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Bargad Ka Ped_Final(29.09.2018) (1)

Published by 1303mansi, 2020-04-05 15:18:48

Description: Bargad Ka Ped_Final(29.09.2018) (1)

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तजे स पहनने की जो कोशिश की, उन इश्राक़ रिश्तों को। वो गुरूब हो गए हैं, अब वो फिट नहीं आत।े रिश्ते सिल रहा हूँ म,ंै जो थोड़े उधड़-े उधड़े हंै। 93

इश्क़ का परचम कई पन्नों पे जोर आजमाइश का दौर था। कहीं नकु ्ता बदलते थे कु छ शब्दों को काटा था। कई परतों मंे बयां की दास्ताने इश्क़ मुझ पर, जाने क्या क्या लिखा था तमु ्हारे दिल का हाल था। फिर तह-ब-तह मोड़ के लिफ़ाफ़े में भर दिया मझु को, और किताबों के रेगिस्तान मंे छु पा के रख दिया तमु ने। के मिल जाये न किसी और को ये दास्तानंे इश्क़। मैं भी तमु ्हारे प्यार का परचम लिए हुए, किताबों के घपु ्प अधं ियारों मंे बठै ा था। दर्द भी था और डर भी हार जाने का, के कहीं मंै उसके हाथों मंे चरु ा न बन जाऊं । दफ़न हो जाये ना कहीं ये पगै ाम इश्क़ का। मझु े तमु ने हर रोज़ बगै मंे भर सड़कों पे घुमाया था, अब तो मझु े भी सारे रस्ते याद हंै स्कू ल जाने के । वो रोज़ मिलती थी तुम भी क़िताब बहार करते थे, मंै भी खुश होता था के आज इश्क़े -परचम लहरा दंगू ा। 94

तजे स पर कम्बख्त तुम्हारे दोस्त आ जाते थे, बड़े बेमन से तमु मझु े वापस रख देत।े मैं वापस उसी अधँ ेरे मंे डू ब जाता था। उसे देखा था मनैं े भी मेरी ये खशु नसीबी थी, वो हंसती थी बड़े ही प्यार से और ख़बू सरू त थी। मझु े गुस्सा भी आता था तमु ्हारे दोस्तों पे, और दया भी तुमपे आती थी। फ़क़त ये सोच में था म,ंै अगर क़ु बलू हो गया तो प्यार का परचम, अगर रुखसती हुई तो भी अमरता है। फिर उस रोज बारिश थी, मैं तुम और वो भी थी। तमु ्हारे दोस्तों ने उस रोज़ छु ट्टी मारी थी। तुमने मझु े उस रोज़ किताबों से निकाला, और हौले से उसके नरम हांथों पे रख दिया। उसने वापस मुझे खोला तह-ब-तह आहिस्ता से, उसके नर्म हाथों में गज़ब एहसास आया था। उसके होठों पे शब्द-दर-शब्द घलु गया था म।ंै दिल में आया के परचम टिका दँ ू तुम्हारे हाथों में, 95

बरगद का पेड़ पर कै से बताता तुमको मझु े भी उससे प्यार था। आखिर मैं तमु ्हारे इश्क़ का मजमून लाया था। उसने हाँ कहा तुमसे दिल मेरा टू टा था, मगर ये सब्र था मझु को मैं उसके किताबों का अब हिस्सा था। अधँ ेरा घुप्प है अब भी मगर अब ख़ुशी ज्यादा है, तमु ्हारे जीत की भी है और उसके छु के जाने की। मगर अब डर भी ज्यादा है। अगर तुम अपना रिश्ता तोड़ डाला तो, मंै भी किसी डस्टबिन के कोने मंे पड़ा हूँगा। जहाँ पे रौशनी होगी और हवा खुली होगी, मगर मझु को इन घुप्प अधं ेरों से, अब प्यार ज्यादा है। 96

सपनो का बोझ तुम्हारे सपनो का बोझ ही तो है, जो कं धे पे सबु ह से शाम सजाये घमू ता हूँ। जो रोने लगता हूँ उसके चाबकु से, तो दिल करता है के दफ़न कर दँ ू इन्हंे। और भाग जाऊँ , कै से समझाऊं तुमको, तमु ्हारे जतू े मेरे पैरों मंे फिट नहीं आत।े 97

