दसू रे हदन भी व घर से न तनकल सका। श्र्ध ा ने समझा कक वववा की रीततयों से छु ट्टी न भमली ोगी। तीसरे हदन चौिराइन भगतराम को बुलाने गई, तो देखा कक व स मी ुई ववस्फाररत आखँू ों से कमरे मंे एक कोने की ओर देखता ुआ दोनों ाथ सामने ककए, पीछे ट र ा ै, मानो अपने को ककसी के वार से बचा र ा ो। चौिराइन ने घबराकर पूछा - 'बच्चा, कै सा जी ै? पीछे इस तर क्यों चले जा र े ो? य ाँू तो कोई न ीिं ै।' भगतराम के मखु पर पागलों-जैसी अचते ना थी। आूँखों में भय छाया ुआ था। भीत स्वर में बोला - 'न ीिं अम्माूजँ ी, देखो, व श्र्ध ा चली आ र ी ै! देखो, उसके दोनों ाथों मंे दो काली नाधगनें ै, व मुझे उन नाधगनों से डसवाना चा ती ै! अरे अम्मा!ँू व नजदीक आ गई, श्र्ध ा? श्र्ध ा! तमु मेरी जान की क्यों बैररन ो गई? क्या मेरे असीम प्रेम का य ी पररणाम ै? मैं तो तुम् ारे चरणों पर बभल ोने के भलए सदैव ततपर था। इस जीवन का मूकय ी क्या ै! तमु इन नाधगनों को दरू फंे क दो। मैं य ाूँ तुम् ारे चरणों पर लेटकर य जान तमु पर न्योछावर कर दूँगू ा। ै, ैं, तमु न मानोगी!' य क कर व धचतत धगर पड़ा। चौिराइन ने लपककर चौिरी को बुलाया। दोनों ने भगतराम को उठाकर चारपाई पर भलटा हदया। चौिरी की ध्यान ककसी आसेब की ओर गया। व तरु न्त ी लौंग और राख लेकर आसेब उतारने का आयोजन करने लगे! स्वयंि मिंत्र-तिंत्र मंे तनपुण थे। भगतराम का सारा शरीर ठिं डा था, ककन्तु भसर तवे की तर तप र ा था। रात को भगतराम कई बार चौंककर उठा। चौिरी ने र बार मिंत्र फूँ ककर अपने ख्याल से आसेब को भगाया। चौिराइन ने क ा - 'कोई डॉक्टर क्यों न ीिं बलु ात?े शायद दवा से कु छ फायदा ो। कल ब्या और आज य ाल।'
चौिरी ने तनःशंिक भाव से क ा -'डॉक्टर आकर क्या करेगा, व ी पीपलवाले बाबा तो ै, दवा-दारू करना और उनसे और रार बढाना ै। रात बीत जाने दो। सबेरा ोते ी एक बकरा और एक बोतल दारू उनकी भंेट की जाएगी, बस और कु छ करने की जरूरत न ींि। डॉक्टर बीमारी की दवा करता ै कक वा-बयार की? बीमारी उन् ंे कोई न ीिं ै, कु ल के बा र ब्या करने ी से देवता लोग रूठ गए ै।' सबेरे चौिरी ने एक बकरा मँूगाया। ल्स्त्रयाँू गाती-बजाती ुई देवी के चौतरे की ओर चली। जब लोग लौटकर आए, तो देखा कक भगतराम की ालत खराब ै। उसकी नाड़ी िीरे-िीरे बन्द ो र ी थी। मखु पर मतृ यु-ववभीवषका का छाप थी। उसके दोनों नते ्रों से आखूँ ू ब कर गालों पर ढु लक र े थे, मानो अपणू य इच्छा का अल्न्तम सन्देश तनदयय संसि ार को सुना र े ों। जीवन का ककतना वेदना-पूणय दृश्य था - आसूँ ू की दो बूँदंे! अब चौिरी घबराए। तुरन्त ी कोककला को खबर दी। एक आदमी डॉक्टर के पास भेजा। डॉक्टर के आने मंे देर थी - व भगतराम के भमत्रों में से थे। ककन्तु कोककला और श्र्ध ा आदमी के साथ ी आ प ुँूची।ंि श्र्ध ा भगतराम के सामने आकर खड़ी ो गई। आखूँ ों मंे आसूँ ू ब ने लगे। थोड़ी देर मंे भगतराम ने आखँू ंे खोली और श्र्ध ा की ओर देखकर बोले - 'तुम आ गई श्र्ध ा, मंै तमु ् ारी रा देख र ा था, य अल्न्तम प्यार लो। आज ी सब 'आगा-पीछा' का अन्त ो जाएगा, जो आज से तीन वषय पूवय आरम्भ ुआ था। इन तीनों वषों मंे मुझे जो आल्तमक-यन्त्रणा भमली ै, हृदय ी जानता ै। तमु वफा की देवी ो, लेककन मुझे र -र कर भ्रम ोता था, क्या तुम खनू के असर का नाश कर सकती ो? क्या तमु एक ी बार अपनी परम्परा की नीतत छोड़ सकोगी? क्या तमु जन्म के प्राकृ ततक तनयमों को तोड़ सकोगी? इन भ्रमपणू य ववचारों के भलए शोक न करना। मैं तुम् ारे योग्य न था - ककसी प्रकार भी और कभी भी तुम् ारे-जैसा म ान हृदय न बना सका। ाूँ, इस भ्रम के वश मंे पड़कर
ससिं ार से मैं अपनी इच्छाएँू बबना पूणय ककए ी जा र ा ूँ। तुम् ारे अगाि, तनष्कपट, तनमलय , प्रेम की स्मतृ त सदैव ी मेरे साथ र ेगी। ककन्तु ाय अफसोस...।' क ते-क ते भगतराम की आँखू ंे बन्द ो गई। श्र्ध ा के मुख पर गाढी लाभलमा दौड़ गई। उसके आँूसू सूख गए। झुकी ुई गरदन तन गई। माथे पर बल पड़ गए। आूखँ ों मंे आतम-स्वाभभमान की झलक आ गई। व क्षण भर व ाूँ खड़ी र ी और दसू रे ी क्षण नीचे आकर अपनी गाड़ी मंे बैठ गई। कोककला उसके पीछे -पीछे दौड़ी ुई आई और बोली - 'बेटी, य क्रोि करने का अवसर न ीिं ै! तमु ् ारे र ने से बुड्ढों को ढाढस बूँिा र ेगा।' श्र्ध ा ने कु छ उततर न हदया। 'घर चलो,' य क कर कोककला भी गाड़ी मंे बठै गई। असह्य शीत पड़ र ा था। आकाश में काले बादल छाए ुए थ।े शीतल वायु चल र ी थी। माघ के अल्न्तम हदवस थे। वकृ ्ष, पेड़-पौिे भी शीत से अकड़े ुए थ।े हदन के आठ बज गए थे, अभी तक लोग रजाई के भीतर मूँु लपेटे ुए थ।े लेककन श्र्ध ा का शरीर पसीने से भीगा ुआ था। ऐसा मालूम ोता था कक सूयय की सारी उष्णता उसके शरीर के अंिगों मंे घुस गई ै। उसके ोंठ सूख गए थे, प्यास से न ीिं, आिंतररक ििकती ुई अल्ग्न की लपटों से। उसका एक-एक अंिग उस अल्ग्न की भीषण आँचू से जला जा र ा था। उसके मखु से बार-बार जलती ुई गमय साूँस तनकल र ी थी, मानो ककसी चूक े की लपट ो। घर प ुँूचते-प ुूँचते उसका फू ल-सा मखु मभलन ो गया, ोठ पीले पड़ गए, जैसे ककसी काले साँपू ने डस भलया ो। कोककला बार-बार अश्रपु णू य नेत्रों से उसकी ओर ताकती थी, पर क्या क े और क्या क कर समझाए।
घर प ुँूचकर श्र्ध ा अपने ऊपर के कमरे की ओर चली। ककन्तु उसमंे इतनी शल्क्त न थी कक सीहढयाूँ चढ सके । रस्सी को मजबूती से पकड़ती ुई ककसी तर अपने कमरे में प ुँूची। ाय, आिे ी घंिटे पवू य य ाूँ की एक-एक वस्तु पर प्रसन्नता, आह्लाद, आशाओिं की छाप लगी ुई थी, पर अब सब-की-सब भसर िुनती ुई मालूम ोती थी। बड़े-बड़े संिदकू ों में जोडे सजाए ुए रखे थे, उन् ें देखकर श्र्ध ा के हृदय में एक ूक उठी और व धगर पड़ी, जैसे वव ार करता ुआ और कु लाचंे भरता ुआ ह रन तीर लग जाने पर धगर पड़ता ै। अचानक उसकी दृल्ष्ट उस धचत्र पर जा पड़ी, जो आज तीन वषय से उसके जीवन का आिार ो र ा था। उस धचत्र को उसने ककतनी बार चूमा था, ककतनी बार गले लगाया था, ककतनी बार हृदय से धचपका भलया था। वे सारी बातंे एक-एक करके याद आ र ी थीिं लेककन उन् ंे याद करने का भी अधिकार उसे न था। हृदय के भीतर एक ददय उठा, जो प ले से क ीिं अधिक प्राणािंतकारी था - जो प ले से अधिक तूफान के समान भयकिं र था। ाय! उस मरने वाले के हदल को उसने ककतनी यंति ्रणा प ुूँचाई! भगतराम के अववश्वास का य जवाब, य प्रतयुततर ककतना रोमाचिं कारी और हृदय-ववदारक था। ाय! व कै से इतनी तनठु र ो ई! उसका प्यार उसकी तनगा ों के सामने दम तोड़ र ा था! उसके भलए उसकी साितं वना के भलए एक शब्द भी मूँु से न तनकला! य ी तो खून का असर ै। इसके अततररक्त और ो ी क्या सकता था। आज प ली बार श्र्ध ा को कोककला की बेटी ोने का पछतावा ुआ। व इतनी स्वाथरय त, इतनी हृदय ीन ै - आज ी उसे मालमू ुआ। व तयाग, व सेवा, व उच्चादशय, ल्जस पर उसे घमिंड था, ढ कर श्र्ध ा के सामने धगर पड़ा। व अपनी ी दृल्ष्ट में अपने को ेय समझने लगी। उसी स्वगीय प्रेम का ऐसा नैराश्यपणू य उततर वशे ्या की पुत्री के अततररक्त और कौन दे सकता ै। श्र्ध ा उसी समय कमरे से बा र तनकलकर, वायु-वगे से सीहढयाँू उतरती ुई नीचे प ुँूची और भगतराम के मकान की ओर दौड़ी। व आखखरी बार उससे गले
भमलना चा ती थी, अल्न्तम बार उसके दशयन करना चा ती थी, व अनन्त प्रेम के कहठन बन्िनों को तनभाएगी और अल्न्तम श्वास तक उसी की ी बनकर र ेगी! रास्तें मंे कोई सवारी न भमली। श्र्ध ा थकी जा र ी थी। भसर से पाूवँ तक पसीने से न ाई ई थी! न मालमू ककतनी बार व ठोकर खाकर धगरी और कफर उठकर दौड़ने लगी! उसके घटु नों से रक्त तनकल र ा था। साड़ी कई जग से फट गई थी, मगर उस वक्त अपने तन-बदन की सुि तक न थी। उसका एक-एक रोआँू कंि ठ ो- ोकर ईश्वर से प्राथनय ा कर र ा था कक उस प्रातःकाल के दीपक की लौ थोड़ी देर और बची र े। उसके मूँु से एक बार 'श्र्ध ा' का शब्द सनु ने के भलए उसकी अन्तरातमा ककतनी व्याकु ल ो र ी थी। के वल य ी एक शब्द सनु कर कफर उसकी कोई भी इच्छा अपणू य न र जाएगी, उसकी सारी आशाएूँ सफल ो जाएगी, सारी साि पणू य ो जाएगी। श्र्ध ा को देखते ी चौिराइन ने उसका ाथ पकड़ भलया और रोती ुआ बोली - 'बेटी, तुम क ाूँ चली गई थी? दो बार तमु ् ारा नाम लेकर पकु ार चकु े ै।' श्र्ध ा को ऐसा मालूम ुआ, मानो उसका कलेजा फटा जा र ा ै। उसकी आखूँ ें पतथर बन गई। उसे ऐसा मालमू ोने लगा कक व अगाि, अथा समदु ्र की भँूवर मंे पड़ गई ै। उसने कमरे मंे जाते ी भगतराम के परै ों पर भसर रख हदया और उसे आखूँ ों के गरम पानी से िोकर गरम करने का उपाय करने लगी। य ी उसकी सारी आशाओंि और कु छ अरमानों की समाधि थी। भगतराम ने आखँू खोलकर क ा - 'क्या तमु ो श्र्ध ा? मैं जानता था कक तमु आओगी, इसीभलए अभी तक प्राण अवशषे थे। जरा मेरे हृदय पर अपना भसर रख दो। ा,ँू मुझे अब ववश्वास ो गया कक तमु ने मझु े क्षमा कर हदया, जी डू ब र ा ै। तुमसे कु छ माँगू ना चा ता ूँ, पर ककस मूँु से मागँू. जब जीत-े जी न माूँग सका तो अब क्या ै?'
