चूमने लगा। इतने मंे देववप्रया तनकल आम। सत्यप्रकाश को बच्चे को चमू ते देखकर आग ो गम। दरू ी से डाटा, ट जा व ाँ सेय सत्यप्रकाश माता को दीननते ्रों से देखता ुआ बा र तनकल आयाय संधि ्या समय उसके वपता ने पूछा - तमु लल्ला को क्यों रुलाया करते ो? सत्यप्रकाश - मैं तो उसे कभी न ींि रुलाता। अम्माँ खलाने को न ीिं देती। देवप्रकाश - झठू बोलते ो। आज तमु ने बच्चे को चुटकी काटी। सत्यप्रकाश - जी न ीिं, मैं तो उसकी मुग्च्छयाँ ले र ा था। देवप्रकाश - झठू बोलता ैय सत्यप्रकाश - मैं झठू न ींि बोलता। देवप्रकाश को क्रोि आ गया। लडके को दो-तीन तमाचे लगा । प ली बार य ताडना ममली, और तनरपरािय इसने उसके जीवन की कायापलट कर दी। 4 उस हदन से सत्यप्रकाश के स्वभाव मंे क ववधचत्र पररवतना हदखाम देने लगा। व घर में ब ुत कम आता। वपता आते, तो उनसे मँु तछपाता कफरता। कोम खाना खाने को बलु ाने आता, तो चोरों की भातँ त दबका ुआ जाकर खा लेता; न कु छ माँगता, न कु छ बोलता। प ले अत्यंित कु शाग्रबवु द्ध था। उसकी सफाम, सलीके और फु रती पर लोग मुनि ो जाते थे। अब व पढने से जी चरु ाता, मलै े-कु चले कपडे पह ने र ता। घर मंे कोम प्रेम करनवे ाला न था। बाजार के लडकों के साथ गली-गली घमू ता, कनकौवे लटू ता, गामलयाँ बकना भी सीख गया। शरीर भी दबु ला
ो गया। चे रे की कातंि त गायब ो गम। देवप्रकाश को अब आ -हदन उसकी शरारतों के उला ने ममलने लगे और सत्यप्रकाश तनत्य घुडककयाँ और तमाचे खाने लगा, य ाँ तक कक अगर व घर मंे ककसी काम से चला जाता, तो सब लोग दरू -दरू करके दौडात।े ज्ञानप्रकाश को पढाने के मल मास्टर आता था। देवप्रकाश उसे रोज सरै कराने साथ ले जात।े ँसमखु लडका था। देववप्रया उसे सत्यप्रकाश के साथ से भी बचाती थी। दोनों लडकों मंे ककतना अिंतर थाय क साफ सथु रा, सुिंदर कपडे पह ने, शील और ववनय का पुतला, सच बोलनवे ाला। देखनेवालों के मँु से अनायास ी दआु तनकल आती थी। दसू रा मलै ा, नटखट, चोरों की तर मँु तछपा ु ; मँु फट, बात-बात पर गामलयाँ बकनवे ाला। क रा-भरा पौिा था, प्रेम से प्लाववत, स्ने से मसधिं चत, दसू रा सखू ा ुआ, टेढा, पल्लव ीन नववषृ ों था, ग्जसकी जडों को क मदु ्दत से पानी न ीिं नसीब ुआ। क को देखकर वपता की छाती ठिं डी ोती थी; दसू रे को देखकर दे मंे आग लग जाती थी। आचया य था कक सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाम से लेशमात्र भी मष्याा न थी। अगर उसके हृदय मंे कोम कोमल भाव शेष र गया था; तो व अपने भाम के प्रतत स्ने था। उस मरुभूमम मंे य ी क ररयाली थी। मष्याा साम्यभाव की द्योतक ै। सत्यप्रकाश अपने भाम को अपने से क ींि ऊँ चा, क ींि भानयशाली समझता था। उसमे मष्याा का भाव ी लोप ो गया था। घणृ ा से घणृ ा उत्पन्न ोती ै। प्रेम से प्रेम। ज्ञान भी बडे भाम को चा ता था। कभी-कभी उसका पषों लेकर अपनी माँ से वाद-वववाद कर क ता, भयै ा की अचकन फट गम ै, आप नम अचकन क्यों न ींि बनवा देती? माँ उत्तर देती - उसके मल व ी अचकन अच्छी ै। अभी क्या, कभी तो व निगं ा कफरेगा। ज्ञानप्रकाश ब ुत चा ता था कक अपने जेब-खचा से बचाकर कु छ अपने भाम को दे, पर सत्यप्रकाश कभी उसे स्वीकार न करता था। वास्तव मंे ग्जतनी देर व छोटे भाम के साथ र ता; उतनी देर उसे क शािंततमय आनंदि का अनभु व ोता । थोडी देर के मल व सद्भावों के साम्राज्य मंे ववचरने लगता। उसके मखु से
कोम भद्दी और अवप्रय बात न तनकलती। क षों ण के मल उसकी सोम ुम आत्मा जाग उठती। क बार कम हदन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। वपता ने पूछा - तुम आजकल पढने क्यों न ीिं जाते? क्या सोच रखा ै कक मनंै े तुम् ारी ग्जंदि गी भर का ठे का ले रखा ै। सत्यप्रकाश - मेरे ऊपर जमु ाना े और फीस के कम रुप ो ग ै। जाता ूँ तो दरजे से तनकाल हदया जाता ूँ। देवप्रकाश - फीस क्यों बाकी ै? तमु तो म ीने-म ीने ले मलया करते ो न? सत्यप्रकाश - आ -हदन चिंदे लगा करते ंै, फीस के रुप चदिं े में दे हद । देवप्रकाश - और जुमाना ा क्यों ुआ? सत्यप्रकाश - फीस न देने के कारण। देवप्रकाश - तुमने चिदं ा क्यों हदयाय सत्यप्रकाश - ज्ञानू ने चंदि ा हदया तो मनंै े भी हदया। देवप्रकाश - तमु ज्ञानू से जलते ो? सत्यप्रकाश - मंै ज्ञानू से क्यों जलने लगा। य ाँ म और व दो ै, बा र म और व क समझे जाते ै। मैं य न ीिं क ना चा ता कक मेरे पास कु छ न ीिं ै। देवप्रकाश - क्यों, य क ते शमा आती ै?
सत्यप्रकाश - जी ाँ, आपकी बदनामी ोगी। देवप्रकाश - अच्छा, तो आप मेरी मानरषों ा करते ंै। य क्यों न ीिं क ते कक पढना अब मुझे मंजि ूर न ींि ै। मेरे पास इतना रुपया न ींि कक तुम् ें क- क क्लास मंे तीन-तीन साल पढाऊँ और ऊपर से तुम् ारे खचा के मल भी प्रततमास कु छ दँ।ू ज्ञानबाबू तमु ने ककतना छोटा ै, लेककन तमु से क ी दजाा नीचे ै। तुम इस साल जरूर ी फे ल ोओगे और व जरूर ी पास ोकर अगले साल तुम् ारे साथ ो जा गा। तब तो तमु ् ारे मँु में कामलख लगेगी? सत्यप्रकाश - ववद्या मेरे भानय ी मंे न ीिं ै। देवप्रकाश - तुम् ारे भानय मंे क्या ै? सत्यप्रकाश - भीख माँगना। देवप्रकाश - तो कफर भीख मागँ ो। मेरे घर से तनकल जाओ। देववप्रया भी आ गम। बोली - शरमाता तो न ींि, और बातों का जबाव देता ैय सत्यप्रकाश - ग्जनके भानय मंे भीख मागँ ना ोता ै, व ी बचपन मंे अनाथ ो जाते ै। देववप्रया - ये जली-कटी बातें अब मझु से न स ी जा ंिगी। मैं खनू का घटूँ पी- पीकर र जाती ूँ। देवप्रकाश - बे या ै। कल से इसका नाम कटवा दँगू ा। भीख माँगनी ै तो भीख ी माँगे। 5
दसू रे हदन सत्यप्रकाश ने घर से तनकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब 16 साल की ो गम थी। इतनी बातें सुनने के बाद अब उसे उस घर मंे र ना असह्य ो गया। जब ाथ-पावँ न थे, ककशोरावस्था की असमथता ा थी, तब तक अव ेलना, तनरादर, तनठु रता, भत्सना ा सब कु छ स कर घर मंे र ता था। अब ाथ- पाँव ो ग थे, उस बििं न मंे क्यों र ता। आत्मामभमान आशा की भातँ त ब ुत धचरिंजीवी ोता ै। गमी के हदन थे। दोप र का समय। घर के सब प्राणी सो र े थे। सत्यप्रकाश ने अपनी िोती बगल में दबाम; छोटा-सा बेग ाथ मंे मलया औऱ चा ता था कक चुपके से बैठक से तनकल जा कक ज्ञानू आ गया औऱ उसे क ींि जाने को तैयार देखकर बोला - क ाँ जाते ो भैया? सत्यप्रकाश - जाता ूँ क ीिं नौकरी करूँ गा। ज्ञानप्रकाश - मैं जाकर अम्माँ से क े देता ूँ। सत्यप्रकाश - तो कफर मैं तमु से तछपकर चला जाऊँ गा। ज्ञानप्रकाश - क्यों चले जाते ो? तुम् ंे मेरी जरा भी मु ब्बत न ीिं? सत्यप्रकाश ने भाम को गले लगाकर क ा - तमु ् ंे छोडकर जाने को जी तो न ीिं चा ता, लेककन ज ाँ कोम पछू ने वाला न ींि ै, व ाँ पडे र ना बे याम ै। क ीिं दस-पाचँ की नौकरी कर लँूगा और पेट पालता र ूँगा। और ककस लायक ूँ? ज्ञानप्रकाश - तुमसे अम्माँ क्यों इतना धचढती ै? मझु े तमु से ममलने को मना ककया करती ै? सत्यप्रकाश - मेरे नसीब खोटे ै, और क्या।
ज्ञानप्रकाश - तुम मलखने-पढने में जी न ीिं लगात?े सत्यप्रकाश - लगता ी न ींि, कै से लगाऊ? जब कोम परवा न ींि करता तो मैं भी सोचता ूँ -ऊँ , य ी न ोगा, ठोकर खाऊँ गा। बला सेय ज्ञानप्रकाश - मुझे भूल तो न जाओगे? मंै तुम् ारे पास खत मलखा करूँ गा, मझु े भी क बार अपना य ाँ बुलाना। सत्यप्रकाश - तमु ् ारे स्कू ल के पते से धचट्ठी मलखूगँ ा। ज्ञानप्रकाश (रोत-े रोत)े मझु े न जाने क्यों तुम् ारी बडी मु ब्बत लगती ैय सत्यप्रकाश - मंै तमु ् ें सदैव याद रखूगँ ा। य क कर उसने कफर भाम को गले लगाया और घर से तनकल पडा। पास क कौडी भी न थी और व कलकत्ते जा र ा था। 6 सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर प ुँचा, इसका वतृ ्तातंि मलखना व्यथा ै। यवु कों में दसु ्सा स की मात्रा अधिक ोती ै। वे वा के ककले बना सकते ै, िरती पर नाव चला सकते ै। कहठनाइयों की उन् ंे कु छ परवा न ींि ोती। अपने ऊपर असीम वववास ोता ै। कलकत्ते प ुँचना ीसा कष्ट-साध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पह ले ी उसने तनचय कर मलया था कक कलकत्ते मंे क्या करूँ गा, क ाँ र ूँगा। उसके बेग में मलखने की सामग्री मौजूद थी। बडे श र मंे जीववका का प्रन कहठन भी ै और सरल भी ै। सरल ै उनके मल जो ाथ से काम कर सकते ै, कहठन ै उनके मल , जो कलम से काम करते ै। सत्यप्रकाश मजदरू ी करना नीच काम समझता था। उसने क िमशा ाला में असबाब रखा। बाद मंे श र के मखु ्य स्थानों का तनरीषों ण करके क डाकखाने
के सामने मलखने का सामान लेकर बठै गया और अपढ मजदरू ों की धचहट्ठयाँ, मनीआडरा आहद मलखने लगा। प ले कम हदन तो उसको इतने पसै े न ममले कक भर-पेट भोजन करता; लेककन िीरे-िीरे आमदनी बढने लगी। व मजदरू ों में इतने ववनय के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने ववस्तार से मलखता कक बस वे पत्र को सुनकर ब ुत प्रसन्न ोत।े अमशक्षषों त लोग क ी बात को दो-दो तीन-तीन बार मलखाते ंै। उनकी दशा ठीक रोधगयों की-सी ोती ै, जो वैद्य से अपनी व्यथा और वदे ना का वतृ ्तांित क ते न ीिं थकत।े सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या की रूप देकर मजदरू ों को मुनि कर देता था। क सितं षु ्ट ोकर जाता, तो अपने कम अन्य भाइयों को खोज लाता। क ी म ीने पर क छोटी- सी कोठरी ले ली। क जून खाता। बतना अपने ाथों से िोता। जमीन पर सोता। उसे अपने तनवासा न पर जरा भी खदे और दःु ख न था। घर के लोगों की कभी याद न आती। व अपनी दशा से संति षु ्ट था। के वल ज्ञानप्रकाश की प्रेमयुक्त बातंे न भलू तींि। अििं कार में य ी क प्रकाश थी। ववदाम का अंति तम दृय आखँ ों के सामने कफरा करता। जीववका से तनग्चिंत ोकर उसने ज्ञानप्रकाश को क पत्र मलखा। उत्तर आया तो उसके आनदिं की सीमा न र ी। ज्ञानू मुझे याद करके रोता ै, मेरे पास आना चा ता ै, स्वास्थ्य अच्छा न ीिं ै। प्यासे को पानी से जो तगृ ्प्त ोती ै व ी तगृ ्प्त इस पत्र से सत्यप्रकाश को ुम। मैं अके ला न ींि ूँ, कोम मझु े भी चा ता ै - मझु े भी याद करता ै। उसी हदन से सत्यप्रकाश को य धचतिं ा ुम कक ज्ञान के मल कोम उप ार भेजँ।ू यवु कों को ममत्र ब ुत जल्द ममल जाते ंै। सत्यप्रकाश को भी कम युवकों से ममत्रता ो गम थी। उनके साथ कम बार मसनेमा देखने गया। कम बार बटू ी-भगंि , शराब-कबाब की भी ठ री। आमना, तले , किं घी का शौक भी पदै ा ुआ, जो कु छ पाता, उडा देता। बडे वेग से नैततक पतन और शारीररक ववनाश की ओर दौडा चला जाता था। इस प्रेम-पत्र ने उसके परै पकड मलये। उप ार के प्रयास ने इन दवु ्यसा नों को ततरोह त करना शुरू ककया। मसनेमा का चसका छू टा, ममत्रों की ीले- वाले करके टालने लगा। भोजन भी रूखा-सूखा करने लगा। िन-संचि य की धचतंि ा ने सारी इच्छाओिं को परास्त कर हदया। उसने तनचय ककया कक अच्छी-सी घडी
