मो न इतने पररश्रम से पढने लगा मानो तपस्या कर र ा ो, उसे य िुन सवार ो गई थी कक साल भर की पढाई दो म ीने में समाप्त कर ले और स्कू ल खुलने के बाद मुझसे इस श्रम का प्रशिंसारूपी उप ार प्राप्त करे। मैं ककस तर उसकी पीठ ठोकँू गा, शाबाशी दूँगू ा, अपने भमत्रों से बखान करूूँ गा, इन भावनाओंि ने अपने सारे बालोधचत उतसा और तकलीनता से उसे वशीभूत कर भलया। मामाजी को दफ्तर के कामों से इतना अवकाश क ाूँ कक उसके मनोरिंजन का ध्यान रखंे। शायद उसे प्रततहदन कु छ-न-कु छ पढते देखकर व हदल में खुश ोते थे। उसे खेलते देख कर व जरूर डाूँटत।े पढते देखकर भला क्या क त।े फल य ुआ कक मो न को कका- कका ज्वर आने लगा, ककन्तु उस दशा में भी उसने पढना न ींि छोड़ा। कु छ और व्यततक्रम भी ुए, ज्वर का प्रकोप और बढा। पर उस दशा में भी ज्वर कु छ कका ो जाता, तो ककताबंे देखने लगता था। उसके प्राण मझु में ी बने र ते थ।े ज्वर की दशा मंे भी नौकरों से पूछता - भयै ा का पत्र आया? व कब आएूँगे? 'इसके भसवा औऱ कोई दसू री अभभलाषा न थी, अगर मझु े मालमू ोता कक मेरी कश्मीर यात्रा इतना म ूँगी पड़गे ी, तो उिर जाने का नाम भी न लेता। उसे बचाने के भलए मझु से जो कु छ ो सकता था, व मनैं े ककया, ककन्तु बुखार टाइफाइड था, उसकी जान लेकर ी उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे भलए ककसी ऋवष के आशीवादय बनकर मुझे प्रोतसाह त करने लगे और य उसी का शुभ फल ंै कक
आज आप मुझे इस दशा में देख र े ैं। मो न की बाल अभभलाषाओंि को प्रतयक्ष रूप मंे लाकर मुझे य सन्तोष ोता ैं कक शायद उसकी पववत्र आतमा मुझे देखकर प्रसन्न ोती ो। य ी प्रेरणा थी कक ल्जसने कहठन-से-कहठन परीक्षाओंि मंे भी मेरा बेड़ा पार लगाया, न ींि तो मंै आज भी व ीिं मन्दबुव्ध सूयपय ्रकाश ूँ ल्जसकी सूरत से आप धचढते थे।' उस हदन से मैं कई बार सूयपय ्रकाश से भमल चकु ा ूँ। व जब इस तरफ आ जाता ैं, तो बबना मझु से भमले न ींि जाता। मो न को व अपना इष्टदेव समझता ंै। मानव-प्रकृ तत का य एक ऐसा र स्य ंै, ल्जसे मैं आज तक न ींि समझ सका।
सदगति दखु ी चमार द्वार पर झाडू लगा र ा था और उसकी पतनी झरु रया घर को गोबर से लीप र ी थी। दोनों अपने-अपने काम से फु सतय पा चुके तो चमाररन ने क ा- 'तो जाके पडंि डत बाबा से क आओ न, क ीिं ऐसा न ो क ीिं चले जाएँू।' दखु ी ने क ा - ' ाूँ जाता ूँ, लेककन य तो सोच, बठै े गंे ककस चीज पर?' झरु रया - 'क ीिं से खहटया न भमल जाएगी? ठु कराने से माँूग लाना।' दखु ी ने क ा - 'तू तो कभी-कभी ऐसी बात क देती ैं कक दे जल जाती ैं। ठु कराने वाले मुझे खहटया दंेगे! आग तक तो घर से तनकलती न ीिं खहटया देंगे!कै थाने (आगँू न) में जाकर एक लोटा पानी माूगँ ू तो न भमले, भला खहटया कौन देगा! मारे उपले, संठे ें , भसू ा, लकड़ी थोड़े ी ैं कक जो चा े उठा ले जाएँू। ले अपनी खटोली िोकर रख दे, गरमी के तो हदन ंै, उनके आते-आते सखू जाएगी।' झरु रया ने क ा - 'व मारी खटोली पर बैठें गे न ींि, देखते न ींि ककतने नेम-िरम से र ते ंै।' दखु ी ने जरा धचतंि तत ोकर क ा - ' ाँू, य बात तो ैं, म ुए के पतते तोड़कर एक पततल बना लँू तो ठीक ो जाए। पततल में बड़-े बड़े आदमी खाते ंै, व पववततर ैं, ला तो डडंि ा, पतते तोड़ लूँ।' झुररया ने क ा - 'पततल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेककन ाँू, उन् ें सीिा भी तो देना ोगा, अपनी थाली मंे रख दँू?ू ' दखु ी ने क ा- 'क ीिं ऐसा गजब न करना, न ीिं तो सीिा भी जाए और थाली भी फू टंे! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जकदी क्रोि चढ जाता ैं। क्रोि में पडंि डताइन तक को न ीिं छोड़ते, लडके को ऐसा पीटा कक आज तक टू टा ाथ
भलए कफरता ैं। पततल मंे सीिा भी देना। ाूँ, मुदा तू छु ना मत, झूरी गोंड़ की लड़की को लेकर सा ू की दकु ान से सब चीजें ले आना। सीिा भरपूर ो। सेर भर आटा, आि सेर चावल, पाव भर दाल, आि पाव घी, नोन, कदी और पततल मंे एक ककनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़ की लड़की न भमले तो भुल्जनय के ाथ-परै जोड़कर ले जाना। तू कु छ मत छू ना, न ींि तो गजब ो जाएगा।' इन बातों की ताकीद करके दखु ी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडि ड़तजी से अजय करने चला। खाली ाथ बाबाजी की सेवा में कै से जाता, नजराने के भलए उसके पास घास के भसवाय और क्या था, उसे खाली ाथ देखकर तो बाबा दरू ी से दतु कारत।े पडंि डत घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे, नीिंद खलु ते ी ईशोपासना में लग जात।े मूँु - ाथ िोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू ोती, ल्जसका प ला भाग भगंि की तयै ारी थी। उसके बाद आि घंिटे तक चन्दन रगड़ते, कफर आइने के सामने एक ततनके से माथे पर ततलक लगात।े चन्दन की दो रेखाओिं के बीच में लाल रोली की बबन्दी ोती थी। कफर छाती पर, बा ों पर चन्दन लगाते, फू ल चढात,े आरती करते, घिंटी बजात।े दस बजते-बजते व पजू न से उठते और भगिं छानकर बा र आत।े तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जात!े ईशोपासना का ततकाल फल भमल जाता, व ी उनकी खेती थी। आज पजू न-गृ से तनकले, तो देखा दखु ी चमार घास का गट्ठा भलए बैठा ैं। दखु ी उन् ें देखते ी उठ खड़ा ुआ और साष्टांिग दंिडवत करके ाथ बाँिू कर खड़ा ो गया। य तजे स्वी मूततय देखकर उसका हृदय श्र्ध ा से पररपणू य ो गया! ककतनी हदव्य मूततय थी, छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, धचकना भसर, फू ले गाल, ब्रह्मतजे से प्रदीप्त आूखँ ें। रोरी और चन्दन देवताओिं की प्रततभा प्रदान कर र ी थी। दखु ी को देखकर श्रीमखु से बोले - 'आज कै से चला रे दखु खया?'
