य क कर उसने एक पासलग चारपाई पर रख हदया। दरबारीलाल का नाम सनु ते ी अम्बा की आिंखे सजल ो गयी।ंि व लपकी ुयी आयी और पासलग स्मनृ तयांि जीववत ो गयीिं, ह्रदय मंे जारीलाल के प्रनत श्रद्धा का एक उद्गार-सा उठ पडा। आ ! य उसी देवात्मा के आत्मबमलदान का पुनीत फल ै कक मझु े य हदन देखना नसीब ुआ। ईश्वर उन् े सद्गनत दंे। व आदमी न ींि, देवता थे, ज्जसने अपने कल्याण के ननममत्त अपने प्राण तक समपणग कर हदए। पनत ने पछू ा--दरबारी लाल तमु ् ारी चचा ैं। अम्बा-- ा।ँा पनत--इस पत्र में जारीलाल का नाम मलखा ै, य कौन ै? अम्बा--य मंशुि ी दरबारी लाल के बेटे ंै। पनत--तुम् ारे चचरे भाई? अम्बा--न ीिं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जीवनदाता, मझु े अथा जल मंे डु बने से बचाने वाले, मझु े सौभाग्य का वरदान देने वाले। पनत ने इस भाव क ा मानो कोई भलू ी ुई बात याद आ गई ो--आ ! मंै समझ गया। वास्तव में व मनुष्य न ीिं देवता थ।े ***
ननिासग न परशुराम –व ींि—व ीिं दालान में ठ रो! मयादग ा—क्यों, क्या मझु मंे कु छ छू त लग गई! परशुराम—प ले य बताओंि तुम इतने हदनों से क ािं र ीिं, ककसके साथ र ींि, ककस तर र ींि और कफर य ांि ककसके साथ आयींि? तब, तब ववचार...देखी जाएगी। मयादग ा—क्या इन बातों को पछू ने का य ी वक्त ै; कफर अवसर न ममलेगा? परशुराम— ािं, य ी बात ै। तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ी ननकली थीं।ि मेरे पीछे -पीछे कु छ देर तक आयींि भी; मै पीछे कफर-कफर कर तुम् ंे देखता जाता था,कफर एकाएक तमु क ांि गायब ो गयींि? मयादग ा – तमु ने देखा न ींि, नागा सािओु िं का एक दल सामने से आ गया। सब आदमी इिर-उिर दौडने लगे। मै भी िक्के में पडकर जाने ककिर चली गई। जरा भीड कम ुई तो तुम् ंे ढूंिढ़ने लगी। बासू का नाम ले-ले कर पकु ारने लगी, पर तुम न हदखाई हदये। परशुराम – अच्छा तब? मयागदा—तब मै एक ककनारे बैठकर रोने लगी, कु छ सझू ी न पडता कक क ािं जाऊिं , ककससे क ूिं, आदममयों से डर लगता था। सिंध्या तक व ींि बैठी रोती र ी।ैै परशुराम—इतना तूल क्यों देती ो? व ांि से कफर क ांि गयीिं? मयागदा—सधिं ्या को एक युवक ने आ कर मुझसे पछू ा, तमु ् ारेक घर के लोग क ीिं खो तो न ींि गए ै? मैने क ा— ा।ंि तब उसने तुम् ारा नाम, पता, हठकाना पूछा।
उसने सब एक ककताब पर मलख मलया और मुझसे बोला—मेरे साथ आओ, मै तमु ् ें तमु ् ारे घर भेज दिंगू ा। परशुराम—व आदमी कौन था? मयादग ा—व ािं की सेवा-सममनत का स्वयिंसेवक था। परशुराम –तो तुम उसके साथ ो ली?िं मयादग ा—और क्या करती? व मुझे सममनत के कायलग य में ले गया। व ािं एक शाममयाने में एक लम्बी दाढ़ीवाला मनुष्य बैठा ुआ कु छ मलख र ा था। व ी उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी ककतने ी सेवक व ांि खडे थ।े उसने मेरा पता-हठकाना रज्जस्टर में मलखकर मुझे एक अलग शाममयाने में भेज हदया, ज ािं और भी ककतनी खोयी ुई ज्स्त्रयों बैठी ुई थीं।ि परशुराम—तुमने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न क ा कक मझु े प ुिंचा दीज्जए? मयागदा—मैने एक बार न ींि सैकडो बार क ा; लेककन व य क ते र े, जब तक मेला न खत्म ो जाए और सब खोयी ुई ज्स्त्रयािं एकत्र न ो जाएंि, मंै भेजने का प्रबन्ि न ींि कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी ंै, न इतना िन? परशुराम—िन की तमु ् े क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच देती तो काफी रूपए ममल जात।े मयादग ा—आदमी तो न ीिं थे। परशुराम—तमु ने य क ा था कक खचग की कु छ धचन्ता न कीज्जए, मैं अपने ग ने बेचकर अदा कर दंिगू ी?
मयादग ा—सब ज्स्त्रयािं क ने लगीिं, घबरायी क्यों जाती ो? य ािं ककस बात का डर ै। म सभी जल्द अपने घर प ुंिचना चा ती ै; मगर क्या करें? तब मंै भी चपु ो र ी। परशुराम – और सब ज्स्त्रयािं कु एंि में धगर पडती तो तुम भी धगर पडती? मयागदा—जानती तो थी कक य लोग िमग के नाते मेरी रक्षा कर र े ंै, कु छ मेरे नौकरी या मजूर न ीिं ंै, कफर आग्र ककस मिुं से करती? य बात भी ै कक ब ुत-सी ज्स्त्रयों को व ांि देखकर मझु े कु छ तसल्ली ो गईग ् परशुराम— ांि, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात ो सकती थी? अच्छा, व ािं के हदन तस्कीन का आनन्द उठाती र ी? मेला तो दसू रे ी हदन उठ गया ोगा? मयादग ा—रात- भर मैं ज्स्त्रयों के साथ उसी शाममयाने में र ी। परशुराम—अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न हदलवा हदया? मयागदा—मनैं े समझा, जब य लोग प ुंिचाने की क ते ी ैं तो तार क्यों दिं?ू परशुराम—खरै , रात को तुम व ींि र ी। यवु क बार-बार भीतर आते र े ोंगे? मयागदा—के वल एक बार एक सेवक भोजन के मलए पछू ने आयास था, जब म सबों ने खाने से इन्कार कर हदया तो व चला गया और कफर कोई न आया। मैं रात-भर जगती र ी। परशुराम—य मंै कभी न मानंगूि ा कक इतने युवक व ांि थे और कोई अन्दर न गया ोगा। सममनत के युवक आकाश के देवता न ीिं ोत। खैर, व दाढ़ी वाला अध्यक्ष तो जरूर ी देखभाल करने गया ोगा? मयादग ा— ांि, व आते थ।े पर द्वार पर से पछू -पूछ कर लौट जाते थे। ांि, जब एक मह ला के पेट मंे ददग ोने लगा था तो दो-तीन बार दवाएिं वपलाने आए थ।े
परशुराम—ननकली न व ी बात! मै इन िूतों की नस-नस प चानता ूंि। ववशषे कर नतलक-मालािारी दहढ़यलों को मंै गरु ू घंटि ाल ी समझता ूंि। तो वे म ाशय कई बार दवाई देने गये? क्यों तमु ् ारे पेट में तो ददग न ींि ोने लगा था? मयागदा—तुम एक सािु पुरूष पर आक्षेप कर र े ो। व बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दसू रे आंिखे नीची ककए र ने के मसवाय कभी ककसी पर सीिी ननगा न ींि करते थ।े परशुराम— ांि, व ांि सब देवता ी देवता जमा थ।े खैर, तमु रात-भर व ांि र ीि।ं दसू रे हदन क्या ुआ? मयागदा—दसू रे हदन भी व ीिं र ी। एक स्वयसिं ेवक म सब ज्स्त्रयों को साथ मंे लेकर मुख्य-मखु ्य पववत्र स्थानो का दशनग कराने गया। दो प र को लौट कर सबों ने भोजन ककया। परशुराम—तो व ािं तुमने सरै -सपाटा भी खबू ककया, कोई कष्ट न ोने पाया। भोजन के बाद गाना-बजाना ुआ ोगा? मयादग ा—गाना बजाना तो न ींि, ांि, सब अपना-अपना दखु डा रोती र ींि, शाम तक मेला उठ गया तो दो सेवक म लोगों को ले कर स्टेशन पर आए। परशुराम—मगर तमु तो आज सातवंे हदन आ र ी ो और व भी अके ली? मयादग ा—स्टेशन पर एक दघु टग ना ो गयी। परशुराम— ांि, य तो मंै समझ ी र ा था। क्या दघु टग ना ुई?
मयागदा—जब सेवक हटकट लेने जा र ा था, तो एक आदमी ने आ कर उससे क ा—य ांि गोपीनाथ के िमशग ाला मंे एक आदमी ठ रे ुए ैं, उनकी स्त्री खो गयी ै, उनका भला-सास नाम ै, गोरे-गोरे लम्बे-से खबू सूरत आदमी ैं, लखनऊ मकान ै, झवाई टोले मंे। तुम् ारा ुमलया उसने कसा ठीकबयान ककया कक मुझे उसस पर ववश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबजू ी को जानते ो? व ंिसकर बोला, जानता न ीिं ूिं तो तमु ् ें तलाश क्यो करता कफरता ूंि। तुम् ारा बच्चा रो-रो कर लकान ो र ा ै। सब औरतंे क ने लगीिं, चली जाओिं, तमु ् ारे स्वामीजी घबरा र े ोंगे। स्वयिंसेवक ने उससे दो-चार बातंे पछू कर मुझे उसके साथ कर हदया। मझु े क्या मालमू था कक मंै ककसी नर- वपशाच के ाथों पडी जाती ूिं। हदल मंै खुशी थी ककअब बासू को देखिूगं ी तुम् ारे दशनग करूिं गी। शायद इसी उत्सकु ता ने मझु े असाविान कर हदया। परशुराम—तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? व कौन था? मयादग ा—क्या बतलाऊिं कौन था? मैं तो समझती ूंि, कोई दलाल था? परशुराम—तुम् े य न सझू ी कक उससे क तीिं, जा कर बाबू जी को भेज दो? मयादग ा—अहदन आते ैं तो बवु द्ध भ्रष्ट ो जाती ै। परशुराम—कोई आ र ा ै। मयागदा—मंै गुसलखाने में नछपी जाती ूंि। परशुराम –आओ भाभी, क्या अभी सोयी न ीिं, दस तो बज गए ोंगे। भाभी—वासदु ेव को देखने को जी चा ता था भयै ा, क्या सो गया? परशुराम— ांि, व तो अभी रोत-े रोते सो गया।
भाभी—कु छ मयागदा का पता ममला? अब पता ममले तो भी तमु ् ारे ककस काम की। घर से ननकली ज्स्त्रयांि थान से छू टी ुई घोडी ंै। ज्जसका कु छ भरोसा न ी।ंि परशुराम—क ांि से क ांि लेकर मैं उसे न ाने लगा। भाभी— ोन ार ैं, भैया ोन ार। अच्छा, तो मै जाती ूिं। मयादग ा—(बा र आकर) ोन ार न ीिं ूंि, तमु ् ारी चाल ै। वासदु ेव को प्यार करने के ब ाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चा ती ो। परशुराम –बको मत! व दलाल तमु ् ें क ांि ले गया। मयादग ा—स्वामी, य न पनू छए, मुझे क ते लजज आती ै। परशुराम—य ांि आते तो और भी लजज आनी चाह ए थी। मयादग ा—मै परमात्मा को साक्षी देती ूंि, कक मनैं े उसे अपना अंिग भी स्पशग न ीिं करने हदया। पराशुराम—उसका ुमलया बयान कर सकती ो। मयागदा—सािंवला सा छोटे डील डौल काआदमी था।नीचा कु रता प ने ुए था। परशुराम—गले मंे ताबीज भी थी? मयागदा— ांि,थी तो। परशुराम—व िमशग ाले का मे तर था।मैने उसे तमु ् ारे गुम ो जाने की चचाग की थी। व उस दषु ्ट ने उसका व स्वागंि रचा।
मयागदा—मुझे तो व कोई ब्रह्मण मालूम ोता था। परशुराम—न ीिं मे तर था। व तुम् ंे अपने घर ले गया? मयादग ा— ांि, उसने मझु े तािगं े पर बठै ाया और एक तंिग गली मंे, एक छोटे- से मकान के अन्दर ले जाकर बोला, तुम य ीिं बठै ो, ममु ् ारें बाबूजी य ींि आयगें े। अब मझु े ववहदत ुआ कक मझु े िोखा हदया गया। रोने लगी। व आदमी थोडी देर बाद चला गया और एक बुहढया आ कर मझु े भािंनत-भािंनत के प्रलोभन देने लगी। सारी रात रो-रोकर काटी दसू रे हदन दोनों कफर मुझे समझाने लगे कक रो-रो कर जान दे दोगी, मगर य ािं कोई तुम् ारी मदद को न आयेगा। तमु ् ाराएक घर डू ट गया। म तुम् े उससे क ींि अच्छा घर देंगंे ज ािं तुम सोने के कौर खाओगी और सोने से लद जाओगी। लब मैने देखा ककक य ांि से ककसी तर न ींि ननकल सकती तो मैने कौशल करने का ननश्चय ककया। परशुराम—खरै , सुन चुका। मैं तुम् ारा ी क ना मान लेता ूिं कक तमु ने अपने सतीत्व की रक्षा की, पर मेरा हृदय तुमसे घणृ ा करता ै, तुम मेरे मलए कफर व न ींि ननकल सकती जो प ले थींि। इस घर में तमु ् ारे मलए स्थान न ींि ै। मयागदा—स्वामी जी, य अन्याय न कीज्जए, मंै आपकी व ी स्त्री ूिं जो प ले थी। सोधचए मेरी दशा क्या ोगी? परशुराम—मै य सब सोच चुका और ननश्चय कर चुका। आज छ: हदन से य सोच र ा ूंि। तमु जानती ो कक मुझे समाज का भय न ी।िं छू त-ववचार को मनंै े प ले ी नतलािंजली दे दी, देवी-देवताओंि को प ले ी ववदा कर चुका:पर ज्जस स्त्री पर दसू री ननगा ें पड चुकी, जो एक सप्ता तक न-जाने क ांि और ककस दशा मंे र ी, उसे अिंगीकार करना मेरे मलए असम्भव ै। अगर अन्याय ै तो ईश्वर की ओर से ै, मेरा दोष न ी।ंि मयादग ा—मेरी वववशमा पर आपको जरा भी दया न ीिं आती?
