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Bargad Ka Ped_Final(29.09.2018) (1)

Published by 1303mansi, 2020-04-05 15:18:48

Description: Bargad Ka Ped_Final(29.09.2018) (1)

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ये मैं हूँ या तमु हो सोच में बठै ा था के लिखूँ क्या मंै इन अजं ान पन्नों पे अपने बारे मंे। जसै े ही कु छ काली लकीरें खींचता था, तमु ्हारा नाम छलकने लगता। ये पन्ने पछू बठै ते थे कौन है वो। मंै हमारी ढेरों कहानियों के पुर्ज़े से एक परु ्ज़ा निकाल सुनाने लगता था, और वो भी बड़े प्यार से सनु ते रहते थे। सुबह से शाम बीत जाती और पन्नों पे सिर्फ चंद लक़ीरें। कितना मुश्किल है, खुद को बिन तुम्हारे नाम को जोड़े सोचना। हज़ारों किस्से हैं मेरे तुमसे जुड़े हुए, ये मेरी कहानी के पन्ने हैं, पर हर पन्ने पे तमु ्हीं तमु हो। ये मैं हूँ या तुम हो, तुम मंे मंै हूँ या मुझमें तमु हो। उन्हीं परु ्जों में से एक पुर्जा है जो भूल नहीं पाता म।ंै दोपहर का वक़्त, तमु नाराज़ थी उस दिन मुझसे, घर में काफ़ी लोग थे जिन्हंे हमारे बारे मंे पता नहीं था की इश्क़ है तुमसे, तो कोशिशें मशु ्किल थीं और जो कोशिश कर पाया तमु से बात करने की उस हर कोशिश पे ताला जड़ दिया था तमु ने। मैं काफी परेशान तरीके ढूंढ रहा था, तमु से कु छ बात हो जाये। जब तमु को बाहर जाना पड़ा कु छ लेने के लिए और 43

बरगद का पेड़ मैं भी साथ चिपक लिया। तमु कु छ बोल नहीं पायी थी, पर वो गुस्सा आँखों में दिख रहा था। तुम तज़े ी से कदम बढ़ा रही थी और मैं भी उनसे रिश्ते बनाने की कोशिश में था। तुमने सामान पकै कराया मंै साथ चपु खड़ा था कोई बात नहीं की। हम वापस आने लगे और मैं चलते चलते चुप खड़ा हो गया। तुमने कु छ कदम आगे बढ़ाये फिर रुक कर मेरा इंतज़ार किया। मंै अब भी चपु खड़ा था, तुमने पीछे मड़ु के देखा और इशारे से पछु ा क्या हुआ? जवाब नहीं दिया मनंै े। तमु वापस आयी मनैं े तमु ्हारी उँ गलियों पे अपनी उं गिलयां रखी और गज़ु ारिश की, कि कु छ वक़्त तोड़ के देदो मझु को। तमु ने हाथँ पकड़ा मेरा और पास वाले मंदिर की ओर बढ़ चले। सूनसान, वीराना पड़ा था। जर्जर था शायद इसलिए कोई आता नहीं था। वक़्त और लोगों के बेरुख़ी का शिकार। एक छोटा हवन कंु ड, जहाँ शायद कई सालों से कु छ हुआ ही नहीं। देख के लगता है लाल रंग का रहा होगा किसी ज़माने में पर गर्द ने सफे दी की पर्त चढ़ा दी है। मनंै े सारी जमां उलझनो की गिरहंे खोली, और एक-एक कर उतार फ़ंे क दिया उस कंु ड मंे, तुमने भी अपनों दर्दों की पोटली खोली और आहुति देदी उसी कंु ड मंे। उसके धओु ं से आखँ ों के बहते आसँ ंू हमको भी प्यार के दरिया में बहा चले। उस रोज़ उस हवन कंु ड मंे हमने सारि गिरहंे स्वाहा कर दीं। जो लेके निकले थे हम साथ में उस मंदिर से वो रूह मंे बसी प्यार की सच्चाई थी। 44

तजे स ऐसे कितने ही परु ्ेज़ जोड़-जोड़ के ही तो मेरी कहानी है। ये मेरी कहानी के पन्ने हंै, पर हर पन्ने पे तमु ्हीं तुम हो। ये मंै हूँ या तुम हो, तुम में मैं हूँ या मझु में तुम हो। 45

उदास पानी मेरी आखँ ों से चुपचाप बह गया था। वो उदास पानी। तुमने हौले से मुझको बाँहों मंे भर, नरम हाथं ों से पोंछ दी थी वो रेत की तकरीरें। सिमट के मिल गया था तुम में जसै े एक ही हो। मेरी आखँ ों के जजीरों पे तमु ्हारा अक्स था आया, तमु ्हारी साँसे जसै े कह रहीं थी। रोक दो सलै ाब ये तो मंै बहार आ जाऊं । तुम्हारे नरम होठों पे आफ़ताब की बँदू , आबे-जमजम समझ पी गया था म।ंै मेरे रूह पे दस्तक तमु ्हारी रूह ने दी थी। 46

