सुशीला - 'तमु ् ंे मुझसे ऐसी बाते करते लाज न ीिं आती। नाम के भलए घर खोया, सम्पल्तत खोई, पर कन्या को कुँू ए में न ीिं डू बा सकती।' झाबरमल - 'तो मेरा ककराया दे दे।' सशु ीला - 'अभी मेरे पास रुपए न ीिं ै।' झाबरमल ने भीतर घसु कर गृ स्थ की एक-एक वस्तु तनकालकर गली में फंे क दी। घड़ा फू ट गया, मटके टू ट गए, सन्दकू के कपड़े बबखर गए। सुशीला तटस्थ खड़ी अपने अहदन की य क्रू र क्रीड़ा देखती र ी। घर का यो ववध्विसं करके झाबरमल ने घर मंे ताला डाल हदया और अदालत से रुपए वसूल करने की िमकी देकर चले गए। बड़ो के पास िन ोता ै, छोटों के पास हृदय ोता ै। िन से बड़े-बड़े व्यापार ोते ै, बड़-े बड़े म ल बनते ै, नौकर-चाकर ोते ै, सवारी-भशकरी ोती ै, हृदय से समवेदना ोती ै, आँसू ू तनकलते ै। उसी मकान से भमली ुई एक साग-भाजी बेचनवे ाली खटककन की दकु ान थी। व्ृ ध ा, वविवा तनपतू ी स्त्री थी। बा र से आग, भीतर से पानी। झाबरमल को सकै ड़ो सुनाई और सुशीला की एक-एक चीज उठाकर अपने घर मंे ले गई। मेरे घर मंे र ो। ब ू, मरु ौबत में आ गई, न ीिं तो उसकी मँूछें उखाड़े लेती, मौत भसर पर नाच र ी ै, आगे नाथ, ने पीछे पग ा, और िन के पीछे मरा जाता ै, जाने छाती पर लादकर ले जाएगा। तुम चलो मेरे घर मंे र ो, मेरे य ाूँ ककसी बात का खटका न ीिं बस मंै अके ली ूँ, एक टु कड़ा मुझे भी दे देना। सुशीला ने डरत-े डरते क ा - 'माता, मेरे पास सेर-भर आटे के भसवा और कु छ न ींि ै, मैं तमु ् े ककराया क ाूँ से दँूगू ी।'
बुहढया ने क ा - 'मंै झाबरमल न ीिं ूँ ब ू, न कु बेरदास ूँ। मैं समझती ूँ, ल्जन्दगी मंे सुख भी ै, दखु भी ै। सुख मंे इतराओ मत, दखु में घबराओ मत। तुम् ीिं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती ूँ। तमु ् ें उस हदन भी देखा था, जब तुम म ल में र ती थी और आज भी देख र ी ूँ, जब तुम अनाथ ो। जो भमजाज तब था, व ी अब ै, मेरे िन्य भाग कक तमु मेरे घर में आओ। मेरी आूँखंे फू टी ै, जो तमु से ककराया मागूँ ने जाऊँू गी।' इन सांति वना से भरे ुए सरल शब्दों ने सशु ीला के हृदय का बोझ लका कर हदया। उसने देखा सच्ची सज्जनता दररद्रों और नीचों ी के पास र ती ै। बड़ो की दया भी ोती ै, अ िंकार का दसू रा रूप। इस खटककन के साथ र ते ुए सशु ीला को छः म ीने ो गए थ।े सशु ीला का उससे हदन-हदन स्ने बढता जाता था। व जो कु छ पाती, लाकर सुशीला के ाथ में रख देती। दोनों बालक उसकी दो आूँखें थी। मजाल न थीिं कक पड़ोस का कोई आदमी उन् ें कड़ी आूखँ ों से देख ले। बुहढया दतु नया भसर पर उठा लेती। सन्तलाल र म ीने कु छ-न-कु छ दे हदया करता था। इससे रोटी-दाल चली जाती थी। काततक का म ीना था। ज्वर का प्रकोप ो र ा था। मो न एक हदन खेलता- कू दता बीमार पड़ गया और तीन हदन तक अचते पड़ा र ा। ज्वर इतने जोर का था कक पास खड़े र ने से लपट-सी तनकलती थी। बुहढया ओझ-े सयानों के पास दौड़ती कफरती थी, पर ज्वर उतरने का नाम न लेता। सुशीला को भय ो र ा था, य टाइफाइड ै, इससे उसके प्राण सूख र े थ।े चौथे हदन उसने रेवती से क ा - 'बेटी, तूने बड़े पचंि जी का घर तो देखा ै, जाकर उनसे क भैया बीमार ै, कोई डॉक्टर भेज दे।' रेवती को क ने भर की देर थी, दौड़ती ुई सेठ कु बेरदास के पास गई।
कु बेरदास बोले -'डॉक्टर की फीस 16 रुपए ै, तरे ी माँू दे देगी?' रेवती ने तनराश ोकर क ा - 'अम्मा के पास रुपए क ाूँ ै?' कु बेरदास - 'तो कफर ककस मँूु से मेरे डॉक्टर को बलु ाती ै, तरे ा मामा क ाूँ ै? उससे जाकर क , सेवा सभमतत के कोई डॉक्टर को बुला ले जाएूँ। न ींि तो खरै ाती अस्पताल मंे क्यों न ीिं लड़के को ले जाती? या अभी व ी पुरानी बू समाई ुई ै। कै सी मूखय स्त्री ै, घर में टका न ीिं और डॉक्टर का ुक्म लगा हदया। समझती ोगी, फीस पंिचजी दे दंेगे। पंिचजी क्यों फीस दे? बबरादरी का िन िम-य कायय के भलए ै यों उड़ाने के भलए न ींि ै।' रेवती माँू के पास लौटी, पर जो सुना था, व उससे न क सकी। घाव पर नमक क्यों तछड़के , ब ाना कर हदया, बड़े पंिचजी क ींि गए ै। सशु ीला - 'तो मनु ीम से क्यों न ींि क ाँू? य ाँू क्या कोई भमठाई खाए जाता था, जो दौड़ी चली आई?' इसी वक्त सन्तराम एक वदै ्यजी को लेकर आ प ुूँचा। वैद्य भी एक हदन आकर दसू रे हदन न लौटे। सेवा-सभमतत के डॉक्टर भी दो हदन बड़ी भमन्नतों से आए। कफर उन् ंे भी अवकाश न र ा और मो न की दशा हदनोंहदन बबगड़ती जाती थी। म ीना बीत गया, पर ज्वर ऐसा चढा कक एक क्षण के भलए भी न उतरा। उसका च ेरा इतना सूख गया कक देखकर दया आती थीिं। न कु छ बोलता, न कु छ क ता, य ाँू तक कक करवट भी न बदल सकता था। पड़े-पड़े खाल फट गई, भसर के बाल धगर गए, ाथ-पाँवू लकड़ी ो गए। सन्तलाल काम से छु ट्टी पाता तो आ जाता, पर इससे क्या ोता, तीमरदारी दया तो न ीिं ै। एक हदन सन्ध्या समय उसके ाथ ठंि डे ो गए। माता के प्राण प ले ी से सखू े ुए थे, य ाल देखकर रोने-पीटने लगी। भमन्नतंे तो ब ुतरे ी ो चकु ी थींि, रोती
ुई मो न की खाट के सात फे रे करके ाथ बाूँिकर बोली - 'भगवान, य ींि मेरे जन्म की कमाई ै। अपना सवसय ्व खोकर भी मंै बालक को छाती से लगाए ुए सन्तषु ्ट थी लेककन य चोट न स ी जाएगी। तुम इसे अच्छा कर दो, इसके बदले मुझे उठा लो। बस, मैं य ी दया चा ती ूँ, दयामय?' ससिं ार के र स्य को कौन समझ सकता ै, क्या ममे से ब ुतों को य अनुभव न ीिं कक ल्जस हदन मने बेईमानी करके कु छ रकम उड़ाई, उसी हदन उस रकम को दगु नु ा नुकसान ो गया। सशु ीला को उसी रात को ज्वर आ गया और उसी हदन मो न का ज्वर उतर गया। बच्चे की सेवा-शुश्रषू ा में आिी तो यों ी र गई थी, इस बीमारी ने ऐसा पकड़ा कक कफर न छोड़ा। मालूम न ीिं, देवता बठै े सुन र े थे या क्या, उसकी याचना अक्षरशः परू ी ुई। पन्द्र वंे हदन मो न चारपाई से उठकर माँू के पास आया और उसकी छाती पर भसर रखकर रोने लगा। माता ने उसके गले में बाूँ ंे डालकर उसे छाती से लगा भलया और बोली- 'क्यों रोत ो बेटा, मंै अच्छी ो जाऊूँ गी। अब मझु े क्या धचन्ता, भगवान पालने वाले ै , व ी तमु ् ारे रक्षक ै, व ी तुम् ारे वपता ै। अब मैं सब तरफ से तनल्श्चिंत ूँ। जकद अच्छी ो जाऊूँ गी।' मो न बोला - 'ल्जया तो क ती ै, अम्माूँ अब न अच्छी ोगी।' सुशीला ने बालक का चमु ्बन लेकर क ा - 'ल्जया पगली ै, उसे क ने दो। मैं तुम् ंे छोड़कर क ींि न जाऊँू गी। मैं सदा तुम् ारे साथ र ूँगी। ाूँ, ल्जस हदन तुम कोई अपराि करोगे, ककसी की कोई चीज उठा लोगे, उसी हदन मंै मर जाऊँू गी।' मो न ने प्रसन्न ोकर क ा - 'तो तमु मेरे पास से कभी न ीिं जाओगी, मा?ँू ' सशु ीला ने क ा - 'कभी न ींि बेटा, कभी न ीि।ं ' उसी रात को दःु ख और ववपल्तत की मारी ुई य अनाथ वविवा दोनों अनाथ बालकों को भगवान पर छोड़कर परलोक भसिार गई।
इस घटना को तीन साल ो गए ै। मो न और रेवती दोनों उसी व्ृ ध ा के पास र ते ै। बहु ढया माँू तो न ींि ै लेककन माूँ से बढकर ै। रोज मो न को रात की रखी रोहटयाूँ खखलाकर गुरुजी की पाठशाला मंे प ुँूचा आती ै, छु ट्टी के समय जाकर ले आती ै। रेवती का अब चौद वाूँ साल ै। व घर का सारा काम - पीसना, कू टू़ ना, चौका-बतनय , झाडू -ब ारू करती ै। बुहढया सौदा बेचने चली जाती ै, तो व दकु ान पर भी आ बठै ती ै। एक हदन बड़े सेठ कु बेरदास ने उसे बलु ा भेजा और बोले - 'तझु े दकु ान पर बठै ते शमय न ीिं आती। सारी बबरादरी की नाक कटा र ी ै। खबरदार, जो कल से दकु ान पर बैठी। मनंै े तरे े पाखणग्र ण के भलए झाबरमल जी को पक्का कर हदया ै। सेठानी ने समथनय ककया, 'तू अब सयानी ुई बेटी, अब तरे ा इस तर बठै ना अच्छा न ी।िं लोग तर -तर की बातंे करने लगते ै। सेठ झाबरमल तो राजी ी न ोते थे, मने ब ुत क -सुनकर राजी ककया ै। बस, समझ ले कक रानी ो जाएगी। लाखों की सम्पल्तत ै, लाखों की!ंि तरे े िन्य भाग कक ऐसा वर भमला, तरे ा छोटा भाई ै, उसको भी कोई दकु ान करा दी जाएगी।' सेठ -' बबरादरी की ककतनी बदनामी ै।' सेठानी - ' ै ी।' रेवती ने लल्ज्जत ोकर क ा - 'मंै क्या जानूँ, आप मामा से क ें।' सेठ ने बबगड़कर क ा - 'व कौन ोता ै, टके पर मनु ीमी करता ै। उससे मंै क्या पूछू ूँ। मैं बबरादरी का पचंि ूँ, मुझे अधिकार ै ल्जस काम से बबरादरी का ककयाण देखूँ, व करूूँ । मनंै े और पचिं ों की राय ले ली ै। सब मझु से स मत ै।
अगर तू यों न ीिं मानगे ी, तो म अदालती कायवय ाई करेंगे। तुझे खरच-बरच का काम ोगा, य लेती जा।' य क ते ुए उन् ोंने 20 रुपए के नोट रेवती की तरफ फें क हदए। रेवती ने उठाकर व ींि परु जे-पुरजे कर डाले और तमतमाए मुख से बोली - 'बबरादरी ने तब म लोगों की बात न पूछी, जब म रोहटयों को मु ताज थे, मेरी माता मर गई, कोई झाूकँ ने तक न आया। मेरा भाई बीमार ुआ, ककसी ने खबर तक न ली। ऐसी बबरादरी की मुझे परवा न ीिं ै।' रेवती चली गई, तो झाबरमल कोठरी से तनकल आए, चे रा उदास था। सेठानी ने क ा -'लड़की बड़ी घमंडि डन ै, आँूख का पानी मर गया ै।' झाबरमल - 'बीस रुपए खराब ो गए, ऐसा फाडा ़ू ै कक जडु भी न ींि सकत।े ' कु बेरदास - 'तमु घबराओ न ीिं, मैं इसे अदालत से ठीक करूूँ गा, जाती क ाूँ ै।' झाबरमल - 'अब तो आपका ी भरोसा ै।' बबरादरी के बड़े पिचं की बात क ींि भम्या ो सकती ै? रेवती नाबाभलग थी, माता-वपता न ींि थे, ऐसी दशा मंे पचिं ों का उस पर पूरा अधिकार था। व बबरादरी के दबाव में न ींि र ना चा ती ै, न चा े। काननू बबरादरी के अधिकार की उपेक्षा न ीिं कर सकता। सन्तलाल ने य माजरा सुना, तो दाँतू पीसकर बोले - 'न जाने इस बबरादरी का भगवान कब अन्त करेंगे।' रेवती -'क्या बबरादरी मझु े जबरदस्ती अपने अधिकार मंे ले सकती ै?'