परशुराम—ज ािं घणृ ा ै, व ांि दया क ािं? मै अब भी तमु ् ारा भरण-पोषण करने को तैयार ूंि।जब तक जीऊगािं, तुम् ें अन्न-वस्त्र का कष्ट न ोगा पर तमु मेरी स्त्री न ींि ो सकतीं।ि मयादग ा—मैं अपने पतु ्र का मु न देखूिं अगर ककसी ने स्पशग भी ककया ो। परशुराम—तमु ् ारा ककसी अन्य पुरूष के साथ क्षण-भर भी एकान्त में र ना तुम् ारे पनतव्रत को नष्ट करने के मलए ब ुत ै। य ववधचत्र बिंिन ै, र े तो जन्म-जन्मान्तर तक र े: टू टे तो क्षण-भर मंे टू ट जाए। तुम् ीिं बताओिं, ककसी मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उज्च्छट भोलन खखला हदया ोता तो मुझे स्वीकार करतींि? मयागदा—व .... व .. तो दसू री बात ै। परशुराम—न ींि, एक ी बात ै। ज ािं भावों का सबिं ििं ै, व ािं तकग और न्याय से काम न ींि चलता। य ािं तक अगर कोई क दे कक तुम् ारें पानी को मे तर ने छू ननया ै तब भी उसे ग्र ण करने से तुम् ें घणृ ा आयेगी। अपने ी हदन से सोचो कक तमु ् ारंे साथ न्याय कर र ा ूंि या अन्याय। मयादग ा—मै तुम् ारी छु ई चीजंे न खाती, तुमसे पथृ क र ती पर तमु ् ें घर से तो न ननकाल सकती थी। मझु े इसमलए न दतु ्कार र े ो कक तमु घर के स्वामी ो और कक मैं इसका पालन करता ूंि। परशुराम—य बात न ीिं ै। मै इतना नीच न ींि ूंि। मयागदा—तो तमु ् ारा य ीिं अनतमिं ननश्चय ै? परशुराम— ािं, अिंनतम।
मयादग ा-- जानते ो इसका पररणाम क्या ोगा? परशुराम—जानता भी ूंि और न ीिं भी जानता। मयागदा—मझु े वासदु ेव ले जाने दोगे? परशुराम—वासदु ेव मेरा पुत्र ै। मयागदा—उसे एक बार प्यार कर लेने दोगे? परशुराम—अपनी इच्छा से न ींि, तमु ् ारी इच्छा ो तो दरू से देख सकती ो। मयादग ा—तो जाने दो, न देखगूिं ी। समझ लिंगू ी कक वविवा ूिं और बाझिं भी। चलो मन, अब इस घर मंे तुम् ारा ननबा न ींि ै। चलो ज ांि भाग्य ले जाय। ***
नैराश्य लीला पिडं डत हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्माननत परु ूष थ।े िनवान तो न ीिं लेककन खाने वपने से खशु थ।े कई मकान थे, उन् ी के ककराये पर गुजर ोता था। इिर ककराये बढ गये थे, उन् ोंने अपनी सवारी भी रख ली थी। ब ुत ववचार शील आदमी थ,े अच्छी मशक्षा पायी थी। ससंि ार का काफी तरजरु बा था, पर कक्रयात्मक शककत ् से व्रधचत थे, सब कु छ न जानते थे। समाज उनकी आंिखों मंे एक भयकिं र भूत था ज्जससे सदैव डरना चाह ए। उसे जरा भी रूष्ट ककया तो कफर जाने की खैर न ी।िं उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रनतबबम्ब, पनत के ववचार उसके ववचार और पनत की इच्छा उसकी इच्छा थी, दोनों प्राखणयों मंे कभी मतभेद न ोता था। जागेश्चरी खखव की उपासक थी। हृदयनाथ वैष्णव थे, दोनो िमनग नष्ट थे। उससे क ींि अधिक , ज्जतने समान्यत: मशक्षक्षत लोग ुआ करते ै। इसका कदाधचत ् य कारण था कक एक कन्या के मसवा उनके और कोई सनतान न थी। उनका वववा तरे वें वषग में ो गया था और माता- वपता की अब य ी लालसा थी कक भगवान इसे पतु ्रवती करंे तो म लोग नवासे के नाम अपना सब-कु छ मलख मलखाकर ननज्श्चत ो जाय।ें ककन्तु वविाता को कु छ और ी मन्जरू था। कै लाश कु मारी का अभी गौना भी न ुआ था, व अभी तक य भी न जानने पायी थी कक वववा का आश्य क्या ै कक उसका सो ाग उठ गया। विै व्य ने उसके जीवन की अमभलाषाओंि का दीपक बुझा हदया। माता और वपता ववलाप कर र े थे, घर मंे कु राम मचा ुआ था, पर कै लाशकु मारी भौंचक्की ो- ो कर सबके मुंि की ओर ताकती थी। उसकी समझ में य न आता था कक ये लोग रोते क्यों ंै। मािं बाप की इकलौती बेटी थी। मांि-बाप के अनतररक्त व ककसी तीसरे व्यज्क्त को उपने मलए आवश्यक न समझती थी। उसकी सुख कल्पनाओंि में अभी तक पनत का प्रवेश न ुआ था। व समझती थी, स्त्रीयािं पनत के मरने पर इसमलए राती ै कक व उनका और
बच्चों का पालन करता ै। मेरे घर में ककस बात की कमी ै? मझु े इसकी क्या धचन्ता ै कक खायगें े क्या, प नेगंे क्या? मुढरे ज्जस चीज की जरूरत ोगी बाबूजी तरु न्त ला देंगे, अम्मा से जो चीज मागूंगि ी व दे दंेगी। कफर रोऊंि क्यों?व अपनी मािं को रोते देखती तो रोती, पती के शोक से न ींि, मािं के प्रेम से । कभी सोचती, शायद य लोग इसमलए रोते ंै कक क ींि मैं कोई कसी चीज न मािगं बैठूिं ज्जसे व दे न सकें । तो मै कसी चीज मांगि गू ी ी क्यो? मै अब भी तो उन से कु छ न ींि मािंगती, व आप ी मेरे मलए एक न एक चीज ननत्य लाते र ते ंै? क्या मंै अब कु छ और ो जाऊगीिं? इिर माता का य ा ाल था कक बेटी की सूरत देखते ी आंिखों से आंसि ू की झडी लग जाती। बाप की दशा और भी करूणाजनक थी। घर में आना-जाना छोड हदया। मसर पर ाथ िरे कमरे में अके ले उदास बठै े र त।े उसे ववशेष द:ु ख इस बात का था कक स ेमलयांि भी अब उसके साथ खले ने न आती। उसने उनके घर लाने की माता से आज्ञा मांगि ी तो फू ट-फू ट कर रोने लगीिं माता-वपता की य दशा देखी तो उसने उनके सामने जाना छोड हदया, बैठी ककस्से क ाननयािं पढा करती। उसकी एकातिं वप्रयता का मािं-बाप ने कु छ और ी अथग समझा। लडकी शोक के मारे घुली जाती ै, इस वज्राघात ने उसके हृदय को टु कड-े टु कडे कर डाला ै। एक हदन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से क ा—जी चा ता ै घर छोड कर क ींि भाग जाऊिं । इसका कष्ट अब न ीिं देखा जाता। जागेश्वरी—मेरी तो भगवान से य ी प्राथनाग ै कक मझु े ससिं ार से उठा लें। क ांि तक छाती पर पत्थर कीस मसल रखि।ूं हृदयनाथ—ककसी भानतिं इसका मन ब लाना चाह ए, ज्जसमें शोकमय ववचार आने ी न पाय।ें म लोंगों को द:ु खी और रोते देख कर उसका द:ु ख और भी दारूण ो जाता ै। जागेश्वरी—मेरी तो बुवद्ध कु छ काम न ीिं करती।
हृदयनाथ— म लोग यों ी मातम करते र े तो लडकिं ी की जान पर बन जायेगी। अब कभी कभी धथएटर हदखा हदया, कभी घर मंे गाना-बजाना करा हदया। इन बातों से उसका हदल ब लता र ेगा। जागेशवरी—मै तो उसे देखते ी रो पडती ूंि। लेककन अब जब्त करूिं गी तमु ् ारा ववचार ब ुत अच्छा ै। ववना हदल ब लाव के उसका शोक न दरू ोगा। हृदयनाथ—मंै भी अब उससे हदल ब लाने वाली बातंे ककया करूगा।िं कल एक सैरबीिं लाऊगा, अच्छे -अच्छे दृश्य जमा करूगां।ि ग्रामोफोन तो अज ी मगवाये देता ूंि। बस उसे र वक्त ककसी न ककसी कात में लगाये र ना चाह ए। एकातंिवास शोक-जवाला के मलए समीर के समान ै। उस हदन से जागेश्वरी ने कै लाश कु मारी के मलए ववनोद और प्रमोद के समान लमा करने शरू ककये। कै लासी मािं के पास आती तो उसकी आखंि ों मंे आसू की बदंिू े न देखती, ोठों पर िंसी की आभा हदखाई देती। व मुस्करा कर क ती –बेटी, आज धथएटर मंे ब ुत अच्छा तमाशा ोने वाला ै, चलो देख आय।ंे कभी गंिगा-स्नान की ठ रती, व ािं मांि-बेटी ककश्ती पर बैठकर नदी मंे जल वव ार करतीिं, कभी दोनों संिध्या-समय पाकै की ओर चली जातींि। िीरे-िीरे स ेमलयांि भी आने लगीिं। कभी सब की सब बैठकर ताश खेलती।ंि कभी गाती-बजाती।िं पज्ण्डत हृदय नाथ ने भी ववनोद की सामधग्रयािं जटु ायी।ंि कै लासी को देखते ी मग्न ोकर बोलते—बेटी आओ, तमु ् ें आज काश्मीर के दृश्य हदखाऊिं : कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सनु ात।े कै लासी इन सरै -सपाटों का खूब आन्नद उठाती। अतने सुख से उसके हदन कभी न गुजरे थ।े 2 इस भांिनत दो वषग बीत गये। कै लासी सैर-तमाशे की इतनी आहद ो गयी कक एक हदन भी धथएटर न जाती तो बेकल-ससी ोने लगती। मनोरिंजन नवीननता का दास ै और समानता का शत्रु। धथएटरों के बाद मसनमे ा की सनक सवार ुई।
मसनमे ा के बाद ममस्मेररजम और ह पनोहटजम के तमाशों की सनक सवार ुई। मसनेमा के बाद ममस्मेररजम और ह प्नोहटजम के तमाशों की। ग्रामोफोन के नये ररकाडग आने लगे। संिगीत का चस्का पड गया। बबरादरी मंे क ींि उत्सव ोता तो मा-िं बेटी अवश्स्य जातीि।ं कै लासी ननत्य इसी नशे में डू बी र ती, चलती तो कु छ गनु गनु ती ुई, ककसी से बाते करती तो व ी धथएटर की और मसनमे ा की। भौनतक सिंसार से अब कोई वास्ता न था, अब उसका ननवास कल्पना ससिं ार में था। दसू रे लोक की ननवामसन ोकर उसे प्राखणयों से कोई स ानुभूनत न र ींि, ककसी के द:ु ख पर जरा दया न आती। स्वभाव मंे उच्छृ िं खलता का ववकास ुआ, अपनी सुरूधच पर गवग करने लगी। स ेमलयों से डींिगे मारती, य ांि के लोग मखू ग ै, य मसनेमा की कद्र क्या करेगें। इसकी कद्र तो पज्श्चम के लोग करते ै। व ांि मनोरंिजन की सामाधग्रयािं उतनी ी आवश्यक ै ज्जतनी वा। जभी तो वे उतने प्रसनन-धचत्त र ते ै, मानो ककसी बात की धचतंि ा ी न ीं।ि य ाँा ककसी को इसका रस ी न ींि। ज्जन् ंे भगवान ने सामर्थयग भी हदया ै व भी सरंिशाम से मु ढांकि कर पडे र मे ैं। स ेमलयांि कै लासी की य गवग-पूणग बातें सनु तीिं और उसकी और भी प्रशिंसा करती।ंि व उनका अपमान करने के आवेश मंे आप ी ास्यास्पद बन जाती थी। पडोमसयों में इन सैर-सपाटों की चचाग ोने लगी। लोक-सम्मनत ककसी की ररआयत करती। ककसी ने मसर पर टोपी टेढी रखी और पडोमसयों की आिंखों में खबु ा कोई जरा अकड कर चला और पडोमसयों ने अवाजें कसीिं। वविवा के मलए पजू ा-पाठ ै, तीथग-व्रत ै, मोटा खाना प नना ै, उसे ववनोदऔर ववलास, राग और रिंग की क्या जरूरत? वविाता ने उसके द्वार बदिं रर हदये ै। लडकी प्यारी स ी, लेककन शमग और या भी कोई चीज ोती ै। जब मािं-बाप ी उसे मसर चढाये ुए ै तो उसका क्या दोष? मगर एक हदन आखंि े खलु ेगी अवश्य।मह लाएंि क तींि, बाप तो मदग ै, लेककन मांि कै सी ै। उसको जरा भी ववचार न ींि कक दनु नयािं क्या क ेगी। कु छ उन् ीिं की एक दलु ारी बेटी थोडे ी ै, इस भांनि तमन बढाना अच्छा न ीिं।
