Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बहु-विषयक अंतरराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 वद्विदे ी यगु के लेखकों में सामावजक जड़ता का बोध हो गया था। िे पहचान पा रहे थे वक दशे की वस्थवत को सधु ारने के वलए क्या-क्या प्रयास आिश्यक ह।ंै म.प्र. वद्विदे ी ने ‘सरस्िती’ में अपने लखे ों-कविताओंके माध्यम से पररितषन के वलए अथक प्रयास वकए। मवै थलीशरण गपु ्त ने ‘भारत-भारती’ मे ितषमान वस्थवत को दखे ते हएु कहा- ‘‘हम कौन थे क्या हो गए, और क्या होंगे अभी आओ विचारें आज वमलकर ये समस्याएँ सभी।’’8 छायािादी यगु में क्रावरतकारी सधु ार गवतशील रहा। इस काल में अनके समस्याएँ उभरती रहीं और उनके समाधान का प्रयास कवियों ने गम्भीर रूप से वकया। पतं ने ‘दवे ि माँ सहचरर प्राण’ कहकर नारी को सहृदयता के साथ अवं कत वकया िहीं, वनराला ने ‘विधिा को इष्ट दिे के मवं दर की पजू ा कहा।’ प्रसाद ने आसँ ू के उत्तराद्धष में ‘आसँ ू की घनीभतू पीड़ा’ को ‘दःु ख दािा से दग्ध’ विश्व की पीड़ा से जोड़ा िहीं, कामायनी मंे ‘शवक्तशाली हो विजयी बनो विश्व में गजँू रहा जयगान’ कहकर दशे को संबोवधत वकया। वनराला ‘वशिाजी के पि’ में मगु ल शासन को साम्राज्यिादी कहते हंै और ‘राम की शवक्त पजू ा म’ंे ‘रयाय वजधर है उधर शवक्त’ कहकर अरयायी और विवरश साम्राज्यिाद से वनपर्ने के वलए ‘शवक्त की आराधना’ का प्रस्ताि करते ह।ैं छायािादी काव्य के पश्चात् राष्ट्रीय-सांस्कृ वतक धारा से प्रभावित कवियों ने काव्य रचना की। इनकी रचनाओं पर क्रावं तकारी और गाँधीिादी आंदोलनों का विशषे प्रभाि था। सन् 1925 मंे भगतवसहं ने भारतीय गणतंिात्मक समाजिादी सघं की स्थापना कर वबखरे हएु क्रांवतकारी आदं ोलन को सघं वर्त वकया। 1929 में के रिीय विधानसभा में बम िंे क िे अपने सावथयों सवहत वगरफ्तार हएु तथा उरहें िासं ी की सजा वमली। आजादी के वलए इतने बड़े बवलदान को भला जनकवि कै से चपु चाप बठै ा दखे सकता ह!ै माखनलाल चतिु दे ी, वसयारामशरण गपु ्त, बालकृ ष्ट्ण शमाष निीन, सभु िा कु मारी चौहान और वदनकर इस धारा के िे कवि हैं वजनकी रचनाओं में इस घर्ना के प्रवत आक्रोश और क्रांवत का स्िर सनु ाई पड़ता ह।ै माखनलाल चतिु दे ी सावहत्य और राजनीवत के सावभप्राय सरोकार को स्पष्ट करते हएु वलखते ह-ंै ‘‘सखे, बता दे कै से गाऊँ , अमतृ मौत का दाम न हो, जगे, एवशया वहले विश्व, और राजनीवत का नाम हो।’’9 कवि वदनकर ने अपने काव्य मंे 1941 से 1946 के समय की घर्नाओं को दखे ते हुए वलखा- ‘‘िो दखे लो, खड़ी है कौन तोप के वनशान पर िो दखे लो, अड़ी है कौन वजरदगी की आन पर िो कौन थी जो कू द के अभी वगरी है आग में? लहऔ बहा? वक तले आ वगरा नया वचराग में अहा, िो अश्रु था वक प्रमे का दबा उिान था? िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 281
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बह-ु विषयक अंतरराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशेषज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 Volume 6, Issue 67, November 2020 www.jankriti.com हसँ ी थी या वक वचि मंे सजीि, मौन गान था? िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 अलभ्य भरें ् काल को चढ़ा रहीं जिावनयाँ।’’10 इस यगु का काव्य क्रावं तकारी भािना से ओत-प्रोत काव्य ह।ै इन कवियों का मकसद जनता मंे एक क्रावं त की धारा प्रिावहत करना था, वजसे आगे चलकर प्रगवतिादी धारा के कवियों ने संचाररत वकया। रूस मंे 23 अप्रैल 1932 के प्रस्ताि से रूसी लेखकों एिं कला की प्रगवत के वलए एक निीन वदशा सवु नवश्चत की जाने लगी। वहरदी मंे माक्सषिादी वसद्धांतो का आगमन ‘प्रगवतशील लेखक संघ’ के द्वारा हुआ। इस सघं का प्रथम अवधिेशन पेररस मंे श्री ई0 एम0 िोरेस्र्र की अध्यिता में सन् 1935 में हआु । इसके पश्चात् लदं न मंे इसकी स्थापना मंे डॉ0 मलु ्कराज आनंद, सज्जाद जहीर और भिानी भट्टाचायष का सिल प्रयास