समझ रखा ै। रूप में आकय षण ै, मानती ूँ। लेककन उस आकषणय का नाम मो ै, व स्थायी न ीिं, के वल िोखे की टट्टी ै। प्रेम का एक ी मूल मंति ्र ै, और व ै सेवा। य मत समझो कक जो पुरूष तमु ् ारे ऊपर भ्रमर की भाँूतत मूँडराया करता ै, व तमु से प्रेम करता ै। उसकी य रूपासल्क्त ब ुत हदनों तक न ींि र ेगी। प्रेम का अिंकु र रूप में ै, पर उसको पकलववत और पलु ्ष्पत करना सेवा ी का काम ै। मुझे ववश्वास न ींि आता कक ववनोद को बा र से थके -मादूँ े, पसीने मे तर देखकर तुमने कभी पखंि ा झला ोगा। शायद टेबुल-फै न लगाने की बात भी न सूझी ोगी। सच क ना, मेरा अनुमान ठीक या न ीिं? बतलाओ, तुमने की उनके पैरों में चंिपी की ै? कभी उनके भसर में तजे डाला ै? तमु क ोगी, य खखदमतगारों का काम ै, लेडडयाूँ य मरज न ींि पालतीि।ं तुमने उस आनन्द का अनभु व ी न ीिं ककया। तुम ववनोद को अपने अधिकार में रखना चा ती ो, मगर उसका सािन न ीिं करतीि।ं ववलासनी मनोरंिजन कर सकती ै, धचरसंिधगनी न ींि बन सकती। पुरूष के गले से भलपटी ुई भी व उससे कोसों दरू र ती ै। मानती ूँ, रूपमो मनुष्य का स्वभाव ै, लेककन रूप से हृदय की प्यास न ीिं बझु ती, आतमा की तलृ ्प्त न ीिं ोती। सेवाभाव रखने वाली रूप-वव ीन स्त्री का पतत ककसी स्त्री के रूप-जाल मे फूँ स जाय, तो ब ुत जकद तनकल भागता ै, सेवा का चस्का पाया ुआ मन के वल नखरों और चोचलों पर लट्टू न ींि ोता। मगर मंै तो तमु ् ंे उपदेश करने बैठ गयी, ालाूँकक तुम मुझसे दो-चार म ीने बड़ी ोगी। क्षमा करो ब न, य उपदेश न ींि ै। ये बातें म-तमु सभी जानते ैं, के वल कभी- कभी भलू जाते ैं। मनंै े के वल तमु ् ें याद हदला हदया ंै। उपदेश मे हृदय न ींि ोता, लेककन मेरा उपदेश मेरे मन की व व्यथा ै, जो तमु ् ारी इस नयी ववपल्तत से जागररत ुई ै। अच्छा, अब मेरी रामक ानी सनु ो। इस एक म ीने मंे य ाूँ बड़ी-बड़ी घटनाऍ िं ो गयी।िं य तो मंै प ले ी भलख चुकी ूँ कक आनन्द बाबू और अम्माँजू ी में कु छ मनमुटाव र ने लगा। व आग भीतर- ी-भीतर सलु गती र ती थी। हदन में दो- एक बार माूँ बटे े मंे चोंचें ो जाती थी। एक हदन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे से एक पुस्तक उठा ले गयीि।ं उन् ंे पढने का रोग ै। मनंै े कमरे मंे ककताब न
देखी, तो उनसे पूछा। इस जरा-सी बात पर व भले-मानस बबगड़ गयी और क ने लगी—तुम तो मझु े चोरी लगाती ो। अम्माूँ ने उन् ीिं का पक्ष भलया और मझु े खबू सनु ायी। सयिं ोग की बात, अम्माूजँ ी मझु े कोसने ी दे र ी थींि कक आन्नद बाबू घर में आ गये। अम्माूजँ ी उन् ंे देखते ी और जोर से बकने लगीि,ं ब ू की इतनी मजाल! व तूने भसर पर चढा रखा ै और कोई बात न ी।िं पुस्तक क्या उसके बाप की थी? लड़की लायी, तो उसने कौन गुना ककया? जरा भी सब्र न ुआ, दौड़ी ुई उसके भसर पर जा प ुँूची और उसके ाथों से ककताब छीनने लगी। ब न, मैं य स्वीकार करती ूँ कक मझु े पुस्तक के भलए इतनी उतावली न करनी चाह ए थी। ननदजी पढ चुकने पर आप ी दे जातींि। न भी देतींि तो उस एक पुस्तक के न पढने से मेरा क्या बबगड़ा जाता था। मगर मेरी शामत कक उनके ाथों से ककताब छीनने लगी थी। अगर इस बात पर आनन्द बाबू मझु े डाटूँ बताते, तो मझु े जरा भी द:ु ख न ोता मगर उन् ोंने उकटे मेरा पक्ष भलया और तयोररयाूँ चढाकर बोले—ककसी की चीज कोई बबना पछू े लाये ी क्यों? य तो मामलू ी भशष्टाचार ै। इतना सनु ना था कक अम्माँू के भसर पर भूत-सा सवार ो गया। आनन्द बाबू भी बीच-बीच मे फु लझडड़याँू छोड़ते र े और मंै अपने कमरे मंे बठै ी रोती र ी कक क ाूँ-से-क ाँू मनंै े ककताब माूँगी। न अम्माजँू ी ी ने भोजन ककया, न आनन्द बाबू ने ी। और मेरा तो बार-बार य ी जी चा ता था कक ज र खा लँू। रात को जब अम्मॉजी लेटी तो मंै अपने तनयम के अनुसार उनके पावँू पक्रड़ भलये। मंै पतैं ाने की ओर तो थी ी। अम्माूजँ ी ने जो परै से मुझे ढके ला तो मैं चारपाई के नीचे धगर पड़ी। जमीन पर कई कटोररयाूँ पड़ी ुई थीिं। मैं उन कटोररयों पर धगरी, तो पीठ और कमर में बड़ी चोट आयी। मंै धचकलाना न चा ती थी, मगर न जाने कै से मेरे मँूु से चीख तनकल गयी। आनन्द बाबू अपने कमरे मंे आ गये थे, मेरी चीख सुनकर दौड़े पड़े और अम्माूँजी के द्वार पर आकर बोले—क्या उसे मारे डालती ो, अम्माूँ? अपरािी तो मैं ूँ; उसकी जान क्यों ले र ी ो? य क ते
ुए व कमरे मंे घसु गये और मेरा ाथ पकड़ कर जबरदस्ती खींिच ले गये। मनंै े ब ुत चा ा कक अपना ाथ छु ड़ा लँू, पर आन्नद ने न छोड़ा! वास्वत मंे इस समय उनका म लोगों के बीच में कू द पड़ना मझु े अच्छा न ींि लगता था। व न आ जाते, तो मनंै े रो-िोकर अम्माूँजी को मना भलया ोता। मेरे धगर पड़ने से उनका क्रोि कु छ शान्त ो चला था। आनन्द का आ जाना गजब ो गया। अम्माँूजी कमरे के बा र तनकल आयीिं और मूँु धचढाकर बोली— ाँू, देखो, मर म- पट्टी कर दो, क ीिं कु छ टू ट-फू ट न गया ो ! आनन्द ने ऑगिं न मंे रूककर क ा—क्या तमु चा ती ो कक तमु ककसी को मार डालो और मैं न बोलँू ? ‘ ाँू, मंै तो डायन ूँ, आदभमयों को मार डालना ी तो मेरा काम ै। ताज्जबु ै कक मनंै े तुम् ें क्यों न मार डाला।’ ‘तो पछतावा क्यों ो र ा ै, िेले की संखि खया में तो काम चलता ै।‘ ‘अगर तुम् ंे इस तर औरत को भसर चढाकर रखना ै, तो क ीिं और ले जाकर रखो। इस घर में उसका तनवाय अब न ोगा।’ ‘मंै खदु इसी किक में ूँ, तमु ् ारे क ने की जरूरत न ीि।ं ’ ‘मंै भी समझ लूँगी कक मनैं े लड़का ी न ीिं जना।’ ‘मंै भी समझ लँूगा कक मेरी माता मर गयी।’ मैं आनन्द का ाथ पकड़कर जोर से खीचिं र ी थी कक उन् ंे व ाँू से टा ले जाऊूँ , मगर व बार-बार मेरा ाथ झटक देते थे। आखखर जब अम्माँूजी अपने कमरे मंे चली गयीिं, तो व अपने कमरे में आये और भसर थामकर बठै गये। मनैं े क ा—य तुम् ें क्या सझू ी ?
आनन्द ने भूभम की ओर ताकते ुए क ा—अम्माँू ने आज नोहटस दे हदया। ‘तमु खदु ी उलझ पड़,े व बेचारी तो कु छ बोली न ी।ंि ’ ‘मंै ी उलझ पड़ा !’ ‘और क्या। मनंै े तो तमु से फररयाद न की थी।’ ‘पकड़ न लाता, तो अम्माँू ने तुम् ंे अिमरा कर हदया ोता। तमु उनका क्रोि न ीिं जानती।’ ‘य तुम् ारा भ्रम ै। उन् ोंने मुझे मारा न ींि, अपना पैर छु ड़ा र ी थीि।ं मैं पट्टी पर बैठी थी, जरा-सा िक्का खाकर धगर पड़ीं।ि अम्माँू मुझे उठाने ी जा र ी थीिं कक तुम प ुूँच गये।’ ‘नानी के आगे नतन ाल का बखान न करो, मंै अम्माूँ को खबू जानता ूँ। मैं कल ी दसू रा घर ले लँूगा, य मेरा तनश्चय ै। क ींि-न-क ींि नौकरी भमल ी जायेगी। ये लोग समझते ंै कक मैं इनकी रोहटयों पर पड़ा ुआ ूँ। इसी से य भमजाज ै !’ मंै ल्जतना ी उनको समझती थी, उतना व और बफरते थे। आखखर मनंै े झँूझु लाकर क ा—तो तुम अके ले जाकर दसू रे घर में र ो। मैं न जाऊूँ गी। मुझे य ींि पड़ी र ने दो। आनन्द ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से देखकर क ा—य ी लातें खाना अच्छा लगता ै? ‘ ाँू, मुझे य ी अच्छा लगता ै।’
‘तो तमु खाओ, मंै न ींि खाना चा ता। य ी फायदा क्या थोड़ा ै कक तमु ् ारी ददु यशा ऑखिं ों से न देखूगँ ा, न पीड़ा ोगी।’ ‘अलग र ने लगोगे, तो दतु नया क्या क ेगी।’ ‘इसकी परवा न ीं।ि दतु नयािं अन्िी ै।’ ‘लोग य ी क ेंगे कक स्त्री ने य माया फै लायी ै।‘ ‘इसकी भी परवा न ींि, इस भय से अपना जीवन सिंकट मंे न ींि डालना चा ता।’ मनैं े रोकर क ा—तुम मझु े छोड़ दोगे, तमु ् ें मेरी जरा भी मु ब्बत न ींि ै। ब न, और ककसी समय इस प्रेम-आग्र से भरे ुए शब्दों ने न जाने क्या कर हदया ोता। ऐसे ी आग्र ों पर ररयासतें भमटती ैं, नाते टू टते ंै, रमणी के पास इससे बढकर दसू रा अस्त्र न ींि। मनंै े आनन्द के गले मंे बाँू ें डाल दी थीिं और उनके कन्िे पर भसर रखकर रो र ी थी। मगर इस समय आनन्द बाबू इतने कठोर ो गये थे कक य आग्र भी उन पर कु छ असर न कर सका। ल्जस माता न जन्म हदया, उसके प्रतत इतना रोष ! म अपनी माता की एक कड़ी बात न ीिं स सकत,े इस आतमाभभमान का कोई हठकाना ै। य ी वे आशाऍ ंि ैं, ल्जन पर माता ने अपने जीवन के सारे सखु -ववलास अपणय कर हदये थे, हदन का चैन और रात की नीिंद अपने ऊपर राम कर ली थी ! पतु ्र पर माता का इतना भी अधिकार न ींि ! आनन्द ने उसी अववचभलत कठोरता से क ा—अगर मु ब्बत का य ी अथय ै कक मैं इस घर में तुम् ारी दगु तय त कराऊँू , तो मुझे व मु ब्बत न ींि ै। प्रात:काल व उठकर बा र जाते ुए मुझसे बोले—मंै जाकर घर ठीक ककये आता ूँ। तागूँ ा भी लेता आऊँू गा, तैयार र ना। मनंै े दरवाजा रोककर क ा—क्या अभी तक क्रोि शान्त न ींि ुआ?