वक़्त दर्ज़ी है समझ आता नहीं मुझको, ये वक़्त कै सा दर्ज़ी है। सिलता रहता है जख्मों को, कभी तो दिल के छालों को। पहन लेता हूँ मंै उनको, पर्त-दर-पर्त घबरा के । कहीं ये दिख न जाएँ, छू न लंे, तस्दीक़ न कर दंे। जो ज़ख्म सील गए हंै, छु प गए हैं दिल के कोनो मंे। नज़र आ जाएं न आसँ ,ू मेरी इन ख़ुश्क आखँ ों मंे। अजीब रिश्ता है मेरा, चलते वक़्त से देखो। वो जख्म सिलता रहता है, और मंै पहनता रहता हूँ। 98

आधा इश्क़ वो कहानी कभी पूरी नहीं कर पाया म।ैं जिसका आगाज़ हुआ इश्क़ के चंद हर्फों से। सनु ा है इश्क़ का रंग होता सरु ्ख लाल सा है। पर मेरी कहानी के सारे पन्ने सफे दी ही बयां करते हंै। सफ़े द पन्ने जिनमंे कु छ स्याह सी लकीरें हंै। वो अब हर सपहे पे लगती कालिख सी हंै। इश्क़ आधा ही परू े की निशानी है। वरना सारे किस्से ही परू े हो जाते किताबों में। शायद ये कहानी भी इतिहास बने। आधे किस्से ही इतिहास बना करते हंै। 99

बरगद का पेड़ अब यकीं हो चला है मुझको इस कहानी पे। न परू ी होगी कभी चाहे कायनात हिले। वो कहानी कभी पूरी नहीं कर पाया म।ैं जिसका आगाज़ हुआ इश्क़ के चदं हर्फोंसे। 100

वो चार लोग कितने शिकवें हंै लोगों को मझु से, जाने कितने गिले लेके बठै े हंै। मेरी लाइफ मंे घुसपठै उनकी ज्यादा है, मेरी गलतियाँ तस्दीक़ करते रहते हैं। वो चार लोग। कु छ भी करता हूँ कै से भी रहता हूँ, जाने कौन सी ख़ुन्नस में जीते रहते हैं। उनकी शक्लंे तो दिखती नहीं हैं मुझको, पर कोनो में गटु रगँू करते रहते हैं। वो चार लोग। मेरी अच्छाइयों मंे बुराइयाँ कै से मिलती हंै, काफ़ी सोचा पर समझ नहीं आता है। पर मेरे अपने मुझसे जाने क्यों ये कहते हैं, 101

बरगद का पेड़ क्या सोचेंगे जो ऐसे मझु को देखंेगे। वो चार लोग। मनंै े भी बड़ी नफ़ासतंे कर ली,ं हर एक पुर्ज़ा बदल दिया अपना। अब घुट के जीना मेरे हिस्से का क़िस्सा नहीं, जो मन करंे उन्हें बनु के रख लें कु छ कहानी मेरी। वो चार लोग। 102

छोटू रमेश नाम था उसका, नहीं सरु ेश, नही-ं नहीं रमेश ही था कन्फर्म। लोग उसे छोटू बुलाते थे। मेरे कॉलेज के सामने वाली टपरी पे काम करता था। मैं अक्सर वहाँ जाता था दोस्तों के साथ, चाय के साथ कहानियाँ इससे अच्छा क्या हो सकता है। छोटू को भी कहानियाँ सनु ने मंे मज़ा आता था। कभी-कभी तो कहानी के चक्कर मंे डाटँ भी पड़ जाती थी उसे दकु ान वाले मकु े श भयै ा से। छोटू एक दिन पूछ बैठा था, “भइया आप कविता लिखते हो तो मुझपे भी कु छ लिखो।” लफ़्ज़ों मंे बयां करना मुश्किल था छोटू को। छोटू की कहानी भी कु छ अजीब थी, माँ बाप का पता नहीं। वक़्त के थपेड़ों ने पाला था उसे। आँखें में दर्द यूँ था जैसे सजदे मंे बैठा ग़मगीन नमाज़ी, और चेहरे पे हँसी यूँ उगी थी कि सारे दर्दों का विसर्जन करके आया हो, भटकता मिला था मुके श भैया को। सबसे छोटा था वहाँ और सबसे प्यारा। सपना हीरो बनने का, कहा करता था मुम्बई जाना है। कई बार कोशिश की कु छ लिखने की उसपे पर उसकी ज़िन्दगी की गहराई और तज़ुर्बा दोनो मुझसे ज़्यादा थे, कु छ भी पूरा नहीं हो पाया। फिर एक दिन वो छोटू कहीं चला गया शायद किसी और मज़ं िल की तलाश मंे या फिर हीरो 103

