Important Announcement
PubHTML5 Scheduled Server Maintenance on (GMT) Sunday, June 26th, 2:00 am - 8:00 am.
PubHTML5 site will be inoperative during the times indicated!

Home Explore Mansarovar 6 by premchand, hindi_clone

Mansarovar 6 by premchand, hindi_clone

Published by THE MANTHAN SCHOOL, 2021-04-06 04:42:20

Description: Mansarovar 6 by premchand, hindi

Search

Read the Text Version

ववद्यािरी अलाव के सामने बठै ी ुम थी, इतने मंे पडिं डत श्रीिर ने द्वार खटखटाया। ववद्यािरी को काटो तो लो ू न ीं।ि उसने उठकर द्वार खोल हदया और मसर झुका कर खडी ो गम। पडिं डत जी ने बडे आ‍चया से कमरे मंे तनगा दौडाम, पर र स्य कु छ समझ में न आया। बोले कक ककवाड बिंद करके क्या ो र ा ै? ववद्यािरी ने उत्तर न हदया। तब पंिडडत दी ने छडी उठा ली और अलाव कु रेदा तो कंि गन तनकल आया। उसका सपंि णू ता ः रूपाितं र ो गया था। न व चमक थी, न व रंिग, न व आकार। घबराकर बोले, ववद्यािरी, तुम् ारी बवु द्ध क ाँ ै? ववद्यािरी - भ्रष्ट ो गम ै। पडंि डत - इस किं गन ने तुम् ारा क्या त्रबगाडा था? ववद्यािरी - इसने मेरे हृदय मंे आग लगा रखी ै। पंिडडत - ीसी अमलू ्य वस्तु ममट्टी मंे ममल गम। ववद्यािरी - इसमंे उससे भी अमलू ्य वस्तु का अप रण ककया ै। पडंि डत - तुम् ारा मसर तो न ींि कफर गया ै। ववद्यािरी - शायद आपका अनुमान सत्य ै। पिंडडत जी ने ववद्यािरी की ओर चभु नवे ाली तनगा ों से देखा। ववद्यािरी की आखँ ंे नीचे को झकु गम। व उनसे आँखंे न ममला सकी। भय ुआ कक क ींि व तीव्र दृग्ष्ट मेरे हृदय में न चभु जा । पंिडडत कठोर स्वर में बोले - ववद्यािरी, तुम् ें स्पष्ट क ना ोगा। ववद्यािरी से अब न रूका गया, व रोने लगी और पडिं डत जी के सम्मखु िरती पर धगर पडी। 11

ववद्यािरी को जब सुि आम तो पडंि डत जी का व ाँ पता न था। घबराम ुम बा र के दीवानखाने मंे आम, मगर य ाँ भी उन् ें न पाया। नौकरों से पूछा तो मालमू ुआ कक घोडे पर सवार ोकर ज्ञानसरोवर की ओर ग ै। य सुनकर ववद्यािरी को कु छ ढाढस ुआ। व द्वार पर खडी ोकर उनकी रा देखती र ी। दोप र ुआ, सूया मसर पर आया, संिध्या ुम, धचडडयाँ बसेरा लेने लगी कफर रात आम, गगन मंे तारागण जगमगाने लगे; ककंि तु ववद्यािरी दीवार की भाँतत खडी पतत का इिंतजार करती र ी। रात भीग गम, वनजिंतओु िं के भयानक शब्द कानों में आने लगे, सन्नाटा छा गया। स सा उसे घोडे के टापों की ध्वतन सनु ाम दी। उसका हृदय फडकने लगा। आनिंदोन्मत्त ोकर द्वार के बा र तनकल आम; ककंि तु घोडे पर सवार न था। ववद्यािरी को वव‍वास ो गया कक अब पततदेव के दशान न ोंगे। य तो उन् ोंने संनि ्यास ले मलया या आत्मघात कर मलया। उसके किं ठ से वैरानय और ववषाद में डू बी ुम ठंि डी सासँ तनकली। व ी भमू म पर बठै गम और सारी रात खून के आसँ ू ब ाती र ी। जब उषा की तनरा भिंग ुम और पषों ी आनिंदगान करने लगे तब व दु खया उठी और अिदं र जाकर लेट गम। ग्जस प्रकार सूया का ताव जल को सोख लेता ै, उसी भाँतत शोक के ताव ने ववद्यािरी का रक्त जला हदया। मुख से ठंि डी साँस तनकलती थी, आखँ ों से गमा आँसू ब ते थ।े भोजन से अरुधच ो गम और जीवन से घणृ ा। इसी अवस्था में क हदन राजा रणिीरमसिं समवदे ना-भाव से उसके पास आ । उन् ंे देखते ी ववद्यािरी की आखँ ंे रक्तवणा ो गम, क्रोि से ओिंठ काँपने लगे, झल्लाम ुम नाधगन की भाँतत फु फकार कर उठी और राजा के सम्मुख आकर कका श स्वर से बोली, पापी, य आग तरे ी ी लगाम ुम ै। यहद मुझमंे अब भी कु छ सत्य ै, तो तुझे इस दषु ्टता के कडु वे फल ममलंेगे। ये तीर के -से शब्द राजा के हृदय मंे चुभ ग । मँु से क शब्द भी न तनकला। काल से न डरनवे ाला राजपूत क स्त्री की आननेय दृग्ष्ट से काँप उठा। 12

क वषा बीत गया, ह मालय पर मनो र ररयाली छाम, फू लों ने पवता ों की गोद मंे क्रीडा करनी शुरू की, जल-थल ने बफा की सफु े दी चादर ओढी, जलपक्षषों यों की माता ँ मदै ानों की ओर उडती ुम हदखाम देने लगी। य मौसम भी गजु रा। नदी- नालों में दिू की िारंे ब ने लगी; चिंरमा की स्वच्छ तनमला ज्योतत ज्ञानसरोवर में धथरकने लगी, परंितु पिंडडत श्रीिर की कु छ टो न लगी। ववद्यािरी ने राजभवन त्याग हदया और क परु ाने तनजना महंि दर मंे तपग्स्वतनयों की भातँ त कालषों ेप करने लगी। उस दु खया की दशा ककतनी करुणाजनक थी। उसे देखकर मेरी आँखंे भर आती थीं।ि व मेरी प्यारी सखी थी। उसकी सिगं त मंे मेरे जीवन के कम वषा आनदिं से व्यतीत ु थे। उसका य अपार दःु ख देख कर मैं अपना दःु ख भूल गम। क हदन व था कक उसने अपने पाततव्रत के बल पर मनुष्य को पशु के रूप में पररणत कर हदया था, और आज य हदन ै कक उसका पतत भी उसे त्याग र ा ै। ककसी स्त्री के हृदय पर इससे अधिक लज्जाजनक, इससे अधिक प्राणघातक आघात न ींि लग सकता। उसकी तपस्या ने मेरे हृदय में उसे कफर उसी सम्मान के पद पर त्रबठा हदया। उसके सतीत्व पर कफर मेरी श्रद्धा ो गम; ककिं तु उससे कु छ पूछत,े सातिं ्वना देते मझु े सकिं ोच ोता था। मंै डरती थी कक क ींि ववद्यािरी य न समझे कक मैं उससे बदला ले र ी ूँ। कम म ीनों के बाद जब ववद्यािरी ने अपने हृदय का बोझा ल्का करने के मल स्वयंि मुझसे य वतृ ्तािंत क ा तो मझु े ज्ञात ुआ कक य सब काँटे राजा रणिीरमसंि के बोये ु थे। उन् ींि की प्रेरणा से रानी जी ने पंडि डत जी के साथ जाने से रोका। उसके स्वभाव ने जो कु छ रंिग बदला व रानी जी ी की कु संिगतत का फल था। उन् ींि की देखा-देखी उसे बनाव-शिंगृ ार की चाट पडी, उन् ीिं के मना करने से उसने कंि गन का भेद पिंडडत जी से तछपाया। ीसी घटना ँ ग्स्त्रयों के जीवन मंे तनत्य ोती र ती ै और उन् ंे जरा भी शिकं ा न ीिं ोती। ववद्यािरी का पाततव्रत आदशा था। इसमल य ववचलता उसके हृदय में चभु ने लगी। मैं य न ींि क ती कक ववद्यािरी कत्तवा ्यपथ से ववचमलत न ीिं ुम, चा े ककसी के ब कावे से, चा े अपने भोलेपन से, उसने कत्तवा ्य का सीिी रास्ता छोड हदया, परिंतु पाप-कल्पना उसके हदल से कोसों दरू थी।

13 ी मुसाकफर, मनैं े पिडं डत श्रीिर का पता लगाना शुरू ककया। मंै उनकी मनोवगृ ्त्त से पररधचत थी। व श्रीरामचरंि के भक्त थ।े कौशलपरु ी की पववत्र भूमम और सरयू नदी के रमणीक तट उनके जीवन के सुखस्वप्न थ।े मझु े ख्याल आया कक संिभव ै, उन् ोंने अयोध्या की रा ली ो। क ींि मेरे प्रयत्न से उनकी खोज ममल जाती और मैं उन् ंे लाकर ववद्यािरी के गले से ममला देती, तो मेरा जीवन सफल ो जाता। इस ववरह णी ने ब ुत दखु झले े ै। क्या अब भी देवताओंि को उस पर दया न आ गी? क हदन मनंै े शेरमसिं से क ा और पाँच वव‍वस्त मनषु ्यों के साथ अयोध्या को चली। प ाडों से नीचे उतरते ी रेल ममल गम। उसमंे मने यात्रा सलु भ कर दी। बीसवंे हदन मैं अयोध्या प ुँच गम और िमशा ाले में ठ री। कफर सरयू मंे स्नान करके श्रीरामचरंि के दशान को चली। महिं दर के आँगन में प ुँची ी थी कक पिंडडत श्रीिर की सौम्य मतू ता हदखाम दी। व क कु शासन पर बठै े ु रामायण का पाठ कर र े थे और स ् नर-नारी बैठे ु उनकी अमतृ वाणी का आनदंि उठा र े थ।े पडंि डत जी की दृग्ष्ट मझु पर ज्यों ी पडी, व आसन से उठकर मेरे पास आ और बडे प्रेम से मेरा स्वागत ककया। दो-ढाम घंिटे तक उन् ोंने मझु े उस महिं दर की सैर कराम। मिंहदर के छत पर से सारा नगर शतरंिज के त्रबसात की भातँ त मेरे परै ों के नीचे फै ला ुआ हदखाम देता था। मंिदगाममनी वायु सरयू की तरंिगों को िीरे- िीरे थपककयाँ दे र ी थी। ीसा जान पडता था मानो स्ने मयी माता ने इस नगर को अपनी गोद मंे ले मलया ो। य ाँ से जब अपने डरे े को चली तब पडंि डत जी भी मेरे साथ आ । जब व इतमीनन से बठै े तो मैने क ा - आपने तो म लोगों से नाता ी तोड मलया। पिंडडत जी ने दु खत ोकर क ा - वविाता की य ी इच्छा थी। मेरा क्या वश था। अब तो श्रीरामचंिर की शरण मंे आ गया ूँ और शेष जीवन उन् ींि की सेवा मंे भेंट ोगा।

मैं - आप तो श्रीरामचिरं जी की शरण में आ ग ै, उस अबला ववद्यािरी को ककसकी शरण मंे छोड हदया ै? पडिं डत - आपके मुख से ये शब्द शोभा न ीिं देत।े मनंै े उत्तर हदया - ववद्यािरी को मेरी मसफाररश की आव‍यकता न ीिं ै। अगर आपने उसके पाततव्रत पर सदंि े ककया ै तो आपसे ीसा भीषण पाप ुआ ै, ग्जसका प्रायग्‍चत आप बार-बार जन्म लेकर भी न ीिं कर सकत।े आपकी य भग्क्त इस अिमा का तनवारण न ींि कर सकती। आप क्या जानते ै कक आपके ववयोग में उस दु खया का जीवन कै से कट र ा ै। ककिं तु पडिं डत जी ने ीसा मँु बना मलया, मानो इस ववषय में व अितं तम शब्द क चकु े । ककिं तु मैं इतनी आसानी से उनका पीछा क्यों छोडने लगी। मनैं े सारी कथा आद्योपांति सुनाम। और रणिीरमसंि की कपटनीतत का र स्य खोल हदया तब पडिं डत जी की आखँ ें खलु ी। मैं वाणी मंे कु शल ूँ, ककंि तु उस समय सत्य और न्याय के पषों ने मेरे शब्दों को ब ुत ी प्रभावशाली बना हदया था। ीसा जान पडता था, मानो मेरी ग्जह्वा पर सरस्वती ववराजमान ो। अब व बातें याद आती ै तो मुझे स्वयिं आ‍चया ोता ै। आ खर ववजय मेरे ी साथ र ी। पिंडडत जी मेरे साथ चलने पर उद्यत ो ग । 14 य ाँ आकर मनंै े शेरमसंि को य ींि छोडा और पंिडडत जी के साथ अजनुा नगर को चली। म दोनों अपने ववचारों में मनन थ।े पिंडडत जी की गदान शमा से झुकी ुम थी क्योंकक अब उनकी ैमसयत रूठनेवालों की भाँतत न ींि, बग्ल्क मनानेवालों की तर थी।

आज प्रणय के सूखे ु िान पर कफर पानी पडगे ा, प्रेम की सूखी ुम नदी कफर उमडगे ीय जब म ववद्यािरी के द्वार पर प ुँचे तो हदन चढ आया था। पिडं डत जी बा र ी रुक ग थ।े मनंै े भीतर जाकर देखा तो ववद्यािरी पूजा पर थी। ककिं तु य ककसी देवता की पूजा न थी। देवता के स्थान पर पडंि डत जी की खडाऊँ रखी ुम थी। पाततव्रत का य अलौककक दृ‍य देखकर मेरा हृदय पलु ककत ो गया। मनैं े दौडकर ववद्यािरी के चरणों पर मसर झुका हदया। उसका शरीर सखू कर काटँ ा ो गया था और शोक ने कमर झुका दी थी। ववद्यािरी ने मझु े उठाकर छाती से लगा मलया और बोली - ब न, मझु े लग्ज्जत न करो। खूब आम, ब ुत हदनों से जी तुम् ें देखने को तरस र ा था। मनैं े उत्तर हदया - जरा अयोध्या चली गम थी। जब म दोनों देश मंे थी तो तब मैं क ीिं जाती तो ववद्यािरी के मल कोम न कोम उप ार अव‍य लाती थी। उसे य बात याद आ गम। सजल-नयन ोकर बोली - मेरे मल भी कु छ लाम? मैं - क ब ुत अच्छी वस्तु लाम ूँ। ववद्यािरी - क्या ै, देखू?ँ मैं - प ले बूझ जाओ। ववद्यािरी - सु ाग की वपटारी ोगी? मंै - न ींि, उससे अच्छी। ववद्यािरी - ठाकु र जी की मतू त?ा मंै - न ींि, उससे भी अच्छी।