भेजँू। उसका दाम कम से कम 40 रु. ोगा। अगर तीन म ीने तक क कौडी का भी अपव्यय न करूँ , तो घडी ममल सकती ै। ज्ञानू घडी देखकर कै सा खुश ोगाय अम्माँ और बाबू जी भी देखेंगे। उन् ंे मालूम ो जा गा कक मैं भूखों न ीिं मर र ा ूँ। ककफायत की िुन में व ब ुिा हदया-बत्ती न करता। बडे सबेरे काम करने चला जाता और सारे हदन दो-चार पैसे की ममठाम खाकर काम करता र ता। उसके ग्रा कों की संखि ्या हदन-दनू ी ोती जाती थी। धचट्ठी-पत्री के अततररक्त अब उसने तार मलखने का भी अभ्यास कर मलया था। दो ी म ीने में उसके पास 50 रु. कत्र ो ग और जब घडी के साथ सनु री चेन का पारसल बनाकर ज्ञानू के नाम भेज हदया, तो उसका धचत्त इतना उत्साह त था मानो ककसी तनस्सतंि ान परु ुष के बालक ुआ ो। 7 'घर' ककतनी कोमल, पववत्र, मनो र स्मतृ तयों को जागतृ कर देता ैय य प्रेम का तनवास-स्थान ै। प्रेम ने ब ुत तपस्या करके य वरदान पाया ै। ककशोरावस्था मंे 'घर' माता-वपता, भाम-ब न, सखी-स ेली के प्रेम की याद हदलाता ै, प्रौढावस्था मंे गहृ णी और बाल-बच्चों के प्रेम की। य ी व ल र ै, जो मानव-जीवन मात्र को ग्स्थर रखता ै, उसे समुर की वेगवती ल रों मंे ब ने और चट्टानों से टकराने से बचाता ै। य ी व मडिं प ै, जो जीवन को समस्त ववघ्न- बािाओिं से सरु क्षषों त रखता ै। सत्यप्रकाश का 'घर' क ाँ था? व कौन-सी शग्क्त थी, जो कलकत्ते के ववराट प्रलोभनों से उसकी रषों ा करती थी? - माता का प्रेम, वपता का स्ने , बाल-बच्चों की धचतंि ा? - न ींि, उनका रषों क, उद्धारक, उसका पाररतोवषक के वल ज्ञानप्रकाश का स्ने था। उसी के तनममत्त व क- क पसै े की ककफायत करता था, उसी के मल व कहठन पररश्रम करता था और िनोपाजना के न -न उपाय सोचता था। उसे ज्ञानप्रकाश के पत्रों से मालमू ुआ कक इस हदनों देवप्रकाश की आधथका
ग्स्थतत अच्छी न ीिं ै। वे क घर बनवा र े ै, ग्जसमंे व्यय अनमु ान से अधिक ो जाने के कारण ऋण लेना पडा ै, इसमल अब ज्ञानप्रकाश को पढाने के मल घर पर मास्टर न ीिं आता। तब से सत्यप्रकाश प्रततमा ज्ञानू के पास कु छ न कु छ भेज देता था। व अब के वल पत्रलेखक न था, मलखने के सामान की क छोटी-दकू ान भी उसके खोल ली थी। इससे अच्छी आमदनी ो जाती थी। इस तर पाँच वषा बीत ग । रमसक ममत्रों ने जब देखा कक अब य त्थे न ीिं चढता, तो उसके पास आना-जाना छोड हदया। 8 सधिं ्या का समय था। देवप्रकाश अपने मकान में बैठे देववप्रया से ज्ञानप्रकाश के वववा के सबंि ििं में बातें कर र े थे। ज्ञानू अब 17 वषा का सुदंि र यवु क था। बालवववा के ववरोिी ोने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभमु ूता को न टाल सकते थे। ववशेषतः जब कोम म ाशय 50,000 रु. दायज देने को प्रस्ततु ो। देवप्रकाश - मंै तो तयै ार ूँ, लेककन तमु ् ारा लडका भी तो तयै ार ोय देववप्रया - तमु बातचीत पक्की कर लो, व तैयार ो ी जा गा। सभी लडके प ले 'न ींि' करते ंै। देवप्रकाश - ज्ञानू का इनकार के वल संकि ोच का इनकार न ीिं ै, व मसद्धाितं का इनकार ै। व साफ-साफ क र ा ै कक जब तक भयै ा का वववा न ोगा, मंै अपना वववा करने पर राजी न ीिं ूँ। देववप्रया - उसकी कौन चलावे, व ाँ कोम रखेली रख ली ोगी, वववा क्यों करेगा? व ाँ कोम देखने जाता ै?
देवप्रकाश - (झँझु ला कर) रखले ी रख ली ोती तो तुम् ारे लडके को 40रु. म ीने न भेजता और न वे चीजंे ी देता, जो प ले म ीने से अब तक बराबर देता चला आता ै। न जाने क्यों तमु ् ारा मन उसकी ओर से इतना मलै ा ो गया ैय चा े व जान तनकालकर भी दे दे, लेककन तमु न पसीजोगी। देववप्रया नाराज ोकर चली गम। देवप्रकाश उससे य ी क लाना चा ते थे कक पह ले सत्यप्रकाश का वववा करना उधचत ै, ककिं तु व कभी इस प्रसिंग को आने ी न देती थी। स्वयिं देवप्रकाश की य ाहदाक इच्छा थी पह ले बडे लडके का वववा करंे , पर उन् ोंने भी आज तक सत्यप्रकाश को कोम पत्र न मलखा था। देववप्रया के चले जाने के बाद उन् ोंने आज प ली बार सत्यप्रकाश को पत्र मलखा। पह ले इतने हदनों तक चपु चाप र ने की षों मा मागँ ी, तब उसे क बार घर आने का प्रेमाग्र ककया। मलखा, अब मंै कु छ ी हदनों का मे मान ूँ। मेरी अमभलाषा ै कक तुम् ारा और तमु ् ारे छोटे भाम ता वववा देख लँ।ू मझु े ब ुत दःु ख ोगा, यहद तमु मेरी ववनय स्वीकार न करोगे। ज्ञानप्रकाश के असमजंि स की बात भी मलखी, अिंत मंे इस बात पर जोर हदया कक ककसी और ववचार से न ींि, जो ज्ञानू के प्रेम के नाते ी तमु ् ंे इस बििं न मे पडना ोगा। सत्यप्रकाश को य पत्र ममला, तो उसे ब ुत खदे ुआ। मेरे भ्रातसृ ्ने का य पररणाम ोगा, मझु े न मालमू था। इसके साथ ी उसे य मष्याामय आनिदं ुआ कक अम्माँ और दादा को अब कु छ मानमसक पीडा ोगी। मेरी उन् ें क्या धचतंि ा थी? मंै तो मर भी जाऊँ तो भी उनकी आँखों में आसँ ू न आ ँ। 7 वषा ो ग , कभी भूल कर भी पत्र न मलखा कक मरा ै या जीता ै। अब कु छ चते ावनी ममलेगी। ज्ञानप्रकाश अितं में वववा करने पर राजी तो ो जा गा, लेककन स ज में न ींि। कु छ न ो तो मझु े तो क बार अपने इनकार के कारण मलखने का अवसर ममला। ज्ञानू को मुझसे प्रेंम ै, लेककन उसके कारण मंै पाररवाररक अन्याय का दोषी न बनँगू ा। मारा पाररवाररक जीवन सिंपणू ता ः अन्यायमय ै। य कु मतत और वैमनस्य, क्रू रता और नशृ ंिसता का बीजारोपण करता ै। इसी माया में फँ स कर मनुष्य अपनी सिंतान का शत्रु ो जाता ै। न, मंै आखँ ों देखकर य मक्खी न तनगलँगू ा। मंै ज्ञानू को समझाऊँ गा अवशय। मेरे पास जो
कु छ जमा ै; व सब उसके वववा के तनममत्त अपणा भी कर दँगू ा। बस, इससे ज्यादा मैं और कु छ न ींि कर सकता। अगर ज्ञानू भी अवववाह त र े, तो सिंसार कौन सूना ो जा गा? ीसे वपता का पतु ्र क्या वंिशपरिंपरा का पालन न करेगा? क्या उसके जीवन मंे कफर व ी अमभनय न दु राया जा गा, ग्जसने मेरा सवना ाश कर हदया? दसू रे हदन सत्यप्रकाश ने 500 रु. वपता के पास भेजे और पत्र का उत्तर मलखा कक मेरा अ ोभानय जो आपने मझु े याद ककया। ज्ञानू का वववा तनग्चत ो गया, इसकी बिामय इन रुपयों से नवविू के मल कोम आभूषण बनवा दीग्ज गा। र ी मेरे वववा की बात। मनैं े अपनी आँखों से जो कु छ देखा ै और मेरे मसर पर जो कु छ बीता ै, उस पर ध्यान देते ु भी यहद मैं कु टुिंबपास मंे फँ सू तो मझु से बडा उल्लू संिसार मंे न ोगा। मझु े आशा ै कक आप मझु े षों मा करेंगे। वववा की चचाा ी से मेरे हृदय को आघात प ुँचता ै। दसू रा पत्र ज्ञानप्रकाश को मलखा कक माता-वपता की आज्ञा को मसरोिाया करो। मैं अपढ, मूख,ा बवु द्ध ीन आदमी ूँ; मुझे वववा करने का कोम अधिकार न ीिं ै। मैं तमु ् ारे वववा के शुभोत्सव मंे सग्म्ममलत न ो सकूँ गा, लेककन मेरे मल इससे बढकर आनंदि और संितोष का ववषय न ींि ो सकता। 9 देवप्रकाश य पढकर अवाक्ु र ग । कफर आग्र करने का सा स न ुआ। देववप्रया ने नाक मसकोडकर क ा - य लौंडा देखने को सीिा ै, ै ज र का बझु ाया ुआय कै सा सौ कोस से बठै ा ुआ बरतछयों से छे द र ा ै। ककंि तु ज्ञानप्रकाश ने य पत्र पढा, तो उसे ममाघा ात प ुँचा। दादा और अम्माँ के अन्याय ने ी उन् ंे य भीषण व्रत िारण करने पर बाध्य ककया ै। इन् ीिं ने उन् ंे तनवाामसत ककया ै, और शायद सदा के मल । न जाने अम्माँ को उनसे क्यों
इतनी जलन ुम। मुझे तो अब याद आता ै कक ककशोरावस्था ी से वे बडे आज्ञाकारी, ववनयशील और गभिं ीर थ।े अम्माँ की बातों का उन् ंे जवाब देते न ींि सनु ा। मैं अच्छे से अच्छा खाता था, कफर भी उनके तीवर मलै े न ु , ालाकँ क उन् ंे जलना चाह था। ीसी दशा मंे अगर उन् ें गा ास्थ्य-जीवन से घणृ ा ो गम, तो आचया ी क्या? कफर मैं ी क्यों इस ववपग्त्त मंे फसँू? कौन जाने मुझे भी ीसी ी पररग्स्थतत का सामना करना पड।े भयै ा ने ब ुत सोच-समझकर य िारणा की ै। सधिं ्या समय जब उसके माता-वपता बैठे ु इसी समस्या पर ववचार कर र े थे, ज्ञानप्रकाश ने आकर क ा - मैं कल भैया से ममलने जाऊँ गा। देववप्रया - क्या कलकत्ते जाओगे? ज्ञानप्रकाश - जी ा।ँ देववप्रया - उन् ीिं को क्यों न ींि बलु ात?े ज्ञानप्रकाश - उन् ें कौन मँु लेकर बलु ाऊँ ? आप लोगों ने पह ले ी मेरे मँु में कामलख लगा दी ै। ीसा देव-परु ुष आप लोगों के कारण ववदेश में ठोकर खा र ा ै और मंै इतना तनलजा ्ज ो जाऊँ कक ...। देववप्रया - अच्छा चपु र , न ीिं ब्या करना ै, न कर, जले पर नोन मत तछडकय माता-वपता का िमा ै, इसमल क ती ूँ, न ींि तो य ाँ ठंे गे की परवा न ीिं ै। तू चा े ब्या कर, चा े क्वारँ ा र , पर मेरी आखँ ों से दरू ो जा। ज्ञानप्रकाश - क्या मेरी सरू त से भी घणृ ा ो गम? देववप्रया - जब तू मारे क ने ी में न ी, तो ज ाँ चा े, र । म भी समझ लेंगे कक भगवान ु् ने लडका ी न ीिं हदया।
देवप्रकाश - क्यों व्यथा में ीसे कटु वचन बोलती ो? ज्ञानप्रकाश - अगर आप लोगों की य ी इच्छा ै, तो य ी ोगा। देवप्रकाश ने देखा कक बात का बतिंगड ुआ चा ता ै, ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल हदया और पत्नी के क्रोि को शाितं करने की चषे ्टा करने लगे। मगर देववप्रया फू ट-फू टकर रो र ी थी और बार-बार क ती थी, मैं इसकी सूरत न ींि देखूगँ ी। अंित मंे देवप्रकाश ने धचढकर क ा - तो तमु ् ींि ने तो कटु वचन क कर उसे उत्तगे ्जत कर हदया। देववप्रया - य सब ववष उसी चांिडाल ने बोया ै, जो य ाँ से सात समुर पार बठै ा मझु े ममट्टी में ममलाने का उपाय कर र ा ै। मेरे बेटे को मझु से छीनने के मल उसने य प्रेम का स्वाँग भरा ै। मैं उसकी नस-नस पह चानती ूँ। य मिंत्र मेरी जान लेकर छोडगे ा; न ीिं तो मेरा ज्ञानू, ग्जसने कभी मेरी बात का जवाब न ीिं हदया, यों मझु े न जलाताय देवप्रकाश - अरे, तो क्या व वववा ी न करेगाय अभी गुस्से में अनाप-शनाप बक गया ै। जरा शांित ो जा गा तो मैं समझाकर राजी कर दँगू ा। देववप्रया - मेरे ाथ से तनकल गया। देववप्रया की आशिंका सत्य तनकली। देवप्रकाश ने बेटे को ब ुत समझाया। क ा - तमु ् ारी माता शोक से मर जा गी, ककिं तु कु छ असर न ुआ। उसने क बार 'न ींि' करके ' ाँ' न की। तनदान वपता भी तनराश ोकर बठै र े। तीन साल तक प्रततवषा वववा के हदनों में य प्रन उठता र ा, पर ज्ञानप्रकाश अपनी प्रततज्ञा पर अटल र ा। माता का रोना-िोना तनष्फल ुआ। ाँ, उसने माता की क बात मान ली - व भाम से ममलने कलकत्ता न गया।
