This Book is requested from Request Hoarder 1- लाग-डाट 2- रामलीला 3- कजाक 4- गरीब क हाय 5- परी ा 6- के ट मैच 7- पचं -परमे र 8- धोखा 9- भाड़े का ट ू 10- जगु नू क चमक 11- सुजान भगत 12- ईदगाह 13- बेट वाली वधवा
This Book is requested from Request Hoarder ह दी सा ह जगत् म मशंु ी मे चदं का नाम बड़े आदर और स ान के साथ लया जाता है। इनका वा वक नाम धनपत राय था। इनका ज 31 जुलाई, 1880 को बनारस शहर से करीब चार मील र लमही गावँ म आ था। इनके पता का नाम मुशं ी अजायब लाल था, जो डाक मंशु ी के पद पर थे। इनके म मवग य प रवार म साधारणतया खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने क तंगी तो न थी, परंतु इतना कभी न हो पाया क इ उ र का खान-पान अथवा रहन-सहन मल सके , इसी आ थक सम ा से मुंशी मे चंद भी परू ी उ जझू ते रहे। तगं ी म ही उ ने इस न र ससं ार को छोड़ा। मातृ - हे से वं चत हो चकु े और पता क देख-रेख से र रहने वाले बालक धनपत ने अपने लए कु छ ऐसा रा ा चनु ा, जस पर आगे चलकर वे ‘उप ास स ा , महान कथाकार, कलम का सपाही जैसी उपा धय से वभू षत ए। उ ने बचपन से ही अपने समय क मश र और ऐयारी क पु क पढ़नी शु कर द । इन पु क म सबसे बढ़कर ‘ त ल ी होश बा’ थी। बारह-तरे ह वष क उ म उ ने अनेक पु क तो पढ़ ही डाल , साथ म और ब त कु छ पढ़ डाला, जसै े क रेना क ‘ म ीज ऑफ द कोट ऑफ लंदन’, मौलाना स ाद सैन क हा कृ तयाँ, मजा सवा और रतनशार के ढेर क े। लगभग चौदह वष क उ म बालक धनपत के पता का देहांत हो गया। घर म यूँ पहले से ही काफ गरीबी थी, फर पता क मृ ु के प ात् तो मानो उसके सर पर मसु ीबत का पहाड़ टू ट पड़ा। रोजी-रोटी कमाने क चता सर पर सवार हो गई। ूशन कर-करके उ ने कसी कार मै क क परी ा तीय ेणी म पास क । वे आगे पढ़ना तो चाहते थे, पर कसी कारणवश कॉलजे म वशे न मल सका। धनपत तब पं ह-सोलह वष के ही थे क उनका ववाह कर दया गया। उनके लए यह ववाह ब त ही भा पूण रहा; ले कन एक अ ा सयं ोग यह जुड़ा क सन् 1898 म मै क करने के बाद बनारस के पास चनु ार के एक व ालय म श क क नौकरी मल
गई। नौकरी करते ए ही उ ने इंटर और फर बी-ए- पास कया। इनक पहली पु क ‘सोज-ए-वतन’ जब सरकार के ारा ज कर ली गई तो इ ने ‘ मे चंद’ नाम से लखना शु कर दया। 1916-17 म मे चदं जी ने ‘सवे ासदन’ लखा। इस समय तक वह भारतीय तं ता-सं ाम से प र चत ही नह , उसके रंग म रँग चकु े थे और उनक लेखनी भारतीय सामा जक सम ाओं पर बड़े वगे से चलने लगी थी। ‘रंगभू म’ छपने पर इ ‘उप ास-स ा ’ कहा जाने लगा था। मे चदं जी ने अनके उप ास लख,े जनम-‘कमभू म’ और ‘गोदान’ व स उप ास माने जाते ह। ेमचंदजी काफ समय से पटे के अ र से बीमार थे, जसके कारण उनका ा दन- त दन गरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अ ू बर, 1936 को हदी का यह महान् लखे क हदी सा ह जगत् से हमेशा के लए वदा हो गया। ले कन इस महान् लखे क क कहा नयाँ आज भी इ जी वत रखे ए ह। -मुके श ‘नादान’
जो खू भगत और बेचन चौधरी म तीन पी ढ़य से अदावत चली आती थी। कु छ डाँड़- मड़ का झगड़ा था। उनके परदादाओं म कई बार खून-ख र आ। बाप-दादाओं के समय से मुकदमेबाजी शु ई। दोन कई बार हाईकोट तक गए। लड़क के समय म सं ाम क भीषणता और भी बढ़ी, यहाँ तक क दोन ही अश हो गए। पहले दोन इसी गाँव म आध-े आधे के ह दे ार थ।े अब उनके पास उस झगड़ने वाले खते को छोड़कर एक अंगुल जमीन न थी। भू म गई, धन गया, मान-मयादा गई, ले कन वह ववाद -का- बना रहा। हाईकाट के धरु ंधर नी त एक मामूली सा झगड़ा तय न कर सके । इन दोन स न ने गावँ को दो वरोधी दल म वभ कर दया था। एक दल क भगं - बूटी चौधरी के ार पर छनती तो सरे दल के चरस-गाँजे के दम भगत के ार पर लगते थ।े य और बालक के भी दो दल हो गए थे। यहाँ तक क दोन स न के सामा जक और धा मक वचार म भी वभाजक रेखा खची ई थी। चौधरी कपड़े पहने स ू खा लेते और भगत को ढ गी कहत।े भगत बना कपड़े उतारे पानी भी न पीते और चौधरी को बतलात।े भगत सनातनधम बने तो चौधरी ने आयसमाज का आ य लया। जस बजाज, पंसारी या कुं जडे़ से चौधरी सौदे लेते, उसक ओर भगतजी ताकना भी पाप समझते थे और भगतजी क हलवाई क मठाइयाँ, उनके ाले का ध और तेली का तले चौधरी के लए ा थ।े यहाँ तक क उनके अरो ता के स ांत म भी भ ता थी। भगतजी वै क के कायल थे, चौधरी यूनानी था के मानने वाले। दोन चाहे रोग से मर जात,े पर अपने स ातं को न तोड़ते। जब देश म राजनै तक आंदोलन शु आ तो उसक भनक उस गाँव म आ प ँची। चौधरी ने आंदोलन का प लया, भगत उनके वप ी हो गए। एक स न ने आकर गाँव म कसान-सभा खोली। चौधरी उसम शरीक ए, भगत अलग रहे। जागृ त और बढ़ी, रा क चचा होने लगी। चौधरी रा वादी हो गए, भगत ने राजभ का प लया। चौधरी का घर रा वा दय का अ ा बन गया, भगत का घर राजभ का ब बन गया।
चौधरी जनता म रा वाद का चार करने लगे, \" म ,े रा का अथ है अपना राज। अपने देश म अपना राज हो, वह अ ा है क कसी सरे का राज हो?\" जनता ने कहा, \"अपना राज हो, वह अ ा है।\" चौधरी, \"तो यह रा कै से मलेगा? आ बल से, पु षाथ स,े मेल स,े एक- सरे से षे करना छोड़ दो। अपने झगड़े आप मलकर नपटा लो।\" एक शंका, \"आप तो न अदालत म खड़े रहते ह।\" चौधरी, \"हाँ, पर आज से अदालत जाऊँ तो मझु े गऊह ा का पाप लग।े तु चा हए क तुम अपनी गाढ़ी कमाई अपने बाल-ब को खलाओ और बचे तो परोपकार म लगाओ। वक ल-मु ार क जबे भरते हो, थानेदार को घूस देते हो, अमल क चरौरी करते हो? पहले हमारे लड़के अपने धम क श ा पाते थे वह सदाचारी, ागी, पु षाथ बनते थ।े अब वह वदेशी मदरस म पढ़कर चाकरी करते ह, घूस खाते ह, शौक करते ह, अपने देवताओं और पतर क नदा करते ह, सगरेट पीते ह, साल बनाते ह और हा कम क गोड़ध रया करते ह। ा यह हमारा कत नह है क हम अपने बालक को धमानुसार श ा द।\" जनता, \"चदं ा करके पाठशाला खोलनी चा हए।\" चौधरी, \"हम पहले म दरा को छू ना पाप समझते थे। अब गावँ -गावँ और गली-गली म म दरा क कान ह। हम अपनी गाढ़ी कमाई के करोड़ पए गाँज-े शराब म उड़ा देते ह।\" जनता, \"जो दा -भागँ पए उसे डाँट लगानी चा हए।\" चौधरी, \"हमारे दादा-बाबा, छोटे-बड़े सब गाढ़ा-गजी पहनते थे। हमारी दा दयाँ-ना नयाँ चरखा काता करती थ । सब धन देश म रहता था, हमारे जलु ाहे भाई चनै क वशं ी बजाते थे। अब हम वदेश के बने ए महीन रंगीन कपड़ पर जान देते ह। इस तरह सरे देश वाले हमारा धन ढो ले जाते ह बेचारे जलु ाहे कं गाल हो गए। ा हमारा यही धम है क अपने भाइय क थाली छीनकर सर के सामने रख द?\" जनता, \"गाढ़ा कह मलता ही नह ।\" चौधरी, \"अपने घर का बना आ गाढ़ा पहनो, अदालत को ागो, नशेबाजी छोड़ो, अपने लड़क को धम-कम सखाओ, मले से रहो, बस यही रा है। जो लोग कहते ह क रा के लए खनू क नदी बहेगी, वे पागल ह, उनक बात पर ान मत दो।\" जनता ये सब बात चाव से सुनती थी। दनो दन ोताओं क सं ा बढ़ती जाती थी। चौधरी के सब ाभाजन बन गए।
भगतजी भी राजभ का उपदेश करने लग,े \"भाइयो, राजा का काम राज करना और जा का काम उसक आ ा का पालन करना है। इसी को राजभ कहते ह और हमारे धा मक ंथ म हम इसी राजभ क श ा दी गई है। राजा ई र का त न ध है, उसक आ ा के व चलना महान् पातक है। राज वमखु ाणी नरक का भागी होता है।\" एक शंका, \"राजा को भी तो अपने धम का पालन करना चा हए?\" सरी शंका, \"हमारे राजा तो नाम के ह, असली राजा तो वलायत के ब नए-महाजन ह।\" तीसरी शकं ा, \"ब नए धन कमाना जानते ह, राज करना ा जान?\" भगत, \"लोग तु श ा देते ह क अदालत म मत जाओ, पंचायत म मुकदमे ले जाओ ले कन ऐसे पंच कहाँ ह, जो स ा ाय कर, ध का ध और पानी का पानी कर द! यहाँ मुँह-देखी बात ह गी। जनका कु छ दबाव है, उनक जीत होगी, जनका कु छ दबाव नह है, वह बेचारे मारे जाएँ गे। अदालत म सब काररवाई काननू पर होती है, वहाँ छोटे-बड़े सब बराबर ह, शेर-बकरी एक घाट पर पानी पीते ह।\" सरी शंका, \"अदालत का ाय कहने को ही है, जसके पास बने ए गवाह और दाँव-पच खेले ए वक ल होते ह, उसी क जीत होती है, झूठे-स े क परख कौन करता है? हा,ँ हैरानी अलब ा होती है।\" भगत, \"कहा जाता है क वदेशी चीज का वहार मत करो। यह गरीब के साथ घोर अ ाय है। हमको बाजार म जो चीज स ी और अ ी मले, वह लेनी चा हए, चाहे देशी हो या वदेशी। हमारा पैसा सत म नह आता है क उसे र ी-फ ी देशी चीज पर फक।\" एक शंका, \"अपने देश म तो रहता है, सर के हाथ म तो नह जाता।\"
सरी शंका, \"अपने घर म अ ा खाना न मले तो ा वजा तय के घर का अ ा भोजन खाने लगगे?\" भगत, \"लोग कहते ह, लड़क को सरकारी मदरस म मत भजे ो। सरकारी मदरस म न पढ़ते तो आज हमारे भाई बड़ी-बड़ी नौक रयाँ कै से पाते, बड़े-बड़े कारखाने कै से बना लते ?े बना नई व ा पढ़े अब संसार म नवाह नह हो सकता, पुरानी व ा पढ़कर प देखने और कथा बाँचने के सवाय और ा आता है? राज-काज ा प ी-पोथी बाँचने वाले लोग करग?े \" एक शकं ा, \"हम राज-काज नह चा हए। हम अपनी खते ी-बाड़ी ही म मगन ह, कसी के गलु ाम तो नह ?\" सरी शंका, \"जो व ा घमंडी बना दे, उससे मूख ही अ ा, नई व ा पढ़कर तो लोग सटू -बटू , घड़ी-छड़ी, हैट-कोट लगाने लगते ह और अपने शौक के पीछे देश का धन वदे शय क जबे म भरते ह। ये देश के ोही ह।\" भगत, \"गाँजा-शराब क ओर आजकल लोग क कड़ी नगाह है। नशा बरु ी लत है, इसे सब जानते ह। सरकार को नशे क कान से करोड़ पए साल क आमदनी होती है। अगर कान म न जाने से लोग क नशे क लत छू ट जाए तो बड़ी अ ी बात है। वह कान पर न जाएगा तो चोरी- छपे कसी-न- कसी तरह न-े चौगनु े दाम देकर, सजा काटने पर तैयार होकर अपनी लत पूरी करेगा। तो ऐसा काम करो क सरकार का नुकसान अलग हो और गरीब रैयत का नकु सान अलग हो और फर कसी- कसी को नशा खाने से फायदा होता है। म ही एक दन अफ म न खाऊँ तो गाँठ म दद होने लगे, दम उखड़ जाए और सद पकड़ ल।े \" एक आवाज, \"शराब पीने से बदन म फु रती आ जाती है।\" एक शकं ा, \"सरकार अधम से पया कमाती है। यह उ चत नह । अधम के राज म रहकर जा का क ाण कै से हो सकता है?\" सरी शंका, \"पहले दा पलाकर पागल बना दया। लत पड़ी तो पसै े क चाट ई। इतनी मज री कसको मलती है क रोटी-कपड़ा भी चले और दा -शराब भी उड़े? या तो बाल- ब को भूख मारो या चोरी करो, जआु खले ो और बेईमानी करो। शराब क कान ा है? हमारी गुलामी का अ ा है।\" चौधरी के उपदेश सनु ने के लए जनता टू टती थी। लोग को खड़े होने क जगह भी न मलती। दनो दन चौधरी का मान बढ़ने लगा। उनके यहाँ न पचं ायत म रा ो त क चचा रहती, जनता को इन बात म बड़ा आनंद और उ ाह होने लगा। उनके राजनै तक ान क वृ होने लगी। वह अपना गौरव और मह समझने लगे, उ स ा का अनुभव