सन्तलाल - ' ाूँ बेटी, ितनकों के ाथ में तो कानून भी ै।' रेवती - 'मैं क दँूगू ी कक मंै उनके पास न ीिं र ना चा ती।' सन्तलाल - 'तरे े क ने से क्या ोगा, तरे े भाग्य में य ी भलखा था, तो ककसका बस ै। मैं जाता ूँ बड़े पिंच के पास।' रेवती -'न ीिं मामाजी, तमु क ीिं न जाओ, जब भाग्य ी का भरोसा ै, तो जो कु छ भाग्य में भलखा ोगा व ोगा।' रात को रेवती ने घर में काटी। बार-बार तनद्रा-मग्न भाई को गले लगाती। य अनाथ अके ला कै से र ेगा, य सोचकर उसका मन कातर ो जाता, पर झाबरमल की सूरत याद करके उसका सकंि कप दृढ ो जाता। प्रातःकाल रेवती गंगि ा-स्नान करने गई। य कई म ीनों से उसका तनतय का तनयम था। आज जरा अिंि रे ा था, पर य कोई सन्दे की बात न थी। सन्दे तब ुआ जब आठ बज गए और व लौटकर न आई। तीसरे प र सारी बबरादरी मंे खबर फै ल गई, सेठ रामनाथ का कन्या गगिं ा मंे डू ब गई, उसकी लाश पाई गई। कु बेरदास ने क ा- 'चलो, अच्छा ुआ, बबरादरी की बदनामी तो न ोगी।' झाबरमल ने दखु ी मन से क ा- 'मेरे भलए अब कोई और उपाय कील्जए।' उिर मो न भसर पीट-पीटकर रो र ा था और बुहढया उसे गोद में भलए समझा र ी थी, बेटा, उस देवी के भलए क्यों रोते ो, ल्जन्दगी मंे उसको दखु - ी-दखु था। अब व अपनी माूँ की गोद मंे आराम कर र ी ै। ***
िूि मरु ादाबाद के पंिडडत सीतानाथ चौबे गत 30 वषो से व ाूँ के वकील के नते ा थे। उनके वपता उन् ें बाकयवस्था मंे ी छोड़कर परलोक भसिार थे, घर में कोई सम्पल्तत न थी। माता ने बड़े-बड़े कष्ट झले कर उन् ंे पाला और पढाया। सबसे प ले व कच री में 15 रुपए माभसक पर नौकर ुए। कफर वकालत की परीक्षा दी, पास ो गए। प्रततभा थी, दो- ी-चार वषो में वकालत चमक उठी। जब माता का स्वगवय ास ुआ तब पतु ्र का शुमार ल्जले के गणमान्य व्यल्क्तयों मंे ो गया था। उनके आमदनी एक जार रुपए म ीने से कम न थी। एक ववशाल भवन बनवा भलया था, कु छ जमीिदं ारी ले ली थी, कु छ रुपए बकंै मंे रख हदए थे और कु छ लेन-देन मंे लगा हदए। इस समवृ ्ध पर चार पुत्रों को ोना उनके भाग्य को आदशय बनाए ुए था। चारो लड़के भभन्न-भभन्न दजो मंे पढते थे। मगर य करना कक सारी ववभतू त चौबेजी की अनवरत पररश्रम का फल था, उनकी पतनी मगंि ला देवी के साथ अन्याय करना ैं। मगंि ला बड़ी ी सरल, गृ -कायय मंे कु शल और पसै े का काम िले े मंे चलाने वाली स्त्री थी। जब तक अपना घर न बन गया, उसने 3 रुपए से अधिक का मकान ककराए पर न ीिं भलया और रसोई के भलए भमसराइन तो उसने अब तक न रखी थी। उसे अगर कोई व्यसन था तो ग नों का और चौबेजी को भी अगर कोई व्यसन था तो स्त्री को ग ने प नाने का। व सच्चे पतनी-परायण मनुष्य थ।े सािारणतः म कफलों मंे वेश्याओंि से ूँसी-मजाक कर लेना उतना बरु ा न ींि समझा जाता, पर पंिडडत अपने जीवन में कभी नाच-गाने की म कफल मंे गए ी न ी।ंि पाँूच बजे तड़के से लेकर बार बजे रात तक उनका व्यसन मनोरिंजन, पढना-भलखना अनुशीलन जो कु छ था, कानून था, न उन् ंे राजनीतत से प्रेम था, न जातत-सेवा से, ये सभी काम उन् ें व्यथय से जान पड़ते थ।े उनके ववचार से अगर कोई काम करने लायक था, तो बस, कच री जाना, ब स करना, रुपए जमा करना औऱ भोजन करके सो र ना। जैसी वदे ान्ती को ब्रह्म के अततररक्त जगत भम्या जान पड़ता ैं, वैसे ी चौबेजी को काननू
के भसवा सारा ससिं ार भम्या प्रतीत ोता था, सब माया था, एक कानून ी सतय था। चौबेजी के मुख-चन्द्र में के वल एक कला की कमी थी। उनके कोई कन्या न थी, प लौठी कन्या के बाद कफर कन्या ुई ी न ीिं और न अब ोने की आशा ी थी। स्त्री और परु ुष, दोनो उस कन्या को याद करके रोया करते थ।े लड़ककयाूँ बचपन मंे लड़कों से ज्यादा चोंचले करती ंै, उन चोंचलों के भलए दोनो प्राणी ववकल र त।े माूँ सोचती, लड़की ोती, तो उसके भलए ग ने बनवाती, उसके बाल गूँथती, लड़की पजै तनयाूँ प ने ठु मक-ठु मक आूगँ न मंे चलती तो ककतना आनन्द आता। चौबे सोचते, कन्यादान के बबना मोक्ष कै से ोगा? कन्यादान म ादान ंै, ल्जसने य दान न हदया, उसका जन्म ी वथृ ा गया। आखखर य लालसा इतनी प्रबल ो गई कक मंगि ला ने अपनी छोटी ब न को बलु ाकर कन्या की भातूँ त पालने का तनश्चय ककया। उसके माूँ-बाप तनिनय थे, राजा ो गए। य बाभलका मगंि ला की सौतले ी माूँ की कन्या थी, बड़ी सुन्दर और बड़ी चिचं ल थी, नाम था बबन्नी। चौबेजी का घर उसके आने से खखल उठा। दो-चार ी हदनों मंे लड़की अपने माँू- बाप को भलू गई। उसकी उम्र तो के वल चार वषय की थी, पर उसे खेलने की अपेक्षा कु छ काम करना अच्छा लगता था। मिंगला रसोई बनाने जाती तो बबन्नी भी पीछे -पीछे जाती, उससे आटा गँूिने के भलए झगड़ा करती, तरकारी काटने में उसे बड़ा मजा आता था। जब तक वकील घर पर र ते, तब तक व उनके साथ दीवानखाने मंे बठै ी र ती। कभी ककताब उलटती, क ी दवात-कलम से खेलती, चौबेजी मसु ्कराकर क ते - बेटी, मार खाओगी? बबन्नी क ती - तमु मार खाओगे, मंै तमु ् ारे कान काट लूँगी, जजू ू को बुलाकर पकड़ा दूँगू ी.
इस पर दीवानखाने पर खूब क क े उड़त।े वकील सा ब कभी इतने बाकयवतसल न थे। जब बा र से आते तो कु छ-न-कु छ सौगात बबन्नी के वास्ते जरूर लात,े और घर में कदम रखते ी पुकारत,े बबन्नी बेटी, दौड़ती ुई आकर उनकी गोद में बैठ जाती। मगंि ला एक हदन बबन्नी को भलए बैठी थी। इतने में पडिं डतजी आ गए, बबन्नी दौड़कर उसकी गोद मंे जा बठै ी। पडिं डतजी ने पूछा - तू ककसी बेटी ंै? बबन्नी - न बताऊूँ गी। मंगि ला - क दे बेटा, जीजी की बेटी ूँ। पडंि डत - तू मेरी बेटी ंै बबन्नी, कक इनकी? बबन्नी - न बताऊँू गी। पंिडडत - अच्छा, म लोग आूँख बन्द ककए ैं, बबन्नी ल्जसकी बेटी ोगी, उसकी गोद मंे बैठ जाएगी। बबन्नी उठी और कफर चौबेजी की गोद मंे बठै गई। पडंि डत - मेरी बेटी ंै, मेरी बेटी ैं, ( स्त्री से) अब न क ना कक मेरी बेटी ंै। मगंि ला - अच्छा, जाओ बबन्नी, अब तुम् ंे भमठाई न दँूगू ी, गुडड़या भी न मिगं ा दूँगू ी। बबन्नी - भयै ाजी मँूगवा दंेगे, तुम् ें न दँूगू ी। वकील सा ब ने ूँसकर बबन्नी को छाती से लगा भलया और गोद में भलए ुए बा र चले। व अपने इष्ट-भमत्रों को भी इस बालक्रीड़ा का रसास्वादन कराना चा ते थे।
आज से कोई बबन्नी से पछू ता ैं कक तू ककसकी बेटी ंै, तो बबन्नी चट क देती ंै - भयै ा की। एक बार बबन्नी का बाप आकर उसे अपने साथ ले गया। बबन्नी ने रो-रोकर दतु नया भसर पर उठा ली। इिर चौबेजी को भी हदन काटना कहठन ो गया। एक म ीना भी न गजु रने पाया था कक कफर ससुराल गए और बबन्नी को ले आए। बबन्नी अपनी माता और वपता को भूल गई। व चौबेजी को अपना बाप और मंगि ला को अपनी माँू समझने लगी। ल्जन् ोंने उसे जन्म हदया, वे अब गरै ो गए। कई साल गजु र गए। वकील सा ब के बेटों के वववा ुए। उनमंे से दो अपने बाल-बच्चों को लेकर अन्य ल्जलों में वकालत करने चले गए। दो कॉलेज मंे पढते थे। बबन्नी भी कली से फू ल ुई। ऐसी रूप-गुण शीलवाली बाभलका बबरादरी मंे और न थी, पढने-भलखने मंे चतरु , घर के काम-िन्िों में कु शल, बूटे-कसीदे और सीने-वपरोने में दक्ष, पाक कला मंे तनपणु , मिरु -भावषणी, लज्जाशील औऱ अनुपम रूप की राभश। अन्िेरे घर में उसके सौन्दयय की हदव्य ज्योतत से उजाला ोता था। उषा की लाभलमा मंे, ज्योस्तना की मनो र छटा में, खखले ुए गुलाब के ऊपर सयू य की ककरणों से चमकते ुए तषु ार-बबन्दु मंे भी व प्राणप्रद सषु मा और व शोभा न थी। श्वेत ेममुकु टिारी पवतय ों मंे भी शीतलता न थी, जो बबन्नी अथायत ववधिं ्येश्वरी के ववशाल नते ्रों मंे थी। चौबेजी ने बबन्नी के भलए सुयोग्य वर खोजना शुरू ककया। लड़कों को शाहदयों मंे हदल का अरमान तनकाल चुके थे, अब कन्या के वववा मंे ौंसले परू े करना चा ते थे। िन लुटाकर कीततय पा चकु े थे, अब दान-द ेज में नाम कमाने की लालसा थी। बेटे का वववा कर लेना आसान ैं, पर कन्या के वववा मंे आबरू तनबा ले जाना कहठन ंै। नौका पर सभी यात्रा करते ंै, जो तैरकर नदी पार कर ले, व ी प्रशिंसा का अधिकारी ंै।
