दगु ााकँु वरर - बडी अनमोल पुस्तक ै। सखी, तुम् ारी बगल में जो अलमारी रखी , उसी मंे व पसु ्तक ै, जरा तनकालना। ब्रजववलामसनी ने पुस्तक उतारी और उसका प ला पषृ ्ठ खोला था कक उसके ाथ से पुस्तक छू ट कर धगर पडी। उसके प ले पषृ ्ठ पर क तस्वीर लगी ुम थी। व उस तनदाय युवक की तसवीर थी जो उसके बाप का त्यारा था। ब्रजववलामसनी की आँखंे लाल ो गम। त्योरी पर बल पड ग । अपनी प्रततज्ञा याद आ गम; पर उसके साथ ी य ववचार उत्पन्न ुआ कक इस आदमी का धचत्र य ाँ कै से आया और इसका इन राजकु माररयों से क्या सिंबंिि ै? क ींि ीसा न ो कक मझु े इतना कृ तज्ञ ोकर अपनी प्रततज्ञा तोडनी पड।े राजनिंहदनी ने उसकी सरू त देखकर क ा - सखी क्या बात ै? य क्रोि क्यों? ब्रजववलामसनी ने साविानी से क ा - कु छ न ींि, न जाने क्यों चक्कर आ गया था। आज से ब्रजववलामसनी के मन में क और धचतिं ा उत्पन्न ुम - क्या मुझे राजकु माररयों का कृ तज्ञ ोकर अपना प्रण तोडना पडगे ा? पूरे सोल म ीने के बाद अफगातनस्तान से पथृ ्वीमसिं और िममा सिं लौटे। बादशा की सेना को बडी-बडी कहठनाइयों का सामना करना पडा। बफा अधिकता से पडने लगी। प ाडों के दर बफा से ढक ग । आने-जाने के रास्ते बंिद ो ग । रसद का सामान कम ममलने लगा। मसपा ी भखू ों मरने लगे। अब अफगानों ने समय पाकर रात को छापे मारने शुरू कक । आ खर श जादे मु ीउद्दीन को ह म्मत ारकर लौटना पडा। दोनों राजकु मार ज्यों-ज्यों जोिपुर के तनकट प ुँचते थे, उत्कंि ठा से उनके मन उमड आते थ।े इतने हदनों के ववयोग के बाद कफर भेंट ोगी। ममलने की तषृ ्णा बढती जाती ै। रात-हदन मिगं ्जल काटते चले जाते ंै, न थकावट मालूम ोती ै, न मादँ गी। दोनों घायल ो र े ंै; पर कफर भी ममलने की खशु ी मंे जखमों की तकलीफ भूले ु ैं। पथृ ्वीमसंि दगु ााकँु वरर के मल क अफगानी कटार ला ैं।
िममा सिं ने राजनंिहदनी के मल काशमीर का क ब ुमलू ्य शाल जोडा मोल मलया ै। दोनों के हदन उमंगि से भरे ु ै। राजकु माररयों ने जब सनु ा कक दोनों वीर वापस आते ै, तो वे फू ले अंगि ों न समाम। शिंगृ ार ककया जाने लगा, मागँ ें मोततयों से भरी जाने लगी, उनके च रे खुशी से दमकने लगे। इतने हदनों के त्रबछो के बाद कफर ममलाप ोगा, खशु ी आखँ ों से उबली पडती ै। क दसू रे को छे डती ै और खशु ोकर गले ममलती ैं। अग न का म ीना था, बरगद की डामलयाँ में मँगू े के दाने लगे ु थ।े जोिपुर के ककले से सलाममयों की घनगरज आवाजंे आने लगी। सारे नगर में िूम मच गम कक कुँ वर पथृ ्वीमसंि सकु शल अफगातनस्तान से लौट आ । दोनों राजकु माररयाँ थाली में आरती के सामान मलये दरवाजे पर खडी थी। पथृ ्वीमसिं दरबाररयों के मजु रे लेते ु म ल मंे आ । दगु ााकँु वरर ने आरती उतारी और दोनों क दसू रे को देखकर खशु ो ग । िममा संि भी प्रसन्नता से ींिठते ु अपने म ल मंे प ुँचे; पर भीतर पैर रखने न पा थे कक छीिकं ुम और बाम आँख फडकने लगी। राजनंिहदनी आरती का थाल लेकर लपकी; पर उसका परै कफसल गया और थाल ाथ से छू ट कर धगर पडा। िममा संि का माथा ठनका और राजनंिहदनी का चे रा पीला पड गया। य असगनु क्यों? ब्रजववलामसनी ने दोनों राजकु मारों के आने का समाचार सनु कर उन दोनों को देने के मल दो अमभनंदि न-पत्र बनवा रखे थ।े सबेरे जब कुँ वर पथृ ्वीमसिं सिंध्या आहद तनत्य-कक्रया से तनपट कर बठै े , तो व उनके सामने आम और उसने क सदंुि र कु श की चँगेली मंे अमभनंिदन-पत्र रख हदया। पथृ ्वीमसिं ने उसे प्रसन्नता से ले मलया। कववता यद्यवप उतनी बहढया न थी, पर व नम और वीरता से भरी ुम थी। वे वीररस के प्रेमी थे, उसको पढकर ब ुत खुश ु और उन् ोंने मोततयों का ार उप ार हदया।
ब्रजववलामसनी य ाँ से छु ट्टी पाकर कुँ वर िममा सिं के पास प ुँची। वे बैठे ु राजनंहि दनी को लडाम की घटना ँ सुना र े थे; पर ज्यों ी ब्रजववलामसनी की आँख उन पर पडी, व सन्न ोकर पीछे ट गम। उसको देखकर िममा सिं के चे रे का भी रंिग उड गया, ोंठ सखू ग और ाथ-परै सनसनाने लगे। ब्रजववलामसनी तो उलटे पाँव लौटी; पर िममा संि ने चारपाम पर लेटकर दोनों ाथों से मँु ढँक मलया। राजनहिं दनी ने य दृय देखा और उसका फू ल-सा बदन पसीने से तर ो गया। िममा संि सारे हदन पलंिग पर चुपचाप करवटंे बदलते र े। उनका चे रा ीसा कु म् ला गया जैसे वे बरसों के रोगी ो। राजनंहि दनी उनकी सेवा मंे लगी ुम थी। हदन तो यों कटा, रात को कुँ वर सा ब सिधं ्या ी से थकावट का ब ाना करके लेट ग । राजनिहं दनी ैरान थी कक माजरा क्या ै। ब्रजववलामसनी इन् ीिं के खून की प्यासी ै? क्या य सिंभव ै कक मेरा प्यारा, मेरा मुकु ट िममा सिं ीसा कठोर ो? न ींि, न ीिं, ीसा न ीिं ो सकता। व यद्यवप चा ती ै कक अपने भावों से उनके मन का बोझ लका करे, पर न ीिं कर सकती। अतंि को नीिदं ने उसको अपनी गोद मंे ले मलया। 4 रात ब ुत बीत गम ै। आकाश में अँिरे ा छा गया ै। सारस की दःु ख से भरी बोली कभी-कभी सुनाम दे जाती ै और र -र कर ककले के सिंतररयों की आवाज कान मंे आ पडती ै। राजनिहं दनी की आँख का क खलु ी, तो उसने िममा संि को पलिगं पर न पाया। धचतिं ा ुम, व झट उठ कर ब्रजववलामसनी के कमरे की ओर चली और दरवाजे पर खडी ोकर भीतर की ओर देखने लगी। संदि े परू ा ो गया। क्या देखती ै कक ब्रजववलामसनी ाथ में तगे ा मलये खडी ै और िममा सिं दोनों ाथ जोडे उसके सामने दीनों की तर घटु ने टेके बैठे ै। व दृय देखते ी राजनहंि दनी का खनू सखू गया और उसके मसर मंे चक्कर आने लगा, परै लडखडाने लगे। जान पडता था कक धगरी जाती ै। व अपने कमरे मंे आम और मँु ढँक कर लेट र ी, पर उसकी आखँ ों से आखँ ू की क बँदू भी न तनकली।
दसू रे हदन पथृ ्वीमसंि ब ुत सबेरे ी कँु वर िममा सिं के पास ग और मुस्कराकर बोले - भैया, मौसम बडा सु ावना ै, मशकार खले ने चलते ो? िममा संि - ाँ चलो। दोनों राजकु मार ने घोडे कसवा और जंिगल की ओर चल हद । पथृ ्वीमसिं का चे रा खला ुआ था, जैसे कमल का फू ल। क- क अगिं से तजे ी और चुस्ती टपकी पडती थी, पर कुँ वर िममा सिं का चे रा मैला ो गया था, मानो बदन मंे जान ी न ीिं ै। पथृ ्वीमसिं ने उन् ंे कम बार छे डा, पर जब देखा कक वे ब ुत दःु खी ै, तो चुप ो ग । चलत-े चलते दोनों आदमी क झील के ककनारे पर प ुँत।े का क िममा सिं हठठके और बोले - मनंै े आज रात को क दृढ प्रततज्ञा की ै। य क ते-क ते उनकी आखँ ों मंे पानी आ गया। पथृ ्वीमसिं ने घबराकर पूछा - कै सी प्रततज्ञा? 'तुमने ब्रजववलामसनी का ाल सनु ा ै? मनंै े प्रततज्ञा की ै कक ग्जस आदमी ने उसके बाप को मारा ै, उसे भी ज न्नमु मंे प ुँचा दँ।ू ' 'तमु ने सचमुच वीर-प्रततज्ञा की ै।' ' ाँ, यहद मैं पूरी कर सकँू । तमु ् ारे ववचार में ीसा आदमी मारने योनय ै या न ींि?' 'ीसे तनदायी की गदान गटु ्ठल छु री से काटनी चाह ।' 'बेशक, य ी मेरा भी ववचार ै। यहद मैं ककसी कारण य काम न कर सकँू , तो तुम मेरी प्रततज्ञा पूरी कर दोगे?' 'बडी खशु ी से। उसे प चानते ो न?'