होने लगा। नरंकु शता और अ ाय पर अब उनक तैया रयाँ चढ़ने लग । उ तं ता का ाद मला। घर क ई, घर का सतू , घर का कपड़ा, घर का भोजन, घर क अदालत, न पु लस का भय, न अमला क खुशामद, सुख और शां त से जीवन तीत करने लगे। कतन ही ने नशबे ाजी छोड़ दी और स ाव क एक लहर सी दौड़ने लगी। ले कन भगतजी इतने भा शाली न थ।े जनता को दनो दन उनके उपदेश से अ च होती जाती थी। यहाँ तक क ब धा उनके ोताओं म पटवारी, चौक दार, मदु रस और इ कमचा रय के म के अ त र और कोई न होता था। कभी-कभी बड़े हा कम भी आ नकलते और भगतजी का बड़ा आदर-स ार करते, जरा देर के लए भगतजी के आँसू प छ जात,े ले कन ण भर का स ान आठ पहर के अपमान क बराबरी कै से करता! जधर नकल जाते उधर ही उँग लयाँ उठने लगत । कोई कहता, खुशामदी ट ू है, कोई कहता, खु फया पु लस का भेदी है। भगतजी अपने त ं ी क बड़ाई और अपनी लोक नदा पर दातँ पीस-पीसकर रह जाते थ।े जीवन म यह पहला ही अवसर था क उ सबके सामने नीचा देखना पड़ा। चरकाल से जस कु ल-मयादा क र ा करते आए थे और जस पर अपना सव अपण कर चुके थे, वह धूल म मल गई। यह दाहमय चता उ एक ण के लए चैन न लने े देती। न सम ा सामने रहती क अपना खोया आ स ान कर पाऊँ , अपने तप ी को कर पदद लत क ँ , कै से उसका ग र तोड़ू ँ? अंत म उ ने सह को उसी क माँद म पछाड़ने का न य कया। सं ा का समय था। चौधरी के ार पर एक बड़ी सभा हो रही थी। आस-पास के गाँव के कसान भी आ गए। हजार आद मय क भीड़ थी। चौधरी उ रा - वषयक उपदेश दे रहे थे। बार-बार भारतमाता क जय-जयकार क न उठती थी। एक ओर य का जमाव था। चौधरी ने अपना उपदेश समा कया और अपनी जगह पर बैठे। यंसवे क ने रा फं ड के लए चंदा जमा करना शु कया क इतने म भगतजी न जाने कधर से लपके ए आए और ोताओं के सामने खड़े होकर उ र म बोल,े \"भाइयो, मझु े यहाँ देखकर अचरज मत करो, म रा का वरोधी नह ँ। ऐसा प तत कौन ाणी होगा, जो रा का नदक हो ले कन इसके ा करने का वह उपाय नह है, जो चौधरी ने बताया है और जस पर तुम लोग ल ू हो रहे हो। जब आपस म फू ट और रार है, पंचायत से ा होगा? जब वला सता का भूत सर पर सवार है तो नशा कै से छू टेगा, म दरा क कान का ब ह ार कै से होगा? सगरेट, साबुन, मोजे, ब नयान, अ ी, तजं ेब से कै से पड छू टेगा? जब रोब और कू मत क लालसा बनी ई है तो सरकारी मदरसे कै से छोड़ोगे, वधम श ा क बेड़ी से कै से मु हो सकोगे? राज लने े का के वल एक ही उपाय है और वह आ संयम है। यही महौष ध तु ारे सम रोग को समलू न करेगी। आ ा को बलवान् बनाओ, इं य को साधो, मन को वश म करो, तमु म ातृभाव पैदा होगा, तभी वैमन मटेगा, तभी ई ा और षे का नाश होगा, तभी भोग- वलास से मन हटेगा, तभी नशबे ाजी का दमन होगा। आ बल के बना रा कभी उपल न होगा। यंसेवा सब पाप का मूल है। यही तु अदालत म ले जाता है, यही तु वधम श ा
का दास बनाए ए है। इस पशाच को आ बल से मारो और तु ारी कामना परू ी हो जाएगी। सब जानते ह, म चालीस साल से अफ म का सवे न करता ँ। आज से म अफ म को गऊ-र समझता ँ। चौधरी से मेरी तीन पी ढ़य क अदावत है। आज से चौधरी मरे े भाई ह। आज से मझु े या मरे े घर के कसी ाणी को घर के कते सतू से बुने ए कपड़े के सवाय और कु छ पहनते देखो तो जो दंड चाहो दो। बस मझु े यही कहना है, परमा ा हम सबक इ ा परू ी करे।\" यह कहकर भगतजी घर क ओर चले क चौधरी दौड़कर उनके गले से लपट गए। तीन पु क अदावत एक ण म शांत हो गई। उस दन से चौधरी और भगत साथ-साथ रा का उपदेश करने लगे। उनम गाढ़ी म ता हो गई और यह न य करना क ठन था क दोन म जनता कसका अ धक स ान करती है।
इ धर एक मु त से रामलीला देखने नह गया। बंदर के भ े चहे रे लगाए, आधी टाँग का पजामा और काले रंग का ऊँ चा कु रता पहने आद मय को दौड़त,े - करते देखकर अब हँसी आती है, मजा नह आता। काशी क रामलीला जग ात है। सुना है, लोग र- र से देखने आते ह। म भी बड़े शौक से गया, पर मझु े तो वहाँ क लीला और कसी व देहात क लीला म कोई अंतर न दखाई दया। हाँ, रामनगर क लीला म कु छ साज-सामान अ े ह। रा स और बंदर के चेहरे पीतल के ह, गदाएँ भी पीतल क ह, कदा चत् वनवासी ाताओं के मुकु ट स े काम के ह , ले कन साज-सामान के सवा वहाँ भी वही - के सवा और कु छ नह । फर भी लाख आद मय क भीड़ लगी रहती है। ले कन एक जमाना वह था, जब मुझे भी रामलीला म आनंद आता था। आनदं तो ब त हलका सा श है। वह आनदं उ ाद से कम न था। संयोगवश उन दन मरे े घर से ब त थोड़ी र रामलीला का मदै ान था और जस घर म लीला पा का प-रंग भरा जाता था, वह तो मरे े घर से बलकु ल मला आ था। दो बजे दन से पा क सजावट होने लगती थी। म दोपहर ही से वहाँ जा बैठता और जस उ ाह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता, उस उ ाह से तो आज अपनी पशन लेने भी नह जाता। एक कोठरी म राजकु मार का ंगार होता था। उनक देह म रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग क बदंु कयाँ लगाई जाती थ । सारा माथा, भ ह, गाल, ठोड़ी बदंु कय से रच उठती थ । एक ही आदमी इस काम म कु शल था। वही बारी-बारी से तीन पा का ंगार करता था। रंग क ा लय म पानी लाना, रामरज पीसना, पखं ा झलना मेरा काम था। जब इन तयै ा रय के बाद वमान नकलता, तो उस पर रामचं जी के पीछे बठै कर मझु े जो उ ास, जो गव, जो रोमांच होता था, अब वह लाट साहब के दरबार म कु रसी पर बैठकर भी नह होता। एक बार होम-मबर साहब ने व ापक-सभा म मेरे एक ाव का अनुमोदन कया था, उस व मुझे कु छ उसी तरह का उ ास, गव और रोमांच आ था। हाँ, एक बार जब मरे ा े पु नायब-तहसीलदारी म नामजद आ, तब भी ऐसी ही तरंग मन म उठी थ , पर इनम और उस बाल- व लता म बड़ा अंतर है। तब ऐसा मालमू होता
था क म ग म बैठा ँ। नषाद नौका-लीला का दन था। म दो-चार लड़क के बहकाने म आकर गु ी-डंडा खले ने गया था। आज ंगार देखने न गया। वमान भी नकला, पर मने खले ना न छोड़ा। मझु े अपना दावँ लने ा था। अपना दाँव छोड़ने के लए उससे कह बढ़कर आ ाग क ज रत थी, जतना म कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो म कब का भाग खड़ा होता; ले कन पदाने म कु छ और ही बात होती है। खरै , दाँव पूरा आ। अगर म चाहता तो धाँधली करके दस-पाँच मनट और पदा सकता था, इसक काफ गजंु ाइश थी, ले कन अब इसका मौका न था। म सीधे नाले क तरफ दौड़ा। वमान जल-तट पर प ँच चकु ा था। मने र से देखा, म ाह क ी लये आ रहा है। दौड़ा, ले कन आद मय क भीड़ म दौड़ना क ठन था। आ खर जब म भीड़ हटाता, ाण-पण से आगे बढ़ता घाट पर प ँचा तो नषाद अपनी नौका खोल चकु ा था। रामचं पर मेरी कतनी ा थी! अपने पाठ क चता न करके उ पढ़ा दया करता था, जससे वह फे ल न हो जाएँ । मुझसे उ ादा होने पर भी वह नीची क ा म पढ़ते थे, ले कन वही रामचं नौका पर बैठे इस तरह मुहँ फे रे चले जाते थे, मानो मझु से जान- पहचान ही नह । नकल म भी असल क कु छ-न-कु छ बू आ ही जाती है। भ पर जनक नगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे उबारते! म वकल होकर उस बछड़े क भाँ त कू दने लगा, जसक गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले क ओर जाता, कभी कसी सहायक क खोज म पीछे क तरफ दौड़ता, पर सब-के -सब अपनी धनु म म थ,े मेरी चीख-पुकार कसी के कान तक न पहँ◌ुची। तब से बड़ी-बड़ी वप याँ झेल , पर उस समय जतना ःख आ, उतना फर कभी न आ। मने न य कया था क अब रामचं से न कभी बोलूँगा, न कभी खाने क कोई चीज ही ँगा; ले कन ही नाले को पार करके वह पुल क ओर लौटे, म दौड़कर वमान पर चढ़ गया और ऐसा खुश आ, मानो कोई बात ही न ई थी। रामलीला समा हो गई थी। राजग ी होने वाली थी, पर न जाने देर हो रही थी। शायद चंदा कम वसलू आ था। रामचं क इन दन कोई बात भी न पूछता था। न ही घर जाने क छु ी मलती थी और न ही भोजन का बधं होता था। चौधरी साहब के यहाँ से सीदा कोई तीन बजे दन को मलता था, बाक सारे दन कोई पानी को नह पछू ता। ले कन मेरी ा अभी तक -क - थी। मरे ी म वह अब भी रामचं ही थे। घर पर मझु े खाने क कोई चीज मलती, वह लेकर रामचं को दे आता। उ खलाने म मुझे जतना आनदं मलता था, उतना आप खा जाने म भी कभी न मलता। कोई मठाई या फल पाते ही म बेतहाशा चौपाल क ओर दौड़ता। अगर रामचं वहाँ न मलते तो चार ओर तलाश करता और जब तक वह चीज उ न खला देता, चैन न आता था। खरै , राजग ी का दन आया। रामलीला के मदै ान म एक बड़ा सा शा मयाना ताना गया।
उसक खबू सजावट क गई। वे ाओं के दल भी आ प ँचे। शाम को रामचं क सवारी नकली और ेक ार पर उनक आरती उतारी गई। ानुसार कसी ने पए दए, कसी ने पैस।े मेरे पता पु लस के आदमी थे, इस लए उ ने बना कु छ दए ही आरती उतारी। उस व मुझे जतनी ल ा आई, उसे बयान नह कर सकता। मेरे पास उस व सयं ोग से एक पया था। मेरे मामाजी दशहरे के पहले आए थे और मझु े एक पया दे गए थे। उस पए को मने रख छोड़ा था। दशहरे के दन भी उसे खच न कर सका। मने तुरंत वह पया लाकर आरती क थाली म डाल दया। पताजी मेरी ओर कु पत ने से देखकर रह गए। उ ने कु छ कहा तो नह , ले कन मँ◌हु ऐसा बना लया, जससे कट होता था क मेरी इस धृ ता से उनके रोब म ब ा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह प र मा परू ी ई। आरती क थाली पय और पसै से भरी ई थी। ठीक तो नह कह सकता, मगर अब ऐसा अनमु ान होता है क चार-पाँच सौ पय से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कु छ ादा ही खच कर चकु े थ।े उ इसक बड़ी फ ई क कसी तरह कम-स-े कम दो सौ पए और वसलू हो जाएँ और इसक सबसे अ ी तरक ब उ यही मालूम ई क वे ाओं ारा मह फल म वसूली हो। जब लोग आकर बठै जाएँ और मह फल का रंग जम जाए, तो आबादीजान र सकजन क कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दखाएँ क लोग शरमात-े शरमाते भी कु छ-न-कु छ दे ही मर। आबादीजान और चौधरी साहब म सलाह होने लगी। म संयोग से उन दोन ा णय क बात सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा होगा क यह ल डा ा मतलब समझेगा। पर यहाँ ई र क दया से अ के पतु ले थे। सारी दा ान समझ म आती जाती थी।