रहा। भारत मंे प्रगवतशील संघ की स्थापना 1936 मंे हुई, वजसका प्रथम अवधिशे न लखनऊ में मशंु ी प्रेमचदं की अध्यिता मंे हुआ। प्रमे चदं द्वारा इस अवधिशे न मंे वदया गया िक्तव्य अत्यंत महत्िपणू ष रहा, िे कहते ह-ंै ‘‘हमें ऐसे सावहत्य की आिश्यकता नहीं वजससे नैराश्य छा जाए, हमारी कसौर्ी पर िही सावहत्य खरा उतरेगा वजसमंे उच्च वचरतन हो, स्िाधीनता का भाि हो, सौरदयष का सार हो, जो सजृ न की आत्मा हो, जीिन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, हम में गवत, सघं षष और बचे ैनी पदै ा करे, सलु ाये नहीं, क्योंवक अब ज्यादा सोना मतृ ्यु का लिण ह।ै ’’11 प्रगवतशील विचारों का प्रभाि आधवु नक वहदं ी सावहत्य मंे भारतंदे ु के समय में ही हो गया था, वकं तु अब उसे एक ससु ंबद्ध विचारधारा भी वमल गई। नागाजनषु , के दारनाथ अग्रिाल, विलोचन, वशिमगं ल वसहं समु न, भारतभषू ण अग्रिाल, गजानन माधि ‘मवु क्तबोध’ आवद इस काव्य धारा के प्रमखु कवि ह।ंै यहाँ हम कवि नागाजनषु को के रि में रखकर आगे बढ़गें ।े नागाजनषु का जरम सन् 1911 में गाँि सतलखा, पोस्र् मधबु नी, दरभगं ा वजले मंे हुआ। वपता गोकु ल वमश्र ि माँ उमादिे ी, वपता रूवढ़िादी कठोर स्िभाि के िाह्मण थे, िहीं, माँ सरल स्िभाि की ग्रामीण मवहला थीं। नागाजनषु का मलू नाम ‘िदै ्यनाथ वमश्र’ था, जो अपने माता-वपता की पाचँ िी अके ली सरतान थे। माँ का स्िगिष ास माि 5 िषष की अिस्था मंे ही हो गया था। इनके पिू जष मवै थल िाह्मण संस्कृ त घराने के थे, इसवलए नागाजनषु को संस्कृ त का ज्ञान घर पर ही वमला। प्रथमा 1925 में करने के पश्चात् मध्यमा वनकर्िती गोनौली विद्यालय मंे ि िदै ्यनाथ शास्त्री बनने के वलए चार साल के वलए काशी पहुचँ े। काशी के संबंध में नागाजनषु कहते ह-ंै ‘‘बनैली की रानी द्वारा सचं ावलत िेि था-तारा मवं दर, नेपाली खपरा मोहल्ला, बनारस। परू े एक सौ आठ छािों को भोजन कराया जाता था िहाँ। हम िहीं खाते थ।े ’’12 यहाँ की धनाढ्य वस्त्रयाँ विद्यावथषयों द्वारा की गई छंदबद्ध कविता सनु कर प्रसरन होतीं ि 5 रुपए परु स्कार स्िरूप दते ी थीं। नागाजनषु को कई बार इसमंे सिलता प्राप्त हुई, उस समय की उनकी पवक्तयाँ ह-ैं ‘‘लक्ष्मी ओ लक्ष्मीिती, दहु औ सम बझू वथ धीर हो? क्या कहा; हाँ, लक्ष्मी ओ लक्ष्मीिती िषष 6, अंक 67, निबं र 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 282
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बहु-विषयक अतं रराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 Volume 6, Issue 67, November 2020 www.jankriti.com लक्ष्मी ओ लक्ष्मीिती, दहु औ सम बझू वथ धीर िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 वकं तु कन ओ चंचला, इनक प्रकृ वत छवन धीर’’13 नागाजनषु काशी की रानी को अखबार पढ़कर सनु ाया करते थे, वजसके ज़ररए उनका सामना गांधी और वतलक से हआु तथा स्िाधीनता सगं ्राम की तस्िीर भी सामने आई। स्िाधीनता सगं ्राम की झलक वमलते ही दशे के वलए कु छ कर गजु रने के विचार मन मंे बनने लगे, और विर क्या था कलम हाथ मंे उठाकर काव्य लेखन का दौर आगे बढ़ा। अिधी, िज, खड़ी बोली पर पणू ष अवधकार था वकरतु वलखते ज्यादातर मवै थली में ‘िदै हे ’ नाम से थ।े 1930 मंे इनकी कविता पहली बार ‘िदै हे ’ नाम से छपी। यािी नाम से वलखने की प्ररे णा इरहंे रिीरि की इन पंवक्तयों से वमली- ‘‘पतन अभ्यदु य िधं रू पथं ा जगु -जगु धाविन जािी तवु म वचर आरवथ, ति रथ-चक्रे मखु ररत वदन रािी।’’14 जािी का अथष यहाँ यािी से ह।ै कहते हैं वक इरहोंने बेनीपरु ी जी के कहने पर ‘नागाजनषु ’ नाम से ही वलखना शरु ू वकया। इनकी सिपष ्रथम प्रकावशत वहरदी रचना ‘राम के प्रवत’ कविता थी, जो 1935 में ‘विश्वबरध’ु साप्तावहक (लाहौर) मंे छपी, वजसके सपं ादक माधि जी थे। इसी समय इनका वििाह 18 िषष की आयु में अपरावजता दिे ी के साथ 1932 मंे हआु । काशी से शास्त्री की परीिा पास करने के पश्चात,् िे कलकत्ता गिनमष रंे ् संस्कृ त कॉलेज में काव्यतीथष करने के उद्दशे ्य से गए। कलकत्ता से सहारनपरु के प्रध्यापक सज्जन बंगाली परु ुष ने प्राकृ त जानकार के वलए विज्ञापन कलकत्ता अखबार में वदया था। नागाजनषु प्राकृ त जानते थे, िे सहारनपरु पहुचँ े लेवकन पढ़ाया नहीं। सहारनपरु मंे भतू ेश्वर िह्मचयष आश्रम था, वजसके संचालक उड़ीसा के डॉ. जगरनाथ शास्त्री थ।