मारी अल्न्तम घडड़याूँ ककसी अपणू य साि को अपने ह य के भीतर तछपाए ुए ोती ै, मतृ यु प ले मारी सारी ईष्याय, सारा भेदभाव, सारा द्वषे नष्ट करती ै। ल्जनकी सूरत से में घणृ ा ोती ै, उनसे कफर व ी परु ाना सौ ादय, पुरानी मैत्री के भलए, उनको गले लगाने के भलए म उतसुक ो जाते ै। जो कु छ कर सकते थे और न कर सके - उसी की एक साि र जाती ै। भगतराम ने उखड़े ुए ववषादपणू य स्वर में अपने प्रेम की पुनरावल्तत श्र्ध ा के सामने की। उसी स्वगीय तनधि को पाकर व प्रसन्न ो सकता था, उसका उपयोग कर सकता था, ककन्तु ाय, आज व जा र ा ै, अपूणय सािों की स्मतृ त भलए ुए! ाय रे, अभाधगन साि! श्र्ध ा भगतराम के वक्ष स्थल पर झकु ी ुई रो र ी थी। भगतराम ने भसर उठाकर उसके मुरझाए ुए, आसँू ुओंि से िोए ुए स्वच्छ कपोलों को चूम भलया, मरती ुई साि की व अल्न्तम ूँसी थी। भगतराम ने अवरू्ध कंि ठ से क ा - 'य मारा और तमु ् ारा वववा ै श्र्ध ा - य मेरी अल्न्तम भेट ै।' य क ते ुए उसकी आँूखंे मेशा के भलए बन्द ो गई! साि भी मरकर धगर पड़ी। श्र्ध ा की आूखँ ें रोते-रोते लाल ो र ी थी। उसे ऐसा मालूम ुआ मानो भगतराम उसके सामने प्रेमाभलगंि न का सकिं े त करते ुए मुस्करा र े ै। व अपने दशा, काल , स्थान, सब भलू गई। जख्मी भसपा ी अपनी जीत का समाचार पाकर अपना ददय, अपनी पीड़ा भलू जाता ै। क्षण भर के भलए मौत भी ेय ो जाती ै। श्र्ध ा का भी य ी ाल ुआ। व भी अपना जीवन प्रेम की तनठु र वेदी पर उतसगय करने के भलए तयै ार ो गई, ल्जस पर ललै ा और मजनिूं, शीरी और फर ाद न ींि, जारों ने अपनी बभल चढा दी।
उसके चुम्बन का उततर देते ुए क ा - 'प्यारे, मैं तुम् ारी ूँ और सदा तुम् ारी ी र ूँगी।' ***
प्रेम का उदय भोंदू पसीने में तर, लकड़ी का एक गट्ठा भसर पर भलए आया और उसे जमीन पर पटककर बंिटी के सामने खड़ा ो गया, मानो कु छ पछू र ा ो - क्या अभी तरे ा भमजाज ठीक न ींि ूआ? सन्ध्या ो गई थी, कफर भी लू चलती थी और आकाश पर गदय छाई ुई थी। प्रकृ तत, रक्त शून्य दे की भाँूतत भशधथल ो र ी थी। भोंदू प्रातःकाल घर से तनकला था। दोप री उसने एक पेड़ की छाूँ में काटी थी। समझा था - इस तपस्या से देवीजी का मँूु सीिा ो जाएगा, लेककन आकर देखा तो व अब भी कोप भवन में थी। भोंदू ने बातचीत छे ड़ने के इरादे से क ा - लो, एक लोटा पानी दे दो, बड़ी प्यास लगी ैं, मर गया सारे हदन, बाजार जाऊँू गा तो तीन आने से बेसी न भमलेंगे, दो- चार सािडं े भमल जाते, तो मे नत सुफल ो जाती। बंटि ी ने भसरकी के अन्दर बठै े -बैठे क ा - िरम भी लूटोगे और पसै े भी, मँूु िो रखो। भोंदू ने भँूवे भसकोडकर क ा - क्या िरम-िरम बकती ंै! िरम करना ँूसी-खेल न ींि ंै, िरम व करता ैं, ल्जसे भगवान ने माना ो, म क्या खाकर िरम करंे, भर-पेट चबेना तो भमलता न ीिं, िरम करंेगे। बिटं ी ने अपना वार ओछा पड़ता देखकर चोट पर चोट की - ससंि ार में कु छ ऐसे म ातमा ंै, जो अपना पेट चा े न भर सकंे , पर पड़ोभसयों को नेवता देते कफरते ैं, न ींि तो सारे हदन बन-बन लकड़ी न तोड़ते-कफरते, ऐसे िरमातमा लोगों को मे ररया रखने की क्यों सूझती ंै, य मेरी समझ में न ीिं आता, िरम की गाड़ी क्या अके ले न ीिं खीचंि ती बनती?
भोंदू इस चोट से ततलभमला गया। उसकी ल्ज रदार नसंे तन गई, माथे पर बल पड़ गए। इस अबला का मूँु व एक डपट में बन्द कर सकता था, पर डाँूट-डपट उसने न सीखी थी। ल्जसके पराक्रम की सारे किं जड़ों में िूम थी, जो अके ला सौ- पचास जवानों का नशा उतार सकता था, व इस अबला के सामने चूँ तक न कर सका। भोंदू दबी जबान मंे बोला - मे ररया िरम बेचने के भलए न ींि लाई जाती, िरम पालने के भलए लाई जाती ैं। य कंि जड़-दंिपती आज तीन हदन से और कई किं जड़ पररवारों के साथ इस बाग में उतरा ुआ था। सारे बाग में भसरककयाूँ- ी-भसरककयाँू हदखाई देती थी। उसी तीन ाथ चौड़ी और चार ाथ लम्बी भसरकी के अन्दर एक-एक परू ा पररवार जीवन के समस्त व्यापारों के साथ ककपवास-सा कर र ा था। एक ककनारे चक्की थी, एक ककनारे रसोई का स्थान, एक ककनारे दो-एक अनाज के मटके । द्वार पर एक छोटी-सी खटोली बालकों के भलए पड़ी थी। रेक पररवार के साथ दो-दो भसै े या गिे थे। जब डरे ा कू च ोता था तो सारी गृ स्थी इन जानवरों पर लाद दी जाती थी। य इन कजड़ों का जीवन था। सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस मंे ी शादी-ब्या , लेने-देने, झगड़े-टिंटे ोते र ते थे, इस दतु नया के बा र वाला अखखल सिंसार उनके भलए के वल भशकार का मदै ान था। उनके ककसी इलाके में प ुँूचते ी व ाूँ की पुभलस तरु न्त आकर अपनी तनगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारों तरफ चौकीदार का प रा ो जाता था। स्त्री या परु ुष ककसी गावूँ में जाते तो दो-चार चौकीदार उनके साथ ो लेते थ।े रात को भी उनकी ाल्जरी ली जाती थी। कफर भी आस-पास के गाूँव में आतिंक छाया ुआ था। कंि जड़ लोग ब ुिा घरों मंे घसु कर जो चीज चा ते, उठा लेत,े उनके ाथ मंे जाकर कोई चीज लौट न सकती थी, रात मंे ये लोग अकसर चोरी करने तनकल जाते थ।े चौकीदारों को उनसे भमले र ने मंे ी अपनी कु शल दीखती थी, कु छ ाथ मंे लगता था और जान भी बची र ती थी, सख्ती करनंे मंे
प्राणों का भय था, कु छ भमलने का तो ल्जक्र ी क्या क्योंकक किं जड़ लोग एक सीमा के बा र ककसी का दबाव न मानते थ।े बस्ती में अके ला भोंदू अपनी मे नत की कमाई खाता था, उसकी स्वततंि ्र आतमा अपने बा ुबल से प्राप्त ककसी वस्तु का ह स्सा देना स्वीकार न करती थी इसभलए व य नौबत आने न देता था। बिंटी को पतत की य आचार-तनष्ठा एक आखँू न भाती थी, उसकी और ब नंे नई-नई साडड़याूँ और नए-नए आभूषण प नती तो बटिं ी उन् ंे देख-देखकर पतत की अकमणय ्यता पर कु ढ़ू ती थी। इस ववषय पर दोनों में ककतने ी सगंि ्राम ो चुके थे लेककन भोंदू अपना परलोक बबगाड़ने पर राजी न ोता था। आज भी प्रातःकाल य ी समस्या आ खड़ी ुई थी और भोंदू लकड़ी काटने जंिगलों में तनकल गया था, सांडि ़े भमल जाते, तो आूसँ ू पूँुछते पर आज सािंड़े भी न भमले। बटंि ी ने क ा - ल्जनसे कु छ न ी ो सकता, व ी िरमातमा बन जाते ैं, रािंड़ अपने मांिड़ ी मंे खशु ंै। भोंदू ने पछू ा - तो मैं तनखट्टू ूँ? बिंटी ने इस प्रश्न का सीिा-सादा उततर न देकर क ा - मंै क्या जानूँ, तमु क्या ो? मंै तो य ी जानती ूँ कक य ाँू िले े-िेले की चीज के भलए तरसना पड़ता ंै, य ीिं सबको प नते-ओढते, ूँसत-े खले ते देखती ूँ, क्या मझु े प नने-ओढने, ँूसने- खले ने की साि न ींि ंै? तमु ् ारे पकले पड़कर ल्जन्दगानी नष्ट ो गई ंै। भोंदू नें एक क्षण ववचार-मग्न र कर क ा - जानती ंै, पकड़ा जाऊँू गा तो तीन साल से कम की सजा न ोगी। बिंटी ववचभलत न ोकर बोली - जब और लोग न ीिं पकड़े जाते, तो तुम् ींि पकड़े जाओगे?
'और लोग पुभलस को भमला लेते ंै, थानदे ार के पाँूव स लाते ैं, चौकीदार की खशु ामद करते ैं, तू चा ती ंै, मैं भी औरों की तर सबकी धचरौरी करता कफरूूँ ?' बिटं ी ने अपनी ठ न छोड़ा - मंै तमु ् ारे साथ सती ोने न ींि आई, कफर तुम् ारे छु रे-गिडं ासे से कोई क ाँू तक डरे, जानवर को भी जब घास-भूसा न ींि भमलता, तो पग ा तुड़ाकर ककसी के खेत में पठै जाता ैं, मंै तो आदमी ूँ। भोंदू ने इसका कु छ जवाब न हदया, उसकी स्त्री कोई दसू रा घर कर ले, य ककपना उसके भलए अपमान से भरी थी, आज बंटि ी ने प ली बार य िमकी दी, अब तक भोंदू इस तरफ से तनल्श्चंित था, अब य नई सम्भावना उसके सम्मखु उपल्स्थत ुई, उस दहु दयन को व अपना काबू चलते अपने पास न आने देगा। आज भोंदू की दृल्ष्ट मंे व इज्जत न ीिं र ी, व भरोसा न ींि र ा, मजबूत दीवार को हटकौने की जरूरत न ीिं, जब दीवार ह लने लगती ैं, तब मंे उसको सम्भालने की धचन्ता ोती ैं, आज भोंदू को अपनी दीवार ह लती मालमू ोती थी। आज तक बटिं ी अपनी थी, व ल्जतना अपनी ओर से तनल्श्चिंत था, उतना ी उसकी ओर से भी था। व ल्जस तर खदु र ता था, उसी तर उसको भी रखता था, जो खदु खाता था, व ींि उसको भी खखलाता था, उसके भलए कोई ववशषे किक न थी पर आज उसे मालमू ुआ कक व अपनी न ींि ैं, अब उसका ववशेष रूप से सतकार करना ोगा, ववशषे रूप से हदलजोई करनी ोगी। सयू ासय ्त ो गया, उसने देखा, उसका गिा चरकर चपु चाप भसर झकु ाए चला आ र ा ैं, भोंदू ने कभी उसके खाने-पीने की धचन्ता न की थी क्योंकक गिा ककसी और को अपना स्वामी बनाने की िमकी न दे सकता था। भोंदू ने बा र आकर आज गिे को पचु कारा, उसकी पीठ स लाई और तरु न्त उसे पानी वपलाने के भलए डोल और रस्सी लेकर चल हदया।