' ाँ, अच्छी तर ।' 'तो अच्छा ोगा, य काम मुझे करने दो, तमु ् ें शायद उस पर दया आ जा ।' ब ुत अच्छा; पर य याद रखो कक व आदमी बडा भानयशाली ैय कम बार मौत के मँु से बच तनकला ै। क्या आचया ै कक तमु को भी उस पर दया आ जा । इसमल तमु प्रततज्ञा करो को उसे जरूर ज न्नमु प ुँचाओगे।' 'मंै दगु ाा की शपथ खाकर क ता ूँ कक उस आदमी को अवय मारूँ गा।' 'बस, तो म दोनों ममलकर काया मसद्ध कर लेगंे। तुम अपनी प्रततज्ञा पर दृढ र ोगे न?' 'क्यो? क्या मंै मसपा ी न ींि ूँ? क बार जो प्रततज्ञा की, समझ लो कक व पूरी करूँ गा, चा े इसमंे अपनी जान ी क्यों न चली जा ।' 'सब अवस्थाओंि में?' ' ाँ, सब अवस्थाओंि मंे।' 'यहद व तमु ् ारा कोम बििं ु ो तो?' पथृ ्वीमसिं ने िममा संि को ववचारपवू का देखकर क ा - कोम बिंिु ो तो? िममा संि - ाँ, सिभं व ै कक तमु ् ारा कोम नातदे ार ो। पथृ ्वीमसिं - (जोश में) कोम ो, यहद मेरा भाम भी ो, तो भी जीता चनु वा दँ।ू िममा सिं घोडे से उतर पड।े उनका च ेरा उतरा ुआ था और ओठंि कापँ र े थे। उन् ोंने कमर से तगे ा खोलकर जमीन पर रख हदया और पथृ ्वीमसिं को ललकार
कर क ा - पथृ ्वीमसिं , तैयार ो जाओ। व दषु ्ट ममल गया। पथृ ्वीमसिं ने चौंककर इिर-उिर देखा तो िममा सिं के मसवाय और कोम हदखाम न हदया। िममा संि - तगे ा खीचिं ो। पथृ ्वीमसिं - मनंै े उसे न ीिं देखा। िममा संि - व तमु ् ारे सामने खडा ै। व दषु ्ट कु कमी िममा संि ी ै। पथृ ्वीमसिं - (घबराकर) ींि तुमय - मैं - िममा सिं - राजपूत अपनी प्रततज्ञा पूरी करो। इतना सुनते ी पथृ ्वीमसंि ने त्रबजली की तर अपने कमर से तगे ा खीिंच मलया और उसे िममा संि के सीने मंे चुभा हदया। मठू तक तगे ा चुभ गया। खून का फव्वारा ब तनकला। िममा सिं जमीन पर धगर कर िीरे से बोले - पथृ ्वीमसंि , मंै तुम् ारा ब ुत कृ तज्ञ ूँ। तमु सच्चे वीर ो। तमु ने पुरुष का कतवा ्य परु ुष की भाँतत पालन ककया। पथृ ्वीमसिं य सनु कर जमीन पर बैठ ग और रोने लगे। 5 आज राजनहिं दनी सती ोने जा र ी। उसने सोल ों शिंगृ ार कक ै और मागँ मोततयों से भरवाम ै। कलाम मंे सो ाग का किं गन ै, परै ों मंे म ावर लगाम ै और लाल चनु री ओढी ै। उसके अंिग से सगु िंधि उड र ी ै, क्योंकक आज व सती ोने जाती ै।
राजनहिं दनी का चे रा सयू ा की भाँतत प्रकाशमान ै। उसकी ओर देखने से आँखों से अलौककक प्रकाश तनकल र ा ै। व आज स्वगा की देवी जान पडती ै। उसकी चाल बडी मदमाती ै। व अपने प्यारे पतत का मसर अपने गोद में लेती ै और उस धचता में बैठ जाती ै जो चंदि न, खस आहद से बनाम गम ै। सारे नगर के लोग य दृय देखने के मल उमड चले आते ैं। बाजे बज र े ैं, फू लों की वगृ ्ष्ट ो र ी ै। सती धचता पर बठै चकु ी थी कक इतने में कुँ वर पथृ ्वीमसिं आ और ाथ जोडकर बोले - म ारानी, मेरा अपराि षों मा करो। सती ने उत्तर हदया - षों मा न ींि ो सकता। तुमने क नौजवान राजपतू की जान ली ै, तमु भी जवानी मंे मारे जाओगे। सती के वचन कभी झूठे ु ैं? का क धचता मंे आग लग गम। जयजयकार के शब्द गँूजने लगे सती का मखु आग मंे यों चमकता था, जैसे सबेरे की ललाम में सूया चमकता ै। थोडी देर मंे व ाँ राख के ढेर के मसवा और कु छ न र ा। इस सती के मन मंै कै सा सत थाय परसों जब उसने ब्रजववलामसनी को झझक कर िममा सिं के सामने जाते देखा था, उसी समय से उसके हदल में सिंदे ो गया था। पर जब रात को उसने देखा कक मेरा पतत इसी स्त्री के सामने दु खया की तर बठै ा ुआ ै, तब व संदि े तनचय की सीमा तक प ुँच गया और य ी तनचय अपने साथ सत लेता आया था। सबेरे जब िममा संि उठे तब राजनहिं दनी ने क ा था कक मंै ब्रजववलामसनी के शत्रु का मसर चा ती ूँ, तमु ् ंे लाना ोगा। और ीसा ी ुआ। अपने सती ोने के कारण राजनिंहदनी ने खुद पैदा कक थे, क्योंकक उसके मन मंे सत था। पाप की आग कै से तजे ोती ै? क पाप ने ककतनी जानंे लीिं? राजवंशि के दो राजकु मार और दो कु माररयाँ देखत-े देखते इस अग्ननकिंु ड में स्वा ा ो गम। सती का वचन सच ुआ। सात ी सप्ता के भीतर पथृ ्वीमसंि हदल्ली में कत्ल कक ग और दगु ााकुँ वरर सती ो गम। ***
आभषू ण आभूषणों की तनदिं ा करना मारा उद्दे य न ीिं ै। म अस योग का उत्पीडन स सकते ै पर ललनाओिं के तनदाय, घातक वाक्यबाणों को न ींि ओढ सकत।े तो भी इतना अवय क ेंगे कक इस तषृ ्णा की पतू ता के मल ग्जतना त्याग ककया जाता ै, उसका सदपु योग करने से म ान पद प्राप्त ो सकता ै। यद्यवप मने ककसी रूप- ीना मह ला को आभूषणों की सजावट से रूपवती ोते न ींि देखा, तथावप म य भी मान लेते ंै कक रूप के मल आभूषणों की उतनी ी जरूरत ै, ग्जतनी घर के मल दीपक की। ककिं तु शारीररक शोभा के मल म तन को ककतना ममलन, धचत्त को ककतना अशांित और आत्मा को ककतना कु लवषत बना लेते ैं? इसका में कदाधचत ज्ञान ी न ींि ोता। इस दीपक की ज्योतत मंे आँखंे िुिँ ली ो जाती ैं। य चमक-दमक ककतनी मष्याा, ककतने द्वेष, ककतनी प्रततस्पिाा, ककतनी दगु ्चिंता और ककतनी दरु ाशा का कारण ै; इसकी के वल कल्पना से ी रोंगटे खडे ो जाते ैं। इन् ंे भषू ण न ींि, दषू ण क ना अधिक उपयुक्त ै। न ींि तो य कब ो सकता था कक कोम नवविू पतत के घर आने के तीसरे तीन अपने पतत से क ती कक मेरे वपता ने तमु ् ारे पल्ले बाँि कर मझु े तो कु ँ मंे ढके ल हदया। शीतला आज अपने गाँव के ताल्लके दार कुँ वर सरु ेशमसंि की नववववाह ता विू को देखने गम थी। उसके सामने ी व मंित्रमनु ि-सी ो गम। ब ू के रूप-लावण्य पर न ीिं, उसके आभषू णों की जगमगा ट पर उसकी टकटकी लगी र ी। और व जब से लौट कर घर आम, उसकी छाती पर साँप लोटता र ा। अतंि को ज्यों ी उसका पतत आया, व उस पर बरस पडी और हदल मंे भरा ुआ गबु ार पूवोक्त शब्दों में तनकल पडा। शीतला के पतत का नाम ववमलमसिं था। उनके पुरखे ककसी जमाने के इलाके दार थ।े इस गाँव पर भी उन् ींि का सोल ों आने अधिकार था। लेककन अब इस घर की दशा ीन ो गम थी। सरु ेशमसंि के वपता जमीिदं ारी के काम में दषों थे। ववमलमसंि का सब इलाका ककसी न ककसी प्रकार से उनके ाथ आ गया। ववमल के पास सवारी का टट्टू भी न था, उसे हदन मंे दो बार भोजन भी मगु ्कल से ममलता था। उिर
सुरेश के पास ाथी मोटर और कम घोडे थे, दस-पाँच बा र के आदमी तनत्य द्वार पर पडे र ते थ।े पर इतनी ववषमता ोने पर भी दोनों में भामचारा तनभाया जाता था। शादी-ब्या मंे मडिं न-छे दन मंे परस्पर आना-जाना ोता र ता था। सरु ेश ववद्या-प्रेमी थ।े ह दिं सु ्तान मंे ऊँ ची मशषों ा समाप्त करके चले ग और लोगों की शिंकाओिं के ववपरीत, व ाँ से आय-ा सभ्यता के परम भक्त बनकर लौटे। व ाँ के जडवाद, कृ ममत्र भोगमलप्सा और अमानवु षक मदांििता ने उनकी आँखें खोल दी थी। प ले व घरवालों के ब ुत जोर देने पर भी वववा करने को राजी न ींि ु थ।े लडकी से पवू -ा पररचय ु त्रबना प्रणय न ींि कर सकत थ।े पर यरू ोप से लौटने पर उनके ववै ाह क ववचारों मंे ब ुत बडा पररवतना ो गया। उन् ोंने उसी प ले की कन्या से, त्रबना उसके आचार-ववचार जाने ु वववा कर मलया। अब व वववा को प्रेम का बििं न न ींि, िमा का बिंि न समझते थे। उसी सौभानयवती विू को देखने के मल आज शीतला, अपनी सास के साथ, सुरेश के घर गम थी। उसी के आभषू णों की छटा देखकर व ममाा त-सी ो गम ै। ववमल ने व्यधथत ोकर क ा - तो माता-वपता से क ा ोता, सरु ेश से ब्या कर देत।े व तुम् ें ग नों से लाद सकते थे? शीतला - तो गाली क्यों देते ो? ववमल - गाली न ींि देता, बात क ता ूँ। तमु जसै ी सिंदु री को उन् ोंने ना क मेरे साथ ब्या ा। शीतला - लजाते तो ो न ीिं, उलटे और ताने देते ो। ववमल - भानय मेरे वश में न ींि ै। इतना पढा भी न ीिं ूँ कक कोम बडी नौकरी करके रुप कमाऊँ ? शीतला - य क्यों न ीिं क ते कक प्रेम ी न ीिं ै। प्रेम ो, तो कंि चन बरसने लगे।
ववमल - तमु ् ंे ग नों से ब ुत प्रेम ै? शीतला - सभी को ोता ै। मुझे भी ै। ववमल - अपने को अभाधगनी समझती ो? शीतला - ूँ ी, समझना कै सा? न ीिं तो क्या दसू रे को देखकर तरसना पडता? ववमल - ग ने बनवा दँ ू तो अपने को भानयवती समझने लगोगी? शीतला - (धचढकर) तुम तो इस तर पछू र े ो, जसै े सुनार दरवाजे पर बैठा ैय ववमल - न ीिं, सच क ता ूँ, बनवा दँगू ा। ा,ँ कु छ हदन सबर करना पडगे ा। 2 समथा पुरुषों को बात लग जाती ै, तो प्राण ले लेते ैं। सामथ्या ीन परु ुष अपनी ी जान पर खले जाता ै। ववमलमसंि ने घर से तनकल जाने की ठानी। तनचय ककया, या तो इसे ग नों से ी लाद दँगू ा या विै व्य शोक से। या तो आभषू ण ी प नगे ी या संेदरु को भी तरसेगी। हदन भर व धचतिं ा मंे डू बा पडा र ा। शीलता को उसने प्रेम से सिंतषु ्ट करना चा ा था। आज अनभु व ुआ कक नारी का हृदय प्रेमपाश से न ींि बँिता, कंि चन के पाश ी से बँि सकता ै। प र रात जात-े जाते व घर से चल खडा ुआ। पीछे कफर कर कभी न देखा। ज्ञान से जागे ु ववराग मंे चा े मो का संसि ्कार ो, पर नैराय से जागा ुआ ववराग अचल ोता ै। प्रकाश मंे इिर की वस्तुओंि को देखकर मन ववचमलत ो सकता ै। पर अििं कार में ककसका सा स ै, जो लीक से जौ भर ट सके ।
ववमन के पास ववद्या न थी, कला-कौशल भी न था। उसे के वल अपने कहठन पररश्रम और कहठन आत्म-त्याग ी का आिार था। व प ले कलकत्ते गया। व ाँ कु छ हदन तक क सेठ की अगवानी करता र ा। व ाँ जो सनु पाया कक रंिगनू में मजदरू ी अच्छी ममलती ै, तो व रिंगून जा प ुँचा और बदिं र पर माल चढाने-उतारने का काम करने लगा। कु छ तो कहठन श्रम, कु छ खाने-पीने के असियं म और कु छ जलवायु की खराबी के कारण व बीमार ो गया। शरीर दबु ला ो गया, मखु की कातिं त जाती र ी; कफर भी उससे ज्यादा मे नती मजदरू बदिं र पर दसू रा न था। और मजदरू थे, पर य मजदरू तपस्वी था। मन में जो कु छ ठान मलया था, उसे पूरा करना उसके जीवन का कमात्र उद्दे य था। उसने घर को अपना कोम समाचार न भेजा। अपने मन से तका ककया, घर में मेरा कौन ह तू ै? ग नों के सामने मुझे कौन पछू ता ै? उसकी बुवद्ध य र स्य समझने में असमथा थी कक आभषू णों की लालसा र ने पर भी प्रणय का पालन ककया जा सकता ै। और मजदरू प्रातःकाल सेरों ममठाम खाकर जलपान करते थे। हदन भर दम-दम भर पर गाजँ े-चरस और तमाखू के दम लगाते थे। अवकाश पात,े तो बाजार की सरै करते थे। ककतनों ी को शराब का भी शौक था। पसै ों के बदले रुप कमाते थे, तो पैसो की जग रुप खचा भी कर डालते थे। ककसी की दे पर साबतू कपडे तक न थे; पर ववमल उन धगनती के दो-चार मजदरू ों में था, जो सिंयम मंे र ते थ।े , ग्जनके जीवन का उद्देय संिपग्त्त ो गम। िन के साथ और मजदरू ों पर दबाव भी बढने लगा। य प्रायः सभी जानते थे कक ववमल जातत का कु लीन ठाकु र ै। सब ठाकु र ी क कर उसे पकु ारते थ।े संयि म और आचार सम्मान-मसवद्ध के मतंि ्र ै। ववमल मजदरू ों का नते ा और म ाजन ो गया। ववमल को रंिगून में काम करते ु तीन वषा ो ग थे। सिंध्या ो गम थी। व कम मजदरू ों के साथ समुर के ककनारे बैठा बातें कर र ा था।