चौधरी,\"सुनो आबादीजान, यह तु ारी ादती है। हमारा और तु ारा कोई पहला सा बका तो है नह । ई र ने चाहा तो हमेशा तु ारा आना-जाना लगा रहेगा। अब क चंदा ब त कम आया, नह तो म तुमसे इतना इसरार न करता।\" करता।\" आबादीजान,\"आप मुझसे भी जम दारी चाल चलते ह, ? मगर यहाँ जूर क दाल न गलेगी। वाह! पए तो म वसलू क ँ और मूछँ पर ताव आप द। कमाई का अ ा ढंग नकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दन म राजा हो जाएँ गे। उसके सामने जम दारी झक मारेगी! बस कल ही से एक चकला खोल दी जए! खुदा क कसम, मालामाल हो जाइएगा।\" चौधरी,\"तमु द गी करती हो और यहाँ का फया तंग हो रहा है।\" आबादीजान,\"तो आप भी तो मझु ी से उ ादी करते ह। यहाँ आप जसै े कइय को रोज उँग लय पर नचाती ँ।\" चौधरी,\"आ खर तु ारी मंशा ा है?\" आबादीजान,\"जो कु छ वसूल क ँ , उसम आधा मेरा, आधा आपका। लाइए, हाथ मा रए।\" चौधरी,\"यही सही।\" आबादीजान,\"तो पहले मेरे सौ पए गन दी जए। पीछे से आप अलसटे करने लगग।े \" चौधरी,\"वह भी लोगी और यह भी।\" आबादीजान,\"अ ा! तो ा आप समझते थे क अपनी उजरत छोड़ ँगी? वाह री आपक समझ! खबू , न हो। दीवाना बकारे दरवेश शयार!\" चौधरी,\"तो ा तमु ने दोहरी फ स लेने क ठानी है?\" आबादीजान,\"अगर आपको सौ दफे गरज हो तो। वरना मेरे सौ पए तो कह गए ही नह । मुझे ा कु े ने काटा है, जो लोग क जेब म हाथ डालती फ ँ ?\" चौधरी क एक न चली। आबादीजान के सामने दबना पड़ा। नाच शु आ। आबादीजान बला क शोख औरत थी। एक तो कम सन, उस पर हसीन और उसक अदाएँ तो इस गजब क थ क मेरी तबीयत भी म ई जाती थी। आद मय को पहचानने का गुण भी उसम कु छ कम न था। जसके सामने बैठ गई, उससे कु छ-न-कु छ ले ही लया। पाँच पए से कम तो शायद ही कसी ने दए ह । पताजी के सामने भी वह बठै ी। म मारे शरम के गड़ गया। जब उसने उनक कलाई पकड़ी, तब तो म सहम उठा। मुझे यक न था क पताजी उसका हाथ झटक दगे और शायद ार भी द, कतु यह ा हो रहा है ई र! मरे ी आँख
धोखा तो नह खा रही ह। पताजी मछूँ म हँस रहे ह। ऐसी मृ हँसी उनके चहे रे पर मने कभी नह देखी थी। उनक आँख से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एक-एक रोम पलु कत हो रहा था, मगर ई र ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उ ने धीरे से आबादीजान के कोमल हाथ से अपनी कलाई छु ड़ा ली। अरे! यह फर ा आ? आबादी तो उनके गले म बाहँ डाले देती है। अब पताजी उसे ज र पीटगे। चडु ैल़ को जरा भी शरम नह । एक महाशय ने मुसकराकर कहा,\"यहाँ तु ारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और दरवाजा देखो।\" बात तो इन महाशय ने मेरे मन क कही और ब त ही उ चत कही, ले कन न जाने पताजी ने उसक ओर कु पत ने से देखा और मँछू पर ताव दया। मुँह से तो वह कु छ न बोल,े पर उनके मुख क आकृ त च ाकर सरोष श म कह रही थी, ‘तू ब नया, मझु े समझता ा है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक नसार करने को तयै ार ह। पए क हक कत ही ा! तरे ा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे नी रकम न डालूँ तो मुहँ न दखाऊँ !’ महान् आ य! घोर अनथ! अरे, जमीन तू फट नह जाती। आकाश, तू फट नह पड़ता? अरे, मझु े मौत नह आ जाती! पताजी जबे म हाथ डाल रहे ह। कोई चीज नकाली और सठे जी को दखाकर आबादीजान को दे डाली। आह! यह तो अशरफ है। चार ओर ता लयाँ बजने लग । सेठजी उ ू बन गए। पताजी ने मँुह क खाई, इसका न य म नह कर सकता। मने के वल इतना देखा क पताजी ने एक अशरफ नकालकर आबादीजान को दी। उनक आँख म इस समय इतना गवयु उ ास था मानो उ ने हा तम क क पर लात मारी हो। यही पताजी ह, ज ने मुझे आरती म एक पया डालते देखकर मेरी ओर इस तरह से देखा था, मानो मुझे फाड़ ही खाएँ ग।े मेरे उस परमो चत वहार से उनके रोब म फक आता था और इस समय इस घृ णत, कु त और न दत ापार पर गव और आनंद से फू ले न समाते थे। आबादीजान ने एक मनोहर मसु कान के साथ पताजी को सलाम कया और आगे बढ़ी, मगर मझु से वहाँ न बैठा गया। मारे शरम के मरे ा म क झकु ा जाता था, अगर मेरी आँख देखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी ऐतबार न होता। म बाहर जो कु छ देखता-सुनता था, उसक रपोट अ ा से ज र करता था। पर इस मामले को मने उनसे छपा रखा। म जानता था, उ यह बात सनु कर बड़ा ःख होगा। रात भर गाना होता रहा, तबले क धमक मेरे कान म आ रही थी। जी चाहता था, चलकर देखूँ, पर साहस न था। म कसी को महँु कै से दखाऊँ गा? कह कसी ने पताजी का ज छेड़ दया तो म ा क ँ गा? ातःकाल रामचं क वदाई होने वाली थी। म चारपाई से उठते ही आँख मलता आ चौपाल क ओर भागा। डर रहा था क कह रामचं चले न गए ह । प ँचा तो देखा,
तवायफ क सवा रयाँ जाने को तयै ार ह। बीस आदमी हसरत नाक-मुँह बनाए उ घेरे खड़े ह। मने उनक ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचं के पास प ँचा। ल ण और सीता बैठे रो रहे थे और रामचं खड़े काधँ े पर लु टया-डोर डाले उ समझा रहे थे। मेरे सवा वहाँ और कोई न था। मने कुं ठत र म रामचं से पछू ा,\" ा तु ारी वदाई हो गई?\" रामचं ,\"हा,ँ हो तो गई। हमारी वदाई ही ा? चौधरी साहब ने कह दया, जाओ, चले जाते ह।\" \" ा पया और कपड़े नह मल?े \" \"अभी नह मले। चौधरी साहब कहते ह,\"इस व बचत म पए नह ह, फर आकर ले जाना।\" \"कु छ नह मला?\" \"एक पसै ा भी नह । कहते ह, कु छ बचत नह ई। मने सोचा था क कु छ पए मल जाएँ गे तो पढ़ने क कताब ले लँूगा। सो कु छ न मला। राह खच भी नह दया। कहते ह, कौन र है, पदै ल चले जाओ!\" मझु े ऐसा ोध आया क चलकर चौधरी को खबू आड़े हाथ लँू। वे ाओं के लए पए, सवा रयाँ, सबकु छ, पर बेचारे रामचं और उनके सा थय के लए कु छ भी नह । जन लोग ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस पए ोछावर कए थे, उनके पास ा इनके लए दो-दो, चार-चार आने पसै े भी नह ? पताजी ने भी आबादीजान को एक अशरफ दी थी। देख,ूँ इनके नाम पर ा देते ह। म दौड़ा आ पताजी के पास गया। वह कह त ीश पर जाने को तयै ार खड़े थे। मुझे देखकर बोल,े \"कहाँ घूम रहे हो? पढ़ने के व तु घमू ने क सूझती है।\" मने कहा,\"गया था चौपाल। रामचं वदा हो रहे थ।े उ चौधरी साहब ने कु छ नह दया।\" \"तो तु इसक ा फ पड़ी है?\" \"वह जाएँ गे कै स?े उनके पास राह-खच भी तो नह है।\" \" ा कु छ खच भी नह दया? यह चौधरी साहब क बेइनसाफ है।\" \"आप अगर दो पया दे द तो म उ दे आऊँ । इतने म शायद वह घर प ँच जाएँ ।\" पताजी ने ती से देखकर कहा,\"जाओ अपनी कताब देखो, मेरे पास पए नह ह।\" यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दन से पताजी पर से मरे ी ा उठ गई। मने फर कभी उनक डाँट-डपट क परवाह नह क । मेरा दल कहता, ‘आपको मझु को उपदेश
देने का कोई अ धकार नह है।’ मुझे उनक सूरत से चढ़ हो गई। वह जो कहते, म ठीक उसका उलटा करता। य प इसम मेरी हा न ई। ले कन मेरा अंतःकरण उस समय व वकारी वचार से भरा आ था। मरे े पास दो आने पड़े ए थे। मने उठा लये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचं को दे दए। उन पसै को देखकर रामचं को जतना हष आ, वह मेरे लए आशातीत था। टू ट पड़े, मानो ासे को पानी मल गया। यही दो आने पसै े लके र तीन मू तयाँ वदा । के वल म ही उनके साथ क े के बाहर तक प ँचाने आया। उ वदा करके लौटा तो मरे ी आँख सजल थ , पर दय आनदं से उमड़ा आ था।
मे री बचपन क याद म ‘कजाक ’ एक न मटने वाला है। आज चालीस वष गजु र गए, कजाक क मू त अभी तक मरे ी आँख के सामने नाच रही है। म उस समय अपने पता के साथ आजमगढ़ क एक तहसील म था। कजाक जा त का पासी था, बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही जदा दल। वह रोज शाम को डाक का थलै ा लेकर आता, रात भर रहता और सबु ह डाक लेकर चला जाता। शाम को फर उधर से डाक लेकर आ जाता। म दन भर उ हालत म उसक राह देखा करता। ही चार बजत,े बेचैन होकर सड़क पर आकर खड़ा हो जाता। वह र से दौड़ता आ आता दखलाई पड़ता। वह साँवले रंग का गठीला, लंबा जवान था। ज साँचे म ऐसा ढला आ क चतरु मू तकार भी उसम कोई दोष न नकाल सकता। उसक छोटी- छोटी मूछँ उसके सुडौल महँु पर ब त ही अ ी तीत होती थ । मझु े देखकर वह और तेज दौड़ने लगता, उसक झझुँ नु ी और तेजी से बजने लगती तथा मेरे दल म जोर से खशु ी क धड़कन होने लगती। हषा तरेक म म भी दौड़ पड़ता और एक पल म कजाक का कं धा मेरा सहासन बन जाता। वह जगह मेरी अ भलाषाओं का ग थी। ग के नवा सय को शायद वह आंदो लत आनंद नह मलता होगा, जो मझु े कजाक के वशाल कं धे पर मलता था। नया मेरी आँख म तु हो जाती और कजाक मझु े कं धे पर लये ए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा महससू होता, मानो म हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा ँ। कजाक डाकखाने म प ँचता तो पसीने से तर-बतर रहता; ले कन आराम करने क आदत नह थी। थलै ा रखते ही वह हम लोग को लके र कसी मैदान म नकल जाता, कभी हमारे साथ खेलता, कभी बरहे गाकर सुनाता और कभी-कभी कहा नयाँ सनु ाता। उसे चोरी तथा डाके , मारपीट, भतू - ते क सैकड़ कहा नयाँ याद थ । म कहा नयाँ सनु कर व च आनंद म म हो जाता; उसक कहा नय के चोर और डाकू स े यो ा थे, जो धनी लोग को लूटकर दीन- खी ा णय का पालन करते थ।े मुझे उन पर नफरत के बदले ा