े नागाजनषु यहाँ छह माह रहने के उपरांत पजं ाब की ओर वनकले, जहाँ उनकी भरंे ् के शिानंद जी से हईु । िहाँ के शिानदं की मावसक पविका ‘दीपक’ का सपं ादन वकया तथा प्राचीन भारतीय भाषाओंका अध्ययन वकया। इसी बीच उरहोंने राहलु जी द्वारा अनवू दत ‘संजकु ्त वनकाय’ पढ़ा, वजसको मलू मंे पढ़ने की इच्छा जागतृ हुई। सारनाथ जी से पि व्यिहार करने के उपरातं ज्ञात हुआ वक यह इच्छा श्रीलकं ा जाकर परू ी हो सकती ह,ै अथाषत् आठ-दस महीने पजं ाब में रहने के पश्चात् आप बौद्ध धमष के अध्ययन के वलए श्रीलंका के वलए विदा हुए। राहलु जी से वमले तो बौद्ध हो गए, जनऊे उतारकर िें क वदया। इरहोंने सरयासी बनने पर कविता ‘अवं तम प्रणाम’ वलखी- ‘मां वमवथले ई अवं तम प्रणाम’ श्रीलकं ा में बौद्ध धमष के विद्यालंकार पररिणे मंे तीन िषष तक रह।े िहाँ वभिओु ंको ससं ्कृ त मंे व्याकरण और दशनष शास्त्र पढ़ाते और स्ियं उनसे पावल भाषा में बौद्ध दशनष का अध्ययन करते। यहीं िे बौद्ध वभिु बने और यहीं उरहंे नागाजनषु नाम वमला। वसहं ल में ‘लकं ा-सम-समाज’ के िामपरथी नते ाओंसे सम्पकष बना। ‘‘राहुलजी की प्ररे णा से वबहार सरकार ने सन् 1938 के आरम्भ में नागाजनषु को वतब्बत जाने िाले अनसु ंधान कायों के एक प्रवतवनवधमडं ल मंे लाहसा भजे ना वनवश्चत िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 283
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बहु-विषयक अतं रराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 वकया। तदनसु ार वसहं ल से िे भारत लौर् आए।’’15 1938 मे भारत लौर्ते ही सहजानदं द्वारा चलाए जा रहे वकसान आरदोलन में भाग वलया और पकडे गए। िहीं, रूस यािा से लौर्ने पर पता चला वक राहलु साकं ृ त्यायन ने अमबारी (वजला छपरा) के अत्याचारी भसू ्िामी के वखलाि िहाँ के गरीब खते ीहरों का नेततृ ्ि कर रहे थे, वजसका मोचाष आते ही नागाजनषु ने अपने हाथों मंे ले वलया, वजसका पररणाम छपरा और हजारीबाग सरे रल जले मंे दस महीने की सजा थी। नेताजी सभु ाषचरि बोस के साथ भी उरहोंने पिों का आदान-प्रदान वकया। इसी समय िे प्रेमचंद, वनराला, मवै थलीशरण गपु ्त आवद सवहत्यकारों के सपं कष मंे आए। नागाजनषु की दसू री वगरफ्तारी िारिाडष ब्लाक की ओर से छपने िाले एक यदु ्ध-विरोधी पररपि के वसलवसले मंे हुई, वजस कारण इरहें 8 महीने भागलपरु सेरं ल जले मंे रहना पड़ा। इससे इनके व्यवक्तत्ि पर असर यह हआु वक बदु ्ध की छाप तो मन पर थी ही, अब माक्सष का भी असर होने लगा था। जले से ररहा होने के बाद गहृ स्थाश्रम की ओर ध्यान गया। घर की आिश्यकताओंकी पवू तष के वलए इरहोंने 8-8 पेजों की वकतवबयां छपिाई ंऔर रेलगाड़ी में जा-जाकर बचे ीं, वपता का भी वजसमें सहयोग प्राप्त हआु । सन् 1943 में वपता का स्िगिष ास हो जाने पर घर का सपं णू ष दावयत्ि पत्नी ने संभाला, अब नागाजनषु स्ितंि रूप से सावहत्यजीिी बन गए। 1948 में इनके द्वारा गाधं ी जी की हत्या पर वलखी कविता ‘शपथ’ जब्त कर ली गई ि जेलयािा भी करनी पड़ी। 1951 में िधाष राष्ट्रभाषा प्रचार सवमवत से संलग्न रह।े भारत चीन आक्रमण से पिू ष कम्यवु नस्र् पार्ी के सवक्रय सदस्य रह,े वकरतु 1963 मंे पार्ी छोड़ने के पश्चात् वकसी और पार्ी का गठबरधन स्िीकार नहीं वकया। 1969 में मवै थली काव्य संग्रह ‘पिहीन नग्न गाछ’ के वलए सावहत्य अकादमी परु स्कार वमला तथा मवै थली सावहत्यकार के रूप में रूस भ्रमण वकया। 