कु द हदनों तक तो य खखचडी आपस मंे पकती र ी। अतिं को एक हदन कई मह लाओिं ने जागेश्वरी के घर पदापणग ककया। जागेश्वरी ने उनका बडा आदर-सत्कार ककया। कु छ देर तक इिर-उिर की बातें करने के बाद एक मह ला बोली—मह लाएंि र स्य की बातंे करने में ब ुत अभ्यस्त ोती ै—ब न, तमु ् ीिं मजे में ो कक ंिसी-खुसी में हदन काट देती ो। मिुं तो हदन प ाड ो जाता ै। न कोई काम न िििं ा, कोई क ािं तक बातंे करंे? दसू री देवी ने आखिं ें मटकाते ुए क ा—अरे, तो य तो बदे की बात ै। सभी के हदन िंसी-खशिुं ी से कटें तो रोये कौन। य ांि तो सुब से शाम तक चक्की-चूल् े से छु ट्टी न ीिं ममलती: ककसी बच्चे को दस्त आ र ें तो ककसी को जवर चढा ुआ ै: कोई ममठाइयों की रट क ा ै: तो कोई पसै ो के मलए म ानामथ मचाये ुए ै। हदन भर ाय- ाय करते बीत जाता ै। सारे हदन कठपुतमलयों की भानंि त नाचती र ती ूिं। तीसरी रमणी ने इस कथन का र स्यमय भाव से ववरोि ककया—बदे की बात न ीिं, वसै ा हदल चाह ए। तमु ् ंे तो कोई राजमसिं ासन पर बबठा दे तब भी तस्कीन न ोगी। तब और भी ाय- ाय करोगी। इस पर एक वदृ ्धा ने क ा—नौज कसा हदल: य भी कोई हदल ै कक घर में चा े आग लग जाय, दनु नया में ककतना ी उप ास ो र ा ो, लेककन आदमी अपने राग-रिंग में मस्त र । व हदल ै कक पत्थर : म गहृ णी क लाती ै, मारा काम ै अपनी गृ स्थी मंे रत र ना। आमोद-प्रमोद में हदन काटना मारा काम न ी।ंि और मह लाओंि ने इन ननदगय व्यिंग्य पर लज्जजत ो कर मसर झकु ा मलया। वे जागेश्वरी की चटु ककयािं लेना चा ती थींि। उसके साथ बबल्ली और चू े की ननदगयी क्रीडा करना चा ती थींि। आ त को तडपाना उनका उद्देश्य था। इस खलु ी ुई चोट ने उनके पर-पीडन प्रेम के मलए कोई गंुिजाइश न छोडी: ककंि तु जागेश्वरी को ताडना ममल गयी। ज्स्त्रयों के ववदा ोने के बाद उसने जाकर पनत
से य सारी कथा सनु ायी। हृदयनाथ उन परु ूषों मंे न थे जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आज्त्मक स्वािीनता का स्वागिं भरते ै, ठिमी को आत्म- स्वातन्त्रय के नाम से नछपाते ै। व सधचन्त भाव से बोले---तो अब क्या ोगा? जागेश्वरी—तमु ् ीिं कोई उपाय सोचो। हृदयनाथ—पडोमसयों ने जो आक्षेप ककया ै व सवथाग उधचत ै। कै लाशकु मारी के स्वभाव मंे मझु ंे एक सववधचत्र अन्तर हदखाई दे र ा ै। मझु े स्विमं ज्ञात ो र ा ै कक उसके मन ब लाव के मलए म लोंगों ने जो उपाय ननकाला ै व मनु ामसब न ीिं ै। उनका य कथन सत्य ै कक वविवाओंि के मलए आमोद- प्रामोद वज्जतग ै। अब में य पररपाटी छोडनी पडगे ी। जागेश्वरी—लेककन कै लासी तो अन खले -तमाशों के बबना एक हदन भी न ीिं र सकती। हृदयनाथ—उसकी मनोवजृ ्त्तयों को बदलना पडगे ा। 3 शन:ै शैने य ववलोसोल्माद शातंि ोने लगा। वासना का नतरस्कार ककया जाने लगा। पिंडडत जी सधंि ्या समय ग्रमोफोन न बजाकर कोई िमग-ग्रंिथ सुनत।े स्वाध्याय, सिसं म उपासना मंे मािं-बेटी रत र ने लगीिं। कै लासी को गरु ू जी ने दीक्षा दी, मु ल्ले और बबरादरी की ज्स्त्रयािं आयी,ंि उत्सव मनाया गया। मांि-बेटी अब ककश्ती पर सरै करने के मलए गंिगा न जातींि, बज्ल्क स्नान करने के मलए। मंिहदरो में ननत्य जाती।िं दोनािं एकादशी का ननजलग व्रम रखने लगी।ंि कै लासी को गुरूजी ननत्य सधिं ्या-समय िमोपदेश करत।े कु छ हदनों तक तो कै लासी को य ववचार-पररवतग न ब ुत कष्टजनक मालूम ुआ, पर िमनग नष्ठा
नाररयों का स्वाभाववक गुण ै, थोडे ी हदनो में उसे िमग से रूची ो गयी। अब उसे अपनी अवस्था का ज्ञान ोने लगा था। ववषय-वासना से धचत्त आप ी आप खखचंि ने लगा। पनत का यथाथग आशय समझ मंे आने लगा था। पनत ी स्त्री का सच्चा पथ प्रदशगक और सच्चा स ायक ै। पनतवव ीन ोना ककसी घोर पाप का प्रायज्श्चत ै। मनै े पूव-ग जन्म मंे कोई अकमग ककया ोगा। पनतदेव जीववत ोते तो मै कफर माया मंे फंि स जाती। प्रायज्श्चत कर अवसर क ािं ममलता। गुरूजी का वचन सत्य ै कक परमात्मा ने तुम् ें पवू ग कमों के प्रायज्श्चत का अवसर हदया ै। विै व्य यातना न ींि ै, जीवोद्धर का सािन ै। मेरा उद्धार त्याग, ववराग, भज्क्त और उपासना से ोगा। कु छ हदनों के बाद उसकी िाममकग वजृ ्त्त इतनी प्रबल ो गयी, कक अन्य प्राखणयों से व पथृ क् र ने लगी। ककसी को न छू ती, म ररयों से दरू र ती, स ेमलयों से गले तक न ममलती, हदन में दो-दो तीन-तीन बार स्नान करती, मेशा कोई न कोई िमग-ग्रन्थ पढा करती। सािु –म ात्माओिं के सेवा-सत्कार मंे उसे आज्त्मक सखु प्राप्त ोता। ज ांि ककसी म ात्मा के आने की खबर पाती, उनके दशनग ों के मलए कवकल ो जाती। उनकी अमतृ वाणी सनु ने से जी न भरता। मन ससंि ार से ववरक्त ोने लगा। तल्लीनता की अवस्था प्राप्त ो गयी। घिटं ो ध्यान और धचतंि न में मग्न र ती। समाज्जक बििं नो से घणृ ो गयी। घटिं ो ध्यान और धचतंि न में मग्न र ती। हृदय स्वाधिनता के मलए लालानयत ो गया: य ांि तक कक तीन ी बरसों मंे उसने संिन्यास ग्र ण करने का ननश्चय कर मलया। मािं-बाप को य समाचार ज्ञात ुआ ता ोश उड गये। मािं बोली—बेटी, अभी तमु ् ारी उम्र ी क्या ै कक तमु कसी बातें सोचती ो। कै लाशकु मारी—माया-मो से ज्जतनी जल्द ननवजृ ्त्त ो जाय उतना ी अच्छा। हृदयनाथ—क्या अपने घर मे र कर माया-मो से मकु ्त न ींि ो सकती ो? माया-मो का स्थान मन ै, घर न ी।ंि
जागेश्वरी—ककतनी बदनामी ोगी। कै लाशकु मारी—अपने को भगवान ् के चरणों पर अपणग कर चुकी तो बदनामी क्या धचतिं ा? जागेश्वरी—बेटी, तमु ् ंे न ो , मको तो ै। में तो तमु ् ारा ी स रा ै। तुमने जो सयंि ास मलया तो म ककस आिार पर ज्जयगंे े? कै लाशकु मारी—परमात्मा ी सबका आिार ै। ककसी दसू रे प्राणी का आश्रय लेना भलू ै। दसू रे हदन य बात मु ल्ले वालों के कानों मंे प ुिंच गयी। जब कोई अवस्था असाध्य ो जाती ै तो म उस पर व्यंिग करने लगते ै। ‘य तो ोना ी था, नयी बात क्या ुई, लडडककयों को इस तर स्वछंि द न ींि कर हदया जाता, फू ले न समाते थे कक लडकी ने कु ल का नाम उजजवल कर हदया। पुराण पढती ै, उपननषद् और वेदांित का पाठ करती ै, िाममकग समस्याओंि पर कसी-कसी दलीलंे करती ै कक बडे-बडे ववद्वानों की जबान बिंद ो जाती ै तो अब क्यों पछताते ै?’ भद्र पुरूषों मंे कई हदनों तक य ी आलोचना ाती र ी। लेककन जसै े अपने बच्चे के दौडत-े दौडते –िम से धगर पडने पर म प ले क्रोि के आवशे मंे उसे खझडककयांि सनु ाते ै, इसके बाद गोद मंे बबठाकर आंसि ू पोछतें और फु सलाने का लगते ै: उसी तर इन भद्र पुरूषों ने व्रग्य के बाद इस गतु ्थी के सलु झाने का उपाय सोचना शुरू ककया। कई सजजन हृदयनाथ के पास आये और मसर झकु ाकर बठै गये। ववषय का आरम्भ कै से ो? कई ममनट के बाद एक सजजन ने क ा –ससनु ा ै डाक्टर गौड का प्रस्ताव आज ब ुमत से स्वीकृ त ो गया।
दसू रे म ाश्य बोले—य लोग ह दंि -ू िमग का सवनग ाश करके छोडगे ंे। कोई क्या करेगा, जब मारे सािु-म ात्मा, ह दंि -ू जानत के स्तंिभ ै, इतने पनतत ो गए ंै कक भोली-भाली युवनतयों को ब काने में संकि ोच न ीिं करते तो सवनग ाश ोनंे में र ी क्या गया। हृदयनाथ—य ववपज्त्त तो मेरे मसर ी पडी ुई ै। आप लोगों को तो मालूम ोगा। प ले म ाश्य –आप ी के मसर क्यों, म सभी के मसर पडी ुई ै। दसू रो म ाश्य –समस्त जानत के मसर कह ए। हृदयनाथ—उद्धार का कोई उपाय सोधचए। प ले म ाश्य—अपने समझाया न ींि? हृदयनाथ—समझा के ार गया। कु छ सुनती ी न ी।िं तीसरे म ाश्य—प ले ी भलू ुई। उसे इस रास्ते पर उतरना ी न ीिं चाह ए था। प ले म ाशय—उस पर पछताने से क्या ोगा? मसर पर जो पडी ै, उसका उपाय सोचना चाह ए। आपने समाचार-पत्रों में देखा ोगा, कु छ लोगों की सला ै कक वविवाओिं से अध्यापको का काम लेना चाह ए। यद्यवप मंै इसे भी ब ुत अच्छा न ींि समझता,पर संनि ्यामसनी बनने से तो क ींि अच्छा ै। लडकी अपनी आखिं ों के सामने तो र ेगी। अमभप्राय के वल य ी ै कक कोई कसा काम ोना चाह ए ज्जसमें लडकी का मन लगें। ककसी अवलम्ब के बबना मनषु ्य को भटक जाने की शिंका सदैव बनी र ती ै। ज्जस घर मंे कोई न ीिं र ता उसमंे चमगादड बसेरा कर लेते ंै।
