से तनवगृ ्त्त ममली और उसके साथ ी भोग-ववलास का प्राबल्य ुआ। रात-हदन आमोद-प्रमोद की चचाा र ने लगी। राजा ववलास में डू बे, रातनयाँ जडाऊ ग नों पर रीझींि, मगर सारंििा इन हदनों ब ुत उदास और सकिं ु धचत र ती - व इन र स्यों से दरू -दरू र ती , ये नतृ ्य और गान की सभा ँ उसे सनू ी प्रतीत ोतीिं। क हदन चिपं तराय ने सारंििा से क ा - सारन तमु उदास क्यों र ती ो? कभी ँसते न ींि देखता। क्या मझु से नाराज ो? सारंििा की आँखों में जल भर आया। बोली - स्वामीजी, आप क्यों ीसा ववचार करते ै? ज ाँ आप प्रसन्न ै, व ाँ मंै भी खशु ूँ। चिपं तराय - मैं जब से य ाँ आया ूँ मनैं े तमु ् ारे मुख-कमल पर कभी मनो ाररणी मसु ्करा ट न ींि देखी। तमु ने कभी अपने ाथों से मुझे बीडा न ींि खलाया। कभी मेरी पाग न ीिं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजा । क ींि प्रेम-लता मरु झाने तो न ीिं लगी? सारिंिा - प्राणनाथ, आप मझु से ीसी बात पूछते ै, ग्जसका उत्तर मेरे पास न ीिं ै। यथाथा में इन हदनों मेरा धचत्त उदास र ता ै। मंै ब ुत चा ती ूँ कक खशु र ूँ, मगर बोझ-सा हृदय पर िरा र ता ै। चपिं तराय स्वयंि आनिदं में मनन थ।े इसमल उनके ववचार मंे सारिंिा को असतंि षु ्ट र ने का कोम उधचत कारण न ीिं ो सकता था। वे भौं े मसकोडकर बोले - मझु े तमु ् ारे उदास र ने का कोम ववशषे न ीिं मालूम ोता। ओरछे मंे कौन-सा सखु था जो य ाँ न ीिं ै? सारिंिा का चे रा लाल ो गया। बोली - मैं कु छ क ूँ, आप नाराज तो न ोंगे? चपंि तराय - न ींि, शौक से क ो।
सारिंिा - ओरछे में मंै क राजा की रानी थी। य ाँ मंै क जागीरदार की चरे ी ूँ। ओरछे में व थी जो अवि मंे कौशल्या थी, य ाँ मैं बादशा के क सेवक की स्त्री ूँ। ग्जस बादशा के सामने आज आप आदर से मसर झुकाते ै, व कल आपके नाम से कापँ ता था। रानी से चरे ी ोकर भी प्रसन्नधचत्त ोनो मेरे वश में न ीिं ै। आपने य पद और ववलास की सामधग्रयाँ बडे म ँगे दामों मोल ली ै। चपंि तराय के नते ्रों पर से क पदाा-सा ट गया। वे अब तक सारिंिा की आग्त्मक उच्चता को न जानते थे। जसै े बे-मा-ँ बाप का बालक माँ की चचाा सनु कर रोने लगता ै, उसी तर ओरछे की याद से चिपं तराय की आखँ ें सजल ो गम। उन् ोंने आदरयकु ्त अनुराग के साथ सारंििा को हृदय से लगा मलया। आज से उन् ें कफर उसी उजडी बस्ती की कफक्र ुम, ज ाँ से िन और कीतता की अमभलाषा ँ खीिंच लाम थी। 4 माँ अपने खो ु बालक को पाकर तन ाल ो जाती ै। चिपं तराय के आने से बिदुं ेलखंडि तन ाल ो गया। ओरछे के भाग जागे। नौबतें झडने लगी और कफर सारिंिा के कमल-नेत्रों मंे जातीय अमभमान का आभास हदखाम देने लगाय य ाँ र ते-र ते म ीनों बीत ग । इस बीच मंे शा ज ाँ बीमार पडा। प ले से मष्याा की अग्नन द क र ी थी। य खबर सनु ते ी ज्वाला प्रचिडं ुम। सगिं ्राम की तयै ाररयाँ ोने लगी। शा जादे मरु ाद और मु ीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दग्क्खन से चले। वषाा के हदन थ।े उवरा ा भूमम रंिग-ववरिंग के रूप भर कर अपने सौन्दया को हदखाती थी।
मुराद और मु ीउद्दीन उमिंगों से भरे ु कदम बढाते चले आ र े थ।े य ाँ तक की िौलपुर के तनकट चबंि ल के तट पर आ प ुँचे; परंितु य ाँ उन् ोंने बादशा ी सेना को अपने शुभागमन के तनममत्त तैयार पाया। शा जादे अब धचतिं ा मंे पड।े सामने अगम्य नदी ल रंे मार र ी थी, ककसी योगी के त्याग के सदृश। वववश ोकर चंिपतराय के पास सदिं ेश भेजा कक खदु ा के मल आकर मारी डू बती ुम नाव को पार लगाइ । राजा ने भवन मंे जाकर सारंििा से पूछा - इसका क्या उत्तर दँ?ू सारिंिा - आपको मदद करनी चाह । चिपं तराय - उनकी मदद करना दारा मशको से वरै लेना ै। सारंििा - य सत्य ै; परंितु ाथ फै लाने की मयादा ा भी तो तनभानी चाह ? चंपि तराय - वप्रये, तुमने सोचकर जवाब न ींि हदया। सारिंिा - प्राणनाथ, मैं अच्छी तर जानती ूँ कक य मागा कहठन ै। और अब में अपने योद्धाओंि का रक्त पानी के समान ब ाना पडगे ा; परिंतु म अपना रक्त ब ा िंगे और चबंि ल की ल रों को लाल कर देंग।े वववास र ख कक जब तक नदी की िारा ब ती र ेगी, व मारे वीरों की कीततगा ान करती र ेगी। जब तक बंिुदेलों का क भी नामलेवा र ेगा, ये रक्त-त्रबदिं ु उसके माथे पर के शर का ततलक बनकर चमकंे गे। वायुमंडि ल में मेघराज की सेना ँ उमड र ी थीि।ं ओरछे के ककले से बदंिु ेलों की क काली घटा उठी और वेग के साथ चबंि ल की तरफ चली। प्रत्येक मसपा ी वीर-रस से झूम र ा था। सारंििा ने दोनों राजकु मारों को गले लगा मलया और राजा को पान का बीडा देकर क ा - बदंिु ेलों की लाज अब तमु ् ारे ाथ ै।
आज उसका क- क अंगि मसु ्करा र ा ै और हृदय ुलमसत ै। बुिंदेलों की य सेना देखकर शा जादे फू ले न समा । राजा व ाँ की अगंि ुल-अगिं लु भूमम से पररधचत थे। उन् ोंने बदंिु ेलों को तो क आड मंे तछपा हदया और वे शा जादों की फौज को सजाकर नदी के ककनारे-ककनारे पग्चम की ओर चले। दारा मशको को भ्रम ुआ कक शत्रु ककसी अन्य घाट से नदी उतरना चा ता ै। उन् ोंने घाट पर से मोचे टा मलये। घाट मंे बठै े बदुिं ेले उसी ताक मंे थ।े बा र तनकल पडे और उन् ोंने तरु िंत ी नदी में घोडे डाल हदये। चंपि तराय ने शा जादा दारा मशको को भलु ावा देकर अपनी फौज घमु ा दी और व बंुिदेलों के पीछे चलता ुआ उसे पार उतार लाया। इस कहठन चाल से सात घंटि ों का ववलिबं ुआ; परिंतु जाकर देखा तो सात सौ बदुंि ेलों की लाशें तडप र ी थी।िं राजा को देखते ी बदिंु ेलों की ह म्मत बँि गम। शा जादों की सेना ने भी 'अल्ला ो अकबर' की ध्वतन के साथ िावा ककया। बादशा ी सेना में लचल पड गम। उनकी पिंग्क्तयाँ तछन्न-मभन्न ो गम, ाथों ाथ लडाम ोने लगी, य ाँ तक की शाम ो गम। रणभूमम रुधिर से लाल ो गम और आकाश मंे अिँ ेरा ो गया। घमासान की मार ो र ी थी। बादशा ी सेना शा जादों को दबा आती थी। अकस्मात पग्चम से कफर बिुंदेलों की क ल र उठी और इस वेग से बादशा ी सेना की पु त पर टकराम कक उसके कदम उखड ग । जीता ुआ मदै ान ाथ से तनकल गया। लोगों को कु तू ल था कक य दैवी स ायता क ाँ से आम। सरल स्वभाव के लोगों की िारणा थी कक य फत के फररतंे ै; शा जादों की मदद के मल आ ंै; परिंतु जब राजा चिपं तराय तनकट ग तो सारंििा ने घोडे से उतरकर उनके पैरो पर मसर झुका हदया । राजा को असीम आनंिद ुआ। य सारंििा थी। समर-भमू म का दृय इस समय अत्यन्त दःु खमय था। थोडी देर प ले ज ाँ सजे ु वीरों के दल थे व ाँ अब बेजान लाशें तडप र ी थी। मनुष्य ने अपने स्वाथा के मल अनाहद काल से ी भाइयों की त्या की ै।
अब ववजयी सेना लूट पर टू ट पडी। प ले मदा मदों से लडते थे। व वीरता और पराक्रम का धचत्र था, य नीचता और दबु ला ता की नलातनप्रद तस्वीर थी। उस समय मनुष्य पशु बना ुआ था, अब व पशु से भी बढ गया था। इस नोच-खसोट मंे लोगों को बादशा ी सेना के सेनापतत वली ब ादरु खाँ की लाश हदखाम दी। उसके तनकट उसका घोडा खडा ुआ अपनी दमु से मग्क्खयाँ उडा र ा था। राजा को घोडो का शौक था। देखते ी उस पर मोह त ो गया। व राकी जातत का अतत संुदि र घोडा था। क- क साँचे मंे ढला ुआ, मसिं की- सी छाती; चीते की-सी कमर, उसका य प्रेम और स्वाममभग्क्त देखकर लोगों को बडा कु तू ल ुआ। राजा ने ुक्म हदया - खबरदारय इस प्रेमी पर कोम धथयार न चला , इसे जीता पकड लो, य मेरे अस्तबल की शोभा बढा गा। जो इसे मेरे पास ले आ गा, उसे िन से तन ाल कर दँगू ा। योद्धागण चारों ओर से लपके ; परिंतु ककसी को सा स न ोता था कक उसके तनकट जा सके । कोम पुचकार र ा था, कोम फंि दे में फँ साने की कफक्र में था, पर कोम उपाय सफल न ोता था। व ाँ मसपाह यों को मेला-सा लगा ुआ था। तब सारिंिा अपने खमे े से तनकली और तनभया ोकर घोडे के पास चली गम। उसकी आखँ ों में प्रेम का प्रकाश था, छल का न ीिं। घोडे ने उसके अचिं ल मंे मँु तछपा मलया। रानी उसकी रास पकड कर खेमे की ओर चली। घोडा इस तर चुपचाप उसके पीछे चला मानो सदैव से उसका सेवक ै। पर ब ुत अच्छा ोता कक घोडे ने सारिंिा से भी तनष्ठु रता की ोती। य संुिदर घोडा आगे चलकर इस राज-पररवार के तनममत्त स्वणा मगृ सात्रबत ुआ। 5
संसि ार क रण-षों ेत्र ै। इस मदै ान मंे उसी सेनापतत को ववजय लाभ ोता ै, जो अवसर को प चानता ै। व अवसर पर ग्जतने उत्सा से आगे बढता ै, उतने ी उत्सा से आपग्त्त के समय पीछे ट जाता ै। व वीर पुरुष राष्ट्र का तनमााता ोता ै और इतत ास उसके नाम पर यश के फू लों की वषाा करता ै। पर इस मदै ान मंे कभी-कभी ीसे मसपा ी भी जाते ै, जो अवसर पर कदम बढाना जानते ै; लेककन सिंकट में पीछे न ीिं टाना न ींि जानत।े ये रणवीर पुरुष ववजय को नीतत की भंेट कर देते ै। वे अपनी सेना का नाम ममटा दंेगे, ककिं तु ज ाँ क बार प ुँच ग ै, व ाँ से पीछे न टा ंिगे। उनमें कोम ववरला ी सिंसार- षों ेत्र मंे ववजय प्राप्त करता ै, ककंि तु प्रायः उसकी ार ववजय से भी अधिक गौरवात्मक ोती ै। अगर अनुभवशील सेनापतत राष्ट्रों की नींवि डालता ै, तो आन पर जान देनवे ाला, मँु न मोडने वाला मसपा ी राष्ट्र के भाव को उच्च करता ै, उसके हृदय पर नैततक गौरव को अकंि कत कर देता ै। उसे इस कायषा ों ेत्र मंे चा े सफलता न ो, ककंि तु जब ककसी वाक्य या सभा मंे उसका नाम जबान पर आ जाता ै, श्रोतागण क स्वर से उसके कीतत-ा गौरव को प्रततध्वतनत कर देते ै। सारिंिा 'आन' पर जान देनेवालों मंे थी। शा जादा मु ीउद्दीन चबिं ल के ककनारे से आगरे की ओर चला तो सौभानय उसके मसर पर मोछाल ह लाता था। जब व आगरे प ुँचा तो ववजयदेवी ने उसके मल मसिं ासन सजा हदयाय औरंिगजेब गुणज्ञ था। उसने बादशा ी सरदारों के अपराि षों मा कर हद , उनके राज्य-पद लौटा हद और राजा चिपं तराय को उसके ब ुमूल्य कृ त्यों के उपलक्ष्य में बार जारी मन्सब प्रदान ककया। ओरछा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर तनयत की गम। बंिुदेला राजा कफर राज-सेवक बना, व कफर सखु -ववलास मंे डू बा और रानी सारंििा कफर परािीनता के शोक से घलु ने लगी।