तजे स सलु गते जिस्म को हमने बड़ी मशु ्किल से बांटा था, तमु ्हारे सासं ों की गर्मी ने कहा था प्यार है मझु से। मनैं े भी तमु ्हारे कान मंे ये बदु बदु ाया था। उस रोज़ मेरी आखँ ों से चुपचाप बह गया था, वो उदास पानी। 47

फिर मिले हाँथ उनके हाथों से फिर मिले हाथँ उनके हाथों से, मेरी उँ गलियों के बीच की जगह भर दी। साथ में चलते दरू निकल आये हम, उसने ख़ामोशी मंे अपनी हँसी भर दी। मनैं े भी जेबों से कु छ तारे निकले, उसने आखँ ों की चांदनी परोसी। रात भर खशु ियों को सजाते रहे हम, स्याह रात ने ज़िन्दगी मंे ख़ुशी भर दी। प्यार सलै ाब सा उमड़ता रहा, हमने डू बने की कोशिश कर दी। अब भी ज़िदं ा महक़ उस रात की है, जिसने लबों पे उसकी नमी भर दी। 48

खर्राटे मझु े सोते से जगाने की कोशिश मंे, तुमने थोड़ा और सलु ाया था। याद है ना, जब तमु ने मेरे बालों को सहलाया था। मेरे खर्ाटर े जब कानो मंे गूंजे थे, जिसने तुम्हें नींद से जगाया था। उनको बदं करने की कोशिश मंे, थोड़ा मेरी नाक को दबाया था। थोड़ा मैं जागा थोड़ा सोया था, जब तमु ने हाथँ को सिराहना बनाया था। तुम्हारे उँ गलियों की छु वन पाने को, मनैं े झूठ भी खर्राटा सुनाया था। अब भी जाग जाता हूँ रातों में, झठू ही खर्ाटर े बजता हूँ रातों मंे। 49

बरगद का पेड़ आके खेलो न मेरे बालों से, मुझे फिर से जगाओ न तमु रातों मंे। मुझे फिर से गले लगाओ न, फिर से भर लो न अपनी बाहँ ों मंे। मझु े सोते से जगाने की कोशिश मंे, तमु ने थोड़ा और सलु ाया था। 50

मेरे जैसे हो तमु ख़ामोश रातों से बहते हो तमु जाने क्यों लगता है मेरे जसै े हो तमु होंठ हँसते है के थकते ही नहीं आखँ सोयी है के सबु ह न हुई जसै े दिखते हो तुम हम हमंे अक्सर वसै े तो बिलकु ल भी नहीं हो तमु ख़ामोश रातों से बहते हो तुम जाने क्यों लगता है मेरे जसै े हो तुम लफ़्ज़ को होठों से छलकने दो दिल की आवाज़ों को बहकने दो क्यों कै द में रखा है तमु ने सपनो को वो बहता दरिया है उसको बहने दो 51

बरगद का पेड़ ख़ामोश रातों से बहते हो तुम जाने क्यों लगता है मेरे जसै े हो तुम आखँ ों से टू ट के निकले आसँ ूं फँ स के बठै े हैं पलकों के दरीचों मंे क्यों बाँध रखा है एक समदं र को आखँ ों के जज़ीरों से निकलने दो ख़ामोश रातों से बहते हो तुम जाने क्यों लगता है मेरे जसै े हो तमु क़ै द से झाँको तो दिल की खिड़की से फिर से बोलो जरा सी झिड़की से क्यों ये मासूमियत छु पाते हो उगने दो बचपने को तुममंे फिर से ख़ामोश रातों से बहते हो तमु जाने क्यों लगता है मेरे जसै े हो तुम 52

तजे स जसै े दिखते हो तमु हम हमंे अक्सर वसै े तो बिलकु ल भी नहीं हो तमु ख़ामोश रातों से बहते हो तुम जाने क्यों लगता है मेरे जसै े हो तुम 53

चादँ बड़ा धधुं ला सा था वो चाँद बड़ा धंुधला सा था, वो रात जो थोड़ी काली थी। उस रात मिला था तुमसे म,ैं न घडी वो भलू ने वाली थी। तुम मिले मुझे पहचान हुई, मेरे सपनो की मझु से ही। आखँ ों मंे डू बा तरे ी म,ंै अजं ान हुआ था खुद से ही। अब भी करता हूँ याद वो पल, जब पड़ा तरे े आगोश में म।ंै सब भलू गया जब पास थी तुम, और बहा तरे ी आखँ ों से म।ैं 54