िन की कमी न थींि। अच्छा घर और सुयोग्य वर भमल गया। जन्मपत्र भमल गए, बानक बन गया, फलदान और ततलक की रस्मंे भी अदा कर दी गई, पर ाय रे ददु ैव! क ाूँ तो वववा की तयै ारी ो र ी थी, द्वार पर दरजी, सुनार, लवाई सब अपना-अपना काम कर र े थे, क ाँू तनदयय वविाता ने और ी लीला रच दी। वववा के एक सप्ता प ले मंिगला अनायास बीमार पड़ी, तीन हदन मंे अपने सारे अरमान भलए ुए परलोक भसिार गई। सन्ध्या ो गई थी। मगिं ला चारपाई पर पड़ी ुई थी। बेटे, ब ुएूँ, पोत-े पोततयाँू सब चारपाई के चारों ओर खड़े थ।े बबन्नी पतै ाने में बठै ी मंिगला के पैर दबा र ी थी। मतृ यु के समय की भयंिकर तनस्तब्िता छाई ुई थी, कोई ककसी से न बोलता था। हदल में सब समझ र े थे, क्या ोने वाला ैं, के वल चौबेजी व ाूँ न थे. स सा मिंगला ने इिर-उिर इच्छापणू य दृल्ष्ट से देखकर क ा - जरा उन् ंे बुला दो, क ाँू ैं? पिंडडतजी अपने कमरे में बैठे रो र े थे। सन्देश पाते ी आूँसू पोंछते ुए घर मंे आए औऱ बड़े िैयय के साथ मिंगला के सामने ो गए, डर र े थे कक मेरी आँखू ों से आूँसू की एक बँूद भी तनकली, तो घर में ा ाकार मच जाएगा। मगंि ला ने क ा - एक बात पछू ती ूँ, बरु ा न मानना, बबन्नी तमु ् ारी कौन ंै? पिंडडत - बबन्नी कौन ंै? मेरी बेटी ैं और कौन? मंगि ला - ाँू, मंै तुम् ारे मँूु से य ी सनु ना चा ती थी। उसे सदा अपनी बेटी समझने र ना। उसके वववा के भलए मनंै े जो-जो तैयाररयाूँ की थीिं, उनमें कु छ काट-छाँूट मत करना। पिडं डत - इसकी कु छ धचन्ता न करो, ईश्वर ने चा ा, तो उससे कु छ ज्यादा िमू - िाम के साथ वववा ोगा।
मिगं ला - उसे मेशा बलु ाते र ना, तीज-तयो ार मंे कभी मत भूलना। पिंडडत - इन बातों की मुझे याद हदलाने की जरूरत न ीिं। मगंि ला ने कु छ सोचकर कफर क ा - इसी साल वववा कर देना। पंडि डत - इस साल कै से ोगा? मगंि ला - य फागनु का म ीना ैं, जेठ तक लगन ैं। पिंडडत - ो सके गा तो इसी साल कर दूँगू ा। मिंगला - ो सकने की बात न ींि, जरूर कर देना। पिडं डत - कर दँूगू ा। इसके बाद गोदान की तैयारी ोने लगी। बढु ापे में पतनी की मरना बरसात में घर का धगरना ंै, कफर उसके बनने की आशा न ींि ोती। मगंि ला की मतृ यु से पिंडडतजी का जीवन अतनयभमत और ववशंिखृ ल-सा ो गया। लोगों से भमलना-जलु ना छू ट गया, कई-कई हदन कच री न जाते, जाते भी तो बड़े आग्र से, भोजन से अरुधच ो गई, ववन्िशे ्वरी उनकी दशा देख-देखकर हदल में कु ढती और यथासाध्य उनका हदल ब लाने की चषे ्ठा ककया करती थी, व उन् ें आग्र अनुरोि के साथ खखलाती थी, जब तक व न खा लेत,े व कु छ न खाती थी। गमी के हदन थे ी, रात को बड़ी देर कर उनके पैताने बैठी पंिखा झला करती और जब तक व न सो जाते, तब तक व भी सोने न जाती। व जरा भी भसर-ददय की भशकायत करत,े तो तरु न्त उनके भसर में तले डालती। य ाँू तक
कक रात को जब उन् ें प्यास लगी, तब खदु दौड़कर आती और उन् ंे पानी वपलाती। िीरे-िीरे चौबेजी के हृदय मंे मिंगला के वल एक सखु की स्मतृ त र गई। एक हदन चौबेजी ने बबन्नी को मिगं ला के सब ग ने दे हदए। मिंगला का य अल्न्तम आदेश था। बबन्नी फू ली न समाई, उसने उस हदन खबू बनाव-भसगिं ार ककया। जब सन्ध्या के समय पंडि डतजी कच री से आए, तो व ग नों से लदी ुई उनके सामने कु छ लजाती और मुस्कराती ुई आकर खड़ी ो गई। पिंडडतजी ने सतषृ ्ण नते ्रों से देखा, ववन्िशे ्वरी के प्रतत उनके मन में एक नया भाव अंकि ु ररत ो र ा था। मिगं ला जब तक जीववत थी, व उनसे वपता-पतु ्री के भाव को सजग और पुष्ट कराती र ती थी। अब मंगि ल न थी। अतएव व भाव हदन-हदन भशधथल ोता जाता था, मगंि ला के सामने बबन्नी एक बाभलका थी, मंिगला की अनपु ल्स्थतत मंे व एक रूपवती यवु ती थी। लेककन सरल-हृदय बबन्नी को इसकी रतती-भर भी न खबर थी कक भैया के भावों मंे क्या पररवतनय ो र ा ंै। उसके भलए व व ी वपता के तुकय भयै ा थ।े व पुरुषों के स्वभाव से अनभभञा थी। नारी-चररत्र मंे अवस्था के साथ माततृ व का भाव ढृ ढ ोता जाता ैं। य ाँू तक कक एक समय ऐसा आता ंै, जब नारी की दृल्ष्ट मंे युवक मात्र पुत्र तुकय ो जाते ंै, उनके मन में ववषय-वासना का लेश भी न ींि र ा जाता, ककन्तु परु ुषों मंे य अवस्था कभी न ीिं आती।ंि उनकी कामेल्न्द्रयाूँ कक्रया ीन भले ी ो जाए, पर ववषय-वासना सम्भवतः और भी बलवती ो जाती ंै। ग्रीष्म-ऋतु के अल्न्तन काल की भातँू त उसकी वासना की गरमी भी प्रचडिं ोती जाती ैं। व तलृ ्प्त के भलए नीच सािनों का स ारा लेने को भी प्रस्तुत ो जाता ंै। जवानी मंे मनुष्य इतना न ीिं धगरता। उसके चररत्र मंे गवय की मात्रा अधिक र ती ंै, जो नीच सािनों से घणृ ा करते ैं, व ककसी के घर मंे घुसने के भलए जबरदस्ती कर सकता ंै, ककन्तु परनाले के रास्ते न ीिं जा सकता। पंडि डतजी ने बबन्नी को सतषृ ्ण नेत्रों से देखा और अपनी इस उच्छृ िं खलता पर लल्ज्जत ोकर आँूखंे नीची कर ली।ंि बबन्नी इसका कु छ मतलब न समझ सकी।
पडंि डतजी बोले - तमु ् ें देखकर मझु े मगिं ला की उस समय की याद आ र ी ंै, जब व वववा के समय य ाूँ आई थी। बबककु ल ऐसी सूरत थी, य ी गोरा रंिग, य ी प्रसन्न-मखु , य ी कोमल गाल, ये ी लजीली आखूँ ें, व धचत्र अभी तक मेरे हृदय- पट पर खखचंि ा ुआ ंै। कभी भमट न ींि सकता, ईश्वर ने तुम् ारे रूप मंे मेरी मगिं ला मुझे कफर दे दी। बबन्नी - आपके भलए क्या जलपान लाऊँू । पिंडडत - ले आना, अभी बठै ो, मंै ब ुत दखु ी ूँ, तुमने मेरे शोक को भलु ा हदया ंै। वास्तव मंे तुमने मुझे ल्जला भलया, न ींि तो मझु े आशा न थी कक मगंि ला के पीछे मैं जीववत र ूँगा, तुमने प्राणदान हदया। न ीिं जानता, तुम् ारे चले जाने पर मेरी क्या दशा ोगी। बबन्नी - क ाँू चले जाने के बाद? मंै तो क ीिं न ींि जा र ी ूँ। पिंडडत - क्यों तुम् ारे वववा की ततधथ आ र ी ंै, चली ी जाओगी। बबन्नी सकु चाती ुई बोली - ऐसी जकदी क्या ैं? पिंडडत - जकदी क्यों न ीिं, जमाना ँूसेगा। बबन्नी - ूँसने दील्जए, मंै य ी आपकी सेवा करती र ूँगी। पंडि डत - न ी बबन्नी, मेरे भलए तुम क्यों लकान ोगी, मैं अभागा ूँ, जब तक ल्जन्दगी ंै, ल्जउूँ गा, चा े रोकर ल्जउँू , चा े ूँस कर। ूँसी मेरे भाग्य से उठ गई, तुमने इतने हदनों सम्भाल भलया, य ींि क्या कम अ सान ककया, मैं जानता ूँ कक तमु ् ारे जाने के बाद कोई मेरी खबर लेने वाला न ींि र ेगा, य घर त स-न स ो जाएगा औऱ मुझे घर छोड़कर भागना पड़गे ा। पर क्या ककया जाए, लाचारी ैं, तुम् ारे बबना अब मंै क्षणभर भी न ीिं र सकता, मंगि ला की खाली जग तो तुमने पूरी की, अब उसकी स्थान कौन पूरा करेगा?
बबन्नी - क्या इस साल रुक न ींि सकता, मैं इस दशा मंे आपको छोड़कर न जाऊँू गी। पंिडडत - अपने बस की बात न ींि? बबन्नी - ब ुत जकदी मचाएँू तो आप क दील्जएगा, अब न ींि करंेगे। उन लोगों के जी मंे जो आए, करे। य ाँू कोई उनका दबैल बठै ा ुआ ंै? पडिं डत - वे लोग अभी से आग्र कर र े ैं। बबन्नी - आफ फटकार क्यों न ींि देते? पिडं डत - करना तो ैं ी कफर ववलम्ब क्यों करूूँ ? य दःु ख और ववयोग तो एक हदन ोना ी ंै, अपनी ववपल्तत का भार तुम् ारे भसर पर क्यों रखू?ँ बबन्नी - दःु ख-सुख मंे काम न आऊँू गी, तो और ककस हदन काम आऊँू गी? पंडि डतजी के मन मंे कई हदनों तक सगंि ्राम ोता र ा। व बबन्नी को वपता की दृल्ष्ट से न देख सकते थे, बबन्नी अब मिगं ला की ब न और उनकी साली थी, जमाना ूँसेगा, तो ूँसे, ल्जन्दगी तो आनन्द से गजु रेगी। उनकी भावनाएूँ कभी इतनी उकलासमयी न थींि, उन् ें अपने अिगं ों मंे कफर जवानी की स्फू ततय का अनुभव ो र ा था। व सोचते, बबन्नी को मंै अपनी पुत्री समझता था, पर व मेरी पतु ्री ंै तो न ीिं, इस तर समझने से क्या ोता ैं? कौन जाने, ईश्वर को य ींि मिंजरू ो, न ीिं तो बबन्नी य ाूँ आती ी क्यों? उसने इसी ब ाने से य संियोग तनल्श्चत कर हदया ोगा, उसकी लीला तो अपरम्पार ैं।
पिडं डतजी ने वर के वपता को सूचना दे दी कक कु छ ववशेष कारणों से इस साल वववा न ींि ो सकता। ववन्िेश्वरी को अभी तक कु छ खबर न थी कक मेरे भलए क्या-क्या षड्यन्त्र रचे जा र े ंै। व खुश थी कक मंै भैयाजी की सेवा कर र ी ूँ और भयै ाजी मुझसे प्रसन्न ैं। ब न का इन् ंे बड़ा दःु ख ंै, मैं न र ूँगी तो य क ीिं चले जाएगे, कौन जाने, सािु-सनंि ्यासी न ो जाए, घर मंे कै से मन लगेगा। व पिंडडतजी का मन ब लाने का तनरन्तर प्रयतन करती र ती थी। उन् ें कभी मनमारे न बठै ने देती। पडंि डतजी का मन अब कच री मंे न लगता था। घन्टे -दो- घन्टे बैठकर चले आते थ।े युवकों के प्रेम मंे ववकलता ोती ंै और व्ृ ध ों के प्रेम में श्र्ध ा। वे अपनी यौवन की कमी को खशु ामद से, मीठी बातों से और ाल्जरजवाबी से पणू य करना चा ते ंै। मगिं ला को मरे अभी तीन म ीने ी गुजरे थे कक चौबेजी ससुराल प ुँूच।े सास ने मँूु मागूँ ी मुराद पाई। उसके दो पुत्र थे, घर में कु छ पूजंि ी न थी, उनके पालन और भशक्षा के भलए कोई हठकाना नजर न आया, मगंि ला मर ी चुकी थी, लड़की का ज्यों ी वववा ो जाएगा, व अपने घर की ो र ेगी, कफर चौबे से नाता ी टू ट जाएगा, व इसी धचन्ता में पड़ी ुई थी कक चौबेजी प ुूँचे, मानो देवता स्वयंि वरदान देने आए ो। जब चौबेजी भोजन करके लेटे, तो सास ने क ा - भैया क ींि बातचीत ुई कक न ींि? पिंडडत - अम्माँू, अब मेरे वववा की बातचीत क्या ोगी? सास - क्यों भयै ा, अभी तमु ् ारी उम्र ी क्या ंै?