ववद्यािरी - मेरे प्राणािार का कोम समाचार? मैं - उससे भी अच्छी। ववद्यािरी प्रबल आवगे से व्याकु ल ोकर उठी कक द्वार पर जाकर पतत का स्वागत करे, ककंि तु तनबला ता ने मन की अमभलाषा न तनकलने दी। तीन बार सँभली और तीन बार धगरी, तब मनंै े उसका मसर अपनी गोद में रख मलया और आचँ ल से वा करने लगी। उसका हृदय बडे वेग से िडक र ा था और पततदशान का आनदिं आँखों से आसँ ू बनकर तनकलता था। जब जरा धचत्त साविान ुआ तो उसने क ा - उन् ें बलु ा लो, उनका दशना मझु े रामबाण ो जा गा। ीसा ी ुआ। पंिडडत जी अंदि र आ , ववद्यािरी उठकर उनके परै ों से मलपट गम। देवी ने ब ुत हदनों के बाद पतत के दशना पा ै। अश्रुिारा से उनके पैर पखार र ी ै। मनैं े व ाँ ठ रना उधचत न समझा। इन दोनों प्रा णयों के हृदय मे ककतनी ी बातंे आ र ी ोंगी, दोनों क्या-क्या क ना और क्या-क्या सुनना चा ते ोंगे, इस ववचार से, मैं उठ खडी ुम और बोली - ब न, अब मंै जाती ूँ, शाम को कफर आऊँ गी। ववद्यािरी ने मेरी ओर आखँ ंे उठाम। पुतमलयों के स्थान पर हृदय रखा ुआ था। दोनों आखँ ें आकाश की ओर उठाकर बोली - म‍वर तमु ् ंे इस यश का फल दें। 15 ी मसु ाकफर, मनंै े दो बार पडिं डत श्रीिर को मौत के मँु से बचाया था, ककंि तु आज का-सा आनंदि कभी न प्राप्त ुआ था।

जब मैं ज्ञानसागर पर प ुँची तो दोप र ो चुकी थी मनैं े देखा कक कोम परु ुष गफु ा से तनकलकर ज्ञानसरोवर की ओर चला जाता ै। मुझे आ‍चया ुआ कक इस समय य ाँ कौन आया। लेककन जब समीप आ गया तो मेरे हृदय में ीसी तरंिगंे उठने लगी मानो छाती से बा र तनकल पडगे ा। य मेरे प्राणे‍वर, मेरे पततदेव थे। मंै चरणों मंे धगरना ी चा ती थी कक उनका कर-पाश मेरे गले में पड गया। पूरे दस वषों के बाद आज मझु े य शुभ हदन देखना नसीब ुआ। मझु े उस समय ीसा जान पडता था कक ज्ञानसरोवर के कमल मेरे ी मल खले ै, धगररराज ने मेरे ी मल फू ल की शय्या दी ै, वा मेरे ी मल झूमती ुम आ र ी ै। दस वषों के बाद मेरा उजडा ुआ घर बसा; ग ु हदन लौटे। मेरे आनंिद का अनुमान कौन कर सकता ै। मेरे पतत ने प्रेमकरुणा भरी आँखों से देखकर क ा, 'वप्रयविं दा?' ***

मयाादा की वदे ी य व समय था जब धचत्तौड मंे मदृ भु ावषणी मीरा प्यारी आत्माओंि को म‍वर- प्रेम के प्याले वपलाती थी। रणछोड जी के मंहि दर मंे जब भग्क्त से ववह्वल ोकर व अपने मिुर स्वरों मंे अपने पीयूषपरू रत पदों को गाती, तो श्रोतागण प्रेमानरु ाग से उन्मत्त ो जात।े प्रततहदन य स्वगीय आनदंि उठाने के मल सारे धचत्तौड के लोग ीसे उत्सुक ोकर दौडत,े जसै े हदन भर की प्यासी गायें दरू से ककसी सरोवर को देखकर उसकी ओर दौडती ैं। इस प्रेम-सुिा-सागर से के वल धचत्तौडवामसयों ी की तगृ ्प्त न ोती थी, बग्ल्क समस्त राजपूताना की मरुभूमम प्लाववत ो जाती थी। क बार ीसा सियं ोग ुआ कक झालावाड के रावसा ब और मिंदार-राज्य के कु मार, दोनों ी लाव-ल‍कर के साथ धचत्तौड आ । रावसा ब के साथ राजकु मारी प्रभा भी थी, ग्जसके रूप और गुण की दरू -दरू तक चचाा थी। य रणछोड जी के महंि दर में दोनों की आँखें ममली।िं प्रेम ने बाण चलाया। राजकु मार सारे हदन उदासीन भाव से श र की गमलयों मंे घूमा करता। राजकु मारी ववर से व्यधथत अपने म ल के झरोखों से झाकँ ा करती। दोनों व्याकु ल ो कर सधंि ्या समय मंहि दर में आते और य ाँ चंिर को देखकर कु मुहदनी खल जाती। प्रेम-प्रवीण मीरा ने कम बार इन दोनों प्रेममयों को सतषृ ्ण नेत्रों से परस्पर देखते ु पा कर उनके मन के भावों को ताड मलया। क हदन कीत्तना के प‍चात जब झालावाड के रावसा ब चलने लगे तो उसने मिंदार के राजकु मार को बुला कर उनके सामने खडा कर हदया और क ा - रावसा ब, मैं प्रभा के मल वर लाम ूँ, आप इसे स्वीकार कीग्ज ।

प्रभा लज्जा से गड-सी गम। राजकु मार ने गणु -शील पर रावसा ब प ले ी से मोह त ो र े थे, उन् ोंने उसे छाती से लगा मलया। उसी अवसर पर धचत्तौड के राणा भोजराज जी मिहं दर मंे आ । उन् ोंने प्रभा का मुख-चरंि देखा। उसकी छाती पर सापँ लोटने लगा। 2 झालावाड मंे बडी िमू थी। राजकु मारी प्रभा का आज वववा ोगा। मिदं ार से बारात आ गी। मे मानों की सवे ा-सम्मान की तैयाररयाँ ो र ी थीिं। दकु ानें सजी ुम थीिं। नौबतखाने आमोदालाप से गँूजते थे। सडकों पर सगु धिं ि तछडकी जाती थी, अट्टामलका ँ पुष्प-लताओंि से शोभायमान थीिं। पर ग्जसके मल ये सब तैयाररयाँ ो र ी थींि, व अपनी वाहटका के क वषृ ों के नीचे उदास बैठी ुम रो र ी थी। रतनवास मंे डोममतनयाँ आनंदि ोत्सव के गीत गा र ी थीं।ि क ीिं सदुंि ररयों के ाव- भाव थे, क ीिं आभषू णों की चमक-दमक, क ींि ास-परर ास की ब ार। नाइन बात- बात पर तजे ोती थी। मामलन गवा से फू ली न समाती थी। िोत्रबन आखँ ें हदखाती थी। कु म् ाररन मटके के सदृश फू ली ुम थी। मिडं प के नीचे परु ोह त जी बात-बात पर सवु ण-ा मुराओंि के मल ठु नकते थ।े रानी मसर के बाल खोले भखू ी- प्यासी चारों ओर दौडती थी। सबकी बौछारंे स ती थी और अपने भानय को सरा ती थी। हदल खोलकर ीरे-जवाह र लुटा र ी थी। आज प्रभा का वववा ै। बडे भानय से ीसी बातंे सनु ने में आती ंै। सब के सब अपनी-अपनी िुन मंे मस्त ंै। ककसी को प्रभा की कफक्र न ींि ै, जो वषृ ों के नीचे अके ली बठै ी रो र ी ै।

क रमणी ने आ कर नाइन से क ा - ब ुत बढ-बढ कर बातंे न कर, कु छ राजकु मारी का भी ध्यान ै? चल, उसके बाल गँूि। नाइन ने दातँ ों तले जीभ दबाम। दोनों प्रभा को ढूँढती ुम बाग में प ुँचीि।ं प्रभा ने उन् ें देखते ी आँसू पोंछ डाले। नाइन मोततयों से माँग भरने लगी और प्रभा मसर नीचा कक आखँ ों से मोती बरसाने लगी। रमणी ने सजल नते ्र ो कर क ा - बह न, हदल इतना छोटा मत करो। सँु मागँ ी मरु ाद पा कर इतनी उदास क्यों ोती ो? प्रभा ने अपनी स ेली की ओर देखकर क ा - बह न, जाने क्यों हदल बठै ा जाता ै। स ेली ने कफर छे ड कर क ा - वपया-ममलन की बेकली ैय प्रभा उदासीन भाव से बोली - कोम मेरे मन मंे बैठा क र ा ै कक अब उनसे मलु ाकात न ोगी। स ेली उसके के श सँवार कर बोली - जसै े उषाकाल से प ले कु छ अँिेरा ो जाता ै, उसी प्रकार ममलाप के प ले प्रेममयों का मन अिीर ो जाता ै। प्रभा बोली - न ीिं बह न, य बात न ीि।ं मझु े शकु न अच्छे न ीिं हदखाम देत।े आज हदन भर मेरी आखँ फडकती र ी। रात को मनंै े बरु े स्वप्न देख ंै। मझु े शंिका ोती ै कक आज अव‍य कोम न कोम ववघ्न पडने वाला ै। तुम राजा भोजराज को जानती ो न? सधिं ्या ो गम। आकाश पर तारों के दीपक जले। झालावाड मंे बूढे-जवान सभी लोग बारात की अगवानी के मल तयै ार ु । मरदों ने पागें सँवारी, शस्त्र साजे।

यवु ततयों शिंगृ ार कर गाती-बजाती रतनवास की ओर चली। जारों ग्स्त्रयाँ छत पर बठै ी बारात की रा देख र ी थीि।ं अचानक शोर मचा कक बारात आ गम। लोग सँभल कप बठै े , नगाडों पर चोटंे पडने लगी, सलाममयाँ दगने लगींि। जवानों ने घोडों पर ड लगाम। क षों ण मंे सवारों की क सेना राज-भवन के सामने आकर खडी ो गम। लोगों को देखकर बडा आ‍चया ुआ, क्योंकक य मिदं ार की बारात न ीिं थी बग्ल्क राणा भोजराज की सेना थी। झालावाडवाले अभी ववग्स्मत खडे ी थे, कु छ तनग्‍चत न कर सके थे कक क्या करना चाह । इतने मंे धचत्तौडवालों ने राज-म ल को घेर मलया। तब झालावाडी भी सचते ु । सँभल कर तलवारें खीच लीिं और आक्रमणकाररयों पर टू ट पड।े राजा म ल मंे घसु गया। रतनवास मंे भगदड मच गम। प्रभा सोल ों शंिगृ ार कक , स ेमलयों के साथ बठै ी थी। य लचल देखकर घबराम। इतने में रावसा ब ाँफते ु आ और बोले - बेटी प्रभा, राणा भोजराज ने मारे म ल को घरे मलया ै। तमु चटपट ऊपर चली जाओ और द्वार को बदंि कर लो। अगर म षों त्रत्रय ैं तो क धचत्तौडी य ाँ से जीता न जा गा। रावसा ब बात भी पूरी न करने पा थे कक राणा कम वीरों के साथ आ प ुँचे और बोले - धचत्तौडवाले तो मसर कटाने के मल आ ी ै। पर यहद राजपतू ैं तो राजकु मारी ले कर ी जायगंे े। वदृ ्ध रावसा ब की आखँ ों से ज्वाला तनकलने लगी। वे तलवार खचिं कर राणा पर झपटे। उन् ोंने वार बचा मलया और प्रभा से क ा - राजकु मारी मारे साथ चलोगी? प्रभा मसर झकु ा राणा के सामने आ कर बोली - ाँ, चलँगू ी। रावसा ब को कम आदममयों ने पकड मलया था। वे तडप कर बोले - प्रभा, तू राजपतू की कन्या ै?