तजे स न जाने कब ये प्यार हुआ, अब तरे ा मिलना वाजिब है। हूँ तरे े प्यार में डू बा म,ैं अब मेरी ज़िन्दगी कामिल है। 55

निःशब्द हँसी ऐसी गँजू ती है मेरे कानो मंे तरे ी वो निःशब्द हँसी घुलती है धीरे-धीरे से मेरी ख़ामोश रातों में ढु लकती घमू ती है मेरे जिस्म मंे फ़िर दरू तलक इक झुरझुरी सी रहती है बदन पे मेरे सँवारती मझु को है कभी मेरे ख़यालों को और पलकें बन्द कर आग़ोश मंे बठै ा मंै तरे े उसे लबों पे महसूस किया करता हूँ कितना बोलती है तरे ी वो निःशब्द हँसी सारी करवटें सोती है मेरे साथ में वो मेरी पलकों को फिर धीरे से चमू ती हैं क़तरा-क़तरा सिमट के घलु ती हंै मझु में जाने कितनी आयतंे सुनाती हंै मझु े 56

तजे स बनु ती हैं निःशब्द शब्दों को मेरे जेहन मंे मैं भी बेख़याल दनु िया से गुनगनु ाता रहता हूँ उन्हें कितनी मीठी सी है तरे ी वो निःशब्द हँसी शबनम सी पसर जाती हैं मेरे बाहों मंे गचंु ा-गचंु ा सा मन यूँ ही खिला रहता है कोई कतरा कभी बहे जो मेरी आखँ ों से उसपे तरे ा नाम लिखती रहती हैं जाने कै से उनको मालमू है दिल का रस्ता मेरी आखँ ों में तरे ी हँसी बनु ती रहती हैं कितनी पोशीदा है तरे ी वो निःशब्द हँसी 57

जसै ा तमु ने देखा था वसै ा ही हूँ जसै ा तुमने देखा था। थोड़ा वक़्त नज़ाकत दिखा रहा है, तमु से मिलने की कशिश बढ़ती जा रही है। बस हर पल तुम्हारा इंतज़ार है। पर वसै ा ही हूँ जसै ा तुमने देखा था। क्या वो दीवारंे भी वसै ी ही हैं? जिनको सिराहना बनाया था। क्या वो गलियां मुझे अब भी याद करती हंै, कोशिश मंे हूँ तुमसे आके मिलने की। पर वसै ा ही हूँ जसै ा तमु ने देखा था। वक़्त थम सा गया है, मेरे आसपास कु छ नहीं बदला । 58

तजे स चदं सिक्के बढ़ गए हैं तिजोरी मंे। थोड़ी खुशियाँ कम हैं ज़िन्दगी मंे। पर वसै ा ही हूँ जसै ा तुमने देखा था। याद करते हंै हर एक पेड़ तुमको यहा,ँ जिनको छू के तुम गज़ु री थी। याद करते हंै आसमां के तारे तुमको, मैं भी याद करता हूँ तमु को बहुत। पर वसै ा ही हूँ जसै ा तमु ने देखा था। मिलँगू ा आके तमु को जब भी, वक़्त की तरह तुम भलू ना न मझु ।े मंै तो वसै ा ही हूँ जसै ा तमु ने देखा था। क्या तमु भी वसै ी ही हो जसै ा मनैं े तमु को देखा था। 59

आशियाना ढूंढता दिल आशियाना ढूंढता दिल पास आना चाहता है। तमु को फिर से बाँहों में भर मसु ्कु राना चाहता है। फिर वही अब ख्वाब सारे गनु गुनाना चाहता है। फिर से आके पास मेरे, छू दो तुम होठों से अपने। फिर सजा दो दिल को मेरे, पूरे कर दो सारे सपने। फिर वही अब ख्वाब सारे गुनगुनाना चाहता है। देख लो एक बार जाना, हूँ खड़ा अब भी वहीँ म।ंै प्यारी सी आखँ ों में तरे ी, हूँ पड़ा अब भी वहीँ म।ैं फिर वही अब ख्वाब सारे गुनगुनाना चाहता है। 60

एक लम्हा एक लम्हा भेजा है ख़त के जरिये, बड़ी मुश्किल से तोडा है कु छ परु ानी यादों से। शायद कु छ याद आ जाये तुमको, अक्स उभर आये हमारे प्यार का। कु छ सूखी पंखुड़ियाँ भी हैं उसमंे गलु ाबों की, आज किताबों से निकाली हैं। इतने लम्बे सफर तक साथ थीं, देखना चरू ा न बन जाएँ। उसी पकै े ट मंे कु छ हंसी के छिलके भी भेजे हंै। जो लाइब्ेररी मंे हंसी टांक दी थी मेरे जेहन में। उन्हंे तमु फ़ंे क मत देना, पहन लेना, तुमपे अच्छी लगती हंै। 61