होती थी। एक रोज कजाक को डाक का थैला लके र आने म देर हो गई। सयू ा हो गया और वह दखलाई नह पड़ा। म खोया आ सा सड़क पर र तक ने फाड़-फाड़कर देखता था; पर वह प र चत रेखा न दखलाई पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था; ‘झनु -झुन’ क वह आमोदमय न नह सनु ाई देती थी। काश के साथ मेरी उ ीद भी म लन होती जाती थी। उधर से कसी को आते देखता तो पछू ता,\"कजाक आता है?\" मगर या तो कोई सनु ता ही न था या फर सर हला देता था। अचानक ‘झनु -झुन’ क आवाज कान म आई। मझु े अँधेरे म चार ओर भूत ही दखलाई देते थ।े यहाँ तक क माताजी के कमरे म ताक पर रखी ई मठाई भी अँधरे ा हो जाने के प ात् मेरे लए ा हो जाती थी; ले कन वह आवाज सुनते ही म उसक ओर जोर से दौड़ा। हाँ, कजाक ही था। उसे देखते ही मरे ी वकलता गु े म बदल गई। म उसे मारने लगा, फर ठ करके अलग खड़ा हो गया। कजाक ने हँसकर कहा,\"मारोगे तो म जो लाया ँ, वह न ँगा।\" मने साहस करके कहा,\"जाओ मत देना, म लँगू ा भी नह ।\" कजाक ,\"अभी दखा ँ, तो फर दौड़कर गोद म उठा लोगे।\" मने पघलकर कहा,\"अ ा, दखा दो।\" कजाक ,\"तो आकर मरे े कं धे के ऊपर बठै जाओ, भाग चलूँ। आज काफ देर हो गई है। बाबूजी गु ा हो रहे ह गे।\" मने अकड़कर कहा,\"पहले दखा तो दो।\" मरे ी वजय ई। य द कजाक को देर न होती और वह एक मनट भी और क सकता, तो शायद पासा पलट जाता। उसने कोई चीज दखाई, जसे वह एक हाथ से सीने से चपकाए ए था। लंबा मुहँ था, दो आँख चमक रही थ । मने उसे भागकर कजाक क गोद से ले लया। यह हरन का ब ा था। आह! मरे ी उस स ता का कौन अनमु ान करेगा? तब से क ठन परी ाएँ पास क , अ ा पद भी पाया, रायबहा र भी आ, मगर वह खुशी फर भी न हा सल ई। म उसे गोद म लये, उसके कोमल श का मजा उठाता आ घर क ओर दौड़ा। कजाक को आने म इतनी देर ई, इसका वचार ही न रहा। मने पूछा,\"यह कहाँ पर मला कजाक ?\" कजाक ,\"भैया, यहाँ से थोड़ी री पर एक छोटा सा वन है, उसम ब त से हरन ह। मेरा ब त दल चाहता था क कोई ब ा मल जाए तो तु ँ। आज यह ब ा हरन के झडुं
के साथ दखलाई दया। म झडंु क तरफ दौड़ा तो ब त र नकल गए, यही पीछे रह गया। मने इसे पकड़ लया और इसी से इतनी देर ई।\" इस तरह बात करते हम दोन डाकखाने प ँच।े बाबूजी ने मझु े न देखा, हरन के ब े को भी न देखा, कजाक पर ही उनक पड़ी। बगड़कर बोल,े \"आज इतनी देर कहाँ लगाई? अब थैला लके र आया है, उसे लेकर म ा क ँ ? डाक तो चली गई। बता, तूने इतनी देर कहाँ पर लगाई?\" कजाक के मखु से आवाज न नकली। बाबजू ी बोल,े \"तझु े शायद अब नौकरी नह करनी है। नीच है न, पेट भरा तो मोटा हो गया! जब भूख मरने लगेगा तो ने खुलगे।\" कजाक खामोश खड़ा रहा। बाबूजी का गु ा और बढ़ा। बोल,े \"अ ा, थैला रख दे और अपने घर क राह ल।े सअू र, अब डाक लेकर आया है। तेरा ा बगडे़गा, जहाँ पर चाहेगा, मजरू ी कर लगे ा। माथे पर मरे े आएगी, उ र तो मुझसे तलब होगा।\" कजाक ने ँ आसा होकर कहा,\" जूर, अब कभी देर नह होगी।\" बाबजू ी,\"आज देर क , इसका उ र दे?\" कजाक के पास इसका कोई जवाब न था। आ य तो यह था क मेरी भी जबान बदं हो गई। बाबजू ी बड़े ोधी थ।े उ काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झझुँ ला पड़ते थे। म तो उनके स खु कभी जाता ही न था। वह भी मझु े कभी ार न करते थ।े घर म सफ दो बार घंटे-घंटे भर के लए भोजन करने आते थ,े शेष सारे दन द र म लखा करते थे। उ ने बार-बार एक सहकारी के लए अफसर से ाथना क थी, पर इसका असर न आ था। यहाँ तक क तातील (छु ी) के दन भी बाबूजी द र ही म रहते थ।े सफ माताजी उनका गु ा शातं करना जानती थ । पर वह द र म कै से आत ? बचे ारा कजाक उसी समय मरे े देखते-देखते नकाल दया गया। उसका ब म, चपरास और साफा छीन लया गया और उसे डाकखाने से नकल जाने का ना दरी आदेश सुना दया। आह! उस व मरे ा ऐसा दल चाहता था क मेरे पास सोने क लकं ा होती तो कजाक को दे देता और बाबूजी को दखा देता क तु ारे नकाल देने से कजाक का बाल भी बाँका नह आ। कसी यो ा को अपनी तलवार पर जतना गव होता है, उतना ही गव कजाक को अपनी चपरासी पर था। जब वह चपरासी खोलने लगा तो उसके हाथ कापँ रहे थे और ने से आँसू बह रहे थ,े और इस सारे उप व क जड़ वह कोमल चीज थी, जो मेरी गोद म महँु छपाए ऐसे चनै से बैठी ई थी मानो माता क गोद म हो। जब कजाक चला तो म आ ह ा-आ ह ा उसके पीछे चला। मेरे घर के दरवाजे पर आकर कजाक ने कहा,\"भैया, अब घर जाओ। साँझ हो गई।\"
म खामोश खड़ा अपने आँसुओं के वगे को सारी ताकत से दबा रहा था। कजाक फर बोला,\"भयै ा, म कह बाहर थोड़े ही चला जाऊँ गा, फर आऊँ गा तथा तु कं धे पर बठै ाकर कु दाऊँ गा, बाबजू ी ने नौकरी ले ली है तो ा इतना भी न करने दगे! तुमको छोड़कर म कह नह जाऊँ गा, भैया! जाकर अ ा से कह दो, कजाक जाता है। उसका कहा-सनु ा मा कर।\" म दौड़ा आ घर गया, कतु अ ाजी से कु छ कहने के बदले बलख- बलखकर रोने लगा। अ ाजी कचन के बाहर नकलकर पूछने लग , \" ा आ बटे ा? कसने मारा! बाबूजी ने भी कु छ कहा है? अ ा; रह तो जाओ, आज घर आते ह, पछू ती ँ। जब देखो, मरे े लड़के को मारा करते ह। खामोश रहो बटे ा, अब तुम उनके पास कभी न जाना।\" मने बड़ी क ठनता से आवाज सभँ ालकर कहा,\"कजाक !\" अ ा ने समझा, कजाक ने मारा है कहने लग ,\"अ ा, आने दो कजाक को, देखो, खड़े- खड़े नकलवा देती ँ। हरकारा होकर मरे े राजा पु को मारे! आज ही तो साफा, ब म, सब छनवाए लेती ँ। वाह!\" मने शी ता से कहा,\"नह , कजाक ने नह मारा। बाबजू ी ने उसे नकाल दया है। उसका साफा, ब म छीन लया, चपरास भी ले ली।\" अ ा,\"यह तु ारे बाबूजी ने ब त बरु ा कया। वह बचे ारा अपने काय म इतना सतक रहता है, फर उसे नकाला?\" मने बताया,\"आज उसे देर हो गई थी।\" इतना कहकर हरन के ब े को गोद से उतार दया। घर म उसके भाग जाने का डर न था। अब तक अ ाजी क नगाह भी उस पर न पड़ी थी। उसे फु दकते देखकर वह अचानक च क पड़ और लपककर मरे ा हाथ पकड लया क कह यह भयानक जीव मुझे काट न खाए! म कहाँ तो फू ट-फू टकर रो रहा था और कहाँ अ ा क घबराहट देखकर खल खलाकर हँसने लगा। अ ा,\"अरे, यह तो हरन का ब ा है! कहाँ मला?\" मने हरन के ब े का इ तहास और उसका भीषण अंजाम आ द से अंत तक कह सनु ाया,\"अ ा, यह इतना तजे भागता था क कोई अ होता तो पकड़ ही न सकता। सन-् सन् हवा क तरह उड़ता चला जाता था। कजाक पाचँ -छह घटं े तक इसके पीछे दौड़ता रहा, तब कह जाकर ब ा मला। अ ाजी, कजाक क भाँ त कोई संसार भर म नह दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गई। इस लए बाबजू ी ने बचे ारे को नकाल दया, चपरास, साफा, ब म, सबकु छ छीन लया। अब बेचारा ा करेगा? भखू मर जाएगा।\" अ ा ने पूछा,\"कहाँ है कजाक , जरा उसे बुलाकर तो लाओ।\"
मने कहा,\"बाहर तो खड़ा है। कहता था, अ ाजी से मेरा कहा-सुना माफ करवा देना।\" अब तक अ ाजी मरे े हाल को मजाक समझ रही थ । शायद वह समझती थ क बाबूजी ने कजाक को डाँटा होगा। मगर मेरा अं तम वा सुनकर सशं य आ क वाकई कजाक बरखा तो नह कर दया गया। बाहर आकर ‘कजाक ! कजाक ’ पुकारने लग , कतु कजाक का कह पता नह था। मने बार-बार पकु ारा, मगर कजाक वहाँ न था। भोजन तो मने खा लया, ब े शोक म खाना नह छोड़त,े खासकर जब रबड़ी भी सामने हो। ले कन बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास पए होते तो एक लाख पए कजाक को दे देता और कहता, ‘बाबूजी से कभी नह बोलना। बेचारा भूख मर जाएगा! देख,ूँ कल आता है क नह । अब वह ा करेगा आकर? ले कन आने को तो कह गया है। म कल उसे अपने साथ खाना खलाऊँ गा।’ यही हवाई कले बनाते ए मुझे न द आ गई। सरे रोज म दन भर अपने हरन के ब े क सेवा-स ार म रहा। पहले उसका नामकरण सं ार आ और ‘मु ’ू नाम रखा गया, फर मने उसका अपने सब दो और सहपा ठय से प रचय कराया। दन भर म वह मझु से इतना हल गया क मरे े पीछे-पीछे भागने लगा। इतनी ही देर म मने उसे अपनी जदगी म एक मह पूण ान दे दया। अपने भ व म बनने वाले वशाल भवन म उसके लए अलग कमरा बनाने का भी फै सला कर लया; चारपाई, सैर करने क फटन आ द क भी योजना बना ली।
ले कन शाम होते ही म सबकु छ छोड़-छाड़कर सड़क पर जा खड़ा आ और कजाक क बाट देखने लगा। जानता था क कजाक नकाल दया गया है, अब उसे यहाँ आने क कोई आव कता नह रही, फर भी न जाने मुझे यह उ ीद हो रही थी क वह आ रहा है। अचानक मुझे खयाल आया क कजाक भखू मर रहा होगा। म फौरन घर आया। अ ा दीया-ब ी कर रही थ । मने चुपके से एक टोकरी म आटा नकाला। आटा हाथ म लपटे े ए टोकरी से गरते आटे क एक लक र बनाता आ भागा। जाकर रा े पर खड़ा आ ही था क कजाक सामने से आता दखलाई दया। उसके नकट ब म भी था, कमर म चपरास भी थी, सर पर साफा भी बाँधा आ था। ब म म डाक का थलै ा भी बँधा आ था। म भागकर उसक कमर म चपट गया और हैरान होकर बोला,\"तु चपरास और ब म कहाँ से मल गया कजाक ?\" कजाक ने मझु े उठाकर कं धे पर बठाते ए कहा,\"वह चपरास कस काम क थी भैया? वह तो गुलामी क चपरास थी, यह परु ानी स ता क चपरास है। पहले सरकार का नौकर था, अब तु ारा सेवक ँ।\" यह कहते-कहते उसक टोकरी पर पड़ी, जो वह रखी थी। बोला, \"वह आटा कै सा है, भयै ा?\" मने झझकते ए कहा,\"तु ारे ही लए तो लाया ँ। तमु भूखे होगे, आज ा खाया होगा?\" कजाक क आँख तो म नह देख सकता, उसके कं धे पर बैठा आ था। हाँ, उसक आवाज से महससू आ क उसका गला भर आया है। बोला, \"भयै ा, ा खी ही रो टयाँ खाऊँ गा? दाल, नमक, घी और कु छ नह है।\" म अपनी भलू पर काफ श मदा आ। सच तो है, बचे ारा खी रो टयाँ खाएगा? ले कन नमक, दाल, घी कै से लाऊँ ? अब तो अ ा रसोई म ह गी। आटा लेकर तो कसी तरह भाग आया था (अभी तक मझु े न पता था क मेरी चोरी पकड़ ली गई है। आटे क लक र ने सुराग दे दया था।) अब ये तीन-तीन व एु ँ कै से लाऊँ गा? अ ा से माँगँ◌ूगा तो कभी न दगी। एक-एक पैसे के लए तो घटं लाती ह, इतनी सारी व एु ँ देने लग ? एकाएक मुझे एक बात याद आई। मने अपनी पु क के ब े म कई आने पसै े रख छोड़े थ।े मझु े पैसे इक ा करके रखने म बड़ा आनदं आता था। मालूम नह अब वह आदत बदल गई! अब भी वही त होती तो शायद इतना फाके म रहता। बाबूजी मुझे ार तो कभी नह करते थे, पर पैसे खूब देते थ,े शायद अपने काय म रहने के कारण, मझु से पड छु ड़ाने के लए इसी नु े को सबसे सरल समझते थे। इनकार करने म रोने और मचलने का भय था। इस व को वह र ही से टाल देते थे। अ ाजी का भाव इससे ठीक तकू ल था। उ मरे े रोने तथा मचलने से कसी काम म बाधा पड़ने का डर न था। आदमी लटे े-लेटे दन भर रोना सनु सकता है, हसाब लगाते ए जोर क आवाज से ान बँट जाता है। अ ा मुझे मे तो ब त करती थ , पर पसै े का नाम सनु ते ही उनक ो रयाँ बदल जाती थ । मेरे पास पु क न थ । हा,ँ एक ब ा था, जसम डाकखाने के दो-चार फाम तह करके कताब के