‘क्रोि की बात न ींि, के वल दसू रों के भसर से अपना बोझ टा लेने की बात ै।’ ‘य अच्छा काम न ींि कर र े ो। सोचो, माता जी को ककतना द:ु ख ोगा। ससुरजी से भी तुमने कु छ पछू ा ?’ ‘उनसे पूछने की कोई जरूरत न ी।िं कताय-िताय जो कु छ ैं, व अम्माँू ैं। दादाजी भमट्टी के लोंदे ैं।’ ‘घर के स्वामी तो ंै ?‘ ‘तुम् ें चलना ै या न ींि, साफ क ो।’ ‘मैं तो अभी न जाऊँू गी।’ ‘अच्छी बात ै, लात खाओ।’ मैं कु छ न ींि बोली। आनन्द ने एक क्षण के बाद कफर क ा—तमु ् ारे पास कु छ रूपये ो, तो मुझे दो। मेरे पास रूपये थे, मगर मनैं े इनकार कर हदया। मनंै े समझा, शायद इसी असमजंि स मंे पड़कर व रूक जाय।ँू मगर उन् ोंने बात मन में ठान ली थी। खखन्न ोकर बोले—अच्छी बात ै, तमु ् ारे रूपयों के बगैर भी मेरा काम चल जायगा। तमु ् ंे य ववशाल भवन, य सखु -भोग, ये नौकर-चाकर, ये ठाट-बाट मुबारक ों। मेरे साथ क्यों भखू ों मरोगी। व ाूँ य सुख क ाूँ ! मेरे प्रेम का मूकय ी क्या ! य क ते ुए व चले गये। ब न, क्या क ूँ, उस समय अपनी बेबसी पर ककतना द:ु ख ो र ा था। बस, य ी जी में आता था कक यमराज आकर मझु े उठा ले जाय।ंे मझु े कल-कलंकि कनी के कारण माता और पुत्र मंे य वैमनस्य ो र ा था। जाकर अम्माजूँ ी के परै ों पर धगर पड़ी और रो-रोकर आनन्द बाबू के चले जाने का समाचार क ा। मगर माताजी का हृदय जरा भी न पसीजा। मुझे आज
मालूम ुआ कक माता भी इतनी वज्र-हृदया ो सकती ै। कफर आनन्द बाबू का हृदय क्यों न कठोर ो। अपनी माता ी के पतु ्र तो ंै। माताजी ने तनदययता से क ा—तुम उसके साथ क्यों न चली गयी ? जब व क ता था तब चला जाना चाह ए था। कौन जाने, य ाँू मंै ककसी हदन तुम् ें ववष दे दँू।ू मनंै े धगड़धगड़ाकर क ा—अम्माजूँ ी, उन् ें बलु ा भेल्जए, आपके पैरों पड़ती ूँ। न ीिं तो क ीिं चले जायगें े। अम्माँू उसी तनदययता से बोलींि—जाय चा े र े, व मेरा कौन ै। अब तो जो कु छ ो, तमु ो, मझु े कौन धगनता ै। आज जरा-सी बात पर य इतना झकला र ा ै। और मेरी अम्माजँू ी ने मझु े सकै ड़ों ी बार पीटा ोगा। मंै भी छोकरी न थी, तुम् ारी ी उम्र की थी, पर मजाल न थी कक तमु ् ारे दादाजी से ककसी के सामने बोल सकूँ । कच्चा ी खा जातीिं ! मार खाकर रात-भर रोती र ती थी, पर इस तर घर छोड़कर कोई न भागता था। आजकल के लौंडे ी प्रेम करना न ीिं जानते, म भी प्रेम करते थे, पर इस तर न ीिं कक माूँ-बाप, छोटे-बड़े ककसी को कु छ न समझें। य क ती ुई माताजी पजू ा करने चली गयी। मैं अपने कमरे मंे आकर नसीबों को रोने लगी। य ी शंिका ोती थी कक आनन्द ककसी तरफ की रा न लंे। बार- बार जी मसोसता था कक रूपये क्यों न दे हदये। बेचारे इिर-उिर मारे-मारे कफरते ोंगे। अभी ाथ-मूँु भी न ीिं िोया, जलपान भी न ींि ककया। वक्त पर जलपान न करेंगे तो, जुकाम ो जायेगा, और उन् ें जकु ाम ोता ै, तो रारत भी ो जाती ै। म री से क ा—जरा जाकर देख तो बाबजू ी कमरे में ंै? उसने आकर क ा—कमरे मंे तो कोई न ीिं, खटूँ ी पर कपड़े भी न ींि ै।
मनैं े पछू ा—क्या और भी कभी इस तर अम्माजँू ी से रूठे ंै? म री बोली—कभी न ीिं ब ू ऐसा सीिा तो मनैं े लड़का ी न ीिं देखा। मालककन के सामने कभी भसर न ीिं उठाते थ।े आज न-जाने क्यों चले गए। मुझे आशा थी कक दोप र को भोजन के समय व आ जायगँे े। लेककन दोप र कौन क े; शाम भी ो गयी और उनका पतत न ी।िं सारी रात जागती र ी। द्वार की ओर कान लगे ुए थ।े मगर रात भी उसी तर गजु र गयी। ब न, इस प्रकार पूरे तीन बीत गये। उस वक्त तमु मझु े देखतीिं, तो प चान न सकती।ंि रोते-रोते आखँू ंे लाल ो गयी थींि। इन तीन हदनों में एक पल भी न ींि सोयी और भूख का तो ल्जक्र ी क्या, पानी तक न वपया। प्यास ी न लगती थी। मालूम ोता था, दे मंे प्राण ी न ींि ंै। सारे घर मंे मातम-सा छाया ुआ था। अम्माूँजी भोजन करने दोनों वक्त जाती थींि, पर मूँु जठू ा करके चली आती थी। दोनों ननदों की ँूसी और चु र भी गायब ो गयी थी। छोटी ननदजी तो मझु से अपना अपराि क्षमा कराने आयी। चौथे हदन सबेरे रसोइये ने आकर मुझसे क ा—बाबूजी तो अभी मुझे दशाश्वमेि घाट पर भमले थ।े मैं उन् ंे देखते ी लपककर उनके पास आ प ुँूचा और बोला— भयै ा, घर क्यों न ीिं चलते? सब लोग घबड़ाये ुए ंै। ब ूजी ने तीन हदन से पानी तक वपया। उनका ाल ब ुत बुरा ै। य सनु कर व कु छ सोच मंे पड़ गये, कफर बोले—ब ूजी ने क्यों दाना-पानी छोड़ रखा ै? जाकर क देना, ल्जस आराम के भलए उस घर को न छोड़ सकी, उससे क्या इतनी जकद जी-भर गया ! अम्माँजू ी उसी समय आँूगन में आ गयी। म ाराज की बातों की भनक कानों मंे पड़ गयी, बोली—क्या ै अलगू, क्या आनन्द भमला था ? म ाराज— ाूँ, बड़ी ब ू, अभी दशाश्वमेि घाट पर भमले थ।े मनंै े क ा—घर क्यों न ींि चलते, तो बोले—उस घर में मेरा कौन बठै ा ुआ ै?
अम्माँू—क ा न ीिं और कोई अपना न ीिं ै, तो स्त्री तो अपनी ै, उसकी जान क्यों लेते ो? म ाराज—मनंै े ब ुत समझाया बड़ी ब ू, पर व टस-से-मस न ुए। अम्माूँ—करता क्या ै? म ाराज—य तो मनंै े न ीिं पूछा, पर चे रा ब ुत उतरा ुआ था। अम्माूँ—ज्यों-ज्यों तमु बूढे ोते ो, शायद सहठयाते जाते ो। इतना तो पछू ा ोता, क ाँू र ते ो, क ाूँ खाते-पीते ो। तमु ् ंे चाह ए था, उसका ाथ पकड़ लेते और खीिचं कर ले आत।े मगर तमु नकम रामों को अपने लवे-माडिं े से मतलब, चा े कोई मरे या ल्जये। दोनों वक्त बढ-बढकर ाथ मारते ो और मँूछों पर ताव देते ो। तुम् ें इसकी क्या परवा ै कक घर मंे दसू रा कोई खाता ै या न ी।ंि मैं तो परवा न करती, व आये या न आये। मेरा िमय पालना-पोसना था, पाल पोस हदया। अब ज ाँू चा े र े। पर इस ब ू का क्या करूूँ , जो रो-रोकर प्राण हदये डालती ै। तुम् ंे ईश्वर ने आँूखे दी ंै, उसकी ालत देख र े ो। क्या मँूु से इतना भी न फू टा कक ब ू अन्न जल तयाग ककये पड़ी ुई। म ाराज—ब ूजी, नारायण जानते ंै, मनैं े ब ुत तर समझाया, मगर व तो जसै े भागे जाते थ।े कफर मंै क्या करता। अम्माूँ—समझाया न ीिं, अपना भसर। तुम समझाते और व यों ी चला जाता। क्या सारी लच्छे दार बातें मुझी से करने को ै? इस ब ू को मंै क्या क ूँ। मेरे पतत ने मझु से इतनी बेरूखी की ोती, तो मंै उसकी सूरत न देखती। पर, इस पर उसने न-जाने कौन-सा जादू कर हदया ै। ऐसे उदाभसयों को तो कु लटा चाह ए, जो उन् ें ततगनी का नाच नचाये। कोई आि घटिं े बाद क ार ने आकर क ा—बाबजू ी आकर कमरे में बठै े ुए ैं।
मेरा कलेजा िक-िक करने लगा। जी चा ता था कक जाकर पकड़ लाऊूँ , पर अम्माँूजी का हृदय सचमचु वज्र ै। बोली—जाकर क दे, य ाूँ उनका कौन बैठा ुआ ै, जो आकर बठै े ैं ! मनंै े ाथ जोड़कर क ा—अम्माजूँ ी, उन् ें अन्दर बलु ा लील्जए, क ींि कफर न चले जाऍ।ंि अम्माूँ—य ाूँ उनका कौन बठै ा ुआ ै, जो आयेगा। मैं तो अन्दर कदम न रखने दूँगू ी। अम्माँूजी तो बबगड़ र ी थी, उिर छोटी ननदजी जाकर आनन्द बाबू को लायी। सचमचु उनका चे रा उतरा ुआ था, जैसे म ीनों का मरीज ो। ननदजी उन् ंे इस तर खीचंे लाती थी, जसै े कोई लड़की ससुराल जा र ी ो। अम्माँजू ी ने मसु ्काराकर क ा—इसे य ाूँ क्यों लायीिं? य ाँू इसका कौन बैठा ुआ ै? आनन्द भसर झुकाये अपराधियों की भातूँ त खड़े थे। जबान न खुलती थी। अम्माजूँ ी ने कफर पछू ा—चार हदन से क ाँू थे? ‘क ीिं न ी, य ीिं तो था।’ ‘खबू चनै से र े ोगे।’ ‘जी ाूँ, कोई तकलीफ न थी।’ ‘व तो सरू त ी से मालूम ो र ा ै।’ ननदजी जलपान के भलए भमठाई लायीं।ि आनन्द भमठाई खाते इस तर झंेप र े थे मानों ससुराल आये ों, कफर माताजी उन् ंे भलए अपने कमरे मंे चली गयींि। व ाूँ आि घटिं े तक माता और पुत्र मंे बातंे ोती र ी। मैं कान लगाये ुए थी, पर साफ कु छ न सुनायी देता था। ाूँ, ऐसा मालूम ोता था कक कभी माताजी रोती
ैं और कभी आन्नद। माताजी जब पूजा करने तनकलीिं, तो उनकी आूँखें लाल थीिं। आनन्द व ाँू से तनकले, तो सीिे मेरे कमरे मंे आये। मैं उन् ंे आते देख चटपट मँूु ढापूँ कर चारपाई पर र ी, मानो बेखबर सो र ी ूँ। व कमरे मंे आये, मझु े चरपाई पर पड़े देखा, मेरे समीप आकर एक बार िीरे पकु ारा और लौट पड़।े मुझे जगाने की ह म्मत न पड़ी। मुझे जो कष्ट ो र ा था, इसका एकमात्र कारण अपने को समझकर व मन- ी-मन द:ु खी ो र े थ।े मनैं े अनुमान ककया था, व मझु े उठायगें े, मैं मान करूूँ गी, व मनायगें े, मगर सारे मसिं ूबे खाक में भमल गए। उन् ंे लौटते देखकर मुझसे न र ा गया। मैं कबकाकर उठ बठै ी और चारपाई से नीचे उतरने लगी, मगर न-जाने क्यों, मेरे पैर लड़खड़ाये और ऐसा जान पड़ा मंै धगरी जाती ूँ। स सा आनन्द ने पीछे कफर कर मुझे सिंभाल भलया और बोले— लेट जाओ, लेट जाओ, मंै कु रसी पर बैठा जाता ूँ। य तुमने अपनी क्या गतत बना रखी ै? मनंै े अपने को सँूभालकर क ा—मंै तो ब ुत अच्छी तर ूँ। आपने कै से कष्ट ककया? ‘प ले तमु कु छ भोजन कर लो, तो पीछे मंै कु छ बात करूँू गा।’ ‘मेरे भोजन की आपको क्या कफक्र पड़ी ै। आप तो सैर सपाटे कर र े ैं !’ ‘जसै े सरै -सपाटे मनंै े ककये ैं, मेरा हदल जानता ै। मगर बातें पीछे करूूँ गा, अभी मूँु - ाथ िोकर खा लो। चार हदन से पानी तक मूँु में न ीिं डाला। राम ! राम !’ ‘य आपसे ककसने क ा कक मनंै े चार हदन से पानी तक मँूु मंे न ींि डाला। जब आपको मेरी परवा न थी, तो मैं क्यों दाना-पानी छोड़ती?’ ‘व तो सरू त ी क े देती ंै। फू ल से… मुरझा गये।’ ‘जरा अपनी सरू त जाकर आईने में देखखए।’
‘मंै प ले ी कौन बड़ा सनु ्दर था। ठूँ ठ को पानी भमले तो क्या और न भमले तो क्या। मैं न जानता था कक तमु य अनशन-व्रत ले लोगी, न ींि तो ईश्वर जानता ै, अम्माूँ मार-मारकर भगाती,ंि तो भी न जाता।’ मनैं े ततरस्कार की दृल्ष्ट से देखकर क ा—तो क्या सचमचु तुम समझे थे कक मैं य ाूँ के वल आराम के ववचार से र गयी? आनन्द ने जकदी से अपनी भलू सिु री—न ीिं, न ीिं वप्रये, मैं इतना गिा न ीिं ूँ, पर य मंै कदावप न समझता था कक तुम बबलकु ल दाना-पानी छोड़ दोगी। बड़ी कु शल ुई कक मुझे म ाराज भमल गया, न ीिं तो तुम प्राण ी दे देती। अब ऐसी भूल कभी न ोगी। कान पकड़ता ूँ। अम्माँूजी तुम् ारा बखान कर-करके रोती र ी। मनैं े प्रसन्न ोकर क ा—तब तो मेरी तपस्या सफल ो गयी। ‘थोड़ा-सा दिू पी लो, तो बातें ों। जाने ककतनी बातें करनी ै। ‘पी लँूगी, ऐसी क्या जकदी ै।’ ‘जब तक तुम कु छ खा न लोगी, मैं य ी समझूँगा कक तुमने मेरा अपराि क्षमा न ींि ककया।’ ‘मंै भोजन जभी करूँू गी, जब तमु य प्रततञा ा करो कक कफर कभी इस तर रूठकर न जाओगे।’ ‘मंै सच्चे हदल से य प्रततञा ा करता ूँ।’ ब न, तीन हदन कष्ट तो ुआ, पर मझु े उसके भलए जरा भी पछतावा न ींि ै। इन तीन हदनों के अनशन ने हदलों मे जो सफाई कर दी, व ककसी दसू री ववधि