1974 के जन आरदोलन में भाग वलया, नकु ्कड़ों पर कागं ्रसे के विरुद्ध प्रदशनष भी वकए, वजससे जले जाना पड़ा। अपनी ‘यािा’ नाम की साथकष ता वसद्ध करते हुए वदल्ली, विवदशा, भोपाल, इर्ारसी, धनबाद, रायपरु , इलाहाबाद, हापड़ु , जयपरु , हदै राबाद, कोचीन आवद परू े भारत के सावहवत्यक वशविरों मंे आते जाते रहे ह।ैं अवं तम िषों में बीमारी के समय लहरे रयासराय के पडं ासराय में वकराए के मकान मंे रहते थे, जहाँ शोभाकातं (जयेष्ठ पिु ) अपने पररिार के साथ उनकी सिे ा करते, बाबा ने एक कविता मंे वलखा। ‘‘क्या कर लगे ा मरे ा मन इवं िया साथ नहीं दगंे ी तो।’’16 और िह अतं पाँच निबं र 1998 को आ गया। गरीबों, मजदरू ों, वकसानों के वहत में लड़ने िाला अब दसू री दवु नया की यािा पर वनकल गया। दबु ला-पतला शरीर, मोर्े खद्दर का कु ताष-पजामा, मझौला कद, आखँ ों पर ऐनक, परै ों मंे चप्पलंे, चेहरे पर उत्साह और पीवड़त िगष के कष्टों को दरू करने की अदम्य इच्छा का भाि ही नागाजनषु का व्यवक्तत्ि ह।ै चाहे िे अपने प्रवत लापरिाह िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 284
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बह-ु विषयक अंतरराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 रहे हों, लवे कन समाज के प्रवत सतत् जागरूक और वक्रयाशील रह।े विलोचन शास्त्री ने इनके इसी रूप का पररचय दते े हुए कहा ह-ै ‘‘अत्याचार अरयाय पर नागाजनषु का कोड़ा चकू ा कभी नहीं, कोड़ा है िह कविता का कहीं वकसी ने जानबझू कर अनभल ताका अगर वकसी का तो, कब कवि ने उसको छोड़ा।’’17 इरहोंने सावहत्यकार के रूप में 1930-1935 में वहरदी सावहत्य िेि में प्रिशे वकया, वजसे वहरदी सावहत्य का संक्रमण काल कहा जाता ह।ै इस यगु का सावहत्य रीवतकालीन भािकु ता, कल्पना में विचरण, सौंदयष वचिण को छोड़ यथाथष की भवू म पर खड़ा हो चकु ा था, वजसकी आधारभवू म भारतेरदु यगु से ही पड़नी आरंभ हो चकु ी थी। रूसी क्रावरत के िलस्िरूप माक्सषिादी दशनष ने भारत मंे राजनीवत, समाज, सावहत्य आवद िेिों को प्रभावित वकया। अब दशे के जागरुक नागररक आरदोलनों में सवक्रय भाग ले रहे थे, नागाजनषु भी सवक्रय रहकर आम व्यवक्त के वहत की आिाज बलु ंद करते हुए, अपनी लेखनी द्वारा समाज के वहत के कायों मंे प्रयासरत थे। नागाजूुन का रचना ससं ार- ससं ्कृ त सावहत्य में लकं ा वनिास के समय ही उरहोंने वसहं ली वलवप मंे ‘धमाषलोक शतकु ं ’ शीषकष से एक खण्ड-काव्य वलखा था, जो िहाँ के ‘विद्यालंकार विद्यालय’ की मगै जीन में प्रकावशत हआु था। उरहोंने ‘दशे दशकम’, ‘कृ षक दशकम’, ‘श्रवमक दशकम’ नामक ससं ्कृ त काव्य की रचना की, वजनमंे समाज के वनम्न ि गरीब पि के ददष को दशाषया गया ह।ै इरहोंने ‘महामानि लेवनन’ पर बीस श्लोक संस्कृ त में वलखे, जो 1942 में हदै राबाद से ‘कौमदु ी पविका’ में प्रकावशत हुआ। आपने ‘काश्मीर वमजोरम’ व्यगं्यपरक रचना भी वलखी। मवै थली सावहत्य में िे ‘यािी’ नाम से वलखते थे। सामावजक कु रीवतयों पर वलखी गई कविता बढ़ू िर (1941) और विलाप (1941) मंे परु ुष जावत के प्रवत आक्रोश ह।ै पावकस्तान और चीन के साथ हुए यदु ्ध के पश्चात् भारत द्वारा अमरे रका को दी जाने िाली सहायता राष्ट्र सम्मान को ढेस पहुचँ ा रही थी, क्योंवक दशे में लाखों लागों की हालत दरै य बनी हुई थी वजसको दखे ते हएु कवि ने ‘हमहऔँ सरध्या तपणष करवतहुँ भोर म’ें की रचना की। वचिा, विशाखा, पिहीन नग्न गाछ प्रमखु मवै थली रचनाएँ भी वलखीं। सावहत्य अकादमी द्वारा परु स्कृ त ‘पिहीन नग्न गाछ’ का 1981 मंे सोमदिे द्वारा वहदं ी रूपातं रण प्रस्ततु वकया जा चकु ा ह।ै मवै थल उपरयास ‘पारो’ और ‘नितरु रया’ मंे वमवथला की सामावजक और धावमकष कु रीवतयों का यथाथष वचिण वकया गया। ‘नई पौध’ उपरयास ‘नितरु रया’ (मवै थली) का ही वहरदी अनिु ाद ह,ै वजसमंे धावमकष ससं ्थाओं द्वारा की जा रही लड़वकयों की सौदबे ाजी का पदािष ाश वकया गया ह।ै िहीं िे बलचनमा के माध्यम से भारत के कृ षक-भवू महीन मजदरू और दबे कु चले िगष को संदशे दते े हैं वक ‘उठो सघं षष करो और अपने छीने हुए अवधकारों को िापस लो।’ बलचनमा के िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 285