प म रखे ए थे। मने सोचा-दाल, नमक और घी के लए ा उतने पैसे काफ नह ह गे? मरे ी तो मु ी म नह आते। यह तय करके मने कहा,\"अ ा, मुझे उतार दो, म दाल और नमक ला ँ, ले कन रोज आया करोगे न?\" कजाक ,\"भयै ा, खाने को दोगे तो नह आऊँ गा।\" मने कहा,\"म त दन खाने को ँगा।\" कजाक बोला,\"तो म रोज आऊँ गा।\" म नीचे उतरा तथा दौड़कर सारी पजूँ ी उठा लाया। कजाक को रोज बलु ाने के लए उस समय मेरे पास कोहनरू हीरा भी होता तो उसक भट करने म मुझे पसोपशे न होता। कजाक ने आ यच कत होकर पूछा,\"ये पसै े कहाँ से पाए भयै ा?\" मने ग वत होकर कहा,\"मेरे ही तो ह।\" कजाक ,\"तु ारी अ ाजी तुमको मारगी, कहगी, कजाक ने बहलाकर मँगवा लये ह ग।े भैया, इन पसै क मठाई ले लने ा तथा मटके म रख देना। म भूख नह मरता। मरे े दो हाथ ह। म भला कभी भखू मर सकता ँ?\" मने ब त कहा क पैसे मरे े ह, कतु कजाक ने न लय।े उसने बड़ी देर तक इधर-उधर सैर कराई, गीत सुनाए और मुझे घर प ँचाकर चला गया। मरे े दरवाजे पर आटे क टोकरी भी रख दी। मने घर म पग रखा ही था क अ ाजी ने डाटँ कर कहा,\" रे चोर! तू आटा कहाँ ले गया था? अब चोरी करना सीख गया? बता, कसको आटा दे आया, नह तो म तरे ी खाल उधड़े कर रख ँगी।\" मरे ी नानी मर गई। अ ा गु े म सहनी हो जाती थ । सट पटाकर बोला, \" कसी को भी नह दया।\" अ ा,\"तनू े आटा नह नकाला? देख, कतना आटा पूरे आँगन म बखरा पड़ा है?\" म खामोश खड़ा था। वह कतना ही धमकाती थ , पुचकारती थ , पर मेरी जबान न खलु ती थी। आने वाली मसु ीबत के भय से ाण सूख रहे थे। यहाँ तक क यह भी कहने क ह त नह पड़ती थी क बगड़ती हो, आटा तो ार पर रखा आ है, और न उठाकर लाते ही बनता था, मानो या-श ही गायब हो गई हो, मानो पावँ म हलने क साम न रही हो। सहसा कजाक ने आवाज लगाई,\"ब जी, आटा ार पर रखा आ है। भैया मझु े देने को ले गए थे।\"
यह सनु ते ही अ ा दरवाजे क ओर चली ग । कजाक से वह परदा न करती थ , उ ने कजाक से कोई बात क अथवा नह , यह तो म नह जानता; ले कन अ ाजी खाली टोकरी लके र घर म आ , फर कोठरी म जाकर सं क से कु छ नकाला और दरवाजे क ओर ग । मने देखा क उनक मु ी बंद थी। अब मझु े वहाँ खड़ा नह रहा गया। अ ाजी के पीछे- पीछे म भी गया। अ ा ने दरवाजे पर कई बार पुकारा, मगर कजाक वहाँ से चला गया था। मने बड़ी ाकु लता से कहा,\"म बलु ाकर लाऊँ , अ ाजी?\" अ ाजी ने कवाड़ बंद करते ए कहा,\"तुम अँधेरे म कहाँ जाओगे, अभी तो यह खड़ा आ था। मने कहा क यहाँ रहना म आती ँ, तब तक न जाने कहाँ खसक गया। बड़ा सकं ोची लड़का है, आटा तो लते ा ही नह था। न जाने बेचारे के मकान म कु छ खाने को है क नह । पए लाई थी क दे ँगी, पर न जाने कहाँ चला गया।\" अब तो मुझे भी थोड़ा साहस आ। मने अपनी चोरी क परू ी कहानी कह डाली। ब के साथ समझदार ब े बनकर माँ-बाप उन पर जतना भाव डाल सकते ह, जतनी श ा दे सकते ह, उतने बढ़ू े बनकर नह । अ ाजी ने कहा,\"तमु ने मझु से पूछ नह लया? ा म कजाक को थोड़ा सा आटा नह देती?\" मने इसका जवाब न दया। दल ने कहा, ‘इस व तु कजाक पर दया आ गई है, जो चाहे दे डालो।’ कतु म मागँ ता तो मारने दौड़त । हा,ँ यह सोचकर च खशु आ क अब कजाक भूखा न मरेगा। अ ाजी उसे रोज खाने को दगी और वह न मुझे कं धे पर बठाकर सैर कराएगा। सरे दन म दन भर मु ू के साथ खले ता रहा। शाम को सड़क पर जाकर खड़ा हो गया, ले कन अँधरे ा हो गया और कजाक का कह पता नह । दीये जल गए, माग म स ाटा छा गया, पर कजाक न आया। म रोता आ घर आया। अ ाजी ने कहा,\" रोते हो, बटे ा? ा कजाक नह आया?\" म और जोर से रोने लगा। अ ाजी ने मुझे सीने से लगा लया। मझु े ऐसा महसूस आ क उनका कं ठ भी ँ आसा हो गया है। उ ने कहा,\"बटे ा, शांत हो जाओ, म कल कसी हरकारे को भजे कर कजाक को बलु ाऊँ गी।\" म रोत-े रोते सो गया। सवेरे जसै े ही आँख खलु , मने अ ाजी से कहा, \"कजाक को बलु वा दो।\"
अ ा ने कहा,\"आदमी गया है, बेटा! कजाक आता होगा।\" म स होकर खेलने लगा। मझु े मालूम था क अ ाजी जो बात कहती ह, उसे पूरा अव करती ह। उ ने सवेरे ही एक हरकारे को भेज दया था। दस बजे जब म मु ू को लये ए घर आया, मालूम आ क कजाक अपने घर पर नह मला। वह रात को भी घर नह गया था। उसक ी रो रही थी क न जाने कहाँ चले गए। उसे डर था क वह कह भाग गया है। बालक का मन कतना कोमल होता है, इसका अनमु ान सरा नह कर सकता। उनम भाव को जा हर करने के लए श नह होते। उ यह भी ात नह होता क कौन सी बात उ वकल कर रही है, कौन सा काटँ ा उनके दल म खटक रहा है, बार-बार रोना आता है, वे दय मारे बठै े रहते ह, खेलने म मन नह लगता? मरे ी भी यही दशा थी। कभी घर म आता, कभी बाहर जाता, कभी सड़क पर जा प ँचता। आँख कजाक को तलाश कर रही थ । वह कहाँ चला गया? कह भाग तो नह गया? तीसरे पहर को म खोया आ सा सड़क पर खड़ा था। अचानक मने कजाक को एक गली म देखा। हा,ँ कजाक ही था। म उसक तरफ च ाता आ दौड़ा, पर गली म उसका पता नह था, न जाने कधर गायब हो गया। मने गली के इस सरे से उस सरे तक देखा, ले कन कह कजाक क गधं तक न मली। घर जाकर मने अ ाजी से यह बात कही। मुझे ऐसा तीत आ क वह यह बात सुनकर ब त फ मंद हो गई थ । इसके बाद दो-तीन दन तक कजाक नह दखाई दया। म भी अब उसे कु छ-कु छ भूलने लगा। ब े पहले जतना मे करते ह, बाद को उतने ही न ु र भी हो जाते ह। जस खलौने पर जान देते ह, उसी को दो-चार दन बाद पटककर तोड़ भी डालते ह। दस-बारह रोज और बीत गए। दोपहर का समय था। बाबजू ी खाना खा रहे थे। म मु ू के पाँव म पीनस क पजै नयाँ बाँध रहा था। एक औरत घघँू ट नकाले ए आई और आँगन म खड़ी हो गई। उसके व फटे ए और मैले थे, पर गोरी संदु र औरत थी। उसने मझु से पछू ा,\"भयै ा, ब जी कहाँ ह?\" मने उसके नकट जाकर महुँ देखते ए कहा,\"तुम कौन हो, ा बचे ती हो?\" औरत,\"कु छ बचे ती नह ँ, बस तु ारे लए ये कमलग े लाई हँ◌।ू भैया, तु तो कमलग े बड़े अ े लगते ह न?\" मने उसके हाथ म लटकती ई पोटली को उ ुक आँख से देखकर पछू ा,\"कहाँ से लाई हो? देख।\"
ी,\"तु ारे हरकारे ने भजे ा है, भैया!\" मने उछलकर कहा,\"कजाक ने?\" ी ने सर हलाकर ‘हा’ँ कहा और पोटली खोलने लगी। इतने म अ ाजी भी चौके से नकलकर आ । उसने अ ा के परै का श कया। अ ा ने पूछा,\"तू कजाक क प ी है?\" औरत ने अपना सर झुका लया। अ ा,\"आजकल कजाक ा कर रहा है?\" औरत ने रोकर कहा,\"ब जी, जस रोज से आपके पास से आटा लेकर गए ह, उसी दन से बीमार पड़े ए ह। बस भैया-भयै ा कया करते ह। भयै ा म उनका मन बसा रहता है। च क- च ककर भैया-भैया कहते ए दरवाजे क ओर दौड़ते ह। न जाने उ ा हो गया है, ब जी! एक दन भी कु छ नह कहा, न सुना, घर से चल दए और एक गली म छपकर भैया को देखते रहे। जस समय भैया ने उ देख लया, तो भागे। तु ारे पास आते ए शरमाते ह।\" मने कहा,\"हा-ँ हा,ँ मने उस रोज तमु से जो कहा था, अ ाजी!\" अ ा,\"घर म कु छ खान-े पीने को भी है?\" औरत,\"हाँ ब जी, तु ारे आशीवाद से खान-े पीने का क नह है। आज सबु ह उठे और तालाब क तरफ चले गए। ब त कहती रही, बाहर मत जाओ, हवा लग जाएगी, ले कन न माने! मारे कमजोरी के पैर कापँ ने लगते ह, मगर तालाब म घसु कर ये कमलग े तोड़ लाए। तब मुझसे कहा, ले जा, और भयै ा को दे आ। उ कमलग े ब त अ े लगते ह, कु शल- मे भी पूछती आना।\" मने पोटली से कमलग े नकाल लए थे तथा मजे से चख रहा था। अ ा ने ब त आँख दखा , कतु यहाँ इतना स कहा!ँ अ ा ने कहा,\"कह देना सब कु शल- मे है।\" मने कहा,\"यह भी कह देना क भयै ा ने बलु ाया है। नह जाओगे तो फर तमु से कभी न बोलग,े हाँ।\" बाबजू ी खाना खाकर नकल आए थे। तौ लए से हाथ-महुँ प छते ए कहने लग,े \"और यह भी कह देना क साहब ने तुम को बहाल कर दया है। शी जाओ, नह तो कोई सरा रख लया जाएगा।\" औरत ने अपना व उठाया और चली गई। अ ा ने ब त पकु ारा, मगर वह न क । शायद अ ाजी उसे कु छ देना चाहती थ । अ ा ने पछू ा,\"वाकई बहाल हो गया?\"
बाबूजी,\"और ा झूठे ही बुला रहा ँ। मने तो पाँचव ही रोज बहाली क रपोट क थी।\" अ ा,\"यह तमु ने बड़ा अ ा कया।\" बाबजू ी,\"उसक बीमारी क भी यही दवा है।\" ातःकाल म उठा, तो ा देखता ँ क कजाक लाठी टेकता आ चला आ रहा है। वह ब त कमजोर हो गया था, मालमू होता था, बूढ़ा हो गया है। हरा-भरा वृ सखू कर ठूँठ हो गया था। म उसक ओर दौड़ा और उसक कमर से चपट गया। कजाक ने मरे े गाल चूमे और मझु े उठाकर कं धे पर बैठाने क को शश करने लगा; पर म न उठ सका। तब वह जानवर क भाँ त भू म पर हाथ -घुटन के बल खड़ा हो गया। और म उसक पीठ पर सवार होकर डाकखाने क ओर चला। म उस समय फू ला न समाता था और शायद कजाक मुझसे भी अ धक खुश था। बाबूजी ने कहा,\"कजाक , तमु बहाल हो गए। अब कभी देर मत करना।\" कजाक रोता आ पताजी के चरण म गर पड़ा; मगर शायद मरे े भा म दोन सुख भोगना नह लखा था, मु ू मला, तो कजाक छू टा; कजाक आया तो मु ू हाथ से गया और ऐसा गया क आज तक उसके जाने का क है। मु ू मरे ी ही थाली म खाता था। जब तक म खाने नह बैठूँ, वह भी कु छ नह खाता था। उसे भात म ब त ही च थी; कतु जब तक खबू घी न पड़ा हो, उसे संतोष न होता था। वह मेरे ही साथ सोता था और मरे े ही साथ उठता भी था। सफाई तो उसे इतनी पसदं थी क मल-मू ाग करने के लए घर से बाहर मदै ान म ही नकल जाता था, कु को घर म नह घुसने देता था। कु े को देखते ही थाली से उठ जाता तथा उ दौड़ाकर घर से बाहर नकाल देता था। कजाक को डाकखाने म छोड़कर जब म खाना खाने लगा तो मु ू भी आ बठै ा। अभी दो- चार ही कौर खाए थे क तभी एक बड़ा सा झबरा कु ा आँगन म दखाई दया। मु ू उसे देखते ही भागा। सरे घर म जाकर कु ा चूहा हो जाता है। झबरा कु ा उसे आते देखकर दौड़ा। मु ू को उसे घर से नकालकर भी इ ीनान न आ। वह उसे घर के बाहर मैदान म भी दौड़ाने लगा। मु ू को शायद ान न रहा क यहाँ मरे ी अमलदारी नह है। वह उस इलाके म प ँच गया था, जहाँ झबरे का भी उतना ही अ धकार था जतना मु ू का। मु ू कु े को भगाते-भगाते शायद अपने बा बल पर गव करने लगा था। वह यह नह समझता था क घर म उसक पीठ पर घर के ामी का भय काय कया करता है। झबरे ने इस मदै ान म आते ही उलटकर मु ू क गरदन दबा दी। बेचारे मु ू के मुख से आवाज तक न नकली। जब पड़ो सय ने शोर मचाया तो म भागा। देखा तो मु ू मरा आ पड़ा है और झबरे का कह भी पता नह ।