बरगद का पेड़ वो आखरी सिगरेट भी है उसमें, आई लव यू लिख दिया था। जो मंै पी नहीं पाया, तमु को दर्द में देखना अच्छा नहीं लगता। एक बे-लम्स छु वन भी भेजी है, काट के रूह से अपने। मेरा सकु ू न-ए-दिल था वो, छू के देखना उसको कहीं ठं ढी न पड़ जाएं। 62

एक प्याली चाय सबु ह दस्तक दे रही थी, तमु ्हारे बदन की भीनी खुशबू मेरे बदन से आ रही थी। अभी थोड़ी देर ही हुई थी। सपनो की बस्ती मंे चाय पी रहा था म,ैं और सूरज की किरणे जगा गयी मुझ।े बड़ी बेदर्दी से चाय का प्याला छीन गया था। तुम सामने थी मेरी बाहों में, और चाय पीने का मन था। गर्म सासँ ों और होठों की मिठास, अपने होठों पे रख पी गया म।ैं मिठास दिल तक घुल गयी थी। तमु ने हौले से मेरे बालों मंे अपनी उं गिलयां घमु ाई, और चाय का नशा दिल से दिमाग तक छा गया। अब सुबह हसीन है। तमु ्हारी एक प्याली चाय से। 63

सलु गता चादँ सुलगता चादँ और सुरमयी रात के फाहे, तमु ्हारे चेहरे की सदं ली सी महक, मेरे हाँथों मंे सिमट रही थी। तुम्हारे भीगे भीगे से लफ़्ज़, मेरे लबों पे घुल रहे थे। चादँ बादलों की ओट ले रहा था। बदं आखँ ों से थोड़ी बाते कर रहे थे हम, हवा यक-ब-यक तमु ्हारे बालों को, मेरे चेहरे पे ला रही थी। तुम्हारी भीनी खशु बू मंे, बहका-बहका खोता जा रहा था म।ैं तनहाई कह रही थी, लपेट लो तमु मझु े बदन पे अपने। सासँ ों का सलै ाब बहा, उस रात मेरे दिल के अन्दर। मैं तुम और हमारे इश्क़ की वो गहराई थी। 64

तजे स लेकर फिर से चलो मझु ,े मैं फिर से तमु मंे खो जाऊँ । देखो फिर से आसमानों में, वही सलु गता चाँद वही सुरमयी रात के फाहे। 65

बड़े झूठे हो तमु बड़े झठू े हो तुम। मेरे हाथों पे नक्काशियाँ जड़ते कहा था ये, की चंद रोज़ में ये आशियाना रोप दोगे तुम। मगर अब मांगती हूँ, कहते हो की मैं और तुम जहाँ पे हों, वही तो आशियाना है। बड़े झठू े हो तमु । याद है उँ गलियों से तारे गिनकर के , चादँ और तारों को पकड़ लाने का वादा था। जो अब देखती हूँ, कहते हो की छोड़ दो आसमान मंे तुम, बेचारे शायरों का एक ही तो ठिकाना है। बड़े झूठे हो तुम। मेरे माथे से पोंछ कर नमकीन पानी को, 66

तजे स कहा था तुमको पहाड़ों पे घमु ाऊं गा। जो अब मंै सोचती हूँ, कहते हो तुम जो हँस दो एक बारी, वो खुद-ब-खदु ही तुमसे मिलने आएंगे। सच मंे, बड़े झठू े हो तमु । 67

सफ़र चाँद सफ़र पे निकला था, कु छ लफ़्ज़ों की आराइश थी। मैं था तुम थी और फ़क़त, कु छ लम्हों की गज़ंु ाइश थी। पास खड़े थे हम दोनों, कु छ रिश्तों की पमै ाइश थी। छू कर साँसे गुज़री तमु को, कु छ अश्कों की पैदाइश थी। मेरा तुम मंे खो जाना, तरे ी आँखों की फर्माइश थी। हम दोनों के बीच बची, कु छ साँसों की गर्माइश थी। 68