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बह-ु विषयक अतं रराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 सदं भष मंे वलखा गया ह-ै ‘‘लेखक का उद्दशे ्य ‘बलचनमा’ के जीिन संघषष के वचिण द्वारा समाजिादी चते ना की ओर वनदशे करना ह,ै जो साधनहीन एिं स्िावधकार िवं चत वकसान के अरतर में अरयाय तथा अत्याचार के प्रवत वििोह की भािना को जरम दे रही ह।ै ’’18 पारो एिं बलचनमा उपरयास का तले गु ु मंे भी अुनिाद वकया जा चकु ा ह।ै वहदं ी सावहत्य नागाजनषु ने वहदं ी भाषा मंे रवतनाथ की चाची (1948), नई पौध (1953), बाबा बर्ेसरनाथ (1954), िरूण के बरे ्े (1954), दःु ख मोचन (1957), उग्रतारा (1963), जमवनया का बाबा (1967), कु म्भीपाक (1960), अवभनरदन (1971), हीरक जयरती (1961) आवद उपरयासों की रचना की। उपरयास ‘बाबा बर्ेसरनाथ’ ि ‘बलचनमा’ में तत्कालीन राजनीवतक पररवस्थवतयों का वचिण वकया गया, िहीं दसू री ओर ‘िरूण के बरे ्े’, ‘दःु ख-मोचन’, ‘हीरकजयरती’ उपरयासों मंे शासन ि सामावजक-धावमकष कु रीवतयों पर वििोह के स्िर सनु ाई दते े ह।ंै ‘रवतनाथ की चाची’ में विधिा समस्या एिं विधिा के गभषिती हो जाने की घर्ना का िणनष है िहीं, ‘कु म्भीपाक’ मंे नारी जीिन के कई पहलओु ं के सघं षष का उद्घार्न ह।ै महान कथाकार प्रेमचदं का वजस िषष वनधन हआु , उसी िषष नागाजनषु की पहली कहानी ‘असमथष दाता’ अबोहर (पजं ाब) से वनकलने िाली मावसक पविका ‘दीपक’ में प्रकावशत हईु । यही कहानी 1940 में िदै ्यनाथ वमश्र के नाम से ‘विशाल भारत’ में छपी। इरहोंने बारह कहावनयाँ वलखीं। कहानी ‘विशाखा मगृ ारमाता’ मंे श्वसरु मगृ ार का बहऔ विशाखा वििोह करती ह,ै क्योंवक िह अपनी उस पर कु दृवष्ट रखता ह।ै िह श्वसरु गहृ मंे तभी रहने को तयै ार होती है जब उसका श्वसरु उसे माता कहकर पकु ारे। ‘तापहाररणी’ कहानी नागाजनषु के अपने अनभु िों पर आधाररत ह।ै इसमंे उनकी पत्नी अपरावजता दिे ी भी ह।ैं इसमें परु ुष िगष की दृवष्ट को उजागर वकया गया ह।ै ‘भखू मर गई’ कहानी एक ऐसे पररिार को दशाषती है वजसमें पिु की मतृ ्यु के बाद िदृ ्ध वपता अपनी पतोहऔ पर एक ओिरसीयर के अनाचारों को दखे ने के वलए वििश ह।ै वकशोर पौि इस अनाचार को न दखे पाने के कारण घर छोड़कर चला जाता ह।ै िदृ ्ध वपता उसकी तलाश में दर-दर भर्कता ह।ै दयािश कु छ लोग उसे भोजन देते ह,ंै पर िह खा नहीं पाता क्योंवक उसकी भखू मर गई थी। ‘कायापलर्’ गांि का यिु क इजं ीवनयर भिु नेश्वर झा अपने गािँ में रहकर ही गाँि का विकास करता ह,ै िह शहरों की ओर पलायन नहीं करता। ‘आसमान में चदं ा तैरे’ ऐसे यिु ा कवि प्राथी की कहानी है वजसकी कमजोरी का िायदा लीलाधर नामक एक िररष्ठ मचं ीय कवि उठाते ह।ैं नागाजनषु के वनबधं ों को चार कोवर्यों मंे बारँ ्कर विचार वकया जा सकता ह।ै व्यवक्तपरक वनबधं सावहत्कारों के प्रवत उनकी शदृ ्धा को दशाषते ह।ंै ‘श्रमवनष्ठा कलम के मजदरू की’ वनबंध में वनराला के चररि एिं कलम के प्रवत उनकी सच्ची श्रद्धाजं वल ह।ै ‘महाकवि बल्लतोल’, िणीश्वरनाथ रेण,ु ‘अमतृ ा प्रीतम’, ‘प्रमे चदं ’, ‘यशपाल’ आवद पररचयात्मक वनबधं ह।ै अवं तम वनबंध ‘राजमागष से गवलयारे तक रोता रहा कबीर’ मंे ितषमान समाज व्यिस्था के प्रवत असंतोष ह।ै यािापरक वनबधं अपनी यायािरी प्रिवृ त के कारण नागाजनषु को ‘यािी’ उपनाम वमला। ‘वहमालय की बवे र्याँ’, वर्हरी से नले ङ’, ‘वसंध मंे सिह महीन’े आवद इसी प्रकार के वनबधं ह।ंै ‘वर्हरी से नेलङ’ वनबधं नागाजनषु की राहलु सांकृ त्यायन के साथ वतब्बत यािा का अनभु ि बताता ह।ै िषष 6, अकं 67, निबं र 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 286