मुं शी रामसेवक भ ह चढ़ाए ए घर से नकले और बोल,े \"इस जीने से तो मरना भला है। मृ ु को ायः इस तरह से जतने नमं ण दए जाते ह, य द वह सबको ीकार करती तो आज सारा संसार उजाड़ दखाई देता।\" मशंु ी रामसेवक चाँदपुर गावँ के एक बड़े रईस थे। रईस के सभी गुण इनम भरपरू थे। मानव च र क बलताएँ उनके जीवन का आधार थ । वह न मंु सफ कचहरी के हाते म एक नीम के पेड़ के नीचे कागज का ब ा खोले एक टू टी सी चौक पर बठै े दखाई देते थे। कसी ने कभी उ कसी इजलास पर कानूनी बहस या मुकदमे क पैरवी करते नह देखा। परंतु उ सब मु ार साहब कहकर पकु ारते थे। चाहे तफू ान आए, पानी बरसे, ओले गर, पर मु ार साहब वहाँ से टस-से-मस न होत।े जब वह कचहरी चलते तो देहा तय के झुडं के झंुड उनके साथ हो लते ।े चार ओर से उन पर व ास और आदर क पड़ती। सबम स था क उनक जीभ पर सर ती वराजती है। इसे वकालत कहो या मु ारी, परंतु वह के वल कु ल-मयादा क त ा का पालन था। आमदनी अ धक न होती थी। चाँदी के स क तो चचा ही ा, कभी-कभी ताबँ े के स े भी नभय उनके पास आने म हचकते थे। मशुं ीजी क काननू दानी म कोई संदेह न था। परंतु पास के बखड़े े ने उ ववश कर दया था। खरै जो हो, उनका यह पेशा के वल त ा-पालन के न म था। नह तो उनके नवाह का मु साधन आस-पास क अनाथ, पर खाने-पीने म सुखी वधवाओं और भोले-भाले कतु धनी वृ क ा थी। वधवाएँ अपना पया उनके यहाँ अमानत रखत । बढ़ू े अपने कपतू के डर से अपना धन उ स प देते। पर पया एक बार मु ी म जाकर फर नकलना भलू जाता था। वह ज रत पड़ने पर कभी-कभी कज ले लेते थ।े भला बना कज लये कसी का काम चल सकता है? भोर क साझँ के करार पर पया लेत,े पर साझँ कभी नह आती थी। साराशं ये क मशुं ीजी कज लेकर देना सीखे नह थे। यह उनक कु ल था थी। यही सब मामले ब धा मंुशीजी के सुख-चनै म व डालते थ।े कानून और अदालत का तो उ कोई डर न था। इस मैदान म उनका सामना करना पानी म मगर से लड़ना था। परंतु जब कोई उनसे भड़ जाता, उनक ईमानदारी पर सदं ेह करता और उनके मँहु पर बुरा-भला कहने पर उता हो जाता, तब
मशंु ीजी के दय पर बड़ी चोट लगती। इस कार क घटनाएँ ायः होती रहती थ । हर जगह ऐसे ओछे रहते ह, ज सर को नीचा दखाने म आनंद आता है। ऐसे ही लोग का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मंुशीजी के मँहु लग जाते थे। नह तो, कुं ज ड़न क इतनी मजाल नह थी क उनके आँगन म जाकर उ बुरा-भला कहे। मंशु ीजी उसके पुराने ाहक थ,े बरस तक उससे साग-भाजी ली थी। य द दाम न दया तो कुं ज ड़न को संतोष करना चा हए था। दाम ज ी या देर से मल ही जाता। परंतु वह मँहु फट कुं ज ड़न दो ही बरस म घबरा गई और उसने कु छ आने-पैस के लए एक त त आदमी का पानी उतार लया। झँुझलाकर मंुशीजी अपने को मृ ु का कलेवा बनाने पर उता हो गए तो इसम उनका कु छ दोष न था। इसी गावँ म मँगू ा नाम क एक वधवा ा णी रहती थी। उसका प त बमा क काली पलटन म हवलदार था और लड़ाई म वह मारा गया। सरकार क ओर से उसके अ े काम के बदले मगँू ा को पाँच सौ पए मले थ।े वधवा ी, जमाना नाजुक था, बचे ारी ने ये सब पए मंुशी रामसेवक को स प दए, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसम से माँगकर अपना नवाह करती रही।
परंतु अनाथ का ोध पटाखे क आवाज है, जससे ब े डर जाते ह और असर कु छ नह होता। अदालत म उसका कु छ जोर न था। न लखा-पढ़ी थी, न हसाब- कताब। हाँ, पचं ायत से कु छ आसरा था। पचं ायत बैठी। कई गावँ के लोग इक े ए। मंुशीजी नीयत और मामले के साफ थे! सभा म खड़े होकर पंच से कहा,\"भाइयो! आप सब लोग स परायण और कु लीन ह। म आप सब साहब का दास ँ। आप सब साहब क उदारता और कृ पा स,े दया और मे स,े मेरा रोम-रोम कृ त है। ा आप लोग सोचते ह क म इस अना थनी और वधवा ी के पए हड़प कर गया ँ?\" पंच ने एक र म कहा,\"नह , नह ! आपसे ऐसा नह हो सकता।\" रामसेवक,\"य द आप सब स न का वचार हो क मने पया दबा लया, तो मरे े लए डू ब मरने के सवा और कोई उपाय नह । म धना नह ँ, न मझु े उदार होने का घमडं है। पर अपनी कलम क कृ पा से, आप लोग क कृ पा से कसी का मोहताज नह ँ। ा म ऐसा ओछा हो जाऊँ गा क एक अना थनी के पए पचा ल?ँू \" पंच ने एक र म कहा,\"नह -नह , आपसे ऐसा नह हो सकता। मँहु देखकर टीका काढ़ा जाता है।\" पंच ने मशंु ी को छोड़ दया। पचं ायत उठ गई। मँूगा ने आह भर सतं ोष कया और मन म कहा, ‘अ ा! यहाँ न मला तो न सही, वहाँ कहाँ जाएगा।’ अब कोई मूँगा का ःख सुननवे ाला और सहायक न था। द र ता से जो कु छ ःख भोगने पड़ते ह, वह उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पु थी, चाहती तो प र म कर सकती थी। पर जस दन पंचायत पूरी ई, उसी दन से उसने काम न करने क कसम खा ली। अब उसे रात- दन पए क रट लगी रहती। उठते-बठै ते, सोते-जागते उसे के वल एक काम था, और वह मुशं ी रामसेवक का भला मानना। झ पड़े के दरवाजे पर बठै ी ई रात- दन उ स े मन से असीसा करती; ब धा अपनी असीस के वा म ऐसे क वता के भाव और उपमाओं का वहार करती क लोग सुनकर अचभं े म आ जात।े धीरे-धीरे मगूँ ा पगली हो चली। नंगे सर, नंगे शरीर, हाथ म एक कु ाड़ी लये ए सनु सान ान म जा बैठती। झ पड़े के बदले अब वह मरघट पर नदी के कनारे खँडहर म घमू ती दखाई देती। बखरी ई लट, लाल-लाल आँख, पागल सा चेहरा, सखू े ए हाथ-पावँ । उसका यह प देखकर लोग डर जाते थ।े अब कोई उसे हँसी म भी नह छेड़ता। य द वह कभी गावँ म नकल आई तो याँ घर के कवाड़ बंद कर लेत । पु ष कतराकर इधर-उधर से नकल जाते और ब े चीख मारकर भागते। य द कोई लड़का भागता न था तो वह मुंशी रामसेवक का सुपु रामगलु ाम था। बाप म जो कु छ कोर-कसर रह गई थी, वह बटे े म परू ी हो गई थी। लड़क का उसके मारे नाक म दम था। गाँव के काने और लगँ ड़े आदमी उसक सूरत से चढ़ते थे और गा लयाँ खाने म तो शायद ससरु ाल म आने वाले दामाद को भी इतना आनदं न आता हो। वह मगँू ा के पीछे ता लयाँ बजाता, कु को साथ लये उस समय तक भागता रहता जब तक वह बचे ारी तगं आकर गाँव से नकल न जाती। पया- पसै ा, होशोहवास खोकर उसे पगली क पदवी मली और अब वह सचमचु पगली थी। अके ली बठै ी अपने आप घंट बात कया करती, जसम रामसेवक के मांस, ह ी, चमड़े,
आँख, कलजे ा आ द को खाने, मसलन,े नोचने-खसोटने क बड़ी उ ट इ ा कट क जाती थी और जब उसक यह इ ा सीमा तक प ँच जाती तो वह रामसवे क के घर क ओर महँु करके खूब च ाकर और डरावने श म हाकँ लगाती,\"तरे ा ल पीऊँ गी।\" ायः रात के स ाटे म यह गुजरती ई आवाज सनु कर याँ च क पड़ती थ । परंतु इस आवाज से भयानक उसका ठठाकर हँसना था। वह मुंशीजी के ल पीने क क त खशु ी म जोर से हँसा करती थी। इस ठठान से ऐसी आसु रक उ ंडता, ऐसी पाश वक उ ता टपकती थी क रात को सनु कर लोग का खून ठंडा हो जाता था। मालूम होता, मानो सैकड़ उ ू एक साथ हँस रहे ह। मशंु ी रामसवे क बड़े हौसले और कलजे े के आदमी थे। न उ दीवानी का डर था, न फौजदारी का, परंतु मूँगा के इन डरावने श को सुन वह भी सहम जात।े हम मनु के ाय का डर न हो, परंतु ई र के ाय का डर के मनु के मन म भाव से रहता है। मँूगा का भयानक रात का घूमना रामसवे क के मन म कभी- कभी ऐसी ही भावना उ कर देता और उनसे अ धक उनक ी के मन म। उनक ी बड़ी चतुर थी। वह इनको इन सब बात म ायः सलाह दया करती थी। उन लोग क भलू थी, जो कहते थे क मशंु ीजी क जीभ पर सर ती बराजती है। वह गणु तो उनक ी को ा था। बोलने म वह इतनी ही तजे थी, जतना मशंु ी लखने म थे। और यह दोन ी- पु ष ायः अपनी अवश दशा म सलाह करते क अब ा करना चा हए। आधी रात का समय था। मुंशीजी न नयम के अनसु ार अपनी चता र करने के लए शराब के दो-चार घटँू पीकर सो गए थ।े यकायक मगूँ ा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से हाँक लगाई,\"तरे ा ल पीऊँ गी\" और खबू खल खलाकर हँसी। मशंु ीजी यह भयावना र सुनकर च क पड़े। डर के मारे परै थर-थर काँपने लगे। कलेजा धक् -धक् करने लगा। दल पर ब त जोर डालकर उ ने दरवाजा खोला, जाकर ना गन को जगाया। ना गन ने झझुँ लाकर कहा, \" ा कहते हो?\" मुशं ीजी ने दबी आवाज म कहा,\"वह दरवाजे पर आकर खड़ी है।\" ना गन उठ बैठी,\" ा कहती है?\" \"तु ारा सर।\" \" ा दरवाजे पर आ गई?\" \"हाँ, आवाज नह सनु ती हो।\" ना गन मूगँ ा से नह , परंतु उसके ान से ब त डरती थी, तो भी उसे व ास था क म बोलने म उसे ज र नीचा दखा सकती ँ। सभँ लकर बोली, \"कहो तो म उससे दो-दो बात कर ल।ूँ \" परंतु मुशं ीजी ने मना कर दया। दोन आदमी परै दबाए ए ोढ़ी म गए और दरवाजे से झाँककर देखा, मगँू ा क धँुधली
मूरत धरती पर पड़ी थी और उसक सासँ तजे ी से चलती सुनाई देती थी। रामसवे क के ल और मासं क भूख से वह अपना ल और मांस सुखा चुक थी। एक ब ा भी उसे गरा सकता था, परंतु उससे सारा गाँव थर-थर कापँ ता। हम जीते मनु से नह डरते, पर मुरदे से डरते ह। रात गुजरी। दरवाजा बदं था, पर मुशं ीजी और ना गन ने बठै कर रात काटी। मगूँ ा भीतर नह घुस सकती थी, पर उसक आवाज को कौन रोक सकता था। मँूगा से अ धक डरावनी उसक आवाज थी। भोर को मुंशीजी बाहर नकले और मगूँ ा से बोल,े \"यहाँ पड़ी है?\" मँगू ा बोली,\"तरे ा ल पीऊँ गी।\" ना गन ने बल खाकर कहा,\"तेरा मुहँ झलु स ँगी।\" पर ना गन के वष ने मगूँ ा पर कु छ असर न कया। उसने जोर से ठहाका लगाया, ना गन ख सयानी सी हो गई। हँसी के सामने मँहु बंद हो जाता है। मुंशीजी फर बोल,े \"यहाँ से उठ जा।\" \"न उठूँगी।\" \"कब तक पड़ी रहेगी?\" \"तरे ा ल पीकर जाऊँ गी।\" मुशं ीजी क खर लेखनी का यहाँ कु छ जोर न चला और ना गन क आग भरी बात यहाँ सद हो ग । दोन घर म जाकर सलाह करने लग,े यह बला कै से टलगे ी, इस आप से कै से छु टकारा होगा? देवी आती है तो बकरे का खून पीकर चली जाती है, पर यह डायन मनु का खून पीने आई है। वह खून, जसक अगर एक बदँू भी कलम बनाने के समय नकल पड़ती थी तो अठवार और महीन सारे कु नबे को अफसोस रहता, और यह घटना गावँ म घर-घर फै ल जाती थी। ा यही ल पीकर मगूँ ा का सूखा शरीर हरा हो जाएगा। गाँव म यह चचा फै ल गई, मूगँ ा मशंु ीजी के दरवाजे पर धरना दए बठै ी है। मंशु ीजी के अपमान म गावँ वाल को बड़ा मजा आता था। देखते-देखते सकै ड़ आद मय क भीड़ लग गई। इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड़ रामगुलाम को पसदं न थी। मूँगा पर उसे ऐसा ोध आ रहा था क य द उसका बस चलता तो वह उसे कु एँ म धके ल देता। इस तरह का वचार उठते ही रामगलु ाम के मन म गदु गुदी समा गई और वह बड़ी क ठनता से अपनी हँसी रोक सका। अहा! वह कु एँ म गरती तो ा मजे क बात होती। परंतु यह चडु ै़ल यहाँ से टलती ही नह , ा क ँ ? मुंशीजी के घर म एक गाय थी, जसे खली, दाना और भसू ा तो खूब खलाया जाता, पर वह सब उसक ह य म मल जाता, उसका ढाँचा पु हो जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हाँड़ी म घोला और