इसके दसू रे ी हदन कस्बे में एक िनी ठाकु र के घर चोरी ो गई, उस रात को भोंदू अपने डरे े पर न था। बंटि ी ने चौकीदार से क ा - व जगिं ल से न ीिं लौटा। प्रातःकाल भोंदू आ प ुूँचा, उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी, कु छ सोने के ग ने भी थे। बंटि ी ने तरु न्त ग नों को ले जाकर एक वकृ ्ष की जड़ मंे गाड़ हदया, रूपयों की क्या प चान ो सकती थी। भोंदू ने पूछा - अगर कोई पूछे , इतने रुपये क ाँू भमले, तो क्या क ोगी? बिटं ी ने आूँखें नचाकर क ा - क दूँगू ी, क्यों बताऊँू ? दतु नया कमाती ैं, तो ककसी के ह साब देने जाती ैं? मींि क्यों अपना ह साब दे। भोंदू ने सिहं दग्ि भाव से गदयन ह लाकर क ा - य क ने से गला न छू टेगा, बिंटी, तू क देना, मंै तीन-चार मास से दो-दो, चार-चार रुपए म ीना जमा करती आई ूँ, मारा खरच ी कौन बड़ा लम्बा ंै। दोनों ने भमलकर ब ुत से जवाब सोच तनकाले - जड़ी-बूहटयाूँ बेचते ैं, एक-एक जड़ी के भलए मुट्ठी-भर रुपए भमल जाते ो, खस, साडंि ़े, जानवरों की खाले, नख और चबी, सभी बेचते ंै। इस ओर से तनल्श्चत ोकर दोनो बाजार चले। बंिटी ने अपने भलए तर -तर के कपड़े, चडू ड़याँू, हटकु भलयाूँ, बुन्दे, संदे रु , पान-तमाखू, तले और भमठाई ली। कफर दोनो जने शराब की दकु ान पर गए। खूब शराब पी, कफर दो बोतल शराब रात के भलए लेकर दोनों घूमत-े घामत,े गात-े बजाते घड़ी रात गए डरे े पर लौटे। बिंटी के पाूँव आज जमीन पर न पड़ते थे। आते ी बन-ठनकर पड़ोभसयों को अपनी छवव हदखाने लगी। जब व लौटकर अपने घर आई और भोजन पकाने लगी, तब पड़ोभसयों ने हटप्पखणयाँू करनी शुरू कींि - क ीिं ग रा ाथ मारा ैं। 'बड़ा िरमातमा बना कफरता था।'
'बगला भगत ंै' 'बिंटी तो आज जैसे वा मंे उड़ र ी ंै।' 'आज भोंदआु की खाततर ो र ी ंै, न ींि तो कभी एक लहु टया पानी देने भी न उठती थी।' रात को भोंदू को देवी की याद आई, न ीिं तो कभी एक लुहटया पानी देने पर बकरे का बभलदान न ककया था, पभु लस को भमलाने में ज्यादा खचय था, कु छ आतम-सम्मान भी खोना पड़ता, देवीजी के वल एक बकरे में राजी ो जाती ै। ाँू, उससे एक गलती जरूर ुई थी, उसकी बबरादरी के और लोग सािारणतया कायभय सव्ध के प ले ी बभलदान हदया करते थ।े भोंदू ने य खतरा न भलया, जब तक माल ाथ न आ जाए, उसके भरोसे पर देवी-देवताओिं को खखलाना उसकी व्यावसाभसक बुव्ध को न जँूचा। औरों से अपने कृ तय को गपु ्त रखना भी चा ता था। इसभलए ककसी को सचू ना भी न दी, य ाँू तक कक बटंि ी से भी न क ा। बिंटी तो भोजन बना र ी थी, व बकरे की तलाश मंे घर से तनकल पड़ा। बटंि ी ने पूछा - 'अब भोजन करने के जून क ाूँ चले?' 'अभी आता ूँ।' 'मत जाओ, मुझे डर लगता ै।' भोंदू स्ने के नवीन प्रकाश से खखलकर बोला - 'मुझे देर न लगेगी, तू य गडंि ़ासा अपने पास रख ले।' उसने गंडि ़ासा तनकालकर बटंि ी के पास रख हदया और तनकला, बकरे की समस्या बेढब थी, रात को बकरा क ाँू से लाता? इस समस्या को भी उसने एक नए ढिंग से ल ककया। पास की बस्ती में एक गड़ररए के पास कई बकरे पले थे। उसने
सोचा, व ींि से एक बकरा उठा लाऊँू , देवीजी को अपने बभलदान से मतलब ै, या इससे कक बकरा कै से आया और क ाूँ से आया। मगर बस्ती के समीप प ुूँचा ी था कक पुभलस के चार चौकीदारों ने उसे धगरफ्तार कर भलया और मुश्कंे बािँू कर थाने लें चले। बंिटी भोजन पकाकर अपना बनाव-भसगिं ार करने लगी, आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ता था। आनन्द से खखली जाती थी। आज जीवन में प ली बार उसके भसर में सुगधंि ित तले पड़ा था। आईना उसके पास एक अििं ा-सा पड़ा ुआ था। आज व नया आईना लाई थी। उसके सामने बैठकर उसने अपने के श सिवं ारे, मँूु पर उबटन मला, साबनु लाना भलू गई थी, सा ब लोग साबुन लगाने से ी तो इतने गोरे ो जाते ै। साबुन ोता, तो उसका रंिग कु छ तो तनखर जाता। कल व अवश्य साबनु की कई बहटयाूँ लाएगी और रोज लगाएगी, के श गँूथकर उसने माथे पर अलसी का लआु ब लगाया, ल्जसमें बाल और न बबखरने पाए। कफर पान लगाया, चूना ज्यादा ो गया था, गलफड़ों में छाले पड़ गए लेककन उसने समझा शायद पान खाने का य ी मजा ै। आखखर कड़वी भमचय भी तो लोग मजे से खाते ै। गलु ाबी साड़ी प न और फू लों का गजरा गले मंे डालकर उसने आईने में अपनी सूरत देखी, तो उसके आबनसू ी रिंग पर लाली दौड़ गई, आप ी आप लज्जा से उसकी आखँू ें झुक गई। दररद्रता की आग से नारीतव भी भस्म ो जाता ै, नारीतव की लज्जा का क्या ल्जक्र, मैले-कु चलै े कपड़े प नकर लज्जाना ऐसा ी ै, जैसे कोई चबैने मंे सगु न्ि लगाकर खाए। इस तर सजकर बंिटी भोंदू की रा देखने लगी। जब अब भी व न आया, तो उसका जी झुिंझलाने लगा, रोज तो साझँू ी से द्वार पर पड़ र ते थे, आज न- जाने क ाँू जाकर बठै े र े, भशकारी अपनी बन्दकू भर लेने बाद इसके भसवा और क्या चा ता ै कक भशकार सामने आए। बिटं ी के सखू े हृदय में आज पानी पड़ते
ी उसका नारीतव अिंकु ररत ो गया, झंझुि ला ट के साथ उसे धचतिं ा भी ोने लगी, उसने बा र तनकालकर कई बार पुकारा। उसके किं ठस्वर में इतना अनरु ाग कभी न था, उसे कई बार भान ुआ कक भोंदू आ र ा ै। व र बार भसरकी के अन्दर दौड़ आई और आईने मंे सूरत देखी कक कु छ बबगड़ न गया ो, ऐसी िड़कन, ऐसी उलझन, उसकी अनभु तू त से बा र थी। बटंि ी सारी रात भोंदू के इंितजार मंे उद्ववग्न र ी, ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी शंिका तीव्र ोती जाती थी, आज ी उसके वास्तववक जीवन का आरम्भ ुआ था, और आज ी य ाल। प्रातःकाल व उठी, तो अभी अिँू रे ा ी था, इस रतजगे से उसका धचतत खखन्न और सारी दे अलसाई ुई थी, र -र कर भीतर से ल र भी उठती थी, आँूखंे भर- भर आती थी। स सा ककसी ने क ा - 'अरे बटिं ी, भोंदू रात पकड़ा गया।' बिटं ी थाने प ुूँची तो पसीने में तर थी और दम फू ल र ा था। उसे भोंदू पर दया न थी, क्रोि आ र ा था। सारा जमाना य ी काम करता ै और चनै की बसंि ी बजाता ै। उन् ोंने क ते-क ते ाथ भी लगाया, तो चकू गए। न ींि स ूर था तो साफ क देत,े मझु से य काम न ोगा, मंै य थोड़े ी क ती थी कक आग में फािंद पड़ो। उसे देखते ी थानदे ार ने िौंस जमाई - 'य ी तो ै भोंदआु की औरत, इसे भी पकड़ लो।' बटिं ी ने ेकड़ी जताई - ' ाँू- ाँू, पकड़ लो, य ाूँ ककसी से न ींि डरते, जब कोई काम ी न ींि करते, तो डरें क्यों।' अफसर और मात त सभी की अनुरक्त आूँखंे बिंटी
की ओर उठने लगी, भोंदू की तरफ से हदल कु छ नमय ो गए, उसे िूप से छाँू मंे बठै ा हदया गया, उसके दोनों ाथ पीछे बूँिे ुए थे और िलू -िसू ररत काली दे पर भी जतू ों और कोड़ो की रक्तमय मार साफ नजर आ र ी थी। उसने एक बार बटंि ी की ओर देखा, मानो क र ा था - 'देखना, क ींि इन लोगों के िोखे मंे न आ जाना।' थानदे ार ने डाटूँ बताई - 'जरा इसकी दीदा-हदलेरी देखो, जैसे देवी ी तो ै मगर इस फे र मंे न र ना, य ाँू तुम लोगों की नस-नस प चानाता ूँ, इतने कोड़े लगाऊँू गा कक चमड़ी उड़ जाएगी, न ीिं तो सीिे से कबूल दो, सारा माल लौटा दो, इसी मंे खरै रयत ै।' भोंदू ने क ा - 'क्या कबूल ै, जो देश को लटू ते ै, उनसे तो कोई न ीिं बोलता, जो बेचारे अपनी गाढी कमाई की रोटी खाते ै, उनका गला काटने को पुभलस भी तैयार र ती ै। मारे पास ककसी को नजर-भेंट देने के भलए पसै े न ीिं ै।' थानदे ार ने कठोर स्वर मंे क ा - ' ाूँ- ाूँ, जो कु छ कोर-कसर र गई ो, व परू ी कर दे, ककरककरी न ोने पाए मगर इन बैठकबाल्जयों से बच न ीिं सकत।े अगर एकबाल न ककया, तो तीन साल को जाओगे, मेरा क्या बबगड़ता ै। अरे छोटेभसंि , जरा लाल भमचय की िनू ी तो दो इसे। कोठरी बन्द करके पसेरी-भर भमचे सुलगा दो, अभी माल बरामद ुआ जाता ै।' भोंदू ने हढठाई से क ा - 'दारोगाजी, बोटी काट डालो, लेककन कु छ ाथ न लगेगा, तमु ने मझु े रात-भर वपटवाया ै, मेरी एक-एक ड़्डी चरू -चूर ो गई ै, कोई दसू रा ोता तो अब तक भसिार गया ोता। तमु क्या समझते ो, आदमी को रुपए-पसै े जान से प्यारे ोते ै? जान ी के भलए तो आदमी सब तर के कु कमय करता ै, िूनी सलु गाकर भी देख लो।' दारोगाजी को अब ववश्वास आया कक इस फौलाद को झकु ाना मुल्श्कल ै, भोंदू की मखु ाकृ तत से श ीदों का-सा आतम-समपणय झलक र ा था। यद्यवप उनके
ुक्म की तामील ोने लगी, कासंि ्टेबल ने भोंदू को एक कोठरी में बन्द कर हदया। दो आदमी भमचे लाने दौड़े लेककन दारोगा की यु्ध -नीतत बदल गई थी। बटंि ी का हृदय क्षोभ से फटा जाता था। व जानती थी, चोरी करके एकबाल कर लेना किं जड़ जातत की नीतत में म ान लज्जा की बात ै लेककन क्या य सचमुच भमचय की िूना सलु गा दंेगे? इतना कठोर ै इनका हृदय? सालन बिारने मंे कभी भमचय जल जाती ै, तो छीिंकों और खांिभसयों के मारे दम तनकलने लगता ै, जब नाक के पास िूनी सलु गाई जाएग तब तो प्राण ी तनकल जाएूँगे। उसने जान पर खेलकर क ा - 'दारोगाजी, तमु समझते ोंगे कक इन गरीबों की पीठ पर कोई न ींि ै लेककन मंै क े देती ूँ, ाककम से रतती-रतती ाल क दूँगू ी, भला चा ते ो तो उसे छोड़ दो, न ीिं तो इसका ाल बरु ा ोगा।' थानदे ार ने मुस्कराकर क ा - 'तझु े क्या, व मर जाएगा, ककसी और के नीचे बैठ जाना। जो कु छ जमा-जथा लाया ोगा, व तो तरे े ी ाथ मंे ोगी। क्यों न ींि एकबाल करके उसे छु ड़ा लेती। मंै वादा करता ूँ, मकु दमा न चलाऊँू गा। सब माल लौटा दे। तनू े ी उसे मंति ्र हदया ोगा, गलु ाबी साड़ी, पान और खुशबदू ार तले के भलए तू ललचा र ी ोगी, उसकी इतनी सािंसत ो र ी ै और तू खड़ी देख र ी ै।' शायद बटंि ी की अन्तरातमा को य ववश्वास न था कक ये लोग इतने अमानषु ीय अतयाचार कर सकते ै लेककन जब सचमचु िनू ी सुलगा दी गई, भमचय क तीखी ज रीली झार फै ली और भोंदू के खासूँ ने की आवाजंे कानों मंे आई, तो उसकी आतमा कातर ो उठी। उसका व दसु ्सा स झठू े रिंग की भाूँतत उड़ गया। उसने दारोगाजी के पाूवँ पकड़ भलए और दीन भाव से बोली - 'माभलक, मझु पर दया करो, मैं सब कु छ दे दँूगू ी।' िूनी उसी वक्त टा ली गई। भोंदू ने सशिंक ोकर पूछा - 'िनू ी क्यों टाते ो?'