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बहु-विषयक अतं रराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशेषज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 व्यंग्यपरक वनबधं समाज एिं राजनीवत के यथाथष को स्पष्ट करते ह।ंै ‘सरस्िती का अपमान’, ‘अरनु् ाहीनम् वक्रयाहीनम’् , ‘राज्यश्रम और सावहत्य जीविका’, ‘मखु ड़ा क्या दखे ें दपषण म’ें जसै े वनबंधों मंे उनके विविध िवे िय कर्ु अनभु िों की प्रवतछाया ह।ै विचारपरक वनबधं जसै े ‘बमभोलेनाथ’ मंे वमवथलाचं ल मंे वहदं ी की दयनीय वस्थवत को कु छ मजावकया अदं ाज मंे दशाषया ह-ै ‘‘हाल यह है वक स्कू ल-कॉलेज मंे दस-दस रट्टा लगा चकु ने पर भी हमारी जीभ उस बेचारी का सम्मान नहीं कर पाती ह।ै ‘ने’ की नानी मर जाती ह।ै ’’19 प्रबवध-काव्य एक व्यवक्त: एक यगु मंे वनराला के जीिन के पिों पर प्रकाश डाला ह।ै िे वलखते हंै वक ‘‘वनराला हमें अपने स्िरूप का ज्ञान करा गए। िे वदखा गए वक वहरदसु ्तान मंे शदु ्ध सावहत्यकार वकतना उपवे ित और असहाय ह।ै ..... अगर सावहत्यकार राजनीवतज्ञों का अनगु मन करने से वहचकता है तो भौवतक तौर पर उसका भविष्ट्य अरधकार पणू ष ह।ै ’’20 वनराला के प्रवत की गई अिहले ना को वि ने वदखाने का प्रयास वकया गया ह।ै नागाजनषु ने अपने खंडकाव्य ‘भस्मांकु र’ मंे वशि-पाितष ी की कथा को दशाषते हएु भी कहीं न कहीं समाज की राजनीवतक वििुपताओं पर प्रहार करने की कोवशश की ह।ै बाल-कथा सामियय नागाजनषु ने बच्चों के वलए कहावनयाँ, कविता, जीिनी आवद वलखीं। िे बाल-कथा सावहत्य के माध्यम से बच्चों में मनोरंजन के साथ ज्ञान का भी सचं ार करते ह।ैं बाल कहावनयों मंे ‘सवै नक की वभड़ं त यमराज से’, ‘दःु ख, नदी विर जी उठी’, ‘पाररतोवषक’, ‘अवभनेता’, ‘ड्यरू ्ी’, ‘िानर कु मारी’, ‘दया आती ह’ै आवद प्रमखु ह।ैं कमवता नागाजनषु की प्रथम काव्य रचना ‘राम के प्रवत’ 1935 में ‘विश्वबंध’ु लाहौर से प्रकावशत हुई। इसके बाद वनररतर हसं , सरस्िती, ज्ञानोदय, अिवं तका, नई-धारा, जनशवक्त, जनयगु , आजकल, आलोचना, कल्पना, धमयष गु , पहल, नया जीिन, नई दवु नया, नया संसार, प्रतीक, दस्तािजे , जनसत्ता, निभारत र्ाइम्स आवद पि-पाविकाओंमें प्रकावशत होती रही हुं ।ै प्रथम काव्य सगं ्रह ‘यगु धारा’ (1935), ‘सतरंगे पखं ांुिे ाली’ (1959), ‘प्यासी पथराई आखँ ’ंे (1962), ‘तालाब की मछवलयाँ’, ‘वखचड़ी विप्लि दखे ा हमने’ (1980), ‘तमु ने कहा था’ (1980), ‘हजार-हजार बाहँ ों िाली’ (1984), ‘ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तमु क्या’ (1985), ‘आवखर ऐसा क्या कह वदया मनंै े’ (1986) तथा संद्यः प्रकावशत ‘इस गबु ्बारे की छाया म’ंे (1989) ने अपने समय के सामावजक, राजनीवतक, आवथषक, सांस्कृ वतक, सावहवत्यक पररदृश्य में घर्नाओं और हादसों को रूबरू प्रस्ततु वकया ह।ै इनके अवतररक्त ‘खनू और शोले’, ‘प्रेत का बयान’ और ‘चना जोर गरम’, ‘अब तो बरद करो हे दिे ी चनु ाि का प्रहसन’ लघु पवु स्तकाएँ भी रचीं। नागाजनषु के काव्य में व्यक्त विविध दृश्य: िषष 6, अंक 67, निबं र 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 287
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बहु-विषयक अतं रराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशेषज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 नागाजनषु के काव्य में प्रकृ वत, प्रणय और िात्सल्य भाि की कविताओं मंे भी सामावजक भािना वनवहत ह।ंै िे प्रकृ वत मंे भी समाज की दयनीय दशा को महससू करते ह,ैं उरहें प्रकृ वत की खबू सरू ती भी लभु ा नहीं पाती उस समय भी कवि के मन में सामावजक यथाथष की तस्िीर उभरती ह।ै ‘हज़ार-हज़ार बाहँ ोिाली वशविर विषकरया’ में पितष ीय वशखर के दृश्य दखे ते समय कवि की दरू दशी वनगाह सब कु छ दखे रही ह-ै ‘‘मनैं े दखे ा दो वशखरों के अरतराल िाले जगं ल में आग लगी ह।ै $$$$ दस झोपवड़याँ, दो मकान हंै इनकी आभा दमक रही है इनका चनू ा चमक रहा ह।ै ’’21 एक सिसष मदृ ्ध समाज की कल्पना िे इस प्रकार करते ह-ैं ‘‘वस्त्रयाँ होंगी परु ुषों तलु ्य बढ़ायंेगे बस गणु ही मलू ्य।’’