से कदावप न ोती। अब मुझे ववश्वास ै कक मारा जीवन शाितं त से व्यतीत ोगा। अपने समाचार शीघ्र, अतत शीघ्र भलखना। तमु ् ारी चन्दा 13 हदकली 20-2-26 प्यारी ब न, तमु ् ारा पत्र पढकर मुझे तुम् ारे ऊपर दया आयी। तमु मझु े ककतना ी बरु ा क ो, पर मैं अपनी य दगु तय त ककसी तर न स सकती, ककसी तर न ीं।ि मनंै े या तो अपने प्राण ी दे हदये ोते, या कफर उस सास का मूँु न देखती। तमु ् ारा सीिापन, तमु ् ारी स नशीलता, तुम् ारी सास-भल्क्त तुम् ें मबु ारक ो। मंै तो तुरन्त आनन्द के साथ चली जाती और चा े भीख ी क्यों न मागूँ नी पड़ती उस घर मंे कदम न रखती। मझु े तमु ् ारे ऊपर दया ी न ींि आती, क्रोि भी आता ै, इसभलए कक तुममें स्वाभभमान न ींि ै। तमु -जसै ी ल्स्त्रयों ने ी सासों और पुरूषों का भमजाज आसमान चढा हदया ै। ‘ज न्नुम मंे जाय ऐसा घर—ज ाूँ अपनी इज्जत न ीिं।’ मैं पतत-प्रेम भी इन दामों न लँू। तुम् ंे उन्नीसवी सदी में जन्म लेना चाह ए था। उस वक्त तमु ् ारे गणु ों की प्रशंिसा ोती। इस स्वािीनता और नारी-स्वतव के नवयुग में तमु के वल प्राचीन इतत ास ो। य सीता और दमयन्ती का युग न ीं।ि परु ूषों ने ब ुत हदनों तक राज्य ककया। अब स्त्री-जातत का राज्य ोगा। मगर अब तमु ् ें अधिक न कोसूँगी। अब मेरा ाल सुनो। मनैं े सोचा था, पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा दूँगू ी। लेककन कफर ख्याल आया; य समाचार छपते ी भमत्रों का ताँूता लग
जायेगा। कोई भमजाज पछू ने आयेगा। कोई देखने आयेगा। कफर मैं कोई रानी तो ूँ न ींि, ल्जसकी बबमारी का बलु ेहटन रोजाना छापा जाय। न जाने लोगों के हदल मंे कै से-कै से ववचार उतपन्न ों। य सोचकर मनंै े पत्र में छपवाने का ववचार छोड़ हदया। हदन-भर मेरे धचतत की क्या दशा र ी, भलख न ींि सकती। कभी मन मंे आता, ज र खा लूँ, कभी सोचती, क ीिं उड़ जाऊिं । ववनोद के सम्बन्ि में भाँतू त- भाँूतत की शिंकाऍ ंि ोने लगीि।ं अब मुझे ऐसी ककतनी ी बातंे याद आने लगीिं, जब मनैं े ववनोद के प्रतत उदासीनता का भाव हदखाया था। मंै उनसे सब कु छ लेना चा ती थी; देना कु छ न चा ती थी। मंै चा ती थी कक व आठों प र भ्रमर की भाँूतत मझु पर मूँडराते र ंे, पतिंग की भातँू त मझु े घरे े र ंे। उन् ें ककताबो और पत्रों मंे मग्न बैठे देखकर मझु े झूँझु ला ट ोने लगती थी। मेरा अधिकांशि समय अपने ी बनाव-भसगंि ार मंे कटता था, उनके ववषय में मझु े कोई धचन्ता ी न ोती थी। अब मुझे मालमू ुआ कक सेवा का म तव रूप से क ींि अधिक ै। रूप मन को मगु ्ि कर सकता ै, पर आतमा को आनन्द प ुँूचाने वाली कोई दसू री ी वस्तु ै। इस तर एक फ्ता गजु र गया। मैं प्रात:काल मैके जाने की तयै ाररयाँू कर र ी थी—य घर फाड़े खाता था—कक स सा डाककये ने मझु े एक पत्र लाकर हदया। मेरा हृदय िक-िक करने लगा। मनंै े काूपँ ते ुए ाथों से पत्र भलया, पर भसरनामे पर ववनोद की पररधचत स्तभलवप न थी, भलवप ककसी स्त्री की थी, इसमें सन्दे न था, पर मंै उससे सवथय ा अपररधचत थी। मनैं े तरु न्त पत्र खोला और नीचे की तरफ देखा तो चौंक पड़ी—व कु समु का पत्र था। मनैं े एक ी सासँू में सारा पत्र पढ भलया। भलखा था—‘ब न, ववनोद बाबू तीन हदन य ाँू र कर बम्बई चले गये। शायद ववलायत जाना चा ते ैं। तीन-चार हदन बम्बई र ंेगे। मनंै े ब ुत चा ा तकक उन् ंे हदकली वापस कर दँू,ू पर व ककसी तर न राजी ुए। तुम उन् ें नीचे भलखे पते से तार दे दो। मनैं े उनसे य पता पछू भलया था। उन् ोंने मुझे ताकीद कर दी थी कक इस पते को गपु ्त रखना, लेककन तुमसे क्या परदा। तुम तुरन्त तार दे दो, शायद रूक जाय।ॅ व बात क्या ुई ! मझु से ववनोद ने तो ब ुत पूछने पर भी न ींि बताया, पर व द:ु खी ब ुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना
न बना सकी, इसका मुझे आश्चयय ै; पर मझु े इसकी प ले ी शंिका थी। रूप और गवय में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ि ै। गवय रूप का प्रकाश ै।’… मनंै े पत्र रख हदया और उसी वक्त ववनोद के नाम तार भेज हदया कक ब ुत बीमार ूँ, तरु न्त आओ। मझु े आशा थी कक ववनोद तार द्वारा जवाब दंेगे, लेककन सारा हदन गजु र गया और कोई जवाब न आया। बूँगले के सामने से कोई साइककल तनकलती, तो मंै तरु न्त उसकी ओर ताकने लगती थीिं कक शायद तार का चपरासी ो। रात को भी मंै तार का इन्तजार करती र ी। तब मनंै े अपने मन को इस ववचार से शांति ककया कक ववनोद आ र े ंै, इसभलए तार भेजने की जरूरत न समझी। अब मेरे मन में कफर शकाएूँ उठने लगी। ववनोद कु सुम के पास क्यों गये, क ीिं कु सुम से उन् ें प्रेम तो न ीिं ैं? क ीिं उसी प्रेम के कारण तो व मुझसे ववरक्त न ींि ो गये? कु सुम कोई कौशल तो न ीिं कर र ी ैं? उसे ववनोद को अपने घर ठ राने का अधिकार ी क्या था? इस ववचार से मेरा मन ब ुत क्षबु ्ि ो उठा। कु समु पर क्रोि आने लगा। अवश्य दोनों में ब ुत हदनों से पत्र-व्यव ार ोता र ा ोगा। मनंै े कफर कु सुम का पत्र पढा और अबकी उसके प्रतयेक शब्द मंे मेरे भलए कु छ सोचने की सामग्री रखी ुई थी। तनश्चय ककया कक कु सुम को एक पत्र भलखकर खूब कोसूँ। आिा पत्र भलख भी डाला, पर उसे फाड़ डाला। उसी वक्त ववनोद को एक पत्र भलखा। तमु से कभी भेंट ोगी, तो व पत्र हदखलाऊँू गी; जो कु छ मूँु में आया बक डाला। लेककन इस पत्र की भी व ी दशा ुई जो कु सुम के पत्र की ुई थी। भलखने के बाद मालूम ुआ कक व ककसी ववक्षप्त हृदय की बकवाद ै। मेरे मन में य ी बात बैठती जाती थी व कु समु के पास ैं। व ी छभलनी उन पर अपना जादू चला र ी ै। य हदन भी बीत गया। डाककया कई बार आया, पर मनंै े उसकी ओर ऑखंि भी न ीिं उठायी। चन्दा, मंै न ीिं क सकती, मेरा हृदय ककतना ततलतभमला र ा था। अगर कु समु इस समय मुझे भमल जाती, तो मंै न-जाने क्या कर डालती।
रात को लेटे-लेटे ख्याल आया, क ींि व यरू ोप न चले गये ों। जी बैचने ो उठा। भसर मंे ऐसा चक्कर आने लगा, मानों पानी में डू बी जाती ूँ। अगर व यूरोप चले गये, तो कफर कोई आशा न ींि—मंै उसी वक्त उठी और घड़ी पर नजर डाली। दो बजे थ।े नौकर को जगाया और तार-घर जा प ुूँची। बाबूजी कु रसी पर लेटे- लेटे सो र े थ।े बड़ी मलु ्श्कल से उनकी नींिद खुली। मनंै े रसीदी तार हदया। जब बाबजू ी तार दे चुके , तो मनैं े पूछा— इसका जवाब कब तक आयेगा? बाबू ने क ा—य प्रश्न ककसी ज्योततषी से कील्जए। कौन जानता ै, व कब जवाब दंे। तार का चपरासी जबरदस्ती तो उनसे जवाब न ींि भलखा सकता। अगर कोई और कारण न ो, तो आठ-नौ बजे तक जवाब आ जाना चाह ए। घबरा ट मंे आदमी की बवु ्ध पलायन कर जाती ै। ऐसा तनरथकय प्रश्न करके मंै स्वयंि लल्ज्जत ो गयी। बाबूजी ने अपने मन में मझु े ककतना मूखय समझा ोगा; खैर, मैं व ींि एक बेंच पर बठै गयी और तमु ् ंे ववश्वास न आयेगा, नौ बजे तक व ीिं बठै ी र ी। सोचो, ककतने घंिटे ुए? पूरे सात घटिं े। सकै ड़ों आदमी आये और गये, पर मैं व ीिं जमी बठै ी र ी। जब तार का डमी खटकता, मेरे हृदय मंे िड़कन ोने लगती। लेककन इस भय से कक बाबजू ी झकला न उठें , कु छ पछू ने का सा स न करती थीं।ि जब दफ्तर की घड़ी मंे नौ बजे, तो मनैं े डरते-डरते बाबू से पूछा— क्या अभी तक जवाब न ीिं आया। बाबू ने क ा— आप तो य ीिं बैठी ैं, जवाब आता तो क्या मंै खा डालता? मनंै े बे याई करके कफर पूछा—तो क्या अब न आवेगा? बाबू ने मूँु फे रकर क ा— और—दो-चार घटंि े बैठी रह ए। ब न, य वाग्बाण शर के समान हृदय मंे लगा। आखूँ े भर आयी।ंि लेककन कफर मंै व टली न ी।िं अब भी आशा बूँिी ुई थी कक शायद जवाब आता ो। जब दो घिटं े और गजु र गये, तब मंै तनराश ो गयी। ाय ! ववनोद ने मुझे क ींि का न रखा। मैं घर चली, तो ऑखंि ंे से आूँसुओंि की झड़ी लगी ुई थी। रास्ता न सझू ता था।
स सा पीछे से एक मोटर का ानय सनु ायी हदया। मैं रास्ते से ट गयी। उस वक्त मन में आया, इसी मोटर के नीचे लेट जाँऊू और जीवन का अन्त कर दँू।ू मनैं े ऑखंि े पोंछकर मोटर की ओर देखा, भुवन बैठा ुआ था और उसकी बगल में बठै ी थी कु समु ! ऐसा जान पड़ा, अल्ग्न की ज्वाला मेरे परै ों से समाकर भसर से तनकल गयी। मैं उन दोनों की तनगा ों से बचना चा ती थी, लेककन मोटर रूक गयी और कु सुम उतर कर मेरे गले से भलपट गयी। भुवन चपु चाप मोटर मंे बैठा र ा, मानो मुझे जानता ी न ीिं। तनदययी, ितू य ! कु सुम ने पछू ा—मैं तो तुम् ारे पास जाती थी, ब न? व ाँू से कोई खबर आयी? मनैं े बात टालने के भलए क ा—तुम कब आयींि? भुवन के सामने मंै अपनी ववपल्तत-कथा न क ना चा ती थी। कु समु —आओ, कार मंे बठै जाओ। ‘न ींि, मैं चली जाउूँ गी। अवकाश भमले, तो एक बार चली आना।’ कु सुम ने मुझसे आग्र न ककया। कार मंे बैठकर चल दी। मैं खड़ी ताकती र गयी ! य व ी कु समु ै या कोई और? ककतना बड़ा अन्तर ो गया ै? मंै घर चली, तो सोचने लगी—भवु न से इसकी जान-प चान, कै से ुई? क ीिं ऐसा तो न ींि ै कक ववनोद ने इसे मेरी टो लेने को भेजा ो ! भवु न से मेरे ववषय मंे कु छ पछू ने तो न ींि आयी ैं? मैं घर प ुँूचकर बैठी ी थी कक कु सुम आ प ुँूची। अब की व मोटर में अके ली न थी—ववनोद बठै े ुए थ।े मंै उन् े देखकर हठठक गयी ! चाह ए तो य था कक मैं दौड़कर उनका ाथ पकड़ लेती और मोटर से अतार लाती, लेककन मैं जग से ह ली तक न ीं।ि मतू तय की भाँतू त अचल बठै ी र ी। मेरी मातननी प्रकृ तत आपना उद्दण्ड-स्वरूप हदखाने के भलए ववकल ो उठी। एक क्षण में कु सुम ने ववनोद को
उतारा और उनका ाथ पकड़े ुये ले आयी। उस वक्त मनंै े देखा कक ववनोद का मुख बबलकु ल पीला पड़ गया ै और व इतने अशक्त ो गये ंै कक अपने स ारे खड़े भी न ीिं र सकते, मनैं े घबराकर पूछा, क्यों तमु ् ारा य क्या ाल ै? कु सुम ने क ा— ाल पीछे पूछना, जरा इनकी चौपाई चटपट बबछा दो और थोडा- सा दिू मूँगवा लो। मनंै े तरु न्त चारपाई बबछायी और ववनोद को उस पर लेटा हदया। और दिू तो रखा ुआ था। कु समु इस वक्त मेरी स्वाभमनी बनी ुई थी। मैं उसके इशारे पर नाच र ी थी। चन्दा, इस वक्त मझु े ञा ात ुआ कक कु समु पर ववनोद को ल्जतना ववश्वास ै, व मझु पर न ी।िं मैं इस योग्य ूँ ी न ीि।ं मेरा हदल सैकड़ों प्रश्न पूछने के भलए तड़फड़ा र ा था, लेककन कु सुम एक पल के भलए भी ववनोद के पास से ने टलती थी। मैं इतनी मखू य ूँ कक अवसर पाने पर इस दशा मंे भी मंै ववनोद से प्रश्नों का ताँूता बाूँि देती। ववनोद को जब नीदिं आ गयी, मनंै े ऑखंि ो में ऑसंि ू भरकर कु समु से पूछा—ब न, इन् ें क्या भशकायत ै? मनंै े तार भेजा। उसका जवाब न ीिं आया। रात दो बजे एक जरुरी और जवाबी तार भजे ा। दस बजे तक तार-घर बठै ी जवाब की रा देखती र ी। व ीिं से लौट र ी थी, जब तुम रास्ते मंे भमली। य तुम् े क ाँू भमल गये? कु सुम मेरा ाथ पकड़कर दसू रे कमरे में ले गयी और बोली—प ले तुम य बताओिं कक भुवन का क्या मआु मला था? देखो, साफ, क ना। मनंै े आपल्तत करते ुए क ा—कु सुम, तमु य प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर र ी ो। तुम् ंे खुद समझ लेना चाह ए था कक इस बात में कोई सार न ीिं ै ! ववनोद को के वल भ्रम ो गया। ‘बबना ककसी कारण के ?’