क मजदरू ने क ा - य ाँ की सभी ग्स्त्रयाँ तनठु र ोता ै। बेचारा झीिंगरु 10 बरस से उसी बमी स्त्री के साथ र ता था। कोम अपनी ब्या ी जोरू से भी इतना प्रेम न करता ोगा। उस पर इतना वववास क ते था कक जो कु छ कमाता, सो उसके ाथ मंे रख देता था। तीन लडके थ।े अभी कल तक दोनों साथ-साथ खा कर लेटे थे। न कोम लडाम, न बात, न चीत। रात को औरत न जाने क ाँ चली गम। लडकों को भी छोड गम। बेचारा झींगि रु रो र ा ै। सबसे बडी मगु ्कल तो छोटे बच्चे की ै। अभी कु ल छ म ीने का ै। कै से ग्ज गा। भगवान ी जानंे। ववमलमसंि ने गभंि ीर भाव से क ा - ग ने बनवाता था कक न ीिं? मजदरू - रुप -पैसे तो औरत ी के ाथ में थ।े ग ने बनवाती थी, उसका ाथ कौन पकडता? दसू रे मजदरू ने क ा - ग नों से तो लदी ुम थी। ग्जिर सा तनकल जाती थी, छम-छम की आवाज से कान भर जाते थ।े ववमल - जब ग ने बनवाने पर भी तनठु राम की, तो य ी क ना पडगे ा कक य जातत ी बेवफा ोती ै। इतने में क आदमी आकर ववमलमसिं से बोला - चौिरी, अभी मझु े क मसपा ी ममला था। व तमु ् ारा नाम, गाँव और बाप का नाम पूछ र ा था। कोम बाबू सुरेशमसंि ै। ववमल ने सशंिक ोकर क ा - ाँ, ैं तो मेरे गाँव के इलाके दार और त्रबरादरी के भाम ै। आदमी - उन् ोंने थाने मंे नोहटस छपवाया ै कक जो ववमलमसंि का पता लगावेगा उसे 1000 रुप का इनाम ममलेगा।
ववमल - तो तुमने मसपा ी को सब ठीक-ठीक बता हदया? आदमी - चौिरी, मंै कोम गँवार ूँ क्या? समझ गया कु छ दाल में काला ै; न ीिं तो कोम आदमी इतने रुप क्यों खरच करता। मनंै े क हदया कक उसका नाम ववमलमसिं न ींि जसोदा पाँडे ै। बाप का नाम सकु ्खू बताया और घर ग्जला झासँ ी। पछू ने लगा, य ाँ ककतने हदन से र ता ै? मनैं े क ा, कोम दस साल स।े तब कु छ सोचकर चला गया। सरु ेश बाबू से तमु से कोम अदावत ै क्या चौिरी? ववमल - अदावत तो न ीिं थी, मगर कौन जाने, उनकी नीयत त्रबगड गम ो। मझु पर कोम अपराि लगाकर मेरी जग -जमीन पर ाथ बढाना चा ते ों। तुमने बडा अच्छा ककया कक मसपा ी को उडनझामँ बताम। आदमी - मुझसे क ता था कक ठीक-ठीक बता दो, तो 50 रु. तमु ् ें भी हदला दँ।ू मनैं े सोचा - आप तो जार की गठरी मारेगा और मुझे 50 रु. हदलाने की बात करता ै। फटकार बता दी। क मजदरू - मगर जो 200 रु. देने को क ता, तो तमु सब ठीक-ठीक नाम- हठकाना बता देत।े क्यो? ित ्ु तरे े लालच कीय आदमी - (लग्ज्जत ोकर) 200 रु न ीिं 2000 रु. भी देता, तो न बताता। मुझे ीसा वववासघात करनेवाला मत समझो। जब जी चा े, परख लो। मजदरू ों में यों वाद-वववाद ोता ी र ा, ववमल आकर अपनी कोठरी में लेट गया। व सोचने लगा - अब क्या करूँ ? जब सुरेश जसै े सज्जन की नीयत बदल गम, तो अब ककस पर भरोसा करूँ य न ींि, अब त्रबना घर ग काम न ींि चलेगा। कु छ हदन और न गया तो कफर क ीिं का न ूँगा। दो साल और र जाता, तो पास में परू े 5000 रु. ो जात।े शीतला की इच्छा कु छ परू ी ो जाती। अभी तो सब ममलाकर 3000 रु. ी ोंगे। इतने में उसकी अमभलाषा न पूरी ोगी। खैर अभी चलँू, छ म ीने में कफर लौट आऊँ गा। अपनी जायदाद तो बच जा गी।
न ींि छ म ीने मंे र ने का क्या ै। जाने-आने का क म ीना लग जा गा। घर में 15 हदन से ज्यादा न र ूँगा। व ाँ कौन पूछता ै, आऊँ या र ूँ, मरूँ या ग्जऊँ , व ाँ तो ग नों से प्रेम ै। इस तर मन मंे तनचय करके व दसू रे हदन रंिगनू से चल पडा। 3 संसि ार क ता ै कक गणु के सामने रूप की कोम स्ती न ी।ंि मारे नीतत शास्त्र के आचायों का भी य ी कथन ै; पर वास्तव मंे य ककतना भ्रममलू क ैय कँु वर सरु ेशमसंि की नवविू मंगि लाकु मारी गृ -काया मंे तनपुण, पतत के इशारे पर प्राण देनवे ाली, अत्यंित ववचारशीला, मिरु -भावषणी और िमा-भीरू स्त्री थी; पर सौंदय-ा वव ीन ोने के कारण पतत की आँखों में काँटे के समान खटकती थी। सरु ेशमसंि बात-बात पर उस पर झँझु लात,े पर घडी भर मंे पचात्ताप के वशीभूत ोकर उससे षों मा मागँ त;े ककंि तु दसू रे ी हदन व ी कु ग्त्सत व्यापार शुरू ो जाता। ववपग्त्त य थी कक उनके आचरण अन्य रमसों की भाँतत भ्रष्ट न थ।े व दिंपग्त्त जीवन ी में आनदंि , सखु , शातिं त, वववास, प्रायः सभी ीह क और पारमाधथका उद्दे य पूरा करना चा ते थ।े और दािपं त्य सखु से वधंि चत ोकर उन् ें अपना समस्त जीवन नीरस, स्वाद- ीन और किंु हठत जान पडता था। फल य ुआ कक मिगं ला को अपने ऊपर वववास न र ा। व अपने मन से कोम काम करते ु डरती कक स्वामी नाराज ोंगे। स्वामी को खशु रखने के मल अपनी भलू ों को तछपाती, ब ाने करती, झूठ बोलती। नौकरों को अपराि लगाकर आत्मरषों ा करना चा ती। पतत को प्रसन्न रखने के मल उसने अपने गणु ों की, अपनी आत्मा की अव ेलना की; पर उठने के बदले व पतत की नजरों से धगरती ी गम। तनत्य न शंिगृ ार करती, पर लक्ष्य से दरू ोती जाती थी। पतत की क मिुर मुस्कान के मल , उनके अिरों के क मीठे शब्द के मल उसका प्यासा हृदय तडप-तडपकर र जाता था। लावण्य-वव ीन स्त्री व मभषों ुक न ींि ै, जो चिंगलु भर आटे से संति ुष्ट ो जा । व भी पतत का सपंि ूण,ा अखंडि प्रेम चा ती ै,
और कदाधचत सिंदु ररयों से अधिक, क्योंकक व इसके मल असािारण प्रयत्न और अनुष्ठान करती ै। मंिगला इस प्रयत्न से तनष्फल ोकर और भी सतंि प्त ोती थी। िीरे-िीरे पतत पर से उसकी श्रद्धा उठने लगी। उसने तका ककया कक ीसे क्रू र, हृदय-शून्य, कल्पना- ीन मनषु ्य से मैं भी उसी का-सा व्यव ार करूँ गी। जो पुरुष रूप का भक्त ै, व प्रेम-भग्क्त के योनय न ींि। इस प्रत्याघात ने समस्या और भी जहटल कर दी। मगर मंगि ला की के वल अपनी रूप- ीनता ी का रोना न थी। शीतला का अनपु म रूपलामलत्य भी उसकी कामनाओंि का बािक था; बग्ल्क य उसकी आशालताओिं पर पडने वाला तुषार था। मंगि ला सदुंि री न स ी, पर पतत पर जान देती थी। जो अपने को चा े, उससे म ववमखु न ींि ो सकत।े प्रेम की शग्क्त अपार ै; पर शीतला की मतू ता सुरेश के हृदय-द्वार पर बैठी ुम मिगं ला को अिदं र न जाने देती थी, चा े व ककतना ी वेष बदलकर आवे। सरु ेश इस मूतता को टाने की चषे ्टा करते थे, उसे बलात तनकाल देना चा ते थे; ककंि तु सौंदया का आधिपत्य िन के आधिपत्य से कम दतु नवा ार न ींि ोता। ग्जस हदन शीतला इस घर में मिंगला का मखु देखने आम थी उसी हदन सुरेश की आँखों ने उसकी मनो र छवव की क झलक देख ली थी। व क झलक मानो क षों णक कक्रया था, ग्जसने क ी िावे में समस्त हृदय-राज्य को जीत मलया, उसपर अपना आधिपत्य जमा मलया। सुरेश काितं मंे बठै े ु शीतला के धचत्र को मगंि ला से ममलाते य तनचय करने के मल कक उनमें क्या अंितर ै? क क्यों मन को खीचिं ती ै, दसू री क्यों उसे टाती ै? पर उसके मन का य खचिं ाव के वल क धचत्रकार या कवव का रसास्वादन-मात्र था। व पववत्र और वासनाओिं से रह त था। व मतू ता के वल उसके मनोरिंजन की सामग्री-मात्र थी। य अपने मन को ब ुत समझात,े सकंि ल्प करते कक अब मगंि ला को प्रसन्न रखगूँ ा। यहद व सदिुं र न ींि ै, तो उसका क्या दोष? पर उनका य सब प्रयास मगिं ला के सम्मखु जाते ी ववफल ो जाता था।
व बडी सूक्ष्म दृग्ष्ट से मगिं ला के मन के बदलते ु भावों को देखते थे; पर क पषों ाघात-पीडडत मनषु ्य की भाँतत घी के घडे को लढु कते देखकर भी रोकने का कोम उपाय न कर सकते थे। पररणाम क्या ोगा, य सोचने का उन् ें सा स ी न ोता था। पर जब मिंगला ने अंति को बात-बात में उनकी तीव्र आलोचना करना शुरू कर हदया, व उनसे उच्छृ िं खलता का व्यव ार करने लगी, तो उसके प्रतत उनका व उतना सौ ारा भी ववलुप्त ो गया; घर मंे आना-जाना छोड हदया। क हदन सधंि ्या के समय बडी गरमी थी। पखिं ा झलने से आग और भी द कती थी। कोम सैर करने बगीचों मंे भी न जाता था। पसीने की भाँतत शरीर से सारी स्फू तता ब गम थी, जो ज ाँ था, व ींि मुदा-ा सा पडा था। आग से सेके ु मदृ िंग की भातँ त लोग के स्वर कका श ो ग थे। सािारण बातचीत मंे भी लोग उत्तगे ्जत ो जाते थे, जैसे सािारण संिघषणा से वन जल उठते ै। सुरेशमसंि कभी चार कदम ट लने थे, कफर ाफँ कर बैठ जाते थे। नौकरों पर झँुझला र े थे कक जल्द-जल्द तछडकाव क्यों न ींि करत।े स सा उन् ें अिदं र से गाने की आवाज सुनाम दी। चौंके , कफर क्रोि आया। मिुर गान कानों को अवप्रय जान पडा। य क्या बेवक्त की श नाम ैय य ाँ गरमी के मारे दम तनकल र ा ै और इन सबको गाने की सूझी ैय मंिगला ने बलु ाया ोगा, और क्या। लोग ना क क ते ै कक ग्स्त्रयों का जीवन का आिार प्रेम ै। उनके जीवन का आिार व ी भोजन- तनरा, राग-रिंग, आमोद-प्रमोद ै, जो समस्त प्रा णयों का ै। घंटि े भर तो सुन चकु ा। य गीत कभी बदंि भी ोगा या न ीं।ि सब व्यथा में गला फाड-फाडकर धचल्ला र ी ै। अंित को न र ा गया। जनानेखाने मंे आकर बोले - य तमु लोगों ने क्या कावँ - काँव मचा रखी ै? य गाने-बजाने का कौन-सा समय ै? बा र बैठना मुग्कल ो गयाय सन्नाटा छा गया। जसै े शोरगुल मचानेवाले बालकों में मास्टर प ुँच जा । सभी ने मसर झुका मल और मसमट गम।
मगंि ला तुरिंत उठकर सामने वाले कमरे में चली गम। पतत को बुलाया और आह स्ते से बोली - क्यों इतना त्रबगड र े ो? 'मैं इस वक्त गाना न ींि सनु ना चा ता।' 'तमु ् ें सुनाता ी कौन ै? क्या मेरे कानों पर भी तुम् ारा अधिकार ै?' 'फजूल की बमचख...।' 'तुमसे मतलब?' 'मैं अपने घर मंे य कोला ल न मचने दँगू ा?' 'तो मेरा घर क ींि और ै?' सुरेश ने इसका उत्तर न देकर बोले - इस सबसे कब दो, कफर ककसी वक्त आ िं। मगंि ला - इसमल कक तमु ् ंे इनका आना अच्छा न ींि लगता? ' ाँ, इसमल ।' 'तमु क्या सदा व ी करते ो, जो मझु े अच्छा लगे? तमु ् ारे य ाँ ममत्र आते ै, ँसी-ठट्ठे की आवाज अिंदर सुनाम देती ै। मंै कभी न ींि क ती कक इन लोगों का आना बदंि कर दो। तुम मेरे कामों मंे दस्तंिदाजी क्यों करते ो?' सरु ेश ने तजे ोकर क ा - इसमल कक मैं घर का स्वामी ूँ। मंगि ला - तमु बा र के स्वामी ो; य ाँ मेरा अधिकार ै।