पंिडडत - करना भी चा ूँ तो बदनामी के डर से न ींि कर सकता, कफर मुझे पछू ता ी कौन ंै? सास - पूछने को जारों ैं, दरू क्यों जाओ, अपने घर मंे लड़की बठै ी ैं, सुना ंै, तुमने मंिगला के सब ग ने बबन्नी को दे हदए ंै, क ींि और वववा ुआ तो ये कई जार की चीजें तमु ् ारे घर से तनकल जाएूँगी, तुमसे अच्छा घर मैं क ाूँ पाऊँू गी, तुम उसे अंिगीकार कर लो, तो मंै तर जाऊूँ । अन्िा क्या माूँगे, दो आखँू ें। चौबेजी ने मानो वववश ोकर सास की प्राथनय ा स्वीकार कर ली। बबन्नी अपने गाँवू के कच्चे मकान मंे अपना माँू के पास बठै ी ुई ंै। अबकी चौबेजी ने उसकी सेवा के भलए एक लौडी भी साथ कर दी ैं, ववन्िेश्वरी के दोनो छोटे भाई ववल्स्मत ो- ोकर उसके आभषू णों को देख र े थे। गाँवू की और कई ल्स्त्रयाूँ उसे देखने आई ुई ैं, और उसके रूपलावण्य का ववकास देखकर चककत ो र ी ंै, य व ी बबन्नी ैं, जो य ाँू मोटी फररया प ने खेला करती थी, रिंग-रूप कै सा तनखर आया ैं, सखु की दे ंै न। जब भीड़ कम ुई, एकान्त ुआ, तो माता ने पछू ा - तरे े भयै ाजी तो अच्छी तर ैं न बेटी, य ाूँ आए थे, तो ब ुत दखु ी थे, मिगं ला का शोक उन् ंे खाए जाता ंै। सिंसार में ऐसे मदय भी ोते ैं, जो स्त्री के भलए प्राण दे देते ैं, न ीिं तो स्त्री मरी और चट दसू रा ब्या रचाया गया, मानो मनाते र ते ंै कक य मरे तो नई- नवेली ब ू घर लाएँू। ववन्िेश्वरी - उन् ंे याद करके रोया करते ंै, चली आई ूँ, न-जाने कै से ोंगे। माता - मुझे भी तो य ी डर लगता ैं कक तरे ा ब्या ो जाने पर क ींि घबराकर सािू-फकीर न ो जाए।
ववन्िशे ्वरी - मझु े भी य ी डर लगता ैं, इसी से मनैं े क हदया अभी जकदी क्या ंै। माता - ल्जतने ी हदन उनकी सेवा करोगी, उतना ी स्ने बढेगा, और तुम् ारे जाने से उन् ें उतना ी दःु ख भी अधिक ोगा। बेटी, सच तो य ंै कक व तुम् ींि को देखकर जीते ैं, इिर तुम् ारी डोली उठी और उिर उनका घर सतयानाश ुआ। मंै तमु ् ारी जग ोती, तो उन् ींि से ब्या कर लेती। ववन्िशे ्वरी - ऐ टो अम्मा,ँू गाली देती ो? उन् ोंने मझु े बेटी करके पाला ंै, मंै भी उन् ें अपना वपता...। माता - चुप र पगली, क ने से क्या ोता ंै? ववन्िशे ्वरी - अरे सोच तो अम्माँू, ककतनी बेढिंगी बात ंै। माता - मझु े तो इसमें कोई बेढिंगापन न ींि हदखाई प़ड़ता। ववन्िशे ्वरी - क्या क ती ो अम्मा,ँू उनसे मेरा - मंै तो लाज के मारे मर जाऊँू , उनके सामने ताक न सकूँ , व भी कभी न मानेंगे, मानने का बात भी ो कोई। माता - उनका ल्जम्मा मंै लेती ूँ, मंै उन् ें राजी कर लूँगी। तू राजी ो जा, याद रख य कोई ँूसी-खुशी का ब्या न ीिं ंै उनकी प्राणरक्षा की बात ंै, ल्जसके भसवा ससंि ार में मारा और कोई न ीिं, कफर अभी उनकी कु छ ऐसी उम्र भी तो न ींि ंै, पचास से दो ी चार साल ऊपर ोंगे, उन् ोंने एक ज्योततषी से पूछा भी था, उसने उनकी किंु डली देखकर बताया ंै कक आपकी ल्जन्दगी कम-से-कम 70 वषय की ंै। देखने-सुनने मे भी व सौ-दो सौ में एक आदमी ैं. बातचीत मंे चतरु माता ने कु छ ऐसा शब्द-व्यू रचा कक सरल बाभलका उसमंे से तनकल न सकी। माता जानती थी कक प्रलोभन का जादू इस पर न चलेगा, िन
का, आभूषणों का, कु ल-सम्मान का, सखु मय-जीवन का उसने ल्जक्र तक न ककया। उसने के वल चौबेजी की दयनीय दशा पर जोर हदया। अन्त को ववन्िेश्वरी ने क ा - अम्मा,ँू मैं जानती ूँ कक मेरे न र ने से उनको बड़ा दःु ख ोगा, य भी जानती ूँ कक मेरे जीवन मंे सुख न ींि भलखा ंै, अच्छा ैं, उनके ह त के भलए मंै अपना जीवन बभलदान कर दूँगू ी, ईश्वर की य ी इच्छा ैं, तो य ी स ी। चौबेजी के घर में मगंि ल-गान ो र ा था, ववन्िेश्वरी आज विू बनकर इस घर में आई ंै, कई वषय प ले व चौबेजी की पतु ्री बनकर आई थी, उसने स्वप्न में भी न सोचा था कक मंै एक हदन इस घर की स्वाभमनी बनूँगी। चौबेजी की सज-िज आज देखने योग्य ंै, तनजबे का रंिगीन कु रता, कतरी ुई और सवंि ारी ुई मँूछे , खखजाब से चमकते ुए बाल, ँूसता ुआ च ेरा, चढी आँूखंे, यौवन का परू ा स्वागूँ था। रात बीत चुकी थी। ववन्िशे ्वरी आभूषणों से लदी ुई, भारी जोड़े प ने, फशय पर भसर झकु ाए बठै ी ैं, उसे कोई उतकंि ठ न थी, भय न था, के वल सकिं ोच था कक मैं उनके सामने कै से मँूु खोलूँगी? उनकी गोद में खले ी ूँ, उनके कन्िों पर बठै ी ूँ, उनकी पीठ पर सवार ुई ूँ, कै से उन् ंे मूँु हदखाऊँू गी, अगर वे वपछली बातंे सोचूँ, ईश्वर उन् ें प्रसन्न रखे, ल्जसके भलए मनै े पुत्री बनना स्वीकार ककया, व पूणय ो, उनका जीवन आनन्द से व्यतीत ो। इतने में चौबेजी आए, ववन्िशे ्वरी उठ खड़ी ुई, उसे इतनी लज्जा आई कक जी चा ा क ीिं भाग जाए, खखड़की से नीचे कू द पड़।े चौबेजी ने उसका ाथ पकड़ भलया और बोले - बबन्नी, मुझसे डरती ो?
बबन्नी कु छ न बोली, मतू तय की तर खड़ी र ी, एक क्षण मंे चौबेजी ने उसे बबठा भलया। व बठै गई, उसका गला भर-भर आता था, भाग्य की तनदयय लीला, य क्रू र क्रीड़ा उसके भलए असह्य ो र ी थी। पिडं डतजी ने पछू ा - बबन्नी, बोलती क्यों न ींि? क्या मझु से नाराज ो? ववन्िशे ्वरी ने अपने कान बन्द कर भलये। य ीिं पररधचत आवाज व ककतने हदनों से सनु ती चली आती थी, आज व व्यगिं ्य से भी तीव्र और उप ास से भी कटु प्रतीत ोती थी। स सा पंडि डतजी चौंक पड़े, आखूँ ंे फै ल गई और दोनों ाथ मेढक के परै ो की भातँू त भसकु ड़ गए। व दो कदम पीछे ट गए, खखड़की से मंिगला झाकूँ र ी थी! छाया न ींि, मंगि ला थी, सन्दे , साकर, सजीव। चौबेजी काूँपते ुए टू टी-फू टी आवाज से बोले - बबन्नी देखो, व क्या ंै? बबन्नी ने घबराकर खखड़की की तरफ देखा, कु छ न थी, कफर क ा - क्या ंै? मझु े तो कु छ न ीिं हदखाई देता। चौबेजी - अब गायब ो गई लेककन ईश्वर जानता ंै, मंगि ला थी। बबन्नी - ब न? चौबेजी - ाँू- ाँू, व ी, खखड़की से झाूकँ र ी थी, मेरे तो रोएूँ खड़े ो गए। ववन्िशे ्वरी कापूँ ते ुए बोली - मंै य ाूँ न ीिं र ूँगी। चौबे - न ीिं, न ीिं, बबन्नी, कोई डर न ीिं ंै, मुझे िोखा ुआ ोगा, बात य ंै कक व घर में र ती थी, य ींि सोती थी, इसी से कदाधचत मेरी भावना ने उसकी मूततय लाकर खड़ी कर दी, कोई बात न ींि ंै, आज का हदन ककतना मंगि लमय ैं कक मेरी बबन्नी यथाथय में मेरी ी ो गई...।
य क ते क ते चौबेजी कफर चौंके , कफर व ी मूततय खखड़की से झाूँक र ी थी, मतू तय न ींि, सन्दे , सजीव, साकार मगिं ला, अबकी उसकी आूखँ ों मंे क्रोि न था, ततरस्कार न था, उसमंे ास्य भरा ुआ था, मानो इस दृश्य पर ूँस र ी ैं, मानो उसके सामने कोई अभभनय ो र ा ंै। चौबेजी ने काूपँ ते ुए क ा - बबन्नी, कफर व ी बात ुई, व देखो मिगं ला खड़ी ंै। ववन्िेश्वरी चीखकर उनके गले से धचमट गई। चौबेजी ने म ावीर का नाम जपते ुए क ा - मंै ककवाड़ बन्द ककए देता ूँ। बबन्नी - मैं अब इस घर मंे न ींि र ूँगी, (रोकर) भयै ाजी, तमु ने ब न के अल्न्तम आदेश को न ीिं माना, इसी से उनकी आतमा दखु ी ो र ी ंै, मुझे तो ककसी अमंिगल की आशिंका ो र ी ैं। चौबेजी ने उठकर खखड़की के द्वार बन्द कर हदए और क ा - मंै कल से दगु ापय ाठ कराऊूँ गा, आज तक कभी ऐसा शंिका न ुई थी, तुमसे क्या क ूँ, मालूम ोता ै... ोगा, उस बात को जाने दो, य ाँू बड़ी गरमी पड़ र ी ैं, अपनी पानी धगरने को दो म ीने से कम न ींि ंै, म लोग मंसि रू ी क्यों न चले। ववन्िशे ्वरी - मेरा तो क ींि जाने का जी न ींि चा ता, कल से दगु ापय ाछ जरूर कराना, मझु अब इस कमरे में नींदि न आएगी। पंिडडत - ग्रिंथों में तो य ीिं देखा ैं कक मरने के बाद के वल सकू ्ष्म शरीर र जाता ंै, कफर समझ में न ींि आता, य स्वरूप क्योंकर हदखाई दे र ा ैं। मैं सच क ता ूँ बबन्नी, अगर तुमने मझु पर य दया न की ोती, तो मैं क ीिं का न र ता, शायद इस वक्त मंै बद्रीनाथ के प ाड़ों पर भसर टकराता ोता, या कौन जाने ववष खाकर प्राणान्त कर चकु ा ोता। ववन्िशे ्वरी - मिंसरू ी में ककसी ोटल मंे ठ रना पड़गे ा।
पडिं डत - न ींि मकान भी भमलते ंै, मंै अपने भमत्र को भलखे देता ूँ, व कोई मकान ठीक कर रखेंगे व ाँू...। बात पूरी न ोने पाई थी कक न-जान क ाँू से जैसे आकाशवाणी ो, आवाज आई, बबन्नी तमु ् ारी पुत्री ैं। चौबेजी ने दोनो कान बन्द कर भलए, भय से थर-थर काँपू ते ुए बोले - बबन्नी, य ाूँ से चलो, न जाने क ाूँ से आबाजें आ र ी ैं। बबन्नी तुम् ारी पुत्री ंै - य ध्वतन स स्त्रों कानों से पिंडडतजी को सुनाई पड़ने लगी, मानो इस कमरे की एक-एक वस्तु से य ी आवाज आ र ी ैं। बबन्नी ने रोकर पूछा - कै सी आवाज थी? पडंि डत - क्या बताऊँू , क ते लज्जा आती ंै। बबन्नी - जरूर ब नजी की आतमा ंै, ब न, मझु पर दया करो, मंै सवथय ा तनदोष ूँ। पंिडडत - कफर व ी आवाज आ र ी ंै, ाय ईश्वर, क ाूँ जाऊूँ ? मेरे तो रोम-रोम में वे ी शब्द गँूज र ैं ंै, बबन्नी, बरु ा ककया, मिंगला सती थी, उसके आदेश की उपेक्षा करके मनैं े अपने क मंे ज र बोया, क ाँू जाऊँू , क्या करूूँ ? य क कर पिंडडतजी ने कमरे के ककवाड खोल हदए और बेत ाशा भागे। अपने मरदाने कमरे में प ुँूचकर व धगर पड़े, मूझाय आ गई। ववन्िशे ्वरी भी दौड़ी, पर चौखट से बा र तनकलते ी धगर पड़ी। ***
सवा सेर गंेहूँ ककसी गाँूव मंे शिंकर नाम का एक कु रमी ककसान र ता था। सीिा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम से काम न ककसी के लेने मंे न देने मंे । छक्का पंिजा न जानता था, छल प्रपंिच की उसे छू त भी न लगी थी, ठगे जाने की धचन्ता न थी, ठग ववद्या न जानता था। भोजन भमला खा भलया न भमला चबेने पर काट दी, चबेना न भमला तो पानी पी भलया, और राम का नाम लेकर सो र ा । ककन्तु जब कोई अततधथ द्वार पर आ जाता था तो उसे तनवतृ त मागय का तयाग न करना पड़ता था। ववशेष कर जब कोई सािु म ातमा पदापणय करते थे तो उसे अतनवायतय ः सािंसाररकता की शरण लेनी पड़ता थी। खुद भखू ा सो सकता था पर सािु को कै से भखू ा सुलाता? भगवान के भक्त ठ रे? एक हदन संिध्या के समय एक म ातमा ने आकर उसके द्वार पर डरे ा जमाया। तजे स्वी मूततय थी, पीताम्बर गले मंे, जटा भसर पर, पीतल का कमिंडल ाथ में, खड़ाऊूँ पैर में, एनके आँूखों पर । सिंपूणय वेश उन म ातमाओ का-सा था जो रईसो के प्रासादों मंे तपस्या, वागाडड़यो पर देवस्थानों की पररक्रमा और योगभसव्ध प्राप्त करने के भलए रूधचकर भोजन करते ै। घर में जौ का आटा था, व उन् ंे कै से खखलाता, प्राचीन काल मंे जौ का चा े जो कु छ म तव र ा ो, पर वतमय ान युग मंे जौ का भोजन भस्ध परु ूषों के भलए दषु ्पाच्य ोता ै। बड़ी धचतंि ा ुई, म ातमा जी को क्या खखलाऊूँ । आखखर तनश्चय ककया कक क ीिं से गें ूँ का आटा उिार लाऊँू , पर गावूँ भर में गंे ूँ का आटा न भमला। गाँूव में सब मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतः देवताओंि का पदाथय कै से भमलता? सौभाग्य गाूँव के ववप्र म ाराज के य ाँू से थोड़े से गें ूँ भमल गये। उसने सवा सेर गें ूँ उिार भलया और स्त्री से क ा कक पीस दे। म ातमा जी ने भोजन ककया, लम्बी तान कर सोये । प्रातःकाल आशीवायद देकर अपनी रा ली।
ववप्र म ाराज साल मंे दो बार खभल ानी ककया करते थे । शिंकर ने हदल में क ा - सेर गें ूँ इन् ें क्या लौटाउूँ , पसेरी के बदले कु छ ज्यादा खभल ान दे दँूगू ा, य भी समझ जायगंे े, मैं भी समझ जाऊँू गा। चैत मंे जब ववप्रजी प ुूँचे तो उन् ंे डढे िं पसेरी के लगभग गंे ूँ दे हदया। और अपने को उऋण समझ कर उसकी कोई चरचा न की। ववप्र जी नें कफर कभी न माँगू ा । सरल शंिकर को क्या मालमू था कक य सवा सेर गें ूँ चुकाने के भलए उसे दसू रा जन्म लेना पड़गे ा। सात साल गुजर गये । ववप्र जी ववप्र से म ाजन ुए, शिंकर ककसान से मजरू ुआ। उसका छोटा भाई मगंि ल उससे अलग ो गया था। एक सात र कर दोनों ककसान थे, अलग ो कर मजरू ो गये थे। शिंकर ने चा ा कक द्वेष की आग न भड़कने पाये, ककन्तु पररल्स्थतत ने उसे वववश कर हदया। ल्जस हदन अलग-अलग चकू ें जले, व फू ट-फू टकर रोया। आज से भाई-भाई शत्रु ो जायगूँ े, एक रोयेगा तो दसू रा ँूसेगा, एक के घर में मातम ोगा तो दसू रे के घर मंे गलु गलु े पकें गे। प्रेम का बिंि न, खनू का बििं न, दिू का बििं न आज टू टा जाता ंै। उसमे भगीरथ पररश्रम से कु लमयादय ा का वकृ ्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सींचि ा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके हृदय के टु कड़े ुए जाते थ।े सात हदनों तक उसने दाने की सूरत न देखी। हदन भर जठे की िूप में काम करता और रात को मूँु लपेट कर सो र ता इस भीषण वेदना और दसु ्स कष्ट ने रक्त को जला हदया, माँसू और मज्जा को घलु ा हदया । बीमार पड़ा तो म ीनों तक खाट से न उठा। अब गजु र बसर कै से ो? पाँूच बीघे के आिे खेत र गये, एक बैल र गया, खते ी क्या खाक ोती। अितं मंे य ाूँ तक नौबत प ुँूची कक खते ी के वल मयादय ा रक्षा का सािन मात्र र गयी। जीववका का भार मजरू ी पर आ पड़ा। सात वषय बीत गये, एक हदन शंिकर मजूरी करके लौटा तो रा मंे ववप्र जी ने टोक कर क ा - शंिकर, कल आके अपने बीज बंेग का ह साब कर ले। तरे े य ाूँ साठे पाचूँ मन गें ूँ कब के बाकी पड़े ुए ै और तू देने का नाम न ी लेता, जम करने का मन ै क्या?