वली ब ादरु खाँ बडा वाक्य-चतुर मनषु ्य था। उसकी मदृ तु ा ने शीघ्र ी उसे बादशा आलमगीर का वववासपात्र बना हदया। उस पर राज-सभा मंे सम्मान की दृग्ष्ट पडने लगी। खाँ सा ब के मन में अपने घोडे के ाथ से तनकल जाने का बडा शोक था। क हदन कुँ वर छत्रसाल उसी घोडे पर सवार ोकर सैर को गया था। व खाँ सा ब के म ल की तरफ जा तनकला। वली ब ादरु खाँ ीसे ी अवसर की तलाश में था। उसने तुरिंत अपने सेवकों का इशारा ककया। राजकु मार अके ला क्या करता? पाँव-पाँव घर आया और उसने सारंििा से सब समाचार बयान ककया। रानी का चे रा तमतमा गया। बोली, मझु े इसका शोक न ीिं कक घोडा ाथ से गया, शोक इसका ै कक तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा? क्या तरे े शरीर में बंदिु ेलों का रक्त न ींि ै? घोडा न ममलता, न स ी; ककंि तु तुझे हदखा देना चाह था कक क बुदंि ेला बालक से उसका घोडा छीन लेना ँसी न ीिं ै। य क कर उसने अपने पच्चीस योद्धाओिं को तयै ार ोने की आज्ञा दी। स्वयिं अस्त्र िारण कक और योद्धाओंि के साथ वली ब ादरु खाँ के तनवास-स्थान पर प ुँची। खाँ सा ब उसी घोडे पर सवार ोकर दरबार चले ग थे, सारंििा दरबार की तरफ चली, और क षों ण मंे ककसी वगे वती नदी के सदृ ृश बादशा ी दरबार के सामने जा प ुँची, य कै कफयत देखते ी दरबार मंे लचल मच गम। अधिकारी वगा इिर-उि से आकर जमा ो ग । आलमगीर भी स न में तनकल आ । लोग अपनी-अपनी तलवारंे सँभालने लगे और चारों तरफ शोर मच गया। ककतने ी नते ्रों ने इसी दरबार मंे अमरमसिं की तलवार की चमक देखी थी। उन् ंे व ी घटना कफर याद आम। सारंििा ने उच्च स्वर से क ा - खाँ सा ब, बडी लज्जा की बात ै, आपने व ी वीरता, जो चिंबल के तट पर हदखानी चाह थी, आज क अबोि बालक के सम्मखु हदखाम ै। क्या य उधचत था कक आप उससे घोडा छीन लेत?े
वली ब ादरु खाँ की आखँ ों से अग्नन-ज्वाला तनकल र ी थी। वे कडी आवाज से बोले - ककसी गैर को क्या मजाल ै कक मेरी चीज अपने काम मंे ला ? रानी - व आपकी चीज न ीिं, मेरी ै। मनैं े उसे रणभमू म में पाया ै और उस पर मेरा अधिकार ै। क्या रण-नीतत की इतनी मोटी बात भी आप न ींि जानते? खाँ सा ब - व घोडा में न ीिं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नजर ै। रानी - मंै अपना घोडा लँूगी। खाँ सा ब - मंै उसके बराबर जवा रात दे सकता ूँ, परिंतु घोडा न ींि दे सकता। रानी - तो कफर इसका तनचय तलवार से ोगा। बुिंदेला योद्धाओंि ने तलवारंे सौंत ली और तनकट था कक दरबार की भमू म रक्त से प्लाववत ो जा , बादशा आलमगीर ने बीच में आकर क ा - रानी सा बा, आप मसपाह यों को रोकें । घोडा आपक ममल जा गा; परिंतु इसका मलू ्य ब ुत देना पडगे ा। रानी - मंै उसकी मल अपना सवसा ्व खोने को तैयार ूँ। बादशा - जागीर और मन्सब भीय रानी - जागीर और मन्सब कोम चीज न ी।ंि बादशा - अपना राज्य भी? रानी - ाँ, राज्य भी।
बादशा - क घोडे के मल ? रानी - न ीिं, उस पदाथा के मल जो ससंि ार में सबसे अधिक मूल्यवान ै। बादशा - व क्या ै? रानी - अपनी आन। इस भातँ त रानी ने अपने घोडे के मल अपनी ववस्ततृ जागीर, उच्च राज और राज-सम्मान सब ाथ से खोया और के वल इतना ी न ींि, भववष्य के मल काटँ े बो , इस घडी से अंति दशा तक चिंपतराय को शातंि त न ममली। 6 राजा चपंि तराय ने कफर ओरछे के ककले मंे पदापणा ककया। उन् ें मन्सब और जागीर के ाथ से तनकल जाने का अत्यन्त शोक ुआ; ककिं तु उन् ोंने अपने मँु से मशकायत का क शब्द भी न ीिं तनकाला, वे सारंििा के स्वभाव को भली-भातँ त जानते थे। मशकायत इस समय उसके आत्म-गौरव पर कु ठार का काम करती। कु छ हदनों य ाँ शाितं तपूवका व्यतीत ु ; लेककन बादशा सारंििा की कठोर बात भलू ा न था। व षों मा करना न जानता था। ज्यों ी भाइयों की ओर से तनग्चिंत ुआ, उसने क बडी सेना चंपि तराय का गवा चूणा करने के मल भेजी और बामस अनुभवशील सरदार इस मु ीम पर तनयुक्त कक । शुभकरण बिंुदेला बादशा का सूबेदार था। व चंपि तराय का बचपन का ममत्र और स पाठी था। उसने चिपं तराय को परास्त करने का बीडा उठाया। और भी ककतने ी बुिदं ेला सरदार राजा से ववमुख ोकर बादशा ी सूबेदार से आ ममल।े क घोर सगंि ्राम ुआ। भाइयों की तलवारें रक्त से लाल ुम। यद्यवप इस समर में राजा को ववजय प्राप्त ुम लेककन उसकी शग्क्त सदा के मल षों ीण ो गम। तनकटवती
बुंदि ेला राजा जो चपिं तराय के बा ुबल थे, बादशा के कृ पाकांिषों ी बन बठै े । साधथयों में कु छ तो काम आ , कु छ दगा कर ग । य ाँ तक की तनज सबिं िधं ियों ने भी आँखें चुरा लीिं; परंितु इन कहठनाइयों मंे भी चिपं तराय ने ह म्मत न ीिं ारी, िीरज न छोडा। उन् ोंने ओरछा छोड हदया और वे तीन वषा तक बुिंदेलखिडं के सघन पवता ों में तछपे कफरते र े। बादशा ी सेना ँ मशकारी जानवरों की भातँ त सारे देश में मँडरा र ी थी। आये-हदन राजा का ककसी न ककसी से सामना ो जाता था। सारिंिा सदैव उनके साथ र ती और उनका सा स बढाया करती। बडी-बडी आपग्त्तयों मंे जब कक ियै ा लुप्त ो जाता ै - और आशा साथ छोड देती - आत्मरषों ा का िमा उसे सँभाले र ता ै। तीन साल के बाद अतिं में बादशा के सबू ेदारों ने आलमगीर को सचू ना दी कक इस शरे का मशकार आपके मसवाय और ककसी से न ोगा। उत्तर आया कक सेना को टा लो और घरे ा उठा लो। राजा ने समझा, संकि ट की तनवगृ ्त्त ुम, पर व बात शीघ्र ी भ्रमात्मक मसद्ध ो गम। 7 तीन सप्ता से बादशा ी सेना ने ओरछा को घेर रखा ै। ग्जस तर कठोर वचन हृदय को छे द डालते ै, उसी तर तोपों के गोलों ने दीवारों को छे द डाला। ककले मंे 20 जार आदमी तघरे ु थे, लेककन उनमंे आिे से अधिक ग्स्त्रयाँ और उनसे कु छ ी कम बालक ै। मदों की सिंख्या हदनोंहदन न्यनू ोती जाती ै। आने-जाने के मागा चारों तरफ से बदंि ै। वा का भी गुजर न ी।िं रसद का सामान ब ुत कम र गया ै। ग्स्त्रयाँ पुरुषों और बालकों को जीववत रखने के मल आप उपवास करती ंै। लोग ब ुत ताश ो र े ै। औरतंे सूया नारायण की ओर ाथ उठा-उठा कर शत्रओु ंि को कोसती ै। बालकवदंिृ मारे क्रोि के दीवार की आड से उन पर पत्थर फें कते ै, जो मुग्कल से दीवार के उस पार जा पाते ंै। राजा चिंपतराय स्वयिं ज्वर से पीडडत ैं। उन् ोंने कम हदन से चारपाम न ींि छोडी। उन् ें देखकर लोगों को कु छ ढाढस ोता था, लेककन उनकी बीमारी से सारे ककले में नैराय छाया ुआ ै।
राजा ने सारंििा से क ा - आज शत्रु जरूर ककले में घुस आ ंिगे। सारंििा - मवर न करे कक इन आखँ ों को व हदन देखना पड।े राजा - मुझे बडी धचतंि ा इन अनाथ ग्स्त्रयों और बालकों की ै। गे ूँ के साथ य घनु भी वपस जा िंगे। सारंििा - म लोग य ाँ से तनकल जा ँ तो कै सा? राजा - इन अनाथों को छोडकर? सारिंिा - इस समय इन् ंे छोड देने में ी कु शल ै। म न ोगंे तो शत्रु इन पर कु छ दया ी करेंगे। राजा - न ीिं, य लोग मझु से न छोडे जा ँगे। मदों ने अपनी जान मारी सेवा मंे अपणा कर दी ै, ग्स्त्रयों और बच्चों को मैं कदावप न ींि छोड सकता। सारिंिा - लेककन य ाँ र कर म उनकी कु छ मदद भी तो न ीिं कर सकत?े राजा - उनके साथ प्राण तो दे सकते ै। मैं उनकी रषों ा में अपनी जान लडा दँगू ा। उनके मल बादशा ी सेना की खशु ामद करूँ गा, कारावास की कहठनाइयाँ स ूँगा, ककंि तु इस सकंि ट मंे उन् ंे छोड न ीिं सकता। सारिंिा ने लग्ज्जत ोकर मसर झकु ा मलया और सोचने लगी, तनस्सिदं े वप्रय साधथयों को आग की आचँ मंे छोडकर अपनी जान बचाना घोर नीचता ैय मैं ीसी स्वाथाांि क्यों ो गम ूँ? लेककन का क ववचार उत्पन्न ुआ। बोली - यहद आपको वववास ो जा कक इन आदममयों के साथ कोम अन्याय न ककया जा गा तब तो आपको चलने मंे कोम बािा न ोगी? राजा - (सोचकर) कौन वववास हदला गा?
सारंििा - बादशा के सेनापतत का प्रततज्ञा-पत्र। राजा - ाँ, तब मंै सानंदि चलँूगा। सारंििा ववचार-सागर में डू बी। बादशा के सेनापतत से क्योंकर य प्रततज्ञा कराऊँ ? कौन य प्रस्ताव लेकर व ाँ जा गा और तनदायी ीसी प्रततज्ञा करने ी क्यों लगे? उन् ंे तो ववजय की परू ी आशा ै। मेरे य ाँ ीसा नीतत-कु शल, वाक्पटु चतुर कौन ै जो इस दसु ्तर काया को मसद्ध करे? छत्रसाल चा े तो कर सकता ै। उसमंे ये सब गुण मौजूद ै। इस तर मन मंे तनचय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया। य उसके चारों पतु ्रों में बवु द्धमान और सा सी था। रानी उससे सबसे अधिक प्यार करती थी। जब छत्रसाल ने आकर रानी को प्रणाम ककया तो उनके कमल नते ्र सजल ो ग और हृदय से दीघा तनःवास तनकल गया। छत्रसाल - माता, मेरे मल क्या आज्ञा ै? रानी - आज लडाम का क्या ढंिग ै? छत्रसाल - मारे पचास योद्धा अब तक काम आ चकु े ै। रानी - बदिंु ेलों की लाज अब मवर के ाथ ै। छत्रसाल - म आज रात को छापा मारंेगे। रानी ने सिंषों ेप मंे अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपग्स्थत ककया और क ा - य काम ककसे सौंपा जा ? छत्रसाल - मझु को।
'तुम इसे पूरा कर हदखाओगे?' ' ाँ, मझु े पूणा वववास ै?' 'अच्छा जाओ, परमात्मा तमु ् ारा मनोरथ पूरा करे।' छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा मलया और तब आकाश की ओर दोनों ाथ उठाकर क ा - दयातनधि, मनंै े अपना तरुण और ोन ार पतु ्र बंुिदेलों की आन के आगे भंेट कर हदया। अब इस आन को तनभाना तमु ् ारा काम ै। मनंै े बडी मलू ्यवान वस्तु अवपता की ै, इसे स्वीकार करो। 8 दसू रे हदन प्रातःकाल सारिंिा स्नान करके थाल मंे पजू ा की सामग्री मलये मंिहदर को चली। उसका चे रा पीला पड गया था और आँखों तले अँिेरा छाया जाता था। व मिंहदर के द्वार पर प ुँची थी कक उसके थाल मंे बा र से आकर क तीर धगरा। तीर की नोक क कागज का पुरजा मलपटा ुआ था। सारिंिा ने थाल महिं दर के चबतू रे पर रख हदया और पुजे को खोलकर देखा तो आनिंद से चे रा खल गया; लेककन य आनंिद षों ण-भर का था। ायय इस पुजे के मल मनैं े अपना वप्रय पुत्र ाथ से खो हदया ै। कागज के टु कडे को इतने म ँगे दामों ककसने मलया ोगा? मंिहदर से लौटकर सारिंिा राजा चंपि तराय के पास गम और बोली - प्राणनाथ आपने जो वचन हदया था उसे पूरा कीग्ज । राजा ने चौंककर पूछा - तमु ने अपना वादा परू ा कर हदया?
रानी ने व प्रततज्ञा-पत्र राजा को दे हदया। चपिं तराय ने उसे गौर से देखा कफर बोले - अब मैं चलँूगा और मवर ने चा ा तो क बार कफर शत्रुओिं की खबर लँगू ा। लेककन सारन, सच बताओ, इस पत्र के मल क्या देना पडा ै? रानी के कंिु हठत स्वर से क ा - ब ुत कु छ? राजा - सनु ँू? रानी - क जवान पतु ्र। राजा को बाण-सा लग गया। पछू ा - कौन? अंिगदराय? रानी - न ी।ंि राजा - रतनमसिं ? रानी - छत्रसाल? रानी - ा।ँ जसै े कोम पषों ी गोली खाकर परों को फडफडाता ै और तब बेदम ोकर धगर पडता ै, उसी भातँ त चंपि तराय पलिंग से उछले और कफर अचते ोकर धगर पड।े छत्रसाल उनका परम वप्रय पतु ्र था। उनके भववष्य की सारी कामना ँ उसी पर अवलिंत्रबत थी। जब चते ुआ, तब बोले - सारन, तमु ने ब ुत बरु ा ककया। अिँ ेरी रात थी। रानी सारंििा घोडे पर सवार चिंपतराय को पालकी में बठै ा ककले के गुप्त मागा के तनकली जाती थी। आज से ब ुत काल प ले क हदन ीसे ी अँिरे ी दःु खमयी रात्रत्र थी। तब सारिंिा ने शीतलादेवी को कु छ कठोर वचन क े थ।े शीतलादेवी ने उस समय जो भववष्यवाणी की थी, व आज परू ी ुम। क्या सारंििा ने उसका जो उत्तर हदया था, व भी परू ा ोकर र ेगा?