बरगद का पेड़ बनने। मझु े ग़म था उसके जाने का। पर महसूस हुआ कि चाय की दकु ानों पे झाकँ के तो देखो ऐसे कई छोटू मिल जाते हंै, हरदिल अज़ीज़। ऐसी ही मेरी ये छोटी कृ तियाँ हैं जो मझु े बहुत अज़ीज़ हंै। सोचा की नाम क्या दँ ू इन्हंे और मझु े छोटू याद आया। “छोटू ” ये तुम्हारे लिए हैं। 104

चादँ निकल आया है छाओं है या साया है, या तरे ा सरमाया है। छिल जाती धपू से तूने मुझे बचाया है। वक़्त है ख़ामोशी है, या तरे ी सरगोशी है। ज़िन्दगी की धूप में चाँद निकल आया है। 105

तुम्हारे लफ़्ज़ तुमको घटं ो तकते रहना उन कहानियों को गढ़ते कभी-कभी तो मेरे लफ़्ज़ों को भी गढ़ देते हो तुम्हारे शब्दों का जामा पहन कर मेरे लफ़्ज़ मुझसे ही शरमाने लगते हैं बदंू ों से बरसते हंै तमु ्हारे अल्फ़ाज़ ज़िस्म पे और मेरे चाहत की नाव उनपे डोलती आगे बढ़ती है कु छ कहानियाँ गढ़ते हो तमु मझु े वो अच्छी लगती हंै कै सा रिश्ता है ये जो मेरे पास बारिश तमु ्हारे लफ़्ज़ों से आती है 106

तलाश कै सी ये तलाश है परू ी नहीं होती, उम्मीद भी हताश है परू ी नहीं होती। किसी ने पता दिया था मदं िर का भी मुझ,े मस्जिद का दीदार हुआ था कभी मझु ।े भगवान में हुई न अल्लाह मंे हुई, कै सी ये तलाश है पूरी नहीं होती। 107

दो चेहरे तरे े प्यार की गर्मी थी इस कदर छायी। जो देखूं खदु को दो चेहरे सलु ग जाते थे आईने मंे। 108

अनाड़ी ज़र्रे ज़र्रे को पता था, के इश्क़ है तमु से। बस एक हम ही अनाड़ी थे, नहीं जानते थे। 109

अधँ ियारा आइना बन गया था बियाबान सा घना जंगल। जो खदु को देखंू तो अधँ ियारा सा उग जाता था। 110

तनहा खुद से नाराज़ भी थे, थोड़े परेशान भी थे। तरे ी नाराज़गी मंे, ज़िन्दगी तनहा बीती। 111

गिरहंे मेरी ज़िन्दगी की गिरहें सलु झ जाती हैं, जो तुम्हारी उँ गलियाँ मेरी उँ गलियों मंे उलझ जाती हंै। 112

आग लगी है तमु ज़िन्दगी की उलझनों से बाहर तो झाकँ ो, बाहर तो ज़र्रे-ज़र्रे में बस आग लगी है। 113

वीराने शहर में दरू तक आये और अनजाने से रह गये। ऐसी ही कोशिश मंे कई गांव वीराने से रह गये। 114

स्वेटर की तरह तमु ्हारे जाने से जसै े ज़िन्दगी का सिरा उधड़ गया है वापस से तुम अपने हांथों से स्वेटर की तरह बुन दो फिर। 115