सोता शहर शाम के काले गहराते साये हंै, धएु ं की गर्द है या गर्द सा धुआँ अदं ाज़ा लगाना मुश्किल है, शहर में घूमते हंै खूखँ ार साये। रोज़ एक हल्का लम्हा ख़िसक जाता है उस शहर के हाथों से। घर मंे सोते शान्त लोगों की परछाइयाँ सड़कों पे भाग रही हैं। एक ही शहर के दो मज़ं र। हर एक के दो चेहरे उग गए हंै, लगता है सब के सब स्प्लिट पर्सनालिटी डिसऑर्डर से बीमार हंै। कहीं लोगों का जमघट है और कहीं उनकी खूखं ार परछाइयों का, जो वीरानों का सन्नाटा छीन लेने के लिये काफी हैं। बीमार लोगों की बस्ती, और गरीबों की मिटति हस्ती। कहीं बलै ंेस बिगड़ गया है। कै से उलझी सी जिन्दगी सड़कों पे भाग रही है, लोग गसु ्से में हंै खदु से या दसू रों अदं ाज़ा नहीं। तमु ठीक क्यों नहीं कर देते इसे। तुम शहर से यहाँ के मौसम और मिज़ाज़ पे काबिज़ यहाँ बसने वाली ज़िन्दगी भी तमु से हैं और यहाँ बसने वाला अधँ ियारा भी। क्यों गनु ाह होने देते हो अपनी गलियों में, रोक क्यों नहीं देत।े तुम वही हो जिसका इतिहास आज भी किताबंे गुनगनु ाती हंै। तमु से तो लोगों ने एक दसु रे को जोड़ना सीखा है। मदद क्यों नहीं करते लोगों की खगँ ालने में एक दसु रे को। कै से भाता है तुमको ये बियाबान। लोगों के रोने से दखु ी क्यों नहीं होत।े झाँकों खदु में देखो खुद को तुम दिल्ली शहर हो। बोलता रहा मंै हवाओं मंे। 69

बरगद का पेड़ एक कराहती आवाज़ ने ज़वाब दिया मुझ।े मैं दिल्ली नहीं हूँ ग़ालिब की न आमिर ख़सु रो की और न ही हैदर की। उसे तो कब का सलु ा दिया है लोगों ने। मैं अब सिर्फ एक सोता शहर हूँ। सोता शहर। 70

मायाजाल उनको पता था ये कहाँ, ये यदु ्ध कहाँ तक जायेगा। उनकी छोटी बातों से, कहीं बलवा हो जायेगा। लड़ रहे थे दो बच्चे, मदं िर के पीछे वाले ग्राउं ड मंे। शब्दों का जखीरा जाया कर रहे थे, पाउं ड में। सारे रिश्तों का नाम मुसलसल पढ़ा जा रहा था। और अदं र का सब गबु ार बाहर आ रहा था। जब सारे रिश्तों और पड़ोसियों का नाम ख़त्म हो गया। तो शब्दों ने करवट ली, और खदु ा का सिघं ासन हिल गया। थोड़ी नरमी ली आवाज़ मंे, और गर्मी थी अदं ाज़ मंे। तरेरी थी आखँ ें बहुत, पर तहज़ीब थी आगाज़ मंे। ख्यालों का ख़दु ा तरे ा, ख्यालों में ही मिलता है। वो तो कु छ नहीं करता, तू क़सीदे पढता रहता है। शब्द ख़ुदा तक आ पहुँचे, जो नागवार गज़ु रे थे। जो ताने कस दिए उसने, वो दिल के पार गुज़रे थे । पत्थर का है भगवान तरे ा, पत्थर में रहता है। पत्थर को हो पजू त,े दिल भी पत्थर के जसै ा है। 71

बरगद का पेड़ बच्चों की गहमागहमी मंे नए मायाजाल बनु गए। बच्चे तो बच्चे थे, बड़े उनके सिपाही बन गए। छोटी-छोटी बातों मंे, कु छ घर जले उस रात मंे। मेरी आखँ ों से भी आसमान, रोया था काली रात मंे। दिल पूछता है बस यही, जिसके लिए लोग लड़ गए। जाने कहाँ था तब ख़ुदा, जब उसके बच्चे मर गए। 72

चलो गगं ा नहा आयंे करम निक्रिस्ट हों कितने, मगर लगता है ऐसा क्यों? जड़ु ा हो नाम भारत का, तो हम गगं ा नहा आये। हुए हम उग्र कितने भी, हुए उद्दडं कितने भी। जड़ु ा हो नाम भारत, का तो हम गगं ा नहा आये। कभी ना अनुसरण किया, किसी कानून का हमने। कभी ना पोटली खोली, किसी भी ज्ञान गगं ा की। किसी ने गलतियाँ तस्दीक़ की, उन कु टिल कर्मों की। लिया बस हाँथ मंे झंडा, तो हम गंगा नहा आये। लिया जो हाथँ में झंडा, तो हम इस देश के रक्षक। किसी भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति के , क्यों बन गए भक्षक? किसी ने कह दिया गंडु ा, तो अपनी उग्रता में मस्त। उसे दी धमकियाँ कर देंगे नगं ा, तो हम गगं ा नहा आये। 73

बरगद का पेड़ चलो फिर झाँक कर देखंे सधु ारें अपना अतं र्मन, पढ़ंे सच्चाई को मिलकर, बने हम सत्य के पथिकर। भरोसा फ़िर बनाएं साथ एक दजू े का दे कर, चलो फिर से बनायें आशियाँ चलो गगं ा नहा आय।ें 74