एक चौकीदार ने क ा - 'तरे ी औरत ने एकबाल कर भलया।' भोंदू की नाक, आँूख और मँूु से पानी जारी था, भसर चक्कर खा र ा था, गले की आवाज बन्द-सी ो गई थी, पर व वाक्य सुनते ी व सचेत ो गया, उसकी दोनों मुहट्ठयाँू बिंि गई कफर बोला -'क्या क ा?' 'क्या क ा, चोरी खुल गई दारोगाजी माल बरामद करने गए ुए ै। प ले की एकबाल कर भलया ोता, तो क्यों इतनी सासिं त ोती?' भोंदू ने गजरकर क ा -'व झूठ बोलती ै।' 'व ाँू माल बरामद ो गया, तमु अभी अपनी ी गा र े ो।' परम्परा की मयादय ा को अपने ाथों भगंि ोने की लज्जा से भोंदू का मस्तक झुक गया। इस घोर अपमान के बाद उसे अपनी जीवन दया, घणृ ा और ततरस्कार इन सभी दशाओंि से तनखखद जान पड़ता था। व अपने समाज मंे पततत ो गया था। स सा बटिं ी आकर खड़ी ो गई और कु छ क ना ी चा ती थी कक भोंदू की रौद्रमुद्रा देखकर उसकी जबान बन्द ो गई, उसे देखते ी भोंदू की आ त मयादय ा ककसी आ त सपय की भाँूतत तड़प उठी, उसने बटंि ी को अगंि ारों-सी तपती ुई लाल आँूखों से देखा, उन आँखू ों में ह संि ा की आग जल र ी थी। बंटि ी भसर से पाूवँ तक काूँप उठी। व उलटे पाूवँ व ाूँ से भागी। ककसी देवता के अल्ग्नबाण के समान वे दोनों अगंि ारों-सी आँखू ंे उसके हृदय मंे चभु ने लगी। थाने से तनकलकर बिंटी ने सोचा, अब क ाूँ जाऊँू । भोंदू उसके साथ ोता तो व पड़ोभसयों के ततरस्कार को स लेती, इस दशा मंे उसके भलए अपने घर जाना असम्भव था। वे दोनों अंिगारों-सी आूँखें उसके हृदय मंे चुभी जाती थीिं लेककन कल की सौभाग्य-ववभूततयों का मो उसे डरे े की ओर खीचंि ने लगा। शराब की
बोतल अभी भी भरी िरी थी, फु लौडड़याूँ छीकंि े पर ाड़ी में िरी थी। व तीव्र लालसा, जो मतृ यु को सम्मखु देखकर भी संिसार के भोग्य पदाथों की ओर मन को चलायमान कर देती ै, उसे खीिंचकर डरे े की ओर ले चली। दोप र ो गई थी, व प ाड़ पर प ुँूची, तो सन्नाटा छाया ुआ था। अभी कु छ देर प ले ी जो स्थान जीवन का क्रीड़ा-क्षेत्र बना ुआ था, बबककु ल तनजनय ो गया था। बबरादरीवालों के ततरस्कार का सबसे भयकंि र रूप था। सभी ने उसे तयाज्य समझ भलया, के वल उसकी भसरकी उस तनजनय ता मंे रोती ुई खड़ी थी। बिटं ी ने उसके अन्दर पाँवू रखे, तो उसके मन की कु छ व ी दशा ुई, जो अके ला घर देखकर ककसी चोर की ोती ै। कौन-कौन सी चीज समेटे, उस कु टी में उसने रो-रोकर पाूँच वषय काटे थे पर आज उसे उससे ममता ो र ी थी, जो ककसी माता को अपने दगु ुणय ी पतु ्र को देखकर ोती ै, जो बरसों के बाद परदेश से लौटा ो। वा से कु छ चीजंे इिर-उिर ो गई थी। उसने तुरन्त उन् ें सम्भाल कर रखा। फु लौडड़यों की ािंड़ी छींिके पर कु छ ठंि ड़ी ो गई थी। शायद उसपर बबकली झपटी थी, उसने जकदी से ांडि ़ी उतारकर देखी। फु लौडड़याूँ अछू ती थी। पानी पर जो गीला कपड़ा लपेटा था, व सूख गया था। उसने तरु न्त कपड़ा तर कर हदया। ककसी के पाूँव की आ ट पाकर उसका कलेजा िक-से र गया। भोंदू आ र ा ै। उसकी व दोनों अगिं ारों-सी आखँू ें! उसके रोएूँ खड़े ो गए। भोंदू के क्रोि का उसे एक-दो बार अनुभव ो चकु ा था। लेककन उसने हदल को मजबतू ककया। क्यों मारेगा? कु छ क ेगा, कु छ पछू े गा, कु छ सवाल-जवाब करेगा कक यों ी गंिडासा चला देगा। उसने उसके साथ कोई बरु ाई न ीिं की, आफत से उसकी जान बचाई ै। मरजाद जान से प्यारी न ीिं ोती। भोंदू को ोगी, उसे न ींि ै। क्या इतनी सी बात के भलए व उसकी जान ले लेगा।
उसने भसरकी के द्वार से झाकूँ ा, भोंदू न था। के वल उसका गिा चला आ र ा था। बटंि ी आज उस अभागे-से गिे को देखकर ऐसा प्रसन्न ुई, मानो अपना भाई नै र से बतासों की पोटली भलए थका-मादँू ा चला आता ो। उसने जाकर उसकी गदयन स लाई और उसके थूथन को मँूु से लगा भलया। व उसे फू टी आखूँ ों न भाता था पर आज उसने उसे ककतनी आतमीयता ो गई थी। व दोनों अगंि ारे-सी आँूखंे उसे घूर र ी थी, व भस र उठी। उसने कफर सोचा - 'क्या ककसी तर न छोड़गे ा? व रोती ुई उसके पैरों पर धगर पड़गे ी, क्या तब भी न छोड़गे ा? इन आँूखों की व ककतनी सरा ना ककया करता था, इनमंे आूँसू ब ते देखकर भी उसे दया न आएगी?' बंिटी ने चकु ्कड में शराब उिं डले कर पी ली और छीकंि े से फु लौडड़याूँ उतारकर खाई, जब उसे मरना ी ै, तो साि क्यों र जाए। व अगंि ारंे-सी आूखँ ंे उसके सामने चमक र ी थी।ंि दसु रा चुक्कड़ भरा और पी गई। ज रीला ठराय, ल्जसे दोप र की गमी ने और भी घातक बना हदया था, देखते-देखते उसके मल्स्तक को खौलाने लगा। बोतल आिी ो गई थी। उसने सोचा - भोंदू क ेगा, तनू े इतनी दारू क्यों पी, तो व क्या क ेगी। क देगी - ाूँ पी, क्यों न पीए। इसी के भलए तो व सब कु छ ुआ। व एक बंिदू भी न छोड़गे ी। जो ोना ो, ो। भोंदू उसे मार न ींि सकता, इतना तनदययी न ींि ै, इतना कायर न ीिं ै। उसने कफर चकु ्कड़ भरा और पी गई। पाूँच वषय के ववै ाह क जीवन की अतीत स्मतृ तयािं उसकी आखँू ों के सामने खखचिं गई। सैकड़ों ी बार दोनों मंे गृ -यु्ध ुए थ।े आज बिटं ी को र बार अपनी ज्यादती मालमू ो र ी थी। बेचारा जो कु छ कमाता ै. उसी के ाथ पर रख देता ै। अपने भलए कभी एक पसै े की तम्बाकू भी लेता, तो पसै ा उसी से माँगू ता ै। भोर से साूझँ तक वन-वन कफरा करता ै! जो काम उससे न ीिं ोता, व कै से करे।
अचानक एक कांसि ्टेबल ने आकर क ा - 'अरी बिंटी क ाूँ ै? चल देख, भोंदआू का ाल-बे- ाल ो र ा ै। अभी तक तो चपु चाप बैठा था, कफर न जाने क्या जी में आया कक एक पतथर पर अपना भसर पटक हदया। ल ू ब र ा ै। अगर म लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ी दे दी थी।' एक म ीना बीत गया था। संधि ्या का समय था। काली-काली घटाएूँ छाई थीिं और मसू लािार वषाय ो र ी थी। भोंदू की भसरकी अब भी तनजनय स्थान पर खड़ी थी। भोंदू खटोली पर पड़ी ुआ था। उसका च ेरा पीला पड़ गया था और दे जैसे सखू गई थी। व सशिंक आखँू ों से वषाय की ओर देखता ै। चा ता ै उठकर बा र देखू,ँ पर उठा न ीिं जाता। बटिं ी भसर पर घास का एक बोझ भलए पानी मंे लथ-पथ आती हदखलाई दी। व ी गुलाबी साड़ी ै पर तार-तार, ककन्तु च ेरा प्रसन्न ै। ववषाद और ग्लातन के बदले आूँखों से अनरु ाग टपक र ा ै, गतत मंे व चपलता, अगिं ों में सजीवता ै, जो धचतत की शाल्न्त का धचह्न ै। भोंदू ने क्षीण स्वर से क ा - 'तू इतना भीग र ी ै, क ीिं बीमार पड़ गई, तो कोई एक घिूंट पानी देनवे ाला भी न र ेगा। मंै क ता ूँ, तू क्यों इतना मरती ै, दो गट्ठे तो बेच चुकी थी, तीसरा गट्ठा लाने का काम क्या था, य ािंड़ी में क्या लाई ै?' बिंटी ने ािंड़ी को तछपाते ुए क ा -'कु छ भी तो न ीिं, कै सी ािंड़ी?' भोंदू ने जोर लगाकर खटोली से उठा, आँूचल के नीचे तछपी ुई ािंड़ी खोल दी और उसके भीतर नजर डालकर बोला - 'अभी लौटा, न ीिं तो मैं ाडंि ़ी फोड़ दँूगू ा।'
बटंि ी ने खटोली पर लेटते ुए क ा - 'जरा आईने मंे सूरत देखो, घी-दिू कु छ न भमलेगा, तो कै से उठोगे? कक सदा खाट पर सोने का ववचार ै?' भोंदू ने खटोली पर लेटते ुए क ा - 'अपने भलए तो एक साड़ी न ीिं लाई, ककतना क के ार गया, मेरे भलए घी और दिू सब चाह ए! मैं घी न खाऊँू गा।' बटंि ी ने मसु ्कराकर क ा - 'इसभलए तो घी खखलती ूँ कक तमु जकदी से काम- िंिि ा करने लगो और मेरे भलए साड़ी लाओ।' भोंदू ने मुस्कराकर क ा - 'तो आज जाकर क ीिं संेि मारूूँ ?' बंटि ी ने गाल पर एक ठोकर देकर क ा - 'प ले मेरा गला काट देना, तब जाना।' ***
सिी मभु लया को देखते ुए उसका पतत ककलू कु छ भी न ीिं ैं, कफर क्या कारण ंै कक मुभलया सन्तषु ्ट और प्रसन्न ैं और ककलू धचल्न्तत और सशिंककत? मुभलया को कौड़ी भमली ंै, उसे दसू रा कौन पछू े गा? ककलू को रतन भमला ंै, उसके सकै ड़ो ग्रा क ो सकते ैं, खासकर उसे अपने चचरे भाई राजा से ब ुत खटका र ता ैं, राजा रूपवान ैं, रभसक ैं, बातचीत मंे कु शल, ल्स्त्रयों को ररझाना जानता ैं, इससे ककलू मभु लया को बा र न ींि तनकलने देता। उस पर ककसी की तनगा भी पड़ जाए, य उसे असह्य ैं, व अब रात-हदन मे नत करता ंै, ल्जससे मुभलया को ककसी बात का कष्ट न ो। उसे न जाने ककस पवू -य जन्म के संसि ्कार से ऐसी स्त्री भमल गई ैं, उस पर प्राणों को न्योछावर कर देना चा ता ैं। मुभलया का कभी भसर भी दखु ता ैं, तो उसकी जान तनकल जाती ैं। मुभलया का भी य ाल ंै कक जब तक व घर न ींि आता, मछली की भाँतू त तड़पती र ती ंै। गाूवँ में ककतने ी यवु क ैं, जो मभु लया से छे ड़छाड़ करते र ते ैं, पर उस यवु ती की दृल्ष्ट में कु रूप कलआु संसि ार-भर के आदभमयों से अच्छा ैं। एक हदन राजा ने क ा - भाभी, भयै ा तुम् ारे जोग न थ।े मुभलया बोली - भाग में तो व भलखे थे, तुम कै से भमलत?े राजा ने मन मंे समझा, बस मार भलया ंै कफर बोला - ववधि ने य ी तो भलू की। मुभलया मुस्कराकर बोली - अपनी भलू तो व ी सुिारेगा। राजा तन ाल ो गया। तीज के तीन ककलू मभु लया के भलए लट्ठे की साड़ी लाया, चा ता तो था कोई अच्छी साड़ी ले पर रुपए न थे और बजाज ने उिार न माना।
राजा भी उसी हदन अपने भाग्य की परीक्षा करना चा ता था, एक सनु ्दर चनु ्दरी लाकर मभु लया को भंेट की। मभु लया ने क ा - मेरे भलए साड़ी आ गई ैं। राजा बोला - मनैं े देखी ंै, तभी तो लाया ूँ, तुम् ारे लायक न ींि ैं, भयै ा को ककफायत भी सूझती ैं, तो ऐसी बातों में। मुभलया कटाक्ष करके बोली - तुम समझा क्यों न ीिं देत?े राजा पर एक कु क ड़ का नशा चढ गया उसने क ा - बढू ा तोता न ींि पढती ंै। मुभलया ने क ा - मुझे तो लट्ठे की साड़ी पसन्द ैं। राजा ने क ा - जरा य चुन्दरी प नकर देखों, कै सी खखलती ैं। मुभलया ने क ा - जो लट्ठा प नकर खशु ोता ंै, व चुन्दरी प न लेने से खुश न ोगा, उन् ें चुन्दरी पसन्द ोती, तो चनु ्दरी ी लात।े राजा ने क ा - उन् ें हदखाने का काम न ीिं ंै? मभु लया ववस्मय से बोली - मंै क्या उनसे बबना पछू े ले लूँगी? राजा ने क ा - इसमंे पूछने की कौन-सी बात ंै, जब व काम पर चला जाए, प न लेना, मंै भी देख लूँगा। मुभलया ठट्ठा मारकर ूँसती ुआ बोली - य न ोगा देवरजी। क ीिं देख लें, तो मेरी सामत ी आ जाए, इसे तुम भलए जाओ। राजा ने आग्र करके क ा - इसे न लोगी, भाभी, तो मंै ज र खाके सो र ूँगा।
मुभलया ने साड़ी उठाकर आले पर रख दी और बोली - अच्छा लो, अब तो खुश ुए। राजा ने उँू गली पकड़ी - अभी तो भैया न ींि ंै, जरा प न लो। मुभलया ने अन्दर जाकर चनु ्दरी प न ली औऱ फू ल की तर म कती-दमकती बा र आई। राजा ने प ुँूचकर पकड़ने को ाथ फै लाया, बोला - ऐसा जी चा ता ैं कक तुम् ें लेकर भाग जाऊूँ । मुभलया उसी ववनोद-भाव से बोली - जानते ो, तमु ् ारे भैया का क्या ाल ोगा? य क ते ुए उसने ककवाड़ बन्द कर भलए, राजा को ऐसा मालूम ुआ कक थाली परोसकर उसके सामने से उठा ली गई। मभु लया का मन बार-बार करता था कक चुन्दरी ककलू को हदखा दे, पर नतीजा सोचकर र जाती थी, उसने चुन्दरी रख क्यों ली? उसे अपने पर क्रोि आ र ा था लेककन राजा को ककतना दःु ख ोता, क्या ुआ उसकी चनु ्दरी छन-भर प न लेने से, उसका मन तो र गया। लेककन उसके प्रशान्त मानस-सागर मंे य एक कीट आकर उसे मथ र ा था, उसने क्यों चनु ्दरी रख ली? क्या य ककलू के साथ ववश्वासघात न ीिं ैं? उसका धचतत इस ववचार से ववकल ो गया। उसने मन को समझाया, ववश्वासघात क्यों ुआ, इसमें ववश्वासघात की क्या बात ैं, कौन व राजा से कु छ बोली? जरा-सा ँूस देने से अगर ककसी का हदल खुश ो जाता ंै, तो इसमंे बरु ाई क्या ंै? ककलू ने पछू ा - आज रज्जू क्या करने आया था?