‘ ाँू, मेरी समझ में तो कोई कारण न था।’ ‘मंै इसे न ींि मानती। य क्यों न ींि क तींि कक ववनोद को जलाने, धचढाने और जगाने के भलए तुमने य स्वाँगू रचा था।’ कु समु की सूझ पर चककत ोकर मनैं े क ा—व तो के वल हदकलगी थी। ‘तमु ् ारे भलए हदकलगी थी, ववनोद के भलए वज्रपात था। तुमने इतने हदनों उनके साथ र कर भी उन् ें न ीिं समझा ! तमु ् ंे अपने बनाव-सूँवार के आगे उन् ें समझने की क ाूँ फु रसत ? कदाधचत तुम समझती ो कक तुम् ारी य मो नी मूततय ी सब कु छ ै। मैं क ती ूँ, इसका मूकय दो-चार म ीने के भलए ो सकता ै। स्थायी वस्तु कु छ और ी ै।’ मनैं े अपनी भलू स्वीकार करते ुए क ा—ववनोद को मुझसे कु छ पछू ना तो चाह ए था? कु समु ने ँूसकर क ा—य ी तो व न ी कर सकत।े तुमसे ऐसी बात पूछना उनके भलए असम्भव ै। व उन प्राखणयों में ै, जो स्त्री की ऑखिं ंे से धगरकर जीते न ीिं र सकत।े स्त्री या पुरूष ककसी के भलए भी व ककसी प्रकार का िाभमकय या नैततक बन्िन न ीिं रखना चा त।े व प्रतयेक प्राणी के भलए पूणय स्वािीनता के समथकय ैं। मन और इच्छा के भसवा व कोई बििं न स्वीकार न ींि करत।े इस ववषय पर मेरी उनसे खूब बातंे ुई ैं। खैर—मेरा पता उन् ंे मालमू था ी, य ाँू से सीिे मेरे पास प ुूँच।े मंै समझ गई कक आपस में पटी न ींि। मझु े तमु ् ींि पर सन्दे ुआ। मनंै े पछू ा—क्यों? मझु पर तमु ् ें क्यों सन्दे ुआ? ‘इसभलए कक मैं तमु ् े प ले देख चकु ी थी।’
‘अब तो तमु ् ें मझु पर सन्दे न ीि।ं ’ ‘न ींि, मगर इसका कारण तुम् ारा संियम न ीिं, परम्परा ै। मंै इस समय स्पष्ट बातंे कर र ींि ूिं, इसके भलए क्षमा करना।’ ‘न ीिं, ववनोद से तमु ् ें ल्जतना प्रेम ै, उससे अधिक अपने-आपसे ै। कम-से-कम दस हदन प ले य ी बात थी। अन्यथा य नौबत ी क्यों आती? ववनोद य ाँू से सीिे मेरे पास गये और दो-तीन हदन र कर बम्बई चले गये। मनंै े ब ुत पछू ा, पर कु छ बतलाया न ीं।ि व ाूँ उन् ोंने एक हदन ववष खा भलया।’ मेरे चे रे का रंिग उड़ गया। ‘बम्बई प ुूँचते ी उन् ोंने मेरे पास एक खत भलखा था। उसमंे य ाूँ की सारी बातंे भलखी थींि और अन्त में भलखा था—मैं इस जीवन से तगंि आ गया ूँ, अब मेरे भलए मौत के भसवा और कोई उपाय न ीिं ै।’ मनंै े एक ठिं डी साूँस ली। ‘मंै य पत्र पाकर घबरा गयी और उसी वक्त बम्बई रवाना ो गयी। जब व ाूँ प ुँूची, तो ववनोद को मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा न ींि थी। मेरे एक सम्बन्िी व ाँू डाक्टारी करते ंै। उन् ें लाकर हदखाया तो व बोले—इन् ोंने ज र खा भलया ै। तुरन्त दवा दी गयी। तीन हदन तक डाक्टर सा ब न हदन-को-हदन और रात-को-रात न समझा, और मंै तो एक क्षण के भलए ववनोद के पास से न टी। बारे तीसरे हदन इनकी ऑखंि खलु ी। तुम् ारा प ला तार मुझे भमला था, पर उसका जवाब देने की ककसे फु रसत थी? तीन हदन और बम्बई र ना पड़ा। ववनोद इतने कमजोर ो गये थे कक इतना लम्बा सफर करीनाउनके भलए असम्भव था। चौथे हदन मनैं े जब उनसे य ाूँ आने का प्रस्ताव ककया, तो बोले—मैं अब व ाँू न जाऊँू गा। जब मनंै े ब ुत समझाया, तब इस शतय पर राजी ुए ताकक मैं प ले आकर य ाँू की पररल्स्थतत देख जाऊंि ।’
मेरे मूँु से तनकला—‘ ा ! ईश्वर, मंै ऐसी अभाधगनी ूँ।’ ‘अभाधगनी न ीिं ो ब न, के वल तमु ने ववनोद को समझा न था। व चा ते थे कक मंै अके ली जाऊँू , पर मनैं े उन् ंे इस दशा में व ॉ छोड़ना उधचत न समझा। परसों म दोनों व ाूँ चले। य ाूँ प ुूँचकर ववनोद तो वहे टगिं -रूम मंे ठ र गये, मंै पता पूछती ुई भुवन के पास प ुूँची। भवु न को मनैं े इतना फटकारा कक व रो पड़ा। उसने मझु से य ाँू तक क डाला कक तुमने उसे बरु ी तर दतु कार हदया ै। आखँू ों का बरु ा आदमी ै, पर हदल का बरु ा न ीिं। उिर से जब मुझे सन्तोष ो गया और रास्ते मंे तमु से भंेट ो जाने पर र ा-स ा भ्रम भी दरू ो गया, तो मैं ववनोद को तुम् ारे पास लायी। अब तमु ् ारी वस्तु तुम् ंे सौपतींि ूँ। मझु े आशा ै, इस दघु टय ना ने तमु ् ें इतना सचते कर हदया ोगा कक कफर नौबत न आयेगी। आतमसमपणय करना सीखो। भलू जाओ कक तमु सुन्दरी ो, आनन्दमय जीवन का य ी मूल मतंि ्र ै। मंै डींिग न ींि मारती, लेककन चा ूँ तो आज ववनोद को तुमसे छीन सकती ूँ। लेककन रूप में मंै तमु ् ारे तलुओिं के बराबर भी न ीिं। रूप के साथ अगर तमु सेवा-भाव िारण कर सको, तो तुम अजये ो जाओगी।’ मैं कु सुम के परै ों पर धगर पड़ी और रोती ुई बोली—ब न, तुमने मेरे साथ जो उपकार ककया ै, उसके भलए मरते दम तक तमु ् ारी ऋणी र ूँगी। तुमने न स ायता की ोती, तो आज न-जाने क्या गतत ोती। ब न, कु सुम कल चली जायगी। मझु े तो अब व देवी-सी दीखती ै। जी चा ता ै, उसके चरण िो-िोकर पीऊूँ । उसके ाथों मुझे ववनोद ी न ींि भमले ैं, सेवा का सच्चा आदशय और स्त्री का सच्चा कततवय ्य-ञा ान भी भमला ै। आज से मेरे जीवन का नवयगु आरम्भ ोता ै, ल्जसमंे भोग और ववलास की न ीिं, सहृदयता और आतमीयता की प्रिानता ोगी। तमु ् ारी, पद्मा
माँूगे की घड़ी मेरी समझ में आज तक य बात न आई कक लोग ससुराल जाते ंै, तो इतना ठाट-बाट क्यों बनाते ैं, आखखर इसका उद्दशे ्य क्या ोता ैं? म अगर लखपतत ैं तो क्या, और रोहटयों को मु ताज ंै तो क्या, वववा तो ो ी चुका, अब ठाट का मारे ऊपर क्या असर पड़ सकता ंै। वववा के प ले उससे कु छ काम तनकल सकता ैं, मारी सम्पन्नता बातचीत पक्की करने में ब ुत-कु छ स ायक ो सकती ैं लेककन तब वववा ो गया, देवीजी मारे घर का सारा र स्य जान गई और तनःसन्दे अपने माता-वपता से रो-रोकर अपने दभु ायग्य की कथा भी क सनु ाई, तो मारा य ठाट ातन के भसवा लाभ न ीिं प ुँूचा सकता। फटे ालों देखकर, सम्भव ंै, मारी सासजी को कु छ दया आ जाती और ववदाई के ब ाने कोई माकू ल रकम मारे ाथ लग जाती। य ठाट देखकर तो व अवश्य ी समझेंगी कक इसका भसतारा चमक उठा ै, जरूर क ीिं-न-क ीिं से माल मार लाया ैं। उिर नाई और क ार इनाम के भलए बड़े-बड़े मूँु फै लाऐिंगे, व अलग। देवीजी को भी भ्रम ो सकता ैं, मगर य सब जानते और समझते ुए मनंै े परसाल ोभलयों में ससुराल जाने के भलए बड़ी-बड़ी तयै ाररयाूँ की। रेश्मी अचकन ल्जन्दगी मंे कभी न प नी थी, फ्लकै ्स के बूटों का भी स्वप्न देखा करता था। अगर नकद रुपए देने का प्रश्न ोता, तो शायद य स्वप्न ी र ता, पर एक दोस्त की कृ पा से दोनो चीजें उिर भमल गई, चमड़े का सूटके स एक भमत्र से माूँग लाया, दरी फट गई थी, और नई दरी उिार भमल भी सकती थी लेककन बबछावन ले जाने की जरूरत न समझी, अब के वल ररस्ट-वाच की और कमी थी, यों तो दोस्तों मंे ककतनों ी के पास ररस्ट-वाच थी, मेरे भसवा ऐसे अभागे ब ुत कम ोंगे, ल्जनके पास ररस्ट-वाच न ो, लेककन मंै सोने की घड़ी चा ता था और व के वल दानू के पास थी, मगर दानू से मेरी बेतककलुकी न थी,
दानू रूखा आदमी था, मगनी की चीजों का लेना और देना दोनों ी पाप समझता था, ईश्वर ने माना ैं, व इस भस्ध ान्त का पालन कर सकता ंै, मैं कै से कर सकता ूँ, जानता था कक व साफ इिंकार करेगा, पर हदल न माना। खुशामद के बल पर मनैं े अपने जीवन मंे बड़-े बड़े काम कर हदखाए ंै, इसी खुशामद की बदौलत आज म ीने 30 रुपए फटकारता ूँ, एक जार ग्रेजएु टों से कम उम्मीदवार न थे, लेककन सब मँूु ताकते र गए और बन्दा मूँछों पर ताव देता ुआ घर आया, जब इतना बड़ा पाला मार भलया, तो दो-चार हदन के भलए घड़ी मागँू लाना कौन-सा बड़ा मुल्श्कल काम था। शाम को जाने की तैयारी थी, प्रातःकाल दानू के पास प ुूँचा और उनके छोटे बच्चे को, जो बठै क के सामने स न मंे खले र ा था, गोद में उठाकर भींचि -भीचंि कर प्यार करने, दानू ने प ले तो मुझे आते देखकर जरा तयोररयाँू चढाई थी, लेककन मेरा य वातसतय देखकर कु छ नरम पड़े, उनके ोटों के ककनारे जरा फै ल गए कफर बोले - 'खले ने दो दषु ्ट को, तुम् ारा कु रता मैला ुआ जाता ैं, मंै तो इसे कभी छू ता भी न ीि।ं ' मैने कृ भमत्र ततरस्कार का भाव हदखाकर क ा- 'मेरा कु ताय मलै ा ो र ा ैं न, आप इसकी क्यों किक करते ंै। वा , ऐसा फू ल-सा बालक और उसकी य कदर, तुम जसै ों को तो ईश्वर ना क ी सन्तान देता ैं, तमु ् ंे भारी मालमू ोता ैं, तो लाओ मझु े दे दो।' य क कर मनंै े बालक को किं िे पर बठै ा भलया और स न मंे कोई पन्द्र भमनट तक उचकता कफरा, बालक खखलखखलाता था और मुझे दम न लेने देता था। य ाँू तक की दानू ने उसे मेरे कंि िे से उतारकर जमीन पर बैठा हदया और बोले - 'कु छ पान-पतता तो लाया न ींि, उकटे सवारी कर बैठा। जा, अम्मािं से पान बनवा ला।' बालक मचल गया। मनंै े उसे शान्त करने के भलए दानू को कके दो-तीन िप जमाए और उनकी ररस्ट-वाच से ससु ल्ज्जत कलाई पकड़कर बोला - 'ले लो बेटा,
इनकी घड़ी ले लो। य ब ुत मारा करते ै तमु ् ें। आप तो घड़ी लगाकर बठै े ै और मारे मनु ्ने के पास न ीं।ि ' मनैं े चुपके से ररस्ट-वाच खोलकर बालक की बाँू मंे बाँूि दी और तब उसे गोद मंे उठाकर बोला - 'भैया, अपनी घड़ी में दे दो।' सयाने बाप के बेटे भी सयाने ोते ै। बालक ने घड़ी को दसू रे ाथ से तछपा कर क ा - 'तुमको न ीिं दंेगे।' मगर मनंै े अन्त में उसे फु सलाकर घड़ी ले ली और अपनी कलाई पर बाँिू ली। बालक पान लेने चला गया। दानू बाबू अपनी घड़ी के अलौककक गुणों की प्रशिंसा करने लगे। ऐसी सच्ची समय बताने वाली घड़ी आज तक कम-से-कम मनंै े न ीिं देखी। मनैं े अनमु ोदन ककया - ' ै भी तो ल्स्वस।' दानू - 'अजी, ल्स्वस ोने से क्या ोता ै। लाखों ल्स्वस घडड़याँू देख चकु ा ुई, ककसी को सदी, ककसी को जुकाम, ककसी को गहठया, ककसी को लकवा। जब देखखए, तब अस्पताल मंे पड़ी ै। घड़ी की प चान चाह ए और य कोई आसान काम न ीिं। कु छ लोग समझते ै, ब ुत दाम खचय कर देने से अच्छी घड़ी भमल जाती ै। मंै क ता ूँ तमु गिे ो। दाम खचय करने से ईश्वर न ींि भमला करत।े ईश्वर भमलता ै, ञा ान से और घड़ी भमलती ै ञा ान से। फासेट सा ब को तो जानते ोगे। बस, बन्दा ऐसों ी की खोज मंे र ता ै। एक हदन आकर बैठ गया। शराब की चाट थी, जेब मंे रुपए नदारद। मंै 25 रुपए में य घड़ी ले ली। इसकी तीन साल ोते ै और आज तक एक भमनट का फकय न ीिं पड़ा। कोई इसके सौ आँूकता ै, कोई दो सौ, कोई साढे तीन सौ, कोई पौने पाँूच सौ। मगर मैं क ता ूँ, तुम सब गिे ो। एक जार से नीचे ऐसी घड़ी न ीिं भमल सकती। पतथर पर पटक दो, क्या मजाल की बाल भी आए।'