सरु ेश - क्यों व्यथा की बक-बक करती ो? मझु े धचढाने से क्या ममलेगा? मिंगला जरा देर चपु चाप खडी र ी। व पतत के मनोगत भावों की मीमासंि ा कर र ी थी। कफर बोली - अच्छी बात ै। जब इस घर में मेरा कोम अधिकार न ींि, तो न र ूँगी। अब तक भ्रम मंे थी। आज तमु ने व भ्रम ममटा हदया। मेरा इस घर पर अधिकार कभी न ींि था। ग्जस स्त्री का पतत के हृदय पर अधिकार न ीिं, उसका उसकी सपंि ग्त्त पर भी कोम अधिकार न ीिं ो सकता। सुरेश ने लग्ज्जत ोकर क ा - बात का बतंिगड क्यों बनाती ोय मेरा य मतलब न था। कु छ का कु छ समझ गम। मंगि ला - मन की बात आदमी के मँु से अनायास ी तनकल जाती ै। साविान ोकर म अपने भावों को तछपा लेते ंैय सुरेश को अपनी असज्जनता पर दःु ख तो ुआ, पर इस भय से कक मैं इसे ग्जतना ी मनाऊँ गा, उतना ी य और जली-कटी सनु ा गी, उसे व ी छोडकर बा र चले आ । प्रातःकाल ठिं डी वा चल र ी थी। सुरेश खुमारी में पडे ु स्वप्न देख र े थे कक मंिगला सामने से चली आ र ी ै। चौंक पड।े देखा, द्वार पर सचमुच मंगि ला खडी ै। घर की नौकरातनयाँ आचँ ल से आँखंे पोंछ र ी ै। कम नौकर आस-पास खडे ंै। सभी की आँखंे सजल औऱ मखु उदास ैं। मानो ब ू ववदा ो र ी ै। सुरेश समझ ग कक मगंि ला को कल की बात लग गम। पर उन् ोंने उठकर कु छ पछू ने की, मनाने की या समझाने की चषे ्टा न ीिं की। य मेरा अपमान कर र ी ै, मेरा मसर नीचा कर र ी ै। ज ाँ चा ंे, जा । मझु से कोम मतलब न ीिं। यों त्रबना कु छ पूछे -गाछे चले जाने का अथा य ै कक मंै इसका कोम न ी।ंि कफर मंै इसे रोकनवे ाला कौनय व यों ी जडवत ्ु पडे र े और मगंि ला चली गम। उनकी तरफ मँु उठाकर भी न ताका।
4 मंिगला पाँव-पैदल चली जा र ी थी। क बडे ताल्लुके दार की औरत के मल य मामलू ी बात न थी। र ककसी को ह म्मत न पडती थी कक उससे कु छ क े। परु ुष उसकी रा छोडकर ककनारे खडे ो जाते थ।े नाररयाँ द्वार पर खडी करुण- कौतू ल से देखती थी और आँखों से क ती थीिं - ा तनदायी परु ुषय इतना भी न ो सका कक क डोला तो बैठा देताय इस गाँव से तनकलकर उस गावँ में प ुँची, ज ाँ शीतला र ती थी। शीतला सनु ते ी द्वार पर आकर खडी ो गम और मगंि ला से बोली - ब न, जरा आकर दम ले लो। मंिगला ने अिंदर जाकर देखा तो मकान जग -जग से धगरा ुआ था। दालान मंे क वदृ ्धा खाट पर पडी थी। चारों ओर दरररता के धचह्न हदखाम देते थ।े शीतला ने पछू ा - य क्या ुआ? मिंगला - जो भानय में मलखा था। शीतला - कुँ वर जी ने कु छ क ा-सनु ा था। मंगि ला - मँु से कु छ न क ने पर भी तो मन की बात तछपी न ीिं र ती। शीतला - अरे, तो क्या अब य ाँ तक नौबत आ गम? दःु ख की अंति तम दशा संकि ोच- ीन ोती ै। मगंि ला ने क ा - चा ती, तो अब भी पडी र ती। उसी घर में जीवन कट जाता। पर ज ाँ प्रेम न ीिं, पछू न ीं,ि मान न ीिं, व ाँ अब न ीिं र सकती।
शीतला - तुम् ारा मैका क ाँ ै? मिंगला - मकंै े कौन मँु लेकर जाऊँ गी? शीतला - तब क ाँ जाओगी? मंगि ला - मवर के दरबार मंे। पछू ू ँगी कक तमु ने मुझे सिदुं रता क्यों न ींि दी? बदसरू त क्यों बनाया? ब न, स्त्री के मल इससे अधिक दभु ाना य की बात न ीिं कक व रूप- ीन ो। शायद प ले जनम की वपशाधचतनयाँ ी बदसरू त औरतंे ोती ैं। रूप से प्रेम ममलता ै और प्रमे से दलु भा कोम वस्तु न ींि ै। य क कर मिंगला उठ खडी ुम। शीतला ने उसे रोका न ी।ंि सोचा - इसे क्या खलाऊँ गी। आज तो चलू ् ा जलने की भी कोम आशा न ी।ंि उसके जाने के बाद व देर तक बैठी सोचती र ी, मंै कै सी अभाधगन ूँ। ग्जस प्रेम को न पाकर य बेचारी जीवन को त्याग र ी ै, उसी प्रेम को मनैं े पावँ से ठु करा हदया। इसे जवे र की क्या कमी थी? क्या ये सारे जडाऊ जेवर इसे सुखी रख सके ? इसने उन् ंे पाँव से ठु करा हदया। उन् ींि आभूषणों के मल मनैं े अपना सवसा ्व खो हदया। ाय न जाने व (ववमलमसिं ) क ाँ ै, ककस दशा में ैय अपनी लालसा को, तषृ ्णा को व ककतनी ी बार धिक्कार चुकी थी। मंगि ला की दशा देखकर आज उसे आभषू णों से घणृ ा ो गम। ववमल को घर छोडे दो साल ो ग थे। शीतला को अब उनके बारे मंे भातँ त- भातँ त की शिंका ँ ोने लगी थी। आठों प र उसके धचत्त मंे नलातन और षों ोभ की आग सुलगा करती थी।
दे ात के छोटे-मोटे जमीदंि ारों का काम डाँट-डपट, छीन-झपट ी से चला करता ै। ववमल की खते ी बेगार मंे ोती थी। उसके जाने के बाद सारे खते परती र ग । कोम जोतनेवाला न ममला। इस खयाल से साझे पर भी ककसी ने न जोता कक बीच मंे क ीिं ववमलमसिं आ ग , तो साझदे ार को अँगूठा हदखा देंगे। असममयों ने लगान न हदया। शीतला ने म ाजन से रुप उिार लेकर काम चलाया। दसू रे वषा भी य ी कै कफयत र ी। अबकी म ाजन ने रुप न ींि हद । शीतला के ग नों के मसर गम। दसू रा साल समाप्त ोत-े ोते घर की सब लेम- पँजू ी तनकल गम। फाके ोने लगे। बूढी सास, छोटा देवर, ननद और आप - चार प्रा णयों का खचा था। नात-ह त भी आते ी र ते थे। उस पर य और मसु ीबत ुम कक मकैं े में क फौजदारी ो गम। वपता और बडे भाम उसमंे फँ स ग । दो छोटे भाम, क ब न औऱ माता चार प्राणी और सर पर आ डटे। गाडी प ले मगु ्कल से चलती थी, अब जमीन मंे िसँ गम। प्रातःकाल से कल आरिंभ ो जाता। समधिन समधिन से, साले ब नोम से गथु जात।े कभी तो अन्न के अभाव के कारण खाने की नौबत न आती। लडके दसू रों के खेतों मंे जाकर गन्ने और मटर खाते; बहु ढया दसू रो के घर जाकर अपना दखु डा रोती और ठकु रसो ाती क ती, परु ुष की अनपु ग्स्थतत मंे स्त्री के मैके वालों का प्रािान्य ो जाता ै। इस सगंि ्राम में प्रायः ववजय-पताका मैके वालों ी के ाथ मंे र ती ै। ककसी भातँ त िर अनाज आ जाता, तो उसे पीसे कौन? शीतला की माँ क ती, चार हदन के मल आम ूँ, तो क्या चक्की चलाऊँ ? सास क ती, खाने की बेर तो त्रबल्ली की तर लपकें गी, पीसते क्यों जान तनकलती ै? वववश ोकर शीतला को अके ले पीसना पडता। भोजन के समय व म ाभारत मचता कक पडोसवाले तगंि आ जात।े शीतला कभी माँ से परै ों पडी, कभी सास के चरण पकडती, लेककन दोनों ी उसे झडक देती। माँ क ती, तूने य ाँ बलु ाकर मारा पानी उतार मलया। सास क ती, मेरी छाती पर सौत लाकर बठै ा दी, अब बातें बनाती ै? इस घोर वववाद में शीतला अपना ववर -शोक भलू गम। सारी अमगंि ल शिंका ँ इस ववरोिाग्नन मंे शांति ो गम। बस, अब य ी धचतंि ा थी कक इस दशा से
छु टकारा कै से ो? माँ और सास, दोनों ी का यमराज के मसवा और कोम हठकाना न था; पर यमराज उनका स्वागत करने के मल ब ुत उत्सुक न ींि जान पडते थ।े सकै डों उपाय सोचती; पर उस पधथक की भाँतत, जो हदन भर चलकर भी अपने द्वार ी पर खडा ो उसकी सोचने की शग्क्त तनचल ो गम। चारों तरफ तनगा ें दौडाती कक क ींि कोम शरण का स्थान ै? पर क ीिं तनगा न जमती। क हदन व इसी नरै ाय की अवस्था मंे द्वार पर खडी थी। मसु ीबत मंे, धचत्त की उद्ववननता में, इिंतजार में द्वार से में प्रेम ो जाता ै। स सा उसने बाबू सुरेशमसिं को सामने से घोडे पर जाते देखा। उनकी आँखंे उसकी ओर कफरीिं। आँखंे ममल गम। व झझक कर पीछे ट गम। ककवाडे बिंद कर मलये। कँु वर सा ब आगे बढ ग । शीतला को खेद ुआ कक उन् ोंने मुझे देख मलया। मेरे मसर पर साडी फटी ुम थी, चारों तरफ उसमें पैबंदि लगे ु थे। व अपने मन मंे न जाने क्या क ते ोंगे? कँु वर सा ब को गाँववालों से ववमलमसंि के पररवार के कष्टों की खबर ममली थी। व गुप्तरूप से उनकी कु छ स ायता करना चा ते थे। पर शीतला को देखते ी सिकं ोच ने उन् ंे ीसा दबाया कक द्वार पर क षों ण भी न रुक सके । मंिगला के गृ -त्याग के तीन म ीने पीछे आज व प ली बार घर से तनकले थ।े मारे शमा के बा र बैठना छोड हदया था। इसमें सिंदे न ींि कक कँु वर सा ब मन में शीतला के रूप-रस का आस्वादन करते थे। मिंगला के जाने के बाद उनके हृदय मे क ववधचत्र दषु ्कामना जाग उठी। क्या ककसी उपाय से य सिुदं री मेरी न ीिं ो सकती? ववमल का मदु ्दत से पता न ीि।ं ब ुत सभंि व ै कक व अव ससिं ार मंे न ो। ककिं तु व इस दषु ्कामना को ववचार के दबाते र ते थ।े शीतला की ववपग्त्त की कथा सनु कर भी व उसकी स ायता करते ु डरते थे। कौन जाने, वासना य ी वषे रखकर मेरे ववचार और वववके पर कु ठाराघात करना चा ती ो। अिंत को लालसा की कपट-लीला उन् ंे भुलावा दे ी गम। व शीतला के घर उसका ालचाल पछू ने ग । मन में तका
ककया - य ककनता घोर अन्याय ै कक क अबला ीसे संिकट में ो और मैं उसकी बात भी न पछू ू ँ? पर व ाँ से लौटे तो बुवद्ध और वववके की रग्स्सयाँ टू ट गम थीिं और नौका मो वासना के अपार सागर मंे डू बककयाँ खा र ी थी। आ य य मनो र छववय य अनपु म सौंदयया क षों ण में उन्मत्तों की भाँतत बकने लगे - य प्राण और य शरीर तरे ी भेंट करता ूँ। ससंि ार ँसेगा, ँसे। म ापाप ै, ो। कोम धचतिं ा न ीं।ि इस स्वगीय आनंदि से मंै अपने को विंधचत न ींि कर सकता? व मझु से भाग न ीिं सकती। इस हृदय को छाती से तनकाल कर उसके परै ों पर रख दँगू ा। ववमल मर गया। न ीिं मरा, तो अब मरेगा, पाप क्या ै? बात न ीिं। कमल ककतना कोमल, ककतना प्रफु ल्ल, ककतना लमलत ै? क्या उसके अिरों - अकस्मात ्ु व हठठक ग जैसे कोम भलू ी ुआ बात याद आ जा । मनषु ्यों मंे बवु द्ध के अतिं गता क अज्ञात बुवद्ध ोती ै। जैसे रण-षों ते ्र में ह म्मत ार कर भागनेवाले सतै नकों को ककसी गपु ्त स्थान से आनेवाली कु मद सँभाल लेती ै, वैसे ी इस अज्ञात बुवद्ध ने सुरेश को सचते कर हदया। व सँभल ग । नलातन से उनकी आँखें भर आम। व कम ममनट तक ककसी दिंडडत कै दी की भातत षों बु ्ि खडे सोचते र े। कफर ववजय-ध्वतन से क उठे - ककतना सरल ै। इस ववकार के ाथी को मसिं से न ीिं, धचउंि टी से मारूँ गा। शीतला को क बार 'ब न' क देने से ी य सब ववकार शांित ो जा गा। शीतलाय ब नय मैं तरे ा भाम ूँय उसी षों ण उन् ोंने शीतला को पत्र मलखा - ब न, तुमने इतने कष्ट झले े पर मझु े खबर तक न दीय मंै कोम गरै न था। मुझे इसका दःु ख ै। खैर, अब मवर ने चा ा तो तुम् ें कष्ट न ोगा। इस पत्र के साथ उन् ोंने अनाज और रुप भेजे। शीतला ने उत्तर हदया - भयै ा, षों मा करो जब तक ग्जऊँ गी, तमु ् ारा यश गाऊँ गी। तमु ने मेरी डू बती नाव पार लगा दी।