सबका सब बेचारी मूँगा पर उड़ेल दया। उसके थोड़े-ब त छ टे दशक पर भी डाल दए। बचे ारी मूगँ ा लदफद हो गई और लोग भाग खड़े ए। कहने लग,े यह मुंशी रामगलु ाम का दरवाजा है। यहाँ इसी कार का श ाचार कया जाता है। ज भाग चलो, नह तो अबके इससे भी बढ़कर खा तर क जाएगी। इधर भीड़ कम ई, उधर रामगुलाम घर म जाकर खबू हँसा और ता लयाँ बजा । मुंशीजी ने थ क भीड़ को ऐसे सहज म और ऐसे सदुं र प से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के क पीठ ठ क । सब लोग तो चंपत हो गए, पर बेचारी मूगँ ा क बैठी रह गई। दोपहर ई। मँगू ा ने कु छ नह खाया। साँझ ई, हजार कहन-े सनु ने से भी उसने खाना नह खाया। गावँ के चौधरी ने बड़ी खुशामद क । यहाँ तक क मशंु ीजी ने हाथ तक जोड़े, पर देवी स न ई। नदान, मंशु ीजी उठकर भीतर चले गए। वह कहते थे क ठने वाले को भखू आप ही मना लया करती है। मँूगा ने यह रात भी बना दाना-पानी के काट दी। लालाजी और ललाइन ने आज फर जाग-जागकर भोर कया। आज मूगँ ा क गरज और हँसी ब त कम सनु ाई पड़ती थी। घरवाल ने समझा, बला टली। सवेरा होते ही जो दरवाजा खोलकर देखा तो वह अचते पड़ी थी, मुँह पर म याँ भन भना रही ह और उसके ाणपखे उड़ चकु े ह। वह इस दरवाजे पर मरने ही आई थी। जसने उसके जीवन क जमा-पजूँ ी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी स प दी, अपने शरीर क म ी तक उसक भट कर दी। धन से मनु को कतना मे होता है। धन अपनी जान से भी ारा होता है। वशषे कर बुढ़ापे म ण चकु ाने के बाद दन - पास आते जाते ह, - उसका ाज बढ़ता जाता है। यह कहना यहाँ थ है क गाँव म इस घटना से कै सी हलचल मची और मंशु ी रामसवे क कै से अपमा नत ए! एक छोटे से गाँव म ऐसी असाधारण घटना होने पर जतनी हलचल हो सकती, उससे अ धक ही ई। मंशु ीजी का अपमान जतना होना चा हए था, उससे बाल बराबर भी कम न आ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया। अब गाँव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने या उ छू ने का रवादार न था। य द कसी घर म कोई गाय खूटँ े पर मर जाती है तो वह आदमी महीन ार- ार भीख मागँ ता फरता है। न नाई उसक हजामत बनाए, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छू ए, यह गो-ह ा का ाय है। ह ा का दंड तो इससे भी कड़ा है और इसम अपमान भी ब त है। मूगँ ा यह जानती थी और इसी लए इस दरवाजे पर आकर मरी थी। वह जानती थी क म जीते जी जो कु छ नह कर सकती, मरकर ब त कु छ कर सकती ँ। गोबर का उपला जब जलकर खाक हो जाता है, तब साधु-संत उसे माथे पर चढ़ाते ह। प र का ढेला आग म जलकर आग से अ धक तीखा और मारक हो जाता है। मंुशी रामसेवक कानूनदां थे। काननू ने उन पर कोई दोष नह लगाया था। मगँू ा कसी काननू ी दफा के अनसु ार न मरी थी। ताजीरात-े हद म उसका कोई उदाहरण नह मलता था, इस लए जो लोग उनसे ाय करवाना चाहते थे, उनक भारी भूल थी। कु छ हज नह , कहार पानी न भरे न सही, वह आप पानी भर लगे। अपना काम करने म भला लाज
ही ा? बला से नाई बाल न बनाएगा। हजामत बनाने का काम ही ा है? दाढ़ी ब त सुंदर व ु है। दाढ़ी मद क शोभा और सगार है। और जो फर बाल से ऐसी घन होगी तो एक-एक आने म अ रु े मलते ह। धोबी कपड़ा न धोवेगा, इसक भी कु छ परवाह नह । साबनु तो गली-गली कौ ड़य के मोल आता है। एक ब ी साबुन म दजन कपड़े ऐसे साफ हो जाते ह, जसै े बगलु े के पर। धोबी ा खाकर ऐसा साफ कपड़ा धोवगे ा? प र पर पटक-पटककर कपड़ का ल ा नकाल लते ा है। आप पहन,े सरे को भाड़े पर पहनाए, भ ी म चढ़ावे, रेह म भगाव,े कपड़ क तो गत कर डालता है। तभी तो कु रते दो-तीन साल से अ धक नह चलत।े नह तो दादा हर पाचँ व बरस दो अचकन और दो कु रते बनवाया करते थे। मुंशी रामसवे क और उनक ी ने दन भर तो य ही कहकर अपने मन को समझाया। साझँ होते ही तकनाएँ श थल हो ग । अब उनके मन पर भय ने चढ़ाई क । जसै े-जसै े रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था। बाहर का दरवाजा भूल से खुला रह गया था, पर कसी क ह त न पड़ती थी क जाकर बदं कर आए। नदान, ना गन ने हाथ म दीया लया, मशंु ीजी ने कु ाड़ा, रामगलु ाम ने गड़ँ ासा, इस ढंग से तीन च कत-े हचकते दरवाजे पर आए। यहाँ मुशं ीजी ने बड़ी बहा री से काम लया। उ ने नधड़क दरवाजे से बाहर नकलने क को शश क । काँपते ए, पर ऊँ ची आवाज म ना गन से बोल,े \"तमु थ डरती हो, वह ा यहाँ बैठी है?\" पर उनक ारी ना गन ने उ ख च लया और झँुझलाकर बोली,\"तु ारा यही लड़कपन तो अ ा नह ।\" यह दंगल जीतकर तीन आदमी रसोई के कमरे म आए और खाना पकने लगा। मूगँ ा उनक आँख म घुसी ई थी। अपनी परछा को देखकर मगूँ ा का भय होता था। अँधेरे कोन म बठै ी मालूम होती थी। वही ह य का ढाचँ ा, वही बखरे बाल, वही पागलपन, वही डरावनी आँख, मँगू ा का नख- शख दखाई देता था। इसी कोठरी म आटे- दाल के मटके रखे ए थे, वह कु छ पुराने चथड़े भी पड़े ए थे। एक चहू े को भूख ने बचे नै कया (मटक ने कभी अनाज क सरू त नह देखी थी, पर सारे गाँव म मश र था क इस घर के चूहे गजब के डाकू ह) तो वह उन दोन क खोज म जो मटक से कभी नह गरे थ,े रगता आ इस चथड़े के नीचे आ नकला। कपड़े म खड़खड़ाहट ई। फै ले ए चथड़े मूँगा क पतली टागँ बन ग , ना गन देखकर झझक और चीख उठी। मुंशीजी बदहवास होकर दरवाजे क ओर लपके , रामगलु ाम दौड़कर इनक टागँ से लपट गया। चूहा बाहर नकल आया। उसे देखकर इन लोग के होश ठकाने ए। अब मंुशीजी साहस करके मटके क ओर चल।े ना गन ने कहा,\"रहने भी दो, देख ली तु ारी मरदानगी।\" मुशं ीजी अपनी या ना गन के इस अनादर पर ब त बगड़े,\" ा तमु समझती हो, म डर गया? भला डर क ा बात थी। मूँगा मर गई। ा वह बैठी है? म कल नह दरवाजे के बाहर नकल गया था-तमु रोकती रह , म न माना।\" मंशु ीजी क इस दलील ने ना गन को न र कर दया। कल दरवाजे के बाहर नकल जाना या नकलने क को शश करना साधारण काम न था। जसके साहस का ऐसा माण मल चुका है, उसे डरपोक कौन कह सकता है? यह ना गन क हठधम थी। खाना खाकर तीन आदमी सोने के कमरे म आए,
परंतु मगँू ा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा। वे बात करते थ,े दल बहलाते थे। ना गन ने राजा हरदौल और रानी सारंधा क कहा नयाँ कह । मशुं ीजी ने फौजदारी के कई मुकदम का हाल कह सुनाया। परंतु इन उपाय से भी मँगू ा क मू त उनक आँख के सामने से न हटती थी। जरा भी खटखटाहट होती क तीन च क पड़ते। इधर प य म सनसनाहट ई क उधर तीन के र गटे खड़े हो गए! रह-रहकर धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके कान म आती थी, ‘तरे ा ल पीऊँ गी।’ आधी रात को ना गन न द से च क पड़ी। वह इन दन गभवती थी। लाल-लाल आँख वाली, तजे और नोक ले दातँ वाली मगूँ ा उसक छाती पर बैठी ई जान पड़ती थी। ना गन चीख उठी। बावली क तरह आँगन म भाग आई और यकायक धरती पर च गर पड़ी। सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुशं ीजी भी उसक चीख सुनकर च के , पर डर के मारे आँख न खुल । अंध क तरह दरवाजा टटोलते रहे। ब त देर के बाद उ दरवाजा मला। आँगन म आए। ना गन जमीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाए, पर रात भर उसने आँख न खोल । भोर को अक-बक बकने लगी। थोड़ी देर बाद र हो आया। बदन लाल तवा सा हो गया। साँझ होते-होते उसे स पात हो गया और आधी रात के समय जब ससं ार म स ाटा छाया आ था, ना गन इस संसार से चल बसी। मँगू ा के डर ने उसक जान ले ली। जब तक मूँगा जीती रही, वह ना गन क फु फकार से सदा डरती रही। पगली होने पर भी उसने कभी ना गन का सामना नह कया, पर अपनी जान देकर उसने आज ना गन क जान ली। भय म बड़ी श है। मनु हवा म एक गरह भी नह लगा सकता, पर इसने हवा म एक ससं ार रच डाला है। रात बीत गई। दन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी ना गन क लाश उठाने को आता न दखाई दया। मुशं ीजी घर-घर घूमे, पर कोई न नकला। भला ह ारे के दरवाजे पर कौन जाए? ह ारे क लाश कौन उठाव?े इस समय मशुं ीजी का रोब-दाब, उनक बल लेखनी का भय और उनक काननू ी तभा एक भी काम न आई। चार ओर से हारकर मुंशीजी फर घर आए। यहाँ उ अंधकार-ही-अंधकार दीखता था। दरवाजे तक तो आए पर भीतर परै नह रखा जाता था, न बाहर ही खड़े रह सकते थे। बाहर मूँगा थी, भीतर ना गन। जी को कड़ा करके हनमु ान चालीसा का पाठ करते ए घर म घसु ।े उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे, उसका अनुमान करना क ठन है। घर म लाश पड़ी ई, न कोई आग,े न पीछे। सरा ाह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन म तो पचासवाँ लगा है, पर ऐसी सयु ो और मीठी बोल वाली ी कहाँ मलेगी? अफसोस! अब तगादा करने वाल से बहस कौन करेगा, कौन उ न र करेगा? कसक कड़ी आवाज तीर क तरह तगादेदार क छाती म चभु गे ी? यह नुकसान अब पूरा नह हो सकता। सरे दन मशंु ीजी लाश को ठेलेगाड़ी पर लादकर गगं ाजी क तरफ चल।े शव के साथ जाने वाल क सं ा कु छ भी न थी। एक यं मंशु ीजी, सरे उनके पु र रामगुलामजी! इस बेइ ती से मँूगा क लाश भी न उठी थी। मूगँ ा ने ना गन क जान लके र भी मशुं ीजी का पड न छोड़ा। उनके मन म हर घड़ी मगँू ा क मू त वराजमान रहती