शंिकर ने चककत ो कर क ा - मनै े तुमसे कब गें ूँ भलये थे जो साढे पाूचँ मन ो गये? तमु भलू ते ो, मेरे य ाूँ ककसी का न छटाूँक भर अनाज ै न एक पैसा उिार। ववप्र - इसी नीयत का तो य फल भोग र े ो कक खाने को न ी जुड़ता। य क कर ववप्र ने उस सवा सेर का ल्जक्र ककया , जो आज से सात वषय प ले शंिकर को हदया था। शंिकर सुनकर अवाक र गया । ईश्वर! मनैं े इन् ें ककतनी बार खभल ानी दी, इन् ंे मेरा कौन सा काम ककया? जब पोथी-पत्रा देखने साइत-सगुन ववचारने द्वार पर आते थे, कु छ न कु छ दक्षक्षणा ले ी जाते थे। इतना स्वाथ!य सवा सेर अनाज को अडंि े की भाूँतत से कर आज य वपशाच खड़ा कर हदया, क्या इसी नीयत से चपु चाप बैठे र े। बोला - म ाराज नाम लेकर तो मैने उतना अनाज न ी हदया, पर कई बार खभल ानी में सेर-सेर दो-दो से हदया ै। अब आप साढे पाचूँ मन माँगू ते ै, मै क ाँू से दूँगू ा ? ववप्र - लेखा जौ-जौ, बखसी सौ-सौ! तुमने जो कु छ हदया ोगा, उसका कोई ह साब न ी। चा े एक की जग चार पसेरी दे दो । तमु ् ारे नाम ब ी में साढे पाचँू मन भलखा ुआ ै, ल्जससे चा ो ह साब लगवा लो। दे दो तो तुम् ारा नाम छंे क दँू,ू न ी तो और भी बढता र ेगा। शंिकर - पािडं .े क्यो गरीब को सताते ो, मेरे खाने का हठकाना न ी इतना गें ूँ ककसके घर से लाऊूँ गा? ववप्र - ल्जसके घर से चा ो लाओ, मंै छटाूँक भर न छोडूँगा, य ाँू न दोगे, भगवान के घर दोगे। शंिकर काूँप उठा। म पढे भलखे आदमी ोते तो क देते अच्छी बात ै, ईश्वर के घर ी देंगे। व ाँू की तौल य ाँू से कु छ बड़ी तो न ोगी। कम से कम इसका कोई प्रमाण मारे पास न ी, कफर उसकी क्या धचतिं ा । ककन्तु शंिकर इतना
ताककय क , इतना व्यव ार चतुर न था। एक तो ऋण - व भी ब्राह्मण का - ब ी मंे नाम र गया तो सीिे नरक मंे जाऊँू गा, इस ख्याल से उसे रोमािचं ो आया। बोला - म ाराज, तुम् ारा ल्जतना ोगा दूँगू ा, ईश्वर के य ाँू क्यों दंे, इस जनम मंे तो ठोकर ी खा र ा ूँ, उस जन्म के भलए क्या बोऊूँ । मगर य कोई तनयाव न ी ै। तमु ने राई का पवतय बना हदया, ब्राह्मण ोके तुम् े ऐसा न ींि करना चाह ए था। उसी घड़ी तगादा करके ले भलया ोता, तो आज मेरे भसर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता ? मैं तो दँूगू ा, लेककन तुम् ंे भगवान के य ाँू जवाब देना पड़गे ा। ववप्र - व ाँू का डर तुम् ें ोगा, मझु े क्यो ोने लगा। व ाूँ तो सब अपने ी भाई बिंिु ै। ऋवष-मतु न सब तो ब्राह्मण ी ै, देवता भी ब्राह्मण ै, जो कु छ बबगडगे ी, सँूभाल लंेगे। तो कब देते ो ? शंिकर - मेरे पास रखा तो न ी, ककसी से माूगँ -जाचँू कर लाऊूँ गा तभी न दँूगू ा. ववप्र - मै य न मानूँगा। सात साल ो गये, अब एक हदन का भी मुलाह जा न करूूँ गा। गंे ू न ी दे सकते, दस्तावजे भलख दो। शंिकर - मझु े तो देना ै, चा े गंे ूँ लो , चा े दस्तावजे भलखाओ। ककस ह साब से दाम रखोंगे? ववप्र - बाजार भाव पाँचू सेर का ै, तुम् ें सवा पाचँू सेर का काट दूँगू ा। शंिकर - जब दे ी र ा ूँ तो बाजार-भाव काटूँगा, पाव भर छु ड़ाकर क्यो दोषी बनूँ। ह साब लगाया तो गें ूँ का दाम साठ रूपये ुए। साठ रूपये का दस्तावेज भलखा गया, तीन रूपया सैकड़े सदू । साल भर में न देने पर सदू का दर साढे तीन रूपये सैकड़े , बार आने का स्टाम्प, एक रूपया दस्तावेज की त रीर शिंकर को ऊपर से देनी पड़ी।
गाँवू भर ने ववप्र की तनन्दा की, लेककन मूँु पर न ी। म ाजन से सभी को काम पड़ता ै, उसके मँूु कौन आये। शिंकर ने साल भर कहठन तपस्या की। मीयाद के प ले रूपया अदा करने का उसने व्रत-सा कर भलया। दोप र को प ले भी चूक ा न जलता था, चबेने पर बसर ोती थी, अब व भी बंदि ुआ। के वल लड़के के भलए रात को रोहटयाँू रख दी जाती। पैसे रोज का तम्बाकू पी जाता था। य ी एक व्यसन था ल्जसका व कभी तयाग न कर सका था। अब व्यसन भी इस कहठन व्रत के भंेट ो गया। उसने चीलम पटक दी, ुक्का तोड़ हदया और तम्बाकू की ाूँड़ी चरू -चरू कर डाली। कपड़े प ले ी तयाग की सीमा तक प ुँूच चुके थे, अब प्रकृ तत की न्यूनतम रेखाओिं में आब्ध ो गये। भशभशर की अल्स्थ-वेिक शीत को उसने आग ताप कर काट भलया। इस ध्रवु संकि कप का फल आशा से बढकर तनकला। साल के अतंि मंे उसके पास साठ रूपये जमा ो गये। उसने समझा, पिंडड़त जी को इतने रुपये दे दँूगू ा और क ूँगा , म ाराज, बाकी रुपये भी जकद ी आपके सामने ाल्जर करूूँ गा। पन्द्र रूपये की तो बात ै, क्या पडिं ड़त जी इतना भी न मानेंगे? उसने रुपये भलए और ले जाकर पंडि ड़त जी के चरण-कमलों पर अपणय कर हदये। पडंि डत जी ने ववल्स्मत ोकर पूछा - ककसी से उिार भलये क्या ? शंिकर - न ी म ाराज, आपके आसीस से अबकी मजरू ी अच्छी भमली। ववप्र - लेककन य तो साठ रुपये ी ैं। शंिकर - ाूँ, म ाराज, इतने अभी लील्जए बाकी दो-तीन म ीने मंे दँूगू ा, मझु े उररन कर दील्जए। ववप्र - उररन तो तभी ोगे जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे पन्द्र रुपये और लाओ।
शिंकर - म ाराज, इतनी दया करो, अब साझँू की रोहटयों का भी हठकाना न ी ै, गाूँव मंे ूँ तो कभी न कभी दे ी दँूगू ा । ववप्र - मै य रोग न ी पालता, न ब ुत बाते करना जानता ूँ। अगर परू े रुपये न भमलेगे तो आज से साढे तीन रूपये सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रूपये चा े अपने घर मंे रखो, चा े मेरे य ाूँ छोड़ जाओ। शंिकर - अच्छा ल्जतनी लाया ूँ उतना रख लील्जए । जाता ूँ क ीिं से पन्द्र रुपये और लाने की कफक्र करता ूँ । शिंकर ने सारा गाूवँ छान मारा, मगर ककसी न रूपये न हदये, इसभलए कक उसका ववश्वास न था या ककसी के पास रूपया न था, बल्कक इसभलए की पडंि ड़त के भशकार को छे ड़ने की ककसी में ह म्मत न थी। कक्रया के पश्चात प्रततकक्रया नैसधगयक तनयम ै। शंिकर साल भर तक तपस्या कर ने पर जब ऋण से मुक्त ोने मंे सफल न ो सका तो उसका सिंयम तनराशा के रुप मंे पररखणत ो गया। उसने समझ भलया कक जब इतने कष्ट स ने पर भी साल भर मंे साठ रुपये से अधिक जमा न कर सका तो अब और कौन सा उपाय ै ल्जसके द्वारा उससे दनू े रुपये जमा ो । जब भसर पर ऋण का बोझ ी लदना ै तो क्या मन का और क्या सवा मन का। उसका उतसा क्षीण ो गया, मे नत से घणृ ा ो गयी। आशा उतसा की जननी ै, आशा में तजे ै, बल ै, जीवन ै। आशा ी ससंि ार की सिंचालक ै शल्क्त ै। शिंकर आशा ीन ोकर उदासीन ो गया। व जरुरतंे ल्जनको उसने साल भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी ोने वाली भभखाररणी न थी, बल्कक छाती पर सवार ोने वाली वपशाधचतनयाँू थी जो अपने भेंट भलये बबना जान न ी छोड़ती । कपड़ो में चकततयों के लगने की भी एक सीमा ोती ै। अब शिंकर को धचट्ठा भमलता तो व रुपये जमा न करता। कभी कपड़े लाता, कभी खाने को कोई वस्त।ु ज ाूँ प ले तमाखू ी वपया करता थास व ाूँ अब गाूँजे और चरस का भी चस्का लगा । उसे रुपये अदा करने की कोई धचन्ता न थी, मानो उसके ऊपर ककसी का पैसा
न ी आता। प ले जूडी चढी ोती थी, पर व कान करने अवश्य जाता था। अब काम पर न जाने के भलए ब ाना खोजा करता । इस भाूँतत तीन वषय तनकल गये। ववप्र जी म ाराज ने एक बार भी तकाजा न ककया। व चतरु भशकारी की भातँू त अचकू तनशाना लगाना चा ते थे । प ले से भशकार को चौकाना उसकी नीतत के ववरु्ध था। एक हदन पंडि ड़त जी ने शंिकर को बुलाकर ह साब हदखाया। साठ रुपये जो जमा थे व भमन ा करने पर शंिकर के ल्जम्मे एक सौ बीस रुपये तनकले। शंिकर - इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगू ा, इस जन्म में न ी ो सकत।े ववप्र - मंै इसी जन्म मंे लँूगा । मूल न स ी, सदू तो देना ी पड़गे ा। शिंकर - एक बैल ै, व ले लील्जए, एक झोपड़ी ै, व ले लील्जए और मेरे पास क्या रखा ै? ववप्र - मुझे बलै -बधिया ले कर क्या करना ै। मुझे देने को तुम् ारे पास ब ुत कु छ ै। शिंकर - औऱ क्या ै म ाराज? ववप्र - कु छ न ी ै तुम तो ो। आखखर तुम भी क ींि मजूरी करने जाते ी ो। मझु े भी खेती के भलए मजूर रखना पड़ता ैं। सदू मंे मारे य ाँू काम ककया करो, जब सुभीता ो मूल दे देना। सच तो यौ ै कक अब तुम ककसी दसु री जग कान करने न ी जा सकते, जब तक मेरे रूपये न ी चकु ा दो । तमु ् ारे पास कोई जायदाद न ी ै, इतनी बड़ी गठरी मै ककस एतबार पर छोड दँू।ू कौन इसका ल्जम्मा लेगा कक तुम मुझे म ीने-म ीने सूद देते जाओगे? और क ी कमा कर अब तुम मुझे सदू भी न ी दे सकत,े तो मूल की कौन क ै? शंिकर - म ाराज, सदू में तो काम करुँू गा और खाऊूँ गा क्या?