9 मध्याह्न था। सूयना ारायण मसर पर आकर अग्नन की वषाा कर र े थे। शरीर को झलु साने वाली प्रचंिड वायु वन और पवता में आग लगाती कफरती थी। ीसा ववहदत ोता था, मानो अग्ननदेव की समस्त सेना गरजती ुम चली आ र ी ै। गगन-मंिडस इस भय से कापँ र ा था। रानी सारिंिा घोडे पर सवार, चपंि तराय को मल , पग्चम की तरफ चली जाती थी। ओरछा दस कोस पीछे छू ट चुका था और प्रततषों ण य अनमु ान ग्स्थर ोता जाता था कक अब म भय के षों ते ्र से बा र तनकल आ । राजा पालकी में अचते पडे ु थे और क ार पसीने में सराबोर थ।े पालकी के पीछे पाँच सवार घोडा बढा चले आते थे, प्यास के मारे सबका बुरा ाल था। तालु सखू ा जाता था। ककसी वषृ ों की छाँ और कु ँ की तलाश मंे आखँ ंे चारों ओर दौड र ी थीं।ि अचानक सारंि िा ने पीछे की तरफ कफर कर देखा, तो उसे सवारों का क दल आता ुआ हदखाम हदया। उसका माथा ठनका कक अब कु शल न ीिं ै। य लोग अवय मारे शत्रु ै। कफर ववचार ुआ कक शायद मेरे राजकु मार अपने आदममयों को मलये मारी स ायता को आ र े ै। नरै ाय में भी आशा साथ न ींि छोडती। कम ममनट तक व इसी आशा और भय की अवस्था में र ी। य ाँ तक व दल तनकट आ गया और मसपाह यों के वस्त्र साफ नजर आने लगे। रानी ने क ठंि डी साँस ली, उसका शरीर तणृ वत कापँ ने लगा। य बादशा ी सेना के लोग ै। सारिंिा ने क ारों से क ा - डोली रोक लो। बंिदु ेला मसपाह यों ने भी तलवारंे खीिंच लीिं। राजा की अवस्था ब ुत शोचनीय थी; ककंि तु जसै े दबी ुम आग वा लगते ी प्रदीप्त ो जाती ै, उसी प्रकार इस संिकट का ज्ञान ोते ी उनके जजरा शरीर मंे वीरात्मा चमक उठी। वे पालकी का पदाा उठाकर बा र तनकल आ । िनषु -बाण ाथ में ले मलया; ककंि तु व िनुष जो उनके ाथ मंे इिंर का वज्र बन जाता था, इस समय जरा भी न झुका। मसर में चक्कर आया, परै थराा और वे िरती पर
धगर पड।े भावी अमगिं ल की सचू ना ममल गम। उस पंिखरह त पषों ी के सदृश, जो सापँ को अपनी तरफ आते देखकर ऊपर को उचकता ै और कफर धगर पडता ै, राजा चपंि तराय कफर सँभल उठे और धगर पड।े सारिंिा ने उन् ें सँभालकर बठै ाया और रोकर बोलने की चषे ्टा की, परंितु मंिु से के वल इतना तनकला - प्राणनाथय इसके आगे मँु से क शब्द भी न तनकल सका। आन पर मरनवे ाली सारिंिा इस समय सािारण ग्स्त्रयों की भातँ त शग्क्त ीन ो गम, लेककन क अशिं तक य तनबला ता स्त्रीजातत की शोभा ै। चिंपतराय बोले - सारन, देखो, मारा क वीर जमीन पर धगरा। शोकय ग्जस आपग्त्त से यावज्जीवन डरता र ा, उसने इस अंति तम समय मंे आ घरे ा। मेरी आखँ ों के सामने शत्रु तुम् ारे कोमल शरीर को ाथ लगा िंगे, और मैं जग से ह ल भी न सकँू गा। ायय मतृ ्यु, तू कब आ गीय य क ते-क ते उन् ंे क ववचार आया। तलवार की तरफ ाथ बढाया, मगर ाथों मंे दम न था। तब सारिंिा से बोले - वप्रये, तुमने ककतने ी अवसरों पर मेरी आन तनभाम ै। इतना सुनते ी सारंििा के मरु झा ु मखु पर लाली दौड पडी। आसँ ू सखू ग । इस आशा में कक मंै पतत के कु छ काम आ सकती ूँ, उसके हृदय में बल का सचिं ार कर हदया। व राजा की ओर वववासोत्पादक भाव से देखकर बोली - मवर ने चा ा तो मरते दम तक तनभाऊँ गी। रानी ने समझा, राजा मझु े प्राण देने का सिकं े त कर र े ै। चिंपतराय - तुमने मेरी बात कभी न ींि टाली। सारंििा - मरते दम तक न टालँूगी। चपिं तराय - य मेरी अिंततम याचना ै। इसे अस्वीकार न करना।
सारंििा ने तलवार को तनकालकर अपने वषों स्थल पर रख मलया और क ा - य आपकी आज्ञा न ीिं ै। मेरी ाहदाक अमभलाषा ै कक मरूँ तो य मस्तक आपके पद-कमलों पर ो। चंपि तराय - तुमने मेरा मतलब न ीिं समझा। क्या तुम मझु े इसमल शत्रुओिं के ाथ मंे छोड जाओगी कक मैं बेडडयाँ प ने ु हदल्ली की गमलयों मंे तनदिं ा का पात्र बनँू? रानी ने ग्जज्ञासा की दृग्ष्ट से राजा को देखा। व उनका मतलब न समझी। राजा - मंै तमु से क वरदान मागँ ता ूँ। रानी - स षा माँधग । राजा - य मेरी अितं तम प्राथना ा ै। जो कु छ क ूँगा, करोगी? रानी - मसर के बल करूँ गी। राजा - देखो, तमु ने वचन हदया ै। इनकार न करना। रानी (काँपकर) आपके क ने की देर ै। राजा - अपनी तलवार मेरी छाती मंे चुभा दो। रानी के हृदय पर वज्रपात ो गया। बोली - जीवननाथय इसके आगे व और कु छ न बोल सकी। आँखों मंे नरै ाय छा गया। राजा - मंै बेडडयाँ प नने के मल जीववत र ना न ीिं चा ता। रानी - मुझसे य कै से ोगा?
पाँचवाँ और अतिं तम मसपा ी िरती पर धगर पडा। राजा ने झँझु लाकर क ा - इसी जीवन पर आन तनभाने का गवा था? बादशा के मसपा ी राजा की तरफ लपके । राजा ने नैरायपणू ा भाव से रानी की ओर देखा। रानी षों णभर अतनग्चत रूप से खडी र ी; लेककन सिंकट मंे मारी तनचयात्मक शग्क्त बलवान ो जाती ै। तनकट था कक मसपा ी लोग राजा को पकड ले कक सारिंिा ने दाममनी की भाँतत लपककर तलवार राजा के हृदय मंे चुभा दी। प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डू ब गम। राजा के हृदय से रुधिर की िारा तनकल र ी थी; पर चे रे पर शातंि त छाम ुम थी। कै सा हृदय ैय व स्त्री जो अपने पतत पर जान देती थी आज उसकी प्राणघाततका ैय ग्जस हृदय से आमलधिं गत ोकर उसने यौवनसुख लूटा, जो हृदय उसकी अमभलाषाओिं का कंे र था, जो हृदय उसके अमभमान का पोषक था, उसी हृदय को सारंििा की तलवार छे द र ी ै। ककसी स्त्री की तलवार से ीसा काम ुआ ै? आ य आत्मामभमान का कै सा ववषादमय अंति ै। उदयपरु और मारवाड के इतत ास मंे भी आत्म-गौरव की ीसी घटना ँ न ीिं ममलती।िं बादशा ी मसपा ी सारंििा का य सा स और ियै ा देखकर दिंग र ग । सरदार ने आगे बढकर क ा - रानी साह बा, खुदा गवा ै, म सब आपके गुलाम ंै। आपका जो ुक्म ो, उसे ब-सरो चम बजा ला िगं े। सारिंिा ने क ा - अगर मारे पतु ्रों में से कोम जीववत ो, तो ये दोनों लाशंे उसे सौंप देना।
य क कर उसने व ी तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब व अचते ोकर िरती पर धगरी, तो उसका मसर चंिपतराय की छाती पर था। ***
शाप मैं बमलना नगर का तनवासी ूँ। मेरे पजू ्य वपता भौततक ववज्ञान के सुववख्यात ज्ञाता थे। भौगोमलक अन्वषे ण का शौक मुझे भी बाल्यावस्था ी से था। उनके स्वगवा ास के बाद मझु े य िुन सवार ुम कक पदै ल पथृ ्वी के समस्त देश- देशान्तरों की सरै करूँ । मंै ववपलु िन का स्वामी था। वे सब रुपये क बकैं में जमा करा हदये और उस से शता कर ली कक मुझे यथा समय रुपये भेजता र े, इस काया से तनवतृ ्त ोकर मनैं े सफर का सामान पूरा ककया। आवयक वजै ्ञातनक यितं ्र साथ मलये और मवर का नाम लेकर चल खडा ुआ। उस समय य कल्पना मेरे हृदय में गुदगुदी पैदा कर र ी थी कक मैं व प ला प्राणी ूँ ग्जसे य बात सूझी ैं कक परै ों से पथृ ्वी को नापे। अन्य यात्रत्रयों ने रेल, ज ाज और मोटरकार की शरण ली ै। मंै प ला ी व वीर-आत्मा ूँ, जो अपने परै ों के बूते पर प्रकृ तत के ववराट उपवन की सैर के मल उद्दत ुआ ै। अगर मेरे सा स और उत्सा ने य कष्ट साध्य यात्रा परू ी कर ली तो भर-सिसं ार मझु े सम्मान और गौरव के मसनद पर बठै ावगे ा और अनन्त काल तक मेरी कीतता के राग अलापे जायगंे े। उस समय मेरा मग्स्तष्क इन् ीिं ववचारों से भरा ुआ था। और मवर को िन्यवाद देता ूँ कक स ्ों कहठनाइयों का सामना करने पर भी िैया ने मेरा साथ न छोडा और उत्सा क षों ण के मल भी तनरुत्सा न ुआ। मंै वषों ीसे स्थानों पर र ा ूँ, ज ाँ तनजना ता के अततररक्त कोम दसू रा साथी न था। वषों ीसे स्थानों पर र ा ूँ, ज ाँ की पथृ ्वी और आकाश ह म की मशला ँ थी।ंि मैं भयकिं र जन्तओु िं के प लू में सोया ूँ। पक्षषों यों के घोंसलों मंे रातंे काटी ंै, ककन्तु ये सारी बािा ँ कट गयींि और व समय अब दरू न ींि कक साह त्य और ववज्ञान-ससंि ार मेरे चरणों पर शीश नवाय।ें मनैं े इस यात्रा मंे बडे-बडे अद्भतु दृय देखे और ककतनी ी जाततयों के आ ार- व्यव ार, र न-स न का अवलोकन ककया। मेरा यात्रा-वतृ ्ताितं , ववचार, अनुभव और तनरीषों ण का क अमलू ्य रत्न ोगा। मनैं े ीसी-ीसी आचयाजनक घटना ँ आँखों
से देखी ंै, जो अमलफ-लैला की कथाओिं से कम मनोरिंजक न ोंगी। परन्तु व घटना जो मनंै े ज्ञानसरोवर के तट पर देखी, उसका उदा रण मगु ्कल से ममलेगा, मंै उसे कभी न भलू ँगू ा। यहद मेरे इस तमाम पररश्रम का उप ार य ी क र स्य ोता तो भी मैं उसे पयााप्त समझता। मंै य बता देना आवयक समझता ूँ कक मैं ममथ्यावादी न ीिं और न मसवद्धयों तथा ववभतू तयों पर मेरा वववास ै। मंै उस ववद्वान का भक्त ूँ ग्जसका आिार तका और न्याय पर ै। यहद कोम दसू रा प्राणी य ी घटना मझु से बयान करता तो मझु े उस पर वववास करने मंे ब ुत सिकं ोच ोता, ककन्तु मंै जो कु छ बयान कर र ा ूँ, व सत्य घटना ै। यहद मेरे इस आवासन पर भी कोम उस पर अवववास करे, तो उसकी मानमसक दबु ला ता और ववचारों की संिकीणता ा ै। यात्रा का सातवाँ वषा था और ज्येष्ठ का म ीना। मंै ह मालय के दामन मंे ज्ञानसरोवर के तट पर री- री घास पर लेटा ुआ था, ऋतु अत्यिंत सु ावनी थी। ज्ञानसरोवर के स्वच्छ तनमला जल में आकाश और पवता श्रेणी का प्रततत्रबम्ब, जलपक्षषों यों का पानी पर तैरना, शुभ्र ह मश्रेणी का सयू ा के प्रकाश से चमकना आहद दृय ीसे मनो र थे कक मैं आत्मोल्लास से ववह्वल ो गया। मनंै े ग्स्वट्जरलडैं और अमेररका के ब ुप्रशंिमसत दृय देखे ै, पर उनमें य शािंततप्रद शोभा क ाँय मानव बवु द्ध ने उनके प्राकृ ततक सौंदया को अपनी कृ त्रत्रमता से कलंिककत कर हदया ै। मैं तल्लीन ो कर इस स्वगीय आनंिद का उपभोग कर र ा था कक स सा मेरी दृग्ष्ट क मसिं पर जा पडी, जो मंिदगतत से कदम बढाता ुआ मेरी ओर आ र ा था। उसे देखते ी मेरा खून सखू गया, ोश उड ग । ीसा वृ दाकार भयंिकर जतंि ु मेरी नजर से न गजु रा था। व ाँ ज्ञानसरोवर के अततररक्त कोम ीसा स्थान न ीिं था ज ाँ भाग कर अपनी जान बचाता। मंै तैरने मंे कु शल ूँ, पर मंै ीसा भयभीत ो गया कक अपने स्थान से ह ल न सका। मेरे अंिग-प्रत्यंगि मेरे काबू से बा र थे। समझ गया कक मेरी ग्जिंदगी य ींि तक थी। इस शरे के पिंजे से बचने की कोम आशा न थी। अकस्मात मझु े स्मरण ुआ कक मेरी जबे में क वपस्तौल गोमलयों से भरी ुम रखी ै, जो मनैं े आत्मरषों ा के मल चलते समय साथ ले ली थी, और अब तक प्राणपण से इसकी रषों ा करता