मभु लया की दे थर-थर काँूपने लगी, ब ाना कर गई - तमाखू माँगू ने आए थ।े ककलू ने भूँवंे भसकोड़कर क ा - उसे अन्दर मत आने हदया करो, अच्छा आदमी न ीिं ंै। मभु लया ने क ा - मनंै े क हदया तमाखू न ीिं ंै, तो चले गए। ककलू ने अबकी तजे ल्स्वता के साथ क ा - क्यों झठू बोलती ैं? व तमाखू माँगू ने न ींि आया था। मभु लया ने क ा - तो और य ाूँ क्या करने आते? ककलू ने क ा - चा े ल्जस काम से आया ो, तमाखू माँगू ने न ीिं आया। व जानता था, मेरे घर में तमाखू न ींि ंै। मैं तमाखू के भलए उसके घर गया था। मभु लया की दे काटो तो ल ू न ींि, च ेरे का रिंग उठ गया। भसर झकु ाकर बोली - मंै ककसी के मन का ाल क्या जानूँ? आज तीज का रतजगा था। मुभलया पजू ा का सामान तैयार कर र ी थी पर इस तर जसै े मन मंे जरा भी उतसा , जरा भी श्र्ध ा न ीिं ैं। उसे ऐसा मालूम ो र ा ैं, उसके मखु मंे काभलमा पतु गई ैं औऱ अब व ककलू की आखूँ ों से धगर गई ंै, उसे अपना जीवन तनरािार-सा जान पड़ता था। सोचने लगी - भगवाने मझु े य रूप क्यों हदया? य रूप न ोता तो राजा क्यों मेरे पीछे पड़ता और क्यों आज मेरी य गत ोती? मैं काली-कु रूप र कर इससे क ी सखु ी र ती। तब तो मन इतना चिंचल न ोता, ल्जन् ंे रूप की कमाई खानी ो, व रूप पर फू लंे, य ाूँ तो इसने महटयामेट कर हदया। न जाने कब उसे झपकी आ गई, तो देखती ंै, ककलू मर गया ंै और राजा घर मंे घुसकर उसे पकड़ना चा ता ंै। उसी दम एक व्ृ ध ा स्त्री न जाने ककिर से
आकर उसे अपनी गोद में ले लेती ंै और क ती ैं - तूने ककलू को क्यों मार डाला? मुभलया रोकर क ती ंै - माता, मनैं े उन् ंे न ींि मारा। व्ृ ध ा क ती ंै - ाँू, तनू े छू री-कटार से न ीिं मारा, उस हदन तरे ा तप छीन ो गया और इसी से व मर गया। मुभलया ने चौकन्नी आँूखंे खोल दी, सामने आँूगन मंे ककलू सोया ुआ था, व दौड़ी ुई उसके पास गई और उसकी छाती पर भसर रखकर फू ट-फू टकर रोने लगी। ककलू ने घबराकर पछू ा - कौन ंै? मभु लया! क्यों रोती ैं? क्या डर लग र ा ंै, मैं तो जाग ी र ा ूँ। मुभलया ने भससकते ुए क ा - मझु से आज एक अपराि ुआ ैं, मझु े क्षमा कर दो। ककलू उठ बठै ा - क्या बात ैं? क ो तो रोती क्यों ो? मुभलया ने क ा - राजा तमाखू माँगू ने न ींि आया था, मनैं े तुमसे झठू क ा था। ककलू ँूसकर बोला - व तो प ले ी समझ गया था। मभु लया ने क ा - व मेरे भलए चुन्दरी लाया था। ककलू ने क ा - तमु ने लौटा दी? मुभलया काूपँ ती ुई बोली - मनंै े ले ली, क ते थे, मंै ज र-मा ुर खा लँूगा।
ककलू तनजीव की भाूँतत खाट पर धगर पड़ा और बोला - तो रूप मेरे बस का न ीिं ैं। देव ने कु रूप बना हदया, तो सुन्दर कै से बन जाऊँू ? ककलू ने मभु लया को खौलते तले में डाल हदया ोता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न ोती। ककलू उस हदन से कु छ खोया-खोया सा र ने लगा, जीवन मंे न व उतसा र ा, न व आनन्द, ँूसना-बोलना भलू -सा गया, मुभलया ने उसके साथ ल्जतना ववश्वासघात ककया था, उससे क ीिं ज्यादा उसने समझ भलया और य भ्रम उसके हृदय मंे के वटे के समान धचपट गया, व घर अब उसके भलए लेटने-बठै ने का स्थान था और मुभलया के वल भोजन बना देनेवाली मशीन, आनन्द के भलए व कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता या चरस के दम भरता। मभु लया उसकी दशा देख-देखकर अन्दर- ी-अन्दर कु ढती थी, व उस बात को हदल से तनकाल देना चा ती थी, इसभलए उसकी सेवा और मन लगा कर करती। उसे प्रसन्न करने के भलए बार-बार प्रयतन करती। पर व ल्जतना ी उसको खींचि ने की चषे ्ठा करती थी, उतनी ी व उससे ववचलता था, जैसे कोई कंि हटए में फँू सी ुई मछली ो। कु शल य था कक राजा ल्जस अगंि ्रेज के य ाूँ खानसामा था, उसका तबादला ो गया और राजा उसके साथ चला गया, न ींि तो दो भाईयों में से ककसी-न-ककसी का खून जरूर ो जाता। इस तर साल-भर बीत गया। एक हदन ककलू रात को घर लौटा तो उसे ज्वर था। दसू रे हदन उसकी दे मंे दाने तनकल आए, मभु लया ने समझा, माता ैं, मान-मनौती करने लगी। मगर चार- पाचूँ हदन मंे ी दाने बढकर आवले पड़ गए और मालूम ुआ कक य माता न ीिं ंै, उपदिंश ैं। ककलू के कलुवषत भोग-ववलास का य फल था। रोग इतनी भयंिकरता से बढने लगा कक आवलों में मवाद पड़ गया और उनमंे से ऐसी दगु नय ्ि उड़ने लगी कक पास बठै ते नाक फटती थी। दे ातों मंे ल्जस प्रकार का उपचार ो सकता था, व मभु लया करती थी पर कोई लाभ न ोता था और
ककलू की दशा हदन-हदन बबगड़ती जाती थी। उपचार की कसर व अबला अपनी स्ने मयी सेवा से परू ी करती थी, उस पर गृ स्थी चलाने के भलए अब मे नत- मजरू ी भी करनी पड़ती थी। ककलू तो अपने ककए का फल भोग र ा था, मुभलया अपने कततवय ्य का पालन करने मंे मरी जा र ी थी। अगर कु छ सन्तोष ोता, तो य ककलू का भ्रम उसकी तपस्या से भंगि ोता जाता था, उसे ववश्वास ोने लगा कक मुभलया अब भी उसी की ैं, व अगर ककसी तर अच्छा ो जाता, तो कफर उसे हदल मंे तछपाकर रखता और उसकी पजू ा करता। प्रातःकाल था। मभु लया ने ककलू का ाथ-मूँु िलु ाकर दवा वपलाई और खड़ी पंिखा डु ला र ी थी कक ककलू ने आसँू ू-भरी आँखू ों से देखकर क ा - मुभलया, मनंै े उस जन्म में कोई भारी तप ककया था कक तू मझु े भमल गई, तमु ् ारी जग मुझे दतु नया का राज भमले तो भी न लूँ। मभु लया ने दोनों ाथों से उसका मूँु बन्द कर हदया और बोली - इस तर की बातें करोगे, तो मंै रोने लगँूगी, मेरे िन्य भाग कक तमु -जैसा स्वामी भमला। य क ते ुए उसने दोनों ाथ पतत के गले में डाल हदए और भलपट गई कफर बोली - भगवान ने मझु े मेरे पापों का दंिड हदया ैं। ककलू ने उतसुकता से पछू ा - सच क दो मलू ा, राजा और तमु ने क्या मामला था? मुभलया ने ववल्स्मत ोकर क ा - मेरे और उनके बीच मंे कोई और मामला ुआ ो, तो भगवान मेरी दगु तय त करंे, उसने मुझे चनु ्दरी दी थी, व मनैं े ले ली थी! कफर मनंै े उसे आग में जला हदया। तबसे मंै उससे न ीिं बोली। ककलू ने ठिं ड़ी साँूस खींिचकर क ा - मनंै े कु छ और ी समझ रखा था , न-जाने मेरी मतत क ाँू र गई थी, तुम् ें पाप लगाकर मैं आप पाप में फूँ स गया और उसका फल भोग र ा ूँ।
उसने रो-रोकर अपने दषु ्कमों का परदा खोलना शुरू ककया और मुभलया की आूँसू की लडड़याूँ ब ाकर सनु ने लगी, अगर पतत की धचन्ता न ोती, तो उसने ववष खा भलया ोता। कई म ीने बाद राजा छु ट्टी लेकर घर आया और ककलू की घातक बीमारी का ाल सनु ा, तो हदन मंे खुश ुआ, तीमारदारी के ब ाने से ककलू के घर आने-जाने लगा। ककलू उसे देखकर मँूु फे र लेता लेककन व हदन मंे दो-चार बार प ुूँच ी जाता। एक हदन मुभलया खाना पका र ी थी कक राजा ने रसोई के द्वार पर आकर क ा - भाभी, क्यों अब भी मझु पर दया न करोगी? ककतनी बेर म ो तुम! कै हदन से तुम् ें खोज र ा ूँ, पर तमु मुझसे भागती कफरती ो, भैया अब अच्छे न ोंगे, इन् ें गमी ो गई ैं। इनके साथ क्यों अपनी ल्जन्दगी खराब कर र ी ो? तुम् ारी फू ल-सी दे सखू गई ैं, मेरे साथ चलो, कु छ ल्जन्दगी की ब ार उड़ाए, य जवानी ब ुत हदन न र ेगी, य देखो, तमु ् ारे भलए एक करनफू ल लाया ूँ, जरा प नकर मझु े हदखा दो। उसने करनफू ल मभु लया की ओर बढा हदया। मभु लया ने उसकी तरफ देखा भी न ीिं, चकू े की ओर ताकती ुई बोली - लाला, तुम् ारे पैरों पड़ती ूँ, मुझे मत छे ड़ो. य सारी ववपल्तत तुम् ारी लाई ुई ंै, तुम् ीिं मेरे शत्रु ो कफर भी तुम् ें लाज न ीिं आती, क ते ो, भयै ा अब ककस काम के ैं? मझु े तो अब व प ले से भी क ींि ज्यादा अच्छे लगते ंै। जब मंै न ोती, तो व दसू री सगाई कर लात,े अपने ाथों ठोकर खाते, आज मैं ी इनका आिार ूँ, व मेरे स ारे जीते ैं, अगर मैं इस सिंकट मंे उनके साथ दगा करूूँ , तो मझु से बढकर अिम कौन ोगा, जबकक मंै जानती ूँ कक इस संकि ट का कारण भी मैं ी ूँ। राजा ने ूँसकर क ा - य तो व ी ुआ, जसै े ककसी की दाल धगर गई, तो उसने क ा मुझे तो सूखी ी अच्छी लगती ैं।