तीन साल मंे घर मंे बडा पररवतना ो गया। देववप्रया की तीनों कन्याओिं का वववा ो गया। अब घर मंे उसके मसवा कोम स्त्री न थी। सनू ा घर उसे फाडे खाता था। जब व नैराय और क्रोि से पागल ो जाती, तो सत्यप्रकाश को खबू जी भर कर कोसतीय मगर दोनों भाइयों मंे प्रेम-पत्र व्यव ार बराबर ोता र ता था। देवप्रकाश के स्वभाव मंे क ववधचत्र उदासीनता प्रकट ोने लगी। उन् ोंने पंेशन ले ली थी और प्रायः िमगा ्रथंि ों का अध्ययन ककया करते थ।े ज्ञानप्रकाश ने भी 'आचाया' की उपाधि प्राप्त कर ली थी और क ववद्यालय के अध्यापक ो ग थे। देववप्रया अब संसि ार मंे अके ली थी। देववप्रया अपने पतु ्र को गृ स्थी की ओर खीिचं ने के मल तनत्य टोने-टोटके ककया करती। त्रबरादरी मंे कौन-सी कन्या संदिु री ै, गणु वती ै, सुमशक्षषों ता ै -उसका बखान ककया करती, पर ज्ञानप्रकाश को इन बातों के सनु ने की भी फु रसत न थी। मो ल्ले के और घरों मंे तनत्य ी वववा ोते र ते थे। ब ु ँ आती थींि, उनकी गोद में बच्चे खले ने लगते थे, घर गलु जार ो जाता था। क ीिं त्रबदाम ोती थी, क ींि बिाइयाँ आती थींि, क ीिं गाना-बजाना ोता था, क ीिं बाजे बजते थ।े य च ल-प ल देखकर देववप्रया का धचत्त चिंचल ो जाता। उसे मालमू ोता, मंै ससिं ार मंे सबसे अभाधगनी ूँ। मेरे भानय मंे य सखु भोगना न ीिं बदा ै। भगवान ु् ीसा भी कोम हदन आ गा कक मैं अपनी ब ू का मखु चंरि देखूगँ ी, उसके बालकों को गोद मंे खलाऊँ गी। व भी कोम हदन ोगा कक मेरे घर मंे भी आनिंदोत्सव के मिुर गान की तानंे उठंे गीय रात-हदन ये ी बातंे सोचते-सोचते देववप्रया की दशा उन्माहदनी की-सी ो गम। आप ी आप सत्यप्रकाश को कोसने लगती। व ी मेरे प्राणों का घातक ै। तल्लीनता उन्माद का प्रिान गणु ै। तल्लीनता अत्यंित रचनाशील ोती ै। व आकाश मंे देवताओिं के ववमान उडाने
लगती ै। अगर भोजन में नमक तजे ो गया, तो य शत्रु ने कोम रोडा रख हदया ोगा। देववप्रया को अब कभी-कभी िोखा ो जाता कक सत्यप्रकाश घर में गया ै, व मुझे मारना चा ता ै, ज्ञानप्रकाश को ववष खला देता ै। क हदन उसने सत्यप्रकाश के नाम क पत्र मलखा और उसे ग्जतना कोसते बना, उतना कोसा। तू मेरे प्राणों का वैरी ै, मेरे कु ल का घातक ै, त्यारा ै। व कौन हदन आ गा कक तरे ी ममट्टी उठे गी। तूने मेरे लडके पर वशीकरण-मतंि ्र चला हदया ै। दसू रे हदन कफर ीसा ी क पत्र मलखा। य ाँ तक कक य उसका तनत्य का कमा ो गया। जब तक क धचट्ठी में सत्यप्रकाश को गामलयाँ न दे लेती, उसे चैन न आता था। इन पत्रों को व क ाररन के ाथ डाकघर मभजवा हदया करती थी। 10 ज्ञानप्रकाश का अध्यापक ोना सत्यप्रकाश के मल घातक ो गया। परदेश में उसे य ी संति ोष था कक मंै ससिं ार में तनरािार न ींि ूँ। अब य अवलिबं भी जाता र ा। ज्ञानप्रकाश ने जोर देकर मलखा, अब आप मेरे ेतु कोम कष्ट न उठा ंि। मझु े अपनी गुजर करने के मल काफी से ज्यादा ममलने लगा ै। यद्यवप सत्यप्रकाश की दकू ान खूब चलती थी, लेककन कलकत्ते-जसै े श र मिं क छोटे से दकू ानदार का जीवन ब ुत सुखी न ींि ोता। 60-70 रु. की मामसक आमदनी ोती ी क्या ै? अब तक जो कु छ बचाता था, व वास्तव में बचत न थी, बग्ल्क त्याग था। क वक्त रूखा-सखू ा खाकर, क तंगि आरा कोठरी में र कर 25-30 रु. बचे र ते थे। अब दोनों वक्त भोजन करने लगा। कपडे भी जरा साफ पह नने लगा। मगर थोडे ी हदनों में उसके खचा मंे औषधियों की क मद बढ गम और कफर पह ले की-सी दशा ो गम। बरसों तक शुद्ध वायु, प्रकाश और पगु ्ष्टकर भोजन से वधंि चत र कर अच्छे से अच्छा स्वास्थ्य भी नष्ट ो सकता ै। सत्यप्रकाश को भी अरुधच, मदंि ाग्नन आहद रोगों ने आ घरे ा। कभी-कभी ज्वर भी आ जाता। यवु ावस्था में आत्मवववास ोता ै, ककसी अवलबंि की परवा न ीिं ोती। वयोववृ द्ध दसू रों का मँु ताकती ै, आश्रय ढूँढती ै। सत्यप्रकाश पह ले
सोता, तो क ी करवट में सबेरा ो जाता। कभी बाजार से परू रयाँ ले कर खा लेता, कभी ममठाइयों पर टाल देखा। पर अब रात को अच्छी तर नीिंद न आती, बाजारी भोजन से घणृ ा ोती, रात को घर आता, तो थककर चूर-चूर ो जाता पर रोया। रात को जब ककसी तर नीिदं न आती, तो उसका मन ककसी से बातें करने को लालातयत ोने लगता। पर व ाँ तनशांिि कार के मसवा और कौन था? दीवालों के कान चा े ों, मँु न ींि ोता। इिर ज्ञानप्रकाश के पत्र भी अब कम आते थे और वे भी रूखे। उनमें अब हृदय के सरल उद्गारों का लेश भी न ोता। सत्यप्रकाश अब भी वसै े ी भावमय पत्र मलखता था; पर क अध्यापक के मल भावकु ता कब शोभा देती ै। शनःै शनैः सत्यप्रकाश को भ्रम ोने लगा कक ज्ञानप्रकाश भी मझु से तनष्ठु रता करने लगा, न ींि तो क्या मेरे पास दो-चार हदन के मल आना असभंि व था? मेरे मल तो घर का द्वार बिंद ै, पर उसे कौन-सी बािा ै? उस गरीब को क्या मालूम था कक य ाँ ज्ञानप्रकाश ने माता-वपता से कलकत्ते न जाने की कसम खा ली ै। इस भ्रम ने उसे और भी ताश कर हदया। श रों में मनषु ्य ब ुत ोते ै, पर मनषु ्यता त्रबरले ी में ोती ै। सत्यप्रकाश उस ब ुसिखं ्यक स्थान में भी अके ला था। उसके मन में अब क नम आकांषि ों ा अिंकु ररत ुम। क्यों न घर लौट चलँू? ककसी सिंधगनी के प्रेम में क्यों न शरण लँू? व सुख और शातिं त और क ाँ ममल सकती ै। मेरे जीवन के तनराशाििं कार को और कौन ज्योतत आलोककत कर सकती ै? व इस आवशे को अपनी सपिं ूणा ववचारशग्क्त से रोकता, ग्जस भातँ त ककसी बालक को घर में रखी ुम ममठाइयों की याद बार-बार खले से घर खीचंि लाती ै, उसी तर उसका धचत्त भी बार-बार उन् ीिं मिरु धचतिं ाओंि मंे मनन ो जाता था। व सोचता - मुझे वविाता ने सब सुख से वधंि चत कर हदया ै, न ींि तो मेरी दशा ीसी ीन क्यों ोती? मुझे मवर ने बुवद्ध न दी थी क्या? क्या मंै श्रम से जी चुराता था? अगर बालपन ी में मेरे उत्सा और अमभरुधच पर तषु ार न पड गया ोता, मेरी बुवद्ध-शग्क्तयों का गला न घोंट हदया गया ोता, तो मैं आज आदमी ोता। पेट पालने के मल इस ववदेश मंे न पडा र ता। न ींि, मैं अपने ऊपर य अत्याचार न करूँ गा।
म ीनों तक सत्यप्रकाश के मन और बवु द्ध मंे य सगंि ्राम ोता र ा। क हदन व दकू ान से आकर चूल् ा जलाने जा र ा था कक डाककये ने पुकारा। ज्ञानप्रकाश के मसवा उसके पास और ककसी के पत्र न आते थे। आज ी उसका पत्र आ चुका था। य दसू रा पत्र क्यों? ककसी अतनष्ट की आशंिका ुम। पत्र लेकर पढने लगा। क षों ण मंे पत्र उसके ाथ से छू ट कर धगर पडा और व मसर थाम कर बठै गया कक जमीन पर न धगर पड।े य देववप्रया की ववषयुक्त लेखनी से तनकला ुआ ज र का प्याला था, ग्जसने क पल मंे सिंज्ञा ीन कर हदया। उसकी सारी ममाातंिक व्यथा - क्रोि, नैराय, कृ तध्नता, नलातन - के वल क ठंि डी साँस में समाप्त ो गम। व जाकर चारपाम पर लेटा र ा। मानमसक व्यथा आग से पानी ो गमय ाय सारा जीवन नष्ट ो गयाय मंै ज्ञानप्रकाश का शत्रु ूँ। मैं इतने हदनों से के वल उसके जीवन को ममट्टी में ममलाने के मल ी प्रेम का स्वागँ भर र ा ूँ। भगवानयु् इसके तुम् ीिं साषों ी ोय दसू रे हदन भी देववप्रया का पत्र प ुँचा। सत्यप्रकाश ने उसे लेकर फाड डाला, पढने की ह म्मत न पडी। क ी हदन पीछे तीसरा पत्र प ुँचा। उसका व ीिं अंित ुआ। कफर व क तनत्य का कमा ो गया। पत्र आता और फाड हदया जाता। ककंि तु देववप्रया का अमभप्राय त्रबना पढे ी परू ा ो जाता था - सत्यप्रकाश के ममसा ्थान पर क चोट और पढ जाती थी। क म ीने की भीषण ाहदाक वदे ना के बाद सत्यप्रकाश को जीवन से घणृ ा ो गम। उसने दकू ान बिंद कर दी, बा र आना-जाना छोड हदया। सारे हदन खाट पर पडा र ता। वे हदन याद आते जब माता पचु कार कर गोद मंे त्रबठा लेती और क ती, 'बेटाय' वपता भी सिधं ्या समय दफ्तर से आकर गोद में उठा लेते और क ते, 'भैयाय' माता की सजीव मतू ता उसके सामने आ खडी ोती; ठीक वसै ी ी
जब व गिंगा-स्नान करने गम थी। उसकी प्यार-भरी बातें कानों मंे आने लगती। कफर व दृय सामने आ जाता, जब उसने नवविू माता को 'अम्माँ' क कर पकु ारा था। तब उसके कठोर शब्द याद आ जात,े उसके क्रोि से भरे ु ववकराल नते ्र आँखों के सामने आ जात।े उसे अब अपना मससक-मससक कर रोना याद आ जाता। कफर सौरगृ का दृय सामने आता। उसने ककतने प्रेम से बच्चे को गोद में लेना चा ा थाय तब माता के वज्र के -से शब्द कानों मंे गँजू ने लगत।े ायय उसी वज्र ने मेरा सवना ाश कर हदयाय कफर ीसी ककतनी ी घटना ँ याद आती। जब त्रबना अपराि के माँ डाटँ बताती। वपता का तनदाय, तनष्ठु र व्यव ार याद आने लगता। उनका बात-बात पर ततउररयाँ बदलना, माता के ममथ्यापवादों पर वववास करना - ायय मेरा सारा जीवन नष्ट ो गयाय तब व करवच बदल लेता और कफर व ी दृय आँखों मंे कफरने लगते। कफर करवट बदलता और धचल्लाकर क ता - इस जीवन का अितं क्यों न ींि ो जाता। इस भाँतत पडे-पडे उसे कम हदन ो ग । सधिं ्या ो गम थी कक स सा उसे द्वार पर ककसी के पकु ारने की आवाज सनु ाम पडी। उसने कान लगकार सुना और चौंक पडा। ककसी पररधचत मनुष्य की आवाज थी। दौडा द्वार पर आया, तो देखा ज्ञानप्रकाश खडा ै। ककतना रूपवान परु ुष थाय व उसके गले से मलपट गया। ज्ञानप्रकाश ने उसके परै ों को स्पशा ककया। दोनों भाम घर मंे आ । अिंि कार छाया ुआ था। घर की य दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंि ठ से आवेग को रोके ु था, रो पडा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलाम। घर क्या था, भूत का डरे ा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से क कु रता गले मंे डाल मलया। ज्ञानप्रकाश भाम का जजरा शरीर, पीला मुख, बझु ी ुम आँख देखता था और रोता था। सत्यप्रकाश ने क ा - मैं आजकल बीमार ूँ. ज्ञानप्रकाश - व तो देख ी र ा ूँ। सत्यप्रकाश - तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कै से चला?