मनैं े क ा - 'तब तो यार एक हदन के भलए मिंगनी दे दो। बा र जाना ै। औरों को भी इसकी करामात सनु ाऊँू गा।' दानू - 'मगिं नी तो तुम जानते ो। मैं कोई चीज न ींि देता। क्यों न ींि देता, इसकी कथा सुनाने बठै ूँ , तो अभलफलैला की दास्तान ो जाए। उसका साराशिं य ै कक मंिगनी में चीज देना भमत्रता की जड़ खोदना, मुरौवत का गला घोंटना और अपने घर में आग लगना ै। आप ब ुत उतसुक मालमू ोते ै, इसभलए दो-एक घटनाएँू सनु ा ू दूँ।ू आपको फु रसत ै न? ाूँ, आज तो दफ्तर बन्द ै।' तो सतु नए - 'एक सा ब लालटेनंे मिंगनी ले गए। लौटाने आए, तो धचमतनयाँू सब टू टी ुई। पछू ा, य आपने क्या ककया?' सो बोले - 'जसै ी गई थी, वसै ी आई। य तो आपने न क ा था कक उनके बदले नई लालटेनें लँूगा।' वा सा ब वा , य अच्छा रोजगार तनकाला। बताइए, क्या करता। एक दसू रे म ाशय कालीन ले गए। बदले मंे एक फटी ुई दरी ले आए। पूछा, तो बोले - 'सा ब, आपको तो य दरी भमल भी गई। मंै ककसके सामने जाकर रोऊँू , मेरी पाचूँ कालीनों का पता न ी।िं कोई सा ब सब समेट ले गए।' 'बताइए, उनसे क्या क ता? तब से मनंै े कान पकड़े कक अब ककसी के साथ य व्यव ार ी न करूँू गा। सारा श र मुझे बेमरु ौवत, मक्खीचसू और जाने क्या-क्या क ता ै। पर मंै परवा न ींि करता लेककन आप बा र जा र े ै और ब ुत-से आदभमयों से आपकी मुलाकात ोगी। सम्भव ैं, कोई इस घड़ी का गा क जाए। इसभलए आपके साथ इतनी सख्ती न करूूँ गा। ाँू, इतना अवश्य क ूँगा कक मैं इसे तनकालना चा ता ूँ और आपसे मुझे स ायता भमलने की पूरी उम्मीद ै। अगर कोई दाम लगाए, तो मझु से आकर कह एगा।'
मंै य ाँू से कलाई पर घड़ी बाँूिकर चला, तो जमीन पर पाूवँ न पड़ते थे। घड़ी भमलने की इतनी खशु ी न थी, ल्जतनी एक मुड्ढ पर ववजय पाने की। कै सा फासूँ ा ै बच्चा को व समझते थे कक मंै ी बड़ा सयाना ूँ। य न ीिं जानते थे य ाँू उनके भी गुरुघिंटाल ै। उसी हदन शाम को मैं ससु राल जा प ुूँचा। अब य गुतथी खुली कक लोग क्यों ससरु ाल जाते वक्त इतना ठाट-बाट करते ै। सारे घर मंे लचल पड़ गई। मझु पर ककसी की तनगा न थी, सभी मेरा साज-सामान देख र े थ।े क ार पानी लेकर दौड़ा, एक साला भमठाई की तश्तरी लाया, दसू रा पान की। नाइन झाँकू कर देख गई औऱ ससरु जी की आँखू ों में तो ऐसा गवय झलक र ा था, मानो सिंसार को उनके तनवाचय न-कौशल पर भसर झुकाना चाह ए। मंै 30 रुपए म ीने का नौकर इस शान से बैठा ुआ था, जसै े बड़े बाबू दफ्तर मे बैठते ै। क ार पंखि ा झल र ा ै, नाइन पावूँ िो र ी थी, एक साला बबठावन बबछा र ा था, दसू रा िोती भलए खड़ा था कक मैं पजामा उतारूूँ । य सब उसी ठाट की करामात थी। रात को देवीजी ने पूछा - 'सब रुपए उड़ा आए कक कु छ बचा भी ै?' मेरा सारा प्रेमोतसा भशधथल पड़ गया। न क्षेम, न कु शल, न प्रेम की कोई बातचीत, बस ाय, रुपए, ाय रुपए। जी में आया कक इसी वक्त उठकर चल दँू,ू लेककन जब्त कर गया। बोला - 'मेरी आमदनी जो कु छ ै, व तो तुम् ंे मालमू ी ै।' 'मंै क्या जानँू, तमु ् ारी क्या आमदनी ै, कमाते ोंगे अपने भलए मेरे भलए क्या करते ो? तुम् ंे तो भगवान ने औरत बनाया ोता, तो अच्छा ोता। रात-हदन कंि घी-चोटी ककया करते, तमु ना क मदय बन।े अपने शौक-भसगिं ार से बचत ी न ींि, दसू रों की किक तमु क्या करोगे?'
मनैं े झिझं लाकर क ा - 'क्या तुम् ारी य ी इच्छा ै कक इसी वक्त चला जाऊँू ?' देवीजी ने भी तयोररयाूँ चढाकर क ा - 'चले क्यों न ींि जाते, मंै तो तमु ् ंे बुलाने न गई थी, या मेरे भलए कोई रोकड़ लाए ो?' मनंै े धचल्न्तत स्वर में क ा - 'तमु ् ारी तनगा मंे प्रेम का कोई मकू य न ीिं, जो कु छ ै, व रोकड़ ी ै?' देवीजी ने तयोररयाूँ चढाए ुए स्वर में क ा - 'प्रेम अपने-आपसे करते ोंगे, मझु से तो न ीिं करत।े ' 'तमु ने प ले तो य भशकायत कभी न थी।' 'इससे य तो तमु को मालूम ो ी गया कक मंै रोकड़ की परवा न ींि करती, लेककन देखती ूँ कक ज्यों-ज्यों तमु ् ारी दशा सुिर र ी ै, तमु ् ारा हृदय भी बदल र ा ै। इससे तो य ी अच्छा था कक तुम् ारी व ी दशा बनी र ती। तुम् ारे साथ उपवास कर सकती ूँ, फटे-चीथड़े प नकर हदन काट सकती ूँ, लेककन य न ीिं ो सकता कक तुम चैन करो और मंै मैके मंे पड़ी भाग्य को रोया करूँू । मेरा प्रेम उतना स नशील न ी ैं।' सालों और नौकरों ने मेरा जो आदर-सम्मान ककया था, उसे देखकर मंै अपने ठाट पर फू ला न समाया था। अब य ाूँ मेरी जो अव ेलना ो र ी थी, उसे देखकर मंै पछता र ा था कक व्यथय ी य स्वािंग भरा। अगर सािारण कपड़े प ने, रोनी सूरत बनाए आता, तो बा र वाले चा े अनादर करते लेककन देवीजी तो प्रसन्न र तींि पर अब भलू ो गई थी। देवीजी की बातों पर मनंै े गौर ककया, तो मझु े उनसे स ानभु तू त ो गई। यहद देवीजी परु ुष ोतीिं और मंै उनकी स्त्री, तो क्या मझु े य ककसी तर भी सह्य ोता कक व तो छै ला बने घमू ंे और मैं वपजिं रे में बन्द दाने और पानी को तरसू।ँ चाह ए य था कक देवीजी से सारा र स्य क सुनाता, पर आतमगौरव ने इसे ककसी तर स्वीकार न ककया। स्वाँगू भरना सवथय ा
अनधु चत था, लेककन पदाय खोलना तो भीषण पाप था। आखखर मनंै े कफर उसी खशु ामद से काम लेने का तनश्चय ककया, ल्जसने इतने कहठन अवसरों पर मेरा साथ हदया था। प्रेम पुलककत कंि ठ से बोला - 'वप्रय, सच क ता ूँ, मेरी दशा अब भी व ी ै लेककन तुम् ारे दशनय ों की इच्छा इतनी बलबती ो गई थी कक उिार कपड़े भलए, य ाँू तक कक अभी भसलाई भी न ींि दी। फटे ाल आते सकिं ोच ोता था कक सबसे प ले तुमको दःु ख ोगा और तमु ् ारे घरवालें भी दखु ी ोंगे। अपनी दशा जो कु छ ै, व तो ै ी, उसकी हढढिं ोरा पीटना तो और भी लज्जा की बात ै।' देवीजी ने शान्त ोकर क ा - 'तो उिार भलया?' 'और नकद क ाँू िरा था?' 'घड़ी भी उिार ली?' ' ाूँ, एक जान-प चान की दकु ान से ले ली।' 'ककतने की ै?' बा र ककसी ने पूछा ोता, तो मनंै े 500 रुपए से कौड़ी कम न बताया ोता, लेककन य ाूँ मनैं े 25 रुपए बताया। 'तब तो सस्ती भमल गई।' 'और न ीिं तो मंै फँू सता ी क्यों?' 'इसे मझु े देते जाना।' ऐसा जान पड़ा मेरे शरीर मंे रक्त ी न ीिं र ा। सारे अवयव तनस्पन्द ो गए। इंिकार करता ूँ, तो न ींि बचता, स्वीकार करता ूँ, तो भी न ीिं बचता। आज
प्रातःकाल य घड़ी मंिगनी पाकर मंै फू ला न समाया था। इस समय य ऐसी मालूम ुई, मानो कौडड़याला (ज रीला सापँू ) किंु डली मारे बैठा ो। बोला -'तुम् ारे भलए कोई अच्छी घड़ी ले लँूगा।' 'जी न ींि, माफ कील्जए, आप ी दसू री घड़ी ले लील्जएगा। मझु े तो य ी अच्छी लगती ै। कलाई पर बाूँिे र ूँगी, जब-जब इस पर आँखू ंे पड़गे ी, तुम् ारी याद आएगी। देखो, तुमने आज तक मुझे फू टी कौड़ी भी कभी न ीिं दी। अब इिंकार करोगे, तो कफर कोई चीज न मागँू ँूगी।' देवीजी ने कोई चीज माूगँ ने से मझु े ककसी ववशषे ातन का भय न ोना चाह ए था, बल्कक उनके इस ववराग का स्वागत करना चाह ए था, पर न जाने क्यों मंै डर गया। कोई ऐसी यलु ्क्त सोचने लगा कक य राजी ो जाए और घड़ी भी न देनी पड़।े कफर बोला - 'घड़ी क्या चीज ै तुम् ारे भलए जान ाल्जर ै। वप्रए लाओ, तमु ् ारी कलाई पर बाूँि दँू,ू लेककन बात य ै कक वक्त का ठीक-ठीक अन्दाज न ोने से कभी-कभी दफ्तर प ुूँचने मंे देर ो जाती ै और व्यथय की फटकार सनु नी पड़ती ै। घड़ी तमु ् ारी ै, ककन्तु जब तक दसू री घड़ी न ले लँू, इसे मेरे पास र ने दो। मंै ब ुत जकद कोई सस्ते दामों की घड़ी अपने भलए ले लूँगा। और तुम् ारी घड़ी तुम् ारे पास भेज दूँगू ा। इसमंे तो तमु ् ंे कोई आपल्तत न ोगी।' देवीजी ने अपनी कलाई पर घड़ी बाूिँ ते ुए क ा - 'राम जाने, तुम बड़े चकमेबाज ो। बातंे बनाकर काम तनकालना चा ते ो। य ाँू ऐसी कच्ची गोभलयाँू न ींि खले ी ै। य ाूँ से जाकर दो-चार हदन में दसू री घड़ी ले लेना। दो-चार हदन जरा सबेरे दफ्तर चले जाना।' अब मझु े और कु छ क ने का सा स न ींि ुआ। कलाई से घड़ी जाते ी हृदय पर धचन्ता का प ाड़-सा बठै गया। ससु राल मंे दो हदन र ा, पर उदास और धचल्न्तत। दानू-बाबू को क्या जवाब दूँगू ा, य प्रश्न ककसी गुप्त वेदना की भाूतँ त धचतत को मसोसता र ा।
घर प ुँूचकर जब मनैं े सजल नेत्र ोकर दानू बाबू से क ा -घड़ी तो क ींि खो गई, तो खदे या स ानभु तू त का एक शब्द भी मँूु से तनकालने के बदले उन् ोंने बड़ी तनदययता से क ा - 'इसीभलए मंै तमु ् ंे घड़ी न देता था। आखखर व ी ुआ, ल्जसकी मुझे शिंका थी। मेरे पास व घड़ी तीन साल र ी, एक हदन ङी इिर-उिर न ुई। तमु ने तीन हदन में वारा-न्यारा कर हदया, आखखर क ाूँ गए थे?' मंै तो डर र ा था कक दानू बाबू न जाने ककतनी घुड़ककयाूँ सुनाएँूगे। उनकी य क्षमाशीलता देखकर मेरी जान-में-जान आई। बोला -'जरा ससुराल चला गया था।' 'तो भाभी को भलवा लाए?' 'जी, भाभी को भलवा लाता, अपना गजु र ोता न ीिं, भाभी को भलवा लाता?' 'आखखर तमु इतना कमाते ो, उसका क्या करते ो?' 'कमाता क्या ूँ, अपना भसर! 30 रुपए म ीने का नौकर ूँ।' 'तो तीसों खचय कर डालते ो?' 'क्या 30 रुपए मेरे भलए ब ुत ै?' 'जब तमु ् ारी कु ल आमदनी 30 रुपया ै, तो य सब अपने ऊपर खचय करने का तुम् ें अधिकार न ीिं ै। बीवी कब तक मैके मंे पड़ी र ेगी।' 'जब तक और तरक्की न ीिं ोती, तब तक मजबरू ी ै, ककस बबरते पर बलु ाऊँू ?' 'और तरक्की दो-चार साल न ो तो?' 'य तो ईश्वर ी ने क ा ै, इिर तो ऐसी आशा न ींि ै।'
'शबाश, तब तो तुम् ारी पीठ ठोकनी चाह ए, और कु छ काम क्यों न ींि करते? सबु को क्या करते ो?' 'सारा वक्त न ाने-िोने, खाने-पीने मंे तनकल जाता ै। कफर दोस्तों से भमलना- जलु ना भी तो ै।' 'तो भाई, तुम् ारा रोग असाध्य ै। ऐसे आदमी के साथ मझु े लेशमात्र भी स ानभु तू त न ींि ो सकती। आपको मालूम ै, मेरी घड़ी 500 रुपए की थी। सारे रुपए आपको देने ोंगे। आप अपने भलए 15 रुपए रखकर बाकी 15 रुपए म ीना मेरे वाले रखते जाइए। तीस म ीने या ढाई साल मंे मेरे रुपए कट जाएगए, तो खूब जी खोलकर दोस्तों से भमभलएगा, समझ गए न? मनैं े 50 रुपए छोड़ हदए ै, इससे अधिक ररयायत न ींि कर सकता।' '15 रुपए में मेरा गुजर कै से ोगा?' 'गजु र तो लोग 5 रुपए मंे भी करते ै और 500 रुपए मंे भी, इसकी न चलाओ, अपनी साम्यय देख लो।' दानू बाबू ने ल्जस तनष्ठु रता से ये बातंे की, उससे मझु े ववश्वास ो गया कक अब इनके सामने रोना-िोना व्यथय ै। य अपनी पूरी रकम भलए बबना न मानेंगे। घड़ी अधिक-से-अधिक 200 रुपए की थी, लेककन इससे क्या ोता ै, उन् ोंने तो प ले ी उसका दाम बता हदया था। अब इस ववषय मंे मीन-मेष ववचारने का मुझे सा स कै से ो सकता था। ककस्मत ठोककर घर आया। य वववा करने का मजा ै। उस वक्त कै से प्रसन्न थे, मानो चारों पदाथय भमले जा र े थे। अब नानी के नाम को रोओ। घड़ी का शौक चरायय ा था। उसका फल भोगो। न घड़ी बाँूिकर जाते तो ऐसी कौन-सी ककरककरी ुई जाती थी। मगर तब तुम ककसकी सनु ते थे। देखंे 15 रुपए मंे कै से गजु र करते ों? 30 रुपए में तो तुम् ारा परू ा ी न पड़ता था, अब 15 रुपए मंे तुम क्या भुना लोगे?