दसू रे म ाशय –सला तो अच्छी ै। मु ल्ले की दस-पांिच कन्याएिं पढने के मलए बुला ली जाएंि। उन् े ककताबंे, गुडडयांि आहद इनाम ममलता र े तो बडे शौक से आयगंे ी। लडकी का मन तो लग जायेगा। हृदयनाथ—देखना चाह ए। भरसक समझाऊगा।िं जयों ी य लोग ववदा ुए: हृदयनाथ ने कै लाशकु मारी के सामने य तजवीज पेश की कै लासी को सुन्यस्त के उच्च पद के सामने अध्यावपका बनना अपमानजनक जान पडता था। क ािं व म ात्माओंि का सत्संिग, व पवतग ो की गुफा, व सरु म्य प्राकृ नतक दृश्य व ह मरामश की ज्ञानमय जयोनत, व मानसरावर और कै लास की शुभ्र छटा, व आत्मदशनग की ववशाल कल्पनाएिं, और क ाँा बामलकाओिं को धचडडयों की भािंनत पढाना। लेककन हृदयनाथ कई हदनों तक लगातार से वा िमग का मा ातम्य उसके हृदय पर अकंि कत करते र े। सेवा ी वास्तववक सनंि ्यस ै। संनि ्यासी के वल अपनी मुज्क्त का इच्छु क ोता ै, सेवा व्रतिरी अपने को परमाथग की वदे ी पर बमल दे देता ै। इसका गौरव क ींि अधिक ै। देखो, ऋवषयों में दिीधच का जो यश ै, ररश्चंदि ्र की जो कीनतग ै, सेवा त्याग ै, आहद। उन् ोंने इस कथन की उपननषदों और वदे मितं ्रों से पुज्ष्ट की य ािं तक कक िीरे-िीरे कै लासी के ववचारों में पररवतनग ोने लगा। पडंि डत जी ने मु ल्ले वालों की लडककयों को एकत्र ककया, पाठशाला का जन्म ो गया। नाना प्रकार के धचत्र और खखलौने मंिगाए। पडिं डत जी स्वयंि कै लाशकु मारी के साथ लडककयों को पढात।े कन्याएंि शौक से आती।िं उन् े य ांि की पढाई खले मालूम ोता। थोडे ी दनों मंे पाठशाला की िमू ो गयी, अन्य मु ल्लों की कन्याएंि भी आने लगीि।ं 4 कै लास कु मारी की सेवा-प्रवजृ ्त्त हदनों-हदन तीव्र ोने लगी। हदन भर लडककयों को मलए र ती: कभी पढाती, कभी उनके साथ खले ती, कभी सीना-वपरोना मसखाती। पाठशाला ने पररवार का रूप िारण कर मलया। कोई लडकी बीमार ो
जाती तो तुरन्त उसके घर जाती, उसकी सेवा-सशु ्रूषा करती, गा कर या क ाननयािं सनु ाकर उसका हदल ब लाती। पाठशाला को खलु े ुए साल-भर ुआ था। एक लडकी को, ज्जससे व ब ुत प्रेम करती थी, चचे क ननकल आयी। कै लासी उसे देखने गई। मांि-बाप ने ब ुत मना ककया, पर उसने न माना। क ा, तरु न्त लौट आऊंि गी। लडकी की ालत खराब थी। क ािं तो रोत-े रोते तालू सखू ता था, क ांि कै लासी को देखते ी सारे कष्ट भाग गये। कै लासी एक घटंि े तक व ांि र ी। लडकी बराबर उससे बातें करती र ी। लेककन जब व चलने को उठी तो लडकी ने रोना शुरू कर हदया। कै लासी मजबरू ोकर बठै गयी। थोडी देर बाद व कफर उठी तो कफर लडकी की य दशा ो गयी। लडकी उसे ककसी तर छोडती ी न थी। सारा हदन गुजर गया। रात को भी रात को लडकी ने जाने न हदयाि।ं हृदयनाथ उसे बुलाने को बार-बार आदमी भेजत,े पर व लडकी को छोडकर न जा सकती। उसे कसी शिंका ोती थी कक मैं य ािं से चली और लडकी ाथ से गयी। उसकी मािं ववमाता थी। इससे कै लासी को उसके ममत्व पर ववश्वास न ोता था। इस प्रकार तीन हदनों तक व व ािं रा ी। आठों प र बामलका के मसर ाने बठै ी पखंि ा झ्लती र ती। ब ुत थक जाती तो दीवार से पीठ टेक लेती। चौथे हदन लडकी की ालत कु छ सभंि लती ुई मालमू ुई तो व अपने घर आयी। मगर अभी स्नान भी न करने पायी थी कक आदमी प ुंिचा—जल्द चमलए, लडकी रो-रो कर जान दे र ी ै। हृदयनाथ ने क ा—क दो, अस्पताल से कोई नसग बलु ा लंे। कै लसकु मारी-दादा, आप व्यथग मंे झझु लाते ंै। उस बेचारी की जान बच जाय, मै तीन हदन न ींि, जीन मह ने उसकी सेवा करने को तयै ार ूिं। आखखर य दे ककस काम आएगी। हृदयनाथ—तो कन्याएंि कै से पढेगी?
कै लासी—दो एक हदन मंे व अच्छी ो जाएगी, दाने मरु झाने लगे ैं, तब तक आप लरा इन लडककयों की देखभाल करते रह एगा। हृदयनाथ—य बीमारी छू त फै लाती ै। कै लासी—( ंिसकर) मर जाऊिं गी तो आपके मसर से एक ववपज्त्त टल जाएगी। य क कर उसने उिर की रा ली। भोजन की थाली परसी र गयी। तब हृदयनाथ ने जागेश्वरी से क ा---जान पडता ै, ब ुत जल्द य पाठशाला भी बन्द करनी पडगे ी। जागेश्वरी—बबना मांिझी के नाव पार लगाना ब ुत कहठन ै। ज्जिर वा पाती ै, उिर ब जाती ै। हृदयनाथ—जो रास्ता ननकालता ूंि व ी कु छ हदनों के बाद ककसी दलदल मंे फंि सा देता ै। अब कफर बदनामी के समान ोते नजर आ र े ै। लोग क ेंगें , लडकी दसू रों के घर जाती ै और कई-कई हदन पडी र ती ै। क्या करूिं , क दिं,ू लडककयों को न पढाया करो? जागेश्वरी –इसके मसवा और ो क्या सकता ै। कै लाशकु मारी दो हदन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने पाठशाला बंदि कर देने की समस्या उसके सामने रखी। कै लासी ने तीव्र स्वर से क ा—अगर आपको बदनामी का इतना भय ै तो मझु े ववष दे दीज्जए। इसके मसवा बदनामी से बचने का और कोई उपाय न ीिं ै। हृदयनाथ—बेटी संसि ार मंे र कर तो सिंसार की-सी करनी पडगे ी। कै लासी तो कु छ मालमू भी तो ो कक सिसं ार मुझसे क्या चा ता ै। मुझमें जीव ै, चते ना ै, जड क्योंकर बन जाऊ। मुझसे य न ीिं ो सकता कक अपने को
अभा गन, दखु खया समझूिं और एक टु कडा रोटी खाकर पडी र ूंि। कसा क्यों करूंि ? ससंि ार मझु े जो चा े समझ,े मै अपने को अभाधगनी न ींि समझती। मै अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती ूंि। मैं इसे घोर अपमान समझती ूिं कक पग-पग पर मुझ पर शंिका की जाए, ननत्य कोई चरवा ों की भानंि त मेरे पीछे लाठी मलए घमू ता र े कक ककसी खते मंे न जाने बडू ू । य दशा मेरे मलए असह्य ंै। य क कर कै लाशकु मारी व ािं से चली गयी कक क ीिं मुिं से अनगलग शब्द न ननकल पडंे। इिर कु छ हदनों से उसे अपनी बेकसी का यथागथ ज्ञान ोने लगा था स्त्री पुरूष की ककतली अिीन ै, मानो स्त्री को वविाता ने इसमलए बनाया ै कक पुरूषों के अधिन र िं य सोचकर व समाज के अत्याचार पर दातंि पीसने लगती थी। पाठशाला तो दसू रे हदन बन्द ो गयी, ककन्तु उसी हदन कै लाशकु मारी को परु ूषों से जलन ोने लगी। ज्जस सखु -भोग से प्रारब्ि मंे वंधि चत कर देता ै उससे मे द्वेष ो जाता ै। गरीब आदमी इसीलए तो अमीरों से जलता ै और िन की ननन्दा करता ै। कै लाशी बार-बार झंिुझलाती कक स्त्री क्यों परु ूष पर इतनी अवलज्म्बत ै? परु ूशष क्यों स्त्री के भग्य का वविायक ै? स्त्री क्यों ननत्य परु ूषों का आश्रय चा े, उनका मंिु ताके ? इसमलए न कक ज्स्त्रयों मंे अमभमान न ीिं ै, आत्म सम्मान न ींि ै। नारी हृदय के कोमल भाव, उसे कु त्ते का दमु ह लाना मालमू ोने लगे। प्रेम कै सा। य सब ढोग ै, स्त्री परु ूष के अधिन ै, उसकी खशु मद न करे, सेवा न करे, तो उसका ननवाग कै से ो। एक हदन उसने अपने बाल गथंिू े और जडू े में एक गुलाब का फू ल लगा मलया। मािं ने देखा तो ओठंि से जीभ दबा ली। म ररयों ने छाती पर ाथ रखे। इसी तर एक हदन उसने रिंगीन रेशमी साडी प न ली। पडोमसनों मंे इस पर खूब आलोचनाएँा ुईं।
उसने एकादशी का व्रत रखनाउ छोड हदया जो वपछले आठ वषों से रखमी आयीिं थी। कंि घी और आइने को व अब त्याजय न समझती थी। स ालग के हदन आए। ननत्य प्रनत उसके द्वार पर से बरातें ननकलतीिं । मु ल्ले की ज्स्त्रयाँा अपनी अटाररयों पर खडी ोकर देखती। वर के रंिग-रूप, आकर- प्रकार पर हटकाएिं ोती, जागेश्वरी से भी बबना एक आख देखे र ा न जाता। लेककन कै लाशकु मारी कभी भलू कर भी इन जालूसो को न देखती। कोई बरात या वववा की बात चलाता तो व मु ंि फे र लेती। उसकी दृज्ष्ट मंे व वववा न ींि, भोली-भाली कन्याओंि का मशकार था। बरातों को व मशकाररयों के कु त्ते समझती। य वववा न ीिं बमलदान ै। 5 तीज का व्रत आया। घरों की सफाई ोने लगी। रमखणयांि इस व्रत को तयै ाररयािं करने लगीिं। जागेश्वरी ने भी व्रत का सामान ककया। नयी-नयी साडडया मगवायीं।ि कै लाशकु मारी के ससरु ाल से इस अवसर पर कपडे , ममठाईयािं और खखलौने आया करते थ।े अबकी भी आए। य वववाह ता ज्स्त्रयों का व्रत ै। इसका फल ै पनत का कल्याण। वविवाएंि भी अस व्रत का यथेधचत रीनत से पालन करती ै। नत से उनका सम्बन्ि शारीररक न ींि वरन ् आध्याज्त्मक ोता ै। उसका इस जीवन के साथ अन्त न ींि ोता, अनंति काल तक जीववत र ता ै। कै लाशकु मारी अब तक य व्रत रखती आयी थी। अब उसने ननश्चय ककया मै व्रत न रखगिंू ी। मािं ने तो माथा ठोंक मलया। बोली— बेटी, य व्रत रखना िमग ै। कै लाशकु मारी-परु ष भी ज्स्त्रयों के मलए कोई व्रत रखते ै? जागेश्वरी—मदों में इसकी प्रथा न ींि ै।
कै लाशकु मारी—इसमलए न कक पुरूषों की जान उतनी प्यारी न ी ोती ज्जतनी ज्स्त्रयों को पुरूषों की जान? जागेश्वरी—ज्स्त्रयांि पुरूषों की बराबरी कै से कर सकती ंै? उनका तो िमग ै अपने परु ूष की सेवा करना। कै लाशकु मारी—मै अपना िमग न ींि समझती। मेरे मलए अपनी आत्मा की रक्षा के मसवा और कोई िमग न ींि? जागेश्वरी—बेटी गजब ो जायेगा, दनु नया क्या क ेगी? कै लाशकु मारी –कफर व ी दनु नया? अपनी आत्मा के मसवा मुझे ककसी का भय न ी।िं हृदयनाथ ने जागेश्वरी से य बातंे सुनीिं तो धचन्ता सागर में डू ब गए। इन बातों का क्या आश्य? क्या आत्म-सम्मान को भाव जाग्रत ुआ ै या नरै श्य की क्रू र क्रीडा ै? िन ीन प्राणी को जब कष्ट-ननवारण का कोई उपाय न ींि र जाता तो व लजजा को त्याग देता ै। ननस्सदंि े नरै ाश्य ने य भीषण रूप िारण ककया ै। सामान्य दशाओंि मंे नैराश्य अपने यथाथग रूप मे आता ै, पर गवशग ील प्राखणयों में व पररमाज्जतग रूप ग्र ण कर लेता ै। य ांि पर हृदयगत कोमल भावों को अप रण कर लेता ै—चररत्र में अस्वाभाववक ववकास उत्पन्न कर देता ै—मनषु ्य लोक-लाज उपवासे और उप ास की ओर से उदासीन ो जाता ै, नैनतक बन्िन टू ट जाते ै। य नैराश्य की अनतमिं अवस्था ै। हृदयनाथ इन् ीिं ववचारों मे मग्न थे कक जागेश्वरी ने क ा –अब क्या करनाउ ोगा? जागेश्वरी—कोई उपाय ै?