शहर राम को जाते देखा था, रहीम को जाते देखा था। जो भी जाता गावं से, वापस ना आते देखा था। नीम के उस पेड़ ने। सेना के जसै ा पहरा था, सागर के जसै ा ठहरा था। गायब होते थे लोग जहा,ँ शहर वो कितना गहरा था। सोचा ये नीम के पेड़ ने। चलता हूँ मंै भी शहर को, तकता हूँ रब की मेहर को। देता हूँ मंै आवाज़ उन्हंे, शायद वो लौटंे फिर घर को। सोचा ये नीम के पेड़ ने। हवा की सरसर आवाज़ बहुत थी, रिक्शे की चरपर आवाज़ बहुत थी। मँहु सूख रहा था धूएं से, खासं ने की आवाज़ बहुत थी। डर बठै ा नीम के पेड़ मंे। 75

बरगद का पेड़ अजीब मज़ं र उस शहर का था, बारूद भरा कु छ कहर सा था। बिल्डगिं की चमक सनु हरी थी, नफ़रत का ज़हर दिलों में था। मायूस नीम का पेड़ हुआ। वो चिल्लाया हर नाम को फ़िर, तस्दीक़ की हर दरवाज़े पर। उसे लोग बड़े बेचनै मिले, ना राम मिले ना रहीम मिले। दिल बठै गया अब उसका था। दिन भर की थकन भरी मन में, परै ों को जिसने जकड लिया। गश खा के फिर वो पड़े गिरा, कु छ लोगों ने उसे पकड़ लिया। वो घबराया बेचनै हुआ। वो लेके चले काधं े पे थे, पर होश कहाँ उस पेड़ को था। जब होश आया तो पता चला, वो लगा किसी के पलगं में था। टु कड़े उस नीम के कई हुए। अब वापस कै से जाये वो, इस शहर ने उसको जकड लिया। महँु शहर का सरु सा जसै ा है, उस पड़े को भी है निगल लिया। अब नहीं नीम का पेड़ बचा। 76

लाल बत्ती का इंतज़ार वो रोज़ दआु मंे मागं ता था, की घडी का पहिया रुक जाये। कु छ हो जाये इस बत्ती को, ये लाल रंग पे रुक जाये। जब बड़े बड़े चौराहे पे तज़े ज़िन्दगी रूकती थी। वो टिमटिम भागता था। कभी एक कार पे रुकता था। कभी दजू ी खट खट करता था। वो रोज़ ये सोचा करता था, उसको ढेरों पसै े मिल जाये। कु छ हो जाये अच्छा सा, उसकी माँ वापस चल पाये। जब बड़ी बड़ी सी सड़कों पे तजे ज़िन्दगी दौड़ती थी। वो रुक जाता था कोने मंे। कभी खदु को कोसा करता था। कभी खदु ा को कोसा करता था। वो रोज़ ये सोचा करता था, जब साझँ ढले वो घर आये। कु छ हो जाये इस दनु िया को, घर उसका महल सा बन जाय।े 77

बरगद का पेड़ जब सूनसान वीराने मंे रात सलु गती रहती थी। वो टीम टीम सड़क की लाइट में। कभी कॉपी पे कु छ लिखता था। कभी बुक पन्ने पलटा था। वो रोज़ ये सोचा करता था, जब नींद से वो बाहर आये। कु छ हो जाये सब लोगों को, सब एक बराबर हो जाये। जब धूप चमकती सबु ह कि थी। वो फटे परु ाने कपड़ों में। कभी अपनी हालत देखता था। कभी स्कू ल को जाते बच्चों की। फिर रोज़ नयी मज़बतू ी से वो, सड़क की ओर निकलता था। कु छ बन जाऊं गा मैं एक दिन, वो खदु को बोला करता था। फिर नया सवेरा आएगा। वो अपने चमकते कपड़ों मंे। कभी खदु को गले लगाएगा। पर हो ना पाता ऐसा था। 78

तजे स वो रोज़ दआु में मागं ता था, की घडी का पहिया रुक जाये। कु छ हो जाये इस बत्ती को, ये लाल रंग पे रुक जाये। 79

न कोई भगवान अब होगा बादलों का एक जत्था था थोड़ा रोशन। दो कु र्सियाँ एक मेज़ उसपे लौ थी थोड़ी मद्धम। दिन बारिशों के थे चर्चा चाय पे बठै ी। एक तरफ़ राम की कु र्सी दजू ी रहीम के हिस्से। बड़े शाइस्ता लहज़े में गफ़ु ्तगू बढ़ रही आगे। अचानक राम ने बोला गुनाह हमने कर डाला। थी रहीम की बारी उन्होंने भी हामी भरी। बड़े अफ़सोस में बठै े किया इंसान को पदै ा। अचानक गुफ़्तगू में अजीब सन्नाटा था छाया। करंे सब ठीक कै से सोच के दिल भी था घबराया। किसी के खनू से घर का दिया जलता नहीं मेरे। इबादत नाम की होती शहादत नाम है मेरे। 80