आख़री पड़ाव सुबह होने को है मेरे शाम की, पर मन नहीं है अभी छोड़ने का और किताब परू ी भर गयी है। हैरान भी हूँ थोड़ा और परेशान भी। चाय की के तली ने भी साथ छोड़ दिया है मेरा। अब सिर्फ चदं बँदू ें दिख रहीं है के तली मंे, थोड़ी कोशिश करूँ तो गिन भी सकता हूँ। गला सुख गया है और ये उसे तर करने को नाकाफी हैं। पर तलब लगी है कि मिल जाये कोई कोना, कतरा या खाली ज़र्ार तो भर दँ ू कु छ शब्द उनमें। अब तो मेरी कहानियों ने भी कहना शरु ू कर दिया है, के सो जाओ थक गए होगे तमु । पर आखँ ों मंे नींद नहीं है। प्रिंटर के पेपर भी खत्म हो गए हैं। और मेरे सामने, दरवाज़े के ठीक पीछे क़ब्रगाह है मेरी उखड़ी सूखी कहानियों की। वो मेरी किताब की कहानियों से काफी ज्यादा हंै। अटैक कर दंे अगर मुझपे, तो बचा भी न पाऊं खुद को। दिल करता है की ले आऊं निकाल उन्हें कब्रों से ज़मीन को फिर से समतल बना दँ,ू फिर गढ़ दँ ू उनपे नयी कहानी। क्या ये आख़री पड़ाव है, जज़्बातों का दरिया मेरे आखँ ों से निकला था। थोड़ा घबराया परेशान सा पकु ारा था तुमको “जाना” 116

तजे स और तमु सामने थी मेरे, एक प्याली चाय के साथ। दम का घटूँ था वो। तमु ने क़ब्रगाह की तरफ देखा और मझु े देख मुस्कराई। फिर दसू रे कमरे से लाकर दी थी वो खाली किताब। मीठे शब्दों में कहा था तमु ने गढ़ दो इसपे नयी कहानी। तमु ्हारे शब्दों को आबे ज़मज़म की चुस्की समझ पी गया था म।ंै सूरज की लालिमा बिखर रही थी बाहर और सब लाल दिख रहा था। मनंै े भी नए किताब का पहला पन्ना खोला और लिख दिया “व्हेन रेड, बिके म रेड”, जब लाल, लाल हो गया। फिर शरु ू हुआ एक नया सफ़र है, चलो साथ चलते हैं। 117

नाम तजे स किसी परिदं े को कभी घर बनु ते देखा है या कभी किसी शिकारे को लहरों पे मचलत?े एक एहसास है हवाओं में गँजू ता और रोज़ नये सपने बुनता। एक ख़ुशनुमा खिड़की का दरवाज़ा खोल के देखता है कोई, कभी सर्द गलियारे के अधँ ेरे से भी पर जितनी बार देखो कु छ अलग ही नज़र आता है। तजे स ये नाम भर है उसका पर खदु मंे एहसासों की क़िताब। हर पन्ना अलग रंगों से भरा जसै े बचपने में सारे रंग घुल रहे हों। कु छ गुस्से से लाल-पीले पन्ने, कु छ सर्द ग़मों से स्याह, कु छ पे सादगी इतनी की जो चाहे लिख लो। तजे स नाम की क़िताब का पन्ना तब शुरू होता है जब उसने बाबा के साथ एक नई दनु िया में कदम रखा, किताबों की दनु िया। जहाँ हर कहानी में वो खदु को पाता। उसे प्यार हो गया इस दनु िया से, उसका पहला प्यार। उसने इन कहानियों को जोड़ के कु छ नयी कहानियां बनु ी, अतरंगी कहानियाँ। बाबा का जाना और उसका कहानियों से दरू होना, समय का खेल बड़ा भारी था। पर प्यार पहला था पलट के बार-बार दस्तक देता रहा और तजे स भी अपने पहले प्यार को कै से भूलता, फिर से शरु ू किया पन्नों पे नई लकीरें उगाना। 118

नाम तजे स तजे स को तजे स उसके पहले प्यार ने बनाया, प्यार शब्दों से, सपनो से, किताबों से। तजे स उन सभी एहसासों का किस्सा है, एक कहानी है, एक रिश्ता है। ये क़िताब उसके अनछु ए एहसासों से शायद आपका रिश्ता बुन दे। 119


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