दखु ी ने भसर झुकाकर क ा- 'बबहटया की सगाई कर र ा ूँ म ाराज। कु छ साइत-सगुन ववचारना ंै, कब मजी ोगी?' घासी ने क ा- 'आज मझु े छु ट्टी न ींि ैं। ाूँ, साझँू तक आ जाऊगा।' दखु ी ने क ा - 'न ीिं म ाराज, जकदी मजी ो जाए। सब सामान ठीक कर आया ूँ। य घास क ाूँ रख दूँ?ू ' घासी ने क ा - 'इसे गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ कर दे। य बैठक भी कई हदनों से लीपी न ीिं गई, गोबर से लीप दे। तब तक मंै भोजन कर लूँ। कफर जरा आराम करके चलूँगा। ाूँ, य लकड़ी भी चीर देना। खभल ान मंे चार खाँूची भूसा पड़ा ंै, उसे भी उठा लाना और भसु ौली में रख देना।' दखु ी फौरन ुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बार बज गए। पडिं डतजी भोजन करने चले गए। दखु ी ने सुब से कु छ न ींि खाया था। उसे भी जोर की भूख लगी, पर व ाूँ खाने को क्या िरा था। घर य ाूँ से मील भर था। व ाूँ खाने जाए तो पिडं डतजी बबगड़ जाएँू। बेचारे ने भखू दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाठूँ थी, ल्जस पर प ले ककतने भक्तों ने अपना जोर आजमा भलया था। व उसी दम-खम के साथ लो े से लो ा लेने के भलए तैयार थी। दखु ी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खरु पै के सामने भसर झकु ा देती थी। य ाूँ कस-कसकर कु क ाड़ी का भरपरू ाथ लगाता, पर गाठँू पर तनशान तक न पड़ता था। कु क ाड़ी उचट जाती। पसीने मंे तर था, ाँफू ता था, थककर बठै जाता, कफर उठता था। ाथ उठाए न उठते थे, पाूँव काँपू र े थे, कमर सीिी न ोती थी, आखूँ ों तले अिूँ रे ा ो र ा था। भसर मंे चक्कर आ र े थे, तततभलयाँू उड़ र ी थींि। कफर भी अपना काम ककए जाता था। अगर एक धचलम तम्बाकू पीने को भमल जाती, तो शायद कु छ ताकत आती।
उसने सोचा - 'य ाूँ धचलम और तम्बाकू क ाूँ भमलेगी। ब्राह्मणों का पूरा पडोस ंै। ब्राह्मण लोग म नीच जातों की तर तम्बाकू थोड़े ी पीते ैं। स सा उसे याद आया कक गाँूव में एक गोंड़ भी र ता ैं, उसके य ाूँ जरूर धचलम-तम्बाकू ोगा, तुरन्त उसके घर दौड़ा, खैर मे नत सुफल ुई, उसने तम्बाकू भी दी और धचलम भी, पर आग व ाँू न थी।' दखु ी ने क ा - 'आग की धचन्ता न करो भाई, मैं जाता ूँ, पिंडडतजी के घर से आग माूगँ लूँगा, व ाूँ तो अभी रसोई बन र ी थी।' य क ता ूआ व दोनों चीजंे लेकर चला आया और पडंि डतजी के घर मंे बरौठे के द्वार पर खड़ा ोकर बोला- 'माभलक, रधचके (थोड़ी-सी ) आग भमल जाए, तो धचलम पी लंे।' पडंि डतजी भोजन कर र े थ।े पंडि डताइन ने पूछा - 'य कौन आदमी आग मागँू र ा ैं?' पंिडडत ने क ा - 'अरे व ी ससुरा दखु खया चमार ंै, क ा ैं थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे, आग तो ंै, दे दो।' पडिं डताइन ने भवें चढाकर क ा - 'तुम् ंे तो जसै े पोथी-पत्रे के फे र में िरम-करम ककसी बात की सुधि ी न ींि र ी। चमार ो, िोबी ो, पासी ो, मूँु उठाए घर मंे चला आए। ह न्दू का घर न ुआ, कोई सराय ुई। क दो दाढीजार से चला जाए, न ीिं तो इस लआु ठे से मूँु झुलस दँूगू ी, आग माँगू ने चले ैं।' पिंडडतजी ने समझाकर क ा - 'भीतर आ गया, तो क्या ुआ, तमु ् ारी कोई चीज तो न ीिं छु ई, िरती पववत्र ैं, जरा-सी आग दे क्यों न ींि देती, काम तो मारा ी कर र ा ैं, कोई लोतनया य ी लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।' पिंडडताइन ने गरज कर क ा - 'व घर मंे आया क्यों!'
पंिडडत ने ारकर क ा - 'ससरु े का अभाग था और क्या!' पंिडडताइन ने क ा- 'अच्छा, इस बखत तो आग हदए देती ूँ, लेककन कफर जो इस तर घर मंे आएगा, तो उसका मूँु ी जला दगू ी।' दखु ी के कानों में इन बातों की भनक पड़ र ी था। पछता र ा था, ना क आया। सच तो क ती ैं। पंिडडत के घर मंे चमार कै से चला आए। बड़े पववततर ोते ंै य लोग, तभी तो सिंसार पूजता ंै, तभी तो इतना मान ैं, भर-चमार थोड़े ी ंै, इसी गाँूव में बढू ा ो गया, मगर मुझे इतनी अकल भी न आई। इसभलए जब पंडि डताइन आग लेकर तनकलींि, तो व मानो स्वगय का वरदान पा गया। दोनों ाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता ुआ बोला - 'पंडि ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल ुई कक घर में चला आया, चमार की अकल ी तो ठ री, इतने मरू ख न ोते, तो लात क्यों खात।े ' पंिडडताइन धचमटे से पकड़कर आग लाई थी, पाूँच ाथ की दरू ी से घघूँ ट की आड़ से दखु ी की तरफ आग फें की, आग की बड़ी- सी धचनगारी दखु ी के भसर पर पड़ गई, जकदी से पीछे ट कर भसर के झोटे देने लगा। उसने मन मंे क ा - 'य एक पववततर बाह्मन के घर को अपववततर करने का फल ंै, भगवान ने ककतनी जकदी फल हदया, इसी से तो सिसं ार पिडं डतों से डरता ंै, और सबके रुपए मारे जाते ंै, बाह्मन के रुपए भला कोई मार तो ले! घर भर का सतयानाश ो जाए, पाँूव गल-गलकर धगरने लगे।' बा र आकर उसने धचलम पी और कफर कु क ारी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाजंे आनंे लगी। उस पर आग पड़ गई, तो पंिडडताइन को उस पर कु छ दया आ गई। पंिडडतजी भोजन करके उठे , तो बोली - 'इस चमरवा को भी कु छ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर र ा ै, भूखा ोगा।' पंडि डतजी ने इस प्रस्ताव को व्याव ाररक क्षेत्र से दरू समझकर पछू ा - 'रोहटयाूँ ैं?' पंडि डताइन ने क ा - 'दो-चार बच जाएूँगी।'
पिडं डत ने क ा - 'दो-चार रोहटयों में क्या ोगा? चमार ंै, कम-से-कम सेर भर चढा जाएगा।' पिंडडताइन कानों पर ाथ रखकर बोली - 'अरें बाप रे बाप! सेर भर! तो कफर र ने दो।' पडंि डत ने अब सेर बनकर क ा- 'कु छ भूसी-चोकर ो तो आटे मंे भमलाकर दो ठो भलट्टा ठोंक दो, साले का पेट भर जाएगा, पतली रोहटयों से इन नीचों का पेट न ींि भरता, इन् ंे तो जआु र का भलट्टा चाह ए।' पडंि डताइन ने क ा - 'अब जाने भी दो, िूप में कौन मरे।' दखु ी ने धचलम पीकर कफर कु क ारी सम्भाली। दम लेने से जरा ाथों मंे ताकत आ गई थी। कोई आि घन्टंे तक कफर कु क ाड़ी चलाता र ा, कफर बेदम ोकर व ींि भसर पकड़ के बैठ गया। इतने में गौंड़ आ गया और बोला - 'क्यों जान देते ो बढू े दादा, तुम् ारे फाड़े य गाँठू न फटेगा, ना क लाकन ोते ो।' दखु ी ने माथे का पसीना पोंछकर क ा- 'अभी गाड़ी-भर भसू ा ढोना ंै भाई!' गौंड़ ने क ा - 'कु छ खाने को भमला कक काम ी कराना जानते ैं, जाके माूँगते क्यों न ींि?' दखु ी ने क ा- 'कै सी बात करते ो धचखरु ी, बाह्मन की रोटी मको पचगे ी!' गौंड़ ने क ा - 'पचने को पच जाएगी, प ले भमले तो, मूँछों पर ताव देकर भोजन ककया और आराम से सोए, तुम् ें लकड़ी फाड़ने का ुक्म लगा हदया, जमीिदं ार भी
कु छ खाने को देता ैं, ाककम भी बेगार लेता ंै, तो थोड़ी ब ुत मजूरी देता ंै, य उनसे भी बढ गए. उस पर िमातय मा बनते ंै।' दखु ी ने क ा- 'िीरे-िीरे बोलो भाई, क ींि सुन लें तो आफत आ जाए।' य क कर दखु ी कफर सम्भल पड़ा और कु क ाड़ी की चोट मारने लगा। धचखुरी को उस पर दया आई। आकर कु क ारी उसके ाथ से छान ली और आि घन्टे खूब कस-कसकर कु क ाड़ी चलाई, गाठँू मंे दरार भी न पड़ी। तब उसने कु क ारी फैं क दी और य क कर चला गया -'तुम् ारे फाड़े य न फटेगी, जान भले तनकल जाए।' दखु ी सोचने लगा, बाबा ने य गाठँू क ाँू रख छोड़ी थी कक फाड़े न ींि फटती। क ींि दरार तक तो न ीिं पड़ती। मंै कब तक इसे चीरता र ूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े ैं। कार-परोजन का घर ंै, एक-न-एक चीज घटी ी र ती ैं, पर इन् ंे क्या धचन्ता। चलँू जब तक भूसा ी उठा लाऊँू । क दूँगू ा, बाबा, आज तो लकड़ी न ींि फटी, कल आकर फाड़ दँूगू ा। उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खभल ान य ाूँ से दो फरलांिग से कम न था। अगर झौवा खबू भर-भर कर लाता तो काम जकद खतम ो जाता, कफर झौवे को उठाता कौन। अके ले भरा ुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसभलए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे क ीिं भसू ा खतम ुआ। पडिं डतजी की नींदि खलु ी। मूँु - ाथ िोया, पान खाया औऱ बा र तनकले, देखा, तो दखु ी झौवा भसर पर रखे सो र ा ंै। पंडि डतजी जोर से बोला - 'अरे, दखु खया तू सो र ा ंै? लकड़ी तो अभी ज्यों-की-तयों पड़ी ुई ैं, इतनी देर तू करता क्या र ा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में साूझँ कर दी! उस पर सो र ा ैं। उठा ले कु क ाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल, तझु से जरा-सी लकड़ी न ींि फटती, कफर साइत भी वसै ी ी तनकलेगी, मझु े दोष मत देना! इसी से क ी ैं नीच के घर मंे खाने को ुआ और उसकी आँखू ंे बदली।'