तजे स बनाया एक जसै ा था सोच भी एक जैसी दी। कु छ हंै भगवान बन बठै े , कु छ ने खुदा की कु र्सी ली। अब तो बस नाम मंे हंै हम, ह्रदय में दानव हंै बसत।े वो दिन भी आएगा जब ये ख़ुद को ख़त्म कर देंगे। ख़त्म होगा सभी कु छ फिर नयी दनु िया हम रच दंेगे। मग़र अब ध्यान ये होगा न कोई भगवान अब होगा। मग़र अब ध्यान ये होगा न कोई भगवान अब होगा। 81

उनकी हैवानियत माँ तमु ने पापा को उस दिन क्यों रोका था। जब जन्म से पहले मझु े मौत देने वाले थे। माँ तमु ने पापा को उस दिन क्यों रोका था। चाचा के उन गन्दी आखँ ों से, नुक्कड़ पे खड़े हैवानों से, इंसा मंे बसे शतै ानों से, शायद वो मौत ही बेहतर थी। माँ तमु ने पापा को उस दिन क्यों रोका था। प्यार भरी लोरी से जब तुमने मझु े सलु ाया था, तब छु प-छु प के उस मुहं बोले भाई ने सहलाया था, उस हैवानियत भरी शरारत से, शायद वो मौत ही बेहतर थी। माँ तुमने पापा को उस दिन क्यों रोका था। 82

तजे स वो बस वाले भयै ा की नज़र, जसै े लगता था एक नश्तर, लोगों के छू के जाने से जगता था भय का एक मजं ़र, उस दर्द भरे एहसासों से, शायद वो मौत ही बेहतर थी। माँ तमु ने पापा को उस दिन क्यों रोका था। जिसे खुदा बनाया मेरा था जिस घर में मेरा बसेरा था, उस घर की गन्दी आखँ ों मंे भी हैवानियत का डरे ा था, उस नोच-खसोट भरे दिल से, शायद वो मौत ही बेहतर थी। माँ तुमने पापा को उस दिन क्यों रोका था। मैं देख न पाऊँ गी सुन लो अपनी बेटी का कोलाहल, उसके अधरों पे भय बरसे और आखँ ों से बहता हो जल, उस दर्द भरे हर एक पल से, शायद अब मौत ही बेहतर है। 83

तमु वहीं थे तुम्हारे घर के कोने मंे, जब जिस्म छिल रहा होगा। अपने छोटे हाथों को समेट कर, वो तमु को पकु ारते रहे होंगे। पर तुम नहीं थे। इबादत गाहों के जगं ल मंे, तुम्हारा नाम लेकर के । तुम्हारे ठे के दार, उनको मसल रहे होंगे। पर तमु नहीं थे। गर थे वहाँ तुम, गर हर जगह हो तुम, तो सामने थे उनके , 84

तजे स धतृ राष्ट्र बन कर के । पर वो तुम नहीं थे। शर्मदंि ा हूँ ख़फ़ा हूँ, मैं रोया भी बडा हूँ, थोड़ी शर्म भर लो तमु भी, अपनी अधं ी आखँ ों मंे, गर तुम वहीं थे। 85

नहीं पता वक़्त से वक़्त को जोड़ना अच्छा लगता है क्या? नहीं न, फिर क्यों जोड़ते रहते हो इन टु कड़ो को, छोटी छोटी यादों को, रिश्तों को। टु कड़ों को जोड़ के नए रिश्तों की शक्ल देना, पता तो है तुमको ये जड़ु नहीं सकते और जोड़ भी दिया न तो इनकी गिरहें चुभती हंै आखँ ों मंे, महसूस होती है छू ने पर। अलग क्यों नहीं कर देते खदु से इनको क्यों ढूंढते हो खुद को इन छोटी कहानियों मंे। क्या तमु ्हंे पता नहीं है अब नहीं हो तुम वहां। वो कै लेंडर मंे खदु को ढूंढना, परु ाने रिश्तों को कमीज सा पहन लेना, वो इबारत अब फिर से क्यों संजोते हो, क्यों अपने भूत को वर्तमान के गिरेबां में ढूंढते हो। तुम अच्छे टेलर नहीं हो ये जानते हो फिर भी सिलने की कोशिश करते हो। जब घर बेजार हो जाते हैं न तो वो बेरुखी का शिकार हो जाते हैं। वो खंडहर है तुम्हारे अदं र का जहाँ खदु को ढूंढते हो तमु । तुम्हारे वो टू टे सपने, तुम्हारे हांथों की लकीरों मंे नहीं बचे हंै अब। क्यों सोचते हो कि किसी की सोच कै सी है। सोचता तो हूँ मंै पर क्यों, ये मझु े नहीं पता। ऐसी ही तो मेरी ये कहानियां हंै किस सेक्शन में डालंू ये मझु े नहीं पता। 86