ज्ञानप्रकाश - सचू ना तो दी थी, आपको पत्र न ममला ोगा। सत्यप्रकाश - अच्छा, ाँ दी ोगी, पत्र दकू ान मंे डाल गया ोगा। मैं इिर कम हदनों से दकू ान न ीिं गया। घर में सब कु शल ै? ज्ञानप्रकाश - माता जी का दे ांित ो गया। सत्यप्रकाश - अरेय क्या बीमार थी? ज्ञानप्रकाश - जी न ी।ंि मालमू न ीिं क्या खा मलया। इिर उन् ें उन्माद-सा ो गया था; वपता जी ने कु छ कटु वचन क े थे, शायद इसी पर कु छ खा मलया। सत्यप्रकाश - वपता जी तो कु शल से ै? ज्ञानप्रकाश - ाँ, अभी मरे न ीिं ै। सत्यप्रकाश - अरेय क्या ब ुत बीमार ै? ज्ञानप्रकाश - माता ने ववष खा मलया, तो वे उनका मँु खोलकर दवा वपला र े थ।े माता जी ने जोर से उनकी दो उँ गमलयाँ काट लीिं। व ी ववष उनके शरीर में प ुँच गया। तब से सारा शरीर सजू आया ै। अस्पताल में पडे ै ककसी को देखते ै तो काटने दौडते ै। बचने की आशा न ींि ै। सत्यप्रकाश - तब तो घर चौपट ो गया। ज्ञानप्रकाश - ीसे घर को अबसे ब ुत प ले चौपट ो जाना चाह था। ***
तीसेरे हदन दोनों भाम प्रातःकाल कलकत्ते से त्रबदा ोकर चले हद । ***
धोखा सतीकिंु ड मंे खले ु कमल वसिंत के िीमे-िीमे झोंकों से ल रा र े थे और प्रातःकाल की मिंद-मिंद सनु री ककरणंे ममल-ममलकर मुस्कराती थीिं। राजकु मारी प्रभा किंु ड के ककनारे री- री घास पर खडी संुदि र पक्षषों यों का कलरव सनु र ी थी। उनका कनक वणा तन इन् ीिं फू लों की भातँ त दमक र ा था। मानो प्रभात की साषों ात ्ु सौम्य मतू ता ै, जो भगवान अंिशुमाली के ककरणकरों द्वारा तनममता ुम थी। प्रभा ने मौलमसरी के वषृ ों पर बठै ी ुम यामा की ओर देखकर क ा - मेरी जी चा ता ै कक मंै भी क धचडडया ोती। उसकी स ेली उमा ने मुस्कराकर पूछा - क्यों? प्रभा ने किंु ड की ओर ताकते ु उत्तर हदया - वषृ ों की री-भरी डामलयों पर बैठी ुम च च ाती, मेरे कलरव से सारा बाग गँूज उठता। उमा ने छे डकर क ा - नौगढ की रानी ीसी ककतनी ी पक्षषों यों का गाना जब चा े सनु सकती ै। प्रभा ने संिकु धचत ोकर क ा - मुझे नौगढ की रानी बनने की अमभलाषा न ींि ै। मेरे मल ककसी नदी का सुनसान ककनारा चाह । क वीणा और ीसे ी सिुंदर सु ावने पक्षषों यों के सगंि ीत की मिुर ध्वतन मंे मेरे मल सारे सिंसार का ीवया भरा ुआ ै। प्रभा का सिगं ीत पर अपररममत प्रेम था। व ब ुिा ीसे ी सखु -स्वप्न देखा करती थी। उमा उत्तर देना ी चा ती थी कक इतने मंे ककसी के गाने का आवाज आम -
कर ग थोडे हदन की प्रीतत। प्रभा ने काग्र मन ोकर सनु ा और अिीर ोकर क ा - ब न, इस वाणी में जादू ै। मुझसे त्रबना सनु े न ीिं र ा जाता, इसे भीतर बुला लाओ। उस पर भी गीत का जादू असर कर र ा था। व बोली - तनःसंिदे ीसा राग मनंै े आज तक न ीिं सुना, खडकी खोलकर बलु ाती ूँ। थोडी देर में राधगया भीतर आया - सिदुं र सजीले बदन का नौजवान था। निंगे परै , नगंि े मसर, किं िे पर क मगृ चम,ा शरीर पर क गेरुआ वस्त्र, ाथों में क मसतार। मखु ारववदिं से तजे तछडक र ा था। उसने दबी ुम दृग्ष्ट से दोनों कोमलांिगी रम णयों को देखा और मसर झकु ाकर बठै गया। प्रभा ने झझकते ु आँखों से देखा और दृग्ष्ट नीचे कर ली। उमा ने क ा - योगी जी, मारे बडे भानय थे कक आपके दशान ु , मको भी कोम पद सुनाकर कृ ताथा कीग्ज । योगी ने मसर झुकाकर उत्तर हदया - म योगी लोग नारायण का भजन करते ै। ीसे-ीसे दरबारों में म भला क्या गा सकते ै, पर आपनी इच्छा ै तो सतु न - कर ग थोडे हदन की प्रीतत। क ाँ व प्रीतत, क ाँ य त्रबछरन, क ाँ मिुबन की रीतत, कर ग थोडे हदन की प्रीतत। योगी का रसीला करुण स्वर, मसतार का सुमिुर तननाद, उस पर गीत का मािुय,ा प्रभा को बेसुि कक देता था। इसका रसज्ञ स्वभाव और उसका मिुर रसीला गान, अपवू ा सयिं ोग था। ग्जस भाँतत मसतार की ध्वतन गगनमिडं ल मंे प्रततध्वतनत ो र ी थी, उसी भातँ त प्रभा के हृदय मंे ल रों की ह लोरें उठ र ी थी। वे
भावना ँ जो अब तक शातिं थीिं, जाग पडी। हृदय सखु स्वप्न देखने लगा। सतीकिंु ड के कमल ततमलस्म की पररयाँ बन-बनकर मँडराते ु भौंरो से कर जोड सजन नयन ो, क ते थे कर ग थोडे हदन की प्रीतत। सुखा और रर पग्त्तयों से लदी ुम डामलयाँ मसर झकु ा ँ च कते ु पक्षषों यों से रो-रोकर क ती थींि- कर ग थोडे हदन की प्रीतत। और राजकु मारी प्रभा का हृदय भी मसतार की मस्तानी तान से साथ गँूजता था - कर ग थोडे हदन की प्रीतत। 2 प्रभा बघौली के राव देवीचिंद की कलौती कन्या थी। राव पुराने ववचारों के रमस थ।े कृ ष्ण उपासना मंे लवलीन र ते थे, इसमल इनके दरबार में दरू -दरू के कलावतंि और गवयै े आया करते और इनाम- कराम पाते थे। राव सा ब को गाने से प्रेम था, वे स्वयंि भी इस ववद्या में तनपणु थे। यद्यवप अब वदृ ्धावस्था के कारण य शग्क्त तनःशषे ो चली थी, पर कफर भी ववद्या के गूढ तत्त्वों के पूणा जानकार थ।े प्रभा बाल्यकाल से ी इनकी सो ब्बतों में बठै ने लगी। कु छ तो पूव-ा जन्म का ससंि ्कार और कु छ रात-हदन गाने की ी चचााओंि ने उसे भी इस फन में अनरु क्त कर हदया था। इस समय उसके सौंदया की खबू चचाा थी। रावसा ब ने नौगढ के नवयवु क और सुशील राजा ररचंिर से उसकी शादी तजबीज की थी। उभय पषों में तयै ाररयाँ ो र ी थींि। राजा ररचरिं मेयो कामलज अजमेर के ववद्याथी और नम रोशनी के भक्त थ।े उनकी आकांिषों ा थी कक उन् ें
क बार राजकु मारी प्रभा से साषों ात्कार ोने और प्रेमालाप करने का अवसर हदया जा ; ककंि तु रावसा ब इस प्रथा को दवू षत समझते थे। प्रजा राजा ररचरंि के नवीन ववचारों की चचाा सनु कर इस सबंि ंिि से ब ुत संति ुष्ट न थी। पर जब से उसने इस प्रेममय युवा योगी का गाना सुना था, तब से तो व उसी के ध्यान में डू बी र ती। उमा उनकी स ेली थी। इन दोनों के बीच कोम परदा न था; परंितु इस भेद को प्रभा ने उससे भी गुप्त रखा। उमा उसके स्वभाव से पररधचत थी, ताड गम। परिंतु उसने उपदेश करके इस अग्नन को भडकाना उधचत न समझा। उसने सोचा कक थोडे हदनों में य अग्नन आप ी शाितं ो जा गी। ीसी लालसाओंि का अतिं प्रायः इसी तर ो जाया करता ै; ककंि तु उसका अनुमान गलत मसद्ध ुआ। योगी की व मोह नी मतू ता कभी प्रभा की आखँ ों से न उतरती, उसका मिुर राग प्रततषों ण उसके कानों मंे गँूजा करता। उसी किंु ड के ककनारे व मसर झकु ा सारे हदन बठै ी र ती। कल्पना में व मिुर हृदयग्रा ी राग सुनती और व ी योगी की मनो ाररणी मतू ता देखती। कभी-कभी उसे ीसा भास ोता कक बा र से य आवाज आ र ी ै। व चौंक पडती और तषृ ्णा से प्रेररत ोकर वाहटका की च ारदीवारी तक जाती और व ाँ से तनराश ोकर लौट आती। कफर आप ी ववचार करती - य मेरी क्या दशा ैय मुझे य क्या ो गया ैय मंै क ह दिं ू कन्या ूँ, माता-वपता ग्जसे सौंप दंे, उसकी दासी बनकर र ना िमा ै। मुझे तन-मन से उसकी सेवा करनी चाह । ककसी अन्य परु ुष का ध्यान तक मन मंे लाना मेरे मल पाप ैय आ य य कलुवषत हृदय लेकर मैं ककस मँु से पतत के पास जाऊँ गीय इन कानों से क्योंकर प्रणय की बातें सुन सकूँ गी जो मेरे मल व्यिनं य से भी अधिक कणा-कटु ोंगीय इन पापी नते ्रों से व प्यारी-प्यारी धचतवन कै से देख सकूँ गी जो मेरे मल वज्र से भी हृदय-भेदी ोगीय इस गले मंे वे मदृ लु प्रेमबा ु पडेंगे जो लौ -दिंड से भी अधिक भारी और कठोर ोंगे। प्यारे, तमु मेरे हृदय महिं दर से तनकल जाओ। य स्थान तमु ् ारे योनय न ी।ंि मेरा वश ोता तो तुम् ंे हृदय की सेज पर सलु ाती; परिंतु मंै िमा की रग्स्सयों मंे बँिी ूँ।
इस तर क म ीना बीत गया। ब्या के हदन तनकट आते जाते थे और प्रभा का कमल-सा मुख कु म् लाया जाता था। कभी-कभी ववर वेदना विं ववचार-ववप्लव से व्याकु ल ोकर उसका धचत्त चा ता कक सती-किंु ड की गोद मंे शातिं त लँ,ू ककिं तु रावसा ब इस शोक मंे जान ी दे देंगे य ववचार कर व रुक जाती। सोचती, मैं उनकी जीवन सवसा ्व ूँ, मुझ अभाधगनी को उन् ोंने ककस लाड-प्यार से पाला ै; मंै ी उनके जीवन का आिार और अतिं काल की आशा ूँ। न ीिं, यों प्राण देकर उनकी आशाओिं की त्या न करूँ गी। मेरे हृदय पर चा े जो बीत,े उन् ें न कु ढाऊँ गीय प्रभा का क योगी गवैये के पीछे उन्मत्त ो जाना कु छ शोभा न ींि देता। योगी का गान तानसेन के गानों से भी अधिक मनो र क्यों न ो, पर क राजकु मारी का उसके ाथों त्रबक जाना हृदय की दबु ला ता प्रकट करता ै; रावसा ब के दरवार में ववद्या की, शौया की और वीरता से प्राण वन करने की चचाा न थी। य ाँ तो रात-हदन राग-रिंग की िमू र ती थी। य ाँ इसी शास्त्र के आचाया प्रततष्ठा के मसनद पर ववराग्जत थे और उन् ींि पर प्रशिंसा के ब ुमलू ्य रत्न लटु ा जाते थे। प्रभा ने प्रारंिभ ी से इसी जलवायु का सेवन ककया था और उस पर इनका गाढा रिंग चढ गया था। ीसी अवस्था मंे उसकी गान-मलप्सा ने यहद भीषण रूप िारण कर मलया तो आचया ी क्या ैय 3 शादी बडी िूमिाम से ुम। रावसा ब ने प्रभा को गले लगाकर ववदा ककया। प्रभा ब ुत रोम। उमा को व ककसी तर न छोडती थी। नौगढ क बडी ररयासत थी और राजा ररचिरं के सपु ्रबििं से उन्नतत पर थी। प्रभा की सेवा के मल दामसयों की क परू ी फौज थी। उसके र ने के मल व आनदंि -भवन सजाया गया था, ग्जसके बनाने में मशल्प ववशारदों ने अपवू ा कौशल का पररचय हदया था। शंिगृ ार चतुराओिं ने दलु ह न को खूब सँवारा। रसीले राजा सा ब अिरामतृ के मल ववह्वल ो र े थ।े अतंि ःपरु में ग । प्रभा ने ाथ
जोडकर, मसर झकु ाकर, उनका अमभवादन ककया। उनकी आखँ ों से आँसू की नदी ब र ी थी। पतत ने प्रेम के मद मंे मत्त ोकर घूघँ ट टा हदया, दीपक था, पर बुझा ुआ। फू ल था, पर मरु झाया ुआ। दसू रे हदन से राजा सा ब की य दशा ुम कक भौंरे की तर प्रततषों ण इस फू ल पर मँडराया करत।े न राज-पाट की धचतिं ा थी, न सरै और मशकार की परवा। प्रभा की वाणी रसीला राग थी, उसकी धचतवन सुख का सागर और उसका मखु -चरंि आमोद का सु ावना किंु ज। बस, प्रेम-मद मे राजा सा ब त्रबलकु ल मतवाले ो ग थे, उन् ें क्या मालूम था कक दिू में मक्खी ै। य असंिभव था कक राजासा ब के हृदय ारी और सरस व्यव ार का ग्जसमें सच्चा अनुराग भरा ुआ था, प्रभा पर कोम प्रभाव न पडता। प्रेम का प्रकाश अँिेरे हृदय के चमका देता ै। प्रभा मन में ब ुत लग्ज्जत ोती। व अपने को इस तनमला और ववशुद्ध प्रेम के योनय न पाती थी, इस पववत्र प्रेम के बदले उसे अपने कृ ममत्र, रँगे ु भाव प्रकट करते ु मानमसक कष्ट ोता था। जब तक राजासा ब उसके साथ र ते, व उनके गले लता की भातँ त मलपटी ुम घंटि ों प्रेम की बातें ककया करती। व उनके साथ समु न-वाहटका मंे चु ल करती, उनके मल फू लों का ार गँथू ती और उनके गले मंे ाथ डालकर क ती - प्यारे, देखना ये फू ल मुरझा न जा ंि, इन् ंे सदा ताजा रखना। व चाँदनी रात मंे उनके साथ नाव पर बैठकर झील की सरै करती, और उन् ंे प्रेम का राग सनु ाती। यहद उन् ें बा र से आने मंे जरा देर ो जाती, तो व मीठा-मीठा उला ना देती, उन् ें तनदाय और तनष्ठु र क ती। उनके सामने व स्वयंि ँसती, उनकी आँखंे ँसती और आखँ ों का काजल ँसता। ककिं तु आ य जब व अके ली ोती, उसका चिचं ल धचत्त उडकर उसी किंु ड के तट पर जा प ुँचता; कंिु ड का व नीला-नीला पानी, उस पर तरै ते ु कमल और मौलमसरी का वषृ ों -पगंि ्क्तयों का सदिुं र दृय आँखों के सामने आ जाता। उमा मसु ्कराती और नजाकत से लचकती ुम आ प ुँचती, तब रसीले योगी की मोह नी छवव आखँ ों में आ बैठती और मसतार के सूलमसत सुर गँजू ने लगते -