ववप्र - तुम् ारी घरवाली ै, लड़के ै, क्या वे ाथ पाँवू कटा के बठै े गे। र ा मै तुम् े आि सेर जौय रोज कलेवा के भलए दे हदया करूँू गा। ओढने को साल मंे एक कम्बल पा जाओगे, एक भमरजई भी बनवा हदया करूूँ गा , और क्या चाह ए? य सच ै कक और लोग तुम् ंे छः आने रोज देते ै लेककन मझु े ऐसी गरज न ी ै, मै तो तमु ् े अपने रूपये भराने के भलए रखता ूँ। शिंकर ने कु छ देर तक ग री धचतंि ा मे पड़े र ने के बाद क ा - म ाराज, य तो जन्म भर की गुलामी ुई। ववप्र - गुलामी समझो, चा े मजरू ी समझो। मै अपने रुपये भराये बबना तमु को कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तमु ् ारा लड़का भरेगा। ाूँ, जब कोई न र ेगा तब की दसु री बात ै। इस तनणयय की क ी अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता? शरण न थी, भाग कर क ाूँ जाता ? दसू रे हदन उसने ववप्र के य ाँू काम करना शुरु कर हदया। सवा सेर गंे ूँ की बदौलत उम्र भर के भलए गुलामी की बेड़ी पैरो में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर ककसी ववचार से सतिं ोष ोता था तो य था कक य मेरे पवू जय न्म का सिंस्कार ै। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न ककये थे, बच्चे दानो को तरसते थे, लेककन शंिकर चुपचाप देखने के भसवा और कु छ न कर सकता था। गंे ूँ के दाने ककसी देवता के शाप की भातूँ त आजीवन उसके भसर से न उतरे। शिंकर ने ववप्र जी के य ाँू बीस वषय तक गलु ामी करने के बाद इस दसु ्सार ससिं ार से प्रस्थान ककया। एक सौ बीस रूपये अभी तक उसके भसर पर सवार थ।े पिंडडत जी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार मंे कष्ट देना उधचत न समझा । इतने अन्यायी न ी, इतने तनदयय वे न थ।े उसके जवान बेटे की गदयन पकड़ी। आज तक व ववप्र जी के य ाँू काम करता ै। उसका उ्ध ार कब ोगा, ोगा भी या न ी, ईश्वर ी जाने।
पाठक, इस वतृ ािंत को कपोल कल्कपत न समखझए। य सतय घटना ै। ऐसे शंिकरो और ऐसे ववप्रो से दतु नया खाली न ी ै। ***
सभ्यिा का रहस्ट्य यों तो मेरी समझ मंे दतु नया की एक जार एक बातंे न ींि आती—जैसे लोग प्रात:काल उठते ी बालों पर छु रा क्यों चलाते ैं ? क्या अब परु ुषों में भी इतनी नजाकत आ गयी ै कक बालों का बोझ उनसे न ींि सँूभलता ? एक साथ ी सभी पढे-भलखे आदभमयों की आँखू ंे क्यों इतनी कमजोर ो गयी ै ? हदमाग की कमजोरी ी इसका कारण ै या और कु छ? लोग खखताबों के पीछे क्यों इतने ैरान ोते ंै ? इतयाहद—लेककन इस समय मझु े इन बातों से मतलब न ीं।ि मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ र ा ै और उसका जवाब मझु े कोई न ीिं देता। प्रश्न य ै कक सभ्य कौन ै और असभ्य कौन ? सभ्यता के लक्षण क्या ंै ? सरसरी नजर से देखखए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ी न ोगा। बच्चा- बच्चा इसका समािान कर सकता ै। लेककन जरा गौर से देखखए, तो प्रश्न इतना आसान न ींि जान पड़ता। अगर कोट-पतलनू प नना, टाई- ैट कालर लगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, हदन में तरे बार कोको या चाय पीना और भसगार पीते ुए चलना सभ्यता ै, तो उन गोरों को भी सभ्य क ना पड़गे ा, जो सड़क पर बठै कर शाम को कभी-कभी ट लते नजर आते ैं; शराब के नशे से आखूँ ें सुख,य पैर लड़खड़ाते ुए, रास्ता चलनवे ालों को अनायास छे ड़ने की िुन ! क्या उन गोरों को सभ्य क ा जा सकता ै ? कभी न ीि।ं तो य भस्ध ुआ कक सभ्यता कोई और ी चीज ै, उसका दे से इतना सम्बन्ि न ींि ै ल्जतना मन से। मेरे इने-धगने भमत्रों में एक राय रतनककशोर भी ैं। आप ब ुत ी सहृदय, ब ुत ी उदार, ब ुत भशक्षक्षत और एक बड़े ओ देदार ंै। ब ुत अच्छा वते न पाने पर भी उनकी आमदनी खचय के भलए काफी न ींि ोती। एक चौथाई वेतन तो बूँगले ी की भंेट ो जाती ै। इसभलए आप ब ुिा धचतंि तत र ते ंै। ररश्वत तो न ींि लेत—े कम-से-कम मंै न ीिं जानता, ालाूकँ क क ने वाले क ते ंै—लेककन इतना जानता ूँ कक व भतता बढाने के भलए दौरे पर ब ुत र ते ंै, य ाँू तक कक
इसके भलए र साल बजट की ककसी दसू रे मद से रुपये तनकालने पड़ते ैं। उनके अफसर क ते ैं, इतने दौरे क्यों करते ो, तो जवाब देते ैं, इस ल्जले का काम ी ऐसा ै कक जब तक खबू दौरे न ककए जाएूँ ररआया शांित न ींि र सकती। लेककन मजा तो य ै कक राय सा ब उतने दौरे वास्तव में न ीिं करते, ल्जतने कक अपने रोजनामचे में भलखते ंै। उनके पड़ाव श र से पचास मील पर ोते ैं। खेमे व ॉ ँॉ गड़े र ते ैं, कैं प के अमले व ाँू पड़े र ते ैं और राय सा ब घर पर भमत्रों के साथ गप-शप करते र ते ंै, पर ककसी की मजाल ै कक राय सा ब की नके नीयती पर सन्दे कर सके । उनके सभ्य पुरुष ोने मंे ककसी को शिंका न ींि ो सकती। एक हदन मैं उनसे भमलने गया। उस समय व अपने घभसयारे दमड़ी को डाूँट र े थ।े दमड़ी रात-हदन का नौकर था, लेककन घर रोटी खाने जाया करता था। उसका घर थोड़ी ी दरू पर एक गाूँव मंे था। कल रात को ककसी कारण से य ाँू न आ सका। इसभलए डाँटू पड़ र ी थी। राय सा ब—जब म तुम् ंे रात-हदन के भलए रखे ुए ैं, तो तुम घर पर क्यों र े ? कल के पैसे कट जायगें े। दमड़ी— जरू , एक मे मान आ गये थे, इसी से न आ सका। राय सा ब—तो कल के पसै े उसी मे मान से लो। दमड़ी—सरकार, अब कभी ऐसी खता न ोगी। राय सा ब—बक-बक मत करो। दमड़ी— जरू ...... राय सा ब—दो रुपये जरु माना।
दमड़ी रोता चला गया। रोजा बख्शाने आया था, नमाज़ गले पड़ गयी। दो रुपये जुरमाना ठु क गया। खता य ी थी कक बेचारा कसरू माफ कराना चा ता था। य एक रात को गरै ाल्ज़र ोने की सजा थी ! बेचारा हदन-भर का काम कर चकु ा था, रात को य ाूँ सोया न था, उसका दण्ड ! और घर बठै े भतते उड़ानवे ाले को कोई न ीिं पछू ता ! कोई दिंड न ीिं देता। दिंड तो भमले और ऐसा भमले कक ल्जदिं गी-भर याद र े; पर पकड़ना तो मुल्श्कल ै। दमड़ी भी अगर ोभशयार ोता, तो जरा रात र े आकर कोठरी में सो जाता। कफर ककसे खबर ोती कक व रात को क ाूँ र ा। पर गरीब इतना चिटं न था। दमड़ी के पास कु ल छ: बबस्वे जमीन थी। पर इतने ी प्राखणयों का खचय भी था। उसके दो लड़के , दो लड़ककयाँू और स्त्री, सब खते ी में लगे र ते थे, कफर भी पेट की रोहटयाँू न ींि मयस्सर ोती थींि। इतनी जमीन क्या सोना उगल देती ! अगर सब- के -सब घर से तनकल मजदरू ी करने लगते, तो आराम से र सकते थे; लेककन मौरूसी ककसान मजदरू क लाने का अपमान न स सकता था। इस बदनामी से बचने के भलए दो बलै बाँूि रखे थे ! उसके वेतन का बड़ा भाग बलै ों के दाने-चारे ी में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफंे मंजि ूर थींि, पर खते ी छोड़कर मजदरू बन जाना मजिं रू न था। ककसान की जो प्रततष्ठा ै, व क ीिं मजदरू की ो सकती ै, चा े व रुपया रोज ी क्यों न कमाये ? ककसानी के साथ मजदरू ी करना इतने अपमान की बात न ींि, द्वार पर बँूिे ुए बलै ुए बलै उसकी मान-रक्षा ककया करते ैं, पर बलै ों को बेचकर कफर क ाूँ मूँु हदखलाने की जग र सकती ै ! एक हदन राय सा ब उसे सरदी से कापूँ ते देखकर बोले—कपड़े क्यों न ीिं बनवाता ? काँूप क्यों र ा ै ? दमड़ी—सरकार, पेट की रोटी तो परू ा ी न ीिं पड़ती, कपड़े क ाँू से बनवाऊूँ ?
राय सा ब—बलै ों को बेच क्यों न ींि डालता ? सैकड़ों बार समझा चकु ा, लेककन न- जाने क्यों इतनी मोटी-सी बात तरे ी समझ में न ींि आती। दमड़ी—सरकार, बबरादरी मंे क ीिं मूँु हदखाने लायक न र ूँगा। लड़की की सगाई न ो पायेगी, टाट बा र कर हदया जाऊूँ गा। राय सा ब—इन् ींि ह माकतों से तुम लोगों की य दगु तय त ो र ी ै। ऐसे आदभमयों पर दया करना भी पाप ै। (मेरी तरफ कफर कर) क्यों मुशंि ीजी, इस पागलपन का भी कोई इलाज ै? जाड़ों मर र े ैं, पर दरवाजे पर बैल जरूर बाूँिंेगे। मनंै े क ा—जनाब, य तो अपनी-अपनी समझ ै। राय सा ब—ऐसी समझ को दरू से सलाम कील्जए। मेरे य ॉ ंि कई पशु ्तों से जन्माष्टमी का उतसव मनाया जाता था। कई जार रुपयों पर पानी कफर जाता था। गाना ोता था; दावतें ोती थींि, ररश्तदे ारों को न्योते हदये जाते थे, गरीबों को कपड़े बाूटँ े जाते थे। वाभलद सा ब के बाद प ले ी साल मनंै े उतसव बन्द कर हदया। फायदा क्या ? मफु ्त में चार-पाचूँ जार की चपत खानी पड़ती थी। सारे कसबे में वावेला मचा, आवाजें कसी गयींि, ककसी ने नाल्स्तक क ा, ककसी ने ईसाई बनाया लेककन य ाूँ इन बातों की क्या परवा ! आखखर थोड़े ी हदनों मंे सारा कोला ल शान्त ो गया। अजी, बड़ी हदकलगी थी। कसबे में ककसी के य ाँू शादी ो, लकड़ी मुझसे ले ! पशु ्तों से य रस्म चली आती थी। वाभलद तो दसू रों से दरख्त मोल लेकर इस रस्म को तनभाते थे। थी ह माकत या न ीिं ? मनैं े फौरन लकड़ी देना बन्द कर हदया। इस पर भी लोग ब ुत रोये-िोये, लेककन दसू रों का रोना-िोना सनु ूँ, या अपना फायदा देखू।ँ लकड़ी से कम-से-कम 500) रुपये सलाना की बचत ो गयी। अब कोई भूलकर भी इन चीजों के भलए हदक करने न ींि आता।
मेरे हदल में कफर सवाल पैदा ुआ, दोनों मंे कौन सभ्य ै, कु ल-प्रततष्ठा पर प्राण देनवे ाले मूखय दमड़ी; या िन पर कु ल-मयादय ा को बभल देनवे ाले राय रतन ककशोर ! राय सा ब के इजलास में एक बड़े माके का मकु दमा पेश था। श र का एक रईस खून के मामले में फँू स गया था। उसकी जमानत के भलए राय सा ब की खशु ामदंे ोने लगीिं। इज्जत की बात थी। रईस सा ब का ुक्म था कक चा े ररयासत बबक जाय, पर इस मकु दमे से बेदाग तनकल जाऊँू । डाभलयॉ ॉँ लगाई गयींि, भसफाररशंे प ुँूचाई गयीिं, पर राय सा ब पर कोई असर न ुआ। रईस के आदभमयों को प्रतयक्ष रूप से ररश्वत की चचाय करने की ह म्मत न पड़ती थी। आखखर जब कोई बस न चला, तो रईस की स्त्री से भमलकर सौदा पटाने की ठानी। रात के दस बजे थे। दोनों मह लाओिं में बातंे ोने लगीिं। 20 जार की बातचीत थी! राय सा ब की पतनी तो इतनी खशु ुईं कक उसी वक्त राय सा ब के पास दौड़ी ुई आयी और क नंे लगी—ले लो, ले लो राय सा ब ने क ा—इतनी बेसब्र न ो। व तुम् ें अपने हदल में क्या समझेंगी ? कु छ अपनी इज्जत का भी खयाल ै या न ींि ? माना कक रकम बड़ी ै और इससे मैं एकबारगी तमु ् ारी आये हदन की फरमायशों से मकु ्त ो जाऊँू गा, लेककन एक भसववभलयन की इज्जत भी तो कोई मामूली चीज न ींि ै। तुम् ें प ले बबगड़कर क ना चाह ए था कक मझु से ऐसी बेददू ी बातचीत करनी ो, तो य ाँू से चली जाओ। मैं अपने कानों से न ींि सुनना चा ती। स्त्री—य तो मनैं े प ले ी ककया, बबगड़कर खूब खरी-खोटी सुनायी।िं क्या इतना भी न ीिं जानती ? बेचारी मेरे पैरों पर सर रखकर रोने लगी।
राय सा ब—य क ा था कक राय सा ब से क ूँगी, तो मझु े कच्चा ी चबा जायगें े ? य क ते ुए राय सा ब ने गदगद ोकर पतनी को गले लगा भलया। स्त्री—अजी, मंै न-जाने ऐसी ककतनी ी बातें क चुकी, लेककन ककसी तर टाले न ीिं टलती। रो-रोकर जान दे र ी ै। राय सा ब—उससे वादा तो न ीिं कर भलया ? स्त्री—वादा ? मंै रुपये लेकर सन्दकू में रख आयी। नोट थे। राय सा ब—ककतनी जबरदस्त अ मक ो, न मालमू ईश्वर तुम् ंे कभी समझ भी देगा या न ी।ंि स्त्री—अब क्या देगा ? देना ोता, तो दे न दी ोती। राय सा ब— ाँू मालूम तो ऐसा ी ोता ै। मझु से क ा तक न ीिं और रुपये लेकर सन्दकू मंे दाखखल कर भलए ! अगर ककसी तर बात खलु जाय, तो क ींि का न र ूँ। स्त्री—तो भाई, सोच लो। अगर कु छ गड़बड़ ो, तो मंै जाकर रुपये लौटा दूँ।ू राय सा ब—कफर व ी ह माकत ! अरे, अब तो जो कु छ ोना था, ो चुका। ईश्वर पर भरोसा करके जमानत लेनी पड़गे ी। लेककन तमु ् ारी ह माकत मंे शक न ीिं। जानती ो, य सापँू के मँूु में उूँ गली डालना ै। य भी जानती ो कक मझु े ऐसी बातों से ककतनी नफरत ै, कफर भी बेसब्र ो जाती ो। अबकी बार तमु ् ारी ह माकत से मेरा व्रत टू ट र ा ै। मनंै े हदल में ठान भलया था कक अब इस मामले मंे ाथ न डालूँगा, लेककन तुम् ारी ह माकत के मारे जब मेरी कु छ चलने भी पाये ?