इन् ींि धचन्ताओिं मंे पड़ा-पड़ा सो गया, भोजन करने की भी रुधच न र ी। जरा सुन लील्जए कक 30 रुपए मंे मंै कै से गजु र करता था। 20 रुपए तो ोटल को देता था, 5 रुपए नाश्ते का खचय था, बाकी 5 रुपए मंे पान, भसगरेट, कपड़े, जूते सब कु छ, मैं कौन राजसी ठाट से र ता था। कौन-सी कफजलू खची करता था कक अब खचय मंे कमी करता। मगर दानू बाबू का कजय तो चुकाना ी था। रोकर चकु ाता या ूँसकर। एक बार जी में आया कक सुसरास जाकर घड़ी उठा लाऊँू , लेककन दानू बाबू से क चुका था कक घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर जाऊँू गा तो य मुझे झठू ा और लबाडड़या समझंेगे, मगर क्या मंै य न ींि क सकता कक मनंै े समझा था कक घड़ी खो गई, ससरु ाल गया तो उसका पता चल गया। मेरी बीवी ने उड़ा दी थी। ाूँ, य चाल अच्छी थी लेककन देवीजी से क्या ब ाना करूूँ गा? उसे ककतना दःु ख ोगा, घड़ी पाकर ककतनी खशु ो गई थी, अब जाकर घड़ी छीन लाऊँू , तो शायद कफर मेरी सरू त भी न देख।े ाूँ, य ो सकता था कक दानू बाबू के पास जाकर रोता, मुझे ववश्वास था कक आज क्रोि में उन् ोंने चा े ककतनी ी तनष्ठु रता हदखाई ो लेककन दो-चार हदन के बाद जब उसका क्रोि शान्त ो जाए और मैं जाकर उनके सामने रोने लगँू, तो उन् ें अवश्य दया आ जाएगी। बचपन की भमत्रता हृदय से तनकल न ीिं सकती, लेककन मंै इतना आतमगौरव-शून्य न था और न ो सकता था। मंै दसू रे हदन एक सस्ते ोटल मंे चला गया। य ाँू 12 रुपए मंे ी प्रबन्ि ो गया। सुब को दिू और चाय से नाश्ता करता था, अब छटांिक-भर चनों पर बसर ोने लगी। 12 रुपए तो यों बचंे। पान-भसगरेट आहद मद मंे 3 रुपए और कम ककए और म ीने में साफ 15 रुपए बचा भलए। य ववकट समस्या थी, इल्न्द्रयों का तनदयय दमन ी न ींि, पूरा संिन्यास था। पर जब मनंै े ये 15 रुपए ले जाकर दानू बाबू के ाथ मंे रक्खे, तो ऐसा जान पड़ा, मानो मेरा मस्तक ऊूँ चा ो गया। ऐसे गौरव-पणू य आनन्द का अनभु व मझु े जीवन मंे कभी न ुआ।
दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर मंे क ा -'बचाए या ककसी से माूँग लाए?' 'बचाया ै भई, माूगँ ता ककससे?' 'कोई तकलीफ तो न ीिं ुई?' 'कु छ न ीं,ि अगर कु छ तकलीफ ुई भी, तो इस वक्त भलू गया।' 'सबु को तो अब भी खाली र ते ो? आमदनी कु छ और बढाने की कफक्र क्यों न ींि करते?' 'चा ता तो ूँ कोई काम भमल जाए, तो कर लूँ पर भमलता ी न ीिं।' य ाूँ से लौटा, तो मुझे अपने हृदय मंे एक नवीन बल, एक ववधचत्र स्फू ततय का अनभु व ो र ा था। अब तक ल्जन इच्छाओंि को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था। जब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था, ल्जस पान की दकु ान को देखकर धचतत अिीर ो जाता था, उसके सामने से मंै भसर उठाए तनकल जाता था, मानो अब मंै उस सत से कु छ ऊूँ चा उठ गया ूँ। भसगरेट, चाय और चाट अब इनमंे से ककसी पर भी धचतत आकवषतय न ोता था। प्रातःकाल भीगे ुए चने, दोनों जनू रोटी और दाल, बस, इसके भसवा मेरे भलए और सभी चीजंे तयाज्य थी। सबसे बड़ी बात तो य थी कक मझु े जीवन से ववशषे रुधच ो गई थी। मैं ल्जन्दगी से बेजार, मौत के मूँु का भशकार बनने का इच्छु क न था। मझु े आभास ोता था कक मैं जीवन मंे कु छ कर सकता ूँ। एक भमत्र ने एक हदन मुझसे पान खाने के भलए बड़ा आग्र ककया, पर मनैं े न खाया। तब व बोले -'तुमने तो यार, पान छोड़कर कमाल कर हदया, मैं अनुमान ी न कर सकता था कक तमु पान छोड़ दोगे। में भी कोई तरकीब बताओ।' मनैं े मुस्कराकर क ा - 'इसकी तरकीब य ी ै कक पान न खाओ।'
'जी तो न ींि मानता।' 'आप ी मान जाएगा।' 'बबना भसगरेट वपए तो मेरा पटे फू लने लगता ै।' 'फू लने दो आप धचपक जाएगा।' 'अच्छा तो लो, आज से मनैं े पान और भसगरेट छोड़ा।' 'तुम क्या छोड़ोगे? तुम न ीिं छोड़ सकत।े ' मनैं े उनको उततले ्जत करने के भलए य शिंका की थी। इसका यथषे ्ठ प्रभाव पड़ा, व दृढता से बोले -'तमु यहद छोड़ सकते ो, तो मैं भी छोड़ सकता ूँ। मैं तमु से ककसी बात मंे कम न ीिं ूँ।' 'अच्छी बात ै, देखूगँ ा।' 'देख लेना।' मनैं े इन् ें आज तक पान या भसगरेट का सेवन करते न ीिं देखा। पाूचँ वे म ीने मंे जब मंै रुपए लेकर दानू बाबू के पास गया, तो सच मानो, व टू टकर मेरे गले से भलपट गए। कफर बोले-' ो यार, तुम िनु के पक्के , मगर सच क ना मुझे मन में कोसते तो न ीि।ं ' मनैं े ँूसकर क ा - 'अब तो न ींि कोसता, मगर प ले जरूर कोसता था।' 'अब क्यों इतनी कृ पा करने लगे?'
'इसभलए कक मुझ-जसै ी ल्स्थतत के आदमी तो ल्जस तर र ना चाह ए, व तमु ने भसखा हदया। मेरी आमदनी मंे आिा मेरी स्त्री का ै, पर अब तक मैं उसका ह स्सा भी ड़प कर जाता था। अब मंै इस योग्य ो र ा ूँ कक उसका ह स्सा उसे दे दूँ,ू या स्त्री को अपने साथ रक्खू।ँ तुमने मझु े ब ुत अच्छा पाठ दे हदया।' 'अगर तुम् ारी आमदनी कु छ बढ जाए, तो कफर उसी तर र ने लगोगे?' 'न ीिं, कदावप न ींि, अपनी स्त्री को बुला लँूगा।' 'अच्छा, तो खशु ो जाओ, तुम् ारी तरक्की ो गई ै।' मनैं े अववश्वास के भाव से क ा -'मेरी तरक्की अभी क्या ोगी, अभी मझु से प ले के लोग पड़े नाक रगड़ र े ै।' 'क ता ूँ मान जाओ, मझु से तुम् ारे बड़े बाबू क ते थ।े ' मुझे अब भी ववश्वास न आया, पर मारे कु तू ल के पेट मंे चू ंे दौड़ र े थे। उिर दानू बाबू अपने घर गए, इिर मंै बड़े बाबू के घर प ुूँचा। बड़े बाबू बठै े अपनी बकरी दु र े थे, मझु े देखा, तो झेंपते ुए बोले -'क्या करंे भाई, आज ग्वाला न ींि आया इसभलए य बला गले पड़ी, चलो, बठै ो।' मैं कमरे मंे गया, बाबूजी भी कोई आिा घिटं े के बाद ाथ में गडु गडु ़ी भलए तनकले और इिर-उिर की बातंे करने लगे। आखखर मझु से न र ा गया कफर बोला - 'मनंै े सनु ा ै मेरी कु छ तरक्की ो गई ै।' बड़े बाबू ने प्रसन्नमखु ोकर क ा -' ाूँ भई, ुई तो ै, तुमसे दानू बाबू ने क ा ोगा?' 'जी ाूँ, अभी क ा ै, मगर मेरा नम्बर तो अभी न ींि आया, तरक्की कै से ुई?'