आया था। आचया ै कक इतनी देर तक मेरी स्मतृ त क ाँ सोम र ी। मनैं े तरु ंित ी वपस्तौल तनकली और तनकट था कक शेर पर वार करूँ कक मेरे कानों में य शब्द सुनाम हद , मसु ाकफर, मवर के मल वार न करना अन्यथा मझु े दःु ख ोगा। मसंि राज से तझु े ातन न प ुँचगे ी। मनंै े चककत ोकर पीछे की ओर देखा तो क युवती रमणी आती ुम हदखाम दी। उसके ाथ मंे क सोने का लोटा था और दसू रे मंे क ततरी। मनंै े जमना ी की ूरें और को काफ की पररयाँ देखी ै, पर ह मालय पवता की य अप्सरा मनंै े क ी बार देखी और उसका धचत्र आज तक हृदय-पट पर खचंि ा ुआ ै। मझु े स्मरण न ीिं कक 'रफै ल' या 'कोरेग्जयो' ने भी कभी ीसा धचत्र खीचंि ा ो। 'वडंै ाइक' और 'रेमब्रॉड' के आकृ तत-धचत्रों ने भी ीसी मनो र छवव न ींि देखी। वपस्तौल मेरे ाथ से धगर पडी। कोम दसू री शग्क्त इस समय मुझे अपनी भयाव पररग्स्थतत से तनग्चंित न कर सकती थी। मंै उस संिुदरी की ओर देख र ा था कक व मसिं के पास आम। मसिं उसे देखते ी खडा ो गया और मेरी ओर सशिंक नेत्रों से देखकर मेघ की भातँ त गरजा। रमणी ने क रूमाल तनकाल कर उसका मँु पोंछा और कफर लोटे से दिू उँ डले कर उसके सामने रख हदया। मसंि दिू पीने लगा। मेरे ववस्मय की अब कोम सीमा न थी। चककत था कक य कोम ततमलस्म ै या जाद।ू व्यव ार-लोक मंे ूँ या ववचार-लोक मंे। सोता ूँ या जागता। मनंै े ब ुिा सरकसों मंे पालतू शेर देखे ै, ककंि तु उन् ंे काबू में रखने के मल ककन-ककन रषों ा वविानों से काम मलया जाता ैय उसके प्रततकू ल य मांसि ा ारी पशु उस रमणी के सम्मुख इस भाँतत लेटा ुआ ै मानो व मसिं की योतन में कोम मगृ -शावक ै। मन मंे प्रन ुआ, सिंदु री मंे कौन-सी चमत्काररक शग्क्त ै ग्जसने मसिं को इस भातँ त वशीभतू कर मलया? क्या पशु भी अपने हृदय में कोमल और रमसक-भाव तछपा रखते ैं? क ते ै कक म ुअर का अलाप काले नाग को भी मस्त कर देता ै। जब ध्वतन में य मसवद्ध ै तो सौंदया की शग्क्त का अनमु ान कौन कर सकता ै। रूप-
लामलत्य ससिं ार का सब से अमलू ्य रत्न ै, प्रकृ तत के रचना-नपै णु ्य का सवशा ्रेष्ठ अगंि ै। जब मसंि दिू पी चुका तो सुिदं री ने रूमाल से उसका मँु पोंछा और उसका मसर अपने जाघँ पर रख कर उसे थपककयाँ देने लगी। मसंि पँछू ह लाता था और सिुंदरी की अरुणवणा थमे लयों को चाटता था। थोडी देर के बाद दोनों क गुफा में अितं ह ता ो ग । मुझे भी िुन सवार ुम कक ककसी प्रकार इस ततमलस्म को खोलँू, इस र स्य का उद्घाटन करूँ । जब दोनों अदृय ो ग तो मंै भी उठा और दबे पाँव उस गफु ा के द्वार तक जा प ुँचा। भय से मेरे शरीर की बोटी- बोटी कापँ र ी थी, मगर इस र स्यपट को खोलने की उत्सुकता भय को दबा ु थी। मनैं े गुफा के भीतर झाकँ ा तो क्या देखता ूँ कक पथृ ्वी पर जरी का फशा त्रबछा ुआ ै और कारचोबी गावतककये लगे ु ै। मसिं मसनद पर गवा से बैठा ुआ ै। सोने-चादँ ी के पात्र, संदुि र धचत्र, फू लों के गमले सभी अपने-अपने स्थान पर सजे ु ैं, व गुफा राजभवन को भी लग्ज्जत कर र ी ै। द्वार पर मेरी परछाम देखकर व सिदंु री बा र तनकल आम और मुझसे क ा - यात्री, तू कौन ै और इिर क्योंकर आ तनकला? ककतनी मनो र ध्वतन थी। मनैं े अबकी बार समीप से देखा तो संुिदरी का मुख कु म् लाया ुआ था। उसके नेत्रों से तनराशा झलक र ी थी, उसके स्वर में भी करुणा और व्यथा की खटक थी। मनंै े उत्तर हदया, देवी, मंै यरू ोप का तनवासी ूँ, य ाँ देशाटन करने आया ूँ। मेरा परम सौभानय ै कक आप से सभंि ाषण करने का गौरव प्राप्त ुआ ै। सदंुि री के ोटों पर मिरु मसु ्कान की झलक हदखाम दी, उसमें कु छ कु हटल ास्य का भी अिंश था। कदाधचत य मेरे इस अस्वाभाववक वाक्य-प्रणाली की द्योतक था। 'तू ववदेश से य ाँ आया ै। आततथ्य-सत्कार मारा कतवा ्य ै। मंै आज तुझे तनमंति ्रण देती ूँ, स्वीकार कर।'
मनैं े अवसर देखकर उत्तर हदया, आपकी य कृ पा मेरे मल गौरव की बात ै, पर इस र स्य ने मेरी भूख-प्यास बदंि कर दी ै। क्या मंै आशा करूँ कक आप इस पर कु छ प्रकाश डालंेगी? सुिंदरी ने ठंि डी सासँ लेकर क ा, मेरी रामक ानी ववपग्त्त की क बडी कथा ै; तुझे सनु कर दःु ख ोगा। ककंि तु मनंै े जब ब ुत आग्र ककया तो उसने मझु े फशा पर बैठने का सकंि े त ककया और अपना वतृ ्तातंि सनु ाने लगी: 'मंै कामीर देश की र नेवाली राजकन्या ूँ। मेरा वववा क राजपूत योद्धा से ुआ था। उसका नाम नमृ सिं देव था। म दोनों बडे आनदंि से जीवन व्यतीत करते थे। ससिं ार का सवोत्तम पदाथा रूप ै, दसू रा स्वास्थ्य और तीसरा िन। परमात्मा ने मको ये तीनों ी पदाथा प्रचरु पररमाण में प्रदान कक थ।े खदे ै कक मंै उनसे मुलाकात न ीिं कर सकती। ीसा सा सी, ीसा सिदंु र, ीसा ववद्वान परु ुष सारे कामीर मंे न था। मंै उनकी आरािना करती थी। उनका मेरे ऊपर अपार स्ने था। कम वषों तक मारा जीवन क जल्ोत की भातँ त वषृ ों -पंुजि ों और रे- रे मदै ानों मंे प्रवाह त ोता र ा। मेरे पडोस में क महंि दर था। पजु ारी क पंडि डत श्रीिर थे। म प्रातःकाल तथा सधंि ्या समय उस मिहं दर में उपासना के मल जात।े मेरे स्वामी कृ ष्ण के भक्त थ।े मिहं दर क सुरम्य सागर के तट पर बना ुआ था। व ाँ की पररष्कृ त मिदं समीर धचत्त को पुलककत कर देती थी। इसमल म उपासना के पचात भी व ाँ घिटं ों वायु-सेवन करते र ते थे। श्रीिर बडे ववद्वान, वदे ों के ज्ञाता, शास्त्रों के जाननवे ाले थ।े कृ ष्ण पर उनकी भी अववचल भग्क्त थी। समस्त कामीर मंे उनके पाडिं डत्य की चचाा था। व बडे संियमी, सतंि ोषी, आत्मज्ञानी पुरुष थ।े उनके नेत्रों से शांितत की ज्योततरेखा ँ तनकलती ुम मालमू ोती थी। सदैव परोपकार मंे मनन र ते थे। उनकी वाणी ने कभी ककसी का हृदय न ींि दखु ाया। उनका हृदय तनत्य परवेदना से पीडडत र ता था।
पिंडडत श्रीिर मेरे पततदेव से लगभग दस वषा थे; पर उनकी पत्नी ववद्यािरी मेरी समवयस्का थी। म दोनों स ेमलयाँ थी। ववद्यािरी अत्यिंत गंभि ीर, शांति प्रकृ तत की स्त्री थी। यद्यवप रिंग-रूप में व ी रानी थी, पर व अपनी अवस्था से सिंतुष्ट थी। अपने पतत को व देवतलु ्य समझती थी। श्रावण का म ीना था। आकाश पर काले-काले बादल मँडरा र े थे, मानो काजल के पवता उडे जा र े ंै। झरनों से दिू की िारें तनकल र ी थीिं और चारों ओर ररयाली छाम ुम थी। नन् ीिं-नन् ीिं फु ारंे पड र ी थीिं, मानो स्वगा से अमतृ की बँदू े टपक र ी ैं। जल की बँूदंे फू लों और पग्त्तयों के गले मंे चमक र ी थी।िं धचत्त को अमभलाषाओंि से उभारनवे ाला शमा छाया ुआ था। य व समय ै जब रम णयों को ववदेशगामी वप्रयतम का याद रुलाने लगती ै, जब हृदय ककसी से आमलगिं न करने के मल व्यग्र ो जाता ै। जब सूनी सेज देखकर कलेजे में ूक-सी उठती ै। इसी ऋतु मंे ववर की मारी ववयोधगतनयों अपनी बीमारी का ब ाना क ती ैं, ग्जसमें उसका पतत उसे देखने आवे। इसी ऋतु मंे माली की कन्या िानी साडी प नकर क्याररयों मंे इठलाती ुम चंिपा और बेले के फू लों से आँचल भरती ै, क्योंकक ार और गजरों की माँग ब ुत बढ जाती ै। मंै और ववद्यािरी ऊपर छत पर बठै ी ुम वषाऋा तु की ब ार देख र ी थीिं और कामलदास का ऋतुसंि ार पढती थींि कक इतने मंे मेरे पतत ने आकर क ा, आज का सु ावना हदन ै। झूला झूलने मंे बडा आनिंद आ गा। सावन मंे झूला झूलने का प्रस्ताव क्योंकर रद्द ककया जा सकता था। इन हदनों प्रत्येक रमणी का धचत्त आप ी आप झलू ा झलू ने के मल ववकल ो जाता ै। जब वन के वषृ ों झूला झलू ते ों, जब सारी प्रकृ तत आदंि ोमलत ो र ी ो तो रमणी का कोमल दय क्यों न चिंचल ो जा य ववद्यािरी भी राजी ो गम। रेशम की डोररयाँ कदम की डाल पर पड गम, चदंि न का पटरा रख हदया गया और मंै ववद्यािरी के साथ झलू ा झलू ने चली। ग्जस प्रकार ज्ञानसरोवर पववत्र जल से पररपणू ा ो र ा ै, उसी भातँ त मारे हृदय पववत्र आनिंद से पररपणू ा थ।े
ककंि तु शोकय य कदाधचत मेरे सौभानयचरंि की अंिततम झलक थी। मैं झूले के पास प ुँच कर पटरे पर जा बैठी; ककिं तु कोमलागिं ी ववद्यािरी ऊपर न आ सकी। व कम बार उचकी, परिंतु पटरे तक न आ सकी। तब मेरे पततदेव ने स ारा देने के मल उसकी बाँ पकड ली। उस समय उनके नते ्रों में क ववधचत्र तषृ ्णा की झलक थी और मझु पर क ववधचत्र आतरु ता। व िीमे में मल् ार गा र े थे; ककंि तु ववद्यािरी पर पटरे पर आम तो उसका मझु े डू बते सयू ा की भाँतत लाल ो र ा था, नेत्र अरुणवणा ो र े थे। उसने पततदेव की ओर क्रोिोन्मत्त ो कर क ा, 'तूने काम के वश ोकर मेरे शरीर में ाथ लगाया ै। मंै अपने पाततव्रत के बल से तझु े शाप देती ूँ कक तू इसी षों ण पशु ो जा।' य क ते ी ववद्यािरी ने अपने गले से रुराषों की माला तनकला कर मेरे पततदेव के ऊपर फें क हदया और तत्षों ण ी पटरे के समीप मेरे पततदेव के स्थान पर क ववशाल मसिं हदखाम हदया। 2 ी मुसाकफर, अपने वप्रय पततदेवता की य गतत देखकर मेरा रक्त सखू गया और कलेजे पर त्रबजली-सी आ धगरी। मैं ववद्यािरी के परै ों से मलपट गम और फू ट- फू टकर रोने लगी। उस समय अपनी आँखों से देखकर अनभु व ुआ कक पाततव्रत की मह मा ककतनी प्रबल ै। ीसी घटना ँ मनैं े परु णों में पढी थीिं, परिंतु मझु े वववास न था कक वतमा ान काल मंे जबकक स्त्री-परु ुष के संिबििं मंे स्वाथा की मात्रा हदनोंहदन अधिक ोती जाती ै, पाततव्रत िमा में य प्रभाव ोगा; परंितु य न ीिं क सकती कक ववद्यािरी के ववचार क ाँ तक ठीक थ।े मेरे पतत ववद्यािरी को सदैव बह न क कर संबि ोधित करते थ।े व अत्यिंत स्वरूपवान थे और रूपवान परु ुष की स्त्री का जीवन ब ुत सखु मय न ीिं ोता; पर मुझे उन पर सशिं य करने का अवसर कभी न ींि ममला। व स्त्री व्रत िमा का वैसा ी पालन करते थे जसै े सती अपने िमा का। उनकी दृग्ष्ट में कु चषे ्टा न थी और ववचार अत्यिंत उज्जवल और पववत्र थे। य ाँ तक कक कामलदास की शंिगृ ारमय कववता
भी उन् ें वप्रय न थी, मगर काम के ममभा ेदी बाणों से कौन बचा ैय ग्जस काम ने मशव, ब्रह्मा जैसे तपग्स्वयों की तपस्या भंगि कर दी, ग्जस काम ने नारद और वववाममत्र जसै े ऋवषयों के माथे पर कलकंि का टीका लगा हदया, व काम सब कु छ कर सकता ै। संभि व ै कक सुरापान ने उद्दीपक ऋतु के साथ ममलकर उनके धचत्त को ववचमलत कर हदया ो। मेरा गमु ान तो य ै कक य ववद्यािरी की के वल भ्रातिं त थी। जो कु छ भी ो, उसने शाप दे हदया। उस समय मेरे मन मंे भी उत्तजे ना ुआ कक ग्जस शग्क्त का ववद्यािरी को गवा ै, क्या व शग्क्त मुझ मंे न ीिं ै? क्या मैं पततव्रता न ींि ूँ? ककंि तु ाय मनैं े ककतना ी चा ा कक शाप के शब्द मँु से तनकालँू, पर मेरी जबान बिदं ो गम। अखिंड वववास जो ववद्यािरी को अपने पाततव्रत पर था, मुझे न था? वववशता ने मेरे प्रततकार के आवेग को आवेग को शातिं कर हदया। मनैं े बडी दीनता के साथ क ा - बह न, तमु ने य क्या ककया? ववद्यािरी ने तनदाय ोकर क ा - मनैं े कु छ न ीिं ककया। य उसके कमों का फल ै। मैं - तमु ् ंे छोडकर और ककसकी शरण जाऊँ , क्या तमु इतनी दया न करोगी? ववद्यािरी - मेरे कक अब कु छ न ींि ो सकता। मंै - देवव, तमु पाततव्रतिाररणी ो, तुम् ारे वाक्य की मह मा अपार ै। तुम् ारा क्रोि यहद मनषु ्य को पशु बना सकता ै, तो क्या तुम् ारी दया पशु से मनुष्य न बना सके गी? ववद्यािरी - प्रायग्चत करो। इसके अततररक्त उद्धार का और कोम उपाय न ीं।ि ी मुसाकफर, मैं राजपतू कन्या ूँ। मनंै े ववद्यािरी से अधिक अननु य-ववनय न ींि की। उसका हृदय दया का आगार था। यहद मैं उसके चरणों पर शीश रख देती तो कदाधचत उसे मझु पर दया आ जाती; ककिं तु राजपूत की कन्या इतना अपमान