मभु लया ने भसर उठाकर उसकी ओर सजोत नते ्रों से ताकते ुए क ा - तुम उनके पैरों की िलू के बराबर न ींि ो लाला। क्या क ते ो तमु ? उजले कपड़े और धचकने मुखड़े से कोई आदमी सनु ्दर न ीिं ोता, मेरी आूँखों मे तो उनके बराबर कोई हदखाई न ीिं देता। ककलू ने पुकारा - मूला, थोडा ू़ पानी दे। मभु लया पानी लेकर दौड़ी, चलते-चलते करनफू ल को ऐसा ठु कराया कक आूगँ न मंे जा धगरा। राजा ने जकदी से करनफू ल उठा भलया और क्रोि मंे भरा ुआ चल हदया। रोग हदन-पर-हदन बढता गया, हठकाने से दवा-दारू ोती, तो शायद अच्छा ो जाता , मगर अके ली मुभलया क्या-क्या करती? दररद्रता मंे बीमारी कोढ का खाज ैं। आखखर एक हदन परवाना आ प ुँूचा, मभु लया घर का काम-िन्िा करके आई, तो देखा ककलू की सासूँ चल र ी ैं, घबराकर बोला - कै सा जी ंै तुम् ारा? ककलू ने सजल और दीनता-भरी आँूखों से देखा और ाथ जोड़कर भसर नीचा कर भलया, य ीिं अल्न्तम बबदाई थी। मुभलया सीने पर भसर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आ त हृदय से रक्त की बूँदों के समान शब्द तनकलने लगे - तुमसे इतना भी न देखा गया, भगवन! उस पर न्यायी और दयालु क लाते ो! इसीभलए तुमने जन्म हदया! य ीिं खेल खले ने के भलए! ाय नाथ! तमु तो इतने तनष्ठु र न थे! मुझे अके ली छोड़कर चले जा र े ो! ाय! अब कौन मलू ा क कर पुकारेगा! अब ककसके भलए कूँु ए से पानी खीिंचूँगी! ककसे बठै ाकर खखलाऊँू गी, पखंि ा डु लाऊँू गी! सब सखु र भलया, तो मुझे भी क्यों न ीिं उठा लेत!े
सारा गावँू जमा ो गया। सभी समझा र े थे, मभु लया को िैयय न ोता था, य सब मेरे ी कारण ुआ, य बात उसे न ीिं भलू ती। ाय! ाय! उसे भगवान ने साम्यय हदया ोता, तो आज उसका भसरताज यों उठ जाता? शव की दा -कक्रया की तयै ाररयाँू ोने लगी। ककलू को मरे छः म ीने ो गए। मुभलया अपना कमाती ैं, खाती ैं और अपने घर में पड़ी र ती ंै। हदन-भर काम-िन्िें से छु ट्टी न ीिं भमलती, ाूँ, रात एकान्त मंे रो भलया करती ैं। उिर राजा की स्त्री मर गई, मगर दो-चार हदन के बाद व कफर छै ला बना घमू ने लगा। और भी छू टा सांिड ो गया। प ले स्त्री से झगड़ा ो जाने का डर था, अब व भी न र ा। अबकी नौकरी पर से लौटा, तो सीिे मभु लया के घर प ुँूचा और इिर-उिर की बातंे करने के बाद बोला - भाभी, अब तो मेरी अभभलाषा पूरी करोगी या अभी और कु छ बाकी ंै? अब तो भैया भी न ींि र े, इिर मेरी घरवाली भी भसिारी! मनंै े तो उसका गम भलु ा हदया, तमु कब तक भैया के नाम को रोती र ोगी? मभु लया ने घणृ ा से उसकी ओर देखकर क ा - भैया न ींि र े तो क्या ुआ भैया की याद तो ंै, उनका प्रेम तो ंै, उनकी सरू त तो हदल मंे ंै, उनकी बातें तो कानों मंे ैं, तमु ् ारे भलए औऱ दतु नया के भलए व न ींि ंै, मेरे भलए व अब भी वैसे ी जीत-े जागते ंै, मैं अब भी उन् ें वैसे ी बठै े देखती ूँ, प ले तो दे का अन्तर था, अब तो व भी मझु से और भी नगीच ो गए ंै, और ज्यों-ज्यों हदन बीतेंगे और भी नगीच ोते जाएँूगे। भरे-पूरे घर मंे दाने की कौन कदर करता ंै, जब घर खाली ो जाता ैं, तब मालूम ोता ै कक दाना क्या ंै, पैसेवाले पैसे की कदर क्या जाने, पैसे की कदर तब ोती ंै, जब ाथ खाली ो जाता ंै। तब आदमी एक-एक कौड़ी दातँू से पकड़ता ंै, तमु ् ंे भगवान ने हदल ी न ींि हदया, तुम क्या जानों, सो बत क्या ैं, घरवाली को मरे भी छः म ीने भी न ीिं ुए और तुम सांिड
बन बठै े , तमु मर गए ोत,े तो इसी तर व भी अब तक ककसी और के पास चली गई ोती? मैं जानती ूँ कक मैं मर जाती, तो मेरा भसरताज जन्म-भर मेरे नाम को रोया करता, ऐसे ी पुरुषों की ल्स्त्रयाँू उन पर प्राण देती ंै। तमु -जसै े सो दों के भाग पततल चाटना भलखा ैं, चाटो, मगर खबरदार, आज से मेरे घर में पाँवू न रखना, न ींि तो जान से ाथ िोओगे! बस तनकल जाओ। उसके मखु पर ऐसा तजे , स्वर में इतनी कटु ता थी कक राजा को जबान खोलने का भी सा स न ुआ, चुपके से तनकल भागा। ***
मिृ क-िोज सेठ रामनाथ ने रोग-शय्या पर पड़-े पड़े तनराशापूणय दृल्ष्ट से अपनी स्त्री सुशीला की ओर देखकर क ा - मैं बड़ा अभागा ूँ, शीला, मेरे साथ तमु ् ें सदैव ी दखु भोगना पड़ा। जब घर में कु छ न था, तो रात-हदन गृ स्थी के िन्िों और बच्चों के भलए मरती थी, जब जरा कु छ सम्भला और तमु ् ारे आराम करने के हदन आए, तो यों छोड़े चला जा र ा ूँ। आज तक मुझे आशा थी, पर आज व आशा टू ट गई, देखो शीला, रोओ मत, सिंसार में सभी मरते ैं, कोई दो साल आगे, कोई दो साल पीछे । अब गृ स्थी का भार तमु ् ारे ऊपर ंै, मनैं े रुपए न ींि छोड़े लेककन जो कु छ ै, उससे तुम् ारा जीवन ककसी तर कट जाएगा, य राजा क्यों रो र ा ंै? सशु ीला ने आँूसू पोंछकर क ा - ल्जद्दी ो गया ंै और क्या, आज सबेरे से रट लगाए ुए ंै कक मैं मोटर लूँगा, 5 रुपए से कम में आएगी मोटर? सेठजी को इिर कु छ हदनों से दोनों बालकों पर ब ुत स्ने ो गया था, उसने क ा - तो मँूगा दो न एक, बेचारा कब से रो र ा ंै, क्या-क्या अरमान हदल मंे थ।े सब िलू में भमल गए। रानी के भलए ववलायती गडु ड़या भी मूँगा दो। दसू रों के खखलौने देखकर तरसती र ती ंै, ल्जस िन को प्राणों से भी वप्रय समझा, व अन्त में डॉक्टरों ने खाया, बच्चे मुझे क्या याद करंेगे कक बाप था, अभागे बाप ने तो िन को लड़के -लड़की से वप्रय समझा, कभी एक पैसे की चीज भी लाकर न ीिं दी। अल्न्तम समय जब संिसार की असारता कठोर सतय बनकर आँखू ों के सामने खड़ी ो जाती ंै, तो जो कु छ न ककया, उसका खेद और जो कु छ ककया, उस पर पश्चाताप, मन को उदार और तनष्कपट बना देता ंै।
सशु ीला ने राजा को बुलाया और उसे छाती से लगाकर रोने लगी। व मातसृ ्ने , जो पतत की कृ पणता से भीतर- ी-भीतर तड़पकर र जाता था, इस समय जसै े खौल उठा लेककन मोटर के भलए रुपए क ाूँ थे? सेठजी ने पूछा - मोटर लोगे बेटा, अपनी अम्माूँ से रुपए लके र भैया के साथ चले जाओ, खबू अच्छी मोटर आना। राजा ने माता के आँसू ू और वपता का य स्ने देखा, तो उसका बाल ठ जैसे वपघल गया, उसने कफर क ा - अभी न ींि लूँगा। सेठजी ने पछू ा - क्यों? राजा ने क ा - जब आप अच्छे ो जाएँूगे तब लूँगा। सेठजी फू ट-फू टकर रोने लगे। तीसरे हदन सेठ रामनाथ का दे ान्त ो गया िनी के जीने से दःु ख ब ुतों को ोता ैं, सुख थोडों को। उनके मरने से दःु ख थोड़ों को ोता ंै, सुख ब ुतों को, म ाब्राह्मणों की मिडं ली अलग सखु ी ंै, पडंि डतजी अलग खुश ैं और शायद बबरादरी के लोग भी प्रसन्न ंै, इसभलए कक एक बारबर का आदमी कम ुआ, हदल से एक काटूँ ा दरू ुआ और पट्टीदारों का तो पछू ना ी क्या, अब व परु ानी कसर तनकालंेगें। हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर ब ुत हदनों के बाद भमला ैं। आज पाूँचवाँू हदन ंै, व ववशाल भवन सनू ा पड़ा ंै, लड़के न तो रोते ंै, न ूँसते ंै, मन मारे माँू के पास बठै े ैं और वविवा भववष्य की अपार धचन्ताओंि के भार
से दबी ुई तनजीव-सी पड़ी ैं, घर में जो रुपए बच र े थे, वे दा -कक्रया की भेंट ो गए और अभी तो सारे सिसं ्कार बाकी पड़े ैं, भगवान! कै से बेड़ा पार लगेगा। ककसी ने द्वार पर आवाज दी, म रा ने आकर सेठ िनीराम के आने की सूचना दी, दोनों बालक बा र दौड़,े सशु ीला का मन भी एक क्षण के भलए रा ो गया। सेठ िनीराम बबरादरी के सरपचिं थे, अबला का हृदय सेठजी की इस कृ पा से पलु ककत ो उठा। आखखर बबरादरी के मखु खया ंै। ये लोग अनाथों की खोज-खबर न लें तो कौन ले, िन्य ैं ये पुण्यातमा लोग जो मुसीबतों मंे दीनों की रक्षा करते ैं। य सोचती ुई सशु ीला घूघँ ट तनकाले बरोठे में आकर खड़ी ो गई, देखा तो िनीरामजी के अततररक्त और भी कई सज्जन खड़े ैं। िनीराम बोले - ब ूजी, भाई रामनाथ की अकाल मतृ यु से म लोगों को ल्जतना दःु ख ुआ ैं, व मारा हदल ी जानता ंै, अभी उनकी उम्र ी क्या थी लेककन भगवान की इच्छा, अब तो मारा य ी िमय ंै कक ईश्वर पर भरोसा रखें और आगे के भलए कोई रा तनकालंे, काम ऐसा करना चाह ए कक घर की आबरू भी बनी र े और भाईजी की आतमा सन्तुष्ट भी ो। कु बेरदास ने सशु ीला को कनखखयों से देखते ुए क ा - मयायदा बड़ी चीज ैं, उसकी रक्षा करना मारा िमय ैं लेककन कमरे के बा र पाूँव तनकालना भी तो उधचत न ींि ैं, ककतने रुपए ंै तरे े पास, ब ू? क्या क ा, कु छ न ींि? सशु ीला ने क ा - घर मंे रुपए क ाूँ ंै सेठजी, जो थोड़े-ब ुत थे, व बीमारी में उठ गए। िनीराम ने क ा - तो य नई समस्या खड़ी ुई ंै, ऐसी दशा में में क्या करना चाह ए, कु बेरदासजी?