दखु ी ने कफर कु क ाड़ी उठाई, जो बातें प ले से सोच रखी थी, व सब भूल गया। पेट पीठ में िसँू ा जाता था, आज सवेरे से जलपान तक न ककया था। अवकाश ी न भमला। उठना ी प ाड़ मालूम ोता था। जी डू बा जाता था, पर हदल को समझाकर उठा। पंिडडत ैं, क ींि साइत ठीक न ववचारंे तो कफर सतयानाश ी ो जाए। जभी तो सिसं ार में इतना मान ैं। क ी साइत ी का तो सब खले ैं। ल्जसे चा े बबगाड़ दे। पंडि डतजी गाूठँ के पास आकर खड़े ो गए और बढावा देने लगे - ' ाूँ, मार कसके , और मार, कसके मार, अबे जोर से मार, तरे े ाथ मंे तो जैसे दम ी न ींि ंै, लगा कसके , खड़ा सोचने क्या लगता ैं, ाूँ, बस फटा ी चा ती ैं! दे उसी दरार मंे!' दखु ी अपने ोश में न था। न-जाने कौन-सी गपु ्तशल्क्त उसके ाथों को चला र ी थी। व थकान, भखू , कमजोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बा ुबल पर स्वयिं ववश्वास न ी ो र ा था। एक-एक चोट वज्र की तर पड़ती थी। आि घन्टे तक व इसी उन्माद की दशा में ाथ चलाता र ा, य ाूँ तक की लकड़ी बीच से फट गई और दखु ी के ाथ से कु क ाड़ी छू ट कर धगर पड़ी। इसके साथ व भी चक्कर खाकर धगर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका ुआ शरीर जवाब दे गया। पंडि डतजी ने पुकारा - 'उठ के दो-चार ाथ और लगा दे, पतली-पतली चैभलयाूँ ो जाए।' दखु ी न उठा। पडंि डतजी ने अब उसे हदक करना उधचत न समझा। भीतर जाकर बटू ी छानी, शौच गए, स्नान ककया और पिडं डताइन बाना प नकर बा र तनकले! दखु ी अभी तक व ी पड़ा ुआ था। पडिं डत ने जोर से पकु ारा - 'अऱे क्या पड़े ी र ोगे दखु ी, चलो तमु ् ारे ी घर चल र ा ूँ, सब सामान ठीक-ठाक ैं न?' दखु ी कफर भी न उठा।
अब पंिडडतजी को कु छ शिंका ुई। पास जाकर देखा, तो दखु ी अकड़ा पड़ा ुआ था। बद वास ोकर भागे और पंिडडताइन से बोले - 'दखु खया तो जैसे मर गया।' पडंि डताइन कबकाकर बोली - 'व तो अभी लकड़ी चीर र ा था न?' पडंि डत न क ा - ' ाँू, लकड़ी चीरत-े चीरते मर गया, अब क्या ोगा?' पिंडडताइन ने शान्त ोकर क ा - ' ोगा क्या चमरौने मंे क ला भेजो मदु ाय उठा ले जाए।' एक क्षण में गाूँव भर में खबर ो गई। पूरे मंे ब्राह्मणों की बस्ती थी। के वल एक घर गोड़ का था। लोगों ने इिर का रास्ता छोड़ हदया। कँुू ए का रास्ता उिर ी से था, पानी कै से भरा जाए! चमार की लाश के पास से ोकर पानी भरने कौन जाए। एक बहु ढया ने पंिडडतजी से क ा - 'अब मदु ाय फंे कवाते क्यों न ीिं? कोई गाँवू मंे पानी पीएगा या न ींि।' इिर गोंड ने चमरौने में जाकर सबसे क हदया - 'खबरदार, मदु ाय उठाने मत जाना, अभी पभु लस की त कीकात ोगी, हदकलगी ैं कक एक गरीब की जान ले ली। पंडि डतजी ोंगे, तो अपने घर के ोंगे, लाश उठाओगे तो तमु भी पकड़े जाओगे।' इसके बाद ी पिडं डतजी प ुूँच,े पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठाने को तयै ार न ुआ। ाूँ, दखु ी की स्त्री और कन्या दोंनो ाय- ाय करती व ाूँ के भलए चल पड़ी और पडंि डतजी के द्वार पर आकर भसर पीट-पीटकर रोने लगीं।ि उनके साथ दस-पाचँू और चमाररनंे थी। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पंिडडतजी ने चमारों को ब ुत िमकाया, समझाया, भमन्नत की, पर चमारों
के हदल पर पुभलस का रोब छाया ुआ था, एक भी न माना, आखखर पंिडड़त तनराश ोकर लौट गए। आिी रात तक रोना-पीटना जारी र ा। देवताओिं का सोना मलु ्श्कल ो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मण चमार की लाश कै से उठात!े भला ऐसा ककसी शास्त्र-परु ाण में भलखा ंै? क ीिं कोई हदखा दे। पिडं डताइन ने झँूुझलाकर क ा - 'इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली, ककसी का गला भी न ीिं पकता।' पिंडडत ने क ा - 'रोने दो चुड़लै ों को, कब तक रोएूँगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था, मर गया, तो कोला ल मचाने के भलए सब-की-सब आ प ुूँची।' पडंि डताइन ने क ा - 'चमार को रोना मन ुस ंै।' पंडि डत ने क ा - ' ाूँ, ब ुत मन ूस।' पिंडडताइन ने क ा - 'अभी से दगु नय ्ि उठने लगी।' पडंि डत ने क ा - 'चमार था ससरु ा कक न ी।िं साि-असाि ककसी का ववचार ैं इन सबों को।' पंिडडताइन ने क ा - 'इन सबों को तघन भी न ीिं लगती।' पिंडडत ने क ा - 'भ्रष्ट ैं सब।' रात तो ककसी तर कटी, मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमाररनंे भी रो- पीटकर चला गई। दगु नय ्ि कु छ-कु छ फै लने लगी।
पडिं डतजी ने एक रस्सी तनकाली। उसका फन्दा बनाकर मुदे के पैर मंे डाला और फन्दे को खीचंि कर कस हदया। अभी कु छ-कु छ िििुं लका था। पिंडडतजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शरु ू ककया और गावँू के बा र घसीट ले गए। व ाँू से आकर तुरन्त स्नान ककया, दगु ायपाठ पढा और घर में गिंगाजल तछड़का। उिर दखु ी की लाश को खते में गीदड़, धग्ध , कु तते और कौए नौच र े थ।े य ी जीवन-पयनय ्त की भल्क्त, सेवा और तनष्ठा का परु स्कार था। ***
िगादा सेठ चते राम ने स्नान ककया, भशवजी को जल चढाया, दो दाने भमचय के चबाए, दो लोटे पानी वपया और सोटा लेकर तगादे पर चले। सेठजी की उम्र कोई पचास साल की थी। भसर के बाल झड़ गए थे और खोपड़ी ऐसी साफ-सथु री तनकल आई थी, जसै े ऊसर खते । आपकी आँूखंे थी तो छोटी, लेककन बबककु ल गोल। चे रे के नीचे पेट था और पेट के नीचे टाूँगे, मानो ककसी पीपे में दो मेखंे गाड़ दी गई ो, लेककन य खाली-पीपा न था। इसमें सजीवता और कमशय ीलता कू ट-कू टकर भरी ुई थी। ककसी बाकीदार असामी के सामने इस पीपे का उछलना-कू दना और पतंै रे बदलना देखकर ककसी नट का धचधगया भी लल्ज्जत ो जाता। ऐसी आँखू ंे लाल-पीला करत,े ऐसे गरजते कक दशकय ों की भीड़ लग जाती थी। उन् ंे किं जसू तो न ीिं क ा जा सकता क्योंकक जब व दकु ान पर ोते, तो रेक भभखमंगि े के सामने एक कौड़ी फंे क देत।े ाँू, उस समय उनके माथे पर कु छ ऐसा बल पड़ जाता, आखँू ंे कु छ ऐसे प्रचिंड ो जाती, नाक कु छ ऐसी भसकु ड़ जाती कक भभखारी कफर दकु ान पर न आता। ल ने का बाप का तगादा ैं, इस भस्ध ान्त के व अनन्य भक्त थ।े जलपान करने के बाद सन्ध्या तक व बराबर तगादा करते र ते थे। इसमें एक तो घर का भोजन बचता था, दसू रे असाभमयों के माथे दिू , परू ी, भमठाई आहद प्रदाथय खाने को भमल जाते थे। एक वक्त का भोजन बच जाना कोई सािारण बात न ींि ंै! एक भोजन का एक आना भी रख लें, तो के वल इसी मद में उन् ोंने अपने तीस वषो के म ाजनी जीवन में कोई आठ सौ रुपये बचा भलए थे। कफर लौटते समय दसू री बेला के भलए भी दिू , द ी, तले , तरकारी, उपले ईिन भमल जाते थे। ब ुिा सन्ध्या का भोजन भी न करना पड़ता था इसभलए तगादे से न चकू ते थे। आसमान फटा पड़ता ो, आग बरस र ी ो, आूँिी आती ो, पर सेठजी प्रकृ तत के अटल तनयम की भाूँतत तगादे पर जरूर तनकल जात।े
सेठानी ने पछू ा- '?' सेठजी ने गरजकर क ा - 'न ीिं।' 'साझूँ का?' 'आने पर देखी जाएगी।' सेठजी के एक ककसान पर पाचूँ रुपये आते थ।े छः म ीने से दषु ्ट ने सदू -ब्याज कु छ न हदया था और न कभी कोई सौगात लेकर ाल्जर ुआ था। उसका घर तीस कोस से कम न था, इसभलए सेठजी टालते जाते थे। आज उन् ोंने उसी गाूँव चलने का तनश्चय कर भलया। आज दषु ्ट से बबना रुपए भलए न मानूँगा, चा े ककतना ी रोए, तघतघयाए। मगर इतनी लम्बी यात्रा पैदल करना तनदंि ास्पद था। लोग क ंेगे - 'नाम बड़े दशनय थोड़े, क लाने के सेठ। चलते ैं पैदल, इसभलए मन्थर गतत से इिर-उिर ताकते, रा गीरों से बातंे करते चले जाते थे कक लोग समझें वायु-सेवन करने जा र े ैं।' स सा एक खाली इक्का उनकी तरफ आता ुआ भमल गया। इक्के वान ने पछू ा- 'क ो लाला, क ाूँ जाना ैं?' सेठजी ने क ा- 'जाना तो क ींि न ीिं ंै, दो परग तो और ंै, लेककन लाओ बैठ जाएँू।' इक्के वाले ने चभु ती ुई आँूखों से सेठजी को देखा, सेठजी ने भी अपनी लाल आँखू ों से उसे घूरा। दोनो समझ गए, आज लो े के चने चबाने पड़ेगं े। इक्का चला। सेठजी ने प ला वार ककया - 'क ाूँ घर ैं भमयाँू सा ब?'