न ींि स सकती। व घणृ ा के घाव स सकती ै, क्रोि की अग्नन स सकती ै, पर दया का बोझ उससे न ींि उठाया जाता। मनंै े पटरे से उतरकर पततदेव के चरणों में मसर झुकाया और उन् ें साथ मलये ु अपने मकान चली आम। 3 कम म ीने गुजर ग । मंै पततदेव की सेवा-शुश्रषू ा में तन-मन से व्यस्त र ती। यद्यवप उनकी ग्जह्वा वाणीवव ीन ो गम थी, पर उनकी आकृ तत से स्पष्ट प्रकट ोता था कक व अपने कमा से लग्ज्जत थे। यद्यवप उनका रूपातिं र ो गया था; पर उन् ंे मासिं से अत्यंित घणृ ा थी। मेरी पशशु ाला में सैकडो गाय-ंे भैसे थी; ककंि तु शरे मसिं ने कभी ककसी की ओर आखँ उठाकर भी न देखा। मंै उन् ें दोनों बेला दिू वपलाती और संधि ्या समय उन् ें साथ लेकर प ाडडयों की सरै कराती। मेरे मन मंे न जाने क्यों िैया और सा स का इतना संिचार ो गया था कक मुझे अपनी दशा असह्य न जान पडती थी। मझु े तनचय था कक शीघ्र ी इस ववपग्त्त का अतंि भी ोगा। इन् ीिं हदनों ररद्वार मंे गगंि ा-स्नान का मेला लगा। मेरे नगर के यात्रत्रयों का क समू ररद्वार चला। मैं भी उनके साथ ो ली। दीन-दखु ी जनों को दान देने के मल रुपयों और अशकफा यों की थैमलयाँ साथ ले ली। मैं प्रायग्चत करने जा र ी थी, इसमल पदै ल ी यात्रा करने का तनचय कर मलया। लगभग क म ीने मंे ररद्वार जा प ुँची। य ाँ भारतवषा के प्रत्येक प्रांित से असंिख्य यात्री आ ु थे। सनंि ्यामसयों और तपग्स्वयों की सिंख्या गृ स्थों से कु छ ी कम ोगी। िमशा ालों मंे र ने का स्थान न ममलता था। गंिगातट पर, पवता ों की गोद में, मदै ानों के वषों ःस्थल पर, ज ाँ दे ख आदमी ी आदमी नजर आते थे। दरू से व छोटे- छोटे खलौने की भाँतत हदखाम देते थ।े मीलों तक आदममयों का फशा-सा त्रबछा ुआ था। भजन और कीतना की ध्वतन तनत्य कानों में आती र ती थी। हृदय असीम शुवद्ध गिंगा की ल रों की भातँ त ल रंे मारती थी। व ाँ का जल, वायु, आकाश सब कु छ शुद्ध था।
मझु े ररद्वार आ तीन हदन व्यतीत ु थ।े प्रभात का समय था। मंै गिगं ा में खडी स्नान कर र ी थी। स सा मेरी दृग्ष्ट ऊपर की ओर उठी तो मनैं े ककसी आदमी को पुल की ओर झाकँ ते देखा। अकस्मात उस मनुष्य का पाँव ऊपर उठ गया और सैकडों ी गज की ऊँ चाम से गिगं ा में धगर पडा। स ्ों आखंे य दृय देख र ी थी, पर ककसी का सा स न ुआ कक उस अभागे मनषु ्य का जान बचा । भारतवषा के अततररक्त ीसा समवदे ना शून्य और कौन देश ोगा और य व देश ै ज ाँ परमाथा मनुष्य का कत्तवा ्य बताया गया ै। लोग बठै े ु अपिंगओु िं की भातँ त तमाशा देख र े थे। सभी तबवु द्ध से ो र े थे। िारा प्रबल वगे से प्रवाह त थी और जल बफा से भी अधिक शीतल। मनंै े देखा कक व िारा के साथ ब ता चला जाता था। य हृदय-ववदारक दृय मझु से न देखा गया। मैं तरै ने में अभ्यस्त थी। मनंै े मवर का नाम मलया और मन को दृढ करके िारा के साथ तैरने लगी। ज्यों-ज्यों मैं आगे बढती थी, व मनुष्य मुझसे दरू ोता जाता था। य ाँ तक कक मेरे सारे अिगं ठंि ड से शून्य ो ग । मनंै े कम बार चट्टानों की पकडकर दम मलया, कम बार पत्थरों के टकराम। मेरे ाथ ी न उठते थे। सारा शरीर बफा का ढाचँ ा-सा बना ुआ था। मेरे अगंि गतत ीन ो ग कक मैं िारा से साथ ब ने लगी और मझु े वववास ो गया कक गिगं ामाता के उदर में ी मेरी जल-समाधि ोगी। अकस्मात मनैं े उस पुरुष को क चट्टान पर रुकते देखा। मेरा ौसला बँि गया। शरीर में क ववधचत्र स्फू तता का अनुभव ुआ। मैं जोर लगाकर प्राणपण से उस चट्टान पर जा प ुँची और उसका ाथ पकड कर खीिंचा। मेरा कलेजा िक से ो गया। य श्रीिर पिडं डत थ।े ी मसु ाकफर, मनैं े य काम प्राणों को थले ी पर रखकर पूरा ककया। ग्जस समय मैं पंडि डत श्रीिर की अिा मतृ दे मलये तट पर आम तो स ्ों मनषु ्यों की जयध्वतन से आकाश गँजू उठा। ककतने ी मनुष्य ने चरणों पर मसर झकु ा । अभी लोग श्रीिर को ोश में लाने का उपाय कर ी र े थे कक ववद्यािरी मेरे सामने आकर खडी ो गम। उसका मुख, प्रभात के चंिर की भातँ त कातिं त ीन ो
र ा था, ोंठ सूखे ु , बाल त्रबखरे ु । आँखों से आँसुओिं की झडी लगी ुम थी। व जोर से ाफँ र ी थी, दौडकर मेरे पैरों से मलपट गम, ककिं तु हदल खोलकर न ीिं, तनमला भाव से न ीि।ं क की आखँ ें गवा से भरी ुम थींि और दसू रे की नलातन से झुकी ुम। ववद्यािरी के मँु से बात न तनकलती थी। के वल इतना बोली - बह न, मवर तुमको इस सत्काया का फल दंे। 4 ी मसु ाकफर, य शुभकामना ववद्यािरी के अतिं ःस्थल से तनकली थी। मंै उसके मँु से य आशीवादा सुनकर फू ली न समाम। मुझे वववास ो गया कक अबकी बार जब मंै अपने मकान पर प ुँचँगू ी तो पततदेव मुस्कराते ु मझु से गले ममलने के मल द्वार पर आ ँगे। इस ववचार से मेरे हृदय में गदु गुदी-सी ोने लगी। मैं शीघ्र ी स्वदेश को चल पडी। उत्कंि ठा मेरे कदम बढा जाती थी। मंै हदन मंे भी चलती और रात को भी चलती, मगर परै थकना ी न जानते थे। य आशा कक व मोह नी मतू ता द्वार पर मेरे स्वागत करने के मल खडी ोगी, मेरे पैरों मंे पर-से लगा ु थी। क म ीने की मगंि ्जल मनंै े क सप्ता मंे तय की। पर शोकय जब मकान के पास प ुँची, तो उस घर को देखकर हदल बैठ गया और ह म्मत न पडी कक अिदं र कदम रख।ूँ मैं चौखट पर बठै कर देर तक ववलाप करती र ी। न ककसी नौकर का पता, न क ीिं पाले ु पशु ी हदखाम देते थ।े द्वार पर िलू उड र ी थी। जान पडता था कक पषों ी घोंसले से उड गया ै, कलेजे पर पत्थर की मसल रखकर भीतर गम तो क्या देखती ूँ कक मेरा प्यारा मसंि आगँ न मंे मोटी-मोटी जजंि ीरों से बँिा ुआ ै। इतना दबु ला ो गया ै कक उसके कू ल् ों की ड्डडयाँ हदखाम दे र ी ै। ऊपर-नीचे ग्जिर देखती थी, उजाड- सा मालूम ोता था। मुझे देखते ी शरे मसंि ने पँछू ह लाम और स सा उनकी आँखंे दीपक की भातँ त चमक उठी। मैं दौडकर उनके गले से मलपट गम, समझ गम कक नौकरों ने दगा की। घर की सामधग्रयों का क ीिं पता न था। सोने-चाँदी के ब ुमलू ्य पात्र, फशा आहद सब गायब थे। ायय त्यारे मेरे आभषू णों का
संदि कू भी उठा ले ग । इस अप रण ने मुसीबत का प्याला भर हदया। शायद प ले उन् ोंने शरे मसंि को जकड कर बाँि हदया ोगा, कफर खूब हदल खोलकर नोच-खसोट की ोगी। कै सी ववडबंि ना थी कक िमा लटू ने गम थी और िन लुटा बठै ी। दरररता ने प ली बार अपना भयकंि र रूप हदखाया। ी मुसाकफर, इस प्रकार लटु जाने के बाद व स्थान आखँ ों में काँटे की तर खटकने लगा। य ी व स्थान था ज ाँ मने आनंिद के हदन काटे थे। इन् ीिं क्याररयों मंे मने मगृ ों की भातँ त कलोल कक थे। प्रत्येक वस्तु से कोम न कोम स्मतृ त सिंबधंि ित थी। उन हदनों की याद करके आँखों से रक्त के आसँ ू ब ने लगते थे। बसिंत की ऋतु थी, बौर की म क से वायु सगु िंधित ो र ी थी। म ु के वषृ ों ों के नीचे पररयों के शयन करने के मल मोततयों की शय्या त्रबछी ुम थी, करौंदे और नीबू के फलों की सगु ििं से धचत्त प्रसन्न ो जाता था। मनैं े अपनी जन्म-भूमम को सदैव के मल त्याग हदया। मेरी आँखों से आसँ ओु िं की क बँदू भी न धगरी। ग्जस जन्म-भमू म की याद यावज्जीवन हृदय को व्यधथत करती र ती ै, उससे मनंै े यों मँु मोड मलया मानो कोम बदिं ी कारागार से मुक्त ो जा । क सप्ता तक मैं चारों ओर भ्रमण करके अपने भावी तनवासस्थान का तनचय करती र ी। अतंि मंे मसिंि ु नदी के ककनारे क तनजान स्थान मुझे पसदंि आया। य ाँ क प्राचीन मिंहदर था। शायद ककसी समय में व ाँ देवताओंि का वास था; पर इस समय व त्रबलकु ल उजाड था। देवताओंि ने काल को ववजय ककया ो; पर समय चक्र को न ी।िं शनैःशनैः मझु े इस तनजना स्थान से प्रेम ो गया और व स्थान पधथकों के मल िमशा ाला बन गया। मझु े य ाँ र ते तीन वषा व्यतीत ो चुके थे। वषाा ऋतु में क हदन सिधं ्या के समय मुझे मिंहदर के सामने से क पुरुष घोडे पर सवार जाता हदखाम हदया। मिंहदर में प्रायः दो सौ गज की दरू ी पर क रमणीक सागर था, उसके ककनारे कचनार वषृ ों ों का झुरमुट थ।े व सवार उस झुरमटु में जाकर अदृय ो गया। अिंिकार बढता जाता था। क षों ण के बाद मुझे उस ओर ककसी मनषु ्य की
चीत्कार सुनाम दी, कफर बदंि कू ों के शब्द सुनाम हद और उनकी ध्वतन से प ाड गँजू उठा। ी मसु ाकफर, य दृय देखकर मझु े ककसी भीषण घटना का संिदे ुआ। मंै तुरंित उठ खडी ुम। क कटार ाथ मंे ली और उस सागर की ओर चल दी। अब मसू लािार वषाा ोने लगी थी, मानो आज के बाद कफर कभी न बरसेगा। र -र कर गजना की ीसी भयंकि र ध्वतन उठती थी, मानो सारे प ाड आपस में टकरा ग ों। त्रबजली की चमक ीसी तीव्र थी, मानो संिसार-व्यापी प्रकाश मसमटकर क ो गया ो। अिंि कार का य ाल था मानो स ्ों अमावस्या की रातें गले ममल र ी ों। मैं कमर तक पानी में चलती हदल को सम् ाले ु आगे बढती जाती थी। सागर के ककनारे क बडी-सी गुफा थी। इस समय उस गफु ा में से प्रकाश-ज्योतत बा र आती ुम हदखाम देती थी। मनैं े भीतर की ओर झाँका तो क्या देखती ूँ कक क बडा अलाव जल र ा ै। उसके चारों ओर ब ुत-से आदमी खडे ैं और क स्त्री आननेय नेत्रों से घरू -घूर कर क र ी ै, मैं अपने पतत के साथ उसे भी जला कर भस्म कर दँगू ी। मेरे कु तू ल की कोम सीमा न र ी। मनैं े सासँ बदंि कर ली और तबु् ुवद्ध की भातँ त य कौतुक देखने लगी। उस स्त्री के सामने क रक्त से मलपटी ुम लाश पडी थी और लाश के समीप ी क मनषु ्य रग्स्सयों से बँिा ुआ मसर झकु ा बैठा था। मनंै े अनमु ान ककया कक य व ी अवारो ी पधथक ै, ग्जस पर इन डाकु ओंि ने आघात ककया था। य शव डाकू सरदार का ै और य स्त्री डाकू की पत्नी ै। उसके मसर के बाल त्रबखरे ु थे और आँखों से अिंगारे तनकल र े थ।े मारे धचत्रकारों ने क्रोि को पुरुष कग्ल्पत ककया ै। मेरे ववचार से स्त्री का क्रोि इससे क ींि घातक, क ी ववध्वंिसकारी ोता ै। क्रोिोन्मत्त ोकर व कोमलागिं ी सदुिं री ज्वालामशखर बन जाती ै। उस स्त्री ने दातँ पीसकर क ा, मंै अपने पतत के साथ इसे भी जला कर भस्म कर दँगू ी। य क कर उसने उन रग्स्सयों से बँिे पुरुष को घसीटा और द कती
ु धचतंि ा में डाल हदया। आ य ककतना भयकिं र, ककतना रोमाचंि कारी दृय था। स्त्री ी अपनी द्वेष की अग्नन शातिं करने मे इतनी वपशाधचनी ो सकती ै। मेरा रक्त खौलने लगा। अब क षों ण भी ववलबिं करने का अवसर न था। मैं कटार खीचिं ली, डाकू चौंककर तततर-त्रबतर ो ग , समझे मेरे साथ और लोग भी ोंगे। मंै बेिडक धचता में घुस गम और षों णमात्र में उस अभागे परु ुष को अग्नन के मखु से तनकाल लाम। अभी के वल उसके वस्त्र ो जले थे। जसै े सपा अपना मशकार तछन जाने से फु फकारता ुआ लपकता ै, उसी प्रकार गरजती ुम लपटें मेरे पीछे दौडी। ीसा प्रतीत ोता था कक अग्नन भी उसके रक्त की प्यासी ो र ी थी। इतने में डाकू सम् ल ग और आ त सरदार की पत्नी वपशाधचनी की भातँ त मँु खोले मझु पर झपटी। समीप था कक ये त्यारे मेरी बोहटयाँ कर दें कक इतने गफु ा के द्वार पर मेघ गजना की-सी ध्वतन सुनाम दी और शेरमसंि रौररूप िारण कक ु भीतर प ुँच।े उनका भयंिकर रूप देखते ी डाकू अपनी-अपनी जान लेकर भागे। के वल डाकू सरदार की पत्नी स्तिंमभत-सी अपने स्थान पर खडी र ी। का क उसने पतत का शव उठाया और उसे लेकर धचता में बैठ गम। देखते- देखते ी उसका भयंकि र रूप अग्नन-ज्वाला मंे ववलीन ो गया। अब मनैं े उस बँिे ु मनषु ्य की ओर देखा तो मेरा हृदय उछल पडा। य पंडि डत श्रीिर थे। मझु े देखते ी मसर झकु ा मलया और रोने लगे। मैं उनके समाचार पूछ ी र ी थी कक उसी गफु ा के क कोने से ककसी के करा ने का शब्द सुनाम हदया। जाकर देखा तो क सिंदु र युवक रक्त से लथपथ पडा था। मनंै े उसे देखते ी प चान मलया। उसका परु ुषवेष उसे तछपा न सका। य ववद्यािरी थी। मदों के वस्त्र उस पर खूब सजते थे। व लज्जा और नलातन की मूतता बनी ुम थी। व पैरों पर धगर पडी, पर मँु से कु छ न बोली। उस गफु ा मंे पल भर भी ठ रना अत्यंित शिंकाप्रद था। न जाने कब डाकू कफर सशस्त्र ोकर आ जा ँ। उिर धचताग्नन भी शांति ोने लगी और उस सती की भी भीषण काया अत्यंित तजे रूप िारण करके मारे नेत्रों के सामने तािंडव क्रीडा