स्त्री—मंै जाकर लौटाये देती ूँ। राय सा ब—और मैं जाकर ज र खाये लेता ूँ। इिर तो स्त्री-परु ुष मंे य अभभनय ो र ा था, उिर दमड़ी उसी वक्त अपने गावँू के मखु खया के खते से जआु र काट र ा था। आज व रात-भर की छु ट्टी लेकर घर गया था। बलै ों के भलए चारे का एक ततनका भी न ीिं ै। अभी वेतन भमलने मंे कई हदन की देर थी, मोल ले न सकता था। घर वालों ने हदन को कु छ घास छीलकर खखलायी तो थी, लेककन ऊूँ ट के मँूु में जीरा। उतनी घास से क्या ो सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को देखते ी दोनों पँूछें खड़ी करके ुूँकारने लगे। जब व पास गया तो दोनों उसकी थेभलयाूँ चाटने लगे। बेचारा दमड़ी मन मसोसकर र गया। सोचा, इस वक्त तो कु छ ो न ीिं सकता, सबेरे ककसी से कु छ उिार लेकर चारा लाऊूँ गा। लेककन जब ग्यार बजे रात उसकी आूँखें खलु ीिं, तो देखा कक दोनों बैल अभी तक नाँूद पर खड़े ंै। चादूँ नी रात थी, दमड़ी को जान पड़ा कक दोनों उसकी ओर उपेक्षा और याचना की दृल्ष्ट से देख र े ैं। उनकी क्षुिा-वदे ना देखकर उसकी आखँू ें सजल ो आयींि। ककसान को अपने बलै अपने लड़कों की तर प्यारे ोते ैं। व उन् ंे पशु न ींि, अपना भमत्र और स ायक समझता। बलै ों को भखू े खड़े देखकर नीदिं आँखू ों से भाग गयी। कु छ सोचता ुआ उठा। ँूभसया तनकाली और चारे की कफक्र में चला। गाूवँ के बा र बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी के ाथ काूपँ ने लगे। लेककन बैलों की याद ने उसे उततले ्जत कर हदया। चा ता, तो कई बोझ काट सकता था; लेककन व चोरी करते ुए भी चोर न था। उसने के वल उतना ी चारा काटा, ल्जतना बैलों को रात-भर के भलए काफी ो। सोचा, अगर ककसी ने देख भी भलया, तो उससे क दँूगू ा, बलै भूखे थे, इसभलए काट भलया। उसे ववश्वास था कक थोड़े-से चारे के भलए कोई मुझे पकड़ न ीिं सकता। मंै कु छ बेचने के भलए तो काट न ींि र ा ूँ; कफर ऐसा तनदययी कौन ै, जो मुझे पकड़ ले। ब ुत करेगा, अपने दाम ले लेगा। उसने ब ुत सोचा। चारे का थोड़ा ोना ी
उसे चोरी के अपराि से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता, ल्जतना उससे उठ सकता। उसे ककसी के फायदे और नुकसान से क्या मतलब ? गाँूव के लोग दमड़ी को चारा भलये जाते देखकर बबगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में न फँू साता, लेककन संियोग से कके के थाने का भसपा ी उिर जा तनकला। व पड़ोस के एक बतनये के य ाूँ जआु ोने की खबर पाकर कु छ ऐिंठने की टो मंे आया था। दमड़ी को चारा भसर पर उठाते देखा, तो सन्दे ुआ। इतनी रात गये कौन चारा काटता ै ? ो न ो, कोई चोरी से काट र ा ै, डाूँटकर बोला—कौन चारा भलए जाता ै ? खड़ा र ! दमड़ी ने चौककर पीछे देखा, तो पभु लस का भसपा ी ! ाथ-पावूँ फू ल गये, काूपँ ते ुए बोला— ुजरू , थोड़ा ी-सा काटा ै, देख लील्जए। भसपा ी—थोड़ा काटा ो या ब ुत, ै तो चोरी। खेत ककसका ै ? दमड़ी—बलदेव म तो का। भसपा ी ने समझा था, भशकार फूँ सा, इससे कु छ ऐिंठूँ गा; लेककन व ाँू क्या रखा था। पकड़कर गावूँ में लाया और जब व ाँू भी कु छ तथे चढता न हदखाई हदया तो थाने ले गया। थानदे ार ने चालान कर हदया। मुकदमा राय सा ब ी के इजलास मंे पेश ककया। राय सा ब ने दमड़ी को फँू से ुए देखा, तो मददी के बदले कठोरता से काम भलया। बोले—य मेरी बदनामी की बात ै। तरे ा क्या बबगड़ा, साल-छ: म ीने की सजा ो जायेगी, शभमनय ्दा तो मझु े ोना पड़ र ा ै! लोग य ी तो क ते ोंगे कक राय सा ब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर ैं। तू मेरा नौकर न ोता, तो मंै लकी सजा देता; लेककन तू मेरा नौकर ै, इसभलए कड़ी-से-कड़ी सजा दूँगू ा। मंै य न ींि सनु सकता कक राय सा ब ने अपने नौकर के साथ ररआयत की।
य क कर राय सा ब ने दमड़ी को छ: म ीने की सख्त कै द का ुक्म सनु ा हदया। उसी हदन उन् ोंने खून के मकु दमे में जमानत ले ली। मनंै े दोनों वतृ तान्त सनु े और मेरे हदल मंे य ख्याल और भी पक्का ो गया कक सभ्यता के वल ुनर के साथ ऐब करने का नाम ै। आप बुरे-से-बुरा काम करंे, लेककन अगर आप उस पर परदा डाल सकते ैं, तो आप सभ्य ंै, सज्जन ैं, जेल्न्टलमनै ंै। अगर आप में य भसफ़त न ीिं तो आप असभ्य ैं, गँूवार ंै, बदमाश ैं। य सभ्यता का र स्य ै ! ***
समस्ट्या मेरे दफ्तर मंे चार चपरासी ंै। उनमंे एक का नाम गरीब ै। व ब ुत ी सीिा, बड़ा आञा ाकारी, अपने काम मंे चौकस र ने वाला, घुड़ककयाँू खाकर चुप र जानवे ाला यथा नाम तथा गुण वाला मनषु ्य ै।मझु े इस दफ्तर में साल-भर ोते ंै, मगर मनैं े उसे एक हदन के भलए भी गैर ाल्जर न ीिं पाया। मैं उसे 9 बजे दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बठै े ुए देखने का ऐसा आदी ो गया ूँ कक मानो व भी उसी इमारत का कोई अगंि ै। इतना सरल ै कक ककसी की बात टालना न ीिं जाना। एक मुसलमान ै। उससे सारा दफ्तर डरता ै, मालमू न ींि क्यों ? मुझे तो इसका कारण भसवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के और कु छ न ींि मालमू ोता। उसके कथनानुसार उसके चचरे े भाई रामपरु ररयासत में काजी ंै, फू फा टोंक की ररयासत मंे कोतवाल ैं। उसे सवसय म्मतत ने ‘काजी-सा ेब’ की उपाधि दे रखी ै। शषे दो म ाशय जातत के ब्राह्मण ैं। उनके आशीवायदों का मूकय उनके काम से क ींि अधिक ै। ये तीनों कामचोर, गसु ्ताख और आलसी ैं। कोई छोटा- सा काम करने को भी कह ए तो बबना नाक-भौं भसकोड़े न ीिं करत।े क्लकों को तो कु छ समझते ी न ींि ! के वल बड़े बाबू से कु छ दबते ैं, यद्यवप कभी-कभी उनसे झगड़ बठै ते ैं। मगर इन सब दगु ुणय ों के ोते ुए भी दफ्तर में ककसी की भमट्टी इतनी खराब न ी ै, ल्जतनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया ै, तो ये तीनों मार ले जाते ैं, गरीब को कोई पछू ता भी न ीिं। और सब दस-दस पाते ैं, व अभी छ: ी मंे पड़ा ुआ ै। सबु से शाम तक उसके परै एक क्षण के भलए भी न ींि हटकते—य ाँू तक कक तीनों चपरासी उस पर ुकू मत जताते ैं और ऊपर की आमदनी मंे तो उस बेचारे का कोई भाग ी न ींि। ततस पर भी दफ्तर के सब कमचय ारी—दफ्तरी से लेकर बाबू तक सब—उससे धचढते ैं। उसकी ककतनी ी बार भशकायतें ो चुकी ैं, ककतनी ी बार जमु ायना ो चुका ै और डाूँट-डपट तो तनतय ी ुआ करती ै। इसका र स्य कु छ मेरी समझ में न आता
था। ाँू, मझु े उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यव ार से मैं य हदखाना चा ता था कक मेरी दृल्ष्ट में उसका आदर चपराभसयों से कम न ीि।ं य ाँू तक कक कई बार मैं उसके पीछे अन्य कमयचाररयों से लड़ भी चुका ूँ। एक हदन बड़े बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने को क ा। व तुरन्त मेज साफ करने लगा। दैवयोग से झाड़न का झटका लगा, तो दावात उलट गयी और रोशनाई मेज पर फै ल गयी। बड़े बाबू य देखते ी जामे से बा र ो गये। उसके कान पकड़कर खबू ऐंिठे और भारतवषय की सभी प्रचभलत भाषाओंि से दवु चय न चनु - चनु कर उसे सनु ाने लगे। बेचारा गरीब आखँू ों मंे आँूसू भरे चपु चाप मूततवय त खड़ा सुनता था, मानो उसने कोई तया कर डाली ो। मझु े बाबू का जरा-सी बात पर इतना भयकिं र रौद्र रूप िारण करना बरु ा मालमू ुआ। यहद ककसी दसू रे चपरासी ने इससे भी बड़ा कोई अपराि ककया ोता, तो भी उस पर इतना वज्र-प्र ार न ोता। मनंै े अगिं ्रेजी मंे क ा—बाबू सा ब, आप य अन्याय कर र े ंै। उसने जान-बूझकर तो रोशनाई धगराया न ी।िं इसका इतना कड़ा दण्ड अनौधचतय की पराकाष्ठा ै। बाबजू ी ने नम्रता से क ा—आप इसे जानते न ींि, बड़ा दषु ्ट ै। ‘मंै तो उसकी कोई दषु ्टता न ीिं देखता।’ ‘आप अभी उसे जानते न ींि, एक ी पाजी ै। इसके घर दो लों की खेती ोती ै, जारों का लेन-देन करता ै; कई भसंै े लगती ंै। इन् ीिं बातों का इसे घमण्ड ै।’ ‘घर की ऐसी दशा ोती, तो आपके य ाँू चपरासधगरी क्यों करता?’ ‘ववश्वास मातनए, बड़ा पोढा आदमी ै और बला का मक्खीचसू ।’
‘यहद ऐसा ी ो, तो भी कोई अपराि न ींि ै।’ ‘अजी, अभी आप इन बातों को न ीिं जानत।े कु छ हदन और रह ए तो आपको स्वयिं मालूम ो जाएगा कक य ककतना कमीना आदमी ै?’ एक दसू रे म ाशय बोल उठे —भाई सा ब, इसके घर मनों दिू -द ी ोता ै, मनों मटर, जुवार, चने ोते ैं, लेककन इसकी कभी इतनी ह म्मत न ुई कक कभी थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दो। य ाँू इन चीजों को तरसकर र जाते ैं। तो कफर क्यों न जी जले ? और य सब कु छ इसी नौकरी के बदौलत ुआ ै। न ींि तो प ले इसके घर में भूनी भाूँग न थी। बड़े बाबू कु छ सकु चाकर बोले—य कोई बात न ी।ंि उसकी चीज ै, ककसी को दे या न दे; लेककन य बबककु ल पशु ै। मंै कु छ-कु छ ममय समझ गया। बोला—यहद ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी ै, तो वास्तव में पशु ी ै। मैं य न जानता था। अब बड़े बाबू भी खुले। सिकं ोच दरू ुआ। बोले—इन सौगातों से ककसी का उबार तो ोता न ींि, के वल देने वाले की सहृदयता प्रकट ोती ै। और आशा भी उसी से की जाती ै, जो इस योग्य ोता ै। ल्जसमें साम्यय ी न ींि, उससे कोई आशा न ींि करता। निंगे से कोई क्या लेगा ? र स्य खुल गया। बड़े बाबू ने सरल भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समवृ ्ध के शत्रु सब ोते ंै, छोटे ी न ीिं, बड़े भी। मारी ससुराल या नतन ाल दररद्र ो, तो म उससे आशा न ींि रखते ! कदाधचत व मंे ववस्मतृ ो जाती ै। ककन्तु वे साम्यवय ान ोकर मंे न पूछें , मारे य ाँू तीज और चौथ न भेजें, तो मारे कलेजे पर साूपँ लोटने लगता ै। म अपने तनिनय भमत्र के पास जाय,ूँ तो उसके एक बीड़े पान से ी संितुष्ट ो जाते ैं; पर ऐसा कौन मनुष्य ै, जो अपने ककसी िनी भमत्र के घर से बबना जलपान के लौटाकर उसे मन मंे कोसने न लगे और