प्रभा का आखँ ंे सजल ो गम। बोली - राणा भी तो राजपूतों के कु लततलक ै। रावसा ब को क्रोि मंे आ कर क ा - तनलजा ्जाय कटार के नीचे पडा ुआ बमलदान का पशु जसै ी दीन दृग्ष्ट से देखता ै, उसी भाँतत प्रभा ने रावसा ब की ओर देख कर क ा - ग्जस झालावाड की गोद में पली ूँ, क्या उसे रक्त से रिंगवा दँ?ू रावसा ब ने क्रोि से काँप कर क ा - षों त्रत्रयों को रक्त इतना प्यारा न ीिं ोता। मयादा ा पर प्राण देना उनका िमा ैय तब प्रभा की आखँ ंे लाल ो गम। चे रा तमतमाने लगा। बोली - राजपतू -कन्या अपने सतीत्व की रषों ा आप कर सकती ै। इसके मल रुधिर प्रवा की आव‍यकता न ीि।ं पल भर मंे राणा ने प्रभा को गोद मंे उठा मलया। त्रबजली की भाँतत झपट कर बा र तनकले। उन् ोंने उसे घोडे पर त्रबठा मलया, आप सवार ो ग और घोडे को उडा हदया। अन्य धचत्तौडडयों ने भी घोडों की बागें मोड दीिं, उसके सौ जवान भमू म पर पडे तडप र े थे; पर ककसी ने तलवार न उठाम थी। रात को दस बजे मदिं ारवाले भी प ुँच।े मगर य शोक-समाचार पाते ी लौट ग । मंदि ार-कु मार तनराशा से अचते ो गया। जसै े रात को नदी का ककनारा सनु सान ो जाता ै, उसी तर सारी रात झालावाड मंे सन्नाटा छाया र ा। 3

धचत्तौड के रंिग-म ल मंे प्रभा उदास बैठी सामने के सुन्दर पौिों की पग्त्तयाँ धगन र ी थी। संधि ्या का समय था। रिंग-ववरंिग के पषों ी वषृ ों ों पर बठै े कलरव कर र े थे। इतने मंे राणा ने कमरे में प्रवशे ककया। प्रभा उठ कर खडी ो गम। राणा बोले - प्रभा, मंै तमु ् ारा अपरािी ूँ। मैं बलपूवका तुम् ें माता-वपता की गोद से छीन लाया, पर यहद मैं तुमसे क ूँ कक य सब तुम् ारे प्रेम मंे वववश ोकर मनैं े ककया, तो तमु मन में ँसोगी और क ोगी कक य तनराले, अनठू े ढंिग की प्रीतत ै; पर वास्तव मंे य ी बात ै। जबसे मनैं े रणछोड जी के महंि दर मंे तुमको देखा, तबसे क षों ण भी ीसा न ीिं बीता कक मंै तुम् ारी सधु ि मंे ववकल न र ा ोऊँ । तमु ्ु ् ें अपनाने का अन्य कोम उपाय ोता, तो मंै कदावप इस पाशववक ढिंग से काम न लेता। मनैं े रावसा ब की सेवा में बारिंबार सिंदेशे भेजे; पर उन् ोंने मेशा मेरी उपेषों ा की। अंित में जब तुम् ारे वववा की अवधि आ गम और मनंै े देखा कक क ी हदन मंे तमु दसू रे की प्रेम-पात्री ो जाओगी और तुम् ारा ध्यान मेरी आत्मा को दवू षत करेगा, तो लाचार ोकर मझु े य अनीतत करनी पडी। मंै मानता ूँ कक य सवथा ा मेरी स्वाथाान्िता ै। मनैं े अपने प्रेम के सामने तुम् ारे मनोगत भावों को कु छ न समझा; पर प्रेम स्वयिं क बढी ुम स्वाथपा रता ै, जब मनुष्य को अपने वप्रयतम के मसवाय और कु छ न ीिं सूझता। मझु े परू ा वव‍वास था कक मंै अपने ववनीत भाव और प्रेम से तुमको अपना लँगू ा। प्रभा, प्यास से मरता ुआ मनषु ्य यहद ककसी गढे मंे मँु डाल दे, तो व दिंड का भागी न ीिं ै। मंै प्रेम का प्यासा ूँ। मीरा मेरी स िममणा ी ै। उसका हृदय प्रेम का सागर ै। उसका क चलु ्लू भी मुझे उन्मत्त करने के मल काफी था; पर ग्जस हृदय में म‍वर का वास ो व ाँ मेरे मल स्थान क ाँ? तमु शायद क ोगी कक यहद तुम् ारे मसर पर प्रेम का भूत सवार था तो क्या सारे राजपतू ाने में ग्स्त्रयाँ न थी।ंि तनस्सदंि े राजपतू ाने मंे सुदिं रता का अभाव न ींि ै और न धचत्तौडाधिपग्त्त की ओर से वववा की बातचीत ककसी के अनादर का कारण ो सकती ै; पर इसका जवाब तुम आप ी ो। इसका दोष तुम् ारे ी ऊपर ै। राजस्थान मंे क ी धचत्तौड ै, क ी राणा और क ी प्रभा। सभंि व ै, मेरे भानय मंे प्रेमानिदं भोगना न मलखा ो। य मैं अपने कमा-लेख को ममटाने का थोडा-सा प्रयत्न कर

र ा ूँ; परंितु भानय के अिीन बठै े र ना परु ुषों का काम न ीिं ै। मझु े इसमंे सफलता ोगी या न ींि, इसका फै सला तमु ् ारे ाथ ै। प्रभा की आँखंे जमीन की तरफ थी और मन फु दकनेवाली धचडडया का भाँतत इिर-उिर उडता कफरता था। व झालावाड को मारकाट से बचाने के मल राणा के साथ आम थी, मगर राणा के प्रतत उसके हृदय मंे क्रोि की तरंिगे उठ र ी थी। उसने सोचा था कक वे य ाँ आ ँगे तो उन् ंे राजपूत कु ल-कलिंक, अन्यायी, दरु ाचारी, दरु ात्मा, कायर क कर उनका गवा चरू -चरू कर दँगू ी। उसको वव‍वास था कक य अपमान उनसे न स ा जा गा और वे मुझे बलात अपने काबू मंे लाना चा ंेगे। इस अिंततम समय के मल उसने अपने हृदय को खूब मजबतू और अपनी कटार को खबू तजे कर रखा था। उसने तन‍चय कर मलया था कक इसका क वार उन पर ोगा, दसू रा अपने कलेजे पर और इस प्रकार य पाप-कािंड समाप्त ो जा गा। लेककन राणा की नम्रता, उनकी करुणात्मक वववेचना और उनके ववनीत भाव ने प्रभा को शांति कर हदया। आग पानी से बुझ जाती ै। राणा कु छ देर व ाँ बैठे र े, कफर उठकर चले ग । 4 प्रभा को धचत्तौड मंे र ते दो म ीने गजु र चकु े ंै। राणा उसके पास कफर न आ । इस बीच मंे उनके ववचारों में कु छ अंितर ो गया ै। झालावाड पर आक्रमण ोने के प ले मीराबाम को इसकी त्रबलकु ल खबर न थी। राणा ने इस प्रस्ताव को गुप्त रखा था। ककंि तु अब मीराबाम प्रायः उन् ंे इस दरु ाग्रा पर लग्ज्जत ककया करती ै और िीरे-िीरे राणा को भी वव‍वास ोने लगा ै कक प्रभा इस तर काबू में न ींि आ सकती। उन् ोंने उसके सुख-ववलास की सामग्री कत्र करने मंे कोम कसर न ीिं रख छोडी थी। लेककन प्रभा उनकी तरफ आँख उठाकर भी न ीिं देखती। राणा प्रभा की लौंडडयों से तनत्य का समाचार पछू ा करते ै और उन् ंे रोज व ी तनराशापूणा वतृ ्तािंत सनु ाम देता ै। मुरझाम ुम कली ककसी भातँ त न ींि खलती। अत व उनको कभी-कभी अपने इस दसु ्सा स पर प‍चाताप

ोता ै। वे पछताते ै कक मनैं े व्यथा ी य अन्याय ककया। लेककन कफर प्रभा का अनपु म सौंदया नते ्रों के सामने आ जाता ै और व अपने मन को इस ववचार से समझा लेते ै कक क सगवाा सुंिदरी का प्रेम इतनी जल्दी पररवततता न ीिं ो सकता। तनस्सिंदे मेरा मदृ ु व्यव ार भी कभी न कभी अपना प्रभाव हदखला गा। प्रभा सारे हदन अके ली बठै ी-बठै ी उकताती और झँुझलाती थी। उसके ववनोद के तनममत्त कम गानेवाली ग्स्त्रयाँ तनयुक्त थीिं; ककिं तु राग--रंिग से उसे अरुधच ो गम। व प्रततषों ण धचतंि ा मंे डू बी र ती थी। राणा के नम्र भाषण का प्रभाव अब ममट चुका था और उसकी अमानवु षक वगृ ्त्त अब कफर अपने यथाथा रूप में हदखाम देने लगी थी। वाक्यचतुरता शांति तकारक न ीिं ोती। व के वल तनरुत्तर कर देती ैय प्रभा को अब अपने अवाकु् ो जाने पर आ‍चया ोता ै। उसे राणा की बातों के उत्तर भी सूझने लगे ंै। व कभी- कभी उनसे लडकर अपनी ककस्मत का फै सला करने के मल ववकल ो जाती ै। मगर अब वाद-वववाद ककस काम का? व सोचती ै कक मैं रावसा ब की कन्या ूँ; पर संसि ार की दृग्ष्ट मंे राणा की रानी ो चकु ी। अब यहद मैं इस कै द से छू ट भी जाऊँ तो मेरे मल क ाँ हठकाना ै? मंै कै से मँु हदखाऊँ गी? इससे के वल मेरे वंशि का ी न ींि, वरन ु् समस्त राजपूत-जातत का नाम डू ब जा गा। मिंदार-कु मार मेरे सच्चे प्रेमी ै। मगर क्या वे मझु े अिंगीकार करेगंे? और यहद वे तनदिं ा की परवा न करके मझु ग्र ण भी कर लें तो उनका मस्तक सदा के मल नीचा ो जा गा और कभी न कभी उनका मन मेरी तरफ से कफर जा गा। वे मुझे अपने कु ल का कंि लक समझने लगेंगे। या य ाँ से ककसी तर भाग जाऊँ ? लेककन भागकर जाऊँ क ाँ? बाप के घर? व ाँ अब मेरी पैठ न ीि।ं मदंि ार-कु मार के पास? इसमंे उनका अपमान ै और मेरा भी। तो क्या मभखाररणी बन जाऊँ ? इसमंे भी जग- ँसाम ोगी और न जाने प्रबल भावी ककस मागा पर ले जा । क अबला स्त्री के मल सिुदं रता प्राणघातक यंित्र से कम न ीिं । म‍वर, व हदन न आ कक

मंै षों त्रत्रय-जातत का कलकिं बनँू। षों त्रत्रय-जातत ने मयादा ा के मल पानी की तर रक्त ब ाया ै। उनकी जारों देववयाँ पर-परु ुष का मँु देखने के भय से सखू ी लकडी के समान जल मरी ंै। म‍वर, व घडी न आ कक मेरे कारण ककसी राजपतू का मसर लज्जा से नीचा ो। न ीिं, मैं इसी कै द में मर जाऊँ गी। राणा के अन्याय स ूँगी, जलँगू ी, मरूँ गी, पर इसी घर मंे। वववा ग्जससे ोना था, ो चुका। हृदय मंे उसकी उपासना करूँ गी, पर किं ठ के बा र उसका नाम न तनकालँगू ी। क हदन झँझु लाकर उसने राणा को बुला भेजा। वे आ । उनका च ेरा उतरा था। वे कु छ धचतंि तत-से थे। प्रभा कु छ क ना चा ती थी पर उनकी सरू त देखकर उसे उनपर दया आ गम। उन् ोंने उसे बात करने का अवसर न देकर स्वयिं क ना शुरू ककया - 'प्रभा तुमने आज मझु े बुलाया ै। य मेरा सौभानय ै। तुमने मेरी सुधि तो ली मगर य मत समझो कक मंै मदृ -ु वाणी सनु ने की आशा लेकर आया ूँ। न ींि, मंै जानता ूँ, ग्जसके मल तुमने मझु े बुलाया ै। य लो, तुम् ारा अपरािी तमु ् ारे सामने खडा ै। उसे जो दिंड चा ो, दो। मझु े अब तक आने का सा स न ुआ। इसका कारण य ी दिंड-भय था। तुम षों त्राणी ो और षों त्रा णयाँ षों मा करना न ींि जानती।ंि झालावाड में जब तुम मेरे साथ आने पर स्वयंि उद्यत ो गम, तो मनंै े उसी षों ण तमु ् ारे जौ र परख मलये। मुझे मालूम ो गया कक तुम् ारा हृदय बल और वव‍वास से भरा ुआ ै। उसे काबू में लाना स ज न ीं।ि तमु न ींि जानती कक य क मास मनैं े ककस तर काटा ै। तडप-तडपकर मर र ा ूँ, पर ग्जस तर मशकारी त्रबफरी ुम मसिं नी के सम्मखु जाने से डरता ै, व ी दशा मेरी थी। मैं कम बार आया। य ाँ तमु को उदास ततउररयाँ चढा बैठे देखा। मुझे अिंदर पैर रखने का सा स न ुआ; मगर आज मंै त्रबना बुलाया मे मान न ीिं ूँ। तमु ने मुझे बुलाया ै और तुम् ंे अपने मे मान का स्वागत करना चाह । हृदय से न स ी - ज ाँ अग्नन प्रज्वमलत ो, व ाँ ठंि डक क ाँ - बातों ी से स ी, अपने भावों को दबाकर ी स ी, मे मान का स्वागत करो। सिंसार मंे शत्रु का आदर ममत्रों से भी अधिक ककया जाता ै।

'प्रभा, क षों ण के मल क्रोि को शाितं करो और मेरे अपरािों पर ववचार करो। तुम मेरे ऊपर य ी दोषारोपण कर सकती ो कक मंै तमु ् ें माता-वपता की गोद से छीन लाया। तुम जानती ो, कृ ष्ण भगवान रुग्क्मणी को र ला थ।े राजपूतों मंे य कोम नम बात न ीिं ै। तुम क ोगी, इससे झालावाडवालों का अपमान ुआ; पर ीसा क ना कदावप ठीक न ीं।ि झालावाडावालों ने व ी ककया, जो मदों का िमा था। उनका पुरुषाथा देखकर म चककत ो ग । यहद वे कृ तकाया न ीिं ु तो य उनका दोष न ीिं ै। वीरों की सदैव जीत न ीिं ोती। म इसमल सफल ु कक मारी सखंि ्या अधिक थी और इस काम के मल तयै ार ोकर ग थ।े वे तन‍शंिक थे, इस कारण उनकी ार ुम। यहद म व ाँ से शीध्र ी प्राण बचाकर भाग न आते तो मारी गतत व ी ोती जो रावसा ब ने क ी थी। क भी धचत्तौडी न बचता। लेककन म‍वर के मल य मत सोचो कक मंै अपने अपराि के दषू ण को ममटाना चा ता ूँ। न ीिं, मझु से अपराि ुआ ै और मैं हृदय से उस पर लग्ज्जत ूँ। पर अब तो जो कु छ ोना था, ो चकु ा। अब इस त्रबगडे ु खेल को मंै तुम् ारे ऊपर छोडता ूँ। यहद मुझे तमु ् ारे हृदय में कोम स्थान ममले तो मैं उसे स्वगा समझँूगा। डू बते ु को ततनके का स ारा भी ब ुत ै। क्या य संिभव ै?' प्रभा बोली - न ी।ंि राणा - झालावाड जाना चा ती ो? प्रभा - न ींि। राणा - मंदि ार के राजकु मार के पास भेज दँ?ू प्रभा - कदावप न ी।ंि राणा - लेककन मझु से य तमु ् ारा कु ढना देखा न ीिं जाता।

प्रभा - आप इस कष्ट से शीध्र ी मुक्त ो जा ँगे। राणा ने भयभीत दृग्ष्ट से देखकर क ा, 'जसै ी तमु ् ारी इच्छा' और वे व ाँ से उठकर चले ग । 5 दस बजे रात का समय था। रणछोड जी मिंहदर में कीतना समाप्त ो चुका था और वषै ्णव सािु बैठे ु प्रसाद पा र े थ।े मीरा स्वयंि अपने ाथ से थाल ला- लाकर उनके आगे रखती थी। सािओु िं और अभ्यगतों के आदर-सत्कार में उस देवी को आग्त्मक आनदिं प्राप्त ोता था। सािुगण ग्जस प्रेम से भोजन करते थे, उससे य शंिका ोती थी कक स्वादपणू ा वस्तओु ंि मंे क ीिं भग्क्त-भजन से भी अधिक सुख तो न ीिं ै। य मसद्ध ो चुका ै कक म‍वर की दी ुम वस्तओु िं का सदपु योग ी म‍वरोपासना की मखु ्य रीतत ै। इसीमल ये म ात्मा लोग उपासना के ीसे अच्छे अवसरों को क्यों खोते? वे कभी पेट पर ाथ फे रते और कभी आसन बदलते थे। मँु से 'न ींि' क ना तो वे घोर पाप के समान समझते थ।े य भी मानी ुम बात ै कक जसै ी वस्तओु ंि का म सेवन करते ंै, वैसी ी आत्मा भी बनती ै। इसमल वे म ात्मागण घी और खोये से उदर को खूब भर र े थ।े पर उन् ीिं मंे क म ात्मा ीसे भी थे जो आँखंे बंदि कक ध्यान मंे मनन थे। थाल की ओर ताकते भी न थ।े इनका नाम प्रेमानंदि था। ये आज ी आ थे। इनके चे रे पर कांितत झलकती थी। अन्य सािु खाकर उठ ग , परंितु उन् ोंने थाल छु आ भी न ी। मीरा ने ाथ जोडकर क ा - म ाराज, आपने प्रसाद को छु आ भी न ी।ंि दासी से कोम अपराि तो न ीिं ुआ?