'घर क ाूँ ैं ुजूर, ज ाँू पड़ र ूँ, व ी घर ैं। जब घर था तब था। अब तो बेघर, बेदर ूँ और सबसे बड़ी बात य ैं कक बेपर ूँ। तकदीर ने पर काट भलए। लडंि ू रा बनाकर छोड़ हदया। मेरे दादा नवाबी मंे चकलेदार थे ुजरू , सात ल्जले के माभलक, ल्जसे चा ें तोप-दम कर दें, फाूँसी पर लटका दंे। तनकलने के प ले लाखों की थभै लयाँू नजर चढ जाती थी ुजूर। नवाब सा ब भाई की तर मानते थे। एक हदन व थे, एक हदन य ैं कक म आप लोगों की गलु ामी कर र े ैं। हदनों का फे र ंै।' सेठजी को ाथ भमलाते ी मालमू ो गया, पक्का कफकै त ैं, अखाड़बे ाज, इससे पेश पाना मलु ्श्कल ैं, पर अब तो कु श्ती बद ी गई थी, अखाड़े मंे उतर पड़े थे कफर बोले - 'तो क ो कक बादशा ी घराने के ो। य सूरत ी गवा ी दे र ी ंै, हदनों का फे र ंै भाई, सब हदन बराबर न ींि ोत।े मारे य ाूँ लक्ष्मी को चिचं ला क ते ैं, बराबर चलती र ती ैं, आज मेरे घर, कल तमु ् ारे घर। तुम् ारे दादा ने रुपए तो खबू छोड़े ोंगे?' इक्के वाले ने क ा- ' अरे सेठ, उस दौलत का कोई ह साब न था, न जाने ककतने त खाने भरे ुए थे! बोरों मंे सोने-चाूदँ ी के डले रखे ुए थे, जवा रात टोकररयों में भरे पड़े थे, एक-एक पतथर पचास-पचास लाख का। चमक-दमक ऐसी थी, कक धचराग मात, मगर तकदीर भी तो कोई चीज ैं, इिर दादा का चालीसवाँू ुआ, उिर नवाबी बुदय ुई, सारा खजाना लटु गया, छकड़ो पर लाद-लाद कर लोग जवा रात ले गए कफर भी घर में इतना बचा र ा कक अब्बाजान ने ल्जन्दगी भर ऐश ककया, कक क्या कोई भकु वा करेगा, सोल क ारों के सुखपाल पर तनकलते थ,े आगे-पीछे चोबदार दौड़ते चलते थे, कफर भी मेरे गुजर भर को उन् ोंने ब ुत छोड़ा, अगर ह साब-ककताब से र ता तो आज भला आदमी ोता, लेककन रईस का बेटा रईस ी तो ोगा, एक बोतल चढाकर बबस्तर से उठता था, रात-रात भर मजु रे ोते र ते थ।े क्या जानता था, एक हदन य ठोकरंे खानी पड़गे ी?'
सेठ ने क ा -'अकला भमयाँू का सकु ु र करो भाई कक ईमानदारी से अपने बाल- बच्चों की परवररश तो करते ो, न ीिं तो मारे-तुम् ारे ककतने ी भाई रात-हदन कु कमय करते र ते ंै, कफर भी दाने-दाने को मु ताज र ते ंै। ईमान की सलामती चाह ए, हदन तो सब के कट जाते ैं, दिू -रोटी खाकर कटंे तो क्या, सखू े चने चबाकर कटे तो क्या। बड़ी बात तो ईमान ंै, मुझे तो तमु ् ारी सूरत देखकर ी मालूम ो गया था, कक नीयत के साफ सच्चे आदमी ो, बेईमानों की तो सूरत ी से फटकार बरसती ंै।' इक्के वाले ने क ा- 'सेठजी, आपने ठीक क ा कक ईमान सलामत र े, तो सब कु छ ंै। आप लोगों से चार पसै े भमल जाते ैं, व ी बाल-बच्चों को खखला-वपलाकर पड़ा र ता ूँ। ुजूर, और इक्के वालों को देखखए, तो कोई ककसी मजय मे मलु ्ब्तला ैं, कोई ककसी मजय में, मनैं े तौबा बोला! ऐसा काम ी क्यों करंे, कक मुसीबत में फंि से, बड़ा कु नबा ंै ुजरू , माँू ैं, बच्चे ैं, कई बेवाएँू ंै और कमाई य ी इक्का ैं, कफर भी अकला भमयाँू ककसी तर तनबा े जाते ंै।' सेठ ने क ा - 'व बड़ा कारसाज ंै खाूँ सा ब, तमु ् ारी कमाई मंे मेशा बरक्कत ोगी।' इक्के वाले ने क ा - 'आप लोगों की मे रबानी चाह ए, तुमसे खबू भेंट ो गई ंै, मंै इक्के वालों से ब ुत घबराता ूँ, लेककन अब मालूम ूआ, अच्छे -बुरे सभी जग ोते ंै, तमु ् ारे जैसा सच्चा, दीनदार आदमी मनैं े देखा। कै सी साफ तबबयत पाई ंै तमु ने कक वा !' सेठजी की ये लच्छे दार बातंे सनु कर इक्के वाला समझ गया कक य म ाशय परले भसरे के बैठकबाज ैं। य भसफय मेरी तारीफ करके मझु े चकमा हदया चा ते ैं। अब और ककसी प लू से अपना मतलब तनकालना चाह ए। इनकी दया से तो कु छ ले मरना मुल्श्कल ैं, शायद इनसे भय से कु छ ले मरूूँ , कफर बोला - 'मगर लाला, य न समखझए कक मंै ल्जतना सीिा और नेक नजर
आता ूँ, उतना सीिा और नेक ूँ भी। नके ों के साथ नेक ूँ लेककन बरु ों के साथ पक्का बदमाश ूँ, यों कह ए आपकी जूततयाूँ सीिी कर दँू,ू लेककन ककराए के मामले में ककसी के साथ ररआयत न ीिं करता, ररआयत करूूँ तो खाऊूँ क्या?' सेठजी ने समझा था, इक्के वाले को तथे पर चढा भलया, अब यात्रा तनववधय ्न और तनःशुकक समाप्त ो जाएगी! लेककन य अलाप सुना, तो कान खड़े ुए, कफर बोले - 'भाई, रुपए-पैसे के मामले में मंै भी ककसी से ररआयत न ींि करता, लेककन कभी-कभी जब यार-दोस्तों का मामला आ पड़ता ंै तो झक मार कर दबना ी पड़ता ैं। तुम् ंे भी कभी-कभी बल खाना ी पड़ता ोगा, दोस्तों से बेमुरौवती तो न ींि की जाती।' इक्के वाले ने रूखपे न से क ा- 'मंै ककसी के साथ मुरौबत न ीिं करता। मरु ौबत का सबक तो उस्ताद ने पढाया ी न ींि, एक ी चिडं ू ल ूँ। मजाल क्या कक कोई एक पैसा दबा ले, घरवाली तक को मंै एक पसै ा देता न ीिं ूँ, दसू रों की बात ी क्या ैं, और इक्के वाले अपने म ाजन की खुशामद करते ंै, उसके दरवाजे पर खड़े र ते ंै, य ाँू म ाजनों को भी िता बताता ूँ, सब मेरे नाम को रोते ंै, रुपए भलए और साफ डकार गया। देखें, अब कै से वसूल करते ो बच्चा, नाभलश करो, घर मंे िरा ंै, जो ले लोगे।' सेठजी को मानो जडू ़ी चढ आई। समझ गए, य शैतान बबना पसै ा भलए न मानगे ा। अगर य जानते कक य ववपल्तत गले पड़गे ी, तो भलू कर भी इक्के पर पाूँव न रखत।े इतनी दरू पदै ल चलने मंे कौन से पैर टू ट जाते थ।े अगर रोज इसी तर पसै े देने पड़े, तो कफर लेन-देन ो चकु ा। सेठजी भक्त जीव थे। भशवजी को जल चढाने मंे, जब से ोश सम्भाला ैं, एक हदन भी नागा न ककया। क्या भक्तवतसल शंिकर भगवान इस अवसर पर मेरी स ायता न करंेगे।
सेठजी इष्टदेव का सुभमरन करके बोले - 'खाँू सा ब और ककसी से चा ो न दबो, पर पभु लस से तो दबना ह पड़ता ोगा, व तो ककसी के सगे न ीिं ोत।े ' इक्के वाले ने ूँसकर क ा - 'कभी न ीिं, उनसे उकटे और कु छ-न-कु छ वसूल करता ूँ। ज ाूँ कोई भशकार भमला, झट सस्ते भाड़े पर बैठाता ूँ और थाने पर प ुँूचा देता ूँ। ककराया भी भमल जाता ैं और इनाम भी, क्या मजाल कक कोई बोल सके । लाइसन न ीिं भलया आज तक लाइसन! मजे से सदर में इक्का दौड़ाता कफरता ूँ। कोई साला चँू न ी कर सकता। मेले-ठे लों में अपनी खबू बन आती ैं, अच्छे -अच्छे माल चनु कर कोतवाल प ुँूचता ूँ, व ाूँ कौन ककसी की दाल गलती ैं। ल्जसे चा े रोक लें, एक हदन, दो हदन, तीन हदन। बीस ब ाने ैं, क हदया, शक था कक य औरत भगाए भलए जाता था, कफर कौन बोल सकता ैं, सा ब भी छोड़ना चा ंे, तो न ींि छोड़ सकत,े मुझे सीिा न समखझएगा, एक ी रामी ूँ, सवाररयों से प ले ककराया तय न ींि करता, हठकाने पर प ुँूचा कर एक के दो लेता ूँ। जरा भी ची-िं चपड़ ककया, तो आस्तीन चढा, पैतरे बदलकर खड़ा ो जाता ूँ, कफर कौन ैं जो सामने ठ र सके ।' सेठजी को रोमांिच ो आया। ाथ मंे एक सोटा तो था, पर उसका व्यव ार करने की शल्क्त का उनमें अभाव था। आज बरु े फूँ से, न-जाने ककस मन ूस का मूँु देखकर घर से चले थे। क ीिं य दषु ्ट उलझ पड़,े तो पाचूँ -दस हदन कदी-सोंठ पीना पड़।े अब से भी कु शल ंै, य ाूँ उतर जाऊँू , तो बच जाए व ी स ी। सेठजी भीगी बबकली बनकर बोले - 'अच्छा, अब रोक लो, खाँू सा ब, मेरा गाूवँ आ गया। बोलो, तुम् ें क्या दूँ?ू ' इक्के वाले ने घोड़ी को एक चाबुक और लगाया और तनदययता से बोला - 'मजरू ी सोच लो भाई, तमु को न बबठाया ोता तो तीन सवाररयाूँ बठै ा लेता, तीनों चार-चार आने भी देत,े तो बार आने ो जाते, तुम आठ ी आने दे दो।' सेठजी की बतघया बैठ गई। इतनी बड़ी रकम उन् ोंने उम्र भर इस मद में न ीिं खचय की थी। इतनी-सी दरू ी के भलए इतना ककराया, व ककसी तर न दे सकते