सदा के भलए उसका ततरस्कार न करने लगे। सुदामा कृ ष्ण के घर से यहद तनराश लौटते तो, कदाधचत व उनके भशशुपाल और जरासंिि से भी बड़े शत्रु ोत।े य मानव-स्वभाव ै। कई हदन पीछे मनैं े गरीब से पछू ा—क्यों जी, तमु ् ारे घर पर कु छ खते ी-बारी ोती ै? गरीब ने दीन भाव से क ा— ाँू, सरकार, ोती ै। आपके दो गलु ाम ंै, व ी करते ैं ? ‘गाय-ंे भसंै ें भी लगती ैं?’ ‘ ाूँ, ुजरू ; दो भसंै ंे लगती ंै, मदु ा गायें अभी गाभभन न ींि ै। ुजूर, लोगों के ी दया-िरम से पेट की रोहटयाूँ चल जाती ैं।’ ‘दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कु छ खाततर करते ो?’ गरीब ने अतयन्त दीनता से क ा— ुजूर; मंै सरकार लोगों की क्या खाततर कर सकता ूँ। खते ी में जौ, चना, मक्का, जवु ार के भसवाय और क्या ोता ै। आप लोग राजा ंै, य मोटी-झोटी चीजंे ककस मूँु से आपकी भेंट करूूँ । जी डरता ै, क ींि कोई डाूँट न बैठे कक इस टके के आदमी की इतनी मजाल। इसी के मारे बाबूजी, ह याव न ीिं पड़ता। न ींि तो दिू -द ी की कौन बबसात थी। मँूु लायक बीड़ा तो ोना चाह ए। ‘भला एक हदन कु छ लाके दो तो, देखो, लोग क्या क ते ैं। श र मंे य चीजें क ाँू मयस्सर ोती ैं। इन लोगों का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला करता ै।’
‘जो सरकार, कोई कु छ क े तो? क ीिं कोई सा ब से भशकायत कर दे तो मंै क ीिं का न र ूँ।’ ‘इसका मेरा ल्जम्मा ै, तमु ् ंे कोई कु छ न क ेगा। कोई कु छ क ेगा, तो मैं समझा दँूगू ा।’ ‘तो ुजूर, आजकल तो मटर की फभसल ै। चने के साग भी ो गये ैं और कोक ू भी खड़ा ो गया ै। इसके भसवाय तो और कु छ न ीिं ै।’ ‘बस, तो य ी चीजंे लाओ।’ ‘कु छ उकटी-सीिी पड़,े तो ुजरू ी सूँभालंेगे!’ ‘ ाँू जी, क तो हदया कक मैं देख लँूगा।’ दसू रे हदन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट यवु क भी थ।े दो के भसरों पर टोकररयाूँ थींि, उसमें मटर की फतनयाँू भरी ुई थीिं। एक के भसर पर मटका था, उसमें ऊख का रस था। तीनों ऊख का एक-एक गट्ठर काूखँ में दबाये ुए थे। गरीब आकर चुपके से बरामदे के सामने पेड़ के नीचे खड़ा ो गया। दफ्तर मंे आने का उसे सा स न ीिं ोता था, मानो कोई अपरािी वकृ ्ष के नीचे खड़ा था कक इतने मंे दफ्तर के चपराभसयों और अन्य कमयचाररयों ने उसे घेर भलया। कोई ऊख लेकर चूसने लगा, कई आदमी टाकरें पर टू ट पड़,े लूट मच गयी। इतने में बड़े बाबू दफ्तर मंे आ प ुूँच।े य कौतुकब देखा तो उच्च स्वर से बोले—य क्या भीड़ लगा रखी ै, अपना-अपना काम देखो। मनंै े जाकर उनके कान में क ा—गरीब, अपने घर से य सौगात लाया ै। कु छ आप ले लील्जए, कु छ इन लोगों को बाटूँ दील्जए।
बड़े बाबू ने कृ बत्रम क्रोि िारण करके क ा—क्यों गरीब, तमु ये चीजें य ाँू क्यों लाये ? अभी ले जाओ, न ीिं तो मैं सा ब से रपट कर दँूगू ा। कोई म लोगों को मलूका समझ भलया ै। गरीब का रिंग उड़ गया। थर-थर कापूँ ने लगा। मँूु से एक शब्द भी न तनकला। मेरी ओर अपरािी नते ्रों से ताकने लगा। मनैं े उसकी ओर से क्षमा-प्राथयना की। ब ुत क ने-सुनने पर बाबू सा ब राजी ुए। सब चीजों में से आिी-आिी अपने घर भभजवायी। आिी में अन्य लोगों के ह स्से लगाये गये। इस प्रकार य अभभनय समाप्त ुआ। अब दफ्तर मंे गरीब का नाम ोने लगा। उसे तनतय घुड़ककयाूँ न भमलतीिं; हदन- भर दौड़ना न पड़ता। कमचय ाररयों के व्यिगं ्य और अपने स योधगयों के कटु वाक्य न सुनने पड़त।े चपरासी लोग स्वयंि उसका काम कर देत।े उसके नाम मंे भी थोड़ा-सा पररवतनय ुआ। व गरीब से गरीबदास बना। स्वभाव में कु छ तबदीली पैदा ुई। दीनता की जग आतमगौरव का उद्भव ुआ। ततपरता की जग आलस्य ने ली। व अब भी कभी देर करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का ब ाना करके घर बैठ र ता। उसके सभी अपराि अब क्षम्य थे। उसे अपनी प्रततष्ठा का गरु ाथ लग गया था। व अब दसवंे-पाचूँ वे हदन दिू , द ी लाकर बड़े बाबू की भंेट ककया करता। देवता को संति ुष्ट करना सीख गया। सरलता के बदले अब उसमें काँइू याँूपन आ गया। एक रोज बड़े बाबू ने उसे सरकारी फामों का पासलय छु ड़ाने के भलए स्टेशन भेजा। कई बड़े-बड़े पुभलदंि े थ।े ठे ले पर आये। गरीब ने ठे लेवालों से बार आने मजदरू ी तय की थी। जब कागज दफ्तर में गये तो उसने बड़े बाबू से बार आने पैसे ठे लेवालों को देने के भलए वसलू ककये। लेककन दफ्तर से कु छ दरू जाकर उसकी
नीयत बदली। अपनी दस्तरू ी माँूगने लगा। ठे लेवाले राजी न ुए। इस पर गरीब ने बबगड़कर सब पसै े जेब में रख भलये और िमकाकर बोला—अब एक फू टी कौड़ी भी न दूँगू ा। जाओ ज ाूँ फररयाद करो। देखें, क्या बना लेते ो। ठे लेवाले ने जब देखा कक भंेट न देने से जमा ी गायब ुई जाती ै तो रो-िोकर चार आने पैसे देने पर राजी ुए। गरीब ने अठन्नी उसके वाले की, बार आने की रसीद भलखाकर उसके अँूगठू े के तनशान लगवाये और रसीद दफ्तर मंे दाखखल ो गयी। य कु तू ल देखकर मंे दंिग र गया। य व ी गरीब ै, जो कई म ीने प ले सरलता और दीनता की मतू तय था, ल्जजसे कभी चपराभसयों से भी अपने ह स्से की रकम मागूँ ने का सा स न ोता था, जो दसू रों को खखलाना भी न जानता था, खाने का तो ल्जक्र ी क्या। य स्वभावािंतर देखकर अतयन्त खेद ुआ। इसका उततरदातयतव ककसके भसर था ? मेरे भसर, ल्जसने उसे चघ्घड़पन और िूततय ा का प ला पाठ पढाया था। मेरे धचतत मंे प्रश्न उठा—इस काूँइयाँूपन से, जो दसू रों का गला दबाता ै, व भोलापन क्या बुरा था, जो दसू रों का अन्याय स लेता था। व अशुभ मु ूतय था, जब मनंै े उसे प्रततष्ठा-प्राल्प्त का मागय हदखाया, क्योंकक वास्तव में व उसके पतन का भयंकि र मागय था। मनंै े बाह्य प्रततष्ठा पर उसकी आतम-प्रततष्ठा का बभलदान कर हदया। ***
दो सखखयाँू लखनऊ 1-7-25 प्यारी ब न, जब से य ाूँ आयी ूँ, तुम् ारी याद सताती र ती ै। काश! तुम कु छ हदनों के भलए य ाँू चली आतींि, तो ककतनी ब ार र ती। मैं तमु ् ंे अपने ववनोद से भमलाती। क्या य सम्भव न ीिं ै ? तुम् ारे माता-वपता क्या तमु ् ें इतनी आजादी भी न देंगे ? मझु े तो आश्चयय य ी ै कक बेडड़याूँ प नकर तमु कै से र सकती ो! मैं तो इस तर घण्टे-भर भी न ीिं र सकती। ईश्वर को िन्यवाद देती ूँ कक मेरे वपताजी पुरानी लकीर पीटने वालों में न ीि।ं व उन नवीन आदशों के भक्त ैं, ल्जन् ोंने नारी-जीवन को स्वगय बना हदया ै। न ीिं तो मैं क ीिं की न र ती। ववनोद ाल ी में इंिग्लडैं से डी. कफल. ोकर लौटे ंै और जीवन-यात्रा आरम्भ करने के प ले एक बार सिंसार-यात्रा करना चा ते ंै। योरप का अधिकािंश भाग तो व देख चकु े ैं, पर अमेररका, आस्रेभलया और एभशया की सरै ककये बबना उन् ंे चैन न ीि।ं मध्य एभशया और चीन का तो य ववशेष रूप से अध्ययन करना चा ते ंै। योरोवपयन यात्री ल्जन बातों की मीमासंि ा न कर सके , उन् ींि पर प्रकाश डालना इनका ध्येय ै। सच क ती ूँ, चन्दा, ऐसा सा सी, ऐसा तनभीक, ऐसा आदशवय ादी परु ुष मनंै े कभी न ीिं देखा था। मंै तो उनकी बातंे सनु कर चककत ो जाती ूँ। ऐसा कोई ववषय न ीिं ै, ल्जसका उन् ंे पूरा ञा ान न ो, ल्जसकी व आलोचना न कर सकते ो; और य के वल ककताबी आलोचना न ींि ोती, उसमें मौभलकता और नवीनता ोती ै। स्ववन्त्रता के तो व अनन्य उपासक ंै। ऐसे परु ुष की पतनी बनकर ऐसी कौन-सी स्त्री ै, जो अपने सौभाग्य पर गवय न करे। ब न, तुमसे क्या क ूँ कक प्रात:काल उन् ंे अपने बँूगले की ओर आते देखकर मेरे
धचतत की क्या दशा ो जाती ै। य उन पर न्योछावर ोने के भलए ववकल ो जाता ै। य मेरी आतमा मंे बस गये ंै। अपने पुरुष की मनंै े मन में जो ककपना की थी, उसमंे और उनमंे बाल बराबर भी अन्तर न ीं।ि मझु े रात-हदन य ी भय लगा र ता ै कक क ीिं मुझमें उन् ंे कोई त्रहु ट न भमल जाय। ल्जन ववषयों से उन् ंे रुधच ै, उनका अध्ययन आिी रात तक बैठी ककया करती ूँ। ऐसा पररश्रम मनैं े कभी न ककया था। आईने-किं घी से मझु े कभी उतना प्रेम न था, सभु ावषतों को मनंै े कभी इतने चाव से कण्ठ न ककया था। अगर इतना सब कु छ करने पर भी मंै उनका हृदय न पा सकी, तो ब न, मेरा जीवन नष्ट ो जायेगा, मेरा हृदय फट जायेगा और ससंि ार मेरे भलए सूना ो जायेगा। कदाधचत प्रेम के साथ ी मन मंे ईष्याय का भाव भी उदय ो जाता ै। उन् ंे मेरे बँूगले की ओर जाते ुए देख जब मेरी पड़ोभसन कु समु अपने बरामदे में आकर खड़ी ो जाती ै, तो मेरा ऐसा जी चा ता ै कक उसकी आँखू ें ज्योतत ीन ो जाय।ूँ कल तो अनथय ी ो गया। ववनोद ने उसे देखते ी ैट उतार ली और मुस्कराए। व कु लटा भी खीसें तनकालने लगी। ईश्वर सारी ववपल्ततयाँू दे, पर भम्याभभमान न दे। चुड़लै ों की-सी तो आपकी सरू त ै, पर अपने को अप्सरा समझती ंै। आप कववता करती ंै और कई पबत्रकाओंि मंे उनकी कववताएूँ छप भी गई ंै। बस, आप जमीन पर पावँू न ींि रखतींि। सच क ती ूँ, थोड़ी देर के भलए ववनोद पर से मेरी श्र्ध ा उठ गयी। ऐसा आवशे ोता था कक चलकर कु समु का मूँु नोच लँू। खरै रयत ुई कक दोनों मंे बातचलत न ुई, पर ववनोद आकर बैठे तो आि घण्टे तक मंै उनसे न बोल सकी, जैसे उनके शब्दों मंे व जादू ी न था, वाणी मंे व रस ी न था। तब से अब तक मेरे धचतत की व्यग्रता शान्त न ींि ुई। रात-भर मझु े नींिद न ीिं आयी, व ी दृश्य आखँू ों के सामने बार-बार आता था। कु सुम को लल्ज्जत करने के भलए ककतने मसबू े बािूँ चकु ी ूँ। अगर य भय न ोता कक ववनोद मुझे ओछी और लकी समझंेगे, तो मैं उनसे अपने मनोभावों को स्पष्ट क देती। मंै सम्पूणतय : उनकी ोकर उन् ें सम्पूणयत: अपना बनाना चा ती ूँ। मुझे ववश्वास ै कक ससंि ार का सबसे रूपवान युवक मेरे सामने
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