5 कम म ीने बीत ग । सधिं ्या का समय था। शीतला अपनी मनै ा को चारा चगु ा र ी थी। उसे सुरेश नैपाल से उसी के वास्ते ला थ।े इतने में सरु ेश आकर आँगन में बठै ग । शीतला ने पूछा - क ाँ से आते ो भयै ा? सरु ेश - गया था जरा थाने। कु छ पता न ींि चला। रंिगून मंे प ले कु छ पता ममला था। बाद मंे मालमू ुआ कक व कोम और आदमी ै। क्या करूँ ? इनाम और बढा दँ?ू शीतला - तमु ् ारे पास रुप बढे ै; फूँ को। उनकी इच्छा ोगी, तो आप ी आवंेगे। सरु ेश - क बात पँूछू ँ, बताओगी? ककस बात पर तमु से रूठे थे? शीतला - कु छ न ीिं, मनंै े य ी क ा कक मुझे ग ने बनवा दो। क ने लगे, मेरे पास ै क्या? मनैं े क ा (लजाकर), तो ब्या क्यों ककया। बस, बातों ी बातों में तकरार ो गम। इतने में शीतला की सास आ गम। सुरेश ने शीतला की माँ और भाइयों को उनके घर प ुँचा हदया था, इसमल अब य ाँ शातंि त थी। सास ने ब ू की बात सुन ली थी। कका श स्वर मंे बोली - बेटा, तुमसे क्या परदा ै। य म ारानी देखने ी को गुलाब की फू ल ै, अंदि र सब काँटे ंै। य अपने बनाव-मसगंि ार के आगे ववमल की बात ी न पूछती थी। बेचारा इस पर जान देता था; पर इसका मँु ी न सीिा ोता था। प्रेम तो इसे छू न ींि गया। अंित को उसे देश से तनकाल कर इसने दम मलया।
शीतला ने रुष्ट ोकर क ा - क्या व ींि अनोखे िन कमाने घर से तनकले ै? देश-ववदेश जाना मरदों का काम ी ै। सरु ेश - यूरोप में तो िनभोग के मसवा स्त्री-परु ुष में कोम सबिं िंि ी न ींि ोता। ब न ने यरू ोप मंे जन्म मलया ोता; तो ीरे-जवाह र से जगमगाती ोता। शीतला, अब तुम भगवान से य ी क ना कक सुंिदरता देते ो; तो यरू ोप में जन्म दो। शीतला ने व्यधथत ोकर क ा - ग्जनके भानय में मलखा ै, वे य ी सोने से लदी ुम ै। मेरी भाँतत सभी के करम थोडे ी फू ट ग ैंय सरु ेशमसंि को ीसा जान पडा कक शीतला की मखु कातंि त ममलन ो गम ै। पततववयोग में भी ग नों के मल इतनी लालातयत ैय बोले - अच्छा, मंै तुम् ें ग ने बनवा दँगू ा। य वाक्य कु छ अपमानसूचक स्वर में क ा गया था; पर शीतला की आखँ ंे आनदंि से सजल ो आम, कंि ठ गदगद ो गया। उसके दय-नते ्रों के सामने मगंि ला के रत्न-जहटत आभूषणों का धचत्र खचिं गया। उसने कृ तज्ञतापूणा दृग्ष्ट से सरु ेश को देखा। मँु से कु छ न बोली; पर उसका प्रत्येक अगंि क र ा था - मैं तुम् ारी ूँय 6 कोयल आम की डामलयों पर बठै कर, मछली शीतल तनमला जल मंे क्रीडा करके और मगृ -शावक ववस्ततृ ररयामलयों में छलाँगें भर कर इतने प्रसन्न न ींि ोते, ग्जतना मंिगला के आभूषणों को प नकर शीतला प्रसन्न ो र ी ै। उसके पैर जमीन पर न ीिं पडत।े व हदन भर आमने के सामने खडी र ती ै; कभी के शों को सँवारती ै, कभी सरु मा लगाती ै। कु रा फट गया ै और तनमला स्वच्छ चाँदनी तनकल आम ै। व घर का क ततनका भी न ींि उठाती। उसके स्वभाव में क ववधचत्र गवा का सिंचार ो गया ै।
लेककन शिंगृ ार क्या ै? सोम ुम काम-वासना को जगाने का घोर नाद, उद्दीपन का मंित्र। शीतला जब नख-मशख से सजकर बठै ती ै, तो उसे प्रबल इच्छा ोती ै कक मुझे कोम देखे। व द्वार पर आकर खडी ो जाती ै। गाँव की ग्स्त्रयों की प्रशिंसा से उसे सितं ोष न ींि ोता। गावँ के पुरुषों को व शिंगृ ाररस वव ीन समझती ै। इसमल सुरेशमसिं को बुलाती ै। प ले व हदन में क बार आ जाते थे, अब शीतला के ब ुत अनुनय-ववनय करने पर भी न ींि आत।े प र रात बीत गम। घरों के दीपक बझु चकु े थ।े शीतला के घर में दीपक जल र ा था। उसने कुँ वर सा ब के बगीचे से बेले के फू ल मँगवा थे और बठै ी ार गँथू र ी थी - अपने मल न ीिं सरु ेश के मल । का क कु त्तों के भँूकने की आवाज सुनाम दी, और दम भर मंे ववमलमसिं ने मकान के अंिदर कदम रखा। उनके क ाथ में सदंि कू था, दसू रे ाथ में क गठरी। शरीर दबु ला , कपडे मैले, दाढी के बाल बढे ु , मखु पीला, जसै े कोम कै दी जले से तनकलकर आया ो। दीपक का प्रकाश देखकर व शीतला के कमरे की तरफ चले। मनै ा वपजिं रे मंे तडफडाने लगी। शीतला ने चौंककर मसर उठाया। घबराकर बोली - कौन? कफर प चान गम। तुरंित फू लों को क कपडे से तछपा मलया। उठ खडी ुम और मसर झुकाकर पछू ा - इतनी जल्दी सुि ली? ववमल ने कु छ जवाब न हदया। ववग्स्मत ो- ोकर कभी शीतला को देखता और कभी घर को, मानो ककसी न सिंसार मंे प ुँच गया ै। य व अि- खला फू ल न था; ग्जसकी पिंखडु डयाँ अनुकू ल जलवायु न पाकर मसमट गम थी। य पूणा ववकमसत कु समु था - ओस के जल-कणों से जगमगाता और वायु के झोंकों से ल राता ुआ। ववमल उसकी सदिंु रता पर प ले भी मुनि था; पर य ज्योतत व अग्ननज्वाला थी, ग्जससे हृदय में ताप और आखँ ों में जलन ोती थी। ये आभूषण, ये वस्त्र, य सजावटय उसके मसर में क चक्कर-सा आ गया। जमीन पर बठै गया। इस सयू मा ुखी के सामने बैठते ु उसे लज्जा आती थी। शीतला,
अभी तक स्तिमं भत खडी थी। व पानी लाने न ींि दौडी, उसने पतत के चरण न ीिं िो , उसको पंिखा न ीिं झला। तबवु द्ध-सी ो गम। उसने कल्पनाओिं की कै सी सरु म्य वाहटका लगम थीय उस पर तुषार पड गया। वास्तव मंे इस ममलनवदन, अिा-ननन पुरुष से उसे घणृ ा ो र ी थी। य घर का जमीिंदार ववमल न था। व मजदरू ो गया था। मोटा काम मखु ाकृ तत पर असर डाले त्रबना न ींि र ता। मजदरू संदिु र वस्त्रों में भी मजदरू ी र ता ै। स सा ववमल की माँ चौंकी शीतला के कमरे आम, तो ववमल को देखते ी मात-ृ स्ने से ववह्वल ोकर उसे छाती से लगा मलया। ववमल ने उसके चरणों पर मसर रखा। उसकी आखँ ों से आँसुओिं की गरम-गरम बँूदें तनकल र ी थी। माँ पुलककत ो र ी थी। मखु से बात न तनकलती थीय क षों ण में ववमल ने क ा - अम्माँय कंि ठ-ध्वतन ने उसका आशय प्रकट कर हदया। माँ ने प्रन समझ कर क ा - न ींि बेटा, य बात न ींि ै। ववमल - य देखता क्या ूँ? माँ- स्वभाव ी ीसा ै तो कोम क्या करे? ववमल - सरु ेश मंे मेरा ुमलया क्यों मलखवाया था? माँ - तमु ् ारी खोज लेने के मल । उन् ोंने दया न की ोती, तो आज घर में ककसी को जीता न पात।े ववमल - ब ुत अच्छा ोता।
शीतला ने ताने से क ा - अपनी ओर से तमु ने सबको मार ी डाला था। फू लों की सेज न ींि त्रबछा ग थेय ववमल - अब तो फू लों की सेज ी त्रबछी ुम देखता ूँ। शीतला - तमु ककसी के भानय के वविाता ो? ववमलमसंि उठकर क्रोि से काँपता ुआ बोला -अम्माँ, मझु े य ाँ से ले चलो। मैं इस वपशाधचनी का मँु न ींि देखना चा ता। मेरी आखों मंे खनू उतरता चला आता ै। मनैं े इस कु ल-कलिंककनी के मल तीन साल तक जो कहठन तपस्या की ै, उससे मवर ममल जाता; पर इसे न पा सकाय य क कर व कमरे से तनकल आया और माँ के कमरे मंे लेट र ा। माँ ने तुरिंत उसका मँु और ाथ-पैर िलु ाये। व चलू ् ा जलाकर परू रयाँ पकाने लगी। साथ-साथ घर की ववपग्त्त-कथा भी क ती जाती। ववमल के हृदय में सरु ेश के प्रतत जो ववरोिाग्नन प्रज्वमलत ो र ी थी, व शािंत ो गम; लेककन हृदय-दा ने रक्त-दा का रूप िारण ककया। जोर का बखु ार चढ आया। लंबि ी यात्रा की थकान और कष्ट तो था ी, बरसों के कहठन श्रम और तप के बाद य मानमसक सितं ाप औऱ भी दसु ्स ो गया। सारी रात व अचते पडा र ा। माँ बठै ी पिखं ा झलती और रोती थी। दसू रे हदन भी व बे ोश पडा र ा। शीतला उसके पास क षों ण के मल भी न आम। इन् ोंने मझु े कौन से सोने के कौर खला हद ै, जो इनकी िौंस र ूँ? य ाँ तो 'जैसे किं ता घर र े, वैसे र े ववदेश' ककसी की फू टी कौडी न ींि जानती। ब ुत ताव हदखा कर तो ग थे? क्या लाद ला य सिंध्या के समय सरु ेश को खबर ममली। तुरंित दौडे ु आ । आज दो म ीने के बाद उन् ोंने उस घर में कदम रखा। ववमल के आँखंे खोली, प चान गया। आखँ ों से आसँ ू ब ने लगे। सुरेश के मखु ारत्रबदिं पर दया की ज्योतत झलक र ी थी।
ववमन ने उसके बारे में जो अनधु चत सदिं े ककया था, उसके मल व अपने को धिक्कार र ा था। शीतला ने ज्यों ी सनु ा कक सरु ेशमसंि आ ै, तुरंित शीशे के सामने गम। के श तछटका मलये और ववपद् की मूतता बनी ुम ववमल के कमरे मंे आम। क ाँ तो ववमल की आखँ ंे बंदि थी, मगू ्च्छात-सा पडा था, क ाँ शीतला के आते ी आखँ ें खलु गम। अग्ननमय नेत्रों से उसकी ओर देखकर बोला - अभी आम ै? आज के तीसरे हदन आना। कँु वर सा ब से उस हदन कफर भेंट ो जा गी। शीतला उलटे पावँ चली गम। सरु ेश पर घडों पानी पड गया। मन में सोचा, ककतना रूप-लावण्य ै; पर ककतना ववषक्तय हृदय की जग के वल शंिगृ ार-लालसाय आतंिक बढता गया। सुरेश ने डाक्टर बलु वा ; पर मतृ ्यु-देव ने ककसी की न मानी। उनका हृदय पाषाण ै। ककसी भाँतत न ींि पसीजता। कोम अपना हृदय तनकालकर रख दे, आँसूओंि की नदी ब ा दे, पर उन् ंे दया न ींि आता। बसे ु घर को ै, उजाडना, ल राती ुम खेती को सुखाना उनका काम ै। और उनकी तनदायता ककतनी ववनोदमय ैय तनत्य न रूप बदलते र ते ै। कभी दाममनी बन जाते तो कभी पुण्य-माला। कभी मसिं बन जाते ै, तो कभी मसयार। कभी अग्नन के रूप मंे हदखाम देते ै, तो कभी जल के रूप में। तीसरे हदन, वपछली रात को, ववमल की मानमसक पीडा और हृदय-ताप का अतिं ो गया। चोर हदन को कभी चोरी न ींि करता। यम के दतू प्रायः रात ी को सबकी नजर बचाकर आते ै और प्राण-रत्न ले जाते ै। आकाश के फू ल मरु झा ु थे। वषृ ों समू ग्स्थर थे; पर शोक मंे मनन, मसर झकु ा ु । रात शोक का बाह्यरूप ै। रात मतृ ्यु का क्रीडा षों ते ्र ै। उसी समय ववमल के घर से आतनादा सनु ाम हदया - व नाद ग्जसे सुनने मल मतृ ्यु-देव ववकल र ते ै। शीतला चौंक पडी और घबराम ुम मरण-शय्या की ओर चली। उसने मतृ दे पर तनगा डाली और भयभीत ोकर क पग पीछे ट गम। उस जान पडा,