करने लगी। मंै बडी धचतंि ा में पडी थी कक इन दोनों प्रा णयों को कै से व ाँ से तनकालँू। दोनों ी रक्त से चूर थ।े शेरमसंि ने मेरा असमंजि स ताड मलया। रूपातंि र ो जाने के बाद उनकी बुवद्ध बडी तीव्र ो गम थी। उन् ोंने मुझे सकिं े त ककया कक दोनों को मारी पीठ पर त्रबठा दो। प ले तो मैं उनका आशय ने समझी, पर जब उन् ोंने सकिं े तों को बार-बार दु राया तो मैं समझ गम। गँूगों के घरवाले ी गँगू ों की बातें खूब समझते ै। मनंै े पंिडडत श्रीिर को गोद मंे उठाकर शेरमसिं की पीठ पर त्रबठा हदया। उसके पीछे ववद्यािरी को भी त्रबठाया। नन् ा बालक भालू की पीठ पर बठै कर ग्जतना डरता ै, उससे क ींि ज्यादा य दोनों प्राणी भयभीत ो र े थे। धचताग्नन के षों ीण प्रकाश में उनके भयववकृ त मुख देखकर ववनोद ोता था। अस्तु मंै इन दोनों प्रा णयों को साथ लेकर गुफा से तनकली और कफर उसी ततममर-सागर को पार करके महिं दर आ प ुँची। मनैं े क सप्ता तक उनका य ाँ यथाशग्क्त सेवा-सत्कार ककया। जब व भली- भाँतत स्वस्थ ो ग तो मनैं े उन् ें ववदा ककया। ये स्त्री-पुरुष कम आदममयों के साथ टेढी जा र े थे, य ाँ के राजा पंिडडत श्रीिर के मशष्य ै। पडिं डत श्रीिर का घोडा आगे था। ववद्यािरी का अभ्यास न ोने के कारण पीछे थी, उनके दोनों रषों क भी उनके साथ थ।े जब डाकु ओिं ने पंिडडत श्रीिर को घरे ा और पिंडडत ने वपस्तौल से डाकू सरदार को धगराया तो कोला ल सनु कर ववद्यािरी ने घोडा बढाया। दोनों रषों क तो जान लेकर भागे, ववद्यािरी को डाकू ओिं ने परु ुष समझकर घायल कर हदया और तब दोनों प्रा णयों को बाँिकर गफु ा मंे डाल हदया। शेष बातें मनैं े अपनी आखँ ों से देखीिं। यद्यवप य ाँ से त्रबदा ोते समय ववद्यािरी का रोम-रोम मझु े आशीवादा दे र ा था। पर ाय अभी प्रायग्चत परू ा न ुआ था। इतना आत्म-समपणा करके भी मैं सफल मनोरथ न ुम थी। 5 ी मसु ाकफर, उस प्राितं मंे अब मेरा र ना कहठन था। डाकू बिंदकू ें मल ु शेरमसिं की तलाश में घमू ने लगे। वववश ोकर क हदन मैं व ाँ से चल खडी ुम और
दगु मा पवता ों को पार करती ुम य ाँ आ तनकली। य स्थान मझु े ीसा पसदंि आया कक मनंै े इस गुफा में अपना घर बना मलया ै। आज परू े तीन वषा गुजरे जब मनंै े प ले-प ल ज्ञानसरोवर के दशना कक । उस समय भी य ी ऋतु थी। मैं ज्ञानसरोवर में पानी भरने गम ुम थी, स सा क्या देखती ूँ कक क युवक मुकी घोडे पर सवार रत्न जहटत आभषू ण प ने ाथ में चमकता ुआ भाला मलये चला आता ै। शरे मसंि को देखकर व हठठका और भाला सम् ाल कर उन पर वार कर बैठा। शेरमसंि को भी क्रोि आया। उनके गरज की ीसी गगनभेदी ध्वतन उठी कक ज्ञानसरोवर का जल आिंदोमलत ो गया और तरु ंित घोडे से खीचंि कर उसकी छाती पर पजंि े रख हद । मैं घडा छोड कर दौडी। यवु क का प्राणातंि ोनवे ाला ी था कक मनंै े शरे मसंि के गले में ाथ डाल हद और उनका मसर स लाकर क्रोि शांति ककया। मनैं े उनका ीसा भयकंि र रूप कभी न ींि देखा था। मझु े स्वयंि उनके पास जाते ु डर लगता था, पर मेरे मदृ ु वचनों ने अितं में उन् ंे वशीभूत कर मलया, व अलग खडे ो ग । यवु क की छाती पर ग रा घाव लगा था। उसे मनैं े इसी गफु ा मंे लाकर रखा और उसकी मर म-पट्टी करने लगी। क हदन मंै कु छ आवयक वस्तु ँ लेने के मल उस कस्बेमें गम ग्जसके मंहि दर के कलश य ाँ से हदखाम दे र े ै, मगर व ाँ सब दकु ानें बदंि थी। बाजारों मंे खाक उड र ी थी। चारों ओर मसयापा छाया ुआ था। मंै ब ुत देर तक इिर- उिर घूमती र ी, ककसी मनषु ्य की सूरत भी न हदखाम देती थी उससे व ाँ का सब समाचार पछू ू ँ। ीसा ववहदत ोता था, मानों य अदृय जीवों की बस्ती ै। सोच ी र ी थी कक वापस चलँू कक घोडो के टापों की ध्वतन कानों मंे आम और क षों ण में क स्त्री मसर पर परै तक काले वस्त्र िारण कक , क काले घोडे पर सवार आती ुम हदखाम दी। उसके पीछे कम सवार और प्यादे काली वहदायाँ प ने आ र े थ।े अकस्मात ु् उस सवार स्त्री की दृग्ष्ट मझु पर पडी। उसे घोडे को ड लगाम और मेरे तनकट आकर कका श स्वर मंे बोली, तू कौन ै? मनैं े तनभीक भाव से उत्तर हदया, मंै ज्ञानसरोवर के तट पर र ती ूँ। य ाँ बाजार से कु छ सामधग्रयाँ लेने आम थी; ककिं तु श र में ककसी का पता न ीं।ि उस स्त्री ने पीछे की ओर देखकर कु छ संिके त ककया और दो सवारों ने आगे बढकर मझु े पकड मलया और मेरी बा ों मंे रग्स्सयाँ डाल दी। मेरी समझ मंे न आता था कक मुझे ककस
अपराि का दिंड हदया जा र ा ै। ब ुत पूछने पर भी ककसी ने मेरे प्रनों का उत्तर न हदया। ाँ, अनुमान से य प्रकट ुआ कक य स्त्री य ाँ की रानी ै। मुझे अपने ववषय मंे कोम धचतंि ा न थी पर धचतंि ा थी शेरमसंि की, व अके ले घबरा र े ोंगे। भोजन का समय आ प ुँचा, कौन खलावेगा। ककस ववपग्त्त मंे फँ सी। न ीिं मालूम वविाता अब मेरी क्या दगु ता त करेंगे। मझु अभाधगन को इस दशा मंे भी शािंतत न ींि। इन् ीिं ममलन ववचारों मंे मनन मैं सवारों के साथ आि घंिटे तक चलती र ी कक सामने क ऊँ ची प ाडी पर क ववशाल भवन हदखाम हदया। ऊपर चढने के मल पत्थर काटकर चौडे जीने बना ग थे। म लोग ऊपर चढे। व ाँ सैकडो ी आदमी हदखाम हद , ककिं तु सब-के -सब काले वस्त्र िारण कक ु थे। मैं ग्जस कमरे मंे लाकर रखी गम, व ाँ क कु शासन के अततररक्त सजावट का और सामान न था। मैं जमीन पर बठै कर अपने नसीब को रोने लगी। जो कोम य ाँ आता था, मझु पर करुण दृग्ष्टपात करके चुपचाप चला जाता था। थोडी देर मंे रानी सा ब आकर उसी कु शासन पर बठै गम। यद्यवप उनकी अवस्था पचास वषा से अधिक थी, परंितु मुख पर अद्भुत कातंि त थी। मनैं े अपने स्थान से उठकर उनका सम्मान ककया और ाथ बाँिकर अपनी ककस्मत का फै सला सनु ने के मल खडी ो गम। ी मसु ाकफर, रानी म ोदया के तवे र देखकर प ले तो मेरे प्राण सूख ग , ककिं तु ग्जस प्रकार चदिं न जसै ी कठोर वस्तु मंे मनो र सगु िंधि तछपी ोती ै, उसी प्रकार उनकी कका शता और कठोरता के नीचे मोम के सदृश हृदय तछपा ुआ था। उनका प्यारा पतु ्र थोडे ी हदन प ले युवावस्था ी मंे दगा दे गया था। उसी के शोक मंे सारा श र मातम मना र ा था। मेरे पकडे जाने का कारण य था कक मनंै े काले वस्त्र क्यों न िारण कक थ।े य वतृ ्तािंत सुन कर मैं समझ गम कक ग्जस राजकु मार का शोक मनाया जा र ा ै व व ी यवु क ै जो मेरी गुफा में पडा ुआ ा। मनैं े उनसे पछू ा, राजकु मार मुकी घोडे पर तो सवार न ींि थे? रानी - ाँ, व मुकी घोडा था। उसे मनैं े उसके मल अरब देश से मँगवा हदया था। क्या तूने उन् ंे देखा ै?
मैं - ाँ, देखा ै। रानी ने पछू ा - कब? मंै - ग्जस हदन शेर का मशकार खेलने ग थ।े रानी - क्या तरे े ी सामने शेर ने उन पर चोट की थी? मैं - ाँ, मेरी आँखों के सामन।े रानी उत्सुक ोकर खडी ो गम और बडे दीन भाव से बोली - तू उनकी लाश का पता लगा सकती ै? मैं - ीसा न कह , व अमर ों। व दो सप्ता ों से मेरे य ाँ मे मान ै। रानी षमा य आचया से बोली - मेरा रणिीर जीववत ै? मैं - ाँ, अब उनमें चलने-कफरने की शग्क्त आ गम ै। रानी मेरे पैरों पर धगर पडी। तीसरे हदन अजनुा नगर की कु छ और ी शोभा थी। वायु आनदंि के मिरु स्वर मंे गँूजती थी, दकु ानों ने फू लों का ार प ना था, बाजारों में आनिदं के उत्सव मना जा र े थे। शोक के काले वस्त्रों की जग के सर का सु ावना रंिग बिाम दे र ा था। इिर सूया ने उषा-सागर से मसर तनकाला। उिर सलाममयाँ दगना आरिंभ ुम। आगे-आगे मंै क सब्जा घोडे पर सवार आ र ी थी और पीछे राजकु मार का ाथी सनु रे झलू ों से सजा चला आता था। ग्स्त्रयाँ अटाररयों पर मगंि ल गीत गाती थीिं और पुष्पों की वगृ ्ष्ट करती थीिं। राज-भवन के द्वार पर रानी मोततयों
से आँचल-भरे खडी थी, ज्यों ी राजकु मार ाथी से उतरे; व उन् ें गोद मंे लेने के मल दौडी और छाती से लगा मलया। 6 ी मुसाकफर, आनदिं ोत्सव समाप्त ोने पर जब मैं ववदा ोने लगी, तो रानी म ोदय ने सजल नयन ो कर क ा - बेटी, तनू े मेरे साथ जो उपकार ककया ै उसका फल तुझे भगवान दंेगे। तूने मेरे राज-विशं का उद्धार कर हदया, न ींि तो कोम वपतरों को जल देने वाला भी न र ता। तुझे कु छ त्रबदाम देना चा ती ूँ, व तझू े स्वीकार करनी पडगे ी। अगर रणिीर मेरा पुत्र ै, तो तू मेरी पतु ्री ै। तनू े रणिीर को प्राणदान हदया ै, तनू े इस राज्य का पनु रुद्धार ककया ै। इसमल इस माया-बंििन से तरे ा गला न ीिं छू टेगा। मंै अजनुा नगर का प्रातंि उप ारस्वरूप तरे ी भेंट करती ूँ। रानी की य असीम उदारता देखकर मैं दंिग र गम। कमलयुग मंे भी कोम ीसा दानी ो सकता ै, इसकी मझु े आशा न थी। यद्यवप मुझे िन-भोग की लालसा न थी, पर के वल क ववचार से कक कदाधचत ्ु य सपिं ग्त्त मुझे अपने भाइयों की सेवा करने की सामथ्या दे, मनैं े क जागीरदार की ग्जम्मेदाररयाँ अपने मसर ली। तब से दो वषा व्यतीत ो चुके ै, पर भोग-ववलास ने मेरे मन को क षों ण के मल भी चचंि ल न ींि ककया। मैं कभी पलिगं पर न ींि सोम। रूखी-सखू ी वस्तओु िं के अततररक्त और कु छ न ीिं खाया। पतत-ववयोग की दशा मंे स्त्री तपग्स्वनी ो जाती ै, उसकी वासनाओिं का अितं ो जाता ै, मेरे पास कम ववशाल भवन ै, कम रमणीक वाहटका ँ ै, ववषय-वासना की ीसी कोम सामग्री न ीिं ै, जो प्रचुर मात्रा में उपग्स्थत न ो, पर मेरे मल व सब त्याज्य ै। भवन सूने पडे ंै और वाहटकाओिं मंे खोजने से भी ररयाली न ममलेगी। मनंै े उनकी ओर कभी आँख उठा कर भी न ींि देखा। अपने प्राणािार के चरणों से लगे ु मझु े अन्य ककसी वस्तु की इच्छा न ीिं ै। मंै तनत्यप्रतत अजुना नगर जाती ूँ और ररयासत के आवयक काम-काज करके लौट आती ूँ। नौकर-चाकरों को कडी आज्ञा दे दी