कर ग थोडे हदन की प्रीतत। तब व क दीिा तनःवास लेकर उठ बठै ती और बा र तनकल कर वपजंि रे में च कते ु पक्षषों यों के कलरव में शाितं त प्राप्त करती। इस भातँ त य स्वप्न ततरोह त ो जाता। 4 इस तर कम म ीने बीत ग । क हदन राजा ररचिंर प्रभा को अपनी धचत्रशाला में ग । उसके प्रथम भाग में ीतत ामसक धचत्र थे। सामने ी शूरवीर म ाराणा प्रतापमसंि का धचत्र नजर आया। मखु ारववदिं से वीरता की ज्योतत स्फु हटत ो र ी थी। ततनक और आगे बढकर दाह नी ओर स्वाममभक्त जगमल, वीरवर सागँ ा और हदलेर दगु ादा ास ववराजमान थ।े बायीिं ओर उदार भीममसिं बैठे ु थे। राणाप्रताप के सम्मखु म ाराष्ट्र के सरी, वीर मशवाजी का धचत्र था। दसू रे भाग में कमया ोगी कृ ष्ण और मयाादा परु ुषोत्तम राम ववराजते थे। चतुर धचत्रकारों ने धचत्र-तनमााण मंे अपूवा कौशल हदखलाया था। प्रभा ने प्रताप के पाद-पद्मों को चूमा और व कृ ष्ण के सामने देर तक नेत्रों में प्रेम और श्रद्धा के आँसू-भरे मस्तक झुका खडी र ी। उसके हृदय पर इस समय कलवु षत प्रेम का भाव खटक र ा था। उसे मालमू ोता था कक य उन म ापुरुषों के धचत्र न ीिं ै, उनकी पववत्र आत्मा ँ ंै। उन् ीिं के चररत्र से भारतवषा का इतत ास गौरवािंववत ै। वे भारत के ब ुमलू ्य रत्न, उच्चकोहट के जातीय स्मारक और गगनभेदी जातीय तुमलु ध्वतन ै। ीसी उच्च आत्माओंि के सामने खडे ोते उसे सिंकोच ोता था। आगे बढी दसू रा भाग सामने आया। य ाँ ज्ञानमय बदु ्ध योग-सािना में बैठे ु देख पड।े उनकी दाह नी ओर शास्त्रज्ञ शिंकर थे और दाशता नक दयानिंद। क ओर शातंि पथगामी कबीर और भक्त रामदास यथायोनय खडे थे। क दीवार पर गरु ुगोववदिं अपने देश और जातत पर बमल चढनेबाले दोनों बच्चों के साथ ववराजमान थे। धचत्रकारों की योनयता क- क अवयव से टपकती थी। प्रभा ने
इनके चरणों पर मस्तक टेका। व उनके सामने मसर न उठा सकी। उसे अनभु व ोता था कक उनकी हदव्य आखँ ें उसके दवू षत हृदय मंे चभु ी जाती ंै? इसके बाद तीसरा भाग आया। य प्रततभाशाली कववयों की सभा थी। सवोच्च स्थान पर आहदकवव वाल्मीकक और म वषा वदे व्यास सशु ोमभत थ।े दाह नी ओर शिंगृ ाररस के अद्ववतीय कवव कामलदास थे, बायीिं तरफ गभिं ीर भावों से पणू ा भवभूतत। तनकट ी भतृ ा रर अपने सतंि ोषाश्रम में बठै े ु थे। दक्षषों ण की दीवार पर राष्ट्रभाषा ह दंि ी के कववयों का सम्मेलन था। सहृदय कवव सरू , तजे स्वी तलु सी, सुकवव के शव और रमसक त्रब ारी यथाक्रम ववराजमान थे। सूरदास से प्रभा का अगाि प्रेम था। व समीप जाकर उनके चरणों पर मस्तक रखना ी चा ती थी कक अकस्मात उन् ीिं चरणों के सम्मखु सर झुका उसे क छोटा-सा धचत्र दीख पडा। प्रभा उसे देखकर चौंक पडी। य व ी धचत्र था जो उसके हृदय पट पर खचिं ा ुआ था। व खलु कर उसकी तरफ ताक न सकी। दबी ुम आँखों से देखने लगी। राजा ररचरिं ने मसु ्कराकर पछू ा - इस व्यग्क्त को तुमने क ीिं देखा ै? इस प्रन से प्रभा का हृदय काँप उठा। ग्जस तर मगृ -शावक व्याि के सामने व्याकु ल ोकर इिर-उिर देखता ै, उसी तर बडी-बडी-बडी आँखों से दीवार की ओर ताकने लगी। सोचने लगी, क्या उत्तर दँ?ू इसको क ींि देखा ै, उन् ोंने य प्रन मुझसे क्यों ककया? क ीिं ताड तो न ीिं ग ? े नारायण, मेरी पत तमु ् ारे ाथ ंै, क्योंकर इनकार करूँ ? मँु पीला ो गया। मसर झकु ाकर षों ीण स्वर से बोली, ाँ, ध्यान आता ै कक क ींि देखा ै। ररचरंि ने क ा - क ाँ देखा ै? प्रभा के मसर मंे चक्कर-सा आने लगा। बोली - शायद क बार य गाता ुआ मेरी वाहटका के सामने जा र ा था। उमा ने बलु ाकर इसका गाना सुना था।
ररचरंि ने पूछा - कै सा गाना था? प्रभा के ोश उडे ु थे। सोचती थी, राजा के इन सवालों में जरूर कोम बात ै। देखू,ँ लाज र ती ै या न ी।ंि बोली - उसका गाना ीसा बरु ा न था। ररचिरं ने मसु ्कराकर क ा - क्या गाता था? प्रभा ने सोचा, इस प्रन का उत्तर दे दँ ू तो बाकी क्या र ता ै। उसे वववास ो गया कक आज कु शल न ीिं ै। व छत की ओर तनरखती ुम बोली - सरू दास का कोम पद था। ररचिदं ने क ा - य तो न ीिं - कर ग थोडे हदन की प्रीतत। प्रभा की आखँ ों के सामने अँिेरा छा गया। मसर घमू ने लगा, व खडी न र सकी, बठै गम और ताश ोकर बोली - ाँ, य पद था। कफर कलेजा मजबूत करके पछू ा - आपको कै से मालमू ुआ? ररचंिर बोले - व योगी मेरे य ाँ अक्सर आया-जाया करता क ता ै। मझु े भी उसका गाना पसदंि ै। उसी ने मझु े य ाल बताया था, ककंि तु व तो क ता था कक राजकु मारी ने मेरे गाने को ब ुत पसदंि ककया और पनु ः आने के मल आदेश ककया। प्रभा को अब सच्चा क्रोि हदखाने का अवसर ममल गया। व त्रबगडकर बोली - य त्रबलकु ल झठू ै। मनंै े तो उससे कु छ न ींि क ा।
ररचरिं बोले - य तो मंै प ले ी समझ गया था कक य उन म ाशय की चालाकी ै। डीिगं मारना गवैयों की आदत ै; परिंतु इसमें तो तमु ् ंे इनकार न ीिं कक उसका गान बुरा न था? प्रभा बोली - नाय अच्छी चीज को बरु ा कौन क ेगा? ररचंिर ने पूछा - कफर सुनना चा ो तो उसे बुलवाऊँ । मसर के बल दौडा आ गा। क्या उनके दशान कफर ोंगे? इस आशा से प्रभा का मखु मिंडल ववकमसत ो गया। परंितु इन कम म ीनों की लगातार कोमशश से ग्जस बात को भलु ाने में व ककंि धचत सफल ो चुकी थी, उसके कफर नवीन ो जाने का भय ुआ। बोली - इस समय गाना सनु ने को मेरा जी न ीिं चा ता। राजा ने क ा - य मैं न मानँूगा कक तमु और गाना न ींि सनु ना चा ती, मंै उसे अभी बुला लाता ूँ। य क कर राजा ररचिंर तीर की तर कमरे से बा र तनकल ग । प्रभा उन् ें रोक न सकी। व बडी धचतंि ा मंे डू बी खडी थी। हृदय मंे खशु ी और रंिज की ल रंे बारी-बारी से उठती थी। मुग्कल से दस ममनट बीते ोंगे कक उसे मसतार के मस्ताने सरु के साथ योगी की रसीली तान सनु ाम दी - कर ग थोडे हदन की प्रीतत। व ी हृदयगामी राग था, व ी हृदय-भेदी प्रभाव, व ी मनो रता और व ी सब कु छ जो मन को मो लेता ै। क षों ण में योगी की मोह नी मूतता हदखाम दी। व ी मस्तानापन, व ी मतवाले नेत्र, व ी नयनामभराम देवताओ का-सा स्वरूप। मुखमडंि ल पर मंदि -मदिं मुस्कान थी। प्रभा ने उसकी तरफ स मी ुम आँखों से देखा। का क उसका हृदय उछल पडा। उसकी आखँ ों के आगे से पदाा ट गया।
प्रेम-ववह्वल ो, आखँ ों मंे आँसू-भरे व अपने पतत के चरणाववदंि ों पर धगर पडी और गद्गद किं ठ से बोली - प्यारेय वप्रयतमय राजा ररचंिर को आज सच्ची ववजय प्राप्त ुम। उन् ोंने प्रभा को उठाकर छाती से लगा मलया। दोनों आज क प्राण ो ग । राजा ररचरंि ने क ा - जानती ो, मनंै े य स्वाँग क्यों रचा था? गाने का मझु े व्यसन ै और सुना ै तुम् ंे भी इसका शौक ै। तुम् ंे अपना हृदय भेंट करने से प्रथम क बार तमु ् ारा दशना करना आवयक प्रतीत ुआ और उसके मल सबसे सगु म उपाय य ी सूझ पडा। प्रभा ने अनुराग से देखकर क ा - योगी बनकर तुमने जो कु छ पा मलया, व राजा र कर कदावप न पा सकत।े अब तुम मेरे पतत ो और वप्रयतम भी ो; पर तुमने मुझे बडा िोखा हदया और मेरी आत्मा को कलकंि कत ककया। इसका उत्तरदाता कौन ोगा? ***
लाग-डाट जोखू भगत और बेचन चौिरी मंे तीन पीहढयों से अदावत चली आती थी। कु छ डाडँ -मंेड का झगडा था। उनके परदादों में कम बार खनू -खच्चर ुआ। बापों के समय से मकु दमेबाजी शुरू ुम। दोनों कम बार ामकोटा तक ग । लडकों के समय मंे सिगं ्राम की भीषणता और भी बढी, य ाँ तक कक दोनों ी अशक्त ो ग । प ले दोनों इसी गावँ में आिे-आिे के ह स्सेदार थ।े अब उनके पास उस झगडवे ाले खेत को छोडकर क अंिगलु जमीन न थी। भमू म गम, िन गया, मान- मयाादा गया लेककन व वववाद ज्यों का त्यों बना र ा। ामकोटा के िरु िंिर नीततज्ञ क मामूली-सा झगडा तय न कर सके । इन दोनों सज्जनों ने गाँव को दो ववरोिी दलों मंे ववभक्त कर हदया था। क दल की भगिं -बटू ी चौिरी के द्वार पर छनती; तो दसू रे दल के चरस-गाँजे के दम भगत के द्वार पर लगते थे। ग्स्त्रयों और बालकों के भी दो दल ो ग । य ाँ तक कक दोनों सज्जनों के सामाग्जक और िाममका ववचारों मंे भी ववभाजक रेखा खचंि ी ुम थी। चौिरी कपडे प ने सत्तू खा लेते और भगत को ढोंगी क त।े भगत त्रबना कपडे उतारे पानी भी न पीते और चौिरी को भ्रष्ट बतलात।े भगत सनातनिमी बने तो चौिरी ने आयसा माज का आश्रय मलया। ग्जस बजाज, पन्सारी या किंु जडे से चौिरी सौदे लेते थे उसकी ओर भगतजी ताकना भी पाप समझते थे। और भगत जी की लवाम की ममठाइयाँ, उनके नवाले का दिू और तले ी का तले चौिरी के मल त्याज्य थे। य ाँ तक कक उनके आरोनयता के मसद्धाितं ों में भी मभन्नता थी। भगत जी वदै ्यक के कायल थे, चौिरी यूनानी प्रथा के माननेवाले। दोनों चा े रोग से मर जाते, पर अपने मसद्धांितों को न तोडत।े 2 जब देश मंे राजनतै तक आंदि ोलन शुरू ुआ तो उसकी भनक उस गावँ में आ प ुँची। चौिरी ने आंिदोलन का पषों मलया, भगत उनके ववरोिी ो ग । क