ववमलमसिं उसकी ओर तीव्र दृग्ष्ट से देख र े ै। बझु े ु दीपक मंे उसे भयकिं र ज्योतत हदखाम पडी। व मारे भय के व ाँ ठ र न सकी। द्वार से तनकल ी र ी थी कक सरु ेशमसंि से भेंट ो गम। कातर स्वर में बोली - मुझे य ाँ डर लगता ै। उसने चा ा कक रोती ुम उनके पैरों पर धगर पडूँ, पर व अलग ट ग । 7 जब ककसी पधथक को चलते-चलते ज्ञात ोता ै कक मैं रास्ता भलू गया ूँ, तो व सीिे रास्ते पर आने के मल बडे वगे से चलता ैय झँझु लाता ै कक मंै इतना असाविान क्यों ो गया? सुरेश भी अब शािंतत-मागा पर आने के मल ववकल ो ग । मंिगला की स्ने मयी सेवा ँ याद आने लगी। हृदय में वास्तववक सौंदयोपासना का भाव उदय ुआ। उसमंे ककतना प्रेम, ककतना त्याग, ककतनी षों मा थीय उसकी अतलु पतत-भग्क्त को याद करके कभी-कभी व तडप जात।े आ य मनैं े घोर अत्याचार ककया। ीसे उज्जलव रत्न का आदन न ककया। मंै यों ी जडवत ु् पडा र ा और मेरे सामने ी लक्ष्मी घर से तनकल गमय मगंि ला ने चलते- चलते शीतला से जो बातें क ींि, वे उन् ंे मालूम थी;िं पर उन बातों पर वववास न ोता था। मगंि ला शािंत प्रकृ तत की थी। व इतनी उद्दंडि ता न ीिं कर सकती। उसमंे षों मा थी, व इतने ववद्वेष न ीिं कर सकती। उसका मन क ता था कक व जीती ै और कु शल से ै। उसके मकै े वालों को कम पत्र मलख;े पर व ाँ व्यिनं य और कटु वाक्यों से मसवा और क्या रखा था? अिंत को उन् ोंने मलखा - अब उस रत्न की खोज में स्वयिं जाता ूँ। या तो लेकर ी आऊँ गा, या क ींि मँु में कामलश लगाकर डू ब मरूँ गा। इस पत्र का उत्तर आया - अच्छी बात ै, जाइ , पर य ाँ से ोते ु जाइ गा। य ाँ से कोम आपके साथ चला जा गा। सुरेशमसिं को इन शब्दों में आशा की झलक हदखाम दी। उसी हदन प्रस्थान कर हदया। ककसी को साथ न ींि मलया।
ससुराल में ककसी ने उनका प्रमे मय स्वागत न ीिं ककया। सभी के मँु फू ले ु थ।े ससुर जी ने तो उन् ंे पतत-िमा पर क लबिं ा उपदेश हदया। रात को जब व भोजन करके लेटे, तो छोटी साली आकर बठै गम और मसु ्करा कर बोली - जीजा जी, कोम संदुि री स्त्री अपने रूप- ीन पुरुष को छोड दे, उसका अपमान करे, तो आप उसे क्या क ेंगे? सरु ेश (गंभि ीर स्वर से) - कु हटलाय साली - और ीसे पुरुष को, जो अपनी रूप- ीन स्त्री को त्याग दे? सरु ेश - पशुय साली - और जो पुरुष ववद्वान ो? सरु ेश - वपशाचय साली ( ँसकर) तो मंै भागती ूँ। मझु े आपसे डर लगता ै। सरु ेश - वपशाचों का प्रायग्चत भी तो स्वीकार ो जाता ै। साली - शता य ै कक प्रायग्चत सच्चा ो। सुरेश - य तो व अंितयामा ी ी जान सकते ै। साली - सच्चा ोगा, तो उसका फल भी अवय ममलेगा। मगर दीदी को लेकर इिर ी से लौहट गा।
सुरेश की आशा-नौका कफर डगमगाम। धगडधगडाकर बोले - प्रभा, मवर के मल मुझ पर दया करो। मंै ब ुत दःु खी ूँ। साल भर से ीसा कोम हदन न ींि गया कक मंै रो कर न सोया ूँ। प्रभा ने उठकर क ा - अपने कक का क्या इलाज? जाती ूँ, आराम कीग्ज । क षों ण में मगंि ला की माता आकर बैठ गम और बोली - बेटा, तुमने तो ब ुत पढा-मलखा ै, देश-ववदेश घूम आ ो, संुिदर बनने की कोम दवा क ीिं न ीिं देखी? सरु ेश ने ववनय-पवू का क ा - माता जी, अब मवर के मल और लग्ज्जत न कीग्ज । माता - तुमने तो मेरी प्यारी बेटी के प्राण ले मलय़ेय मंै क्या तुम् ंे लग्ज्जत करने से भी गम? जी मंे तो था कक ीसी-ीसी सनु ाऊँ गी कक तुम भी याद करोगे; पर मे मान ो, क्या जलाऊँ ? आराम करो। सरु ेश आशा और भय की दशा मंे करवटें बदल र े थे कक का क द्वार पर ककसी ने िीरे से क ा - जाती क्यों न ीिं, जागते तो ै? ककसी ने जवाब हदया - लाज आती ै। सुरेश ने आवाज प चानी। प्यासे को पानी ममल गया। क षों ण में मंगि ला उनके सम्मुख आम औऱ मसर झुकाकर खडी ो गम। सुरेश को उसके मखु पर क अनूठी छवव हदखाम दी, जसै े कोम रोगी स्वास्थ्य लाभ कर चकु ा ो। रूप व ी था, पर आखँ ंे और थींि। ***
जगु ुनू की चमक पिंजाब के मसंि राजा रणजीतमसंि ससंि ार से चल चुके थे और राज्य के वे प्रततग्ष्ठत परु ुष ग्जनके द्वारा उनका उत्तम प्रबिंि चल र ा था, परस्पर के द्वेष और अनबन के कारण मर ममटे थ।े राजा रणजीतमसिं का बनाया ुआ सदंिु र ककंि तु खोखला भवन अब नष्ट ो चकु ा था। कँु वर हदलीपमसंि अब इंिगलडैं में थे और रानी चंरि कँु वरर चनु ार के दगु ा मंे। रानी चंिरकँु वरर ने ववनष्ट ोते ु राज्य को ब ुत सँभालना चा ा; ककिं तु शासन-प्रणाली न जानती थी और कू टनीतत मष्याा की आग भडकाने के मसवा और क्या करती? रात के बार बज चुके थ।े रानी चंिरकुँ वरर अपने तनवास-भवन के ऊपर छत पर खडी गिगं ा की ओर देख र ी थी और सोचती थी - ल रंे क्यों इस प्रकार स्वतंति ्र ंै? उन् ोंने ककतने गाँव और नगर डु बोये ै, ककतने जीव-जतिं ु तथा रव्य तनगल गम ै, ककिं तु कफर भी वे स्वतिंत्र ै। कोम उन् ें बदंि न ींि करता। इसीमल न कक वे बिंद न ींि र सकती? वे गरजगे ी, बल खायगंे ी - और बािँ के ऊपर चढकर उसे नष्ठ कर दंेगी, अपने जोर से उसे ब ा ले जायगंे ी। य सोचते-ववचारते रानी गादी पर लेट गम। उसकी आखँ ों के सामने पूवावा स्था की स्मतृ तयाँ मनो र स्वप्न की भातँ त आने लगी। कभी उसकी भौं की मरोड तलवार से भी अधिक तीव्र थी और उसकी मसु ्करा ट वसतंि की सुगिधं ित समीर से भी अधिक प्राण-पोषक; ककिं तु ाय, अब इनकी शग्क्त ीनावस्था को प ुँच गम। रोये तो अपने को सुनाने के मल , ँसे तो अपने को ब लाने के मल । रानी और बादँ ी मंे ककतना अंति र ै? रानी की आखँ ों से आसँ ू की बँदू ंे झरने लगी, जो कभी ववष से अधिक प्राण-नाशक और अमतृ से अधिक अनमोल थी, व इसी भातँ त अके ली, तनराश, ककतनी बार रोयी, जब कक आकाश के तारों के मसवा और कोम देखनवे ाला न था।
2 इसी प्रकार रोत-े रोते रानी की आखँ ंे लग गम। उसका प्यारा, कलेजे का टु कडा, कँु वर हदलीपमसंि , ग्जसमंे उसके प्राण बसते थे, उदास मखु आ कर खडा ो गया। जसै े गाय हदन भर जंिगलों मंे र ने के पचात सधंि ्या को घर आती ै और अपने बछडे को देखते ी प्रेम और उमगंि से मतवाली ोकर स्तनों में दिू भरे, पँछू उठा , दौडती ै, उसी भातँ त चंिरकँु वरर अपने दोनों ाथ फै ला अपने प्यार कँु वर को छाती से लपटाने के मल दौडी। परिंतु आखँ ें खलु गम और जीवन की आशाओंि की भातँ त व स्वप्न ववनष्ट ो गया। रानी ने गगंि ा की ओर देखा और क ा - मुझे भी अपने साथ लते ी चलो। इसके बाद रानी तुरंित छत से उतरी। कमरे मंे क लालटेन जल र ी थी। उसके उजेले में उसने क मलै ी साडी प नी, ग ने उतार हद , रत्नों के क छोटे-से बक्स को और क तीव्र कटार को कमर में रखा। ग्जस समय व बा र तनकली, नरै ायपणू ा सा स की मतू ता थी। संितरी ने पकु ारा - कौन? रानी ने उत्तर हदया - मैं ूँ झंिगी। 'क ाँ जाती ै?' 'गगंि ाजल लाऊँ गी। सरु ा ी टू ट गम ै, रानी जी पानी माँग र ी ै।' संितरी कु छ समीप आ कर बोला - चल, मंै भी तरे े साथ चलता ूँ, जरा रुक जा। झंगि ी बोली - मेरे साथ मत आओ। रानी कोठे पर ै। देख लेंगी। सिंतरी को िोखा देकर चंरि कुँ वरर गपु ्त द्वार से ोती ुम अँिेरे में काटँ ों से उलझती, चट्टानों से टकराती, गगिं ा के ककनारे पर जा प ुँची।
रात आिी से अधिक जा चकु ी थी। गिंगा जी में सिंतोषदायी शाितं त ववराज र ी थी। तरिंगंे तारों को गोद मंे मलये सो र ी थी। चारों ओर सन्नाटा था। रानी नदी के ककनारे-ककनारे चली जाती थी और मुड-मडु कर पीछे देखती थी। का क क डोंदी खटूँ े से बँिी ुम देख पडी। रानी ने उसे ध्यान से देखा तो मल्ला सोया ुआ था। उसे जगाना काल को जगाना था। व तरु ंित रस्सी खोलकर नाव पर सवार ो गम। नाव िीरे-िीरे िार के स ारे चलने लगी, शोक और अिंि कारमय स्वप्न की भाँतत जो ध्यान की तरंिगों के साथ ब ा चला जाता ो। नाव के ह लने से मल्ला चौंक कर उठ बठै ा। आँखें मलते-मलते उसने सामने देखा तो पटरे पर क स्त्री ाथ में डाँड मलये बैठी ै। घबरा कर पूछा - तैं कौन ै? नाव क ाँ मलये जाती ै? रानी ँस पडी। भय के अितं को सा स क ते ै। बोली - सच बताऊँ या झठू ? मल्ला कु छ भयभीत-सा ोकर बोला - सच बताया जाय। रानी बोली - अच्छा तो सनु ो। मंै लौ ार की रानी चिरं कँु वरर ूँ। इसी ककले में कै दी थी। आज भागी जाती ूँ। मझु े जल्दी से बनारस प ुँचा दे। तझु े तन ाल कर दँगू ी और शरारत करेगा तो देख, कटार से मसर काट लँूगी। सबेरा ोने से प ले मझु े बनारस प ुँचना चाह । य िमकी काम कर गम। मल्ला ने ववनीत भाव से अपना कम्बल त्रबछा हदया और तजे ी से डाँड चलाने लगा। ककनारे के वषृ ों और ऊपर जगमगाते ु तारे साथ-साथ दौडने लगे। 3 प्रातःकाल चनु ार के दगु ा में प्रत्येक मनुष्य अचग्म्भत और व्याकु ल था। सतिं री, चौकीदार और लौंडडयाँ सब मसर नीचे ककये दगु ा के स्वामी के सामने उपग्स्थत थ।े अन्वषे ण ो र ा था; परिंतु कु छ पता न चलता था।
उिर रानी बनारस प ुँची। परंितु व ाँ प ले से ी पमु लस और सेना का जाल त्रबछा ुआ था। नगर के नाके बन्द थे। रानी का पता लगानवे ाले के मल क ब ुमलू ्य पाररतोवषक की सूचना दी गम थी। बदंि ीगृ से तनकलकर रानी को ज्ञात ो गया कक व और दृढ कारागार में ै। दगु ा में प्रत्येक मनुष्य उसका आज्ञाकारी था। दगु ा का स्वामी भी उसे सम्मान दी दृग्ष्ट से देखता था। ककंि तु आज स्वतितं ्र ोकर भी उसके ओठिं बिंद थे। उस सभी स्थानों मंे शत्रु देख पडते थे। पिखं रह त पषों ी को वपजंि रे के कोने मंे ी सुख ै। पुमलस के अफसर प्रत्येक आने-जानेवालों को ध्यान से देखते थे; ककंि तु उस मभखातननी की ओर ककसी का ध्यान न ींि जाता था, जो क फटी ुम साडी प ने, यात्रत्रयों के पीछे -पीछे , िीरे-िीरे मसर झकु ा गगिं ा की ओर चली आ र ी ै। न व चौंकती ै, न ह चकती ै, न घबराती ै। इस मभखाररनी की नसों में रानी का रक्त ै। य ाँ से मभखाररनी ने अयोध्या की रा ली। व हदन भर ववकट मागों से चलती और रात को ककसी सनु सान स्थान पर लेट र ती थी। मखु पीला पड गया था। पैरों मंे छाले थ।े फू ल-सा बदन कु म् ला गया था। व प्रायः गाँवों में ला ौर की रानी के चरचे सनु ती। कभी-कभी पमु लस के आदमी भी उसे रानी की टो मंे दत्तधचत्त देख पडत।े उन् ें देखते ी मभखाररनी के हृदय मंे सोम ुम रानी जाग उठती। व आँखें उठाकर उन् ंे घणृ ा-दृग्ष्ट से देखती और शोक तथा क्रोि से उसकी आखें जलने लगतीि।ं क हदन अयोध्या के समीप प ुँचकर रानी क वषृ ों के नीचे बैठी ुम थी। उसने कमर से कटार तनकालकर सामने रख दी थी। व सोच र ी थी कक क ाँ जाऊँ ? मेरी यात्रा का अिंत क ाँ ै? क्या सिंसार में अब मेरे मल क ीिं हठकाना न ींि ै? व ाँ से थोडी दरू पर आमों का क ब ुत बडा बाग था। उसमें बड-े बडे डरे े और तिबं ू गडे ु थे। कम क सितं री चमकीली वहदायाँ प ने ट ल र े थे, कम घोडे बँिे ु थे। रानी ने इस