'य न पूछो, अफसरों की तनगा चाह ए, नम्बर-नम्बर कौन देखता ै।' 'लेककन आखखर मझु े ककसकी जग भमली? अभी कोई तरक्की का मौका भी तो न ी।िं ' 'क हदया, भई, अफसर लोग सब कु छ कर सकते ै, सा ब एक दसू री मद से तमु ् ें 15 रुपया म ीना देना चा ते ै, दानू बाबू ने शायद सा ब से क ा-सनु ा ोगा।' 'ककसी दसू रे का क मारकर तो मझु े ये रुपए न ीिं हदए जा र े ै?' 'न ीिं, य बात न ीिं, मैं खुद इसे न मजंि रू करता।' म ीना गुजरा। मुझे 45 रुपए भमले, मगर रल्जस्टर में मेरे नाम के सामने व ी 30 रुपए भलखे थ।े बड़े बाबू ने अके ले में बलु ाकर मझु े रुपए हदए और ताकीद कर दी कक ककसी से क ना मत, न ींि तो दफ्तर मंे बावेला मच जाएगा, सा ब का ुक्म ै कक य बात गपु ्त रखी जाए। मझु े सन्तोष ो गया कक ककसी स कारी का गला घोंटकर मझु े रुपए न ींि हदए गए। खशु -खशु रुपए भलए ुए सीिा दानू बाबू के पास प ुँूचा। व मेरी बाछें खखला देखकर बोले -'मार लाए तरक्की, क्यों?' ' ाँू यार, रुपए तो 15 भमले, लेककन तरक्की न ींि ुई, ककसी और मद से हदए गए ै।' 'तुम् ें रुपए से मतलब ै, चा े ककसी मद से भमलें, तो अब बीवी को लेने जाओगे?' 'न ीिं अभी न ीं।ि '
'तमु ने तो क ा था, आमदनी बढ जाएगी, तो बीवी को लाऊँू गा, अब क्या ो गया?' 'मैं सोचता ूँ, प ले आपके रुपए कटा दूँ,ू अब से 30 रुपए म ीने देता जाऊूँ गा, साल-भर में पूरे रुपए कट जाएँूगे, तब मकु ्त ो जाऊूँ गा।' दानू बाबू की आूँखें सजल ो गई, मुझे आज अनभु व ुआ कक उनकी इस कठोर आकृ तत के नीचे ककतना कोमल हृदय तछपा ुआ था। बोले - 'न ींि, अबकी मझु े कु छ मत दो, रेल का खचय पड़गे ा, व क ाूँ से दोगे? जाकर अपनी स्त्री को ले आओ।' मनंै े दवु विा में पड़कर क ा -'यार, अभी न मजबरू करो, शायद ककश्त न अदा कर सकँू तो?' दानू बाबू ने मेरा ाथ पकड़कर क ा - 'तो कोई रज न ीिं, सच्ची बात य ै कक मंै अपनी घड़ी के दाम पा चुका, मनंै े तो उसके 25 रुपए ी हदए थे, उस पर तीन साल काम ले चुका था, मझु े तुमसे कु छ न लेना चाह ए था, अपनी स्वाथपय रता पर लल्ज्जत ूँ।' मेरी आँखू ंे भी भर आई, जी में तो आई, घड़ी का सारा र स्य क सनु ाऊूँ । लेककन जब्त कर गया, गदगद किं ठ से बोला -'न ींि, दानू बाबू, मझु े रुपए अदा कर लेने दो, आखखर तुम उस घड़ी को चार-पाँूच सौ मंे बेच सकते थे या न ीिं? मेरे कारण इतना नकु सान क्यों ो?' 'भई, अब घड़ी की चचाय न करो, य बताओ कक कब जाओगे?' 'अरे, तो प ले र ने का तो ठीक कर लँू।' 'तमु जाओ, मंै मकान का प्रबन्ि कर रखगूँ ा।'
'मगर मैं 5 रुपए से ज्यादा ककराया न दे सकूँ गा। श र से जरा टकर मकान सस्ता भमल जाएगा।' 'अच्छी बात ै, मंै सब ठीक कर रक्खूगँ ा, ककस गाड़ी से लौटोगे?' 'य अभी क्या मालमू ? बबदाई का मामला ै, साइत बने या न बने या लोग एक- आि हदन रोक ी ले, तमु इस झंझि ट में क्यों पड़ोगे? मैं दो-चार हदन में मकान ठीक करके चला जाऊँू गा।' 'जी न ींि, आप आज जाइए और कल आइए।' 'तो उतरूूँ गा क ाूँ?' 'मंै मकान ठीक कर लूँगा, मेरा आदमी तमु ् ें स्टेशन पर भमलेगा।' मनैं े ब ुत ील- वाले ककए, पर उस भले आदमी ने एक न सुनी, उसी हदन मुझे सुसराल जाना पड़ा। मझु े ससु राल मंे तीन हदन लग गए। चौथे हदन पतनी के साथ चला, जी मंे डर र ा था कक क ींि दानू ने कोई आदमी ने भेजा ो, तो क ाँू उतरूूँ गा, क ाूँ जाऊूँ गा। आज चौथा हदन ै, उन् ें इतनी क्या गरज पड़ी ै कक बार-बार स्टेशन पर अपना आदमी भेजंे। गाड़ी मंे सवार ोते समय इरादा ुआ कक दानू को तार से अपने आने की सचू ना दे दूँ,ू लेककन 11 रुपए का खचय था, इससे ह चक गया। मगर जब गाड़ी बनारस प ुँूची, तो देखता ूँ कक दानू बाबू स्वयिं ैट-कै ट लगाए, दो कु भलयों के साथ खड़े ै। मुझे देखते ी दौड़े और बोले - 'ससु राल की रोहटयाूँ बड़ी प्यारी लग र ी थींि क्या? तीन हदन से रोज दौड़ र ा ूँ, जुमायना देना पड़गे ा।'
देवीजी भसर से पावँू तक चादर ओढे गाड़ी से उतरकर प्लेटफामय पर खड़ी ो गई थी। मंै चा ता था, जकदी से गाड़ी मंे बैठकर य ाूँ से चल दूँ।ू घड़ी उनकी कलाई पर बँूिी ुई थी। मझु े डर लग र ा था कक क ीिं उन् ोंने ाथ बा र तनकाला और दानू की तनगा घड़ी पर पड़ गई, तो बड़ी झंेप ोगी। मगर तकदीर का भलखा कौन टाल सकता ै? मैं देवीजी से दानू बाबू की सज्जनता का खबू बखान कर चकु ा था। अब जो दानू बाबू उसके समीप आकर सिंदकू उठवाने लगे, तो देवीजी ने दोनों ाथों से उन् ंे नमस्कार ककया। दानू ने उनकी कलाई पर घड़ी देख ली। उस वक्त तो क्या बोलत,े लेककन ज्यों ी देवीजी को एक तांगि े पर बबठाकर म दोनों दसू रे तांगि े पर बठै कर चले, दानू ने मसु ्कराकर क ा - 'क्या घड़ी देवीजी ने तछपा दी थी?' मनैं े शमायते ुए क ा -'न ींि यार, मैं ी दे आया था। दे क्या आया था, उन् ोंने मझु से छीन ली थी।' दानू ने ततरस्कार करके क ा - 'तो मझु से झूठ क्यों बोले?' 'कफर क्या करता' 'अगर तमु ने साफ कर हदया ोता, तो शायद मंै इतना कमीना न ींि ूँ कक तमु से उसका तावान वसूल करता। लेककन खैर, ईश्वर का कोई काम मसल त से खाली न ीिं ोता, तुम् ें कु छ हदनों ऐसी तपस्या की जरूरत थी।' 'मकान क ाँू ठीक ककया ै?' 'व ीिं तो चल र ा ूँ।' 'क्या तमु ् ारे घर के पास ी ै? तब तो बड़ा मजा र ेगा।' ' ाूँ, मेरे घर से भमला ुआ ै मगर ब ुत सस्ता।'
दानू बाबू के द्वार पर दोनों तािगं े रुके । आदभमयों ने दौड़कर असबाब उतारना शुरू ककया। एक क्षण में दानू बाबू की देवीजी घर से तनकलकर तांगि े के पास आई और पतनी जी को साथ ले गई, मालमू ोता था, य सारी बातें प ले ी से सिी-बिी थी।िं मनंै े क ा -'तो य क ो कक म तुम् ारे बबन बुलाए मे मान ै।' 'अब तमु अपनी मजी का कोई मकान ढूँढ लेना, दस-पाचँू हदन तो य ाँू र ो।' लेककन मुझे य जबरदस्ती की मे मानी अच्छी न लगी। मनंै े तीसरे हदन एक मकान तलाश कर भलया। बबदा ोते समय दानू ने 100 रुपए लाकर मेरे सामने रख हदए और क ा - 'य तुम् ारी अमानत ै, लेते जाओ।' मनैं े ववस्मय से क ा -'मेरी अमानत कै सी?' दानू ने क ा - '15 रुपए के ह साब से 6 म ीने के 90 रुपए ुए और 10 रुपए सूद।' मझु े दानू की य सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला -'तो तुम घड़ी ले लेना चा ते ो?' 'कफर घड़ी का ल्जक्र ककया तुमने, उसका नाम मत लो।' 'तमु मझु े चारों ओर से दबाना चा ते ो।' ' ाूँ, दबाना चा ता ूँ, तुम् ंे आदमी बना देना चा ता ूँ, न ींि तो उम्रभर तमु य ाूँ ोटल की रोहटयाूँ तोड़ते और देवीजी व ाँू बठै ी तमु ् ारे नाम को रोती, कै सी भशक्षा दी ै, इसका अ सान तो न मानोगे?' 'यों क ो, तो आप मेरे गुरू बने ुए थे?'
'जी ाँू, ऐसे गुरू की तुम् ंे जरूरत थी।' मुझे वववश ोकर घड़ी का ल्जक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला -'तो भई, घड़ी...।' 'कफर घड़ी का नाम भलया।' 'कफर तुमने घड़ी का नाम भलया।' 'तमु खुद मझु े मजबरू कर र े ो।' 'य मेरी ओर से भाभीजी को उप ार ै।' 'और ये 100 रुपए मझु े उप ार भमले ै।' 'जी ाूँ, य इम्त ान में पास ोने का ईनाम ै।' 'तब तो डबल उप ार भमला।' 'तुम् ारी तकदीर ी अच्छी ै, क्या करूँू ?' मंै रुपए तो न लेता, पर दानू ने मेरी जेब में डाल हदए, लेने पड़।े इन् ें मनंै े सेववगिं बकै मंे जमा कर हदया। 10 रुपए म ीने पर मकान भलया था, 30 रुपए खचय करता था, 5 रुपए बचने लगे। अब मझु े मालमू ुआ कक दानू बाबू ने मझु से 6 म ीने तक य तपस्या न कराई ोती, तो सचमचु मैं न-जाने ककतने हदनों तक देवीजी को मैके में पड़ा र ने देता। उसी तपस्या की बरकत थी कक आराम से ल्जन्दगी कट र ी थी। ऊपर से कु छ-न-कु छ जमा ोता जाता था, मगर घड़ी का ककस्सा मनंै े आज तक देवीजी से न ींि क ा। पाूँचवे म ीने मंे मेरी तरक्की का नम्बर आया। तरक्की का परवाना भमला। मंै सोच र ा था कक देखू,ँ अबकी दसू री मद वाले 15 रुपए भमलते ै या न ी। प ली तारीख को वेतन भमला, व ी 45 रुपए। मैं एक क्षण के भलए खड़ा र ा कक शायद बड़े बाबू दसू री मद वाले
रुपए भी दें। जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गए, तो बड़े बाबू बोले -'क्या अभी लालच घेरे ुए ै? अब और कु छ न भमलेगा।' मैने लल्ज्जत ोकर क ा - 'जीिं न ीिं, इस ख्याल से न ींि खड़ा ूँ। सा ब ने इतने हदनों तक परवररश की, य क्या थोड़ा ै, मगर कम-से-कम इतना तो बता दील्जए कक ककस मद से व रुपया हदया जाता था?' बड़े बाबू - 'पुछकर क्या करोंगे?' 'कु छ न ीिं, यों ी जानने को जी चा ता ै?' 'जाकर दानू बाबू से पूछो।' 'दफ्तर का ाल दानू बाबू क्या जान सकते ै?' 'न ीिं, व ाल व ी जानते ै।' मनैं े बा र आकर एक तागिं ा भलया और दानू बाबू के पास प ुँूचा, और परू े दस म ीने के बाद मनैं े तागिं ा ककराए पर ककया था। इस र स्य को जानने के भलए मेरा दम घुट र ा था। हदल में तय कर भलया था कक अगर बच्चा ने य षड्यंति ्र रचा ोगा, तो बुरी तर खबर लँूगा। व अपने बगीचे मंे ट ल र े थे। मुझे देखा तो घबराकर बोले - 'कु शल तो ै, क ाूँ से भागे आते ो?' मनैं े कृ भमत्र क्रोि हदखाकर क ा -'मेरे य ाूँ तो कु शल ै, लेककन तमु ् ारी कु शल न ींि।' 'क्यों भई, क्या अपराि ुआ ै?' 'आप बतलाइए कक पाूचँ म ीने तक मुझे जो 15 रुपए वते न के ऊपर से भमलते थसे व क ाूँ से आते थे?'
'तमु ने बड़े बाबू से न ीिं पछू ा? तुम् ारे दफ्तर का ाल मैं क्या जानूँ?' मैं आज दानू से बेतककलुफ ो गया था कफर बोला - 'देखो दानू, मझु से उड़ोगे, तो अच्छा न ोगा, क्यों ना क मेरे ाथों वपटोगे?' 'पीटना चा ो, तो पीट लो भई। सकै ड़ो ी बार पीटा ै, एक बार और स ी। बारजे पर से जो ढके ल हदया था, उसका तनशान बना ुआ ै, य देखो।' 'तमु टाल र े ो और मेरा दम घुट र ा ै, सच बताओ, क्या बात थी?' 'बात-वात कु छ न ीिं थी, मैं जानता था कक ककतनी भी ककफायत करोगे, 30 रुपए में तुम् ारा गुजर ोगा, और न स ी, दोनों वक्त रोहटयाँू तो ो, बस इतनी बात ै, अब इसके भलए जो चा ो दंिड दो।' ***
नाग-पूजा प्रात:काल था। आषढ का प ला दौंगड़ा तनकल गया था। कीट-पतगंि चारों तरफ रंेगते हदखायी देते थ।े ततलोततमा ने वाहटका की ओर देखा तो वकृ ्ष और पौिे ऐसे तनखर गये थे जैसे साबनु से मैने कपड़े तनखर जाते ैं। उन पर एक ववधचत्र आध्याल्तमक शोभा छायी ुई थी मानों योगीवर आनिंद में मग्न पड़े ों। धचडड़यों में असािारण चंिचलता थी। डाल-डाल, पात-पात च कती कफरती थी।ंि ततलोततमा बाग में तनकल आयी। व भी इन् ींि पक्षक्षयों की भॉतँॉ त चंचि ल ो गयी थी। कभी ककसी पौिे की देखती, कभी ककसी फू ल पर पड़ी ुई जल की बूँदो को ह लाकर अपने मँूु पर उनके शीतल छीटंि े डालती। लाज बीरब ूहटयॉ ँॉ रंेग र ी थी। व उन् ंे चुनकर थेली पर रखने लगी। स सा उसे एककाला वृ तकाय सॉपॉँ रेंगता हदखायी-हदया। उसने वपकलाकर क ा—अम्मॉ,ॉँ नागजी जा र े ैं। लाओ थोड़ा-सा दिू उनके भलए कटोरे में रख दंि।ू अम्मॉ ॉँ ने क ा—जाने दो बेटी, वा खाने तनकले ोंगे। ततलोततमा—गभमयय ों में क ॉ ॉँ चले जाते ैं ? हदखायी न ीिं देत।े मॉ—ॉँ क ीिं जाते न ींि बेटी, अपनी बॉबॉँ ी मंे पड़े र ते ैं। ततलोततमा—और क ींि न ीिं जाते ? मॉ—ँॉ बेटी, मारे देवता ै और क ीिं क्यों जायेगंे ? तुम् ारे जन्म के साल से ये बराबर य ी हदखायी देतें ंै। ककसी से न ी बोलत।े बच्चा पास से तनकल जाय, पर जरा भी न ीिं ताकत।े आज तक कोई चहु या भी न ीिं पकड़ी। ततलोततमा—तो खाते क्या ोंगे ?