थे। मनषु ्य के जीवन मंे एक ऐसा अवसर भी आता ंै, जब पररणाम की उसे धचन्ता न ींि र ती। सेठजी के जीवन मंे य ऐसा ी अवसर था, अगर आने दो- आने की बात ोती, तो खून का घटूँ पीकर दे देत,े लेककन आठ आने के भलए कक ल्जसका द्ववगणु एक कलदार ोता ंै, अगर त-ू तू म-ैं मंै ी न ीिं ाथापाई की भी नौबत आए, तो व करने को तयै ार थे। य तनश्चय करके व दृढता के साथ बैठे र े। स सा सड़क के ककनारे एक झोपड़ा नजर आया। इक्का रुक गया, सेठजी उतर पड़े और कमर से एक दअु न्नी तनकालकर इक्के वान की ओर बढाई। इक्के वान ने सेठजी के तवे र देखें तो समझ गया, ताव बबगड़ गया। चाश्नी कड़ी ोकर कठोर ो गई। अब य दाूतँ ों से लड़गे ी। इसे चबु ल कर ी भमठास का आनन्द भलया जा सकता ैं। इक्के वाले ने नम्रता से क ा - 'मेरी ओर से इसकी रेवडड़याूँ लेकर बाल-बच्चों को खखला दील्जएगा, अकला आपको सलामत रख।े ' सेठजी ने एक आना और तनकालकर बोले - 'बस, अब जबान न ह लाना एक कौड़ी भी बेसी न दँूगू ा।' इक्के वाले ने क ा - 'न ींि माभलक, आप ी ऐसा क ंेगे तो म गरीबों के बाल- बच्चंे क ाूँ से पलंेगे, म लोग भी आदमी प चानते ंै ुजूर।' इतने मंे झोपड़ी मंे से एक स्त्री गुलाबी साड़ी प ने, पान चबाती ूई तनकल आई और बोली - 'आज बड़ी देर लगाई (एकाएक सेठजी को देखकर) अच्छा आज लालाजी तुम् ारे इक्के पर थे, कफर आज तुम् ारा भमजाज का े को भमलेगा, एक चे रेशा ी (भसक्का) तो भमली ी ोगी, इिर बढा दो सीिे से।'
य क कर व सेठजी के समीप आकर बोली - 'आराम से चरपैया पर बैठो लाला! बड़े भाग थे कक आज सवेरे-सवरे े आपके दशनय ुए।' उसके वस्त्र मन्द-मन्द म क र े थ।े सेठजी की हदमाग ताजा ो गया। उसकी ओर कनखखयों से देखा। औरत चंचि ल, बाँकू ी-कटीली, तजे -तरारय थी। सेठानीजी की मूततय आूँखों के सामने आ गई - भद्दी, थल-थल, वपल-वपल, पैरों में बेवाय फटी ुई, कपड़ों से दगु नय ्ि उड़ती ूई। सेठजी नाममात्र को भी रभसक न थे, पर इस समय आँखू ों से ार गए। आँखू ों को उिर से टाने की चषे ्ठा करने चारपाई पर बैठ गए। अभी कोस-भर की मंिल्जल बाकी ंै, इसका ख्याल ी न र ा। स्त्री एक छोटी-सी पिखं खया उठा लाई और सेठजी को झलने लगी। ाथ की प्रतयेक गतत के साथ सगु न्ि का एक झोंका आकर सेठजी को उन्मतत करने लगा। सेठजी ने जीवन में ऐसा उकलारा कभी अनुभव न ककया था। उन् ंे प्रायः सभी घणृ ा की दृल्ष्ट से देखते थे, चोला मस्त ो गया। उसके ाथ से पखिं खया छीन लेनी चा ी। 'तमु ् ंे कष्ट ो र ा ोगा, लाओ मैं झल लूँ।' 'य कै सी बात ैं लालाजी! आप मारे दरवाजे पर आए ंै, क्या इतनी खाततर भी न करने दील्जएगा, और म ककस लायक ैं। इिर क ीिं दरू जाना ैं? अब तो ब ुत देर ो गई, क ाँू जाइएगा।' सेठजी ने पापी आँूखों को फे र कर और पापी मन को दबा कर क ा - 'य ाँू से थोड़ी दरू पर एक गावँू ंै व ींि जाना ैं, साँूझ को इिर ी से लौटूँगा।'
सुन्दरी ने प्रसन्न ोकर क ा - 'तो कफर आज य ीिं रह एगाष साझँू को कफर क ाँू जाइएगा, एक हदन घर के बा र की वा भी खाइए, कफर न जाने कब मुलाकात ोगी।' इक्के वाले ने आकर सेठजी के कान में क ा - 'पैसे तनकाभलए तो दाने-चारे का इन्तजाम करूँू ।' सेठजी ने चुपके से अठन्नी तनकालकर दे दी। इक्के वाले ने कफर पछू ा - 'आपके भलए कु छ भमठाई लेता आऊँू ? य ाूँ आपके लायक भमठाई क्या भमलेगी, ाँू मँूु मीठा ो जाएगा।' सेठजी बोले - 'मेरे भलए कोई जरूरत न ीिं, ाूँ बच्चों के भलए चार आने की भमठाई भलवाते आना।' चवन्नी तनकालकर सेठजी ने उसके सामने ऐसे गवय से फें की मानो इसकी उसके सामने कोई कीकत न ींि ंै। सुन्दरी के मूँु का भाव तो देखना चा ते थे, पर डरते थे कक क ीिं व य न समझे, लाला चवन्नी क्या दे र े ैं, मानो ककसी को मोल ले र े ंै। इक्के वाले चवन्नी उठाकर जा ी र ा था कक सुन्दरी ने क ा - 'सेठजी की चवन्नी लौटा दो, लपकर उठा ली शमय न ीिं आती, य मझु से रुपए ले लो, आठ आने की ताजी भमठाई बनवाकर लाओ।' उसने रुपया तनकाल कर फंे का! सेठजी मारे लाज के गड़ गए। एक इक्के वान की भहठयाररन ल्जसकी टके की भी औकात न ींि, इतनी खाततरदारी करे कक उनके भलए पूरा रुपया तनकालकर दे दे, भला य कै से स सकते थे। सेठजी बोले - 'न ीिं, न ीिं, य न ीिं सो सकता, तमु अपना रुपया रख लो, (रभसक आँखू ों को तपृ ्त करके ) मंै रुपया हदए देता ंै, य लो, आठ आने की ले लेना।'
इक्के वान तो उिर भमठाई और दाना-चारे की किक में चला गया, इिर सनु ्दरी ने सेठ से क ा - 'व तो अभी देर में आएगा लाला, तब तक पान तो खाओ।' सेठजी ने इिर-उिर ताककर क ा - 'य ाूँ तो कोई तम्बोली न ींि ंै।' सनु ्दरी उनकी ओर कटाक्षपणू य नते ्रो से देखकर बोली - 'क्या मेरे लगाए पान तम्बोली के पानों से भी खराब ोंगे?' सेठजी ने लल्ज्जत ोकर क ा - 'न ींि, न ींि, य बात न ीिं, तुम मुसलमान ो न?' सुन्दरी ने ववनोदमय आग्र से क ा - 'खदु ा की कसम, इसी बात पर मंै तुम् ें पान खखलाकर छोडूँगी!' य क कर उसने पानदान से एक बीड़ा तनकाला औऱ सेठजी की तरफ चली। सेठजी ने एक भमनट तक तो ाँ!ू ा!ँू ककया, कफर दोनों ाथ बढाकर उसे टाने की चषे ्ठा की, कफर जोर से दोनों ोंट बन्द कर भलए पर जब सनु ्दरी ककसी तर न मानी, तो सेठजी अपना िमय लेकर बेत ाशा भागे। सोंटा व ीिं चारपाई पर र गया। बीस कदम पर जाकर व रुक गए और ाफँू कर बोले - 'देखो, इस तर ककसी का िमय न ींि भलया जाता। म लोग तमु ् ारा छु आ पानी पी लंे तो िमय भ्रष्ट ो जाए' सनु ्दरी ने कफर दौड़ाया। सेठजी कफर भागे। इिर पचास वषो से उन् ंे इस तर भागने का अवसर न पड़ा था। िोती खखसककर धगरने लगी मगर इतना समय न था कक िोती बािँू लंे। बेचारे िमय को कन्िे पर रखंे दौड़े चले जाते थ।े न मालूम कब कमर से रुपयों का बटु आ खखसक पड़ा। जब पचास कदम पर कफर रूके और िोती ऊपर उठाई तो बटु आ नदारद। पीछे कफर कर देखा सनु ्दरी भलए
उन् ंे हदखा र ी थी और इशारे से बलु ा र ी थी, मगर सेठजी को िमय रुपए से क ीिं ज्यादा प्यारा था, दो-चार कदम चले कफर रूक गए। एकाएक िम-य बुव्ध ने डाूँट बताई। थोड़े रुपए के भलए िमय छोड़े देते ो। रुपए ब ुत भमलेंगे। िमय क ाूँ भमलेगा। य सोचते ुए व अपनी रा चले, जसै े कोई कु तता झगड़ालू कु ततों के बीच से आ त, दमु दबाए भागा जाता ो और बार-बार कफरकर देख लेता ो कक क ीिं वे दषु ्ट आ तो न ींि र े। ***