राजसी ठाट-बाट को शोक की दृग्ष्ट से देखा। क बार व भी कामीर गम थी। उसका पडाव इससे क ीिं बढ गया था। बैठे -बैठे सिधं ्या ो गम। रानी ने व ाँ रात काटने का तनचय ककया। इसने में क बढू ा मनषु ्य ट लता ुआ आया और उसके समीप खडा ो गया। ींिठी ुम दाढी थी, शरीर में सटी ुम चपकन थी, कमर में तलवार लटक र ी थी। इस मनषु ्य की देखते ी रानी ने तरु िंत कटार उठा कर कमर मंे खोंस ली। मसपा ी ने उसे तीव्र दृग्ष्ट से देखकर पूछा - बेटी, क ाँ से आती ो? रानी - ब ुत दरू से। 'क ाँ जाओगी?' 'य न ीिं क सकती, ब ुत दरू ।' मसपा ी ने रानी की ओर कफर ध्यान से देखा और क ा - जरा अपनी कटार हदखाओ। रानी कटार सँभालकर खडी ो गम और तीव्र स्वर से बोली - ममत्र ो या शत्र?ु ठाकु र ने क ा - ममत्र। मसपा ी के बातचीत करने के ढिंग मंे और चे रे में कु छ ीसी ववलषों णता थी ग्जससे रानी को वववश ोकर वववास करना पडा। व बोली - वववासघात न करना। य देखो। ठाकु र ने कटार ाथ मंे ली। उसको उलट-पलु ट कर देखा और बडे नम्र भाव से उसे आँखों से लगाया। तब रानी के आगे ववनीत भाव से मसर झकु ाकर व बोला - म ारानी चरंि कुँ वरर? रानी ने करुण स्वर से क ा - न ींि, अनाथ मभखाररनी। तमु कौन ो? मसपा ी ने उत्तर हदया - आपका क सेवकय
रानी ने उसकी ओर तनराश दृग्ष्ट से देखा और क ा - दभु ाानय के मसवा इस ससिं ार मंे मेरा कोम न ीि।ं मसपा ी ने क ा - म ारानी जी, ीसा न कह । पंिजाब के मसंि की म ारानी के वचन पर अब भी सकै डों मसर झुक सकते ै। देश मंे ीसे लोग ववद्यमान ैं, ग्जन् ोंने आपका नमक खाया ै और उसे भूले न ीिं ंै। रानी - अब इसकी इच्छा न ी।ंि के वल क शांति -स्थान चा ती ूँ, ज ाँ पर क कु टी के मसवा कु छ न ो। मसपा ी - ीसा स्थान प ाडों में ी ममल सकता ै। ह मालय की गोद में चमल , व ींि आप उपरव से बच सकती ैं। रानी - (आचया से) शत्रुओिं मंे जाऊँ ? नपे ाल कब मारा ममत्र र ा ै? मसपा ी - राणा जंिगब ादरु दृढप्रततज्ञ राजपतू ै। रानी - ककिं तु व ी जंगि ब ादरु तो ै जो अभी-अभी मारे ववरुद्ध लाडा डल ौजी को स ायता देने पर उद्यत था? मसपा ी (कु छ लग्ज्जत-सा ोकर ) - तब आप म ारानी चिंरकँु वरर थी, आज आप मभखाररनी ै। ीवया के द्वेषी और शत्रु चारों ओर ोते ै। लोग जलती ुम आग को पानी से बुझाते ै, पर राख माथे पर चढाम जाती ै। आप जरा भी सोच-ववचार न करंे, नपे ाल में अभी िमा का लोप न ींि ुआ ै। आप भय-त्याग करें और चले। दे ख , व आपको ककस भाँतत मसर और आँखों पर त्रबठाता ै। रानी ने रात इसी वषृ ों की छाया में काटी। मसपा ी भी व ीिं सोया। प्रातःकाल व ाँ दो तीव्रगामी घोडे देख पड।े क पर मसपा ी सवार ुआ और दसू रे पर क अत्यंित रूपवान यवु क। य रानी चरंि कुँ वरर थी, जो अपने रषों ा स्थान की खोज में
नेपाल जाती थी। कु छ देर पीछे रानी ने पूछा - य पडाव ककसका ै? मसपा ी ने क ा - राणा जंिगब ादरु का। वे तीथया ात्रा करने आ ै, ककिं तु मसे प ले प ुँच जा ंिगे। रानी - तुमने उनसे मझु े य ीिं क्यों न ममला हदया। उनका ाहदाक भाव प्रकट ो जाता। मसपा ी - य ाँ उनसे ममलना असभिं व था। आप जाससू ों की दृग्ष्ट से न बच सकती। उस समय यात्रा करना प्राण को अपणा कर देना था। दोनों यात्रत्रयों को अनके ों बार डाकु ओिं का सामना करना पडा। उस समय रानी की वीरता, उसकी युद्ध- कौशल तथा फु ती देखकर बढू ा मसपा ी दातँ ों तले अँगलु ी दबाता था। कभी उनकी तर तलवार काम कर जाती और कभी घोडे की तजे चाल। यात्रा बडी लंिबी थी। जेठ का म ीना मागा में ी समाप्त ो गया। वषाा ऋतु आम। आकाश मंे मेघ-माला छाने लगी। सूखी नहदयाँ उतरा चली।िं प ाडी नाले गरजने लगे। न नहदयों मंे नाव, न नालों पर घाट; ककंि तु घोडे सिे ु थे। स्वयंि पानी में उतर जाते और डू बत-े उतरात,े ब ते, भँवर खाते पार प ुँच जात।े क बार त्रबच्छू ने कछु की पीठ पर नदी की यात्रा की थी। य यात्रा उससे कम भयानक न थी। क ीिं ऊँ चे-ऊँ चे साखू और म ु के जिंगल थे और क ींि रे-भरे जामुन के वन। उनकी गोद में ाधथयों और ह रनों के झडुिं ककलोलें कर र े थे। िान की क्याररयाँ पानी से भरी ुम थीि।ं ककसानों की ग्स्त्रयाँ िान रोपती थी और सु ावने गीत गाती थी। क ींि उन मनो ारी ध्वतनयों के बीच में, खते की मेडो पर छाते की छाया में बठै े ु जमीिंदारों के कठोर शब्द सुनाम देते थे।
इसी प्रकार यात्रा के कष्ट स ते, अनके ानके ववधचत्र दृय देखते दोनों यात्री तराम पार करके नपे ाल की भमू म मंे प्रववष्ट ु । 5 प्रातःकाल का सु ावना समय था। नपे ाल के म ाराज सुरेंरववक्रममसंि का दरबार सजा ुआ था। राज्य के प्रततग्ष्ठत मतिं ्री अपने-अपने स्थान पर बठै े ु थ।े नपे ाल ने क बडी लडाम के पचात ततब्बत पर ववजय पाम थी। इस समय सधंि ि की शतों पर वववाद तछडा ुआ था। कोम युद्ध-व्यय का इच्छु क था, कोम राज्य- ववस्तार का। कोम-कोम म ाशय वावषका कर पर जोर दे र े थे। के वल राणा जिंगब ादरु के आने की देर थी। वे कम म ीनों के देशाटन के पचात आज ी रात को लौटे थे और य प्रसंिग, जो उन् ीिं के आगमन की प्रतीषों ा कर र ा था, अब मंति ्रत्र-सभा में उपग्स्थत ककया गया था। ततब्बत के यात्री, आशा और भय की दशा में, प्रिान मतिं ्री के मुख से अंिततम तनणाय सुनने के उत्सुक ो र े थ।े तनयत समय पर चोबदार ने राणा के आगमन की सचू ना दी। दरबार के लोग उन् ंे सम्मान देने के मल खडे ो ग । म ाराज को प्रणाम करने के पचात वे अपने ससु ग्ज्जत आसन पर बैठ ग । म ाराज ने क ा - राणा जी, आप सधंि ि के मल कौन प्रस्ताव करना चा ते थ।े राणा ने नम्र भाव से क ा - मेरी अल्प-बुवद्ध मंे तो इस समय कठोरता का व्यव ार करना अनुधचत ै। शोकाकु ल शत्रु के साथ दयालतु ा का आचरण करना सवदा ा मारा उद्देय र ा ै। क्या इस अवसर पर स्वाथा के मो में म अपने ब ुमूल्य उद्दे य को भलू जा ंिगे? म ीसी सिधं ि चा ते ै जो मारे हृदय को क कर दे। यहद ततब्बत का दरबार मंे व्यापाररक सुवविा ँ प्रदान करने को कहटबद्ध ो, तो म सधंि ि करने के मल सवथा ा उद्यत ै। मितं ्रत्रमडंि ल में वववाद आरिंभ ुआ। सबकी सम्मतत इस दयालुता के अनसु ार न थी; ककिं तु म ाराज ने राणा का समथना ककया। यद्यवप अधिकािशं सदस्यों को शत्रु
के साथ ीसी नरमी पसंदि न थी, तथावप म ाराज के ववपषों में बोलने का ककसी को सा स न ुआ। यात्रत्रयों के चले जाने के पचात राणा जगिं ब ादरु ने खडे ोकर क ा - सभा मंे उपग्स्थत सज्जनों, आज नपे ाल के इतत ास में क नम घटना ोनेवाली ै, ग्जसे मंै आपकी जातीय नीततमत्ता की परीषों ा समझता ूँ, इसमें सफल ोना आपके ी कतवा ्य पर तनभरा ै। आज राज-सभा में आते समय मझु े य आवेदन-पत्र ममला ै, ग्जसे मंै आप सज्जनों की सेवा में उपग्स्थत करता ूँ। तनवेदक ने तलु सीदास की य चौपाम मलख दी ै - 'आपत-काल पर ख चारी। िीरज िमा ममत्र अरू नारी।' म ाराज ने पछू ा - य पत्र ककसने भेजा ै? ' क मभखाररनी ने।' 'य मभखाररनी कौन ै?' 'म ारानी चंरि कँु वरर।' कडबड खत्री ने आचया से पछू ा - जो मारी ममत्र अगँ ्रेजी सरकार के ववरुद्ध ो कर भाग आम ै? राणा जंिगब ादरु ने लग्ज्जत ोकर क ा - जी ा।ँ यद्यवप म इसी ववचार को दसू रे शब्दों मंे प्रकट कर सकते ैं। कडबड खत्री - अँग्रेजों से मारी ममत्रता ै और ममत्र के शत्रु की स ायता करना ममत्रता की नीतत के ववरुद्ध ै।
जनरल शमशेर ब ादरु - ीसी दशा मंे इस बात का भय ै कक अँग्रेजी सरकार से मारे संबि िंि टू ट न जा ँ। राजकु मार रणवीर मसिं - म य मानते ै कक अततधथ-सत्कार मारा िमा ै; ककिं तु उसी समय तक, जब तक कक मारे ममत्रों को मारी ओर से शिंका करने का अवसर न ममले। इस प्रसिगं पर य ाँ तक मतभेद तथा वाद-वववाद ुआ कक क शोर-सा मच गया और कम प्रिान य क ते ु सुनाम हद कक म ारानी का इस समय आना देश के मल कदावप मगिं लकारी न ींि ो सकता। तब राणा जंगि ब ादरु उठे । उनका मुख लाल ो गया था। उनका सद्ववचार क्रोि पर अधिकार जमाने के मल व्यथा प्रयत्न कर र ा था। वे बोले - भाइयों, यहद इस समय मेरी बातंे आप लोगों को अत्यितं कडी जान पडे तो मझु े षों मा कीग्ज गा, क्योंकक अब मझु में अधिक श्रवण करने की शग्क्त न ीिं ै। अपनी जातीय सा स ीनता का य लज्जाजनक दृय अब मझु से न ींि देखा जाता। यहद नपे ाल के दरबार में इतना भी सा स न ीिं कक व अततधथ-सत्कार और स ायता की नीतत को तनभा सके तो मंै इस घटना के सबंि ंिि में सब प्रकार का भार अपने ऊपर लेता ूँ। दरबार अपने कोम ववषय मंे तनदोष समझे और इसकी सवसा ािारण मंे घोषणा कर दे। कडबड खत्री गमा ोकर बोले - के वल य घोषणा देश को भय से रह त न ीिं कर सकती। राणा जंगि ब ादरु ने क्रोि से ओंिठ चबा मलया, ककिं तु सँभल कर क ा - देश का शासन-भार अपने ऊपर लेनेवालों की ीसी अवस्था ँ अतनवाया ैं। म उन तनयमों से, ग्जन् ें पालन करना मारा कतवा ्य ै, मँु न ीिं मोड सकत।े अपनी शरण मंे आ ुओंि का ाथ पकडना - उनकी रषों ा करना राजपूतों का िमा ै। मारे पवू -ा परु ुष सदा इस तनयम पर - िमा पर प्राण देने को उद्यत र ते थ।े
अपने माने ु िमा को तोडना क स्वततिं ्र जातत के मल लज्जास्पद ै। अगँ ्रेज मारे ममत्र ैं और अत्यिंत षा का ववषय ै कक बवु द्धशाली ममत्र ंै। म ारानी चरंि कुँ वरर को अपनी दृग्ष्ट में रखने से उनका य उद्दे य य था कक उपरवी लोगों के धगरो को कोम कंे र शषे न र े। यहद उनका य उद्दे य भगंि न ो, तो मारी ओर से शिंका न ोने का न उन् ंे कोम अवसर ै और न में उनसे लग्ज्जत ोने की कोम आवयकता। कडबड खत्री - म ारानी चिंरकँु वरर य ाँ ककस प्रयोजन से आम ै? राणा जंगि ब ादरु - के वल क शािंतत-वप्रय सुख-स्थान की खोज में, ज ाँ उन् ें अपनी दरु वस्था की धचतंि ा से मकु ्त ोने का अवसर ममले। व ीवयशा ाली रानी जो रंिगम लों में सुख-ववलास करती थी, ग्जसे फू लों की सेज पर भी चनै न ममलता था, आज सैकडों कोस से अनके प्रकार के कष्ट स न करती, नदी-नाले, प ाड-प ाड छानती य ाँ के वल क रक्षषों त स्थान की खोज में आम ै। उमडी ुम नहदयों और उबलते ु नाले, बरसात के हदन। इन दखु ों को आप लोग जातने ै और य सब उसी क रक्षषों त स्थान के मल , उसी भूमम के टु कडे की आशा मंे। ककंि तु म ीसे स्थान- ीन ंै कक उनकी य अमभलाषा भी परू ी न ीिं कर सकत।े उधचत तो य था कक उतनी-सी भमू म के बदले म अपना हृदय फै ला देत।े सोधच , ककतने अमभमान की बात ै कक क आपदा मंे फँ सी ुम रानी अपने दःु ख के हदनों में ग्जस देश को याद करती ै, य व ी पववत्र देश ै। म ारानी चंिरकँु वरर को मारे इस अभयप्रद स्थान पर - मारी शरणागतों की रषों ा पर परू ा भरोसा था और व ी वववास उन् ंे य ाँ तक लाया ै। इसी आशा पर कक पशुपततनाथ की शरण में मझु े शािंतत ममलेगी, व य ाँ तक आम ै। आपको अधिकार ै, चा े उनकी आशा पणू ा करें या िलू में ममला दें। चा े रषों णता के - शरणागतों के साथ सदाचरण के - तनयमों को तनभाकर इतत ास के पषृ ्ठों पर अपना नाम छोड जा ँ, या जातीयता तथा सदाचार-सबिं िंि ी तनयमों को ममटाकर स्वयंि अपने को पततत समझंे। मुझे वववास न ींि कक य ाँ क भी मनषु ्य ीसा तनरामभमानी ै जो इस अवसर पर शरणागत-पालन-िमा को ववस्मतृ करके