हृदयनाथ—बस एक ी उपाय ै, पर उसे जबान पर न ींि ला सकता ***
कौशल पडिं डत बलराम शास्त्री की िमपग त्नी माया को ब ुत हदनों से एक ार की लालसा थी और व सैकडो ी बार पिंडडत जी से उसके मलए आग्र कर चुकी थी, ककन्तु पिडं डत जी ीला- वाला करते र ते थ।े य तो साफ-साफ ने क ते थे कक मेरे पास रूपये न ी ै—इनसे उनके पराक्रम मंे बट्टा लगता था— तकग नाओंि की शरण मलया करते थ।े ग नों से कु छ लाभ न ींि एक तो िातु अच्छी न ींि ममलती, उस पर सोनार रुपसे के आठ-आठ आने कर देता ै और सबसे बडी बात य ै कक घर मंे ग ने रखना चोरो को नवे ता देन ै। घडी-भर श्रगृ ांरि के मलए इतनी ववपज्त्त मसर पर लेना मूखो का काम ै। बेचारी माया तकग –शास्त्र न पढी थी, इन युज्क्तयों के सामने ननरूत्तर ो जाती थी। पडोमसनो को देख-देख कर उसका जी ललचा करता था, पर दखु ककससे क े। यहद पडंि डत जी जयादा मे नत करने के योग्य ोते तो य मजु ्श्कल आसान ो जाती । पर वे आलसी जीव थे, अधिकाशंि समय भोजन और ववश्राम मंे व्यनतत ककया करते थ।े पत्नी जी की कटू ज्क्तयांि सनु नी मिंजूर थीिं, लेककन ननद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे। एक हदन पंडि डत जी पाठशाला से आये तो देखा कक माया के गले में सोने का ार ववराज र ा ै। ार की चमक से उसकी मखु -जयोनत चमक उठी थी। उन् ोने उसे कभी इतनी सनु ्दर न समझा था। पूछा –य ार ककसका ै? माया बोली—पडोस मंे जो बाबूजी र ते ंै उन् ी की स्त्री का ै। आज उनसे ममलने गयी थी, य ार देखा , ब ुत पसिदं आया। तुम् ें हदखाने के मलए प न कर चली आई। बस, कसा ी एक ार मझु े बनवा दो। पंडि डत—दसू रे की चीज ना क मािंग लायी। क ींि चोरी ो जाए तो ार तो बनवाना ी पड,े उपर से बदनामी भी ो।
माया—मंै तो कसा ी ार लगू ी। २० तोले का ै। पिंडडत—कफर व ी ज्जद। माया—जब सभी प नती ंै तो मै ी क्यों न प निूं? पडंि डत—सब कु एंि में धगर पडें तो तमु भी कु एिं मंे धगर पडोगी। सोचो तो, इस वक्त इस ार के बनवाने मंे ६०० रुपये लगेगे। अगर १ रु० प्रनत सकै डा ब्याज रखमलया जाय ता – वषग मे ६०० रू० के लगभग १००० रु० ो जायेगें। लेककन ५ वषग मंे तमु ् ारा ार मुज्श्कल से ३०० रू० का र जायेगा। इतना बडा नुकसान उठाकर ार प नने से क्या सखु ? स ार वापस कर दो , भोजन करो और आराम से पडी र ो। य क ते ुए पडंि डत जी बा र चले गये। रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर क ा –चोर,चोर, ाय, घर में चोर , मुझे घसीटे मलए जाते ंै। पिंडडत जी कबका कर उठे और बोले –क ा, क ािं? दौडो,दौडो। माया—मेरी कोठारी में गया ै। मनै ें उसकी परछाईं देखी । पडिं डत—लालटेन लाओंि, जरा मेरी लकडी उठा लेना। माया—मझु से तो डर के उठा न ींि जाता। कई आदमी बा र से बोले—क ािं ै पिडं डत जी, कोई सिंे पडी ै क्या? माया—न ींि,न ीिं, खपरैल पर से उतरे ैं। मेरी नीदंि खुली तो कोई मेरे ऊपर झुका ुआ था। ाय रे, य तो ार ी ले गया, प ने-प ने सो गई थी। मुए ने गले से ननकाल मलया । ाय भगवान, पंिडडत—तुमने ार उतार क्यांि न हदया था?
माया-मै क्या जानती थी कक आज ी य मुसीबत मसर पडने वाली ै, ाय भगवान,् पंडि डत—अब ाय- ाय करने से क्या ोगा? अपने कमों को रोओ। इसीमलए क ा करता था कक सब घडी बराबर न ीिं जाती, न जाने कब क्या ो जाए। अब आयी समझ में मेरी बात, देखो, और कु छ तो न ले गया? पडोसी लालटेन मलए आ प ुिंच।े घर में कोना –कोना देखा। कररयांि देखीिं, छत पर चढकर देखा, अगवाडे-वपछवाडे देखा, शौच गृ में झाका, क ींि चोर का पता न था। एक पडोसी—ककसी जानकार आदमी का काम ै। दसू रा पडोसी—बबना घर के भेहदये के कभी चोरी न ीिं ोती। और कु छ तो न ीिं ले गया? माया—और तो कु ड न ीिं गया। बरतन सब पडे ुए ंै। सन्दकू भी बन्द पडे ै। ननगोडे को ले ी जाना था तो मेरी चीजंे ले जाता । परायी चीज ठ री। भगवान ् उन् ें कौन मंिु हदखाऊगी। पिडं डत—अब ग ने का मजा ममल गया न? माया— ाय, भगवान,् य अपजस बदा था। पडिं डत—ककतना समझा के ार गया, तमु न मानीं,ि न मानीिं। बात की बात में ६००रू० ननकल गए, अब देखिंू भगवान कै से लाज रखते ैं। माया—अभागे मेरे घर का एक-एक नतनका चुन ले जाते तो मझु े इतना द:ु ख न ोता। अभी बेचारी ने नया ी बनावाया था।
पिंडडत—खूब मालूम ै, २० तोले का था? माया—२० ी तोले को तो क ती थी? पंिडडत—बधिया बैठ गई और क्या? माया—क दंिगू ी घर में चोरी ो गयी। क्या लेगी? अब उनके मलए कोई चोरी थोडे ी करने जायेगा। पंिडडत तुम् ारे घर से चीज गयी, तुम् ंे देनी पडगे ी। उन् े इससे क्या प्रयोजन कक चोर ले गया या तुमने उठाकर रख मलया। पनतययेगी ी न ी। माया –तो इतने रूपये क ािं से आयेगे? पडंि डत—क ींि न क ीिं से तो आयगंे े ी,न ींि तो लाज कै से र ेगी: मगर की तमु ने बडी भूल । माया—भगवान ् से मंगि नी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घरे ा था, न ींि तो इस घडी भर गले मंे डाल लेने से कसा कौन-सा बडा सखु ममल गया? मै ूंि ी अभाधगनी। पिंडडत—अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप ो के बैठो, पडोमसन से क देना, घबराओिं न ीिं, तमु ् ारी चीज जब तक लौटा न देंगंे, तब तक मंे चैन न आयेगा। 2 पडंि डत बालकराम को अब ननत्य ी धचतिं ा र ने लगी कक ककसी तर ार बन।े यों अगर टाट उलट देते तो कोई बात न थी । पडोमसन को सन्तोष ी करना पडता, ब्राह्मण से डाडंि कौन लेता, ककन्तु पंिडडत जी ब्राह्मणत्व के गौरव को
इतने सस्ते दामों न बेचना चा ते थे। आलस्य छोडकिं र िनोपाजनग मंे दत्तधचत्त ो गये। छ: म ीने तक उन् ोने हदन को हदन और रात को रात न ीिं जाना। दोप र को सोना छोड हदया, रात को भी ब ुत देर तक जागत।े प ले के वल एक पाठशाला मंे पढाया करते थ।े इसके मसवा व ब्राह्मण के मलए खुले ुए एक सौ एक व्यवसायों मंे सभी को ननदंि ननय समझते थ।े अब पाठशाला से आकर संिध्या एक जग ‘भगवत’् की कथा क ने जाते व ांि से लौट कर ११-१२ बजे रात तक जन्म कंिु डमलयािं, वष-ग फल आहद बनाया करत।े प्रात:काल मज्न्दर में ‘दगु ाग जी का पाठ करते । माया पडिं डत जी का अध्यवसाय देखकर कभी-कभी पछताती कक क ांि से मैने य ववपज्त्त मसर पर लींि क ींि बीमार पड जायें तो लेने के देने पड।े उनका शरीर क्षीण ोते देखकर उसे अब य धचनता व्यधथत करने जगी। य ांि तक कक पांिच म ीने गुजर गये। एक हदन सिंध्या समय व हदया-बज्त्त करने जा र ी थी कक पिडं डत जी आये, जेब से पुडडया ननकाल कर उसके सामने फंे क दी और बोले—लो, आज तुम् ारे ऋण से मकु ्त ो गया। माया ने पडु डया खोली तो उसमें सोने का ार था, उसकी चमक-दमक, उसकी सनु ्दर बनावट देखकर उसके अन्त:स्थल में गदु गदी –सी ोने लगी । मखु पर आन्नद की आभा दौड गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पछू ा—खुश ो कर दे र े ो या नाराज ोकर1. पिंडडत—इससे क्या मतलब? ऋण तो चकु ाना ी पडगे ा, चा े खुशी ो या नाखुशी। माया—य ऋण न ीिं ै। पिंडडत—और क्या ै, बदला स ी।
माया—बदला भी न ींि ै। पंडि डत कफर क्या ै। माया—तमु ् ारी ..ननशानी? पिंडडत—तो क्या ऋण के मलए कोई दसू रा ार बनवाना पडगे ा? माया—न ीिं-न ींि, व ार चोरी न ींि गया था। मनै ें झठू -मूठ शोर मचाया था। पिंडडत—सच? माया— ािं, सच क ती ूंि। पिंडडत—मेरी कसम? माया—तुम् ारे चरण छू कर क ती ूंि। पिंडडत—तो तमने मझु से कौशल ककया था? माया- ांि? पडिं डत—तुम् े मालूम ै, तुम् ारे कौशल का मझु े क्या मूल्य देना पडा। माया—क्या ६०० रु० से ऊपर? पडंि डत—ब ुत ऊपर? इसके मलए मझु े अपने आत्मस्वातितं ्रय को बमलदान करना पडा। ***
स्त्िर्ग की देिी भाग्य की बात ! शादी वववा में आदमी का क्या अज्ख्तयार । ज्जससे ईश्वर ने, या उनके नायबों –ब्रह्मण—ने तय कर दी, उससे ो गयी। बाबू भारतदास ने लीला के मलए सयु ोग्य वर खोजने मंे कोई बात उठा न ी रखी। लेककन जसै ा घर-घर चा ते थे, वैसा न पा सके । व लडकी को सुखी देखना चा ते थे, जैसा र एक वपता का िमग ै ; ककंि तु इसके मलए उनकी समझ मंे सम्पज्त्त ी सबसे जरूरी चीज थी। चररत्र या मशक्षा का स्थान गौण था। चररत्र तो ककसी के माथे पर मलखा न ी र ता और मशक्षा का आजकल के जमाने मंे मूल्य ी क्या ? ांि, सम्पज्त्त के साथ मशक्षा भी ो तो क्या पूछना ! कसा घर ब ुत ढढा पर न ममला तो अपनी ववरादरी के न थ।े बबरादरी भी ममली, तो जायजा न ममला!; जायजा भी ममला तो शते तय न ो सकी। इस तर मजबूर ोकर भारतदास को लीला का वववा लाला सन्तसरन के लडके सीतासरन से करना पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोडी ब ुत मशक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले-मकु दमंे समझता था और जरा हदल का रिंगीला भी था । सबसे बडी बात य थी कक रूपवान, बमलष्ठ, प्रसन्न मुख, सा सी आदमी था ; मगर ववचार व ी बाबा आदम के जमाने के थ।े पुरानी ज्जतनी बाते ै, सब अच्छी ; नयी ज्जतनी बातंे ै, सब खराब ै। जायदाद के ववषय में जमीिदं ार सा ब नये-नये दफों का व्यव ार करते थे, व ांि अपना कोई अज्ख्तयार न था ; लेककन सामाज्जक प्रथाओंि के कटटर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते या क ते व ी खदु भी क ता था। उसमंे खुद सोचने की शज्क्त ी न थी। बदु ्वव की मदंि ता ब ुिा सामाज्जक अनदु ारता के रूप मंे प्रकट ोती ै। 2 लीला ने ज्जस हदन घर मंे व वँॉ रखा उसी हदन उसकी परीक्षा शुरू ुई। वे सभी काम, ज्जनकी उसके घर में तारीफ ोती थी य ांि वज्जतग थे। उसे बचपन से