दो कब्रे अब न व यौवन ंै, न व नशा, न व उन्माद। व म कफल उठ गई, व दीपक बुझ गया, ल्जससे म कफल की रौनक थी। व प्रेममतू तय कब्र की गोद मंे सो र ी ंै। ाँू, उसके प्रेमी की छाप अब भी हृदय पर ंै और उसकी अमर समतृ त आूखँ ों के सामन।े वीरांगि नाओंि मंे ऐसी वफा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दलु भय ंै और रईसों मंे ऐसा वववा , ऐसा समपणय , ऐसी भल्क्त और भी दलु भय । कँूु वर रनवीर भसंि रोज बबना नागा सन्ध्या समय जु रा की कब्र के दशयन करने जात,े उसे फू लों से सजात,े आसूँ ूओिं से सींिचत।े पन्द्र साल गुजर गए, एक हदन भी नागा न ींि ुआ। प्रेम की उपासना ी उसके जीवन का उद्देश्य था, उस प्रेम का ल्जसमें उन् ोंने जो कु छ देखा व ी पाया और जो अनुभव ककया, उसी की याद अब भी उन् ंे मस्त कर देती ैं। इस उपासना में सलु ोचना भी उनके साथ ोती, जो जु रा का प्रसाद और कुूँ वर सा ब की सारी अभभलाषाओंि का के न्द्र थी। कँूु वर सा ब ने दो शाहदयाूँ की थी, पर दोनों ल्स्त्रयों में से एक भी सन्तान की मँूु न देख सकी। कुँू वर सा ब ने कफर वववा न ककया। एक हदन एक म कफल में जु रा के दशनय ुए। उस तनराश पतत और अतपृ ्त युवती मंे ऐसा मेल, मानो धचरकाल से बबछड़े ुए दो साथी कफर भमल गए ों। जीवन का बंिसत ववकास, सिंगीत और सौरभ से भरा ुआ आया मगर अफसोस! पाचूँ वषों के अकपकाल मंे उसका भी अन्त ो गया। व मिरु भमलन स्वप्न तनराशा से भरी ुई जागतृ त मंे लीन ो गया। व सेवा और व्रत की देवी तीन साल की सलु ोचना को उनकी गोद में सौंपकर सदा के भलए भसिार गई। कुँू वर सा ब ने इस प्रेमादेश का इतने अनुराग से पालन ककया कक देखने वालों को आश्चयय ोता था। ककतने ी तो उन् ें पागल समझते थे। सलु ोचना ी की नींिद सोत,े उसी की नींिद जागत,े खुद पढात,े उसके साथ सैर करते - इतनी एकाग्रता के साथ, जसै े कोई वविवा अपने अनाथ बच्चे को पाले।
जब से व यूतनवभसटय ी में दाखखल ुई, उसे खुद मोटर मंे प ुँूचा आते औऱ शाम को खदु जा कर ले आत।े व उसके माथे पर से व कलकिं िो डालना चा ते थे, जो मानो वविाता ने क्रू र ाथों से लगा हदया था। िन तो उसे न िो सका, शायद ववद्या िो डाले। एक हदन शाम को कँूु वर सा ब जु रा के मजार को फू लों से सजा र े थे और सलु ोचना कु छ दरू पर खड़ी अपने कु तते को गंेद खखला र ी थी कक स सा उसने अपने कॉलेज के प्रोफे सर डॉक्टर रामेन्द्र को आते देखा। सकु चाकर मँूु फे र भलया, मानो उन् ें देखा ी न ींि। शिंका ुई क ी रामेन्द्र इस मजार के ववषय में कु छ पूछ न बठै ंे । यतू नवभसटय ी मंे दाखखल ुए उसे एक साल ुआ। इस साल में उसने प्रणय के ववववि रूपों को देख भलया था। क ींि क्रीड़ा थी, क ी ववनोद था, क ींि कु तसा थी, क ींि लालसा थी, क ीिं उच्छृ िं खलता थी, ककन्तु क ीिं व सहृदयता न थी, जो प्रेम का मूल ैं। के वल रामेन्द्र ी एक ऐसे सज्जन थे, ल्जन् ें अपनी ओर ताकते देखकर उसके हृदय मंे सनसनी ोने लगती थी, पर उसकी आखूँ ों में ककतनी वववशता, ककतनी पराजय, ककतनी वदे ना तछपी ोती थी। रामेन्द्र ने कँूु वर सा ब की ओर देखकर क ा - 'तमु ् ारे बावा इस कब्र पर क्या कर र ें ंै?' सुलोचना का चे रा कानों तक लाल ो गया कफर बोली - 'य इनकी पुरानी आदत ंै।' रामेन्द्र ने क ा- 'ककसी म ातमा की समाधि ैं?' सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चा ा। रामेन्द्र य तो जानते थे कक सुलोचना कूँु वर सा ब की दाश्ता औरत की लड़की ंै, पर उन् ें य न मालमू था कक य उसी की क्रब ैं और कूँु वर सा ब अतीत-प्रेम के इतने उपासक ैं। मगर
य प्रश्न उन् ोंने ब ुत िीमे स्वर मंे न ककया था। कँुू वर सा ब जतू े प न र े थ।े य प्रश्न उनके कान में पड़ गया। जकदी से जूता प न भलया और समीप जाकर बोले - 'सिंसार की आँूखों मंे तो व म ातमा न थी, पर मेरी आखूँ ों में थी और ैं, य मेरे प्रेम की समाधि ैं।' सुलोचना की इच्छा ोती थी, य ाूँ से भाग जाऊँू लेककन कँुू वर सा ब को जु रा के यशोगान मंे आल्तमक आनन्द भमलता था। रामेन्द्र का ववस्मय देखकर बोलंे - 'इसमंे व देवी सो र ी ंै, ल्जसने जीवन को स्वगय बना हदया था। य सुलोचना उसी का प्रसाद ंै।' रामेन्द्र ने कब्र की ओर देख आश्चयय से क ा - 'अच्छा!' कँुू वर सा ब ने मन मंे उस प्रेम का आनन्द उठाते ुए क ा - 'य जीवन और ी था, प्रोफे सर सा ब। ऐसी तपस्या मैं और क ींि न ींि देखी, आपको फु रसत ो, तो मेरे साथ चभलए, आपको उन यौवन-स्मतृ तयों ...।' सुलोचना बोल उठी -'वे सुनाने की चीज न ीिं ंै, दादा!' कँुू वर ने क ा - 'मैं रामेन्द्र बाबू को गैर न ींि समझता।' रामेन्द्र को प्रेम का य अलौककक रूप मनोववञा ान का एक रतन-सा मालमू ुआ। व कँूु वर सा ब के साथ ी उनके घर आए और कई घटिं ो तक उन सरत में डू बी ूँ प्रेम-स्मतृ तयों को सनु ते र े। जो वरदान माूगँ ने के भलए उन् ें साल भर से सा स न ोता था, दवु विा मंे पड़कर र जाते थे, व आज उन् ोंने माँगू भलया।
लेककन वववा के बाद रामेन्द्र को नया अनुभव ुआ। मह लाओिं का आना-जाना प्रायः बन्द ो गया। इसके साथ ी मदय दोस्तों की आमदरफ्त बढ गई। हदन-भर उनका तातूँ ा लगा र ता था। सलु ोचना उनके आदर-सतकार मंे लगी र ती। प ले एक-दो म ीने तक तो रामेन्द्र ने इिर ध्यान न ीिं हदया, लेककन जब कई मह ने गजु र गए और ल्स्त्रयों ने बह ष्कार का तयाग न ककया तो उन् ोंने एक हदन सुलोचना से क ा - 'य लोग आजकल अके ले ी आते ंै!' सुलोचना ने िीरे से क ा - ' ाूँ देखती तो ूँ।' रामेन्द्र बोला - 'इनकी औरतंे तो तुमसे पर ेज न ींि करती?' सलु ोचना ने क ा - 'शायद क ती ो।' रामेन्द्र कफर बोला - 'मगर वे लोग तो ववचारों के बड़े स्वािीन ंै, इनकी औरतंे भी भशक्षक्षत ंै, कफर क्या बात ंै?' सुलोचना ने दबी जबान से क ा - 'मेरी समझ में तो कु छ न ीिं आता।' रामेन्द्र ने कु छ देर तक असमंिजस मंे पड़कर क ा - ' म लोग ककसी दसू री जग चले जाए, को क्या जय? व ाूँ तो कोई में न जानता ोगा।' सुलोचना ने अबकी तीव्र स्वर मंे क ा - 'दसू री जग क्यों जाए, मने ककसी का कु छ बबगाड़ा न ींि ैं, ककसी से कु छ माँगू ते न ीं।ि ल्जसे आना ो आए, न आना ो न आए, मँूु क्यों तछपाएँू' िीरे-िीरे रामेन्द्र पर एक और र स्य खुलने लगा, जो मह लाओिं के व्यव ार से अधिक घणृ ास्पद और अपमानजनक था। रामेन्द्र को अब मालूम ोने लगा कक ये म ाशय जो आते ैं और घंिटों बठै े सामाल्जक और राजनीततक प्रश्नों पर ब स ककया करते ैं, वास्तव मंे ववचार-ववतनमय के भलए न ीिं बल्कक रूप की उपासना के भलए आते ंै। उनकी आूँखंे सलु ोचना को खोजती र ती ंै। उनके कान उसी