सािु - न ीिं, इच्छा न ींि थी। मीरा - पर मेरी ववनय आपको माननी पडगे ी। सािु - मैं तुम् ारी आज्ञा का पालन करूँ गा, तो तमु को भी मरे ी क बात माननी ोगी। मीरा - कह क्या आज्ञा ै। सािु - माननी पडगे ी। मीरा - मानँगू ी। सािु - वचन देती ो? मीरा - वचन देती ूँ, आप प्रसाद पा ँ। मीराबाम ने समझा था कक सािु कोम मंिहदर बनवाने या कोम यज्ञ पूणा करा देने की याचना करेगा। ीसी बातें तनत्य प्रतत ुआ करती थी और मीरा का सवसा ्व सािु-सेवा के मल अवपता था; परिंतु उसके मल सािु ने ीसी कोम याचना न की। य मीरा के कानों के पास मँु ले जाकर बोला - आज दो घिटं े के बाद राज- भवन का चोर दरवाजा खोल देना। मीरा ववग्स्मत ोकर बोली - आप कौन ै? सािु - मिंदारका राजकु मार। मीरा ने राजकु मार को मसर से पावँ तक देखा। नेत्रों में आदर की जग घणृ ा थी। क ा - राजपूत यों छल न ीिं करत।े

राजकु मार - य तनयम उस अवस्था के मल ै जब दोनों पषों समान शग्क्त रखते ों। मीरा - ीसा न ीिं ो सकता। राजकु मार - आपने वचन हदया ै, उसका पाल करना ोगा। मीरा - म ाराज की आज्ञा के सामने मेरे वचन का कोम म त्त्व न ीिं। राजकु मार - मंै य कु छ न ींि जानता। यहद आपको अपने वचन की कु छ मयाादा रखनी ै तो उसे पूरा कीग्ज । मीरा (सोचकर) - म ल में जाकर क्या करोगे? राजकु मार - नम रानी से दो-दो बातें। मीरा धचतिं ा मंे ववलीन ो गम। क तरफ राणा की कडी आज्ञा थी और दसू री तरफ अपना वचन और उसका पालन करने का पररणाम। ककतनी ी पौरा णक घटना ँ उसके सामने आ र ी थी। दशरथ ने वचन पालने के मल अपने वप्रय पुत्र को वनवास दे हदया। मैं वचन दे चुकी ूँ। उसे परू ा करना मेरा िमा ै; लेककन पतत की आज्ञा को कै से तोडूँ? यहद उनकी आज्ञा के ववरुद्ध करती ूँ तो लोक और परलोक दोनों त्रबगडते ंै। क्यों न उनसे स्पष्ट कर दँ।ू क्या वे मेरी य प्राथना ा स्वीकार न करेंगे? मनंै े आज तक उनसे कु छ न ीिं माँगा। आज उनसे य दान मागँगू ी। क्या वे मेरे वचन की मयाादा की रषों ा न करंेगे? उनका हृदय ववशाल ैय तनस्सदंि े वे मुझ पर वचन तोडने का दोष न लगने दंेगे। इस तर मन में तन‍चय करके व बोली - कब खोल दँ?ू राजकु मार ने उछल कर क ा - आिी रात को।

मीरा - मंै स्वयिं तुम् ारे साथ चलँगू ी। राजकु मार - क्यों? मीरा - तुमने मेरे साथ छल ककया ै। मझु े तमु ् ारा वव‍वास न ींि ै। राजकु मार ने लग्ज्जत ोकर क ा - अच्छा, तो आप द्वार पर खडी रह गा। मीरा - यहद कफर कोम दगा ककया तो जान से ाथ िोना पडगे ा। राजकु मार - मंै सब कु छ स ने के मल तैयार ूँ। 6 मीरा य ाँ से राणा की सेवा मंे प ुँची। वे उसका ब ुत आदर करते थ।े वे खडे ो ग । इस समय मीरा का आना क असािारण बात थी। उन् ोंने पूछा - बाम जी, क्या आज्ञा ै? मीरा - आपसे मभषों ा माँगने आम ूँ। तनराश न कीग्ज गा। मनैं े आज तक आपसे कोम ववनती न ीिं की; पर आज क ब्रह्म-फासँ में फँ स गम ूँ। इसमें से मझु े आप ी तनकाल सकते ैं? मिंदार के राजकु मार को तो आप जानते ै? राणा - ाँ, अच्छी तर । मीरा - आज उसने मुझे बडा िोखा हदया। क वैष्णव म ात्मा का रूप िारण कर रणछोड जी के मंहि दर मंे आया और उसने छल करके मझु े वचन देने पर बाध्य ककया। मेरा सा स न ीिं ोता कक उसकी कपच ववनय आपसे क ूँ।

राणा - प्रभा से ममला देने को तो क ा? मीरा - जी ा,ँ उसका अमभप्राय व ी ै। लेककन सवाल य ै कक मंै आिी रात को राजम ल का गपु ्त द्वार खोल दँ।ू मनंै े उसे ब ुत समझाया; ब ुत िमकाया; पर व ककसी भाँतत न माना। तनदान वववश ोकर जब मनैं े क हदया तब उसने प्रसाद पाया, अब मेरे वचन की लाज आपके ाथ ै। आप चा े उसे पूरा करके मेरा मान रखें, चा े उसे तोडकर मेरा मान तोड दंे। आप मेरे ऊपर जो कृ पादृग्ष्ट रखते ै, उसी के भरोसे मनंै े वचन हदया। अब मझु े इस फंि दे से उबारना आपका काम ै। राणा कु छ देर सोचकर बोले - तुमने वचन हदया ै, उसका पालन करना मेरा कतवा ्य ै। तुम देवी ो, तमु ् ारे वचन न ींि टल सकत।े द्वार खोल दो। लेककन य उधचत न ींि कक व अके ले प्रभा से मुलाकात करे। तमु स्वयिं उसके साथ जाना। मेरी खाततर से इतना कष्ट उठाना। मझु े भय ै कक व उसकी जान लेने का इरादा करके न आया ो। मष्याा से मनुष्य अंिि ा ो जाता ै। बाम जी, मंै अपने हृदय की बात तुमसे क ता ूँ। मझु े प्रभा को र लाने का अत्यतंि शोक ै। मनैं े समझा था कक य ाँ र ते-र ते व ह ल-ममल जा ँगी; ककंि तु व अनुमान गलत तनकला। मुझे भय ै कक यहद उसे कु छ हदन य ाँ और र ना पडा तो व जीती न बचगे ी। मझु पर क अबला की त्या का अपराि लग जा गा। मनैं े उसे झालावाड जाने के मल क ा, पर व राजी न ुम। आज तमु उन दोनों की बातें सुनो। अगर व मंिदार के राजकु मार के साथ जाने पर राजी ो, तो मंै प्रसन्नतापूवका अनमु तत दे दँगू ा। मझु से उसका कु ढना न ीिं देखा जाता। म‍वर इस सुंदि री का हृदय मेरी ओर फे र देता तो मेरा जीवन सफल ो जाता। ककिं तु जब य सुख भानय में मलखा ी न ींि तो क्या वश ै। मनैं े तमु से य बातें क ी, इसके मल मझु े षों मा करना। तमु ् ारे पववत्र हृदय मंे ीसे ववषयों के मल स्थान क ाँ?

मीरा ने आकाश की ओर संकि ोच से देखकर क ा - तो मुझे आज्ञा ै? मैं चोर- द्वार खोल दँ?ू राणा - तुम इस घर की स्वाममनी ो, मझु से पूछने की जरूरत न ी।ंि मीरा राणा को प्रणाम कर चली गम। 7 आिी रात बीत चकु ी थी। प्रभा चपु चाप बठै ी दीपक की ओर देख र ी थी और सोचती थी, इसके घुलने से प्रकाश ोता ै; य बत्ती अगर जलती ै तो दसू रों को लाभ प ुँचाती ै। मेरे जलने से ककसी को क्या लाभ? मैं क्यों घुलँू? मेरे जीने की जरूरत ै? उसने कफर खडकी से मसर तनकालकर आकाश की ओर देखा। काले पट पर उज्जवल तारे जगमगा र े थ।े प्रभा ने सोचा, मेरे अंिि कारमय भानय मंे ये दीग्प्तमान तारे क ाँ ंै, मेरे मल जीवन के सखु क ाँ ंै? क्या रोने के मल जीऊँ ? ीसे जीने से क्या लाभ? और जीने मंे उप ास भी तो ै। मेरे मन का ाल कौन जानता ै? संसि ार मेरी तनदंि ा करता ोगा। झालावाड की ग्स्त्रयाँ मेरे मतृ ्यु के शुभ समाचार सनु ने की प्रततषों ा कर र ी ोगीि।ं मेरी वप्रय माता लज्जा से आखँ ंे ने उठा सकती ोंगी। लेककन ग्जस समय मेरे मरने की खबर ममलेगी, गवा से उनका मस्तक ऊँ चा ो जा गा। य बे याम का जीना ै। ीसे जीने से मरना क ींि उत्तम ै। प्रभा ने तककये के नीचे से क चमकती ुम कटार तनकाली। उसके ाथ काँप र े थ।े उसने कटार की तरफ आँखंे जमायी।िं हृदय को उसके अमभवादन के मल मजबतू ककया। ाथ उठाया, ककंि तु ाथ न उठाया; आत्मा दृढ न थी। आखँ ंे झपक गम। मसर में चक्कर आ गया। कटार ाथ से छू ट कर जमीन पर धगर पडी।

प्रभा क्रु द्ध ोकर सोचने लगी - क्या मैं वास्तव मंे तनलजा ्ज ूँ? मंै राजपूतनी ो कर मरने से डरती ूँ? मान-मयाादा खोकर बे या लोग ी ग्जया करते ंै। व कौन-सी आकाषिं ों ा ै ग्जसने मेरी आत्मा को इतना तनबला बना रखा ै। क्या राणा की मीठी-मीठी बातें? राणा मेरे शत्रु ै। उन् ोंने मुझे पशु समझ रखा ै, ग्जसे फँ साने के प‍चात म वपजंि रे में बदंि करके ह लाते ैं। उन् ोंने मेरे मन को अपनी वाक्य-मिरु ता की क्रीडा-स्थल समझ मलया ै। वे इस तर घुमा-घुमा कर बातें करते ै और मेरी तरफ से युग्क्तयाँ तनकाल कर उनका ीसा उत्तर देते ै कक जबान बंदि ो जाती ै। ायय तनदायी ने मेरा जीवन नष्ट कर हदया और मझु े यों खले ाता ैय क्या इसीमल जीऊँ कक उसके कपच भावों का खलौना बनँू? कफर व कौन-सी अमभलाषा ै? क्या राजकु मार का प्रेम? उनकी तो अब कल्पना ी मेरे मल घोर पाप ै। मंै अब उस देवता के योनय न ीिं ूँ, वप्रयतमय ब ुत हदन ु मनैं े तुमको हृदय से तनकाल हदया। तुम भी मुझे हदल से तनकाल डालो। मतृ ्यु के मसवाय अब क ींि मेरा हठकाना न ींि ै। शंिकरय मेरी तनबला आत्मा को शग्क्त प्रदान करो। मुझे कत्तवा ्य-पालन का बल दो। प्रभा ने कफर कटार तनकाली। इच्छा दृढ थी। ाथ उठा और तनकट था कक कटार उसके शोकातरु हृदय में चुभ जा कक इतने मंे ककसी के पावँ की आ ट सनु ाम दी। उसने चौंक कर स मी दृग्ष्ट से देखा। मिंदार कु मार िीरे-िीरे परै दबाता ुआ कमरे में दा खल ुआ। 8 प्रभा उसे देखते ी चौंक पडी। उसने कटार को तछपा मलया। राजकु मार को देखकर उसे आनदंि की जग रोमांिचकारी भय उत्पन्न ुआ। यहद ककसी को जरा भी सिंदे ो गया तो इनका प्राण बचना कहठन ै। इनको तुरंित य ाँ से तनकल