कु बेरदास ने क ा - जसै े ो, भोज तो करना ी पड़गे ा। ाूँ, अपनी साम्यय देखकर काम करना चाह ए। मंै कजय लेने को न क ूँगा, ाूँ, घर मंे ल्जतने रुपयों का प्रबन्ि ो सके , उसमें मंे कोई कसर न छोड़नी चाह ए, मतृ -जीव के साथ भी तो मारा कु छ कततवय ्य ंै, अब तो व कफर कभी न आएगा, उससे सदैव के भलए नाता टू ट र ा ंै, इसभलए सब कु छ ैभसयत के मतु ाबबक ोना चाह ए, ब्राह्मणों को तो देना ी पड़गे ा, ल्जससे कक मयादय ा का तनवाय ो!' िनीराम ने क ा - 'तो क्या तुम् ारे पास कु छ भी न ीिं ै, ब ूजी? दो-चार जार भी न ीं!ि ' सुशीला ने क ा - 'मैं आपसे सतय क ती ूँ, मेरे पास कु छ न ींि ै, ऐसे समय झूठ बोलूँगी।' िनीराम ने कु बेरदास की ओर अिय-अववश्वास के देखकर क ा -'तब तो य मकान बेचना पड़गे ा।' कु बेरदास ने क ा - 'इसके भसवा और क्या ो सकता ै, नाक काटना तो अच्छा न ींि, रामनाथ का ककतना नाम था, बबरादरी के स्तम्भ थे, य ी इस समय एक उपाय ै, 20 जार रुपए मेरे आते ै, सदू -बट्टा लगाकर कोई 25 जार रुपए मेरे ो जाएगे, बाकी भोज मंे खचय ो जाएगा, अगर कु छ बचा र ा तो बाल-बच्चों के काम आ जाएगा।' िनीराम ने क ा - 'आपके य ाँू ककतने पर बिंि क रखता था?' कु बेरदास ने क ा - '20 जार रुपए पर, रुपए सैकड़े सूद।' िनीराम ने क ा - 'मनैं े तो कु छ कम सनु ा ै।' कु बेरदास ने क ा - 'उसका तो रे ननामा रखा ै, जबानी बातचीत थोड़े ी ै, मैं दो-चार जार के भलए झूठ न ींि बोलँूगा।'
िनीराम ने क ा - 'न ींि-न ीिं, य मैं कब क ता ूँ, तो तनू े सनु भलया, बाई! पचिं ों की सला ै कक मकान बेच हदया जाए।' सशु ीला का छोटा भाई सन्तलाल भी इसी समय आ प ुँूचा, य अल्न्तम वाक्य उसके कान मंे पड़ गए, उसने क ा -'ककसभलए मकान बेच हदया जाए? बबरादरी भोज के भलए? बबरादरी तो खा-पीकर रा लेगी, इन अनाथों की रक्षा कै से ोगी? इनके भववष्य के भलए भी तो कु छ सोचना चाह ए।' िनीराम ने कोप-भरी आखूँ ों से देखकर क ा - 'आपको इन मामलों में टाँूग अड़ाने का कोई अधिकार न ीि।ं के वल भववष्य की धचन्ता करने से काम न ीिं चलता। मतृ क का पीछा भी ककसी तर सुिारना ी पड़ता ै। आपका क्या बबगड़गे ा, ँूसी तो मारी ोगी, सिसं ार मंे मयायदा से वप्रय कोई वस्तु न ीिं! मयादय ा के भलए प्राण तक दे देते ै, जब मयायदा ी न र ी तो क्या र ा। अगर मारी सला पछू ोगे, तो म य ी क ंेगे, आगे बाई का अखततयार ै, जैसे चा े करे, पर मसे कोई सरोकार न र ेगा, चभलए कु बेरदासजी, चले।' सशु ीला ने भयभीत ोकर क ा -'भैया की बातों का ववचार न कील्जए, इनकी तो य आदत ै, मनंै े तो आपकी बात न ीिं टाली, आप मेरे बड़े ै, घर का ाल आपको मालमू ै। मंै अपने स्वामी की आतमा को दखु ी करना न ीिं चा ती, लेककन बच्चे ठोकरें खाएूँगे, तो क्या उनकी आतमा दखु ी न ोगी? बेटी का ब्या करना ी ै, लड़के को पढाना-भलखाना ै ी, ब्राह्मणों को खखला दील्जए लेककन बबरादरी करने की मुझमंे सामथय न ींि ै।' दोनों म ानभु ावों को जसै े थप्पड़ लगा - इतना बड़ा अिमय, भला ऐसी बात भी जबान से तनकाली जाती ै। पचिं लोग अपने मूँु में काभलख न लगने देंगे। दतु नया वविवा को न ँूसेगी, ँूसी ोगी पचंि ों की, य जग- ँूसाई कै से स सकते ंै, ऐसे द्वार पर झाकूँ ना भी पाप ै। सुशीला रोकर बोली -'मंै अनाथ ूँ, नादान ूँ, मुझ पर क्रोि न कील्जए, आप लोग ी मझु े छोड़ दंेगे, तो मेरा कै से तनवाय ोगा।'
इतने मंे दो म ाशय और आ बबराजे। एक ब ुत मोटे और दसू रे ब ुत दबु ले, नाम भी गुणों के अनुसार ी - भीमचन्द और दबु लय दास। िनीराम ने सिकं ्षपे में य पररल्स्थतत उन् ंे समझा दी। दबु लय दास ने सहृदयता से क ा - 'तो ऐसा क्यों न ींि करते कक म लोग भमलकर रुपए दे, जब इसका लड़का भसयाना ो जाएगा, तो रुपए भमल ी जाएँूगे। अगर न भी भमलें तो एक भमत्र के भलए कु छ बल खा जाना कोई बड़ी बात न ी।' सन्तलाल ने प्रसन्न ोकर क ा -'इतनी दया आप करंेगे, तो क्या पूछना।' कु बेरदास ने तयोरी चढाकर बोले - 'तमु तो बेभसर-परै की बातंे करने लगे, दबु लय दास जी, इस बखत के बाजार में ककसके पास फालतू रुपए रखे ुए ै।' भीमचन्द ने क ा -'सो तो ठीक ै, बाजार की ऐसी मन्दी तो कभी देखी न ींि, पर तनबा तो करना चाह ए।' कु बेरदास अकड़ गए। व सुशीला के मकान पर दाूतँ लगाए ुए थे, ऐसी बातों से उनके स्वाथय में बािा पड़ती थी। व अपने रुपए वसूल करके छोड़ंेगे। भीमचन्द ने उन् ें ककसी तक सचते ककया लेककन भोज तो देना ी पड़गे ा, उस कतवय ्य का पालन न करना समाज की नाक काटना ै। सशु ीला ने दबु लय दास में सहृदयता का आभास देखा। उनकी ओर दीन नेत्रों से देखकर बोली - 'मंै आप लोगों से बा र थोड़े ी ूँ, आप लोग माभलक ै, जसै ा उधचत समझें वसै ा करंे।' दबु लय दास ने क ा - 'तरे े पास कु छ थोड़े ब ुत ग ने तो ोंगे, बाई?' ' ाँू ग ने तो ै, आिे तो बीमारी में बबक गए, आिे बचे ै।' सशु ीला ने सारे ग ने लाकर पचिं ों के सामने रख हदए। पर य तो मुल्श्कल से तीन जार मंे उठंे गे।
दबु लय दास ने पोटली को ाथ में तौलकर क ा - 'तीन जार को कै से आएूँगे, मंै साढें तीन जार हदला दँूगू ा।' भीमचन्द ने कफर पोटली को तौलकर क ा - 'मेरी बोली चार जार की ै।' कु बेरदास को मकान की बबक्री का प्रश्न छे ड़ने का अवसर कफर भमला - 'चार जार ी में क्या ुआ जाता ै, बबरादरी का भोज ै या दोष भमटाना ै। बबरादरी मिं कम-से-कम दस जार का खरचा ै। मकान तो तनकालना ी पड़गे ा।' सन्तलाल ने ोट चबाकर क ा - 'मंै क ता ूँ, आप लोग क्या इतने तनदययी ै! आप लोगों को अनाथ बालकों पर भी दया न ीिं आती! क्या उन् ें रास्ते का भभखारी बनाकर छोड़गें े?' लेककन सन्तलाल की फररयाद पर ककसी ने ध्यान न हदया। मकान की बातचीत अब न ीिं टाली जा सकती थी। बाजार मन्दा ै, 30 जार से बेसी न ीिं भमल सकत,े 25 जार तो कु बेरदास के ै, पाूचँ जार बचेंगे, चार जार ग नों से आ जाएँूगे, इस तर 9 जार मंे बड़ी ककफायत से ब्रह्मभोज और बबरादरी-भोज दोनों तनपटा हदए जाएँूगे। सशु ीला ने दोनों बालकों को सामने करके करब्ध ोकर क ा - 'पचंि ों, मेरे बच्चों का मूँु देखखए, मेरे घर में जो कु छ ै, व आप सब ले लील्जए लेककन मकान छोड़ दील्जए। मझु े क ींि हठकाना न भमलेगा। मंै आपके परै ों पड़ती ूँ मकान इस समय न बेच।े ' इस मूखतय ा का क्या जवाब हदया जाए। पंचि लोग तो खदु चा ते थे कक मकान न बेचना पड़े, उन् ें अनाथों से कोई दशु ्मनी न ीिं थी, ककन्तु बबरादरी का भोज और ककस तर ककया जाए। अगर वविवा कम-से-कम पाँचू जार रुपए का जुगाड़
और कर दे, तो मकान बच सकता ै। पर व ऐसा न ीिं कर सकती, तो मकान बेचने के भसवा और कोई उपाय न ीं।ि कु बेर ने अन्त में क ा - 'देख बाई, बाजार की दशा इस समय खराब ै। रुपए ककसी से उिार न ींि भमल सकत।े बाल-बच्चों के भाग मंे भलखा ोगा, तो भगवान और ककसी ीले से देगा। ीले रोजी, ब ाने मौत, बाल-बच्चों की धचन्ता मत कर। भगवान ल्जसको जन्म देते ै, उसकी जीववका की जगु त प ले ी से कर देते ै। म तुझे समझाकर ार गए। अगर तू अब भी अपनी ठ न छोड़गे ी, तो म बात भी न पूछें गे कफर य ाूँ तरे ा र ना मलु ्श्कल ो जाएगा। श रवाले तरे े पीछे पड़ जाएूँगे।' वविवा सुशीला अब और क्या करती, पंचि ों से लड़कर व कै से र सकती थी। पानी में र कर मगर से कौन बरै कर सकता ै। घर मंे जाने के भलए उठी पर व ींि मतू छयत ोकर धगर पड़ी। अभी तक आशा सम्भाले ुई थी, बच्चों के पालन- पोषण में व अपना वैिव्य भूल सकती थी पर अब तो अन्िकार था, चारों ओर। सेठ रामनाथ के भमत्रों का उनके घर पर परू ा अधिकार था। भमत्रों का अधिकार न ो तो ककसका ो, स्त्री कौन ोती ै, जब व इतनी मोटी-सी बात न ींि समझती कक बबरादरी करना और िमू -िाम से हदल खोलकर करना लाल्जमी बात ै, तो उससे और कु छ क ना व्यथय ै। ग ने कौन खरीदे? भीमचन्द चार जार दाम लगा चुके थे, लेककन अब उन् ंे मालूम ुआ, इस बात पर दबु लय दास और भीमचन्द मंे तकरार भी ो गई थी लेककन भीमचन्द को मँूु की खानी पड़ी, न्याय दबु लय के पक्ष में था। िनीराम ने कटाक्ष ककया - 'देखो दबु लय दास, माल तो ले जाते ो, पर तीन जार से बेसी का ै, मैं नीतत की तया न ोने दँूगू ा।'
कु बेरदास बोले - 'अजी, तो घर मंे ी तो ै, क ींि बाजार तो न ीिं गया। एक हदन भमत्रों की दावत ो जाएगी!' इस पर चारों म ानुभाव ँूसे। इस काम से फु रसत पाकर अब मकान का प्रश्न उठा। कु बेरदास 30 जार देने पर तयै ार थे, पर काननू ी कायवय ाई ककए बबना सन् ेद की गजुिं ाइश थीं।ि य गुिंजाइश क्योंकर रखी जाए, एक दलाल बलु ाया गया। नाटा-सा आदमी था, पोपला मूँु , कोई 70 की अवस्था, नाम था चोखेलाल। कु बेरदास ने क ा - 'चोखले ालजी से मारी तीस साल की दोस्ती ै। आदमी क्या रतन ै।' भीमचन्द ने क ा - 'बाजार का ाल अच्छा न ींि ै, लेककन कफर भी में य तो देखना पड़गे ा कक रामनाथ के बाल-बच्चों का टोटा न ो। (चोखेलाल के कान मंे) तीस से आगे न जाना।' भीमचन्द ने क ा -'देखखए कु बेरदास, य अच्छी बात न ीिं ै।' कु बेरदास ने क ा -'तो मैं क्या कर र ा ूँ, मैं तो य ी क र ा था कक अच्छे दाम लगवाना।' चोखेलाल ने क ा - 'आप लोगों को मुझसे य क ने की जरूरत न ीिं, मंै अपना िमय समझता ूँ। रामनाथजी मेरे भी भमत्र थे, मुझे मालमू ै कक इस मकान के बनवाने मंे एक लाख से कम एक पाई भी न ीिं लगी लेककन बाजार का ाल क्या आप लोगों से तछपा ै। इस समय इसके 25 जार से बेसी न ींि भमल सकत।े सुभीते से तो कोई ग्रा क से दस-पाचूँ जाए और भमल जाएँूगे, लेककन इस समय तो कोई ग्रा क भी मलु ्श्कल से भमलेंगे। लो द ी और लावद ी की बात ै।'
िनीराम ने क ा - '25 जार रुपया तो ब ुत कम ै भाई, और न स ी 30 जार रुपया को करा दो।' चोखले ाल ने क ा - '30 तो क्या 40 करा दँू,ू पर कोई ग्रा क तो भमले। आप लोग क ते ै तो मैं 30 जार रुपया की बातीचीत करूूँ गा।' िनीराम ने क ा - 'जब तीस जार में ी देना ै तो कु बेरदासजी ी क्यों न ले लंे, इतना सस्ता माल दसू रों को क्यों हदया जाए।' कु बेरदास ने क ा -'आप सब लोगों की राय ो, तो ऐसा ी कर भलया जाए।' िनीराम ने ' ाूँ- ाँू' क कर ामी भरी। भीमचन्द मन में ऐिंठकर र गए। य सौदा भी पक्का ो गया। आज ी वकील से बनै ामा भलखा, तरु न्त रल्जस्री भी ो गई। सुशीला के सामने बनै ामा लाया गया, तो उसने ठिं ड़ी साूसँ ली और सजल नेत्रों से उस पर स्ताक्षर कर हदए। अब उसके भसवा और क ींि शरण न ींि ै, बेवफा भमत्र की भाूँतत य घर भी सखु के हदनों मंे साथ देकर दःु ख के हदनों मंे उसका साथ छोड़ र ा ै। पिंच लोग सुशीला के आूँगन में बैठे बबरादरी के रुक्के भलख र े ै और अनाथ वविवा ऊपर झरोखे पर बैठी भाग्य को रो र ी ै। इिर रुक्का तैयार ुआ, उिर वविवा की आँूखों से आँसू ू की बूँदंे तनकलकर रुक्के पर धगर पड़ीं।ि िनीराम ने ऊपर देखकर क ा - 'पानी का छीिंटा क ाूँ से आया?' सन्तलाल ने क ा - 'बाई बठै ी रो र ी ै, उसने रुक्के पर अपने रक्त के आूसँ ओू िं की मु र लगा दी ै।' िनीराम ने ऊूँ चे स्वर में क ा - 'अरे, तो तू रो क्यों र ी ै, बाई? य रोने का समय न ींि ै। तुझे तो प्रसन्न ोना चाह ए कक पचिं लोग तेरे घर मंे आज शुभ-