अपना मसर ऊँ चा कर सके । अब मैं आपके अिंततम तनपटारे की प्रतीषों ा करता ूँ। कह , आप अपनी जातत और देश का नाम उज्जवल करंेगे या सवदा ा के मल अपने माथे पर अपयश का टीका लगा िंगे। राजकु मार ने उमगिं से क ा - म म ारानी के चरणों तले आखँ ंे त्रबछा िंगे। कप्तान ववक्रममसिं बोले - म राजपतू ै और अपने िमा का तनवाा करंेगे। जनरल वनवीरमसिं - म उनको ीसी िूम से ला ंिगे कक ससिं ार चककत ो जा गा। राणा जगंि ब ादरु ने क ा - मंै अपने ममत्र कडबड खत्री के मुख से उसका फै सला सुनना चा ता ूँ। कडबड खत्री क प्रभावशाली पुरुष थे और मंित्रत्रमंडि ल मंे वे राणा जंगि ब ादरु के ववरुद्ध मिंडली के प्रिान थे। वे लज्जा भरे शब्दों में बोले - यद्यवप मैं म ारानी के आगमन को भयरह त न ीिं समझता, ककिं तु इस अवसर पर मारा िमा य ी ै कक म म ारानी को आश्रय दें। िमा से मँु मोडना ककसी जातत के मल मान का कारण न ीिं ो सकता। कम ध्वतनयों ने उमंिग-भरे शब्दों में इस प्रसिंग का समथना ककया। म ाराजा - सुरंेरववक्रममसिं - इस तनपटारे पर बिाम देता ूँ। तुमने जातत का नाम रख मलया। पशुपतत इस उत्तम काया मंे तुम् ारी स ायता करंे। सभा ववसग्जता ुम। दगु ा से तोपें छू टने लगी। नगर भर में खबर गँजू उठी कक पिजं ाब की रानी चरंि कँु वरर का शुभागमन ुआ ै। जनरल रणवीरमसंि और जनरल रणिीरमसिं ब ादरु 50,000 सेना के साथ म ारानी की अगवानी के मल चले।
अततधथ-भवन की सजावट ोने लगी। बाजार अनके भाँतत की उत्तम सामधग्रयों से सज ग । ीवया की प्रततष्ठा व सम्मान सब क ीिं ोता ै, ककंि तु ककसी ने मभखाररनी का ीसा सम्मान देखा ै? सेना ँ बडैं बजाती और पताका फ राती ुम क उमडी नदी की भाँतत जाती थी। सारे नगर में आनदंि ी आनदंि था। दोनों ओर संिुदर वस्त्राभूषणों से सजे दशाकों का समू खडा था। सेना के कमांिडर आगे-आगे घोडों पर सवार थे। सबसे आगे राणा जगिं ब ादरु जातीय अमभमान के मद मंे लीन, अपने सुवणखा धचत ौदे में बैठे ु थ।े य उदारता का क पववत्र दृय था। िमशा ाला के द्वार पर य जलु सू रुका। राणा ाथी से उतरे। म ारानी चरिं कुँ वरर कोठरी से बा र तनकल आम। राणा ने मसर झकु ाकर वदिं ना की। रानी उनकी ओर आचया से देखने लगी। य व ीिं उनका ममत्र बूढा मसपा ी था। आखँ ंे भर आम। मसु ्कराम। खले ु फू ल पर ओस की बँूदें टपकीि।ं रानी बोली - मेरे बूढे ठाकु र, मेरी नाव पार लगाने वाले, ककस भातँ त तमु ् ारा गणु गाऊँ ? राणा ने मसर झकु ाकर क ा - आपके चरणारववदिं से मारे भानय उदय ो ग । 6 नपे ाल की राजसभा ने पच्चीस जार रुप से म ारानी के मल क उत्तम भवन बनवा हदया और उनके मल दस जार रुपया मामसक तनयत कर हदया। व भवन आज तक वतमा ान ै और नपे ाल की शरणागतवप्रयता तथा प्रणपालन- तत्परता का स्मारक ै। पंिजाब की रानी को लोग आज तक याद क ते ंै। य व सीढी ै ग्जससे जाततयाँ यश के सनु ले मशखर पर प ुँचती ैं। ये ी घटना ँ ैं, ग्जनसे जाततय इतत ास प्रकाश और म त्त्व को प्राप्त ोता ै।
पोमलहटकल रेजीडेटं ने गवनमा ंेट को ररपोटा की। इस बात की शंिका थी कक गवनमा ेंट ऑफ इिंडडया और नपे ाल के बीच कु छ खचंि ाव ो जा ; ककिं तु गवनमा ंेट को राणा जंिगब ादरु पर पूणा वववास था। और जब नेपाल की राजसभा ने वववास और संितोष हदलाया कक म ारानी चिंरकुँ वरर को ककसी शत्रु भाव का अवसर न हदया जा गा, तो भारत सरकार को सतंि ोष ो गया। इस घटना को भारतीय इतत ास की अिँ रे ी रात में 'जगु नु ू की चमक' क ना चाह । ***
गहृ -दाह सत्यप्रकाश के जन्मोत्सव पर लाला देवप्रकाश ने ब ुत रुप खचा कक थ।े उसका ववद्यारंिभ-सिंस्कार भी खूब िमू -िाम से ककया गया। उसके वा खाने को क छोटी-सी गाडी थी। शाम को नौकर उसे ट लाने ले जाता था। क नौकर उसे पाठशाला प ुँचाने जाता। हदन भर व ीिं बठै ा र ता और उसे साथ लेकर घर आता। ककतना सुशील, ोन ार बालक थाय गोरा मुखडा, बडी-बडी आँखंे, ऊँ चा मस्तक, पतले-पतले लाल अिर, भरे ु पावँ । उसे देखकर स सा मँु से तनकल पडता था - भगवान इसे ग्जला दंे, प्रतापी मनुष्य ोगा। उसकी बल-बवु द्ध की प्रखरता पर लोगों को आचया ोता था। तनत्य उसके मुखचंिर पर ँसी खेलती र ती थी। ककसी ने उसे ठ करते या रोते न ीिं देखा। वषाा के हदन थ।े देवप्रकाश पत्नी को लेकर गिगं ास्नान करने ग । नदी खूब चढी ुम थी; मानो अनाथ की आँखें ों। उनकी पत्नी तनमला ा जल में बठै कर जल क्रीडा करने लगी। कभी आगे जाती, कभी पीछे जाती, कभी डु बकी मारती, कभी अिंजमु लयों से छीिंटे उडाती। देवप्रकाश ने क ा - अच्छा, अब तनकलो, सरदी ो जा गी। तनमला ा ने क ा - क ो, मंै छाती तक पानी में चली जाऊँ ? देवप्रकाश - और जो क ीिं परै कफसल जा ? तनमला ा - परै क्या कफसलेगाय य क कर व छाती तक पानी मंे चली गम। पतत ने क ा - अच्छा, अब आगे परै न रखना; ककिं तु तनमला ा के मसर पर मौत खले र ी थी। य जलक्रीडा न ीिं, मतृ ्यु-क्रीडा थी। उसने क पग और आगे बढाया और कफसल गम। मँु से क चीख तनकली; दोनों ाथ स ारे के मल ऊपर उठे और कफर जलमनन ो ग । क पल मंे प्यासी नदी उसे पी गम। देवप्रकाश खडे तौमलया से दे पोंछ र े थे।
तुरिंत पानी में कू दे, साथ का क ार भी कू दा। दो मल्ला भी कू द पड।े सबने डू बककयाँ मारी, टटोला, पर तनमला ा का पता न चला। तब डोंगी मँगवाम गम। मल्ला ने बार-बार गोते मारे पर लाश ाथ न आम। देवप्रकाश शोक में डू बे ु घर आ । सत्यप्रकाश ककसी उप ार की आशा से दौडा। वपता ने गोद मंे उठा मलया और बडे यत्न करने पर भी अपनी मससक को न रोक सके । सत्यप्रकाश ने पछू ा - अम्माँ क ाँ ै? देवप्रकाश - बेटा, गिंगा ने उन् ंे नवे ता खाने के मल रोक मलया। सत्यप्रकाश ने उनके मुख की ओर ग्जज्ञासाभाव से देखा और आशय समझ गया। अम्मा-ँ अम्माँ क कर रोने लगा। 2 मातृ ीन बालक ससिं ार का सबसे करुणाजनक प्राणी ै। दीन से दीन प्रा णयों को भी मवर का आिार ोता ै, जो उनके हृदय को सम् ालता ै। मातृ ीन बालक इस आिार से विधं चत ोता ै। माता ी उसके जीवन का कमात्र आिार ोती ै। माता के त्रबना व पखंि ीन पषों ी ै। सत्यप्रकाश का कातिं से प्रेम ो गया। अके ला बैठा र ता। वषृ ों ों मंे उसे कु छ- कु छ स ानुभूतत का अज्ञात अनभु व ोता था, जो घर के प्रा णयों से उसे न ममलता थी। माता का प्रेम था, तो सभी प्रेम करते थे, माता का प्रेम उठ गया तो सभी तनष्ठु र ो ग । वपता की आँखों मंे भी व प्रेम-ज्योतत न र ी। दररर को कौन मभषों ा देता ै। छ म ीने बीत ग । स सा क हदन मालूम ुआ, मेरी नम माता आनेवाली ै। दौडा वपता के पास गया और पूछा - क्या मेरी नम माता आ ंिगी।
वपता ने क ा - ाँ बेटा, वे आकर तुम् ें प्यार करेंगी। सत्यप्रकाश - क्या मेरी ी माँ स्वगा से आ जा िंगी? देवप्रकाश - ाँ, व ी माता आ जा गी. सत्यप्रकाश - मुझे उसी तर प्यार करंेगी? देवप्रकाश इसका क्या उत्तर देत?े मगर सत्यप्रकाश उस हदन से प्रसन्न-मन र ने लगा। अम्माँ आ ंिगीय मुझे गोद मंे लेकर प्यार करेंगीय अब मैं उन् ंे कभी हदक न करूँ गा, कभी ग्जद न करूँ गा, उन् ंे अच्छी क ातनयाँ सुनाया करूँ गा। वववा के हदन आ । घर मंे तयै ाररयाँ ोने लगी। सत्यप्रकाश खुशी से फू ला न समाता। मेरी नम अम्माँ आ िंगी। बारात में व भी गया। न -न कपडे ममले। पालकी पर बैठा। नानी ने अंदि र बुलाया और उसे गोद मंे लके र क अशरफी दी। व ीिं उसे नम माता के दशना ु । नानी ने नम माता से क ा - बेटी, कै सा संुिदर बालक ैय इसे प्यार करना। सत्यप्रकाश ने नम माता को देखा और मुनि ो गया। बच्चे भी रूप के उपासक ोते ै। क लावण्यमयी मूतता आभषू ण से लदी सामने खडी थी। उसने दोनों ाथों से उसका अंिचल पकडकर क ाँ - अम्मायँ ककतना अरुधचकर शब्द था, ककतना लज्जायुक्त, ककतना अवप्रयय व ललना जो 'देववप्रया' नाम से संिबोधित ोती थी, य उत्तरदातयत्व, त्याग और षों मा का सबंि ोिन न स सकी। अभी व प्रेम और ववलास का सुख-स्वप्न देख र ी थी - यौवनकाल की मदमय वायुतरिंगों मंे आदंि ोमलत ो र ी थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भगंि कर हदया। कु छ रुष्ट ोकर बोली - मुझे अम्माँ मत क ो।
सत्यप्रकाश ने ववग्स्मत नते ्रों से देखा। उसका बालस्वप्न भी भंगि ो गया। आखँ ें डबडबा गम। नानी ने क ा - बेटी,देखो, लडके का हदल छोटा ो गया। व क्या जाने, क्या क ना चाह । अम्माँ क हदया तो तुम् ें कौन-सी चोट लग गम? देववप्रया ने क ा - मुझे अम्माँ न क े। 3 सौत का पतु ्र ववमाता की आँखों मंे क्यों इतना खटकता ै? इसका तनणया आज तक ककसी मनोभाव के पिडं डत ने न ींि ककया। म ककस धगनती में ै। देववप्रया जब तक गमभणा ी न ुम, व सत्यप्रकाश से कभी-कभी बातंे करती, क ातनयाँ सनु ातीिं; ककिं तु गमभाणी ोते ी उसका व्यव ार कठोर ो गया, और प्रसवकाल ज्यों-ज्यों तनकट आता था, उसकी कठोरता बढती ी जाती थी। ग्जस हदन उसकी गोद में क चाँद-से बच्चे का आगमन ुआ, सत्यप्रकाश खूब उछला-कू दा और सौरगृ में दौडा ुआ बच्चे को देखने गया। बच्चा देववप्रया की गोद मंे सो र ा था। सत्यप्रकाश ने बडी उत्सकु ता से बच्चे को ववमाता की गोद से उठाना चा ा कक स सा देववप्रया ने सरोषस्वर में क ा - खबरदार, इसे मत छू ना, न ींि तो कान पकडकर उखाड लँगू ीय बालक उल्टे पाँव लौट आया और कोठे की छत पर जाकर खूब रोया। ककतना सदंिु र बच्चा ैय मैं उसे गोद में लेकर बैठता, तो कै सा मजा आताय मैं उसे धगराता थोडे ी, कफर इन् ोंने क्यों मझु े झडक हदया? भोला बालक क्या जानता था कक इस झडकी का कारण माता की साविानी न ींि, कु छ और भी ै। क हदन मशशु सो र ा था। उसका नाम ज्ञानप्रकाश रखा गया था। देववप्रया स्नानागार मंे थी। सत्यप्रकाश चुपके से आया और बच्चे का ओढना टा कर उसे अनरु ागमय नेत्रों से देखने लगा। उसका जी ककतना चा ा कक उसे गोद में लेकर प्यार करूँ ; पर डर के मारे उसने उसे उठाया न ींि, के वल उसके कपोलों को
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