की बातों की ओर लगे र ते ंै। उसके रूप माियु य का आनन्द उठाना ी उनका अभीष्ठ ंै। य ाूँ उन् ंे व संकि ोच न ीिं ोता, जो ककसी भले आदमी की ब ू-बेटी की ओर आूँखंे न ीिं उठाने देता। शायद सोचते ंै, य ाूँ कोई रोक-टोक न ींि ंै। कभी-कभी जब रामेन्द्र की अनपु ल्स्थतत मंे कोई म ाशय आ जात,े तो सलु ोचना को बड़ी कहठन परीक्षा का सामना करना पड़ता। अपनी धचतवनों से, कु ल्तसत संिके तों से, अपनी र स्यमयी बातों से, अपनी लम्बी सासँू ों से उसे हदखाना चा ते थे, कक म भी तमु ् ारी कृ पा के भभखारी ंै। अगर रामेन्द्र का तमु पर सोल ो आना अधिकार ंै, तो थोड़ी-सी दक्षक्षणा के अधिकारी म भी ंै। सुलोचना उस वक्त ज र का घूटँ पीकर र जाती। अब तक रामेन्द्र ओर सलु ोचना क्लब जाया करते थे। व ाँू उदार सज्जनों का अच्छा जमघट र ता था। जब तक रामेन्द्र को ककसी की ओर सन्दे न था, व उसे आग्र करके अपने साथ ले जाते थे। सलु ोचना के प ुँूचते ी य ाँू एक स्फू तत-य सी उतपन्न ो जाती थी। ल्जस मेज पर सलु ोचना बैठती, उसे लोग घरे लेते थ।े कभी-कभी सलु ोचना गाती थी। उस वक्त सब-के -सब उन्मतत ो जात।े क्लब में मह लाओंि की सखिं ्या अधिक न थी। मलु ्श्कल से पाचँू -छः औरते थी, मगर वे भी सलु ोचना से दरू -दरू र ती थी, बल्कक अपनी भाव-भिंधगमाओिं और कटाक्षों से वे उसे जता देना चा ती थी कक तुम पुरुषों का हदल खुश करो, म कु ल-विुओ के पास तमु न ीिं आ सकती। लेककन जब रामेन्द्र पर इस कटु सतय का प्रकाश ुआ, तो उन् ोंने क्लब जाना छोड़ हदया, भमत्रों के य ाूँ आना-जाना भी कम कर हदया और अपने य ाँू आने वालों की भी उपके ्षा करने लगे। व चा ते थे कक मेरे एकान्तवास मंे कोई ववध्न न डाले। आखखर उन् ोंने बा र आना-जाना छोड़ हदया। अपने चारों ओर छल- कपट का जाल-सा बबछा ुआ मालमू ोता था, ककसी पर ववश्वास न कर सकते थे, ककसी से सद्व्यव ार की आशा न ीं।ि
रामेन्द्र सोचते - 'ऐसे ितू ,य कपटी दोस्ती की आड़ मंे गला काटने वाले आदभमयों से भमलंे ी क्यों?' वे स्वभाव से भमलनसार आदमी थे। पक्के यारबाश। य एकान्तवास ज ाूँ न कोई सरै थी, न ववनोद, न कोई च ल-प ल, उनके भलए कहठन कारावास से कम न था। यद्यवप कमय औऱ वचन से सलु ोचना की हदलजोई करते र ते थे, लेककन सुलोचना की सकू ्ष्म और सशंिक आखूँ ों से अब य बात तछपी न थी कक य अवस्था इनके भलए हदन-प्रततहदन असह्य ोती जाती थी। सुलोचना हदल मंे सोचती - 'इनकी य दशा मेरे ी कारण तो ैं, मैं ी इनके जीवन का काँटू ा ो गई!' एक हदन रामेन्द्र से क ा - 'आजकल क्लब क्यों न ीिं चलते? कई सप्ता ुए घर से तनकलते तक न ी।ंि ' रामेन्द्र ने बेहदली से क ा - 'मेरा जी क ीिं जाने को न ींि चा ता, अपना घर सबसे अच्छा ैं।' सुलोचना ने क ा - 'जी तो ऊबता ी ोगा, मेरे कारण य तपस्या क्यों करते ो? मैं तो न जाऊँू गी, उन ल्स्त्रयों से मझु े घणृ ा ोती ंै, उनमंे एक भी ऐसी न ीिं, ल्जसके दामन पर काले दाग न ो, लेककन सब सीता बनी कफरती ैं, मझु े तो उनकी सूरत से धचढ ो गई ंै, मगर तमु क्यों न ीिं जात?े कु छ हदल ी ब ल जाएगा।' रामेन्द्र ने क ा - 'हदल न ीिं पतथर ब लेगा, जब अन्दर आग लगी ुई ो, तो बा र शाल्न्त क ाँू?' सुलोचना चौंक पड़ी। आज प ली बार रामेन्द्र के मूँु से ऐसी बात सनु ी। व अपने ी को बह ष्कृ त समझती थी। अपना अनादर जो कु छ था, उसका था।
रामेन्द्र के भलए तो अब भी सब दरवाजे खुले ुए थे। व ज ाँू चा े जा सकते थे, ल्जससे चा ंे भमल सकते थे, उनके भलए कौन-सी रूकावट ैं। लेककन न ींि, अगर उन् ोंने ककसी कु लीन स्त्री से वववा ककया ोता, तो उनकी य दशा क्यों ोती? प्रततल्ष्ठत घरानों की औरतें आती, आपस मंे मतै ्री बढती, जीवन सखु से कटता, रेश्म का पबै न्द लग जाता। अब तो उसमंे टाट का पबै न्द लग गया। मनंै े आकर सारे तालाब को गन्दा कर हदया। उसके मुख पर उदासी छा गयी। रामेन्द्र को भी तुरन्त मालूम ो गया कक उनकी जबान से एक ऐसी बात तनकल गई ल्जसके दो अथय ो सकते ंै। उन् ोंने फौरन बात बनाई- 'क्या तुम समझती ो कक म औऱ तुम अलग-अलग ैं, मारा और तमु ् ारा जीवन एक ैं। ज ाूँ तमु ् ारा आदर न ीिं, व ाूँ मंै कै से जा सकता ूँ? कफर मझु े भी समाज के इन रंिगे भसयारों से मुझे घणृ ा ो र ी ैं, मंै इन सबों के कच्चे धचट्ठे जानता ूँ, पद या उपाधि या िन से ककसी की आतमा शु्ध न ीिं ो जाती। जो ये लोग करते ंै, व अगर कोई नीचे दरजे का आदमी करता, उसे क ींि मँूु हदखाने की ह म्मत न ोती। मगर य लोग अपनी सारी बरु ाईयाँू उदारतावाद के पदे मंे तछपाते ैं, इन लोगों से दरू र ना ी अच्छा।' सलु ोचना का धचतत शान्त ो गया। दसू रे साल सुलोचना की गोद में एक चादूँ -सी बाभलका का उदय ुआ। उसका नाम रखा गया शोभा। किंु वर सा ब का स्वास््य इन हदनों कु छ अच्छा न था। मसिं ूरी गए थे। य खबर पाते ी रामेन्द्र को तार हदया कक जच्चा और बच्चा को लेकर य ाँू आ जाओ। लेककन रामेन्द्र इस अवसर पर न जाना चा ते थे। अपने भमत्रों की सज्जनता और उदारता की अल्न्तम परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा अवसर ो सकता था। सला ुई, एक शानदार दावत दी जाए। प्रोग्राम में सगिं ीत भी शाभमल था। कई अच्छे -अच्छे गवैए बुलाए गए। अिगं ्रेजी, ह न्दसु ्तानी, मसु लमानी सभी प्रकार के भोजन का प्रबन्ि ककया गया।
किंु वर सा ब धगरत-े पड़ते मसंि ूरी से आए। उसी हदन दावत थी। तनयत समय पर तनमिंबत्रत लोग एक-एक करके आने लगे। कंिु वर सा ब स्वयिं उनका स्वागत कर र े थ।े खाूँ सा ब आए, भमजाय सा ब आए, मीर सा ब आए, मगर पिडं डतजी और बाबू जी और लाला सा ब और चौिरी सा ब और कक्कड़ मे रा और कौल और ुक्कू , श्रीवास्तव और खरे ककसी का पता न था। य ी सभी लोग ोटलों में सब कु छ खाते थे, अडिं े और शराब उड़ाते थे, इस ववषय मंे ककसी तर का वववेक या ववचार न करते थे, कफर आज क्यों तशरीफ न ींि लाए? इसभलए न ीिं कक छू त-छात का ववचार था, बल्कक इसभलए कक व अपनी उपल्स्थतत को इस वववा के समथनय की सनद समझते थे और व सनद देने की उनकी इच्छा न थी। दस बजे रात तक कंिु वर सा ब फाटक पर खड़े र े। जब उस वक्त तक कोई न आया, तो किंु वर सा ब ने आकर रामेन्द्र से क ा - 'अब लोगों का इिंतजार फजलू ै, मसु लमानों को खखला दो और बाकी सामान गरीबों को हदला दो।' रामेन्द्र एक कु सी पर तबुव्ध से बठै े ुए थे। कंिु हठत स्वर में बोले, 'जी ाूँ, य ी तो मंै सोच र ा ूँ।' कंिु वर ने क ा, 'मनैं े तो प ले ी समझ भलया था, मारी तौ ीन न ीिं ुई, खुद उन लोगों की कलई खुल गई।' रामेन्द्र न क ा, 'खैर, परीक्षा तो ो गई, कह ए तो अभी जाकर एक-एक की खबर लँू ।' किंु वर सा ब ने ववल्स्मत ोकर क ा, 'क्या उनके घर जाकर?' रामेन्द्र ने क ा, 'जी ाँू, पँूछू कक आप लोग जो समाज-सिु ार का राग अलापते कफरते ै, व ककस बल पर?'