कायय करने के भलए जमा ै, ल्जस के साथ तनू े इतने हदनों भोग-ववलास ककया, उसी का पीछा सुिारने में तू दःु ख मानती ै?' बबरादरी मंे रुक्का कफरा। इिर तीन-चार हदन पचिं ों ने भोज की तैयाररयों मंे बबताए। घी िनीराम की आढत से आया, मैदा, चीनी की आढत भी उन् ींि की थी। पाँूचवे हदन प्रातःकाल ब्रह्म-भोज ुआ। सन्ध्या-समय बबरादरी का ज्योनार। सशु ीला के द्वार पर बल्ग्ियों और मोटरों की कतारें खड़ी थी। भीतर मे मानों की पंिगते थींि। आगूँ न, बठै क, दालान, बरोठा, ऊपर की छत नीच-े ऊपर मे मानों से भरा ुआ था। लोग भोजन करते थे और पंिचों को सरा ते थे। 'खचय तो सभी करते ै, पर इन्तजाम का सलीका चाह ए। ऐसे स्वाहदष्ट पदाथय ब ुत कम खाने मंे आते ै।' 'सेठ चम्पालाल के भोज के बाद ऐसा भोज रामनाथजी का ी ुआ ै।' 'इमरततयाूँ कै सी कु रकु री ै!' 'रसगुकले मेवों से भरे ै।' 'सारा श्रेय पिंचों को ै।' िनीराम ने नम्रता से क ा - 'आप भाइयों की दया ै, जो ऐसा क ते ो। रामनाथ से भाई-चारे का व्यव ार था। म न करते तो कौन करता, चार हदन से सोना नसीब न ीिं ुआ।' 'आप िन्य ै! भमत्र ों तो ऐसे ो।' 'क्या बात ै! आपने रामनाथजी का नाम रख भलया। बबरादरी य ी खाना- खखलाना देखती ै, रोकड़ देखने न ीिं जाती।'
मे मान लोग बखान-बखान कर माल उड़ा र े थे और उिर कोठरी में बैठी ुई सुशीला सोच र ी थी - 'संसि ार में ऐसे स्वाथी लोग ै! सारा ससिं ार स्वाथमय य ो गया ो गया ै! सब पेटों पर ाथ फे र-फे रकर भोजन कर र े ै, कोई इतना भी न ीिं पछू ता कक अनाथों के भलए कु छ बचा या न ींि।' एक म ीना गुजर गया। सुशीला को एक-एक पैसे की तंिगी ो र ी थी। नकद था ी न ींि। ग ने तनकल ी गए थ।े अब थोड़े से बतनय बच र े थ।े उिर छोटे -छोटे ब ुत से बबल चकु ाने थ।े कु छ रुपए डॉक्टर के , कु छ दरजी के , कु छ बतनयों के । सुशीला को य रकमें घर का बचा-खचु ा सामान बेचकर चुकानी पड़ी और म ीना पूरा ोत-े ोते उसके पास कु छ न बचा। बेचारा सन्तलाल एक दकु ान मंे मनु ीम था। कभी-कभी व आकर एक-आि रुपया दे देता। इिर खचय का ाथ फै ला ुआ था। लड़के अवस्था को समझते थे, माूँ को छे ड़ते न थे। मकान के सामने से कोई खोंचे वाला तनकल जाता और वे दसू रे लड़को को फल या भमठाई खाते देखते, तो उनके मूँु में पानी भरकर आखूँ ों में भर जाता था। ऐसी ललचाई ुई आूखँ ों से ताकते थे कक दया आती। व ी बच्चें, जो थोड़े हदन प ले मेवे-भमठाई की ओर ताकते भी न थे। अब एक-एक पैसे की चीज को तरसते थ।े व ी सज्जन, ल्जन् ोंने बबरादरी का भोज करवाया था, अब घर के सामने से तनकल जात,े पर कोई झाकूँ ता न था। शाम ो गई थी। सशु ीला चूक ा जलाए, रोहटयाँू सकें र ी थी और दोनों बालक चूक े के पास रोहटयों को क्षधु ित नते ्रों से देख र े थ।े चकू े की दसू रे ऐले पर दाल थी। दाल के पकने का इन्तजार था। लड़की ग्यार साल की थी, लड़का आठ साल का। मो न अिीर ोकर बोला - 'अम्मा,ूँ मझु े रूखी रोहटयाूँ ी दे दो, बड़ी भूख लगी ै।'
सुशीला ने क ा -'अभी दाल कच्ची ै भयै ा।' रेवती ने क ा -'मेरे पास एक पसै ा ै, मंै उसकी द ी भलए आती ूँ।' सुशीला ने क ा - 'तूने पैसा क ाँू पाया?' रेवती ने क ा -'मुझे कल अपनी गुडड़यों की पेटारी मंे भमल गया था।' सशु ीला ने क ा- 'लेककन जकदी आइयो।' रेवती दौड़कर बा र गई और थोड़ी देर मंे एक पतते पर द ी ले आई। माूँ ने रोटी-सेंककर दंे दी। मो न द ी से खाने लगा। आम लड़कों की भातँू त व भी स्वाथी था, ब न से पूछा भी न ी।िं सुशीला ने कड़ी आँूखों से देखकर क ा -'ब न को भी दे दे, अके ला ी खा जाएगा।' मो न लल्ज्जत ो गया, उसकी आूखँ ें डबडबा आई। रेवती बोली - 'न ींि अम्माँू, ककतना भमला ी ै, तमु खाओ मो न, तुम् ें जकदी नीदंि जाती ै। मैं तो दाल पक जाएगी तो खाऊँू गी।' उसी वक्त दो आदभमयों ने आवाज दी। रेवती ने बा र जाकर पूछा। य सेठ कु बेरदाल के आदमी थ।े मकान खाली कराने आए थे। क्रोि से सशु ीला की आूखँ ें लाल ो गई। बरोठे में आकर क ा - 'अभी मेरे पतत का पीछे ुए म ीना भी न ींि ुआ, मकान खाली कराने की िनु सवार ो गई। मेरा 50 जार का मकान 30 जार मंे ले भलया। पाँूच जार सूद के उड़ाए, कफर भी तस्कीन न ीिं ोती। क ो, मैं अभी खाली न ींि करूँू गी।'
मनु ीम ने नम्रता से क ा - 'बाईजी, मेरा क्या अल्ख्तयार ै, मैं तो के वल सन्देभसया ूँ। जब चीज दसू रे की ो गई तो आपको छोड़नी ी पड़गे ी। झिंझट करने से क्या मतलब।' सशु ीला समझ गई, ठीक ी क ता ै, गाय, तया के बल के हदन खते चरेगी। सशु ीला नमय ोकर बोली - 'सेठजी से क ों, मुझे दस-पाँचू हदन की मु लत दें। लेककन न ींि, कु छ मत क ो। क्यों दस-पाचूँ हदन के भलए ककसी का अ सान लूँ। मेरे भाग्य में इस घर मंे र ना भलखा ोता, तो तनकलती ी क्यों।' मुनीम ने क ा -'तो कल सबेरे तक खाली ो जाएगा।' सशु ीला ने क ा -' ाँू, ाूँ, क ती तो ूँ लेककन सबेरे तक क्यों, मैं अभी खाली ककए देती ूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान ी ै। तुम् ारे सेठजी का रातभर का ककराया मारा जाएगा, जाकर ताला-वाला लाओ या लाए ो?' मनु ीम ने क ा -'ऐसी क्या जकदी ै, बाई। कल साविानी से खाली कर दील्जएगा।' सशु ीला ने क ा - 'कल का झगड़ा क्या रखू।ँ मुनीमजी, आप जाइए। ताला लाकर डाल दील्जए।' य क ती ुई सशु ीला अन्दर गई। बच्चों को भोजन कराया। एक रोटी आप ककसी तर तनगली। बतनय िोए, कफर एक इक्का मूँगवाकर उस पर अपना मुख्तसर सामान लादा और भारी हृदय से उस घर से मेशा के भलए ववदा ो गई। ल्जस वक्त य घर बनवाया था, मन में ककतनी उमगिं ें थी। इसके प्रवेश में कई जार ब्राह्मणों का भोज ुआ। सशु ीला को इतनी दौड-िपू करनी पड़ी थींि कक व म ीने-भर बीमार र ी थी। इसी घर मंे उसके दो लड़के मरे थे। य ीिं उसकी पतत
मरा था। मरने वालों की स्मतृ तयों ने उसकी एक-एक ईट को पववत्र कर हदया था। एक-एक पतथर मानो उसके षय से खशु ी और उसके शोक से दखु ी ोता था, व घर छू टा जा र ा ै। उसने रात एक पड़ोसी के घर में काटी और दसू रे 10 रुपए म ीने पर एक गली में दसू रा मकान ले भलया। इस नए कमरंे मंे इन अनाथों ने तीन म ीने ल्जस कष्ट से काटे, व समझनेवाले ी समझ सकते ै। भला ो बेचारे सन्तलाल का, व दस-पाूँच रुपए से मदद कर हदया करता था। अगर सुशीला दररद्र घर की ोती, तो वपसाई करती, कपड़े सीती, ककसी के घर मंे ट ल करती, ल्जन कामों को बबरादरी नीचा समझती ै, उनका स ारा कै से लेती। न ींि तो लोग क ते, य सेठ रामनाथ की स्त्री ै! उसके नाम की भी तो लाज रखनी थी, समाज के चक्रव्यू से ककसी तर तो छु टकारा न ीिं ोता। लड़की के दो-एक ग ने बच र े थे, व भी बबक गए। जब रोहटयों ी के लाले थे, तो घर का ककराया क ाूँ से आता। तीन म ीने बाद घर का माभलक, जो उसी बबरादरी का एक प्रततल्ष्ठत व्यल्क्त था और ल्जसने मतृ क-भोज मंे खबू बढ-चढकर ाथ मारे थे, अिीर ो उठा। बेचारा ककतना ियै य रखता, 30 रुपए का मामला ै, रुपए आठ आने की बात न ीिं ै, इतनी बड़ी रकम न ीिं छोड़ी जाती। आखखर एक हदन सेठजी ने आकर लाल-लाल आँूखंे करके क ा - 'अगर तू ककराया न ीिं दे सकती, तो घर खाली कर दे, मनैं े बबरादरी के नाते इतनी मरु ौवत की, अब ककसी तर काम न ीिं चल सकता।' सुशीला बोली - 'सेठजी, मेरे पास रुपए ोते तो प ले आपका ककराया देकर तब पानी पीती, आपने इतनी मुरौबत की, इसके भलए मेरा भसर आपके चरणों पर ै
लेककन अभी मैं बबककु ल खाली- ाथ ूँ। य समझ लील्जए कक एक भाई के बाल- बच्चों की परवररश कर र े ै और क्या क ूँ।' सेठ ने क ा - 'चल-चल, इस तर की बातंे ब ुत सनु चकु ा। बबरादरी का आदमी ै, तो उसे चसू लो। कोई मसु लमान ोता, तो उसे चुपके से म ीने-म ीने दे देती। न ींि तो उसने तनकाल बा र ककया ोता। मैं बबरादरी का ूँ, इसभलए मझु े ककराया देने की दरकार न ीं।ि मझु े मागँू ना ी न ीिं चाह ए, य तो बबरादरी के साथ करना चाह ए।' इसी समय रेवती भी आकर खड़ी ो गई। सेठजी ने उसे भसर से पावँू तक देखा और तब ककसी कारण से बोले - 'अच्छा, य लड़की तो भसयानी ो गई, क ीिं इसकी सगाई की बातचीत न ीिं की?' रेवती तुरन्त भाग गई। सुशीला ने इन शब्दों मंे आतमीयता की झलक पाकर पुलककत किं ठ से क ा -'अभी तो क ीिं बातचीत न ींि ुई, सेठजी। घर का ककराया तक तो अदा न ीिं कर सकती, सगाई क्या करूँू गी, कफर अभी छोटी भी तो ै।' सेठजी ने तुरन्त शास्त्रों का आिार हदया। कन्याओंि के वववा की य ी अवस्था ै। िमय को कभी न ींि छोड़ना चाह ए। ककराए की कोई बात न ींि ै, में क्या मालमू था कक सेठ रामनाथ के पररवार की य दशा ै। सुशीला - 'तो आपकी तनगा में कोई अच्छा वर ै। य तो आप जानते ी ै, मेरे पास लेन-े देने को कु छ न ींि ै।' झाबरमल (इन सेठजी का य ी नाम था) - 'लेने-देने का कोई झगड़ा न ीिं ोगा, बाईजी, ऐसा घर ै कक लड़की आजीवन सखु ी र ेगी। लड़का भी उसके साथ र सकता ै, कु ल का सच्चा ै, र तर से सम्पन्न पररवार ै, ाँू, व दो ाजू (दजु वर) ै।'
सुशीला - 'उम्र अच्छी ोनी चाह ए, दो ाजू ोने से क्या ोता ै।' झाबरमल - 'उम्र भी कु छ ज्यादा न ीिं, अभी चालीसवाँू ी साल ै उसका, पर देखने में अच्छा हृष्ट-पुष्ट ै, मदय की उम्र उसका भोजन ै। बस य समझ लो कक पररवार का उ्ध ार ो जाएगा।' सुशीला ने अतनच्छा के भाव से क ा - 'अच्छा, मैं सोचकर जवाब दँूगू ी, एक बार मझु े हदखा देना।' झाबरमल - 'हदखाने को क ींि न ींि जाना ै, बाई, व तो तरे े सामने ी खड़ा ै।' सशु ीला ने घणृ ापूणय नते ्रों से उसकी ओर देखा, इस पचास साल के बुड्डे की य बस! छाती का माूसँ लटककर नाभी तक आ प ुूँचा, कफर भी वववा की िुन सवार ै। य दषु ्ट समझता ै कक प्रलोभनों मंे पडकर अपनी लड़की उसके गले बािूँ दँूगू ी। व अपनी बेटी को आजीवन कँुू वारी रखेगी, पर ऐसे मतृ क से वववा करके उसका जीवन नष्ट न करेगी। पर उसने क्रोि को शान्त ककया। समय का फे र ै, न ीिं तो ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का सा स ी क्यों ोता। सशु ीला ने क ा - 'आपकी इस कृ पा के भलए आपको िन्यवाद देती ूँ। सेठजी, पर मैं कन्या का वववा आपसे न ींि कर सकती।' झाबरमल - 'तो और क्या तू समझती ै कक तरे ी कन्या के भलए बबरादरी मंे कोई कु मार भमल जाएगा?' सशु ीला -'मेरी लड़की कूँु वारी र ेगी।' झाबरमल - 'और रामनाथजी के नाम को कंि लककत करेगी?'
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