सज्जन ने आकर गावँ मंे ककसान-सभा खोली। चौिरी उनसें शरीक ु , भगत अलग र े। जागतृ त और बढी, स्वराज्य की चचाा ोने लगी। चौिरी स्वराज्यवादी ो ग , भगत ने राजभग्क्त का पषों मलया। चौिरी का घर स्वराज्यवाहदयों का अड्डा ो गया, भगत का घर राजभक्तों का क्लब बन गया। चौिरी जनता मंे स्वराज्यवाद का प्रचार करने लगे: 'ममत्रों, स्वराज्य का अथा ै अपना राज। अपने देश में अपना राज ो व अच्छा ै कक ककसी दसू रे का राज ो व ?' जनता ने क ा - अपना राज ो, व अच्छा ै। चौिरी - तो य स्वराज्य कै से ममलेगा? आत्मबल से, परु ुषाथा से, मेल से, क दसू रे से द्वेष करना छोड दो। अपने झगडे आप ममलकर तनपटा लो। क शिंका - आप तो तनत्य अदालत में खडे र ते ै। चौिरी - ाँ, पर आज से अदालत जाऊँ तो मझु े गऊ त्या का पाप लगे। तुम् ें चाह कक तुम अपनी गाढी कमाम अपने बाल-बच्चों को खलाओ, और बचे तो परोपकार में लगाओ, वकील-मखु ्तारों की जबे क्यों भरते ो, थानदे ार को घूस क्यो देते ो, अमलों की धचरौरी क्यों करते ो? प ले मारे लडके अपने िमा की मशषों ा पाते थे; व सदाचारी, त्यागी, परु ुषाथी बनते थे। अब व ववदेशी मदरसों में पढकर चाकरी करते ैं, घसू खाते ैं, शौक करते ंै, अपने देवताओंि और वपतरों की तनदंि ा करते ंै, मसगरेट पीते ैं, साल बनाते ै और ाककमों की गोडिररया करते ै। क्या य मारा कत्तवा ्य न ीिं ै कक म अपने बालकों को िमाानुसार मशषों ा दंे? जनता - चिंदा करके पाठशाला खोलनी चाह ।
चौिरी - म प ले महदरा का छू ना पाप समझते थ।े अब गाँव-गाँव और गली- गली मंे महदरा की दकु ानंे ै। म अपनी गाढी कमाम के करोडो रुप गाँजे-शराब में उडा देते ै। जनता - जो दारू-भाँग वपये, उसे डाँड लगाना चाह य चौिरी - मारे दादा-बाबा, छोटे-बडे सब गाढा-गजी प नते थे। मारी दाहदयाँ- नातनयाँ चरखा काता करती थी। सब िन देश मंे र ता था, मारे जलु ा े भाम चैन की विशं ी बजाते थ।े अब म ववदेश के बने ु म ीन कपडों पर जान देते ै। इस तर दसू रे देश वाले मारा िन ढो ले जाते ंै; बेचारे जलु ा े कंि गाल ो ग । क्या मारा य ी िमा ै कक अपने भाइयों की थाली छीनकर दसू रों के सामने रख दें? जनता - गाढा क ीिं ममलता ी न ीं।ि चौिरी - अपने घर का बना ुआ गाढा प नो, अदालतों को त्यागो, नशेबाजी छोडो, अपने लडकों को िम-ा कमा मसखाओ, मेल से र ो - बस, य ी स्वराज्य ै। जो लोग क ते ै कक स्वराज्य के मल खून की नहदयाँ ब ेगी, वे पागल ै - उनकी बातों पर ध्यान मत दो। जनता य बातें चाव से सुनती थी। हदनोंहदन श्रोताओंि की संखि ्या बढती जाती थी। चौिरी सब के श्रद्धाभाजन बन ग । 3 भगत जी राजभग्क्त का उपदेश करने लगे - 'भाइयों, राजा का काम राज करना और प्रजा का काम उसकी आज्ञा का पालन करना ै। इसी को राजभग्क्त क ते ै। और मारे िाममका ग्रंथि ों में में इसी
राजभग्क्त की मशषों ा दी गम ै। राजा मवर का प्रतततनधि ै, उसकी आज्ञा के ववरुद्ध चलना म ान पातक ै। राजववमुख प्राणी नरक का भागी ोता ै।' क शंिका - राजा को भी तो अपने िमा का पालन करना चाह ? दसू री शंिका - मारे राजा तो नाम के ै, असली राजा तो ववलायत के बतनये- म ाजन ै। तीसरी शंिका - बतनये िन कमाना चा ते ै, राज करना क्या जानंे। भगत - लोग तुम् ंे मशषों ा देते ै कक अदालतों मंे मत जाओ, पिंचायतों में मुकदमें ले जाओ; लेककन ीसे पंिच क ाँ ै, जो सच्चा न्याय करंे, दिू का दिू और पानी का पानी कर देंय य ाँ मँु -देखी बातें ोगी। ग्जनका दबाव ै, उसकी जीत ोगी, ग्जनका कु छ दबाव न ीिं ै, व बेचारे मारे जा िंगे। अदालतों में सब कायवा ाम काननू पर ोती ै, व ाँ छोटे-बडे सब बराबर ै, शरे -बकरी क घाट पर पानी पीते ै. क शंिका - अदालतों मंे न्याय क ने ी को ै, ग्जसके पास बने ु गवा और दावँ -पेंच खले े ु वकील ोते ैं, उसी की जीत ोती ै, झूठे -सच्चे की परख कौन करता ै? ाँ, ैरानी अलबत्ता ोती ै। भगत - क ा जाता ै कक ववदेशी चीजों का व्यव ार मत करो। य गरीबों के साथ घोर अन्याय ै। मको बाजार में जो चीज सस्ती और अच्छी ममले, व लेनी चाह । चा े स्वदेशी ो या ववदेशी। मारा पसै ा सतंे मंे न ीिं आता ै कक उसे रद्दी-भद्दी स्वदेशी चीजों पर फें के । क शिंका - अपने देश में तो र ता ै, दसू रों के ाथ में तो न ीिं जाता।
दसू री शिंका - अपने घर मंे अच्छा खाना न ममले तो क्या ववजाततयों के घर का अच्छा भोजन खाने लगेंगे? भगत - लोग क ते ै, लडकों को सरकारी मदरसों में मत भेजो। सरकारी मदरसे मंे न पढते तो आज मारे भाम बडी-बडी नौकररयाँ कै से पाते, बड-े बडे कारखाने कै से बना लेत?े त्रबना नम ववद्या पढे अब ससिं ार में तनबा न ीिं ो सकता, पुरानी ववद्या पढकर पत्रा देखने और कथा बाचँ ने के मसवाय और क्या आता ै? राज- काज क्या पट्टी-पोथी बाचँ ने वाले लोग करेंगे? क शिंका - में राज-काज न चाह । म अपनी खेती-बारी ी में मगन ै, ककसी के गुलाम तो न ींि। दसू री शिंका - जो ववद्या घमडंि ी बना दे, उससे मूरख ी अच्छा, य ी नम ववद्या पढकर तो लोग सूट-बटू , घडी-छडी, ैट-कै ट लगाने लगते ै और अपने शौक के पीछे देश का िन ववदेमशयों के जेब मंे भरते ै। ये देश के रो ी ै। भगत - गाँजा-शराब की ओर आजकल लोगों की कडी तनगा ै। नशा बुरी लत ै, इसे सब जानते ै। सरकार को नशे की दकू ानों से करोडो रुप साल की आमदनी ोती ै। अगर दकू ानों में न जाने से लोगों की नशे की लत छू ट जा तो बडी अच्छी बात ै। व दकू ान पर न जा गा तो चोरी-तछपे ककसी न ककसी तर दनू े-चौगुने दाम देकर, सजा काटने पर तयै ार ोकर, अपनी लत पूरी करेगा। तो ीसा काम क्यों करो कक सरकार का नुकसान अलग ो, और गरीब रैयत का नुकसान अलग ो। और कफर ककसी-ककसी को नशा खाने से फायदा ोता ै। मंै ी क हदन अफीम न खाऊँ तो गाँठों ददा ोने लगे, दम उखड जा और सरदी पकड ले। क आवाज - शराब पीने से बदन मंे फु ती आ जाती ै।
क शंिका - सरकार अिमा से रुपया कमाती ै। उसे य उधचत न ीिं। अिमी के राज में र कर प्रजा का कल्याण कै से ो सकता ै? दसू री शंिका - प ले दारू वपलाकर पागल बना हदया। लत पडी तो पसै े की चाट ुम। इतनी मजरू ी ककसको ममलती ै कक रोटी-कपडा भी चले और दारू-शराब भी उड?े या तो बाल-बच्चों को भखू ों मारो या चोरी करो, जआु खेलो और बेममानी करो। शराब की दकू ान क्या ै? मारी गुलामी का अड्डा ै। 4 चौिरी के उपदेश सुनने के मल जनता टू टती थी। लोगों को खडे ोने की जग न ममलती। हदनोंहदन चौिरी का मान बढने लगा। उनके य ाँ तनत्य पचंि ायतों की राष्ट्रोन्नतत की चचाा र ती, जनता को इन बातों में बडा आनिदं और उत्सा ोता। उनके राजनैततक ज्ञान की ववृ द्ध ोती। व अपना गौरव और म त्त्व समझने लगे, उन् ंे अपनी सत्ता का अनुभव ोने लगा। तनरिंकु शता और अन्याय पर जब उनकी ततउररयाँ चढने लगी उन् ें स्वततिं ्रता का स्वाद ममला। घर की रुम, घर का सूत, घर का कपडा, घर का भोजन, घर की अदालत, न पमु लस का भय, न अमला की खशु ामद, सुख और शातिं त से जीवन व्यतीत करने लगे। ककतनों ी ने नशेबाजी छोड दी और सद्भावों की क ल र-सी दौडने लगी। लेककन भगत जी इतने भानयशाली न थे। जनता को हदनोंहदन उनके उपदेशों से अरुधच ोती जाती थी। य ाँ तक की ब ुिा उनके श्रोताओिं में पटवारी, चौकीदार, मदु ररास और इन् ींि कमचा ाररयों के ममत्रों के अततररक्त और कोम न ोता था। कभी-कभी बडे ाककम भी आ तनकलते और भगत जी का बडा आदर-सत्कार करत।े जरा देर के मल भगत जी के आसँ ू पँुछ जात,े लेककन षों ण-भर का सम्मान आठों प र के अपमान की बराबरी कै से करताय ग्जिर तनकल जाते उिर ी उँ गमलयाँ उठने लगती। कोम क ता, खशु ामदी टट्टू ै, कोम क ता, खुकफया पुमलस का भेदी ै। भगत जी अपने प्रततद्विंद्वी की बडाम और अपनी लोकतनदिं ा
पर दातँ पीस-पीसकर र जाते थ।े जीवन मंे य प ला ी अवसर था कक उन् ें सबके सामने नीचा देखना पडा। धचरकाल से ग्जस कु ल-मयाादा की रषों ा करते आते थे और ग्जस पर अपना सवसा ्व अपणा कर चकु े थे, व िूल में ममल गम। य दा मय धचतंि ा उन् ें क षों ण के मल चनै न लेने देती। तनत्य समस्या सामने र ती कक अपना खोया ुआ सम्मान क्योंकर पाऊँ , अपने प्रततपषों ी को क्योंकर पददमलत करूँ , कै से उसका गरूर तोडूँ? अंित में उन् ोंने मसिं को उसी की माँद मंे पछाडने का तनचय ककया। 5 संिध्या का समय था। चौिरी के द्वार पर क बडी सभा ो र ी थी। आस-पास के गावँ ों के ककसान भी आ ग , जारों आदममयों की भीड थी। चौिरी उन् ें स्वराज्य-ववषयक उपदेश दे र े थे। बार-बार भारतमाता की जय-जयकर की ध्वतन उठती थी। क ओर ग्स्त्रयों का जमाव था। चौिरी ने अपना उपदेश समाप्त ककया और अपनी जग पर बैठे । स्वयिं सेवकों ने स्वराज्य फिं ड के मल चंदि ा जमा करना शुरू ककया कक इतने मंे भगत जी न जाने ककिर से लपके ु आ और श्रोताओंि के सामने खडे ोकर उच्च स्वर से बोले: 'भाइयो, मुझे य ाँ देखकर अचरज मत करो, मंै स्वराज का ववरोिी न ींि ूँ। ीसा पततत कौन प्राणी ोगा जो स्वराज्य का तनदंि क ो, लेककन इसके प्राप्त करने का व उपाय न ींि ै जो चौिरी ने बताया ै और ग्जस पर तुम लोग लट्टू ो र े ो। जब आपस में फू ट और सर ै, पचंि ायतों से क्या ोगा? जब ववलामसता का भतू मसर पर सवार ै तो नशा कै से छू टेगा, महदरा की दकू ानों का बह ष्कार कै से ोगा? मसगरेट, साबनु , मोज,े बतनयान, अद्धी, तजंि ेब से कै से वपडिं छू टेगा? जब रोब और ुकू मत की लालसा बनी ुम ै तो सरकारी मदरसे कै से छोडोगे, वविमी मशषों ा की बेडी से कै से मकु ्त ो सकोगे? स्वराज्य लेने का के वल क उपाय ै और व आत्म-सिंयम ै। य ी म ौषधि तमु ् ारे समस्त रोगों को समूल नष्ट
करेगी। आत्मा को बलवान बनाओ, इंिहरयों को सािो, मन को वश मंे करो, तमु मंे भातभृ ाव पैदा ोगा, तभी वैमनस्य ममटेगा, तभी मष्याा और द्वेष का नाश ोगा, तभी भोग-ववलास से मन टेगा, तभी नशेबाजी का दमन ोगा। आत्मबल के त्रबना स्वराज्य कभी उपलब्ि न ोगा। स्वयसंि ेवा सब पापों का मलू ै, य ी तुम् ंे अदालतों में ले जाता ै, य तुम् ंे वविमी मशषों ा का दास बना ु ै। इस वपशाच को आत्मबल से मारो और तमु ् ारी कामना पूरी ो जा गी। सब जानते ै, मैं 40 साल से अफीम को सेवन करता ूँ। आज से मैं अफीम को गऊ का रक्त समझता ूँ। चौिरी से मेरी तीन पीहढयों से अदावत ै। आज से चौिरी मेरे भाम ै। आज से मझु े या मेरे घर के ककसी प्राणी को घर के कते सतू से बुने ु कपडे के मसवाय कु छ और प नते देखो तो मझु े जो दिंड चा ो, दो। बस मुझे य ी क ना ै, परमात्मा म सब की इच्छा परू ी करे।' य क कर भगत जी घर की ओर चले कक चौिरी दौडकर उनके गले से मलपट ग । तीन पु तों की अदावत क षों ण में शातंि ो गम। उस हदन से चौिरी और भगत साथ-साथ स्वराज्य का उपदेश करने लगे। उनमंे गाढी ममत्रता ो गम और य तनचय करना कहठन था कक दोनों मंे जनता ककसका अधिक सम्मान करती ै। प्रततद्विंद्ववता व धचनिं गारी थी ग्जसने दोनों पुरुषों के हृदय-दीपक को प्रकामशत कर हदया था। ***