जाना चाह । यहद इन् ंे बातंे करने का अवसर दँ ू तो ववलंिब ोगा और कफर ये अव‍य ी फँ स जा िंगे। राणा इन् ें कदावप न छोडगे े। वे ववचार वायु और त्रबजली की व्यग्रता के साथ उसके मग्स्तक मंे दौड।े व तीव्र स्वर मंे बोली - भीतर मत आओ। राजकु मार ने पछू ा - मझु े प चाना न ीिं? प्रभा - खूब प चान मलया; ककिं तु य बातें करने का समय न ीं।ि राणा तमु ् ारी घात में ै। अभी य ाँ से चले जाओ। राजकु मार ने क पग और आगे बढाया और तनभीकता से क ा - प्रभा, तुम मझु से तनष्ठु रता करती ो। प्रभा ने िमका कर क ा - तुम य ाँ ठ रोगे तो मंै शोर मचा दँगू ी। राजकु मार ने उद्दडिं ता से उत्तर हदया - इसका मझु े भय न ीिं। मंै अपनी जान थले ी पर रखकर आया ूँ। आज दोनों में से क का अतिं ो जा गा। या तो राणा र ेंगे या मैं र ूँगा। तुम मेरे साथ चलोगी? प्रभा ने दृढता से क ा - न ी।ंि राजकु मार व्यिंनय भाव से बोला - क्यो, क्या धचत्तौड की जलवायु पसदिं आ गम? प्रभा ने राजकु मार की ओर ततरस्कृ त नेत्रों से देखकर क ा - सिसं ार में अपनी सब आशा ँ पूरी न ींि ोती।ंि ग्जस तर य ाँ मैं अपना जीवन काट र ी ूँ, व मंै ी जानती ूँ; ककिं तु लोक-तनदंि ा भी तो कोम चीज ैय सिसं ार की दृग्ष्ट मंे मंै धचत्तौड की रानी ो चुकी ूँ। अब राणा ग्जस भाँतत रखंे उसी भातँ त र ूँगी। मैं अितं समय तक उनसे घणृ ा करूँ गी; जलँगू ी, कु ढूँगी। जब जलन न स ी जा गी, तो

ववष खा लँगू ी या छाती में कटार मार कर मर जाऊँ गी; लेकक इसी भवन में। इस घर के बा र कदावप पैर न रखगूँ ी। राजकु मार के मन मंे सिंदे ुआ कक प्रभा पर राणा का वशीकरण मंित्र चल गया। य मझु से छल कर र ी ै। प्रेम की जग मष्याा पैदा ुम। व उसी भाव से बोला - और यहद मैं य ाँ से उठा ले जाऊँ ? प्रभा के तीवर बदल ग । बोली - तो मैं व ी करूँ गी जो ीसी अवस्था मंे षों त्रा णयाँ ककया करती ंै। अपने गले में छु री मार लँगू ी या तमु ् ारे गले में। राजकु मार क पग और आगे बढाकर य कटु -वाक्य बोला - राणा के साथ तो तमु खशु ी से चली आम। उस समय छु री क ाँ गम थी? प्रभा को य शब्द शर-सा लगा। व ततलममलाकर बोली - उस समय इसी छु री के क वार से खून की नदी ब ने लगती। मंै न ींि चा ती थी कक मेरे कारण मेरे भाम-बंििुओिं की जान जा । इसके मसवाय मंै कँु वारी थी। मझु े अपनी मयादा ा के भिगं ोने का कोम भय न था। मनंै े पाततव्रत न ीिं मलया। कम से कम ससिं ार मझु े ीसा समझता था। मंै अपनी दृग्ष्ट में अब भी व ी ूँ, ककिं तु ससिं ार की दृग्ष्ट में कु छ और ो गम ूँ। लोक-लाज ने मुझे राणा की आज्ञाकाररणी बना हदया ै। पाततव्रत की बेडी जबरदस्ती मेरे परै ों में डाल दी गम ै। अब इसकी रषों ा करना मेरा िमा ै। इसके ववपरीत और कु छ करना षों त्रा णयों के नाम को कलंिककत करना ै। तमु मेरे घाव पर नमक क्यों तछडकते ो? य कौन-सी भलनमसी ै? मेरे भानय मंे जो कु छ बदा ै, व भोग र ी ूँ। मझु े भोगने दो और तुमसे ववनती करती ूँ कक शीघ्र ी य ाँ से चले जाओ। राजकु मार क पग और बढाकर दषु ्ट-भाव से बोला - प्रभा, य ाँ आकर तमु त्रत्रयाचररत्र में तनपुण ो गम। तमु मेरे साथ वव‍वातघात करके अब िमा की आड ले र ी ो। तुमने मेरे प्रणय को परै ों तले कु चल हदया और अब मयादा ा का ब ाना ढूँढ र ी ो। मैं इन नेत्रों मंे राणा को तुम् ारे सौंदय-ा पषु ्प का भ्रमर बनते

न ीिं देख सकता। मेरी कामना ँ ममट्टी में ममलती ंै तो तुम् ंे लेकर जा िंगी। मेरा जीवन नष्ट ोता ै तो उसके प ले तमु ् ारे जीवन का अतिं ोगा। तमु ् ारी बेवफाम का य ी दिंड ै। बोलो, क्या तन‍चय करती ो? इस समय मेरे साथ चलती ो या न ीिं? ककले के बा र मेरे आदमी खडे ैं। प्रभा ने तनभया ता से क ा - न ीिं। राजकु मार - सोच लो, न ीिं तो पछताओगी। प्रभा - खबू सोच मलया। राजकु मार ने तलवार खीिंच ली और व प्रभा की तरफ लपके । प्रभा भय से आँखंे बंिद कक क कदम पीछे ट गम। मालूम ोता था, उसे मूच्छाा आ जा गी। अकस्मात राणा तलवार मलये वगे के साथ कमरे मे दा खल ु । राजकु मार सँभल कर खडा ो गया। राणा ने मसंि के समान गरज कर क ा - दरू ट। षों त्रत्रय ग्स्त्रयों पर ाथ न ींि उठात।े राजकु मार ने तन कर उत्तर हदया - लज्जा ीन ग्स्त्रयों की य ी सजा ै। राणा ने क ा - तमु ् ारा बरै ी तो मंै था। मेरे सामने आते क्यों लजाते थे। जरा मंै भी तमु ् ारी तलवार की काट देखता। राजकु मार ने ीिंठकर राणा पर तलवार चलाम। शास्त्र-ववद्या मंे राणा अतत कु शल थे। वार खाली देकर राजकु मार पर झपटे। इतने में प्रभा, जो मगू ्च्छात अवस्था मंे दीवार से धचपटी खडी थी, त्रबजली की तर कौंिकर राजकु मार के सामने खडी ो गम। राणा वार कर चुके थ।े तलवार का परू ा ाथ उसके कंि िे पर पडा। रक्त की

फु ार छू टने लगी। राणा ने क ठंि डी साँस ली और उन् ोंने तलवार ाथ से फंे ककर धगरती ुम प्रभा को सँभाल मलया। षों णमात्र में प्रभा का मखु मिंडल वण-ा ीन ो गया। आखँ ंे बुझ गम। दीपक ठंि डा ो गया। मदंि ार कु मार ने भी तलवार फें क दी और व आँखों में आसँ ू भरकर प्रभा के सामने घुटने टेक कर बठै गया। दोनों प्रेममयों की आखँ ें सजल थी। पततगिं े बुझे ु दीपक पर जान दे र े थे। प्रेम के र स्य तनराले थे। अभी क षों ण ुआ राजकु मार प्रभा पर तलवार लेकर झपटा था। प्रभा ककसी प्रकार उसके साथ चलने पर उद्दत न ोती थी। लज्जा का भय, िमा की बेडी, कतवा ्य की दीवार रास्ता रोके खडी थी। परिंतु उसे तलवार के सामने देखकर उसने उस पर अपना प्राण अपणा कर हदया। प्रीतत की प्रथा तनबा दी, लेककन अपने वचन के अनुसार उसी घर मंे। ाँ, प्रेम के र स्य तनराले ंै। अभी क षों ण प ले राजकु मार प्रभा पर तलवार ले कर झपटा था। उसके खून का प्यासा था। मष्याा की अग्नन उसके हृदय में द क र ी थी। व रुधिर की िारा से शातिं ो गम। कु छ देर तक व अचते बैठा रोता र ा। कफर उठा और उसने तलवार उठा कर जोर से छाती में चुभा ली। कफर रक्त की फु ार तनकली। दोनों िारा ँ ममल गम और उनमें कोम भेद न र ा। प्रभा उसके साथ चलने पर राजी न थी। ककिं तु व प्रेम के बििं न को तोड न सकी। दोनों उस घर ी से न ींि, सिंसार से क साथ मसिारे। ***

मतृ ्यु के पीछे बाबू म‍वरचरंि को समाचारपत्रों में लेख मलखने की चाट उन् ीिं हदनों पडी जब वे ववद्याभ्यास कर र े थे। तनत्य न ववषयों की धचतिं ा में लीन र त।े पत्रों मंे अपना नाम देख कर उन् ंे उससे क ीिं ज्यादा खुशी ोती थी ग्जतनी परीषों ाओिं मंे उत्तीणा ोने या कषों ा मंे उच्च स्थान प्राप्त करने से ो सकती थी। व अपने कालेज के 'गरम-दल' के नते ा थ।े समाचारपत्रों मंे परीषों ापत्रों की जहटलता या अध्यापकों के अनुधचत व्यव ार की मशकायत का भार उन् ींि के मसर था। इससे उन् ें कालेज मंे प्रतततनधित्व का काम ममल गया। प्रततरोि के प्रत्येक अवसर पर उन् ीिं के नाम नेततृ ्व की गोटी पड जाती थी। उन् ें वव‍वास ो गया कक मैं इस पररममत षों ते ्र से तनकल कर ससिं ार के ववस्ततृ षों ते ्र में अधिक सफल ो सकता ूँ। म. . परीषों ाधथया ों मंे उनका नाम तनकलने भी न पाया था कक 'गौरव' के सपिं ादक म ोदय ने वानप्रस्थ लेने की ठानी और पत्रत्रका का भार म‍वरचिरं दत्त के मसर रखने का तन‍चय ककया। बाबू जी को य समाचार ममला तो उछल पड।े िन्य भानय कक मैं इस सम्मातनत पद के योनय समझा गयाय इसमंे सिंदे न ीिं कक व इस दातयत्व के गरु ुत्व से भली-भाँतत पररधचत थे, लेककन कीततला ाभ के प्रेम ने उन् ें बािक पररग्स्थततयों का सामना करने पर उद्यत कर हदया। व इस व्यवसाय में स्वाततिं ्र्य, आत्मगौरव, अनशु ीलन और दातयत्व की मात्रा को बढाना चा ते थे। भारतीय पत्रों को पग्‍चम के आदशा पर चलाने के इच्छु क थ।े इन इरादों को परू ा करने का सुअवसर ाथ आया। वे प्रेमोल्लास से उत्तगे ्जत ो कर नाली मंे कू द पड।े 2 म‍वरचिंर की पत्नी क ऊँ चे और िनाढ्य कु ल की लडकी थी और व ीसे कु लों की मयादा ावप्रयता और ममथ्या गौरवप्रेम से सपंि न्न थी। य समाचार पा कर डरी कक पतत म ाशय क ीिं इस झंिझट में फँ स कर काननू से मँु न मोड लंे। लेककन

जब बाबू सा ब ने आ‍वासन हदया कक य काया उनके कानून के अभ्यास में बािक न ोगा, तो कु छ न बोली। लेककन म‍वरचरंि को ब ुत जल्द मालूम ो गया कक पत्र सिंपादन क ब ुत ी मष्याायुक्त काया ै, जो धचत्त की समग्र वगृ ्त्तयों का अप रण कर लेता ै। उन् ोंने इसे मनोरंिजन का क सािन और ख्याततलाभ का क यतंि ्र समझा था। उसके द्वारा जातत की कु छ सवे ा करना चा ते थ।े उससे रव्योपाजना का ववचार तक न ककया था। लेककन नौका में बठै कर उन् ें अनुभव ुआ कक यात्रा उतनी सखु द न ींि ै ग्जतनी समझी थी। लेखों के सशंि ोिन, पररविना और पररवतना , लेखकगण से पत्र-व्यव ार और धचत्ताकषाक ववषयों की खोज और स योधगयों से आगे बढ जाने की धचतंि ा मंे उन् ें कानून का अध्ियन करने का अवकाश ी न ममलता। सुब को ककताबें खोलकर बैठते कक 100 पषृ ्ठ समाप्त कक त्रबना कदावप न उठूँ गा, ककिं तु ज्यों ी डाक का पिंमु लदा आ जाता, वे अिीर ोकर उन पर टू ट पडत,े ककताब खुली की खलु ी र जाती थी। बार-बार सकिं ल्प करते कक अब तनयममत रूप से पसु ्तकावलोकन करूँ गा और क तनहदाष्ट समय से अधिक समय सिपं ादनकाया मंे न लगाऊँ गा। लेककन पत्रत्रकाओिं का बडंि ल सामने आते ी हदल काबू के बा र ो जाता। पत्रों के नोक-झोंक, पत्रत्रकाओंि के तका -ववतका , आलोचना-प्रत्यालोचना, कववयों के काव्यचमत्कार, लेखकों का रचनाकौशल इत्याहद सभी बातें उन पर जादू का काम करती।ंि इस पर छपाम की कहठनाइयाँ, ग्रा क- सखंि ्या बढाने की धचतंि ा और पत्रत्रका को सवागा -सुदंि र बनाने की आकाषंि ों ा और भी प्राणों को सिकं ट मंे डाले र ती थी। कभी-कभी उन् ंे खदे ोता कक व्यथा ी इस झमेले में पडा; य ाँ तक कक परीषों ा के हदन मसर पर आ ग और वे इसके मल त्रबलकु ल तयै ार न थे। वे उसमंे सग्म्ममलत न ु । मन को समझाया कक अभी इस काम का श्रीगणशे ै, इसी कारण य सब बािा ँ उपग्स्थत ोती ै। अगले वषा य काम क सुव्यवग्स्थत रूप में आ जा गा और तब मैं तनग्‍चत ोकर परीषों ा में बठै ूँ गाय पास कर लेना क्या कहठन ै। ीसे बुद्धू पास ो जाते ै तो क सीिा-सा लेख भी न ींि मलख सकते, तो क्या मंै ी र जाऊँ गा? मानकी ने उनकी य बातें सनु ीिं तो खूब हदल के फफोले फोडे - मैं तो जानती थी कक य