गम ै कक मेरी शातंि त में बािक न ों। ररयासत की सिंपणू ा आय परोपकार मंे व्यय ोती ै। मैं उसकी कौडी भी अपने खचा में न ींि लाती। आपको अवकाश ो तो आप मेरी ररयासत का प्रबिंि देखकर ब ुत प्रसन्न ोंगे। मनंै े इन दो वषों में बीस बड-े बडे तालाब बनवा हदये ैं और चालीस गौशाला ँ बनवा दी ै। मेरा ववचार ै कक अपनी ररयासत मंे न रों का ीसा जाल त्रबछा दँ ू जैसे शरीर मंे नाडडयों का। मनैं े क सौ कु शल वदै ्य तनयुक्त कर हद ै जो ग्रामों मंे ववचरण करें और रोग की तनवगृ ्त्त करें। मेरा कोम ीसा ग्राम न ींि ै ज ाँ मेरी ओर से सफाम का प्रबंिि न ो। छोटे-छोटे गाँवों मंे आपको लालटेनंे जलती ुम ममलंेगी। हदन का प्रकाश मवर देता ै, रात के प्रकाश की व्यवस्था करना राजा का कत्तवा ्य ै। मनैं े सारा प्रबंिि पडंि डत श्रीिर के ाथों में दे हदया ै। सबसे प्रथम काया जो मनंै े ककया व य था कक उन् ंे ढूँढ तनकालँू और य भार उनके मसर रख दँ।ू इस ववचार से न ीिं कक उनका सम्मान करना मेरा अभीष्ट था, बग्ल्क मेरी दृग्ष्ट मंे कोम अन्य परु ुष ीसा कत्तवा ्यपरायण, ीसा तनस्पृ , ीसा सच्चररत्र न था। मुझे पूणा वववास ै कक व यावज्जीवन ररयासत की बागडोर अपने ाथ में रखंेगे। ववद्यािरी भी उनके साथ ै। व ींि शािंतत और सतंि ोष की मतू त,ा व ी िमा और व्रत की देवी। उसका पाततव्रत अब भी ज्ञानसरोवर की भाँतत अपार और अथा ै। यद्यवप उसका सौंदया-सूया अब मध्याह्न पर न ींि ै, पर अब भी व रतनवास की रानी जान पडती ै। धचतिं ाओंि ने उसके मखु पर मशकन डाल हद ंै। म दोनों कभी-कभी ममल जाती ैं। ककंि तु बातचीत की नौबत न ींि आती। उसकी आखँ ें झुक जाती ैं। मझु े देखते ी उसके ऊपर घडों पानी पड जाता ै और उसके माथे के जलत्रबदंि ु हदखाम देने लगते ंै। मैं आपसे सत्य क ती ूँ कक मझु े ववद्यािरी से कोम मशकायत न ींि ै। उसके प्रतत मेरे मन मंे हदनोंहदन श्रद्धा और भग्क्त बढती जाती ै। मैं उसे देखती ूँ, तो मुझे प्रबल उत्किं ठा ोती ै कक उसके परै ों पर पडूँ। पततव्रता स्त्री के दशान बडे सौभानय से ममलते ै। पर के वल इस भय से कक कदाधचत ्ु व इसे मेरी खशु ामद समझ,े रुक जाती ूँ। अब मेरी मवर से य ी प्राथना ा ै कक अपने स्वामी के चरणों मंे पडी र ूँ और जब सिंसार से प्रस्थान करने का समय आ तो मेरा मस्तक उनके चरणों पर ो। और अिंततम
जो शब्द मेरे मँु से तनकले व य ी ो कक मवर, दसू रे जन्म मंे भी इनकी चरे ी बनाना। पाठक, उस सिुंदरी का जीवन-वतृ ्तािंत सुनकर मुझे ग्जतना कु तू ल ुआ व अकथनीय ै। खदे ै कक ग्जस जातत में ीसी प्रततभाशामलनी देववयाँ उत्पन्न ो उस पर पाचत्य के कल्पना ीन, वववास ीन परु ुष उँ गमलयाँ उठा िं? समस्त यरू ोप में क ीसी सदंुि री न ोगी ग्जससे इसकी तुलना की जा सके । मने स्त्री-परु ुष के संिबिंि को सािंसाररक सिंबििं समझ रखा ै। उसका आध्याग्त्मक रूप मारे ववचार से कोसों दरू ै। य ी कारण ै कक मारे देश मंे शताग्ब्दयों की उन्नतत के पचात ु् भी पाततव्रत का ीसा उज्जवल और अलौककक उदा रण न ींि ममल सकता। और दभु ाानय से मारी सभ्यता ने ीसा मागा ग्र ण ककया ै कक कदाधचत ु् दरू भववष्य में ीसी देववयों के जन्म लेने की सिंभावना न ीिं ै। जमना ी को यहद अपनी सेना पर, फ्ांसि को अपनी ववलामसता पर और इिंगलडैं को अपने वा णज्य पर गवा ै तो भारतवषा को अपने पाततव्रत का घमिंड ै। क्या यरू ोप तनवामसयों के मल य लज्जा की बात न ीिं ै कक ोमर और वग्जला , डटंै े और गेटे, शके ्सवपयर और ह्यगो जैसे उच्चकोहट के कवव क भी सीता या साववत्री की रचना न कर सके । वास्तव में यरू ोपीय समाज ीसे आदशों से वधंि चत ैय मनंै े दसू रे हदन ज्ञानसरोवर से बडी अतनच्छा के साथ ववदा माँगी और यरू ोप को चला। मेरे लौटने का समाचार पूवा ी प्रकामशत ो चकु ा था। जब मेरा ज ाज ैंपवगा के बंदि रगा में प ुँचा चो स ्ों नर-नारी, सकै डो ववद्वान और राज कमचा ारी मेरा अमभवादन करने के मल खडे थे। मुझे देखते ी तामलयाँ बजने लगींि, रूमाल और टोप वा मंे उछलने लगे और व ाँ से घर तक ग्जस समारो से जुलूस तनकला उस पर ककसी राष्ट्रपतत को भी गवा ो सकता ै। संधि ्या समय मझु े के सर की मेज पर भोजन करने का सौभानय प्राप्त ुआ। कम हदनों तक अमभनदंि न-पत्रों का ताँता लगा र ा और म ीनों क्लब और यूतनवमसटा ी की फरमाशों से दम मारने का अवकाश न ममला। यात्रावतृ ्तांति देश के प्रायः सभी पत्रों मंे छपा। अन्य देशों से भी बिाम के तार और पत्र ममल।े फ्ासिं और रूस
आहद देशों की ककतनी ी सभाओंि ने मझु े व्याख्यान देने के मल तनमतंि ्रत्रत ककया। क- क वक्ततृ ा के मल मुझे कम-कम जार पौंड हद जाते थे। कम ववद्यालयों ने मझु े उपाधियाँ दीि।ं जार ने अपना आटोग्राफ भेजकर सम्मातनत ककया, ककंि तु इन आदर-सम्मान की आँधियों से मेरे धचत्त को शातिं त न ममलती थी और ज्ञानसरोवर का सरु म्य तट और व ग री गफु ा और व मदृ भु ाषणी रमणी सदैव आखँ ों के सामने कफरती र ती। उसके मिुर शब्द कानों में गँूजा करत।े मंै धथयेटरों मंे जाता और स्पेन और जाग्जया ा की सदंुि ररयों को देखता, ककिं तु ह मालय की अप्सरा मेरे ध्यान से न उतरती। कभी-कभी कल्पना मंे मुझे व देवी आकाश से उतरती ुम मालमू ोता, तब धचत्त चंिचल ो जाता और ववकल उत्किं ठा ोती कक ककसी तर पर लगा कर ज्ञानसरोवर के तट पर प ुँच जाऊँ । आ खर क रोज मनैं े सफर का सामान दरु ुस्त ककया और उसी ममती के ठीक क जार हदनों के बाद जब कक मैं प ली बार ज्ञानसरोवर के तट पर कदम रखा था, मैं कफर व ाँ जा प ुँचा। प्रभात का समय था। धगररराज सुन रा मुकु ट प ने खडे थ।े मिदं समीर के आनिंदमय झोंको से ज्ञानसरोवर का तनमला प्रकाश प्रततत्रबतिं्रबत जल इस प्रकार ल रा र ा था, मानो अग णत अप्सरा ँ आभषू णों से जगमगाती ुम नतृ ्य कर र ी ों। ल रों के साथ शतदल यों झकोरे लेते थे जसै े कोम बालक ह डंि ोले मंे झूल र ा ो। फू लों के बीच में वते ंिस तरै ते ु ीसे मालमू ोते थे, मानो लामलमा से छा ु आकाश पर तारागण चमक र े ों। मनैं े उत्सकु नेत्रों से इस गुफा की ओर देखा तो व ाँ क ववशाल राजप्रासाद आसमान से किं िा ममला खडा था। र ओर रमणीक उपवन था, दसू री ओर क गगनचबंुि ी मिंहदर। मुझे य कायापलट देखकर आचया ुआ। मखु ्य द्वार पर जाकर देखा, तो दो चोबदार ऊदे मखमल की वहदायाँ प ने, जरी के पट्टे बािँ े खडे थ।े मनैं े उनसे पूछा, क्यों भाम, य ककसका म ल ै? चोबदार - अजना नगर की म ारानी का।
मैं - क्या अभी ाल ी में बना ै? चोवदार - ाँय तुम कौन ो? मैं - क परदेशी यात्री ूँ। क्या तुम म ारानी को मेरी सचू ना दे दोगे? चोबदार - तुम् ारा नाम क्या ै और क ाँ से आते ो? मंै - उनसे के वल इतना क देना कक यरू ोप का क यात्री आया ै और आपके दशना करना चा ता ै। चोबदार भीतर चला गया और क षों ण के बाद आकर बोला, मेरे साथ आओ? मैं उसके साथ ो मलया। प ले क लिंबी दालान ममली ग्जसमें भातँ त-भातँ त के पषों ी वपजंि रों मंे बैठे च क र े थे। इसके बाद क ववस्ततृ बार दरी में प ुँचा जो सिंपणू ता ः पाषाण से बनी ुम थी। मनैं े ीसी सदंिु र गलु कारी ताजम ल के अततररक्त और क ीिं न ींि देखी। फशा की पच्चीकारी देखकर उस पर पावँ िरते सिंकोच ोता था। दीवारों पर तनपुण धचत्रकारों की रचना ँ शोभायमान थी। बार दरी के दसू रे मसरे पर क चबूतरा था। ग्जस पर मोटी कालीनें त्रबछी ुम थी।िं मंै फशा पर बठै गया। इतने में क लिंबे कद का रूपवान पुरुष अिदं र आता ुआ हदखाम हदया। उसके मुख पर प्रततभा की ज्योतत झलक र ी थी और आँखों से गवा टपका पडता था। उसकी काली और भाले की नोक के सदृश तनी ुम मँछू ें , उसके भौंरे की तर काले घघूँ रवाले बाल उसकी आकृ तत की कठोरता को नम्र कर देते थ।े ववनयपूणा वीरता का इससे सिुंदर धचत्र न ीिं खीचिं सकता था। उसने मेरी ओर देखकर मुस्कराते ु क ा, आप मुझे प चानते ंै? मैं अदब से खडा ो कर बोला, मुझे आपसे पररचय का सौभानय न ीिं प्राप्त ुआ। व कालीन पर बठै गया और बोला, मैं शरे मसंि ूँ।
मंै अवाक्ु र गया। शरे मसंि ने कफर क ा, क्या आप प्रसन्न न ींि ै कक आपने मझु े वपस्तौल का लक्ष्य न ीिं बनाया? मंै तब पशु था, अब मनषु ्य ूँ। मनंै े क ा, आपको हृदय से िन्यवाद देता ूँ। यहद आज्ञा ो तो मैं आपसे क प्रन करना चा ता ूँ। शरे मसंि ने मुस्कराकर क ा - मंै समझ गया, पूतछ । मैं - जब आप समझ ी ग तो मंै पूछू ँ क्यों? शरे मसिं - संभि व ै, मेरा अनुमान ठीक न ो। मैं - मझु े भय ै कक उस प्रन से आपको दःु ख न ो। शेरमसंि - कम से कम आपको मझु से ीसी शंिका न करनी चाह । मैं - ववद्यािरी के भ्रम में कु छ सार था? शरे मसिं ने मसर झुका कर देर में उत्तर हदया - जी ाँ, था। ग्जस वक्त मनैं े उसकी कलाम पकडी थी उस समय आवशे से मेरा क- क अगंि कापँ र ा था। मंै ववद्यािरी के उस अनगु ्र को मरणपयतां न भलू ँूगा। मगर इतना प्रायग्चत करने पर भी मझु े अपनी नलातन से तनवगृ ्त्त न ुम। ससंि ार की कोम वस्तु ग्स्थर न ीिं, ककंि तु पाप की कामलमा अमर और अममट ै। यश और कीतता कालातंि र में ममट जाती ै ककिं तु पाप का िब्बा न ीिं ममटता। मेरा ववचार ै कक मवर भी इस दाग को न ीिं ममटा सकता। कोम तपस्या, कोम दंिड, कोम प्रायग्चत इस कामलमा को न ींि िो सकता। पतततोद्धार की कथा ँ और तौबा या कन्फे शन करके पाप से मकु ्त ो जाने की बातंे, य सब संिसार मलप्सी पाखंिडी िमाावलतिं ्रबयों की कल्पना ँ ंै।
म दोनों य ी बातें कर र े थे कक रानी वप्रयंवि दा सामने आ कर खडी ो गम। मझु े आज अनुभव ुआ, जो ब ुत हदनों से पसु ्तकों मंे पढा करता था कक सौंदया मंे प्रकाश ोता ै। आज इसकी सत्यता मनैं े अपनी आँखों से देखी। मनैं े जब उन् ंे प ले देखा था तो तनचय ककया था कक य मवरीय कलानैपुण्य की पराकाष्ठा ै; परंितु अब जब मनैं े उन् ें दोबारा देखा तो ज्ञात ुआ कक व इस असल की नकल थी। वप्रयविं दा ने मुस्करा कर क ा, मुसाकफर, तुझे स्वदेश मंे भी कभी म लोगों की याद आम थी? अगर मंै धचत्रकार ोता तो उसके मिु ास्य को धचत्रत्रत करके प्राचीन गु णयों को चककत कर देता। उसके मँु से य प्रन सुनने को तयै ार न था। यहद इसी भातँ त मैं उसका उत्तर देता तो शायद व मेरी िषृ ्टता ोती और शेरमसिं के तवे र बदल जात।े मैं य भी न स सका कक मेरे जीवन का सबसे सखु द भाग व ी था, जो ज्ञानसरोवर के तट पर व्यतीत ुआ; ककिं तु मझु े इतना सा स भी न ुआ। मनैं े दबी जबान से क ा, क्या मैं मनषु ्य न ीिं ूँ। 7 तीन हदन बीत ग । इन तीन हदनों मंे खूब मालमू ो गया कक पवू ा को आततथ्यसेवी क्यों क ते ै। यूरोप का कोम दसू रा मनषु ्य जो य ाँ की सभ्यता से पररधचत न ो, इन सत्कारों से ऊब जाता ै। ककिं तु मझु े इन देशों के र न-स न का ब ुत अनभु व ो चुका ै और मैं इसका आदर करता ूँ। चौथे हदन, मेरी ववनय पर रानी वप्रयंिवदा ने अपनी शेष कथा सुनानी शुरू की - ी मसु ाकफर, मनैं े तझु से क ा था कक अपनी ररयासत का शासन-भार मनैं े श्रीिर पर रख हदया था और ग्जतनी योनयता और दरू दमशाता से उन् ोंने इस काम को सम् ाला ै, उसकी प्रशंिसा न ीिं ो सकती। ीसा ब ुत कम ुआ ै कक क ववद्वान पिडं डत ग्जसका सारा जीवन पठन-पाठन मंे व्यतीत ुआ ो, क ररयासत का बोझ सम् ाले; ककिं तु राजा वीरबल की भातँ त पडंि डत श्रीिर भी सब कु छ कर