अमावस्या की रात्रि हदवाली की सधंि ्या थी। श्रीनगर के घूरों और खिडं रों के भी भानय चमक उठे थे। कस्बे के लडके और लडककयाँ वेत थामलयों में दीपक मलये मंहि दर की ओर जा र ी थी। दीपों से उनके मुखारववदंि प्रकाशमान थ।े प्रत्येक गृ रोशनी से जगमगा र ा था। के वल पडंि डत देवदत्त का सतिारा भवन काली घटा के अिंि कार मंे गंिभीर और भयकंि र रूप मंे खडा था। गभिं ीर इसमल कक उसे अपनी उन्नतत के हदन भूले न थे, भयकंि र इसमल कक य जगमगा ट मानों उसे धचढा र ी थी। क समय था ग्ज कक मष्याा भी उसे देख-देखकर ाथ मलती थी और क समय य ै ग्ज कक घणृ ा भी उस पर कटाषों करती ै। द्वार पर द्वारपाल की जग अब मदार और रिंड के वषृ ों खडे थ।े दीवानखाने मंे क मतिगं साडँ अकडता था। ऊपर के घरों में ज ाँ सदिंु र रम णयाँ मनो र सगंि ीत गाती थी, व ाँ आज जगिं ली कबूतरों के मिरु स्वर सुनाम देते थे। ककसी अगँ ्रेजी मदरसे के ववद्याथी के आचरण की भाँतत उसकी जडे ह ल गम थी और उसकी दीवारें ककसी वविवा स्त्री के हृदय की भातँ त ववदीणा ो र ी थी, पर समय को म कु छ न ीिं क सकत।े समय की तनदिं ा व्यथा और भूल ै, य मूखता ा और अदरू दमशता ा का फल था। अमावस्या की रात्रत्र थी। प्रकाश से प्रराग्जत ो कर मानो अििं कार ने उसी ववशाल भवन में शरण ली थी। पडंि डत देवदत्त अपने अद्धा अंििकारवाले कमरे में मौन, ककिं तु धचतंि ा मंे तनमनन थे। आज क म ीने से उसकी पत्नी धगररजा की ग्जदंि गी को तनदाय काल ने खलवाड बना हदया ै। पिंडडत जी दरररता और दःु ख को भुगतने के मल तयै ार थे। भानय का भरोसा उन् ें िैया बँिाता था; ककंि तु य नम ववपग्त्त स न-शग्क्त से बा र थी। बेचारे हदन के हदन धगररजा के मसर ाने बठै े ु उसके मुरझा ु मखु को देख कर कु ढते और रोते थे। धगररजा जब अपने जीवन से तनराश ोकर रोती तो व उसे समझाते - धगररजा, रोओ मत, शीध्र ी अच्छी ो जाओगी।
पिडं डत देवदत्त के पूवजा ों का कारोबार ब ुत ववस्ततृ था। वे लेन-देन ककया करते थे। अधिकतर उनके व्यव ार बडे-बडे चकलेदारों और रजवाडो के साथ थ।े उस समय ममान इतना सस्ता न ीिं त्रबकता था। सादे पत्रों पर लाखों की बात ो जाती थीिं। मगर सन ु् 57 मस्वी के बलवे ने ककतनी ी ररयासतों और राज्यों को ममटा हदया और उनके साथ ततवाररयों का य अन्न-िन-पणू ा पररवार भी ममट्टी में ममल गया। खजाना लुट गया, ब ी-खाते पंिसाररयों के काम आ । जब कु छ शातंि त ुम, ररयासतें कफर सँभलींि तो समय पलट चकु ा था। वचन लेख के अिीन ो र ा था, तथा लेख मंे भी सादे और रंिगीन का भेद ोने लगा था। जब देवदत्त ने ोश सँभाला तब उनके पास इस खडंि र के अततररक्त और कोम सिपं ग्त्त न थी। तनवाा के मल कोम उपाय न था। कृ वष में पररश्रम और कष्ट था। वा णज्य के मल िन और बवु द्ध की आवयकता थी। ववद्या भी ीसी न ीिं थी कक क ींि नौकरी करते, पररवार की प्रततष्ठा दान लेने में बािक थी। अस्तु, साल मंे दो-तीन बार अपने परु ाने व्यव ाररयों के घर त्रबना बुला प ुनों की भाँतत जाते और कु छ ववदाम तथा माग-ा व्यय पाते उसी पर गजु ारा करत।े पैतकृ प्रततष्ठा का धचह्न यहद कु छ शषे थे, तो व परु ानी धचट्ठी-पत्रत्रयों का ढेर तथा ुँडडयों का पुमलदंि ा, ग्जनकी स्या ी भी उनके मिंद भानय की भाँतत फीकी पड गम थी। पंडि डत देवदत्त उन् ंे प्राणों से भी अधिक वप्रय समझत।े द्ववतीया के हदन जब घर-घर लक्ष्मी की पजू ा ोती ै, पंडि डत जी ठाट-बाट से इन पमु लदिं ों की पूजा करत।े लक्ष्मी न स ी, लक्ष्मी का स्मारक धचह्न ी स ी। दजू के हदन पडंि डत जी के प्रततष्ठा के श्रद्धा का हदन था इसे चा े ववडबंि ना क ो, चा े मखू ता ा, परिंतु श्रीमान पिडं डत म ाशय को इन पत्रों पर बडा अमभमान था। जब गावँ मंे कोम वववाद तछड जाता तो य सडे-गले कागजों की सेना ी ब ुत काम कर जाती और प्रततवादी शत्रु को ार माननी पडती। यहद सत्तर पीहढयो से शस्त्र की सूरत न देखने पर भी लोग षों त्रत्रय ोने का अमभमान करते ै, तो पिंडडत देवदत्त का उन लेखों पर अमभमान करना अनुधचत न ीिं क ा जा सकता, ग्जसमें सत्तर लाख रुपयों की रकम तछपी ुम थी।
2 व ी अमावस्या की रात्रत्र थी। ककिं तु दीपमामलका अपनी अल्प जीवनी समाप्त कर चुकी थी। चारों और जुआररयों के मल य शकु न का रात्रत्र थी? क्योंकक आज की ार साल भर की ार ोती ै। लक्ष्मी के आगमन की िूम थी। कौडडयों पर अशकफा याँ लुट र ी थी।ंि भहट्टयों मंे शराब के बदले पानी त्रबक र ा था। पिडं डत देवदत्त के अततररक्त कस्बे मंे कोम ीसा मनुष्य न ींि था, जो कक दसू रों की कमाम समेटने की िुन मंे न ो। आज भोर से ी धगररजा की अवस्था शोचनीय थी। ववषम ज्वर उसे क- क षों ण में मतू छात कर र ा था। का क उसने चौंक कर आँखंे खोली और अत्यंित षों ीण स्वर से क ा - आज तो दीवाली ै। देवदत्त ीसा तनराश ो र ा था कक धगररजा को चतै न्य देख कर भी उसे आनिंद न ीिं ुआ। बोला - ाँ, आज दीवाली ै। धगररजा ने आँसू-भरी दृग्ष्ट से इिर-उिर देखकर क ा - मारे घर में क्या दीपक न जलेंगे? देवदत्त फू ट-फू टकर रोने लगा। धगररजा ने कफर उसी स्वर में क ा - देखो, आज बरस-भर के हदन भी घर अिँ ेरा र गया। मुझे उठा दो, मंै भी अपने घर दीये जलाऊँ गी। ये बातंे देवदत्त के हृदय मंे चभु ी जाती थीं।ि मनषु ्य की अंति तम घडी लालसाओिं और भावनाओिं में व्यतीत ोता ै। इस नगर में लाला शंिकरदास अच्छे प्रमसद्ध वदै ्य थ।े अपने प्राणसजंि ीवन औषिालय मंे दवाओंि के स्थान पर छापने का प्रेस रखे ु ै। दवाइयाँ कम बनती थीिं, इत ार अधिक प्रकामशत ोते थे।
वे क ा क ते थे कक बीमारी के वल रमसों का ढकोसला ै और पोमलहटकल कानोमी के (राजनीततक अथशा ास्त्र के ) अनसु ार इस ववलास-पदाथा से ग्जतना अधिक सिभं ब ो, टैक्स लेना चाह । यहद कोम तनिान ै तो ो। यहद कोम मरता ै तो मरे। उसे क्या अधिकार ै कक बीमार पडे और मफु ्त में दवा करा ? भारतवषा की य दशा अधिकतर मुफ्त दवा कराने से ुम ै। इसने मनुष्य को असाविान और बल ीन बना हदया ै। देवदत्त म ीने भर तनत्य उनके तनकट दवा लेने आता था; परिंतु वैद्य जी कभी उसकी ओर ध्यान न ींि देते थे कक व अपनी शोचनीय दशा प्रकट कर सके । वैद्यजी के दय के कोमल भाग तक प ुँचने के मल देवदत्त ने ब ुत कु छ ाथ-पैर चला । व आँखों में आसँ ू भर आता, ककिं तु वदै ्य जी का हृदय ठोस था, उसमंे कोमल भाव था ी न ींि। व ी अमावस्या की डरावनी रात थी। गगन-मिडं ल मंे तारे आिी रात के बीतने पर और भी अधिक प्रकामशत ो र े थे मानो श्रीनगर की बुझी ुम दीवाली पर कटाषों यकु ्त आनदंि के साथ मसु ्करा र े थे। देवदत्त बेचैनी की दशा में धगररजा के मसर ाने से उठे और वैद्य जी के मकान की ओर चले। वे जानते थे कक लाला जी त्रबना फीस मलये कदावप न ीिं आ ंिगे, ककंि तु ताश ोने पर भी आशा पीछा न ींि छोडती। देवदत्त कदम आगे बढाते चले जाते थे। 3 कीम जी उस समय अपने 'रामबाण त्रबदिं 'ु का ववज्ञापन मलखने में व्यस्त थे। उस ववज्ञापन की भावप्रद भाषा तथा आकषणा -शग्क्त देखकर क न ीिं सकते कक वैद्य-मशरोम ण थे या सुलेखक ववद्यावाररधि। पाठक, आप उनके उदाू ववज्ञापन का साषों ात दशना कर लें - 'नाजरीन, आप जानते ंै कक मैं कौन ूँ? आपका जदा चे रा, आपका तने लाधगर, आपका जरा-सी मे नत में बेदम ो जाना, आपका लज्जात दतु नया मंे म रूम
र ना, आपका खाना तरीकी, य सब सवाल का नफी में जवाब देते ैं। सतु न , मंै कौन ूँ? मैं व शख्स ूँ, ग्जसने इमराज इन्सानी को पदे दतु नया से गायब कर देने का बीडा उठाया ै, ग्जसने इग्त ारबाज, जा फरोश, गिदं मु नुमा बने ु कीकों को बेखबर व बुन से खोद कर दतु नया को पाक कर देने का अज्म ववल ्ु जज्म कर मलया ै। मंै व ैरतअगिं ेज इन्सान जमफ-उल-बयान ूँ जो नाशाद को हदलशाद, नामरु ाद को बामुराद, भगोडे को हदलेर, गीदड को शरे बनाता ै। और य ककसी जादू से न ींि, मिंत्र से न ींि, व मेरी मजाद करदा 'अमतृ त्रबदंि 'ु के अदना कररमे ैं। अमतृ त्रबदिं ु क्या ै, इसे कु छ मंै ी जानता ूँ। म वषा अगस्त ने िन्वनतरर के कानों मंे इसका नसु ्खा बतलाया था। ग्जस वक्त आप वी. पी. पासला खोलंेगे, आप पर उसकी कीकत रौशन ो जा गी। य आबे यात ै। य मदाना गी का जौ र, फरजानगी का अक्सीर, अक्ल का मरु ब्बा और जे न का सकील ै। अगर वषों की मुशायराबाजी ने भी आपको शायर न ींि बनाया, रोज शबे राज के रटंित पर भी आप इम्त ान मंे कामयाब न ींि ो सके , अगर दल्लालों का खुशामद और मवु ग्क्कलों की नाजबदारा ी के बावजदू भी आप अ ाते अदालत मंे भूखे कु त्ते की तर चक्कर लगाते कफरते ै, अगर आप गला फाड-फाड चीखने, मेज पर ाथ-पैर पटकनंे पर भी अपनी तकदीर से कोम असर पदै ा न ीिं कर सकते तो आप 'अमतृ त्रबदिं 'ु का इस्तमे ाल कीग्ज । इसका सबसे बडा फायदा जो प ले ी हदन मालमू ो जा गा, य ै कक आपकी आँखंे खुल जा ँगी और आप कफर कभी इत ारबाज कीमों के दाम फरेब मंे न फँ सगें े।' वदै ्य जी इस ववज्ञापन को समाप्त कर उच्च स्वर में पढ र े थे; उनके नेत्रों में उधचत अमभमान और आशा झलक र ी थी कक इतने में देवदत्त ने बा र से आवाज दी। वदै ्य जी ब ुत खुश ु । रात के समय उनकी फीस दगु नी थी। लालटेन मलये बा र तनकले तो देवदत्त रोता ुआ उनके पैरों से मलपट गया और बोला - वैद्य जी, इस समय मुझ पर दया कीग्ज । धगररजा अब कोम सायत की पा ुनी ै। अब आप ी उसे बचा सकते ै। यों तो मेरे भानय मंे जो मलखा ै, व ी ोगा; ककंि तु इस समय ततनक चलकर आप देख लें तो मेरे हदल का दा ममट जा गा। मुझे िैया ो जा गा कक उनके मल मझु से जो कु छ ो सकता था,
मनंै े ककया। परमात्मा जानता ै कक मैं इस योनय न ीिं ूँ कक आपकी कु छ सेवा कर सकूँ ; ककिं तु जब तक जीऊँ गा, आपका यश गाऊँ गा और आपके इशारों का गलु ाम बना र ूँगाय कीम जी को प ले कु छ तरस आया, ककंि तु व जुगुगू की चमक थी जो शीघ्र स्वाथा के ववशाल अिंि कार में ववलीन ो गम। 4 व ी अमावस्या की रात्रत्र थी। वषृ ों ों पर सन्नाटा छा गया था। जीतनेवाले अपने बच्चों को नीदिं से जगा कर इनाम देते थ।े ारनवे ाले अपनी रुष्ट और क्रोधित ग्स्त्रयों से षों मा के मल प्राथना ा कर र े थे। इतने मंे घंटि ी के लगातार शब्द वायु और अििं कार को चीरते ु कान मंे आने लगे। उनकी सु ावनी ध्वतन इस तनस्तब्ि अवस्था मंे अत्यितं भली प्रतीत ोती थी। य शब्द समीप ो ग और अंित मंे पंडि डत देवदत्त के समीप आकर उस खडँ र मंे डू ब ग । पडंि डत जी उस समय तनराशा के अथा समरु में गोते खा र े थे। शोक मंे इस योनय भी न ींि थे कक प्राणों से भी अधिक प्यारी धगररजा की दवा दरपन कर सकंे । क्या करें ? इस तनष्ठु र वैद्य को य ाँ कै से ला ँ? जामलम, मंै सारी उम्र तरे ी गलु ामी करता। तरे े इग्त ार छापता। तरे ी दवाइयाँ कू टता। आज पडंि डत जी को य ज्ञात ुआ कक सत्तर लाख की धचट्ठी-पत्रत्रयाँ इतनी कौडडयों के मोल भी न ी।िं पतै कृ प्रततष्ठा का अ ंिकार अब आखँ ों से दरू ो गया। उन् ोंने उस मखमली थले े को सिंदकू से बा र तनकाला और उन धचट्ठी-पत्रत्रयों को, जो बाप-दादों की कमाम को शेषाशंि थीिं और प्रततष्ठा की भातँ त ग्जनकी रषों ा की जाती थी, क- क करके दीया को अपणा करने लगे। ग्जस तर सुख और आनिंद से पामलत शरीर धचता की भेंट ो जाती ै, उसी प्रकार व कागजी पुतमलयाँ भी उस प्रज्वमलत दीया के ििकते ु मँु का ग्रास बनती थी। इतने में ककसी ने बा र से पिडं डत जी को पुकारा। उन् ोंने चौंक कर मसर उठाया। वे नीदंि से, अिँ ेरे में टटोलते ु दरवाजे तक