ताजी वा पर जान देना मसखाया गया था, य ािं उसके सामने मिुं खोलना भी पाप था। बचपन से मसखाया गया था रोशनी ी जीवन ै, य ािं रोशनी के दशनग दभु भग थे। घर पर अह संि ा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताये गये थे, य ािं इनका नाम लेने की भी स्वािीनता थी। संितसरन बडे तीखे, गसु ्सेवर आदमी थे, नाक पर मक्खी न बैठने देत।े िूततग ा और छल-कपट से ी उन् ोने जायदाद पैदा की थी। और उसी को सफल जीवन का मतिं ्र समझते थ।े उनकी पत्नी उनसे भी दो अगंि ुल ऊिं ची थीि।ं मजाल क्या ै कक ब ू अपनी अिंिेरी कोठरी के द्वार पर खडी ो जाय, या कभी छत पर ट ल सकंे । प्रलय आ जाता, आसमान मसर पर उठा लेती। उन् ें बकने का मजग था। दाल में नमक का जरा तजे ो जाना उन् ंे हदन भर बकने के मलए काफी ब ाना था । मोटी- ताजी मह ला थी, छींटि का घाघरेदार लिं गा प ने, पानदान बगल में रखे, ग नो से लदी ुई, सारे हदन बरोठे मंे माची पर बठै ी र ती थी। क्या मजाल कक घर में उनकी इच्छा के ववरूद्व एक पत्ता भी ह ल जाय ! ब ू की नयी-नयी आदतें देख देख जला करती थी। अब का े की आबरू ोगी। मंिुडरे पर खडी ो कर झाकंि ती ै। मेरी लडकी कसी दीदा-हदलेर ोती तो गला घोंट देती। न जाने इसके देश में कौन लोग बसते ै ! ग नंे न ी प नती। जब देखो नंगि ी-बुच्ची बनी बठै ी र ती ै। य भी कोई अच्छे लच्छन ै। लीला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पडती। तझु े भी च दँॉ नी में सोना अच्छा लगता ै, क्यों ? तू भी अपने को मदग क ता क ेगा ? य मदग कै सा कक औरत उसके क ने मंे न र े। हदन-भर घर मंे घुसा र ता ै। मंिु मंे जबान न ी ै ? समझता क्यों न ी ? सीतासरन क ता---अम्मांि, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो? मांि---मानगे ी क्यो न ी, तू मदग ै कक न ी ? मदग व चाह ए कक कडी ननगा से देखे तो औरत कांपि उठे । सीतासरन -----तमु तो समझाती ी र ती ो ।
मांि ---मेरी उसे क्या परवा ? समझती ोगी, बुहढया चार हदन में मर जायगी तब मैं मालककन ो ी जाउाँ गी सीतासरन --- तो मैं भी तो उसकी बातों का जबाब न ी दे पाता। देखती न ी ो ककतनी दबु लग ो गयी ै। व रिंग ी न ी र ा। उस कोठरी में पड-े पडे उसकी दशा बबगडती जाती ै। बेटे के मंिु से कसी बातें सनु माता आग ो जाती और सारे हदन जलती; कभी भाग्य को कोसती, कभी समय को। सीतासरन माता के सामने तो कसी बातें करता ; लेककन लीला के सामने जाते ी उसकी मनत बदल जाती थी। व व ी बातें करता था जो लीला को अच्छी लगती। य ािं तक कक दोनों वदृ ्वा की ंिसी उडातंे। लीला को इस में ओर कोई सखु न था । व सारे हदन कु ढती र ती। कभी चूल् े के सामने न बठै ी थी ; पर य ािं पसेररयों आटा थेपना पडता, मजरू ों और ट लओु िं के मलए रोटी पकानी पडती। कभी-कभी व चूल् े के सामने बैठी घिटं ो रोती। य बात न थी कक य लोग कोई म ाराज-रसोइया न रख सकते ो; पर घर की परु ानी प्रथा य ी थी कक ब ू खाना पकाये और उस प्रथा का ननभाना जरूरी था। सीतासरन को देखकर लीला का सतंि प्त ह्रदय एक क्षण के मलए शान्त ो जाता था। गमी के हदन थे और सन्ध्या का समय था। बा र वा चलती, भीतर दे फु कती थी। लीला कोठरी मंे बठै ी एक ककताब देख र ी थी कक सीतासरन ने आकर क ा--- य ांि तो बडी गमी ै, बा र बैठो। लीला—य गमी तो उन तानो से अच्छी ै जो अभी सनु ने पडगे े। सीतासरन—आज अगर बोली तो मैं भी बबगड जाऊिं गा। लीला—तब तो मेरा घर में र ना भी मजु ्श्कल ो जायेगा।
सीतासरन—बला से अलग ी र ंेगे ! लीला—मंै मर भी लाऊिं तो भी अलग र ूंि । व जो कु छ क ती सनु ती ै, अपनी समझ से मेरे भले ी के मलए क ती-सनु ती ै। उन् ें मुझसे कोई दशु ्मनी थोडे ी ै। ांि, में उनकी बातंे अच्छी न लगें, य दसू री बात ै।उन् ोंने खुद व सब कष्ट झले े ै, जो व मझु े झले वाना चा ती ै। उनके स्वास्र्थय पर उन कष्टो का जरा भी असर न ी पडा। व इस ६५ वषग की उम्र मंे मुझसे क ींि टांिठी ै। कफर उन् ें कै से मालमू ो कक इन कष्टों से स्वास्र्थय बबगड सकता ै। सीतासरन ने उसके मरु झाये ुए मुख की ओर करुणा नते ्रों से देख कर क ा— तमु ् ंे इस घर मंे आकर ब ुत द:ु ख स ना पडा। य घर तुम् ारे योग्य न था। तुमने पूवग जन्म मंे जरूर कोई पाप ककया ोगा। लीला ने पनत के ाथो से खेलते ुए क ा—य ािं न आती तो तुम् ारा प्रेम कै से पाती ? 3 पांचि साल गजु र गये। लीला दो बच्चों की मािं ो गयी। एक लडका था, दसू री लडकी । लडके का नाम जानकीसरन रखा गया और लडकी का नाम काममनी। दोनो बच्चे घर को गलु जार ककये र ते थे। लडकी लडकी दादा से ह ली थी, लडका दादी से । दोनों शोख और शरीर थंे। गाली दे बठै ना, मुंि धचढा देना तो उनके मलए मामलू ी बात थी। हदन-भर खाते और आये हदन बीमार पडे र त।े लीला ने खुद सभी कष्ट स मलये थे पर बच्चों मंे बरु ी आदतों का पडना उसे ब ुत बुरा मालूम ोता था; ककन्तु उसकी कौन सनु ता था। बच्चों की माता ोकर उसकी अब गणना ी न र ी थी। जो कु छ थे बच्चे थे, व कु छ न थी। उसे ककसी बच्चे को डाटने का भी अधिकार न था, सांसि फाड खाती थी।
सबसे बडी आपज्त्त य थी कक उसका स्वास्र्थय अब और भी खराब ो गया था। प्रसब काल में उसे वे भी अत्याचार स ने पडे जो अज्ञान, मूखतग ा और अििं ववश्वास ने सौर की रक्षा के मलए गढ रखे ै। उस काल-कोठरी में, ज ॉँ न वा का गुजर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों और दगु नग ्ि, और सील और गन्दगी भरी ुई थी, उसका कोमल शरीर सखू गया। एक बार जो कसर र गयी व दसू री बार पूरी ो गयी। चे रा पीला पड गया, आंिखे घसंि गयी।ंि कसा मालूम ोता, बदन में खनू ी न ी र ा। सरू त ी बदल गयी। गममयग ों के हदन थ।े एक तरफ आम पके , दसू री तरफ खरबजू े । इन दोनो फलो की कसी अच्छी फसल कभी न ुई थी अबकी इनमें इतनी ममठास न जाने क ा से आयी थी कक ककतना ी खाओ मन न भरे। सिंतसरन के इलाके से आम औरी खरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर खूब उछल-उछल खाताथा। बाबू सा ब पुरानी ड्डी के आदमी थे। सबेरे एक सैकडे आमों का नाश्ता करते, कफर पसेरी-भर खरबजू चट कर जात।े मालककन उनसे पीछे र ने वाली न थी। उन् ोने तो एक वक्त का भोजन ी बन्द कर हदया। अनाज सडने वाली चीज न ी। आज न ी कल खचग ो जायेगा। आम और खरबजू े तो एक हदन भी न ी ठ र सकत।े शुदनी थी और क्या। यों ी र साल दोनों चीजों की रेल-पेल ोती थी; पर ककसी को कभी कोई मशकायत न ोती थी। कभी पेट मंे धगरानी मालूम ुई तो ड की फंि की मार ली। एक हदन बाबू सतिं सरन के पेट में मीठा-मीठा ददग ोने लगा। आपने उसकी परवा न की । आम खाने बठै गये। सकै डा पूरा करके उठे ी थे कक कै ुई । धगर पडे कफर तो नतल-नतल करके पर कै और दस्त ोने लगे। ैजा ो गया। श र के डाक्टर बुलाये गये, लेककन आने के प ले ी बाबू सा ब चल बसे थे। रोना-पीटना मच गया। संधि ्या ोते- ोते लाश घर से ननकली। लोग दा -कक्रया करके आिी रात को लौटे तो मालककन को भी कै दस्त ो र े थ।े कफर दौड िपू शुरू ुई; लेककन सूयग ननकलते-ननकलते व भी मसिार गयी। स्त्री-पुरूष जीवनपयतं एक हदन के मलए भी अलग न ुए थे। सिंसार से भी साथ ी साथ गये, सयू ासग ्त के समय पनत ने प्रस्थान ककया, सूयोदय के समय पत्नी ने ।
लेककन मुशीबत का अभी अतंि न ुआ था। लीला तो संिस्कार की तयै ाररयों मे लगी थी; मकान की सफाई की तरफ ककसी ने ध्यान न हदया। तीसरे हदन दोनो बच्चे दादा-दादी के मलए रोते-रोते बठै क में जा पंि ुच।े व ांि एक आले का खरबूजज कटा ुआ पडा था; दो-तीन कलमी आम भी रखे थे। इन पर मज्क्खयािं मभनक र ी थीिं। जानकी ने एक नतपाई पर चढ कर दोनों चीजंे उतार लींि और दोंनों ने ममलकर खाई। शाम ोत- ोते दोनों को ैजा ो गया और दोंनो मांि-बाप को रोता छोड चल बसे। घर मंे अंिि रे ा ो गया। तीन हदन प ले ज ांि चारों तरफ च ल-प ल थी, व ािं अब सन्नाटा छाया ुआ था, ककसी के रोने की आवाज भी सनु ायी न देती थी। रोता ी कौन ? ले-दे के कु ल दो प्राणी र गये थ।े और उन् ंे रोने की सुधि न थी। 4 लीला का स्वास्र्थय प ले भी कु छ अच्छा न था, अब तो व और भी बेजान ो गयी। उठने-बठै ने की शज्क्त भी न र ी। रदम खोयी सी र ती, न कपड-े लत्ते की सुधि थी, न खाने-पीने की । उसे न घर से वास्ता था, न बा र से । ज ांि बैठती, व ी बठै ी र जाती। म ीनों कपडे न बदलती, मसर मंे तले न डालती बच्चे ी उसके प्राणो के आिार थे। जब व ी न र े तो मरना और जीना बराबर था। रात-हदन य ी मनाया करती कक भगवान ् य ांि से ले चलो । सखु -द:ु ख सब भुगत चुकी। अब सुख की लालसा न ी ै; लेककन बलु ाने से मौत ककसी को आयी ै ? सीतासरन भी प ले तो ब ुत रोया-िोया; य ािं तक कक घर छोडकर भागा जाता था; लेककन जयों-जयो हदन गजु रते थे बच्चों का शोक उसके हदल से ममटता था; सतंि ान का द:ु ख तो कु छ माता ी को ोता ै। िीरे-िीरे उसका जी सभिं ल गया। प ले की भ नॉँ त ममत्रों के साथ ंिसी-हदल्लगी ोने लगी। यारों ने और भी चंगि पर चढाया । अब घर का मामलक था, जो चा े कर सकता था, कोई