िुन तमु ् ें महटयामेट कर देगी। इसमल बार-बार रोकती थी; लेककन तुमने मेरी क न सनु ी। आप तो डू बे ी, मुझे भी ले डू बे। उनके पूज्य वपता भी त्रबगड,े ह तवै षयों ने भी समझाया - अभी इस काम को कु छ हदनों के मल स्थधगत कर दो, कानून में उत्तीणा ो कर तनद्ावंिद्व देशोद्धार मंे प्रवतृ ो जाना। लेककन म‍वरचिरं क बार मैदान में आ कर भागना तनदंि ्य समझते थे। ाँ, उन् ोंने दृढ प्रततज्ञा की कक दसू रे साल परीषों ा के मल तन-मन से तैयारी करूँ गा। अत व न वषा के पदापणा करते ी उन् ोंने कानून की पुस्तकंे सिगं ्र की, पाठ्यक्रम तनग्‍चत ककया, रोजनामचा मलखने लगे और अपने चिंचल और ब ानबे ाज धचत्त को चारों ओर से जकडा, मगर चटपटे पदाथों का आस्वादन करने के बाद सरल भोजन कब रुधचकर ोता ैय काननू मंे वे घातें क ाँ, व उन्माद क ाँ, वे चोटंे क ाँ, व उत्तजे ना क ाँ, व लचल क ायँ बाबू सा ब अब तनत्य क खोम ुम दशा मंे र त।े जब तक वे अपने इच्छानुकू ल काम करते थे, चौबीस घिंटों में दो घटंि े काननू भी देख मलया करते थ।े इस नशे ने मानमसक शग्क्तयों को मशधथल कर हदया। स्नायु तनजीव ो ग । उन् ें ज्ञात ोने लगा कक अब मैं कानून के लायक न ीिं र ा और इस ज्ञान ने कानून के प्रतत उदासीनता का रूप िारण ककया। मन मंे संति ोषवगृ ्त्त का प्रादभु ावा ुआ। प्रारब्ि और पूवसा िंस्कार के मसद्धांति ों की शरण लेने लगे। क हदन मानकी ने क ा - य क्या बात ै? क्या कानून से कफर जी उचाट ुआ? म‍वरचरंि ने दसु ्सा सपूणा भाव से उत्तर हदया - ाँ भम, मेरा जी उससे भागता ै। मानकी ने व्यनंि य से क ा - ब ुत कहठन ै? म‍वरचंरि - कहठन न ीिं ै, और कहठन भी ोता तो मंै उससे डरने वाला न था, लेककन मुझे वकालत का पेशा ी पततत प्रतीत ोता ै। ज्यों-ज्यों वकीलों की

आतंि ररक दशा का ज्ञान ोता ै, मझु े उस पेश से घणृ ा ोती जाती ै। इसी श र मंे सकै डो वकील और बरै रस्टर पडे ु ै, लेककन क व्यग्क्त भी ीसा न ींि ग्जसके हृदय में दया ो, जो स्वाथपा रता को ाथों त्रबक न गया ो। छल और ितू ता ा इस पेशे का मूलतत्त्व ै। इसके त्रबना ककसी तर तनवाा न ींि। अगर कोम म ाशय जातीय आिदं ोलन मंे शरीफ भी ोते ै, तो स्वाथमा सवद्ध के मल , अपना ढोल पीटने के मल । म लोगों का समग्र जीवन वासना-भग्क्त पर अवपता ो जाता ै। दभु ाना य से मारे देश का मशक्षषों त समुदाय इसी दरगा का मुजावर ोता जाता ै और य ी कारण ै कक मारी जातीय सिंस्थाओंि की श्रीववृ द्ध न ीिं ोती। ग्जस काम में मारा हदल न ो; म के वल ख्यातत और स्वाथा-लाभ के मल उसके कणिा ार बने ु ों, व कभी न ीिं ो सकता। वतमा ान सामाग्जक व्यवस्था का अन्याय ै ग्जसने इस पेशे को इतना उच्च स्थान प्रदान कर हदया ै। य ववदेशी सभ्यता का तनकृ ष्टतम स्वरूप ै कक देश का बुवद्धबल स्वयिं िनोपाजना न करके दसू रों की पदै ा की ुम दौलत पर चनै करना, श द की मक्खी न बन कर चीटंि ी बनना अफने जीवन का लक्ष्य समझता ै। मानकी धचढ कर बोली - प ले तमु वकीलों की इतनी तनदिं ा न करते थेय म‍वरचिंर ने उत्तर हदया - तब अनभु व न था। बा री टीमटाम ने वशीकरण कर हदया था। मानकी - क्या जाने तमु ् ें पत्रों से क्यों इतना ै, मंै ग्जसे देखती ूँ, अपनी कहठनाइयों का रोना रोते ु पाती ूँ। कोम अपने ग्रा कों से न ग्रा क बनाने का अनरु ोि करता ै, कोम चंिदा न वसूल ोने की मशकायत करता ै। बता दो कक कोम उच्च मशषों ा प्राप्त मनषु ्य कभी इस पेशे मंे आया ै। ग्जसे कु छ न ीिं सूझती, ग्जसके पास न कोम सनद ो, न कोम डडग्री, व ी पत्र तनकाल बठै ता ै और भूखों मरने की अपेषों ा रूखी रोहटयों पर ी सतंि ोष करता ै। लोग ववलायत जाते ै, व ाँ कोम डाक्टरी पढता ै, कोम इंिजीतनयरी, कोम मसववल सववसा , लेककन आज तक न सुना कक कोम डीटरी का काम सीखने गया। क्यों सीखे? ककसी को

क्या पडी ै कक जीवन की म त्त्वकांषि ों ाओंि को खाक मंे ममला कर त्याग और ववराग मंे उम्र काटे? ाँ, ग्जनको सनक सवार ो गम ो, उनकी बात तनराली ै। म‍वरचंरि - जीवन का उद्द‍े य के वल िन-सिंचय करना ी न ींि ै। मानकी - अभी तुमने वकीलों की तनदंि ा करते ु क ा, य लोग दसू रों की कमाम खा कर मोटे ोते ै। पत्र चलानवे ाले भी तो दसू रों की कमाम खाते ंै। म‍वरचरिं ने बगलें झाकँ ते ु क ा - म लोग दसू रों की कमाम खाते ै, तो दसू रों पर जान भी देते ंै। वकीलों की भातँ त ककसी को लटू ते न ी।िं मानकी - य तुम् ारी ठिमी ै। वकील भी तो अपने मवु ग्क्कलों के मल जान लडा देते ै। उनकी कमाम भी उतनी ी ै, ग्जतनी पत्रवालों की। अंितर के वल य ै कक क की कमाम प ाडी ्ोता ै, दसू रे की बरसाती नाला। क में तनत्य जलप्रवा ोता ै, दसू रे में तनत्य िूल उडा करती ै। ब ुत ुआ, तो बरसात मंे घडी दो घडी के मल पानी आ गया। म‍वर - प ले तो मैं य ी न ींि मानता कक वकीलों की कमाम लाल ै और य मान भी लँू तो य ककसी तर न ीिं मान सकता कक सभी वकील फू लों की सेज पर सोते ैं। अपना-अपना भानय सभी जग ै। ककतने ी वकील ैं जो झूठी गवाह याँ देकर पेट पालते ंै। इस देश में समाचारपत्रों का प्रचार अभी ब ुत कम ै, इसी कारण पत्रसिचं ालकों की आधथका दशा अच्छी न ीिं ै। यूरोप और अमरीका में पत्र चलाकर लोग करोडपतत ो ग ै। इस समय सिसं ार के सभी समनु ्नत देशों के सूत्रिार या तो समाचारपत्रों के सिंपादक और लेखक ै, या पत्रों के स्वामी। ीसे ककतने ी अरबपतत ंै, ग्जन् ोंने अपनी सिंपग्त्त की नीिंव पत्रों पर ी खडी की थी...। म‍वरचंिर मसद्ध करना चा ते थे कक िन, ख्यातत और सम्मान प्राप्त करने का पत्र-संिचालन से उत्तम और कोम सािन न ीिं ै, और सबसे बडी बात तो य ै

कक इस जीवन मंे सत्य और न्याय का रषों ा करने के सच्चे अवसर ममलते ैं; परंितु मानकी पर इस वक्ततृ ा का जरा भी असर न ुआ। स्थूल दृग्ष्ट को दरू की चीजंे साफ न ींि दीखतीं।ि मानकी के सामने सफल सपंि ादक का कोम उदा रण न था। 3 16 वषा गुजर ग । म‍वरचिंर ने सिंपादकीय जगत में खबू नाम पैदा ककया, जातीय आिंदोलनों मंे अग्रसर ु , पुस्तकें मलखी, क दैतनक पत्र तनकाला, अधिकाररयों के भी सम्मानपात्र ु । बडा लडका बी. . में जा प ुँचा, छोटे लडके नीचे के दरजों में थ।े क लडकी का वववा भी क िन सिंपन्न कु ल मंे ककया ै। ववहदत य ी ोता था कक उनका जीवन बडा ी सखु मय ै; मगर उनकी आधथका दशा अब भी सिंतोषजनक न थी। खचा आमदनी से बढा ुआ था। घर की कम जार की जायदाद ाथ से तनकल गम, इस पर बकैं का कु छ न कु छ देना मसर पर सवार र ता था। बाजार में भी उनकी साख न था। कभी-कभी तो य ाँ तक नौबत आ जाती कक उन् ंे बाजार का रास्ता छोडना पडता। अब व अक्सर अपनी युवावस्था की अदरू दमशता ा पर अफसोस करते थ।े जातीय सेवा का भाव अब भी उनके हृदय में तरंिगंे मारता था; लेककन व देखते थे कक काम तो मैं तय करता ूँ और यश वकीलों और सेठों के ह स्सों मंे आ जाता था। उनकी धगनती अभी तक छु ट-भयै ों में थी। यद्यवप सारा श र जानता था कक य ाँ के सावजा तनक जीवन के प्राण व ी ै, पर य भाव कभी व्यक्त न ोता था। इन् ीिं कारणों से म‍वरचरिं को सपंि ादन काया से अरुधच ोती थी। हदनोंहदन उत्सा षों ीण ोता जाता था; लेककन इस जाल से तनकलने का कोम उपाय न सझू ता था। उनकी रचना मंे सजीवता न थी, न लेखनी मंे शग्क्त। उनके पत्र और पत्रत्रका दोनों ी से उदासीनता का भाव झलकता था। उन् ोंने सारा भार सिपं ादकों पर छोड हदया था, खदु ब ुत कम काम करते थे। ाँ, दोनो पत्रों की जड जम चुकी थी, इसमल ग्रा क-सखंि ्या कम न ोने पाती थी। वे अपने नाम पर चलते थे।

लेककन इस सघंि षा और सगंि ्राम के काल मंे उदासीनता का तनवाा क ा।ँ 'गौरव' के प्रततयोगी खडे कर हदये, ग्जनके नवीन उत्सा ने 'गौरव' से बाजी मार ली। उनका बाजार ठंि डा ोने लगा। न प्रततयोधगयों का जनता ने बडे षा से स्वागत ककया। उनकी उन्नतत ोने लगी। यद्यवप उनके मसद्धातंि भी व ी, लेखक भी व ी, ववषय भी व ी थे; लेककन आगिंतुकों ने उन् ीिं परु ानी बातों में नम जान डाल दी। उनका उत्सा देख म‍वरचिंर को भी जोश आया कक क बार कफर अपनी रुकी ुम गाडी मंे जोर लगा ंि; लेककन न अपने में सामथ्या थी, न कोम ाथ बँटानवे ाला नजर आता था। इिर-उिर तनराश नेत्रों से देखकर तोत्सा ो जाते थ।े ाय मनंै े अपना सारा जीवन सावजा तनक कायों में व्यतीत ककया, खते को बोया, सीिंचा, हदन को हदन और रात को रात न समझा, िपू में जला, पानी मंे भीगा और इतने पररश्रम के बाद जब फसल काटने के हदन आ तो मुझमंे ँमसया पकडने का भी बूता न ींि। दसू रे लोग ग्जनका क ींि पता न था, अनाज काट-काटकर खमल ान भरे लेते ै और मंै मँु ताकता ूँ। उन् ें परू ा वव‍वास था कक अगर कोम उत्सा शील यवु क मेरा शरीक ो जाता तो 'गौरव' अब भी अपने प्रततद्वदंि ्ववयों को परास्त कर सकता। सभ्य-समाज मंे उनकी िाक जमी ुम थी, पररग्स्थतत उनके अनुकू ल थी। जरूरत के वल ताजे खनू की थी। उन् ें अपने बडे लडके से ज्यादा उपयुक्त इस काम के मल और कोम न दीखता था। उसकी रुधच भी इस काम की ओर थी, पर मानकी के भय से व इस ववचार को जबान पर न ला सके थ।े इसी धचतिं ा मंे दो साल गुजर ग और य ाँ तक नौबत प ुँची कक या तो 'गौरव' का टाट उलट हदया जा या इसे पनु ः अपने स्थान पर प ुँचाने के मल कहटबद्ध ुआ जा । म‍वरचंिर ने इसके पुनरु ुद्धार के मल अतिं तम उद्योग करने का दृढ तन‍चय कर मलया। इसके मसवा और कोम उपाय न था। य पत्रत्रका उनके जीवन का सवसा ्व थी। इससे उनके जीवन और मतृ ्यु का सबंि ंिि था। उसको बंिद करने की व कल्पना भी न कर सकते थे। यद्यवप उनका स्वास्थ्य अच्छा न था, पर प्राणरषों ा की स्वाभाववक इच्छा ने उन् ंे अपना सब कु छ अपनी पत्रत्रका पर न्योछावर करने को उद्यत कर हदया। कफर हदन के हदन मलखने-पढने मंे रत र ने लगे। क षों ण के मल भी मसर न उठात।े 'गौरव' के लेखों में कफर सजीवता का उद्भव ुआ, ववद्वज्जनों में कफर उसकी चचाा ोने लगी, स योधगयों

ने कफर उनके लेखों को उद्धृत करना शुरू ककया, पत्रत्रकाओिं में कफर उसकी प्रशिंसासूचक आलोचना ँ तनकलने लगींि। परु ाने उस्ताद की ललकार कफर अखाडे मंे गँजू ने लगी। लेककन पत्रत्रका के पुनः ससंि ्कार के साथ उनका शरीर और भी जजरा ोने लगा। हृद्रोग के लषों ण हदखाम देने लगे। रक्त की न्यूनता से मखु पर पीलापन छा गया। ीसी दशा में व सुब से शाम तक अपने काम मंे तल्लीन र ते देश, िन और श्रम का सगंि ्राम तछडा ुआ था। म‍वरचरिं की सदय प्रकृ तत ने उन् ें श्रम का सपषों ी बना हदया था। िनवाहदयों का खिडं न और प्रततवाद करते ु उनके खून में गरमी आ जाती थी, शब्दों से धचनगाररयाँ तनकलने लगती थींि; यद्यवप य धचनगाररयाँ कें रस्थ गरमी को तछन्न कक देती थी। क हदन रात के दस बजे ग थे। सरदी खबू पड र ी थी। मानकी दबे पैर उनके कमरे में आम। दीपक की ज्योतत मंे उनके मखु का पीलापन और भी स्पष्ट ो गया था। व ाथ मंे कलम मलये ककसी ववचार में मनन थे। मानकी के आने की उन् ंे भी आ ट न ममली। मानकी क षों ण तक उन् ें वेदना-युक्त नेत्रों से ताकती र ी। तब बोली, अब तो य पोथा बदिं करो। आिी रात ोने को आम। खाना पानी ुआ जाता ै। म‍वरचिंर ने चौंककर मसर उठाया और बोले - क्यों, आिी रात ो गम? न ीिं, अभी मगु ्‍कल से दस बजे ोंगे। मझु े अभी जरा भी भूख न ीिं ै। मानकी - कु छ थोडा-सा खा लो न। म‍वरचिंर - क ग्रास भी न ींि। मुझे इसी समय अपना लेख समाप्त करना ै। मानकी - देखती ूँ, तुम् ारी दशा हदन-हदन त्रबगडती जाती ै। दवा क्यों न ींि करते? जान खपाकर थोडे ी काम ककया जाता ै?