आ । देखा कक कम आदमी ाथ में मशाल मलये ु खडे ंै और क ाथी अपने सँूड से उन रिंड के वषृ ों ों को उखाड र ा ै, जो द्वार पर द्वारपाली की भाँतत खडे थ।े ाथी पर क संिुदर युवक बैठा ै। ग्जसके मसर पर के सररया रंिग की रेशमी पाग ै। माथे पर अिाचरिं ाकार चंिदन, भाले की तर तनी ुम नोकदार मँछू ें , मखु ारववदिं से प्रभाव और प्रकाश टपकता ुआ, कोम सरदार मालूम पडता था। उसका कलीदार अगँ रखा और चनु ावदार पैजामा, कमर से लटकती ुम तलवार और गदान में सनु रे किं ठे और जंिजीर उसके सजीले शरीर पर अत्यतिं शोभा पा र े थ।े पडंि डत जी को देखते ी उसने रकाब पर पैर रखा और नीचे उतर कर उनकी विंदना की। उसके इस ववनीत भाव से कु छ लग्ज्जत ोकर पडंि डत जी बोले - आपका आगमन क ाँ से ुआ? नवयवु क ने बडे नम्र शब्दों में जवाब हदया। उसके चे रे से भलमनसा त बरसती थी - मैं आपका पुराना सवे क ूँ। दास का घर राजनगर मंे ै। मंै व ाँ का जागीरदार ूँ। मेरे पूवजा ों पर आपके पूवजा ों ने बडे अनगु ्र कक ै। मेरी इस समय जो कु छ प्रततष्ठा तथा सिंपदा ै, सब आपके पवू जा ों की कृ पा और दया का पररणाम ै। मनंै े अपने अनेक स्वजनों से आपका नाम सनु ा था और मुझे ब ुत हदनों से आपके दशना ों की आकांषि ों ा थी। आज व सअु वसर भी ममल गया। अब मेरा जन्म सफल ुआ। पिंडडत देवदत्त की आँखों मंे आसँ ू भर आ । पतै कृ प्रततष्ठा का अमभमान उसके हृदय का कोमल भाग था। व दीनता जो उनके मुख पर छाम ुम थी, थोडी देर के मल ववदा ो गम। वे गंिभीर भाव िारण करके बोले - य आपका अनुग्र ै जो ीसा क ते ै। न ींि तो मुझ जसै े कपूत मंे तो इतनी भी योनयता न ीिं ै जो अपने को उन लोगों की सतिं तत क सकँू । इतनंे में नौकरों ने आगँ न मंे फशा त्रबछा हदया। दोनों आदमी उस पर बठै े और बातें ोने लगी, वे बातें ग्जनका प्रत्येक शब्द पडिं डत जी के मखु को इस तर प्रफु ग्ल्लत कर र ा था ग्जस तर प्रातःकाल की वायु फू लों
को खला देती ै। पडिं डत जी के वपताम ने नवयुवक ठाकु र के वपताम को पच्चीस स ् रुप कजा हद थ।े ठाकु र अब गया में जाकर अपने पूवजा ों का श्राद्ध करना चा ते था, इसमल जरूरी था कक उसके ग्जम्मे जो कु छ ऋण ो उसकी क- क कौडी चकु ा दी जा । ठाकु र को परु ाने ब ीखाते मंे य ऋण हदखाम हदया। पच्चीस के अब पच त्तर जार ो चकु े । व ी ऋण चुका देने के मल ठाकु र आया था। िमा ी व शग्क्त ै जो अंति ःकरण में ओजस्वी ववचारों को पैदा करती ै। ा,ँ इस ववचारों को काया में लाने के मल पववत्र और बलवान आत्मा की आवयकता ै। न ींि तो वे ी ववचार क्रू र और पापमय ो जाते ै। अतंि मंे ठाकु र ने क ा - आपके पास तो वे धचहट्ठयाँ ोगी? देवदत्त का हदल बैठ गया। वे सँभल कर बोले - संभि वतः ों। कु छ क न ींि सकत।े ठाकु र ने लापरवा ी से क ा - ढूँहढ , यहद ममल जा ँ तो म लेते जा ँगे। पिंडडत देवदत्त उठे , लेककन हृदय ठिं डा ो र ा था। शिंका ोने लगी कक क ींि भानय रे बाग न हदखा र ा ो। कौन जाने व पजु ाा जल कर राख ो गया या न ीि।ं यहद न ममला तो रुप कौन देता ै। शोक कक दिू का प्याला सामने आकर ाथ से छू ट जाता ैय े भगवानय व पत्री ममल जा । मने अनके कष्ट पा ै, अब म पर दया करो। इस प्रकार आशा और तनराशा की दशा मंे देवदत्त भीतर ग और दीया के हटमहटमाते ु प्रकाश में बचे ु पत्रों को उलट-पलु ट के देखने लगे। वे उछल पडे और उमिगं मंे भरे ु पागलों की भाँतत आनंिद की अवस्था में दो-तीन बार कू दे। तब दौडकर धगररजा को गले लगा मलया और बोले - प्यारी, यहद मवर ने चा ा तो तू अब बच जा गी। उन्मत्तता में उन् ें कदम य न ीिं जान पडा कक 'धगररजा' आब न ीिं ै, के वल उसकी लोथ ै। देवदत्त ने पत्री को उठा मलया और द्वार तक वे इसी तजे ी से आ मानों पाँवों मंे पर लग ग । परंितु य ाँ उन् ोंने अपने को रोका और हृदय मंे आनदंि की
उमडती ुम तरिंग को रोककर क ा - य लीग्ज , व पत्री ममल गम। सियं ोग की बात ै, न ीिं तो सत्तर लाख के कागज दीमकों के आ ार बन ग ? आकग्स्मक सफलता मंे कभी-कभी सदंि े बािा डालता ै। जब ठाकु र ने उस पत्री के लेने को ाथ बढाया तो देवदत्त को संदि े ुआ कक क ींि व उसे फाड कर फें क न दे। यद्यवप य सिदं े तनरथका था, ककंि तु मनषु ्य कमजोररयों का पुतला ै। ठाकु र ने उनके मन के भाव को ताड मलया। उसने बेपरवा ी से पत्री को मलया और मशाल के प्रकाश में देख कर क ा - अब मुझे वववास ुआ। य लीग्ज , आपका रुपया आपके समषों ै, आशीवादा दीग्ज कक मेरे पवू जा ों की मगु ्क्त ो जा । य क कर उसने अपनी कमर से क थलै ा तनकाला और उसमें से क- क जार के पच त्तर नोट तनकाल कर देवदत्त को दे हद । पडंि डत जी का हृदय बडे वगे से िडक र ा था। नाडी तीव्र-गतत से कू द र ी थी। उन् ोंने चारों ओर चौकन्नी दृग्ष्ट से देखा कक क ीिं दसू रा तो न ींि खडा ै और तब काँपते ु ाथों से नोटों को ले मलया। अपनी उच्चता प्रकट करने की व्यथा चषे ्टा मंे उन् ोंने नोटों की गणना भी न ींि की। के वल उडती ुम दृग्ष्ट से देखकर उन् ंे समेटा और जेब मंे डाल मलया। 5 व ी अमावस्या की रात्रत्र थी। स्वगीय दीपक भी िुिँ ले ो चकु े थ।े उनकी यात्रा सयू ना ारायण के आने की सूचना दे र ी थी। उदयाचल कफरोजी बाना प न चकु ा था। अस्ताचल मंे भी लके वेत रिंग की आभा हदखाम दे र ी थी। पिंडडत देवदत्त ठाकु र को ववदा करके घर चले। उस समय उनका हृदय उदारता के तनमला प्रकाश से प्रकामशत ो र ा था। कोम प्राथी उस समय उनके घर से तनराश न ींि जा सकता था। सत्यनारायण की कथा िमू िाम से सुनने का तनचय ो चुका था। धगररजा के मल कपडे और ग ने के ववचार ठीक ो ग ।
अिंतःपरु मंे ी उन् ें शामलग्राम के सम्मखु मनसा-वाचा-कमणा ा मसर झुकाया और तब शेष धचट्ठी-पत्रत्रयों को समेट कर उसी मखमली थैले में रख हदया। ककंि तु अब उनका य ववचार न ीिं था कक संिभवतः उन मुदों मंे भी कोम जीववत ो उठे । वरन ्ु जीववका से तनग्चतिं ो अब वे पैतकृ प्रततष्ठा पर अमभमान कर सकते थ।े उस समय वे ियै ा और उत्सा के नशे में मस्त थे। बस, अब मझु े ग्जदिं गी मंे अधिक सिपं दा की जरूरत न ींि। मवर ने मझु े इतना दे हदया। इसमें मेरी और धगररजा की ग्जदंि गी आनंिद से कट जा गी। उन् ंे क्या खबर थी कक धगररजा की ग्जिंदगी प ले ी कट चुकी ै। उनके हदल में य ववचार गदु गुदा र ा था कक ग्जस समय धगररजा इस आनिंद-समाचार को सुनगे ी उस समय अवय उठ बैठे गी। धचतंि ा और कष्ट ने ी उसकी ीसी दगु ता त बना दी ै। ग्जसे भरपेट कभी रोटी नसीब न ुम, जो कभी नरै ायमय िैया और तनिना ता के हृदय-ववदारक बिंि न से मकु ्त न ुम, उसकी दशा इसके मसवा और ो ी क्या सकती ै? य सोचते ु वे धगररजा के पास ग और आह स्ता से ह ला कर बोले - धगररजा, आँखें खोलो। देखो मवर ने तुम् ारी ववनती सुन ली और मारे ऊपर दया की। कै सी तबीयत ै? ककिं तु जब धगररजा ततनक भी न ममनकी तब उन् ोंने चादर उठा दी और उसके मँु की ओर देखा। हृदय से क करुणात्मक ठिं डी आ तनकली। वे व ीिं मसर थाम कर बैठ ग । आखँ ों से शो णत की बँूदें-सी टपक पडी। आ क्या य सपंि दा इतने म ँगे मूल्य पर ममली ै? क्या परमात्मा के दरबार से मुझे इस प्यारी जान का मलू ्य हदया गया ै? मवर, तमु खबू न्याय करते ो। मुझे धगररजा की आवयकता ै; रुपयों का आवयकता न ी।ंि य सौदा बडा म ँगा ै। 6 अमावस्या की अँिरे ी रात धगररजा के अििं कारमय जीवन की भाँतत समाप्त ो चकु ी थी। खेतों मंे ल चलाने वाले ककसान ऊँ चे और सु ावने स्वर से गा र े थ।े
सदी से काँपते ु बच्चे सूया देवता से बा र तनकलने की प्राथना ा कर र े थ।े पनघट पर गावँ की अलबेली ग्स्त्रयों जमा ो गम थीिं। पानी भरने के मल न ींि; ँसने के मल । कोम घडे को कु ँ मंे डाले ु अपनी पोपली सास की नकल कर र ी थी, कोम खिभं ों से धचपटी ुम अपनी स ेली से मसु ्करा कर प्रेमर स्य की बातें करती थी। बूढी ग्स्त्रयाँ पोतों को गोद मंे मलये अपनी ब ुओिं को कोस र ी थीिं कक घटिं े भर ु अब तक कु ँ से न ीिं लौटी। ककिं तु राजवदै ्य लाला शिंकरदास अभी तक मीठी नीदिं ले र े थे। खासँ ते ु बच्चे और करा ते ु बूढे उनके औषिालय के द्वार पर जमा ो चले थ।े इस भीड-भभ्भड से कु छ दरू पर दो- तीन सदंुि र ककिं तु मुझाा ु नवयुवक ट ल र े थे और वैद्य जी से कांित में कु छ बातंे ककया चा ते थ।े इतने मंे पंडि डत देवदत्त नगंि े मसर, निगं े बदन, लाल आखँ ें, डरावनी सूरत, कागज का क पिमंु लदा मल दौडते ु आ और औषिालय के द्वार पर इतने जोर से ाकँ लगाने लगे कक वैद्य जी चौंक पडे और क ार को पकु ार कर बोले कक दरवाजा खोल दे। क ार म ात्मा बडी रात ग ककसी त्रबरादरी की पंिचायत से लौटे थ।े उन् ंे दीिा-तनरा की रोग था जो वदै ्य जी के लगातार भाषण और फटकार की औषधियों से भी कम न ोता था। आप ींिठते ु उठे और ककवाड खोल कर ुक्का-धचलम की धचतिं ा में आग ढूँढने चले ग । कीम जी उठने की चषे ्टा कर र े थे कक स सा देवदत्त उनके सम्मखु जा कर खडे ो ग और नोटों का पुमलदिं ा उनके आगे पटक कर बोले - वैद्य जी, ये पच त्तर जार के नोट ै। य आपका पुरस्कार और आपकी फीस ै। आप चल कर धगररजा को देख लीग्ज और ीसा कु छ कीग्ज की व के वल क बार आखँ ें खोल दे। य उसकी क दृग्ष्ट पर न्योछावर ै - के वल क दृग्ष्ट पर। आपको रुप मनुष्य की जान से कम गनु ी प्यारे ैं। वे आपके समषों ंै। मझु े धगररजा की क धचतवन इन रुपयों से कम गुना प्यारी ै। वैद्य जी ने लज्जामय स ानुभूतत से देवदत्त की ओर देखा और के वल इतना क ा - मुझे अत्यिंत शोक ै, सदैव के मल तमु ् ारा अपरािी ूँ। ककंि तु तुमने मुझे मशषों ा दे दी। मवर ने चा ा तो ीसी भलू कदावप न ोगी। मुझे शोक ै। सचमचु ैय
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