थी। कह रहते, उनका ान इसी ओर रहा करता था। य द दल-बहलाव का कोई उपाय होता तो शायद वह इतने बचे ैन न होते, पर गाँव का एक पतु ला भी उनके दरवाजे क ओर न झाकँ ता। बचे ारे अपने हाथ पानी भरते, आप ही बरतन धोत।े सोच और ोध, चता और भय, इतने श ओु ं के सामने एक दमाग कब तक ठहर सकता था। वशषे कर वह दमाग, जो रोज काननू क बहस म खच हो जाता था। अके ले कै दी क तरह उनके दस-बारह दन तो - कर कटे। चौदहव दन मुशं ीजी ने कपड़े बदले और बो रया-ब ा लये ए कचहरी चल।े आज उनका चहे रा कु छ खला आ था। जाते ही मरे े मवु ल मुझे घेर लगे, मरे ी मातमपरु सी करगे। म आँसओु ं क दो-चार बदँू गरा ँगा, फर बैनाम , रेहननाम और सुलहनाम क भरमार हो जाएगी। मु ी गरम होगी, शाम को जरा नश-े पानी का रंग जम जाएगा, जसके छू ट जाने से जी और भी उचट रहा था। इ वचार म म मशंु ीजी कचहरी प ँचे। पर वहाँ रेहननाम क भरमार और बैनाम क बाढ़ और मवु ल क चहल-पहल के बदले नराशा क रेतीली भू म नजर आई। ब ा खोले घटं बठै े रहे, पर कोई नजदीक भी न आया। कसी ने इतना भी न पूछा क आप कै से ह? नए मवु ल तो खरै , बड़े-बड़े पुराने मवु ल जनका मशुं ीजी से कई पी ढ़य से सरोकार था, आज उनसे महँु छपाने लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जसक मुशं ीजी हँसी उड़ाते थे और जसे शु लखना भी न आता था, आज गो पय का क ैया बना आ था। वाह रे भा ! मुव ल य मुँह फे रे चले जाते ह मानो कसी क जान-पहचान ही नह । दन भर कचहरी क खाक छानने के बाद मुशं ीजी घर चले, नराशा और चता म डू बे ए। - घर के नकट आते थे, मगूँ ा का च सामने आता जाता था। यहाँ तक क जब घर का ार खोला और दो कु े, ज रामगलु ाम ने बदं कर रखा था, झपटकर बाहर नकले तो मशुं ीजी के होश उड़ गए, एक चीख मारकर जमीन पर गर पड़े। मनु के मन और म पर भय का जतना भाव होता है, उतना और कसी श का नह । ेम, चता, हा न यह सब मन को अव खत करते ह, पर यह हवा के हलके झ के ह और भय चंड आँधी है। मंशु ीजी पर इसके बाद ा बीती, मालूम नह । कई दन तक लोग ने उ कचहरी जाते और वहाँ से मुरझाए ए लौटते देखा। कचहरी जाना उनका कत था और य प वहाँ मवु ल का अकाल था, तो भी तगादेवाल से गला छु ड़ाने और उनको भरोसा दलाने के लए अब यही एक लटका रह गया था। इसके बाद कई महीने तक दखाई न पड़े, बदरीनाथ चले गए। एक दन गाँव म एक साधु आया। भभूत रमाए, लबं ी जटाएँ , हाथ म कमडं ल। उसका चेहरा मुंशी रामसेवक से ब त मलता- जुलता था। बोलचाल म भी अ धक भदे न था। वह एक पेड़ के नीचे धूनी रमाए बठै ा रहा। उसी रात को मशंु ी रामसेवक के घर से धुआँ उठा, फर आग क ाला दीखने लगी और आग भड़क उठी। गाँव के सैकड़ आदमी दौड़े, आग बुझाने के लए नह , तमाशा देखने के लए। एक गरीब क हाय म कतना भाव है! रामगलु ाम मंुशीजी के गायब हो जाने पर अपने मामा के यहाँ चला गया और वहाँ कु छ दन रहा, पर वहाँ उसक चाल-ढाल कसी
को पसंद न आई। एक दन उसने कसी के खेत म मूली नोची। उसने दो-चार धौल लगाए। उस पर वह इस कदर बगड़ा क जब उसके चने ख लहान म आए तो उसने आग लगा दी। सारा का सारा ख लहान जलकर खाक हो गया। हजार पय का नुकसान आ। पु लस ने तहक कात क , रामगलु ाम पकड़ा गया। इसी अपराध म वह चुनार के रफारमटे री ू ल म मौजदू है।
ज ब रयासत देवगढ़ के दीवान सरदार सजु ान सह बढू े़ ए तो परमा ा क याद आई। जाकर महाराज से वनय क ,\"दीनबंध!ु दास ने ीमान् क सवे ा चालीस साल तक क , अब मरे ी अव ा भी ढल गई, राज-काज सँभालने क श नह रही। कह भूल-चकू हो जाए तो बढ़ु ापे म दाग लग,े सारी जदगी क नेकनामी म ी म मल जाए।\" राजा साहब अपने अनभु वशील नी तकु शल दीवान का बड़ा आदर करते थे। ब त समझाया, ले कन जब दीवान साहब ने न माना तो हारकर उसक ाथना ीकार कर ली; पर शत यह लगा दी क रयायत के लए नया दीवान आप ही को खोजना पड़ेगा। सरे दन देश के स प म यह व ापन नकला,\"देवगढ़ के लए एक सुयो दीवान क ज रत है। जो स न अपने को इस पद के यो समझ, वे वतमान सरदार सजु ान सह क सवे ा म उप त ह । यह ज रत नह है क वे ेजुएट ह , मगर दय पु होना आव क है, मदं ा के मरीज को यहाँ तक क उठाने क कोई ज रत नह । एक महीने तक उ ीदवार के सहन-सहन, आचार- वचार क देखभाल क जाएगी। व ा का कम, परंतु कत का अ धक वचार कया जाएगा। जो महाशय इस परी ा म पूरे उतरग,े वे इस उ पद पर सशु ो भत ह गे।\" इस व ापन ने सारे मु म तहलका मचा दया। ऐसा ऊँ चा पद और कसी कार क कै द नह ? के वल नसीब का खेल है। सैकड़ आदमी अपना-अपना भा परखने के लए चल खड़े ए। देवगढ़ म नए-नए और रंग- बरंग के मनु दखाई देने लगे। के रेलगाड़ी से उ ीदवार का एक मेला सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई म ास से, कोई नए फै शन का ेम, कोई परु ानी सादगी पर मटा आ। पं डत और मौल वय को भी अपने-अपने भा क परी ा करने का अवसर मला। बचे ारे सनद के नाम रोया करते थ,े यहाँ उसक कोई ज रत नह थी। रंगीन एमाम,े चोगे और नाना कार के अँगरखे और कनटोप देवगढ़ म अपनी सज-धज दखाने लग।े ले कन सबसे वशेष सं ा जे ुएट क थी, क सनद क कै द न होने पर भी सनद तो ढका रहता है।
सरदार सजु ान सह ने इन महानुभाव के आदर-स ार का बड़ा अ ा बंध कर दया था। लोग अपन-े अपने कमर म बैठे ए रोजेदार मुसलमान क तरह महीने के दन गना करते थे। हर एक मनु अपने जीवन को अपनी बु के अनुसार अ े प म दखाने क को शश करता था। म र ‘अ’ नौ बजे दन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे म टहलते ए ऊषा का दशन करते थ।े म र ‘ब’ को ा पीने क लत थी, आजकल ब त रात गए कवाड़ बदं करके अँधेरे म सगार पीते थे। म र ‘द’, ‘स’ और ‘ज’ से उनके घर पर नौकर क नाक म दम था, ले कन ये स न आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकर से बातचीत नह करते थ।े महाशय ‘क’ ना क थे, ह ले के उपासक, मगर आजकल उनक धम न ा देखकर मं दर के पुजारी को पद तु हो जाने क शंका लगी रहती थी! म र ‘ल’ को कताब से घृणा थी, परंतु आजकल वे बड़े-बड़े थं देखने-पढ़ने म डू बे रहते थ।े जससे बात क जए, वह न ता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। शमाजी घड़ी रात से ही वदे -मं पढ़ने म लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सवा और कोई काम न था। लोग समझते थे क एक महीने का झंझट है, कसी तरह काट ल, कह काय स हो गया तो कौन पूछता है। ले कन मनु का वह बढ़ू ा जौहरी आड़ म बैठा आ देख रहा था क इन बगुल म हंस कहाँ छपा आ है। एक दन नए फै शन वाल को सझू ी क आपस म हॉक का खले हो जाए। यह ाव हॉक के मजँ े ए खला ड़य ने पेश कया। यह भी तो आ खर एक व ा है, इसे छपाकर रख? सभं व है क कु छ हाथ क सफाई ही काम कर जाए। च लए तय हो गया, फ बन गई, खेल शु हो गया और गद कसी द र के अ टस क तरह ठोकर खाने लगी। रयासत देवगढ़ म यह खले बलकु ल नराली बात थी। पढ़े- लखे भलमे ानसु लोग शतरंज और ताश जसै े गभं ीर खले खेलते थे। दौड़-कू द के खेल ब के खेल समझे जाते थे। खेल बड़े उ ाह से जारी था। धावे के लोग जब गद को लये तेजी से उड़ते तो ऐसा जान पड़ता था क कोई लहर बढ़ती चली आती है। ले कन सरी ओर के खलाड़ी इस बढ़ती ई लहर को इस तरह रोक लते े थे क मानो लोहे क दीवार है। सं ा तक यही धमू धाम रही। लोग पसीने से तर हो गए। खनू क गरमी आँख और चहे रे से झलक रही थी। हाफँ ते-हाँफते बदे म हो गए, ले कन हार-जीत का नणय न हो सका। अँधरे ा हो गया था। इस मदै ान से जरा र हटकर एक नाला था। उस पर कोई पलु न था। प थक को नाले म से चलकर आना पड़ता था। खले अभी बदं ही आ था और खलाड़ी लोग बैठे दम ले रहे थे क एक कसान अनाज से भरी ई गाड़ी लये ए उस नाले म
आया। ले कन कु छ तो नाले म क चड़ था और कु छ उसक चढ़ाई इतनी ऊँ ची थी क गाड़ी ऊपर न चढ़ सकती थी। वह कभी बलै को ललकारता, कभी प हय को हाथ से ढके लता, ले कन बोझ अ धक था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर को न चढ़ती और चढ़ती भी तो कु छ र चढ़कर फर खसककर नीचे प ँच जाती। कसान बार-बार जोर लगाता और बार-बार झझँु लाकर बलै को मारता, ले कन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा इधर-उधर नराश होकर ताकता, मगर वहाँ कोई सहायक नजर न आता। गाड़ी को अके ले छोड़कर कह जा भी नह सकता। बड़ी आप म फँ सा आ था। इसी बीच म खलाड़ी हाथ म डंडे लये घमू त-े घामते उधर से नकले। कसान ने उनक तरफ सहमी ई आँख से देखा; परंतु कसी से मदद माँगने का साहस न आ। खला ड़य ने भी उसको देखा, मगर बदं आँख स,े जनम सहानुभू त न थी। उनम ाथ था, मद था, मगर उदारता और वा का नाम भी न था। ले कन उसी समहू म एक ऐसा मनु था, जसके दय म दया थी और साहस था। आज हॉक खेलते ए उसके पैर म चोट लग गई थी। वह लँगड़ाता आ धीरे-धीरे चला आता था। अक ात् उसक नगाह गाड़ी पर पड़ी। वह ठठक गया। उसे कसान क सूरत देखते ही सब बात ात हो ग । उसने डंडा एक कनारे रख दया, कोट उतार डाला और कसान के पास जाकर बोला,\"म तु ारी गाड़ी नकाल ँ?\"
कसान ने देखा, एक गठे ए बदन का आदमी सामने खड़ा है। झकु कर बोला,\" जूर, म आपसे कै से क ँ?\" यवु क ने कहा,\"मालमू है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँ से हो। अ ा, तमु गाड़ी पर जाकर बैल को साधो, म प हय को ढके लता ँ, अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है।\" कसान गाड़ी पर जा बैठा। यवु क ने प हए को जोर लगाकर उकसाया। क चड़ ब त ादा था। वह घुटने तक जमीन म गड़ गया, ले कन ह त न हारी। उसने फर जोर कया, उधर कसान ने बैल को ललकारा। बैल को सहारा मला, ह त बधँ गई, उ ने कं धे झकु ाकर एक बार जोर कया तो गाड़ी नाले के ऊपर थी। कसान युवक के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला,\"महाराज, आपने मुझे उबार लया, नह तो सारी रात मुझे यहाँ बठै ना पड़ता।\" युवक ने हँसकर कहा,\"अब मुझे कु छ ईनाम देते हो?\" कसान ने गंभीर भाव से कहा,\"नारायण चाहगे तो दीवानी आपको ही मलेगी।\" यवु क ने कसान क तरफ गौर से देखा। उसके मन म एक संदेह आ, ा यह सजु ान सह तो नह है? आवाज मलती है, चेहरा-मोहरा भी वही। कसान ने भी उसक ओर ती से देखा। शायद उसके दल के संदेह को भाँप गया। मसु कराकर बोला,\"गहरे पानी म पैठने से ही मोती मलता है।\" नदान, महीना परू ा आ। चुनाव का दन आ प ँचा। उ ीदवार लोग ातःकाल ही से अपनी क त का फै सला सनु ने के लए उ कु थे। दन काटना पहाड़ हो गया। के के चेहरे पर आशा और नराशा के रंग आते थ।े नह मालमू , आज कसके नसीब जागग!े न जाने कस पर ल ी क कृ पा होगी। सं ा समय राजा साहब का दरबार सजाया गया। शहर के रईस और धना लोग, रा के कमचारी और दरबारी तथा दीवानी के उ ीदवार का समहू , सब रंग- बरंगी सज-धज बनाए दरबार म आ बराजे! उ ीदवार के कलजे े धड़क रहे थे। जब सरदार सुजान सह ने खड़े होकर कहा,\"मेरे दीवान के उ ीदवार महाशयो! मने आप लोग को जो क दया है, उसके लए मुझे मा क जए। इस पद के लए ऐसे पु ष क आव कता थी, जसके दय म दया हो और साथ-साथ आ बल। दय, वह जो उदार हो, आ बल वह, जो आप का वीरता के साथ सामना करे और इस रयासत के सौभा से हम ऐसा पु ष मल गया। ऐसे गुण वाले ससं ार म कम ह और जो ह, वे क त और मान के शखर पर बैठे ए ह, उन तक हमारी प ँच नह । म रयासत को पं डत जानक नाथ सा दीवान पाने पर बधाई देता ँ।\" रयासत के कमचा रय और रईस ने जानक नाथ क तरफ देखा। उ ीदवार दल क आँख उधर उठ , मगर उन आँख म स ार था, इन आँख म ई ा।
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