कंिु वर सा ब ने क ा, 'व्यथय ै, जाकर आराम से लेटो, नके और बद की सबसे बड़ी प चान अपना हदल ै। अगर मारा हदल गवा ी दे कक य काम बुरा न ीिं तो कफर सारी दतु नया मँूु फे र ले, में ककसी की परवा न करनी चाह ए।' रामेन्द्र ने क ा, 'लेककन मंै इन लोगों को यों न छोडूँगा - एक-एक की बखखया उिडे ़ कर न रख दूँ ू तो नाम न ीिं।' य क कर उन् ोंने पततल और सकोरे उठवा-उठवा कर गरीबों को देना शुरू ककया। रामेन्द्र सैर करके लौट ी थे कक वशे ्याओिं का एक दल सलु ोचना को बिाई देने के भलए आ प ुँूचा। जु रा की एक सगी भतीजी थी, गुलनार। सलु ोचना के य ाूँ प ले बराबर आती-जाती थी। इिर दो साल से न आई थी। य उसी का बिावा था। दरवाजे पर अच्छी खासी भीड़ ो गई थी। रामेन्द्र न य शोरगलु सनु ा। गुलनार ने आगे बढकर उन् ंे सलाम ककया और बोली, 'बाबजू ी, बेटी मबु ारक, बिावा लाई ूँ।' रामेन्द्र पर मानो लकवा-सा धगर गया। भसर झकु गया औऱ चे रे पर काभलमा-सी पतु गई। न मँूु से बोले, न ककसी को बैठने का इशारा ककया, न व ाूँ से ह ले, बस मूततवय च खड़े र गए। एक बाजारी औरत से नाता पदै ा करने का ख्याल इतना लज्जास्पद था, इतना जघयंि कक उसके सामने सज्जनता भी मौन र गई। इतना भशष्टाचार भी न कर सके कक सबों को कमरे में ले जाकर बबठा तो देत।े आज प ली बार उन् ंे अपने अिःपतन का अनुभव ुआ। भमत्रों की कु हटलता और मह लाओंि की उपेक्षा को व उनका अन्याय समझते था, अपना अपमान न ीिं, लेककन य बिावा (उप ार) उनकी अबाि उदारता के भलए भी भारी था।
सुलोचना का ल्जस वातावरण में पालन-पोषण ुए था, व एक प्रततल्ष्ठत ह न्दू कु ल का वातावरण था। य सच ै कक अब भी सुलोचना तनतय जु रा के मजार की पररक्रमा करने जाती थी, मगर जु रा अब एक पववत्र स्मतृ त थी, दतु नया की मभलनताओ और कलुषताओंि से रह त। गुलनार से नातदे ारी औऱ परस्पर का तनबा दसू री बात थी। जो लोग तस्वीरों के सामने भसर झुकाते ै, उनपर फू ल चढाते ै, वे भी मूततय पजू ा की तनदिं ा करते ै। एक स्पष्ट ै, दसू रा सािकं े ततक। एक प्रतयक्ष ै, दसू रा आखँू ों से तछपा ुआ। सलु ोचना अपने कमरे मंे धचक की आड़ में खड़ी रामेन्द्र का असमंजि स और क्षोभ देख र ी थी। ल्जस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चा ा था, ल्जसके द्वार पर भसजदे करते उसे बरसों ो गए थे, उसकी तरफ से तनराश ोकर, उसका हृदय इस समय उससे ववद्रो करने पर तलु ा ुआ था। उसके जी में आता था - गलु नार को बुलाकर गले लगा लँू? जो लोग मेरी बात भी न ीिं पूछते, उनकी खशु ामद क्यों करूँू ? य बेचाररयाँू इतनी दरू से आई ै मझु े अपना ी समझकर तो। उनके हदल मंे प्रेम तो ै, य मेरे दःु ख-सुख मंे शरीक ोने को तयै ार तो ै। आखखर रामेन्द्र ने भसर उठाया और शुष्क मसु ्कान के साथ गलु नार से बोले, 'आइए आप लोग अन्दर चली आइए।' य क कर व आगे-आगे रास्ता हदखाते ुए दीवानखाने की ओर चले कक स सा म री तनकली और गुलनार के ाथ मंे एक पजु ाय देकर चली गई, गलु नार ने य पजु ाय लेकर देखा और उसे रामने ्द्र के ाथ में देकर व ी खड़ी ो गई। रामेन्द्र ने पुजाय, भलखा था - 'ब न गलु नार, तमु य ाूँ ना क आई, म लोग यों ी बदनाम ो र े ै, अब और बदनामी मत करो, बिावा वापस ले जाओ, कभी
भमलने का जी चा े, रात को आना और अके ली, मेरा जी तमु से गले भलपटकर रोने के भलए तड़प र ा ै मगर मजबूर ूँ।' रामेन्द्र ने पुजाय फाड़कर फें क हदया और उद्दण्ड ोकर बोले - 'इन् ें भलखने दो, मैं ककसी से न ीिं डरता, अन्दर आओ।' गलु नार ने एक कदम पीछे कफरकर क ा, 'न ीिं बाबूजी, अब मंे आञा ा दील्जए।' रामेन्द्र ने क ा, 'एक भमनट तो बैठो।' गलु नार ने क ा, 'जी न ीिं, एक सेककंि ड भी न ी।िं ' गुलनार के चले जाने के बाद रामेन्द्र अपने कमरे मे जा बैठे। जैसी पराजय उन् ंे आज ुई, वैसी प ले कभी न ींि ुई। व आतमाभभमान, व सच्चा क्रोि, जो अन्याय के ञा ान से पैदा ोता ै, लुप्त ो गया था। उसकी जग लज्जा थी और ग्लातन। इसे बिावे की क्यों सझू गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न जाने क ाूँ से फट पड़ी। कंिु वर सा ब ोंगे उदार। उन् ोंने जु रा के नातदे ारों से भाईचारे का तनबा ककया ोगा, मैं इतना उदार न ीिं ूँ, क ींि सुलोचना तछपकर इसके पास आती-जाती तो न ी!िं भलखा भी तो ै कक भमलने का जी चा े, तो रात को आना और अके ली। क्यों न ो, खून तो व ी ै, मनोवलृ ्तत व ी, ववचार व ी, आदशय व ी। माना, कंिु वर सा ब के घर में पालन-पोषण ुआ, मगर रक्त का प्रभाव इतनी जकदी न ींि भमट सकता। अच्छा, दोनों ब नें भमलती ोगी तो उनमें क्या बातें ोती ोगी? इतत ास या नीतत की चचाय तो ो न ीिं सकती। व ी तनलजय ्जता की बातंे ोती ोगी। गुलनार अपना वतृ तान्त क ती ोगी, उस बाजार के खरीदारों और दकु ानदारों के गणु -दोषों पर ब स ोती ोगी। य तो ो ी न ींि सकता कक गलु नार इसके पास आते ी अपने को भलू जाए और कोई भद्दी, अनगलय और कलवु षत बातंे न करे। एक क्षण मंे उनके ववचारों ने पलटा खाया,
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