मनैं े खुदा बदल डाला बड़ी बेसब्र आखँ ों से निहारा उम्र भर उनको। बना ये दिल नमाज़ी था दआु में पाया जब उनको। कभी खदु पे फकर करता कभी अपनी फकीरी पे। उन्हें जो पा लिया मनैं े हंसा अपनी अमीरी पे। खुदा कब एक होता सुने थे मनंै े ये किस्से। खुदा वो मेरे दिल का था खदु ाई और के हिस्से। हुआ फिर कु फ्र मझु को भी हिमाक़त मनंै े कर डाला। करूं सजदा मंै क्यों उसका मनैं े खुदा बदल डाला।। 87

काल काल से शरु ू हुई, फिर काल पे ख़तम हुई। ये ज़िन्दगी की दौड़ थी, बयां मगर गज़ब हुई। जो दौड़ ये शरु ू हुई, न जानते थे क्यों हुई। जो दौड़ ये ख़तम हुई, न जानते हैं क्यों हुई। जो सोच में थी ज़िन्दगी, अखंड थी वो शलू सी। ना मौत का ही भय हुआ, प्रचंड थी त्रिशलू सी। थी जिदं गी उमगं सी, नहीं कटी पतगं सी। कु छ दर्द भी थे बने नए, फिर भी रही उमंग सी। मैं वेग मंे था चल पड़ा, उसकी नज़र मंे था पड़ा। फिर अड़ गया वो राह मंे, गिरा मेरी निगाह में। मैं भी अड़िग उद्दण्ड था, पर काल वो प्रचण्ड था। तो काल से मंै लड़ गया, लगा के काल डर गया। 88

तजे स पर काल ही था सारथी, वो काल था महारथी। फिर काल ने की गर्जना, पर मनैं े की न वन्दना। उसका सिघं ासन था हिला, अब काल थोड़ा डर गया। मैं महाकाल भक्त था, मतृ ्यू का डर था मर गया। फिर काल से मंै भीड़ गया, और काल मंे ही मिल गया। डर से डरा न पाया वो, जितना जिया जी भर जिया। काल से शरु ू हुई, फिर काल पे ख़तम हुई। ये ज़िन्दगी की दौड़ थी, बयां मगर गज़ब हुई। 89

साइकिल मेरी नई साइकिल बहुत ही अच्छी लगती है। नई साइकिल पे मनंै े हवा को पास पाया है, उसके घटं ी की आवाज़ मंदिर से बेहतर है। उसका रंग चमकदार सभी रंगों से बेहतर है, निहारुँ उसको जितना भी वो उतना सदुं र लगती है। मेरी नई साइकिल बड़ी ही उम्दा दिखती है। कभी मम्मी को देखता तो चक्कर चार लगाता, एक हाथ मंे हंैडल दसू रा हवा में लहराता। कभी पत्तों को सहलाता कभी मैं खूब चिल्लाता, उसकी सारी खबू ियाँ मैं सबको बताता। मेरी नई साइकिल बड़ी नायाब लगती है। सुबह से शाम कै से हुई मालूम न हो पाया, 90

तजे स सर रख के सोया गोद में मम्मी ने सहलाया। बड़ा सकु ू न था दिल में दोस्त चिढ़ा ना पाएंगे, सपने मंे भी साइकिल थी मनैं े उसको भी चलाया। मेरी नई साइकिल मेरे ख्वाबों के जसै ी है। उँ गलियाँ मेरी मां की बालों मंे थी मेरे, कु छ बहता गिरा आके गालों पे जो मेरे। रिगं न दिखी उँ गलियों में जो पापा ने दी मेरे, लगता वो आखरी निशानी भी बिक गयी साइकिल में मेरे। अब मेरी नई साइकिल मझु े अच्छी नहीं लगती। मेरी नई साइकिल मुझे अच्छी नहीं लगती। 91

रिश्ते रिश्ते सिल रहा हूँ म,ैं जो थोड़े उधड़-े उधड़े हैं। कहीं पे झीने-झीने हैं, कहीं कु छ धागे टू टे हैं। मैं हूँ ख़शु हो रहा, वापस से बनता देख के उनको। बड़े पोशीदा लगते थे, बड़े पोशीदा लगते हंै। सजाता जा रहा उनको, बड़े उन्मुक्त लफ़्ज़ों से। कलमकारी भी करता जा रहा, मंै अपने हांथों से। 92


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