सकते ै। मनंै े परीषों ाथा उन् ंे य काम सौंपा था। अनभु व ने मसद्ध कर हदया कक व इस काम के सवथा ा योनय ैं। ीसा जान पडता ै कक कु ल-परम्परा ने उन् ें इस काम के मल अभ्यस्त कर हदया। ग्जस समय उन् ोंने इसका काम अपने ाथों मंे मलया, य ररयासत क ऊजड ग्राम के सदृश थी। अब व िनिान्यपूणा क नगर ै। शासन का कोम ीसा ववभाग न ींि, ग्जस पर उनकी सकू ्ष्म दृग्ष्ट न प ुँची ो। थोडे ी हदनों मंे लोग उनके शील-स्वभाव पर मनु ि ो ग और राजा रणिीरमसंि भी उनपर कृ पा-दृग्ष्ट रखने लगे। पडंि डत जी प ले श र से बा र क ठाकु रद्वारे में र ते थे। ककंि तु जब राजा सा ब से मले -जोल बढा तो उनके आग्र से वववश ोकर राजम ल मंे चले आ । य ाँ तक परस्पर मंे मतै ्री और घतनष्ठता बढी कक मान-प्रततष्ठा का ववचार जाता र ा। राजा सा ब पिंडडत जी से सिसं ्कृ त भी पढते थे और उनके समय का अधिकांिश भाग पिंडडत जी के मकान पर ी कटता था; ककंि तु शोकय य ववद्याप्रेम या शुद्ध ममत्रभाव का आकषणा न था। य सौंदया का आकषणा था। यहद उस समय मझु े लेशमात्र भी सदंि े ोता कक रणिीरमसंि की य घतनष्ठता कु छ और ी प लू मलये ु ै तो उसका अिंत इतना खेदजनक न ोता ग्जतना कक ुआ। उनकी दृग्ष्ट ववद्यािरी पर उस समय पडी जब व ठाकु रद्वारे मंे र ती थी और य सारी कु योजना ँ उसी की करामात थी। राजा सा ब स्वभावतः बडे ी सचररत्र और सियं मी पुरुष ै; ककिं तु ग्जस रूप ने मेरे पतत जैसे देवपुरुष का ममान डडगा हदया, व सब कु छ कर सकता ै। भोली-भाली ववद्यािरी मनोववकारों की इस कु हटल नीतत से बेखबर थी। ग्जस प्रकार छलागँ ंे मारता ुआ ह रन व्याि की फै लाम ुम री- री घास से प्रसन्न ोकर उस ओर बढता ै और य न ींि समझता कक प्रत्येक पग मझु े सवना ाश की ओर मलये जाता ै, उसी भातँ त ववद्यािरी को उसका चिंचल मन अंििकार की ओर खीिंचे मल जाता था। व राजा सा ब के मल अपने ाथों से बीडे लगाकर भेजती, पूजा के मल चंिदन रगडती। रानी जी से भी उसका ब नापा ो गया। व
क षों ण के मल भी उसे अपने पास से न जाने देती। दोनों साथ-साथ बाग की सैर करती, साथ-साथ झलू ती, साथ-साथ चौपड खेलती। य उनका शंिगृ ार करती और व उनकी मागँ -चोटी सँवारती, मानो ववद्यािरी ने रानी के हृदय मंे व स्थान प्राप्त कर मलया, जो ककसी समय मुझे प्राप्त था। लेककन व गरीब क्या जानती थी कक जब मैं बाग की रववशों मंे ववचरती ूँ, तो कु वासना मेरे तलवे के नीचे आखँ ें त्रबछाती ै, जब मंै झूला झूलती ूँ, तो व आड में बैठी ुम आनदंि से झूमती ै। इस क सरल हृदय अबला स्त्री के मल चारों ओर से चक्रव्यू रचा जा र ा था। इस प्रकार क वषा व्यतीत ो गया, राजा सा ब का रब्त-जब्त हदनोंहदन बढता जाता था। पिंडडत जी को उनसे व स्ने ो गया जो गुरु जी को अपने क ोन ार मशष्य से ोता ै। मनैं े जब देखा कक आठों प र का य स वास पडंि डत जी के काम मंे ववध्न डालता ै, तो क हदन मनंै े उनसे क ा - यहद आपको कोम आपग्त्त न ो, तो दरू स्थ दे ातों का दौरा आरंिभ कर दे और इस बात का अनसु ंिि ान करे कक दे ातों मंे कृ षकों के मल बकैं खोलने मंे मे प्रजा से ककनती स ानुभतू त और ककतनी स ायता की आशा करनी चाह । पडंि डत जी के मन की बात न ीिं जानती; पर प्रत्यषों में उन् ोंने कोम आपग्त्त न ींि की। दसू रे ी हदन प्रातःकाल चले ग । ककंि तु आचया ै कक ववद्यािरी उनके साथ न गम। अब तक पिंडडत जी ज ाँ क ींि जाते थे; ववद्यािरी परछाम की भातँ त उनके साथ र ती थी। असुवविा या कष्ट का ववचार भी उसके मन मंे न आता था। पडंि डत जी ककतना ी समझा ंि, ककतना ी डरायंे, पर व उनका साथ न छोडती थी; पर अबकी बार कष्ट के ववचार ने उसे कतवा ्य के मागा से ववमखु कर हदया। प ले उसका पाततव्रत क वषृ ों था, जो उसके प्रेम की क्यारी मंे अके ला खडा था; ककिं तु अब उसी क्यारी में मतै ्री का घास-पात तनकल आया था, ग्जनका पोषण भी उसी भोजन पर अवलिंत्रबत था। 8
ी मसु ाकफर, छ म ीने गुजर ग और पंडि डत श्रीिर वापस न आ । प ाडों की चोहटयों पर छाया ुआ ह म घुल-घलु कर नहदयों मंे ब ने लगा, उनकी गोद मंे कफर रंिग-त्रबरंिग के फू ल ल ल ाने लगे। चरिं मा की ककरणंे कफर फू लों की म क सँूघने लगी। सभी पवता ों के पषों ी अपनी वावषका यात्रा समाप्त कर कफर स्वदेश आ प ुँचे; ककिं तु पिंडडत जी ररयासत के कामों में ीसे उलझे कक मेरे तनरिंतर आग्र करने पर भी अजनुा नगर न आ । ववद्यािरी की ओर से इतने उदासीन क्यों ु , समझ में न ींि आता था। उन् ंे तो उसका ववयोग क षों ण के मल भी असह्य था। ककंि तु इससे अधिक आचया की बात य थी कक ववद्यािरी ने भी आग्र पूणा पत्रों के मलखने के अततररक्त उनके पास जाने का कष्ट न उठाया। व अपने पत्रों में मलखती - स्वामी जी, मैं ब ुत व्याकु ल ूँ, य ाँ मेरा जी जरा भी न ीिं लगता। क हदन क- क वषा के समान व्यतीत ोता ै। न हदन को चनै , न रात को नींिद। क्या आप मुझे भूल ग ? मझु े से कौन-सा अपराि ुआ? क्या आपको मझु पर दया भी न ींि आती? मैं आपके ववयोग मंे रो-रोकर मरी जाती ूँ। तनत्य स्वप्न देखती ूँ कक आप आ र े ै; पर य स्वप्न सच्चा न ींि ोता। उसके पत्र ीसे ी प्रेममय शब्दों से भरे ोते थे और इसमंे कोम संिदे न ींि कक जो कु छ व मलखती थी, व भी अषों रशः सत्य था; मगर इतनी व्याकु लता, इतनी धचतंि ा और इतनी उद्ववननता पर भी उसके मन में कभी य प्रन न उठा कक क्यों न मंै ी उनके पास चली चलँ।ू ब ुत ी सु ावनी ऋतु थी। ज्ञानसरोवर में यौवन-काल की अमभलाषाओंि की भाँतत कमल के फू ल खले ु थ।े राजा रणजीतमसंि की पचीसवींि जयंिती का शुभ-मु ूता आया। सारे नगर में आनदिं ोत्सव की तैयाररयाँ ोने लगी। गृ णयाँ कोरे-कोरे दीपक पानी में मभगोने लगी कक व अधिक तले न सोख जा ँ। चतै ्र की पू णमा ा थी, ककिं तु दीपक की जगमगा ट ने ज्योत्सना को मात कर हदया था। मनंै े राजा सा ब के मल इस्फ ान से क रत्न-जहटत तलवार मँगा रखी थी। दरबार के अन्य जागीरदारों और अधिकाररयों ने भी भातँ त-भाँतत के उप ार मँगा रखे थे।
मनंै ववद्यािरी के घर जाकर देखा तो व क पुष्प ार गँूथ र ी थी। मंै आि घटिं े तक उसके सम्मखु खडी र ी; ककंि तु व अपने काम मंे इतनी व्यस्त थी कक उसे मेरी आ ट भी न ममली। तब मनंै े िीरे से पुकारा, ब न? ववद्यािरी ने चौंककर मसर उठाया और बडी शीघ्रता से व ार फू ल की डाली मंे तछपा हदया और लग्ज्जत ोकर बोली - क्या तमु देर से खडी ो? मनंै े उत्तर हदया - आि घटिं े से अधिक ुआ। ववद्यािरी के चे रे का रिंग उड गया, आखँ ें झकु गम, कु छ ह चककचाम, कु छ घबराम, अपने अपरािी हृदय को इन शब्दों से शाितं ककया - य ार मनंै े ठाकु र जी के मल गँथू ा ै। इस समय ववद्यािरी की घबरा ट का भेद मैं कु छ न समझी। ठाकु र जी के मल ार गँूथना क्या कोम लज्जा की बात ै? कफर जब व ार मेरी नजरों से तछपा हदया गया तो उसका ग्जक्र ी क्या? म दोनों ने ककतनी ी बार साथ बठै कर ार गँूथे थे। कोम तनपुण मामलन भी मसे अच्छे ार न गँूथ सकती थी; मगर इसमे शमा क्या? दसू रे हदन य र स्य मेरी समझ मंे आ गया। व ार राजा रणजीतमसंि को उप ार मंे देने के मल बनाया गया था। य ब ुत सदुिं र वस्तु थी। ववद्यािरी ने अपना सारा चातुया उसके बनाने में खचा ककया था। कदाधचत य सबसे उत्तम वस्तु थी जो राजा सा ब को भेंट कर सकती थी। व ब्राह्मणी थी। राजा सा ब की गुरुमाता थी। उसके ाथों से य उप ार ब ुत ी शोभा देता था; ककिं तु य बात उसने मझु े तछपाम क्यों? मझु े उस हदन रात भर नीिंद न आम। उसके इस र स्य-भाव ने उसे मेरी नजरों से धगरा हदया। क बार आखँ ंे झपकी तो मनंै े स्वप्न देखा, मानो व क सुंदि र पुष्प ै; ककिं तु उसकी बास ममट गम ो। व मुझसे गले ममलने के मल बढी; ककिं तु मंै ट गम और बोली कक तनू े मुझसे य बात तछपाम क्यों? 9
ी मुसाकफर, राजा रणिीरमसिं की उदारता ने प्रजा को मालामाल कर हदया। रमसों और अमीरों ने खलअतंे पाम। ककसी को घोडा ममला, ककसी को जागीर ममली। मझु े उन् ोंने श्री भगवद्गीता की क प्रतत क मखमली बस्ते मंे रख कर दी। ववद्यािरी को क ब ुमलू ्य जडाऊ कंि गन ममला। उस कंि गन मंे अनमोल ीरे जडे ु थे। दे ली के तनपुण स्वणका ारों ने इसके बनाने में अपनी कला का चमत्कार हदखाया था। ववद्यािरी को अब तक आभूषणों से इतना प्रेम न था, अब तक सादगी ी उसका आभूषण और पववत्रता ी उसका शंिगृ ार थी, पर इस किं गन पर व लोट-पोट ो गम। आषाढ का म ीना आया। घटा ँ गगनमिंडल मंे मँडराने लगी।ंि पडंि डत श्रीिर को घर सिु आम। पत्र मलखा कक मंै आ र ा ूँ। ववद्यािरी ने मकान खूब साफ कराया और स्वयिं अपना बनाव-शिंगृ ार ककया। उसके वस्त्रों से चंदि न की म क उड र ी थी। उसने किं गन को संदि कू चे से तनकाला और सोचने लगी कक इसे प नँू या न प नँू? उसके मन ने तनचय ककया कक न प नँगू ी। सदंि कू बंदि करके रख हदया। स सा लौंडी ने आकर सूचना दी कक पडिं डत जी आ ग । य सनु ते ी ववद्यािरी लपक कर उठी; ककंि तु पतत के दशना ों की उत्सुकता उसे द्वार की ओर न ीिं ले गम। उसने बडी फु ती से सिदं कू चा खोला, कंि गन तनकालकर प ना और अपनी सूरत आमने मंे देखने लगी। इिर पडंि डत जी प्रेम की उत्कंि ठा से कदम बढाते दालान से आगँ न और आँगन से ववद्यािरी के कमरे मंे आ प ुँच।े ववद्यािरी ने आकर उनके चरणों को अपने मसर से स्पशा ककया। पडंि डत जी उसका शिंगृ ार देखकर दिंग र ग । का क उनकी दृग्ष्ट उस किं गन पर पडी। राजा रणिीरमसिं की सिंगत ने उन् ंे रत्नों का पारखी बना हदया था। ध्यान से देखा तो क- क नगीना क- क जार का था। चककत ोकर बोले, य किं गन क ाँ ममला?
ववद्यािरी ने जवाब प ले ी सोच रखा था। रानी वप्रयंिवदा ने हदया ै। य जीवन में प ला अवसर था कक ववद्यािरी ने अपने पततदेव से कपट ककया। जब हृदय शुद्ध न ो तो मुख से सत्य क्योंकर तनकलेय य कंि गन न ींि, वरन ्ु क ववषलै ा नाग था। 10 क सप्ता गुजर गया। ववद्यािरी के धचत्त की शांति त और प्रसन्नता लुप्त ो गम थी। य शब्द की रानी वप्रयवंि दा ने हदया ै, प्रततषों ण उसके कानों मंे गँजू ा करत।े व अपने को धिक्कारती कक मनैं े अपने प्राणािार से क्यों कपट ककया। ब ुिा रोया करती। क हदन उसने सोचा कक क्यों न चलकर पतत से सारा वतृ ्तातंि सनु ा दँ।ू क्या व मझु े षों मा न करेंगे? य सोचकर उठी; ककंि तु पतत के सम्मखु जाते ी उसकी जबान बिंद ो गम। व अपने कमरे में आम और फू ट- फू ट कर रोने लगी। किं गन प नकर उसे ब ुत आनिंद ुआ था। इसी किं गन ने उसे ँसाया था, अब व ी रुला र ा ै। ववद्यािरी ने रानी के साथ बागों की सैर करना छोड हदया, चौपड और शतरंिज उसके नाम को रोया करत।े व सारे हदन अपने कमरे मंे पडी रोया करती और सोचती कक क्या करूँ । काले वस्त्र पर काला दाग तछप जाता ै, ककिं तु उज्जवल वस्त्र पर कामलमा की क बँदू भी झलकने लगती ै। व सोचती, इसी किं गन ने मेरा सखु र मलया ै, य ी किं गन मझु े रक्त के आसँ ू रुला र ा ै। सपा ग्जतना सदिुं र ोता ै, उतना ी ववषाक्त भी ोता ै। य संुिदर किं गन ववषिर नाग ै, मंै उसका मसर कु चल डालँूगी। य तनचय करके उसने क हदन अपने कमरे मंे कोयले का अलाव जलाया, चारों तरफ के ककवाड बंदि कर हदये और उस कंि गन को, ग्जसने उसके जीवन को सकिं टमय बना रखा था, सदिं कू चे से तनकालकर आग मंे डाल हदया। क हदन व था कक किं गन उसे प्राणों से भी प्यारा था, उसे मखमली संिदकू चे में रखती थी, आज उसे इतनी तनदायता से आग मंे जला र ी ै।
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