उसका ाथ रोकने वाला न ी था। सरै ’-सपाटे करने लगा। तो लीला को रोते देख उसकी आिंखे सजग ो जाती थींि, क ािं अब उसे उदास और शोक-मग्न देखकर झुिंझला उठता। ज्जंिदगी रोने ी के मलए तो न ी ै। ईश्वर ने लडके हदये थे, ईश्वर ने ी छीन मलये। क्या लडको के पीछे प्राण दे देना ोगा ? लीला य बातें सुनकर भौंचक र जाती। वपता के मिुं से कसे शब्द ननकल सकते ै। ससिं ार मंे कसे प्राणी भी ै। ोली के हदन थे। मदानग ा में गाना-बजाना ो र ा था। ममत्रों की दावत का भी सामान ककया गया था । अंदि र लीला जमींिन पर पडी ुई रो र ी थी त्या ोर के हदन उसे रोते ी कटते थें आज बच्चे बच्चे ोते तो अच्छे - अच्छे कपडे प ने कै से उछलते कफरत!े व ी न र े तो क ांि की तीज और क ािं के त्यो ार। स सा सीतासरन ने आकर क ा – क्या हदन भर रोती ी र ोगी ? जरा कपडे तो बदल डालो , आदमी बन जाओ । य क्या तमु ने अपनी गत बना रखी ै ? लीला—तुम जाओ अपनी म कफल मे बठै ो, तुम् े मेरी क्या कफक्र पडी ै। सीतासरन—क्या दनु नया में और ककसी के लडके न ी मरते ? तमु ् ारे ी मसर पर मुसीबत आयी ै ? लीला—य बात कौन न ी जानता। अपना-अपना हदल ी तो ै। उस पर ककसी का बस ै ? सीतासरन मेरे साथ भी तो तमु ् ारा कु छ कतवग ्य ै ? लीला ने कु तू ल से पनत को देखा, मानो उसका आशय न ी समझी। कफर मिंु फे र कर रोने लगी।
सीतासरन – मै अब इस मन ूसत का अन्त कर देना चा ता ूंि। अगर तमु ् ारा अपने हदल पर काबू न ी ै तो मेरा भी अपने हदल पर काबू न ी ै। मंै अब ज्जदंि गी – भर मातम न ी मना सकता। लीला—तुम रंिग-राग मनाते ो, मैं तमु ् ें मना तो न ी करती ! मैं रोती ूिं तो क्यूंि न ी रोने देत।े सीतासरन—मेरा घर रोने के मलए न ी ै ? लीला—अच्छी बात ै, तुम् ारे घर में न रोउंि गी। 5 लीला ने देखा, मेरे स्वामी मेरे ाथ से ननकले जा र े ै। उन पर ववषय का भतू सवार ो गया ै और कोई समझाने वाला न ी।िं व अपने ोश मे न ी ै। मैं क्या करुंि , अगर मंै चली जाती ूंि तो थोडे ी हदनो मंे सारा ी घर ममट्टी मंे ममल जाएगा और इनका व ी ाल ोगा जो स्वाथी ममत्रो के चगुंि ल में फंि से ुए नौजवान रईसों का ोता ै। कोई कु लटा घर मंे आ जाएगी और इनका सवनग ाश कर देगी। ईश्वा ! मंै क्या करूंि ? अगर इन् ें कोई बीमारी ो जाती तो क्या मैं उस दशा मे इन् ंे छोडकर चली जाती ? कभी न ी। मंै तन मन से इनकी सेवा-सुश्रूषा करती, ईश्वर से प्राथनग ा करती, देवताओिं की मनौनतयािं करती। माना इन् ंे शारीररक रोग न ी ै, लेककन मानमसक रोग अवश्य ै। आदमी रोने की जग ंिसे और ंिसने की जग रोये, उसके दीवाने ोने मंे क्या सदंि े ै ! मेरे चले जाने से इनका सवनग ाश ो जायेगा। इन् ें बचाना मेरा िमग ै। ांि, मुझंे अपना शोक भूल जाना ोगा। रोऊिं गी, रोना तो तकदीर मंे मलखा ी ै—रोऊिं गी, लेककन िंस- ंिस कर । अपने भाग्य से लडू गिं ी। जो जाते र े उनके नाम के मसवा और कर ी क्या सकती ूिं, लेककन जो ै उसे न जाने दिंगू ी। आ, क टू टे ुए ह्रदय ! आज तरे े टु कडों को जमा करके एक समाधि बनाऊिं और अपने
शोक को उसके वाले कर दंि।ू ओ रोने वाली आंिखों, आओ, मेरे आसंओिु ंि को अपनी वव िंमसत छटा मंे नछपा लो। आओ, मेरे आभषू णों, मनैं े ब ुत हदनों तक तमु ् ारा अपमान ककया ै, मेरा अपराि क्षमा करो। तमु मेरे भले हदनो के साक्षी ो, तुमने मेरे साथ ब ुत वव ार ककए ै, अब इस संकि ट में मरे ा साथ दो ; मगर देखो दगा न करना ; मेरे भेदों को नछपाए रखना। वपछले प र को प कफल में सन्नाटा ो गया। ू- ा की आवाजंे बदंि ो गयी। लीला नेसोचा क्या लोग क ी चले गये, या सो गये ? एकाएक सन्नाटा क्यों छा गया। जाकर द लीज में खडी ो गयी और बैठक में झािकं कर देखा, सारी दे में एक जवाला-सी दौड गयी। ममत्र लोग ववदा ो गये थ।े समाज्जयो का पता न था। के वल एक रमणी मसनद पर लेटी ुई थी और सीतासरन सामने झकु ा ुआ उससे ब ुत िीरे-िीरे बातें कर र ा था। दोनों के चे रों और आखंि ो से उनके मन के भाव साफ झलक र े थे। एक की आंखि ों मंे अनरु ाग था, दसू री की आखंि ो मंे कटाक्ष ! एक भोला-भोला ह्रदय एक मायाववनी रमणी के ाथों लुटा जाता था। लीला की सम्पज्त्त को उसकी आखिं ों के सामने एक छमलनी चुराये जाती थी। लीला को कसा क्रोि आया कक इसी समय चलकर इस कु ल्टा को आडे ाथों लूिं, कसा दतु ्कारूिं व भी याद करंे, खडे-,खडे ननकाल दिं।ू व पत्नी भाव जो ब ुत हदनो से सो र ा था, जाग उठा और ववकल करने लगा। पर उसने जब्त ककया। वेग में दौडती ुई तषृ ्णाएिं अक्समात ् न रोकी जा सकती थी। व उलटे पावंि भीतर लौट आयी और मन को शािंत करके सोचने लगी—व रूप रंिग मंे, ाव-भाव मंे, नखरे-नतल्ले मंे उस दषु ्टा की बराबरी न ी कर सकती। बबलकु ल चादंि का टु कडा ै, अगंि -अंगि में स्फू नतग भरी ुई ै, पोर-पोर मंे मद छलक र ा ै। उसकी आंखि ों में ककतनी तषृ ्णा ै। तषृ ्णा न ी, बज्ल्क जवाला ! लीला उसी वक्त आइने के सामने गयी । आज कई म ीनो के बाद उसने आइने में अपनी सूरत देखी। उस मुख से एक आ ननकल गयी। शोक न उसकी कायापलट कर दी थी। उस रमणी के सामने व कसी लगती थी जैसे गुलाब के सामने जू ी का फू ल
6 सीतासरन का खुमार शाम को टू टा । आखंे खलु ीिं तो सामने लीला को खडे मसु ्कराते देखा। उसकी अनोखी छवव आिंखों में समा गई। कसे खशु ुए मानो ब ुत हदनो के ववयोग के बाद उससे भंेट ुई ो। उसे क्या मालूम था कक य रुप भरने के मलए ककतने आसिं ू ब ाये ै; कै शों मे य फू ल गथंूि ने के प ले आंिखों मंे ककतने मोती वपरोये ै। उन् ोनें एक नवीन प्रेमोत्सा से उठकर उसे गले लगा मलया और मसु ्कराकर बोले—आज तो तुमने बडे-बडे शास्त्र सजा रखे ै, क ािं भागूिं ? लीला ने अपने ह्रदय की ओर उिं गली हदखकर क ा –-य ा आ बठै ो ब ुत भागे कफरते ो, अब तुम् ें बािंिकर रखगू ीिं । बाग की ब ार का आनंदि तो उठा चुके , अब इस अंिि ेरी कोठरी को भी देख लो। सीतासरन ने जज्जजत ोकर क ा—उसे अिंिेरी कोठरी मत क ो लीला व प्रेम का मानसरोवर ै ! इतने मे बा र से ककसी ममत्र के आने की खबर आयी। सीताराम चलने लगे तो लीला ने ाथ उनका पकडकर ाथ क ा—मंै न जाने दिंगू ी। सीतासरन-- अभी आता ूिं। लीला—मझु े डर ै क ीिं तुम चले न जाओ। सीतासरन बा र आये तो ममत्र म ाशय बोले –आज हदन भर सोते ो क्या ? ब ुत खुश नजर आते ो। इस वक्त तो व ािं चलने की ठ री थी न ? तमु ् ारी रा देख र ी ै। सीतासरन—चलने को तैयार ूंि, लेककन लीला जाने न ीिं देगी।ंि
ममत्र—ननरे गाउदी ी र े। आ गए कफर बीवी के पंिजे में ! कफर ककस बबरते पर गरमाये थे ? सीतासरन—लीला ने घर से ननकाल हदया था, तब आश्रय ढू ढता – कफरता था। अब उसने द्वार खोल हदये ै और खडी बुला र ी ै। ममत्र—आज व आनंदि क ािं ? घर को लाख सजाओ तो क्या बाग ो जायेगा ? सीतासरन—भई, घर बाग न ी ो सकता, पर स्वगग ो सकता ै। मझु े इस वक्त अपनी क्षद्रता पर ज्जतनी लजजा आ र ी ै, व मैं ी जानता ूिं। ज्जस संति ान शोक मंे उसने अपने शरीर को घलु ा डाला और अपने रूप-लावण्य को ममटा हदया उसी शोक को के वल मेरा एक इशारा पाकर उसने भलु ा हदया। कसा भुला हदया मानो कभी शोक ुआ ी न ी ! मंै जानता ूिं व बडे से बडे कष्ट स सकती ै। मेरी रक्षा उसके मलए आवश्यक ै। जब अपनी उदासीनता के कारण उसने मेरी दशा बबगडते देखी तो अपना सारा शोक भलू गयी। आज मनंै े उसे अपने आभषू ण प नकर मुस्कराते ुिंए देखा तो मेरी आत्मा पुलककत ो उठी । मझु े कसा मालूम ो र ा ै कक व स्वगग की देवी ै और के वल मुझ जसै े दबु लग प्राणी की रक्षा करने भेजी गयी ै। मैने उसे कठोर शब्द क े, वे अगर अपनी सारी सम्पज्त्त बेचकर भी ममल सकते, तो लौटा लेता। लीला वास्तव में स्वगग की देवी ै! ***
आधार सारे ग वॉँ मे मथुरा का सा गठीला जवान न था। कोई बीस बरस की उमर थी । मसें भीग र ी थी। गउएिं चराता, दिू पीता, कसरत करता, कु श्ती लडता था और सारे हदन बािंसरु ी बजाता ाट मे ववचरता था। ब्या ो गया था, पर अभी कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई ल की खते ी थी, कई छोटे-बडे भाई थ।े वे सब ममलचलु कर खेती-बारी करते थे। मथुरा पर सारे ग वँॉ को गवग था, जब उसे ज नॉँ घये-लंगि ोटे, नाल या मगु ्दर के मलए रूपये-पैसे की जरूरत पडती तो तुरन्त दे हदये जाते थ।े सारे घर की य ी अमभलाषा थी कक मथुरा प लवान ो जाय और अखाडे मे अपने सवाये को पछाड।े इस लाड – प्यार से मथुरा जरा टराग ो गया था। गायें ककसी के खेत मे पडी ै और आप अखाडे मे दिंड लगा र ा ै। कोई उला ना देता तो उसकी त्योररयािं बदल जाती। गरज कर क ता, जो मन मे आये कर लो, मथरु ा तो अखाडा छोडकर ाकंि ने न जायंेगे ! पर उसका डील-डौल देखकर ककसी को उससे उलझने की ह म्मत न पडती । लोग गम खा जाते गममयग ो के हदन थे, ताल-तलैया सखू ी पडी थी। जोरों की लू चलने लगी थी। ग वँॉ मंे क ीिं से एक सांिड आ ननकला और गउओंि के साथ ो मलया। सारे हदन गउओिं के साथ र ता, रात को बस्ती मंे घसु आता और खटिूं ो से बििं े बलै ो को सींिगों से मारता। कभी-ककसी की गीली दीवार को सीिगं ो से खोद डालता, घर का कू डा सीगिं ो से उडाता। कई ककसानो ने साग-भाजी लगा रखी थी, सारे हदन सींिचते-सीिचं ते मरते थे। य साडिं रात को उन रे-भरे खेतों में प ुंिच जाता और खेत का खेत तबा कर देता । लोग उसे डडंि ों से मारते, ग वॉँ के बा र भगा आते, लेककन जरा देर मंे गायों में प ुिंच जाता। ककसी की अक्ल काम न करती थी कक इस सिकं ट को कै से टाला जाय। मथुरा का घर गावंि के बीच मे था, इसमलए उसके खेतो को साडंि से कोई ानन न प ुिंचती थी। गाविं मंे उपद्रव मचा ुआ था और मथुरा को जरा भी धचन्ता न थी।