22 कहकर कवि ने समाज मंे स्त्री की समता पर सदा ध्यान कंे वित रखा। िे मानते हंै वक प्रवतभा की कमी यहाँ के लोगों में नहीं ह,ै वकं तु उस प्रवतभा को सही ढंग से पनपनंे का अिसर नहीं वमलता। दो िक्त की रोर्ी की जगु ाड़ मंे लोग अपने बच्चों को बचपन से ही मजरू ी मंे लगा दते े ह-ैं ‘‘तानसने वकतने, वकतने रवि िमाष यहाँ घास छीलें बागमवत के वकनारे कावलदास वकतने, वकतने विद्यापवत यहाँ भसंै िारों के झडंु मंे खोए पड़े अरन नहीं, पसै े नहीं, न िू र्ी कौड़ी यहाँ अरे, गरीब के बच्चे, कहो, कै से पढ़ेंग।े ’’23 अपने को ‘पगलेर्’ और ‘बढ़ू ा बरदर’ कहना नागाजनषु के प्रमे पणू ष हृदय की अवभव्यवक्त ह।ै कवि ने स्ियं को कहा- िषष 6, अकं 67, निबं र 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 288
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बहु-विषयक अंतरराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशेषज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 Volume 6, Issue 67, November 2020 www.jankriti.com ‘‘यह िनमानस िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 यह सत्तर साल उजबक’’24 नागाजनषु की नजरों से वकसी भी पररवस्थवत को नकारा नहीं जा सका। िे वकसानों के संदभष में कहते ह-ैं ‘‘बीज नहीं ह,ै बैल नहीं ह,ै बरखा वबन अकु लाते हंै नहर रेर् बढ़ गया खते मंे पानी नहीं पर्ाते हैं नहीं खते से कनका भर भी दाना उपजा पाते हैं वपछला कजष चकु ा न सके , साहऔ की वझड़की खाते ह’ैं ’25 नागाजनषु की दृवष्ट अतं राष्ट्रीय स्तर पर थी। रूस ने अचानक चेकोस्लाविया की राजधानी प्राग पर जब र्ैंक चढ़ा वदए, तो कवि कह उठा- ‘‘प्राहा पथ पर सांझ सकारे तमु ने सौ सौ र्ैंक उतारे दगं रह गए िे बेचारे अपनी सज्जनता के मारे क्रावरत जिाबी तमु ्हें मबु ारक अक्ल निाबी तमु ्हें मबु ारक माक्सष और स्तावलन के ताला-चाबी तमु ्हंे मबु ारक।’’26 जयवत नखरंजनी, सौंदयष प्रवतयोवगता, प्लीज एक्सक्यजू मी, तो विर क्या हआु , प्रेत का बयान, खाली नहीं और खाली, तालाब की मछवलयाँ, सच न बोलना, छोर्े बाबू, िे और तमु , पैसा चहक रहा ह,ै यह उरमकु ्त प्रदशनष , मिं , माँजो और माँजों, भलू े स्िाद बेर का, छब्बीस जनिरी परिह अगस्त, बताऊँ , बाढ़: 67 पर्ना, आओ रानी हम ढोएगं े पालकी, तीनों बदं र बापू के आवद इनकी व्यंग्यपणू ष रचनाएँ ह।ैं दशे में गरीब िगष और भी गरीबी की ओर बढ़ रहा है िहीं धवनक िगष अवधक धनी होता जा रहा ह।ै कवि की नज़र मंे गरीब दशे मंे धवनक लोग शोवभत ही नहीं होते, िे कै से लगते ह-ंै ‘‘बताऊँ ? कै से लगते हैं िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 289
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बह-ु विषयक अंतरराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 Volume 6, Issue 67, November 2020 www.jankriti.com दररि दशे के धवनक? िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 कोढ़-कु ढ़ब तन पर मवणमय आभषू ण।’’27 िे स्ियं जनसाधारण के प्रवत समवपषत कवि ह,ैं इसवलए उनके वलए मर-मरकर जीने की इच्छा रखते हंै - ‘‘संग तमु ्हारे साथ तमु ्हारे मंै अभी न मरने िाला हऔँ मर-मरकर जीने िाला हऔ।ँ ’’28 नागाजनषु ने दशे के सावहत्यकारों महान नेताओंआवद को अपनी कविताओंद्वारा श्रद्धाजं वल अवपतष की ह,ै यगु धारा संग्रह में ‘रवि ठाकु र’, ‘चरदना’, ‘पाषाणी’ कविताए,ं सतरंगे पंखों िाली काव्य सगं ्रह की ‘कावलदास’ तथा प्यासी पथराई आखँ े की ‘भारती वसर पीर्ती ह’ै , ‘लमु मु ्बा’ आवद इसी प्रकार की रचनाएँ ह।ैं ‘रवि ठाकु र’ कविता में विश्व कवि र्ैगोर के महान गणु ों की चचाष करते हुए कवि का प्रश्न ह,ै उच्च कु ल में जरम लेकर, िभै ि सपं रन् होते हुए भी आप जन-जन के ददष को समझने िाले कै से बन गये? ‘‘कहाँ से वमली तमु ्हंे इतनी अनभु वू तयाँ पीवड़त मनषु्ट्यता के वनम्न स्तर की?’’29 महाकवि वनराला, नागाजनषु की शदृ ्धा के मखु ्य के रि रहे ह,ैं वनराला का सारा जीिन बड़ा ही संघषपष णू ष व्यतीत हुआ। महाकवि के महाप्रयाग से सब दखु ी है - ‘‘वतवमर मंे रवि खो गया, वदन लपु ्त है बेसधु गगन भारती वसर पीर्ती है लरु ् गया है प्राण धन।’’