म‍वरचंरि - अपनी जान को देखूँ या इस घोर सगंि ्राम को देखूँ ग्जसने समस्त देश मंे लचल मचा रखी ै। जारों-लाखों जानों की ह मायत में क जान न भी र े तो क्या धचतिं ा? मानकी - कोम सयु ोनय स ायक क्यों न ीिं रख लेते? म‍वरचरिं ने ठंि डी सासँ लेकर क ा - ब ुत खोजता ूँ, पर कोम न ींि ममलता। क ववचार कम हदनों से मेरे मन में उठ र ा ै; अगर तमु िैया से सनु ना चा ो, तो क ूँ। मानकी - क ो, सनु ँूगी। मानने लायक ोगी तो, मानँूगी क्यों न ीिंय म‍वरचरंि - मंै चा ता ूँ कक कृ ष्णचरंि को अपने काम मंे शरीक कर लँू। अब तो व म. . भी ो गया। इस पेशे में उसे रुधच भी ै, मालमू ोता ै कक म‍वर ने उसे इसी काम के मल बनाया ै। मानकी ने अव ेलना-भाव से क ा - क्या अपने साथ उसे भी ले डू बने का इरादा ै? घर की सेवा करनेवाला भा कोम चाह कक सब देश की ी सेवा करेंगे? म‍वरचिंर - कृ ष्णचरिं य ाँ ककसी से बुरा न र ेगा। मानकी - षों मा कीग्ज । बाज आम। व कोम दसू रा काम करेगा ज ाँ चार पसै े ममलें। य घर-फँू क काम आप ी को मबु ारक र े। म‍वरचरंि - वकालत मंे भेजोगी, पर देख लेना, पछताना पडगे ा। कृ ष्णचरंि उस पेशे के मल सवथा ा अयोनय ै। मानकी - व चा े मजरू ी करे, पर इस काम में न डालँगू ी।

म‍वरचिंर - तमु ने मझु े देखकर समझ मलया कक इस काम में घाटा ी घाटा ै। पर इसी देश में ीसे भानयवान लोग मौजदू ंै जो पत्रों की बदौलत िन और कीतता से मालामाल ो र े ैं। मानकी - इसी काम मंे तो अगर किं चन भी बरसे तो मंै उसे न आने दँ।ू सारा जीवन वैरानय में कट गया। अब कु छ हदन भोग भी करना चा ती ूँ। य जातत का सच्चा सेवक अतिं को जातीय कष्टों के साथ रोग के कष्टों को न स सका। इस वाताला ाप के बाद मुग्‍कल से नौ म ीने ी गजु रे थे कक म‍वरचिंर ने संसि ार से प्रस्थान ककया। उनका सारा जीवन सत्य के पोषण, न्याय की रषों ा और प्रजा-कष्टों के ववरोि में कटा था। अपने मसद्धातंि ों के पालन मंे उन् ें ककतनी ी बार अधिकाररयों की तीव्र दृग्ष्ट का भाजन बनना पडा था, ककतनी ी बार जनता का अवव‍वास, य ाँ तक कक ममत्रों की अव ेलना भी स नी पडी थी, पर उन् ोंने अपनी आत्मा का कभी नन न ीिं ककया। आत्मा के गौरव के सामने िन को कु छ न समझा। इस शोक समाचार के फै लते ी सारे श र मंे कु राम मच गया। बाजार बिदं ो ग , शोक के जलसे ोने लगे, स योगी पत्रों ने प्रततद्वंिद्ववता के भाव को त्याग हदया, चारों ओर से क ध्वतन आती थी कक देश से क स्वतंति ्र, सत्यवादी और ववचारशील सपंि ादक तथा क तनभीक त्यागी, देशभक्त उठ गया और उसका स्थान धचरकाल तक खाली र ेगा। म‍वरचिंर इतने ब ुजनवप्रय ैं, इसका उनके घरवालों को ध्यान भी न था। उनका शव तनकला तो सारा श र, गण्य-अगण्य अथी के साथ था। उनके समारक बनने लगे। क ींि छात्रवगृ ्त्तयाँ दी गम, क ीिं उनके धचत्र बनवा ग , पर सबके अधिक म त्त्वशील व मतू ता ती जो श्रमजीववयों की ओर से प्रततग्ष्ठत ुम थी। मानकी को अपने पततदेव सा लोकसम्मान देखकर सुखमय कु तू ल ोता था। उसे अब खेद ोता ता कक मनैं े उनके हदव्य गुणों को न प चाना, उनके पववत्र

भावों और उच्च ववचारों की कर न की। सारा नगर उनके मल शोक मना र ा ै। उनकी लेखनी ने अव‍य ी ीसे उपकार कक ंै ग्जन् ें वे भलू न ींि सकत;े और मैं अिंत तक उनका मागा-किं टक बनी र ी, सदैव तषृ ्णा के वश उनका हदल दखु ाती र ी। उन् ोंने मुझे सोने में मढ हदया ोता, क भव्य म ल बनवाया ोता, या कोम जायदाद पदै ा कर ली ोती, तो मैं खुश ोती, अपना िन्य भानय समझती। लेककन तब देश मंे कौन उनके मल आसँ ू ब ाता, कौन उनका यश गाता। य ीिं क से क ितनक पुरुष पडे ु ैं। वे दतु नया से चले जाते ै और ककसी को खबर भी न ींि ोती। सनु ती ूँ, पततदेव के नाम से छात्रों को वगृ ्त्त दी जा गी। जो लडके वगृ ्त्त पाकर ववद्या-लाभ करेंगे वे मरते दम तक उनकी आत्मा को आशीवााद दंेगे। शोकय मनैं े उनके आत्मत्याग का ममा न जाना। स्वाथा ने मेरी आखँ ों पर पदाा डाल हदया था। मानकी के हृदय मंे ज्यों-ज्यों ये भावना ँ जागतृ ोती थीिं, उसे पतत से श्रद्धा बढती जाती थी। व गौरवशाली स्त्री थी। इस कीततगा ान और जनसम्मान से उसका मग्स्तष्क ऊँ चा ो जाता था। इसके उपराितं अब उसकी आधथका दशा प ले की-सी धचतिं ाजनक न थी। कृ ष्णचरंि के असािारण अध्यवसाय और बवु द्धबल ने उनकी वकालत को चमका हदया था। व जातीय कामों में अव‍य भाग लेते थे, पत्रों मंे यथाशग्क्त लेख भी मलखते थे, इस काम से उन् ें ववशेष प्रेम था। लेककन मानकी मेशा इन कामों से दरू रखने की चषे ्टा करती थी। कृ ष्णचरंि अपने ऊपर जब्र करते थ।े माँ का हदल दखु ाना उन् ंे मिंजूर न था। म‍वरचंिर की प ली बरसी थी। शाम को ब्रह्मभोज ुआ। आिी रात तक गरीबों को खाना हदया गया। प्रातःकाल मानकी अपनी सेजगाडी पर बठै कर गिगं ा न ाने गम। य उसकी धचरसधंि चत अमभलाषा थी जो अब पुत्र की मातभृ ग्क्त ने परू ी कर दी थी। य उिर से लौट र ी थी कक उसके कानों मंे बडंै की आवाज आम और क षों ण के बाद क जलु ूस आता ुआ हदखाम हदया। प ले कोतल घोडों की माला थी, उसके बाद अ‍वारो ी स्वयसंि ेवकों की सेना। उनके पीछे सकै डों सवारीगाडडयाँ थीिं। सबसे पीछे क सजे ु रथ पर ककसी देवता की मतू ता थी।

ककतने ी आदमी इस ववमान को खींिच र े थे। मानकी सोचने लगी - य ककस देवता का ववमान ै? न तो रामलीला के ी हदन ैं, न रथयात्रा के य स सा उसका हदल जोर से उछल पडा। य म‍वरचंिर की मूतता थी जो श्रमजीववयों की ओर से बनवाम गम थी और लोग उसे बडे मैदान में स्थावपत करने के मल जाते थ।े व ी स्वरूप था, व ी वस्त्र, व ी मखु ाकृ तत। मतू तका ार ने ववलषों ण कौशल हदखाया था। मानकी का हृदय बासँ ों उछलने लगा। उत्किं ठा ुम कक परदे से तनकलकर इस जलु ूस के सम्मुख पतत के चरणों पर धगर पडूँ। पत्थर की मूतता मानव-शरीर से अधिक श्रद्धास्पद ोती ै। ककिं तु कौन मँु लेकर मतू ता के सामने जाऊँ ? उसकी आत्मा ने कभी उसका इतना ततरस्कार न ककया था। मेरी िनमलप्सा उनके परै ों की बेडी न बनती तो व न जाने ककस सम्मान पद पर प ुँचत।े मेरे कारण उन् ंे ककतना षों ोभ ुआय घरवालों की स ानुभूतत बा रवालों के सम्मान से क ीिं उत्सा जनक ोती ै। मंै इन् ंे क्या कु छ न बना सकती थी, पर कभी उभरने न हदया। स्वामी जी, मझु े षों मा करो, मंै तमु ् ारी अपराधिनी ूँ, मनंै े तमु ् ारे पववत्र भावों की त्या की ै, मनैं े तमु ् ारी आत्मा को दःु खी ककया ै। मनंै े बाज को वपजिं डे में बदंि करके रखा था। शोकय सारे हदन मानकी को व ी प‍चात्ताप ोता र ा। शाम को उससे न र ा गया। व अपनी कु ाररन को लेकर पैदल उस देवता के दशना को चली ग्जसकी आत्मा को उसने दःु ख प ुँचाया थाय सिंध्या का समय था। आकाश पर लामलमा छाम थी। अस्ताचल की ओर कु छ बादल भी ो आ थ।े सयू दा ेव कभी मेघपट में तछप जाते थे, कभी बा र तनकल आते थे। इस छू प-छाँ में म‍वरचरंि की मतू ता दरू से कभी प्रभात की भाँतत प्रसन्नमुख और कभी सधिं ्या की भाँतत ममलन देख पडती थी। मानकी उसके तनकट गम, पर उसके मुख की ओर न देख सकी। उन आँखों में करुण-वदे ना थी। मानकी को ीसा मालमू ुआ, मानो व मेरी ओर ततरस्कारपणू ा भाव से देख र ी ै। उसकी आखँ ों से नलातन और लज्जा के आसँ ू ब ने लगे। व मूतता के चरणों मंे धगर पडी और मँु ढापँ कर रोने लगी। मन के भाव रववत ो ग ।

व घर आम तो नौ बज ग थ।े कृ ष्ण उसे देखकर बोले - अम्माँ, आज आप इस वक्त क ाँ गम थी। मानकी ने षा से क ा - गम थी तुम् ारे बाबू ज की प्रततमा के दशान करने। ीसा मालूम ोता ै, व ींि साषों ात ्ु खडे ै। कृ ष्ण - जयपुर से बनकर आम ै। मानकी - प ले तो लोग उनका इतना आदर न करते थे? कृ ष्ण - उनका सारा जीवन सत्य और न्याय की वकालत मंे गुजरा ै। ीसे ी म ात्माओिं की पजू ा ोती ै। मानकी - लेककन उन् ोंने वकालत कब की? कृ ष्ण - ाँ, य वकालत न ींि की जो मंै और मेरे जारों भाम कर र े ंै, ग्जससे न्याय और िमा का खून ो र ा ै। उनकी वकालत उच्चकोहट की थी। मानकी - अगर ीसा ै, तो तुम भी व ी वकालत क्यों न ींि करते? कृ ष्ण - ब ुत कहठन ै। दतु नया का जंजि ाल अपने मसर लीग्ज , दसू रों के मल रोइ , दीनों की रषों ा के मल लट्ठ मलये कफरर , और कष्ट, अपमान और यंित्रणा का परु स्कार क्या ै? अपनी जीवनामभलाषाओिं की त्या। मानकी - लेककन यश तो ोता ै। कृ ष्ण - ाँ, यश ोता ै। लोग आशीवादा देते ैं।

मानकी - जब इतना यश ममलता ै तो तुम भी व ी काम करो। म लोग उस पववत्र आत्मा की और कु छ सवे ा न ीिं कर सकते तो उसी बाहटका को चलाते जा ँ जो उन् ोंने अपने जीवन में इतने उत्सगा और भग्क्त से लगाम। इससे उनकी आत्मा को शातंि त ोगी। कृ ष्णचिरं ने माता को श्रद्धामय नते ्रों से देखकर क ा - करूँ तो, मगर सभंि व ै, तब य टीम-टाम न तनभ सके । शायद कफर व ी प ले की-सी दशा ो जा । मानकी - कोम रज न ी। ससंि ार में यश तो ोगा? आज तो अगर िन की देवी भी मेरे सामने आ , तो मंै आखँ ें न नीची करूँ । ***