आखखर जब िैयग का अिनं तम बिंिन टू ट गया तो एक हदन लोगों ने जाकर मथरु ा को घरे ा और बौले—भाई, क ो तो गाविं में र ें, क ीिं तो ननकल जाएंि । जब खते ी ी न बचगे ी तो र कर क्या करेगें .? तमु ् ारी गायों के पीछे मारा सत्यानाश ुआ जाता ै, और तुम अपने रंिग में मस्त ो। अगर भगवान ने तुम् ें बल हदया ै तो इससे दसू रो की रक्षा करनी चाह ए, य न ी कक सबको पीस कर पी जाओ । सांडि तुम् ारी गायों के कारण आता ै और उसे भगाना तमु ् ारा काम ै ; लेककन तमु कानो में तले डाले बैठे ो, मानो तुमसे कु छ मतलब ी न ी। मथरु ा को उनकी दशा पर दया आयी। बलवान मनुष्य प्राय: दयालु ोता ै। बोला—अच्छा जाओ, म आज सांडि को भगा दंेगे। एक आदमी ने क ा—दरू तक भगाना, न ी तो कफर लोट आयेगा। मथरु ा ने किं िे पर लाठी रखते ुए उत्तर हदया—अब लौटकर न आयेगा। 2 धचलधचलाती दोप री थी। मथरु ा साडिं को भगाये मलए जाता था। दोंनो पसीने से तर थे। सािडं बार-बार गावंि की ओर घमू ने की चषे ्टा करता, लेककन मथुरा उसका इरादा ताडकर दरू ी से उसकी रा छंे क लेता। सांिड क्रोि से उन्मत्त ोकर कभी-कभी पीछे मडु कर मथुरा पर तोड करना चा ता लेककन उस समय मथुरा सामाना बचाकर बगल से ताबड-तोड इतनी लाहठयािं जमाता कक सािंड को कफर भागना पडता कभी दोनों अर र के खेतो मंे दौडते, कभी झाडडयों मंे । अर र की खूहटयों से मथरु ा के पािंव ल ू-लु ान ो र े थे, झाडडयों में िोती फट गई थी, पर उसे इस समय साडंि का पीछा करने के मसवा और कोई सुि न थी। गांवि पर गािंव आते थे और ननकल जाते थे। मथरु ा ने ननश्चय कर मलया कक इसे नदी पार भगाये बबना दम न लिगंू ा। उसका कंि ठ सूख गया था और आंिखें
लाल ो गयी थी, रोम-रोम से धचनगाररयांि सी ननकल र ी थी, दम उखड गया था ; लेककन व एक क्षण के मलए भी दम न लेता था। दो ढाई घिटं ो के बाद जाकर नदी आयी। य ी ार-जीत का फै सला ोने वाला था, य ी से दोनों खखलाडडयों को अपने दाविं -पंेच के जौ र हदखाने थे। सांडि सोचता था, अगर नदी में उतर गया तो य मार ी डालेगा, एक बार जान लडा कर लौटने की कोमशश करनी चाह ए। मथुरा सोचता था, अगर व लौट पडा तो इतनी मे नत व्यथग ो जाएगी और गािवं के लोग मेरी ंिसी उडायेगें। दोनों अपने – अपने घात में थ।े सािंड ने ब ुत चा ा कक तजे दौडकर आगे ननकल जाऊिं और व ांि से पीछे को कफरूंि , पर मथुरा ने उसे मुडने का मौका न हदया। उसकी जान इस वक्त सईु की नोक पर थी, एक ाथ भी चकू ा और प्राण भी गए, जरा पैर कफसला और कफर उठना नशीब न ोगा। आखखर मनषु ्य ने पशु पर ववजय पायी और सािडं को नदी में घुसने के मसवाय और कोई उपाय न सूझा। मथरु ा भी उसके पीछे नदी मे पैठ गया और इतने डिडं े लगाये कक उसकी लाठी टू ट गयी। 3 अब मथुरा को जोरो से प्यास लगी। उसने नदी में मुंि लगा हदया और इस तर ौंक- ौंक कर पीने लगा मानो सारी नदी पी जाएगा। उसे अपने जीवन मंे कभी पानी इतना अच्छा न लगा था और न कभी उसने इतना पानी पीया था। मालूम न ी, पाचिं सेर पी गया या दस सेर लेककन पानी गरम था, प्यास न बझिुं ी; जरा देर मंे कफर नदी मंे मिंु लगा हदया और इतना पानी पीया कक पेट में सांसि लेने की जग भी न र ी। तब गीली िोती कंि िे पर डालकर घर की ओर चल हदया। लेककन दस की पाचिं पग चला ोगा कक पेट में मीठा-मीठा ददग ोने लगा। उसने सोचा, दौड कर पानी पीने से कसा ददग अकसर ो जाता ै, जरा देर में दरू ो जाएगा। लेककन ददग बढने लगा और मथरु ा का आगे जाना कहठन ो गया। व एक पेड के नीचे बैठ गया और ददग से बैचने ोकर जमीन पर लोटने लगा। कभी पेट को दबाता, कभी खडा ो जाता कभी बैठ जाता, पर ददग
बढता ी जाता था। अन्त में उसने जोर-जोर से करा ना और रोना शुरू ककया; पर व ांि कौन बठै ा था जो, उसकी खबर लेता। दरू तक कोई गािंव न ी, न आदमी न आदमजात। बेचारा दोप री के सन्नाटे में तडप-तडप कर मर गया। म कडे से कडा घाव स सकते ै लेककन जरा सा-भी व्यनतक्रम न ी स सकत।े व ी देव का सा जवान जो कोसो तक सािंड को भगाता चला आया था, तत्वों के ववरोि का एक वार भी न स सका। कौन जानता था कक य दौड उसके मलए मौत की दौड ोगी ! कौन जानता था कक मौत ी साडंि का रूप िरकर उसे यों नचा र ी ै। कौरन जानता था कक जल ज्जसके बबना उसके प्राण ओठों पर आ र े थे, उसके मलए ववष का काम करेगा। संिध्या समय उसके घरवाले उसे ढूंिढते ुए आये। देखा तो व अनितं ववश्राम में मग्न था। 4 एक म ीना गजु र गया। गांवि वाले अपने काम-िंििे में लगे । घरवालों ने रो-िो कर सब्र ककया; पर अभाधगनी वविवा के आसिं ू कै से पछुिं ते । व रदम रोती र ती। आिखं े चांि े बन्द भी ो जाती, पर ह्रदय ननत्य रोता र ता था। इस घर मंे अब कै से ननवाग ोगा? ककस आिार पर ज्जऊंि गी? अपने मलए जीना या तो म ात्माओिं को आता ै या लम्पटों ी को । अनपू ा को य कला क्या मालमू ? उसके मलए तो जीवन का एक आिार चाह ए था, ज्जसे व अपना सवसग ्व समझ,े ज्जसके मलए व मलये, ज्जस पर व घमंडि करे । घरवालों को य गवारा न था कक व कोई दसू रा घर करे। इसमंे बदनामी थी। इसके मसवाय कसी सशु ील, घर के कामों में कु शल, लेन-देन के मामलो में इतनी चतुर और रिंग रूप की कसी सरा नीय स्त्री का ककसी दसू रे के घर पड जाना ी उन् ें असह्रय था। उिर अनपू ा के मैककवाले एक जग बातचीत पक्की कर र े थे। जब सब बातें तय ो गयी, तो एक हदन अनपू ा का भाई उसे ववदा कराने आ प ुिंचा।
अब तो घर में खलबली मची। इिर क ा गया, म ववदा न करेगें । भाई ने क ा, म बबना ववदा कराये मानंेगे न ी। गािवं के आदमी जमा ो गये, पचंि ायत ोने लगी। य ननश्चय ुआ कक अनपू ा पर छोड हदया जाय, जी चा े र े। य ािं वालो को ववश्वास था कक अनूपा इतनी जल्द दसू रा घर करने को राजी न ोगी, दो-चार बार कसा क भी चकु ी थी। लेककन उस वक्त जो पूछा गया तो व जाने को तैयार थी। आखखर उसकी ववदाई का सामान ोने लगा। डोली आ गई। गांिव-भर की ज्स्त्रया उसे देखने आयीिं। अनपू ा उठ कर अपनी सािसं के परै ो मंे धगर पडी और ाथ जोडकर बोली—अम्मा, क ा-सनु ाद माफ करना। जी में तो था कक इसी घर में पडी र ूंि, पर भगवान को मजंि रू न ी ै। य क ते-क ते उसकी जबान बन्द ो गई। सास करूणा से ववहृवल ो उठी। बोली—बेटी, ज ांि जाओंि व ािं सुखी र ो। मारे भाग्य ी फू ट गये न ी तो क्यों तुम् ंे इस घर से जाना पडता। भगवान का हदया और सब कु छ ै, पर उन् ोने जो न ी हदया उसमंे अपना क्या बस ; बस आज तुम् ारा देवर सयाना ोता तो बबगडी बात बन जाती। तुम् ारे मन मंे बठै े तो इसी को अपना समझो : पालो-पोसो बडा ो जायगे ा तो सगाई कर दंिगू ी। य क कर उसने अपने सबसे छोटे लडके वासुदेव से पछू ा—क्यों रे ! भौजाई से शादी करेगा? वासुदेव की उम्र पािंच साल से अधिक न थी। अबकी उसका ब्या ोने वाला था। बातचीत ो चुकी थी। बोला—तब तो दसू रे के घर न जायगी न? मा—न ी, जब तरे े साथ ब्या ो जायगी तो क्यों जायगी? वासुदेव-- तब मंै करूिं गा
मांि—अच्छा, उससे पूछ, तझु से ब्या करेगी। वासदु ेव अनूप की गोद मंे जा बठै ा और शरमाता ुआ बोला— मसे ब्या करोगी? य क कर व िंसने लगा; लेककन अनपू की आखंि ंे डबडबा गयींि, वासुदेव को छाती से लगाते ुए बोली ---अम्मा, हदल से क ती ो? सास—भगवान ् जानते ै ! अनूपा—आज य मेरे ो गये? सास— ांि सारा गािंव देख र ा ै । अनूपा—तो भैया से क ला भजै ो, घर जाय,ें मंै उनके साथ न जाऊिं गी। अनूपा को जीवन के मलए आिार की जरूरत थी। व आिार ममल गया। सेवा मनषु ्य की स्वाभाववक वजृ ्त्त ै। सेवा ी उस के जीवन का आिार ै। अनूपा ने वासुदेव को लालन-पोषण शुरू ककया। उबटन और तैल लगाती, दिू -रोटी मल-मल के खखलाती। आप तालाब न ाने जाती तो उसे भी न लाती। खते में जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थौडे की हदनों मंे उससे ह ल-ममल गया कक एक क्षण भी उसे न छोडता। मािं को भलू गया। कु छ खाने को जी चा ता तो अनूपा से मािंगता, खले में मार खाता तो रोता ुआ अनपू ा के पास आता। अनूपा ी उसे सुलाती, अनूपा ी जगाती, बीमार ो तो अनूपा ी गोद मंे लेकर बदलू वैि के घर जाती, और दवायंे वपलाती। गािवं के स्त्री-पुरूष उसकी य प्रेम तपस्या देखते और दाितं ो उंि गली दबात।े प ले बबरले ी ककसी को उस पर ववश्वास था। लोग समझते थे, साल-दो-साल में
इसका जी ऊब जाएगा और ककसी तरफ का रास्ता लेगी; इस दिु मुिं े बालक के नाम कब तक बैठी र ेगी; लेककन य सारी आशिंकाएंि ननमलू ग ननकलीं।ि अनपू ा को ककसी ने अपने व्रत से ववचमलत ोते न देखा। ज्जस ह्रदय मे सेवा को स्रोत ब र ा ो—स्वािीन सेवा का—उसमें वासनाओंि के मलए क ांि स्थान ? वासना का वार ननममग , आशा ीन, आिार ीन प्राखणयों पर ी ोता ै चोर की अििं रे े में ी चलती ै, उजाले में न ी। वासुदेव को भी कसरत का शोक था। उसकी शक्ल सरू त मथुरा से ममलती- जलु ती थी, डील-डौल भी वैसा ी था। उसने कफर अखाडा जगाया। और उसकी बांसि ुरी की तानें कफर खेतों मंे गजू ने लगी।िं इस भाानँ त १३ बरस गुजर गये। वासुदेव और अनपू ा मंे सगाई की तैयारी ोने लगी।ंि 5 लेककन अब अनूपा व अनपू ा न थी, ज्जसने १४ वषग प ले वासुदेव को पनत भाव से देखा था, अब उस भाव का स्थान मातभृ ाव ने मलया था। इिर कु छ हदनों से व एक ग रे सोच में डू बी र ती थी। सगाई के हदन जयो-जयों ननकट आते थे, उसका हदल बैठा जाता था। अपने जीवन में इतने बडे पररवतनग की कल्पना ी से उसका कलेजा द क उठता था। ज्जसे बालक की भ नत पाला- पोसा, उसे पनत बनाते ुए, लजजा से उसका मंिखु लाल ो जाता था। द्वार पर नगाडा बज र ा था। बबरादरी के लोग जमा थ।े घर में गाना ो र ा था! आज सगाई की नतधथ थी : स सा अनपू ा ने जा कर सास से क ा—अम्मािं मै तो लाज के मारे मरी जा र ी ूिं। सास ने भौंचक्की ो कर पछू ा—क्यों बेटी, क्या ै?
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