30 अफ्रीकी जनता की सिे ा मंे रत लमु मु ्बा के महान कायों का स्मरण करते हएु कवि ने उस गोरी कू र्नीवत की ओर संके त वकया ह,ै उसकी अमरता और महाबवलदान का गौरि-गान वकया ह-ै ‘‘तुम मरकर भी अमर रहोग,े लोगे ही प्रवतशोध कालनवे म को भस्म करेगा जन-मन का यह क्रोध।’’31 नागाजनषु का मानना है वक यिु ा िगष ही समाज को नई वदशा दे सके गा। यह कायष यगु की गगं ा लाने िाले तरुण िगष को परू ा करना ह,ै उसका रास्ता अिश्य दगु मष है पर उसकी सिलता वनस्सदं हे सामने है - ‘लक्ष्य स्पष्ट है पंथ कवठन है रावि शषे यह आगे वदन ह।ै ’ िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 290
Multidisciplinary International Magazine JANKRITI जनकृ ति बह-ु विषयक अतं रराष्ट्रीय पविका (Peer-Reviewed) (विशषे ज्ञ समीवित) ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 ISSN: 2454-2725, Impact Factor: GIF 1.888 www.jankriti.com www.jankriti.com Volume 6, Issue 67, November 2020 िषष 6, अकं 67, निंबर 2020 मनष्कषू - समाज सधु ारकों के अथक प्रयासों के पररणामस्िरूप अनेकों सामावजक कु रीवतयों को दरू वकया जा सका। िहीं आधवु नक वहरदी सावहत्य के आरंभ से ही सावहत्यकारों ने अपनी लेखनी द्वारा समाज को एक नई वदशा दने े मंे अपनी अहम् भवू मका वनभाई। भारतेरदु से लेकर नागाजनषु तक वकसी न वकसी रूप मंे समाज मंे मौजदू तमाम अवभशापों से मवु क्त वदलाने एिं जनमानस को जागरूक करने में भरसक प्रयास वकए गए। नागाजनषु के सावहत्य ससं ार मंे समाज के ऐसे पिों को उद्घावर्त वकया गया है वजस पर पहले शायद ही वकसी की दृवष्ट गई हो। उरहोंने सावहत्य की अनेकों विधाओं पर लेखनी चलाई लवे कन उनकी प्रवसवद्ध का कारण उनका कविता ससं ार ह।ै िे समाज की उन सभी विडंबनाओं की ओर आिाज़ उठाते नज़र आते हैं वजसके वलए उरहंे अनेकों बार जले की यािा भी करनी पड़ी। संदिू 1 बच्चन वसहं , िषष 2007, आधवु नक वहदं ी सावहत्य का इवतहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प0ृ 29 2 िही, प.ृ -30 3 िही 4 विश्वनाथ विपाठी, िषष 2007, वहदं ी सावहत्य का सरल इवतहास, ओररएरं ्ल ब्लैकस्िान प्राइिरे ् वलवमर्ेड, वदल्ली, प.ृ - 82 5 िही, प0ृ 87 6 िही 7 िही, प0ृ -88 8 बच्चन वसहं , िषष 2007, आधवु नक वहदं ी सावहत्य का इवतहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प0ृ 109 9 िही, प.ृ 235 10 िही, प.ृ -240 11 प्रमे चदं , 1954, सावहत्य का उद्दशे ्य, हसं प्रकाशन, इलाहाबाद, प.ृ 10-11 12 सािात्कार- मनोहर श्याम जोशी, नया पथ, जनिरी-जनू , सयं कु ्तांक 2011, प0ृ 25 13 सािात्कार - मनोहर श्यामजोशी, नया पथ, जनिरी-जनू , सयं कु ्ताकं 2011, प0ृ - 25 14 सािात्कार-मनोहर श्यामजोशी, नया पथ, जनिरी-जनू (संयकु ्ताकं 2011) प0ृ 25-26 15 डॉ0 प्रकाशचंि भट्ट, 1974, नागाजनषु : जीिन और सावहत्य, रामपरु ा: सिे ासदन, प.ृ -24 16 खगिंे ठाकु र, नया पथ, जनिरी-जनू (संयकु ्तांक 2011 प0ृ 74) 17 आलोचना, विलोचन शास्त्री, प0ृ 40 18 डॉ0 सषु मा धिन, 1961, वहदं ी उपरयास, राजकमल प्रकाशन, नई वदल्ली, प0ृ 304-305 19 नागाजनषु , बमभोलने ाथ िाणी प्रकाशन, नई वदल्ली, प0ृ 16, 20 डॉ. प्रकाशचंि भट्ट, 1974, नागाजनषु जीिन और सावहत्य, रामपरु ा: सिे ासदन, प.ृ -285 21 नागाजनषु , ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तमु क्या, िाणी प्रकाशन, नई वदल्ली, प0ृ -39 22 नागाजनषु , रत्नगभष, 1984, िाणी प्रकाशन, नई वदल्ली, प.ृ -14 23 सं. शोभाकातं वमश्र, िषष 2003, नागाजनषु रचनािली, राजकमल प्रकाशन, वदल्ली, प.ृ -41 24 नागाजनषु , िषष 1980, वखचड़ी विप्लि दखे ा हमने, संभािना प्रकाशन, हापड़ु , पुृ 0ृ -114 िषष 6, अंक 67, निंबर 2020 ISSN: 2454-2725 Vol. 6, Issue 67, November 2020 291
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