पाप का अग्ननकंु ड कँु वर पथृ ्वीमसंि म ाराज यशविंतमसिं के पतु ्र थ।े रूप, गुण और ववद्या मंे प्रमसद्ध थे। मरान, मम्, ‍याम आहद देशों मंे पररभ्रमण कर चकु े थे और कम भाषाओिं के पडिं डत समझे जाते थे। इनकी क ब न थी ग्जसका नाम राजनंिहदनी था। य भी जैसी सुरूपवती और सवगा ुणसिंपन्ना थी वसै ी ी प्रसन्नवदना और मदृ भु ावषणी भी थी। कडवी बात क कर ककसी का जी दखु ाना उसे पसंदि न ींि था। पाप को तो व अपने पास भी न ींि फटकने देती थी। य ाँ तक कक कम बार म ाराज यशवितं से भी वाद-वववाद कर चकु ी थी और जब कभी उन् ें ककसी ब ाने कोम अनुधचत काम करते देखती, तो उसे यथाशग्क्त रोकने की चषे ्टा करती। इसका वववा कुँ वर िममा सिं से ुआ था। य क छोटी ररयासत का अधिकारी और म ाराज यशवंितमसंि की सेना का उच्च पदाधिकारी थी। िममा सिं बडा उदार और कमवा ीर था। इसे ोन ार देख कर म ाराज ने राजनंिहदनी को इसके साथ ब्या हदया था और दोनों बडे प्रेम से अपना वैवाह क जीवन त्रबताते थे। िममा सिं अधिकतर जोिपुर मंे ी र ता था। पथृ ्वीमसिं उसके गाढे ममत्र थ।े इनमें जैसी ममत्रता थी, वसै ी भाइयों में भी न ींि ोती। ग्जस प्रकार इन दोनों राजकु मारों में ममत्रता थी, उसी प्रकार दोनों राजकु माररयाँ भी क दसू री पर जान देती थीि।ं पथृ ्वीमसिं की स्त्री दगु ाका ँु वरर ब ुत सशु ीला और चतरु थी। ननद-भावज मंे अनबन ोना लोक- नीतत ै, पर इन दोनों मंे इतना स्ने था कक क के त्रबना दसू री को कभी कल न ीिं पडता था। दोनों ग्स्त्रयाँ संिस्कृ त से प्रेम रखती थी। क हदन दोनों राजकु माररयाँ बाग की सैर में मनन थी कक क दासी ने राजनिंहदनी के ाथ में क कागज ला कर रख हदया। राजनहिं दनी ने उसे खोला तो व ससिं ्कृ त का क पत्र था। उसे पढ कर उसने दासी से क ा कक उन् ें भेज दे। थोडी देर में क स्त्री मसर से परै तक चादर ओढे आती हदखाम दी। इसकी उम्र 25 साल से अधिक न थी, पर रिंग पीला था। आँखंे बडी और ओिंठ सूख।े चाल-ढाल मंे कोमलता थी और उसके डील-डौल की गठन ब ुत मनो र थी। अनमु ान से जान पडता था कक समय ने इसकी व दशा कर रखी ै। पर क

समय व भी ोगा जब य बडी सदंुि र ोगी। इस स्त्री ने आकर चौखट चमू ी और आशीवादा दे कर फशा पर बैठ गम। राजनिंहदनी ने इसे मसर से परै तक बडे ध्यान से देखा और पूछा, तमु ् ारा नाम क्या ै? उसने उत्तर हदया, 'मझु े ब्रजववलामसनी क ते ै।' 'क ाँ र ती ो?' 'य ाँ से तीन हदन की रा पर क गावँ ववक्रमनगर ै, व ाँ मेरा घर ै।' 'ससिं ्कृ त क ाँ पढी ैं?' 'मेरे वपता जी सिसं ्कृ त के बडे पिडं डत थे, उन् ोंने थोडी-ब ुत पढा दी ै।' 'तमु ् ारा ब्या तो ो गया ै न?' ब्या का नाम सनु ते ी ब्रजववलामसनी की आखँ ों से आँसू ब ने लगे। व आवाज सँभाल कर बोली - इसका जवाब मैं कफर कभी दँगू ी, मेरी रामक ानी बडी दःु खमय ै। उसे सुन कर आपको दःु ख ोगा इसमल इस समय षों मा कीग्ज । आज से ब्रजववलामसनी व ीिं र ने लगी। संिस्कृ त साह त्य में उसका ब ुत प्रवशे था। व राजकु माररयों को प्रततहदन रोचक कववता पढ कर सनु ाती थी। उसके रंिग, रूप और ववद्या ने िीरे-िीरे राजकु माररयों के मन मंे उसके प्रतत प्रेम और प्रततष्ठा उत्पन्न कर दी। य ाँ तक कक राजकु माररयों और ब्रजववलामसनी के बीच बडाम-छु टाम उठ गम और वे स ेमलयों की भाँतत र ने लगींि। 2

कम म ीने बीत ग । कुँ वर पथृ ्वीमसंि और िममा सिं दोनों म ाराज के साथ अफगातनस्तान की मु ीम पर ग ु थ।े य ववर की घडडयाँ मेघदतू और रघवु िशं के पढने मंे कटी।ंि ब्रजववलामसनी को कामलदास के देवता से ब ुत प्रेम था और व उसके काव्यों की व्याख्या उत्तमता से करती और उसमें ीसी बारीककयाँ तनकालती कक दोनों राजकु माररयाँ मनु ि ो जाती। क हदन सिंध्या का समय था, दोनों राजकु माररयाँ फु लवारी की सरै करने गम तो देखा कक ब्रजववलामसनी री- री घास पर लेटी ुम ै और उसकी आखँ ों से आसँ ू ब र ैं। राजकु माररयों के अच्छे बतााव और स्ने पूणा बातचीत से उसकी सदुिं रता कु छ चमक गम थी। इसके साथ अब व भी राजकु मारी जान पडती थी; पर इन सभी बातों के र ते भी व बेचारी ब ुिा कािंत मंे बैठ कर रोया करती। उसके हदल पर क ीसी चोट थी कक व उसे दम भर भी चनै न ीिं लेने देती थी। राजकु माररयाँ उस समय उसे रोती देख कर बडी स ानुभतू त के साथ उसके पास बैठ गम। राजनिंहदनी ने उसका मसर अपनी जाघँ पर रख मलया और उसके गुलाब-से गालों को थपथपाकर क ा - सखी, तमु अपने हदन का ाल मंे न बताओगी? क्या अब भी म गरै ै? तमु ् ारा यों अके ले दःु ख की आग मंे जलना मसे न ीिं देखा जाता। ब्रजववलामसनी आवाज सँभाल कर बोली - ब न, मंै अभाधगनी ूँ। मेरा ाल मत सनु ो। राज. - अगर बुरा न मानो को क बात पूछू । ब्रज. - क्या, क ो? राज. - व ी जो मनैं े प ले हदन पछू ा था, तमु ् ारा ब्या ुआ ै कक न ीिं? ब्रज. - इसका जवाब मंै क्या दँ?ू अभी न ींि ुआ।

राज. - क्या ककसी का प्रेम-बाण हृदय मंे चुभा ुआ ै? ब्रज. - न ीिं ब न, म‍वर जानता ै। राज. - तो इतनी उदास क्यों र ती ो? क्या प्रेम का आनदिं उठाने को जी चा ता ै? ब्रज. - न ींि, दःु ख के मसवा मन मंे प्रेम को स्थान ी न ीं।ि राज. - म प्रेम का स्थान पैदा कर दंेगी। ब्रजववलामसनी इशारा समझ गम और बोली - ब न, इन बातों की चचाा न करो। राज. - मैं अब तमु ् ारा ब्या रचाऊँ गी। दीवान जयचदिं को तमु ने देखा ै? ब्रजववलामसनी आँखों मंे आँसू भर कर बोली - राजकु मारी, मंै व्रतिाररणी ूँ और अपने व्रत को पूरा करना ी मेरे जीवन का उद्द‍े य ै। प्रण को तनभाने के मल मंै जीती ूँ, न ीिं तो मनंै े ीसी आफतें झले ी ै कक जीने की इच्छा अब न ींि र ी। मेरे बाप ववक्रमनगर के जागीरदार थ।े मेरे मसवा उनके कोम सतंि ान न थी। वे मझु े प्राणों से अधिक प्यार करते थे। मेरे ी मल उन् ोंने बरसों ससंि ्कृ त साह त्य पढा था। यदु ्ध-ववद्या में वे बडे तनपणु थे और कम बार लडाइयों पर ग थे। क हदन गोिमू ल-बेला में जब गायें जगंि ल से लौट र ी थीिं मंै अपने द्वार पर खडी थी। इतने मंे क जवान बाकँ ी पगडी बाँिे, धथयार सजाये, झमू ता आता हदखाम हदया। मेरी प्यारी मोह नी इस समय जिगं ल से लौटी थी, और उसका बच्चा इिर कलोलें कर र ा था। सयंि ोगवश बच्चा उस नौजवान से टकरा गया। गाय उस आदमी पर झपटी। राजपूत बडा सा सी था। उसने शायद सोचा कक भागता ूँ तो कलिंक का टीका लगता ै, तुरिंत तलवार म्यान से खींिच ली और व गाय पर झपटा। गाय झल्लाम ुम तो थी ी, कु छ भी न डरी। मेरी आँखों के

सामने उस राजपूत ने उस प्यारी गाय को जान से मार डाला। देखत-े देखते सकै डों आदमी जमा ो ग थे और उसको टेढी-सीिी सनु ाने लगे। इतने में वपता जी आ भी ग । वे सधंि ्या करने ग थ।े उन् ोंने आकर देखा कक द्वार पर सैकडो आदममयों की भीड लगी ुम ंै, गाय तडप र ी ै और उसका बच्चा खडा रो र ा ै। वपता जी आ ट सनु ते ी गाय करा ने लगी और उनकी ओर उसने कु छ ीसी दृग्ष्ट से देखा कक उन् ें क्रोि आ गया। मेरे बाद उन् ें व गाय भी प्यारी थी। वे ललकार कर बोले - मेरी गाय ककसने मारी ै? नवजवान लज्जा से मसर झुका सामने आया और बोला - मनैं ।े वपता जी - तुम षों त्रत्रय ो? राजपूत - ायँ वपता जी - तो ककसी षों त्रत्रय से ाथ ममलाते? राजपतू का चे रा तमतमा गया। बोला - कोम षों त्रत्रय सामने आ जा । जारों आदमी खडे थे; पर ककसी का सा स न ुआ कक उस राजपूत का सामना करे। य देखकर वपता जी ने तलवार खीिंच ली और वे उस पर टू ट पड।े उसने भी तलवार तनकाल ली और दोनों आदममयों में तलवारंे चलने लगीि।ं वपता जी बढू े थे; सीने पर जखम ग रा लगा। धगर पड।े उठाकर लोग घर ला । उनका चे रा पीला था; पर उनकी आँखों से धचनगाररयाँ तनकल र ी थी। मंै रोती ुम सामने आम। मुझे देखते ी उन् ोंने सब आदममयों को व ाँ से ट जाने का सिंके त ककया। जब मैं और वपता जी अके ले र ग तो वे बोले - बेटी, तमु राजपूतानी ो? मंै - जी ा।ँ वपता जी - राजपूत बात के िनी ोते ंै?

मंै - जी ा।ँ वपता जी - इस राजपूत ने मेरी गाय की जान ली ै, इसका बदला तुम् ंे लेना ोगा। मंै - आपकी आज्ञा का पालन करूँ गी। वपता जी - अगर मेरा बेटा जीता ोता तो मैं य बोझ तमु ् ारी गदान पर न रखना। मैं - आपकी जो कु छ आज्ञा ोगी, मैं मसर आखँ ों से पूरी करूँ गी। वपता जी - तमु प्रततज्ञा करती ो? मंै - जी ाँ। वपता जी - इस प्रततज्ञा को परू ा कर हदखाओगी। मैं - ज ाँ तक मेरा वश चलेगा, मंै तन‍चय य प्रततज्ञा परू ी करूँ गी। वपता जी - य तलवार लो। जब तक तुम य तलवार उस राजपतू के कलेजे मंे न भोंक दो, तब तक भोग-ववलास न करना। य क ते-क ते वपता जी के प्राण तनकल ग । मैं उसी हदन से तलवार को कपडों मंे तछपा उस नौजवान राजपूत की तलाश मंे घूमने लगी। वषों बीत ग । मैं कभी बग्स्तयों मंे जाती, कभी प ाडो-जंिगलों की खाक छानती, पर उस नौजवान का क ींि पता न ममलता। क हदन मैं बैठी ुम अपने फू टे भाग पर रो र ी थी कक व ी नौजवान आदमी आता ुआ हदखाम हदया। मुझे देखकर उसने पूछा, तू

कौन ै? मनैं े क ा, मंै दु खया ब्राह्मणी ूँ, आप मझु पर दया कीग्ज और कु छ खाने को दीग्ज । राजपूत ने क ा, अच्छा, मेरे साथ आय मैं उठ खडी ुम। व आदमी बेसुि था। मनंै े त्रबजली की तर लपककर कपडों मंे से तलवार तनकाली और उसके सीने में भोंक दी। इतने मंे कम आदमी आते हदखाम पड।े मंै तलवार छोडकर भागी। तीन वषा तक प ाडों और जगंि लों में तछपी र ी। बार-बार जी में आया कक क ीिं डू ब मरूँ , पर जान बडी प्यारी ोती ै। न जाने क्या-क्या मुसीबतें और कहठनामयाँ भोगनी ंै, ग्जनको भोगने को अभी तक जीती ूँ। अतंि में जब जंिगल में र ते-र ते जी उकता गया, तो जोिपरु चली आम। य ाँ आपकी दयालुता की चचाा सनु ी। आपकी सेवा में आ प ुँची और तब से आपकी कृ पा मंे मैं आराम से जीवन त्रबता र ी ूँ। य ी मेरी रामक ानी ै। राजनहिं दनी ने लबिं ी सासँ लेकर क ा - दतु नया में कै स-े कै से लोग भरे ु ै। खरै , तमु ् ारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर हदया? ब्रजववलामसनी - क ाँ ब नय व बच गया, जखम ओछा पडा था। उसी शकल के क नौजवान राजपूत को मनैं े जिंगल में मशकार खले ते देखा था। न ीिं मालूम, व था या और कोम, शकल त्रबलकु ल ममलती थी। 3 कम म ीने बीत ग । राजकु माररयों मे जब से ब्रजववलामसनी की रामक ानी सुनी ै, उसके साथ वे और भी प्रेम और स ानभु तू त का बतााव करने लगी ैं। प ले त्रबना सिंकोत कभी-कभी छे डछाड ो जाती थी; पर अब दोनों रदम उसका हदल ब लाया करती ैं। क हदन बादल तघरे ु थे, राजनहिं दनी ने क ा - आज त्रब ारीलाल की 'सतसम' सुनने को जी चा ता ै। वषाऋा तु पर उसमे ब ुत अच्छे दो े ैं।


Like this book? You can publish your book online for free in a few minutes!
Create your own flipbook