मॉ—ॉँ बेटी, य लोग वा पर र ते ंै। इसी से इनकी आतमा हदव्य ो जाती ै। अपने पवू जय न्म की बातें इन् ंे याद र ती ंै। आनवे ाली बातों को भी जानते ंै। कोई बड़ा योगी जब अ िंकार करने लगता ै तो उसे दंिडस्वरुप इस योतन मंे जन्म लेना पड़ता ै। जब तक प्रायल्श्चत पूरा न ींि ोता तब तक व इस योतन मंे र ता ै। कोई-कोई तो सौ-सौ, दो-दो सौं वषय तक जीते र ते ंै। ततलोततमा—इसकी पूजा न करो तो क्या करंे। मॉ—ँॉ बेटी, कै सी बच्चों की-सी बातें करती ो। नाराज ो जायूँ तो भसर पर न जाने क्या ववपल्तत आ पड़।े तरे े जन्म के साल प ले-प ल हदखायी हदये थ।े तब से साल में दस-पॉचँॉ बार अवश्य दशनय दे जाते ैं। इनका ऐसा प्रभाव ै कक आज तक ककसी के भसर मंे ददय तक न ीिं ुआ। कई वषय ो गये। ततलोततमा बाभलका से यवु ती ुई। वववा का शुभ अवसर आ प ुँूचा। बारात आयी, वववा ुआ, ततलोततमा के पतत-गृ जाने का मु ूतय आ प ुूँचा। नयी विू का श्रंगिृ ार ो र ा था। भीतर-बा र लचल मची ुई थी, ऐसा जान पड़ता था भगदड़ पड़ी ुई ै। ततलोततमा के ह्रदय में ववयोग द:ु ख की तरंिगे उठ र ी ंै। व एकांित मंे बैठकर रोना चा ती ै। आज माता-वपता, भाईबदिं , सखखयॉ-ँॉ स ेभलयॉ ॉँ सब छू ट जायेगी। कफर मालमू न ींि कब भमलने का सिंयोग ो। न जाने अब कै से आदभमयों से पाला पड़गे ा। न जाने उनका स्वभाव कै सा ोगा। न जाने कै सा बतायव करंेगे। अममाूँ की ऑखंि ें एक क्षण भी न थमंेगी। मंै एक हदन के भलए क ी, चली जाती थी तो वे रो-रोकर व्यधथत ो जाती थी। अब य जीवनपयनय ्त का ववयोग कै से स ेंगी ? उनके भसर मंे ददय ोता था जब तक मंै िीरे-िीरे न मलूँ, उन् ंे ककसी तर कल-चनै ी न पड़ती थी। बाबजू ी को पान
बनाकर कौन देगा ? मैं जब तक उनका भोजन न बनाऊँू , उन् ंे कोई चीज रुचती ी न थी? अब उनका भोजन कौन बानयेगा ? मझु से इनको देखे बबना कै से र ा जायगा? य ॉ ँॉ जरा भसर मंे ददय भी ोता था तो अम्मॉ िं और बाबूजी घबरा जाते थे। तरु ंित बदै - कीम आ जाते थे। व ॉ ॉँ न जाने क्या ाल ोगा। भगवान बंदि घर मंे कै से र ा जायगा ? न जाने व ॉ ँॉ खुली छत ै या न ीिं। ोगी भी तो मुझे कौन सोने देगा ? भीतर घुट-घटु कर मरुूँ गी। जगने में जरा देर ो जायगी तो ताने भमलेंगे। य ॉ ँॉ सुब को कोई जगाता था, तो अम्मॉ ँॉ क ती थींि, सोने दो। कच्ची नींदि जाग जायगी तो भसर में पीड़ा ोने लगेगी। व ॉ ॉँ व्यंगि सनु ने पड़ंेगे, ब ू आलसी ै, हदन भर खाट पर पड़ी र ती ै। वे (पतत) तो ब ुत सुशील मालमू ोते ैं। ॉ,ॉँ कु छ अभभमान अवश्य ंै। क ों उनका स्वाभाव तनठु र ुआ तो............? स सा उनकी माता ने आकर क ा-बेटी, तमु से एक बात क ने की याद न र ी। व ॉ ंि नाग-पजू ा अवश्य करती र ना। घर के और लोग चा े मना करंे; पर तुम इसे अपना कतवय ्य समझना। अभी मेरी ऑखंि ें जरा-जरा झपक गयी थींि। नाग बाबा ने स्वप्न मंे दशनय हदये। ततलोततमा—अम्मॉ,ँॉ मुझे भी उनके दशयन ुए ंै, पर मझु े तो उन् ोंले बड़ा ववकाल रुप हदखाया। बड़ा भयिं िंकर स्वप्न था। मॉ—ँॉ देखना, तमु ् ारे िर में कोई सॉपॉँ न मारने पाये। य मतंि ्र तनतय पास रखना। ततलोततमा अभी कु छ जवाब न देने पायी थी कक अचानक बारात की ओर से रोने के शब्द सनु ायी हदये, एक क्षण मंे ा ाकर मच गया। भयंि कर शोक-घटना ो गयी। वर को सौंप ने काट भलया। व ब ू को बबदा कराने आ र ा था। पालकी में मसनद के नीचे एक काला साूँप तछपा ुआ था। वर ज्यों ी पालकी मंे बठै ा, साूपँ ने काट भलया।
चारों ओर कु राम मच गया। ततलाततमा पर तो मनों वज्रपात ो गया। उसकी मॉ ॉँ भसर पीट-पीट रोने लगी। उसके वपता बाबू जगदीशचंदि ्र मूल्च्छयत ोकर धगर पड़।े ह्रदयरोग से प ले ी से ग्रस्त थ।े झाड़-फँू क करने वाले आये, डाक्टर बुलाये गये, पर ववष घातक था। जरा देर में वर के ोंठ नीले पड़ गये, नख काले ो गये, मछू ाय आने लगी। देखत-े देखते शरीर ठंि डा पड़ गया। इिर उषा की लाभलमा ने प्रकृ तत को अलोककत ककया, उिर हटमहटमाता ुआ दीपक बझु गया। जसै े कोई मनुष्य बोरों से लदी ुई नाव पर बठै ा ुआ मन में झूँझु लाता ै कक य और तजे क्यों न ीिं चलती , क ींि आराम से बठै ने की जग न ीिं, रा इतनी ह ल क्यों र ी ैं, मंै व्यथय ी इसमंे बैठा; पर अकस्मात नाव को भूँवर में पड़ते देख कर उसके मस्तलू से धचपट जाता ै, व ी दशा ततलोततमा की ुई। अभी तक व ववयोगी द:ु ख मंे ी मग्न थी, ससरु ाल के कष्टों और दवु ्यवय स्थाओिं की धचतंि ाओंि मंे पड़ी ुई थी। पर, अब उसे ोश आया की इस नाव के साथ मैं भी डू ब र ी ूँ। एक क्षण प ले व कदाधचत ल्जस पुरुष पर झूँझु ला र ी थी, ल्जसे लटु ेरा और डाकू समझ र ी थी, व अब ककतना प्यारा था। उसके बबना अब जीवन एक दीपक था; बुझा ुआ। एक वकृ ्ष था; फल-फू ल वव ीन। अभी एक क्षण प ले व दसू रों की इष्याय का कारण थी, अब दया और करुणा की। थोड़े ी हदनों में उसे ञा ात ो गया कक मंै पतत-वव ीन ोकर सिसं ार के सब सखु ों से वधंि चत ो गयी। एक वषय बीत गया। जगदीशचदंि ्र पक्के िमावय लम्बी आदमी थे, पर ततलोततमा का वैिव्य उनसे न स ा गया। उन् ोंने ततलोततमा के पनु वववय ा का तनश्चय कर भलया। ूँसनवे ालों ने ताभलयॉ ॉँ बाजायीिं पर जगदीश बाबू ने हृदय से काम भलया। ततलाततमा पर सारा घर जान देता था। उसकी इच्छा के ववरु्ध कोई बात न ोने पाती य ॉ ँॉ तक कक व घर की मालककन बना दी गई थी। सभी ध्यान रखते कक
उसकी रंिज ताजा न ोने पाये। लेककन उसके चे रे पर उदासी छायी र ती थी, ल्जसे देख कर लोगों को द:ु ख ोता था। प ले तो मॉ ँॉ भी इस सामाल्जक अतयाचार पर स मत न ुई; लेककन बबरादरीवालों का ववरोि ज्यों-ज्यों बढता गया उसका ववरोि ढीला पड़ता गया। भस्ध ािंत रुप से तो प्राय: ककसी को आपल्तत न थी ककन्तु उसे व्यव ार मंे लाने का सा स ककसी में न था। कई म ीनों के लगातार प्रयास के बाद एक कु लीन भस्ध ांितवादी, सुभशक्षक्षत वर भमला। उसके घरवाले भी राजी ो गये। ततलोततमा को समाज मंे अपना नाम बबकते देख कर द:ु ख ोता था। व मन में कु ढती थी कक वपताजी ना क मेरे भलए समाज मंे नक्कू बन र े ैं। अगर मेरे भाग्य में सु ाग भलखा ोता तो य वज्र ी क्यों धगरता। तो उसे कभी-कभी ऐसी शंिका ोती थी कक मैं कफर वविवा ो जाऊूँ गी। जब वववा तनल्श्चत ो गया और वर की तस्वीर उसके सामने आयी तो उसकी ऑखंि ों में ऑसंि ू भर आये। चे रे से ककतनी सज्जनता, ककतनी दृढता, ककतनी ववचारशीलता टपकती थी। व धचत्र को भलए ुए माता के पास गयी और शमय से भसर झुकाकर बोली-अम्मॉ,िं मँूु मुझे तो न खोलना चाह ए, पर अवस्था ऐसी आ पड़ी ै कक बबना मूँु खोले र ा न ीिं जाता। आप बाबूजी को मना कर दें। मंै ल्जस दशा में ूँ संितुष्ट ूँ। मझु े ऐसा भय ो र ा ै कक अबकी कफर व ी शोक घटना............. मॉ ॉँ ने स मी ुई ऑखिं ों से देख कर क ा—बेटी कै सी अशगनु की बात मँूु से तनकाल र ी ो। तुम् ारे मन मंे भय समा गया ै, इसी से य भ्रम ोता ै। जो ोनी थी, व ो चुकी। अब क्या ईश्वर क्या तुम् ारे पीछे पड़े ी र ेंगे ? ततलोततमा— ॉ,ॉँ मझु े तो ऐसा मालमू ोता ै ? मॉ—ॉँ क्यों, तमु ् ंे ऐसी शंिका क्यों ोती ै ? ततलोततमा—न जाने क्यो ? कोई मेरे मन मे बठै ा ुआ क र ा ै कक कफर अतनष्ट ोगा। मैं प्रया: तनतय डरावने स्वप्न देखा करती ूँ। रात को मुझे ऐसा जान पड़ता ै कक कोई प्राणी ल्जसकी सूरत सॉपॉँ से ब ुत भमलती-जुलती ै मेरी
चारपाई के चारों ओर घूमता ै। मंै भय के मारे चुप्पी साि लेती ूँ। ककसी से कु छ क ती न ीि।ं मॉ ँॉ ने समझा य सब भ्रम ै। वववा की ततधथ तनयत ो गयी। य के वल ततलोततमा का पुनससां ्कार न था, बल्कक समाज-सिु ार का एक कक्रयातमक उदा रण था। समाज-सिु ारकों के दल दरू से वववा सल्म्मभलत ोने के भलए आने लगे, वववा वैहदक रीतत से ुआ। मे मानों ने खबू वयाख्यान हदये। पत्रों ने खबू आलोचनाऍ ंि कीि।ं बाबू जगदीशचदंि ्र के नतै तक सा स की सरा ना ोने लगी। तीसरे हदन ब ू के ववदा ोने का मु ूतय था। जनवासे मंे यथासाध्य रक्षा के सभी सािनों से काम भलया गया था। बबजली की रोशनी से सारा जनवास हदन-सा ो गया था। भूभम पर रंेगती ुई चीटिं ी भी हदखाई देती थी। के शों में न क ींि भशकन थी, न भसलवट और न झोल। शाभमयाने के चारों तरफ कनातंे खड़ी कर दी गयी थी। ककसी तरफ से कीड़ो-मकोड़ों के आने की संमि ्भावना न थी; पर भावी प्रबल ोती ै। प्रात:काल के चार बजे थे। तारागणों की बारात ववदा ो र ी थी। ब ू की ववदाई की तैयारी ो र ी थी। एक तरफ श नाइयॉ ॉँ बज र ी थी। दसू री तरफ ववलाप की आततधय ्वतन उठ र ी थी। पर ततलोततमा की ऑखंि ों मंे ऑसिं ू न थे, समय नाजकु था। व ककसी तर घर से बा र तनकल जाना चा ती थी। उसके भसर पर तलवार लटक र ी थी। रोने और स ेभलयों से गले भमलने में कोई आनंिद न था। ल्जस प्राणी का फोड़ा धचलक र ा ो उसे जराय का घर बाग मंे सैर करने से ज्यादा अच्छा लगे, तो क्या आश्चयय ै। वर को लोगों ने जगया। बाजा बजने लगा। व पालकी में बठै ने को चला कक विू को ववदा करा लाये। पर जूते मंे परै डाला ी था कक चीख मार कर पैर खीिचं भलया। मालूम ुआ, पॉवँॉ धचनगाररयों पर पड़ गया। देखा तो एक काला साँपू जूते में से तनकलकर रेंगता चला जाता था। देखत-े देखते गायब ो गया। वर ने एक सदय आ भरी और बठै गया। ऑखंि ों मंे अंििरे ा छा गया।
एक क्षण में सारे जनवासे मंे खबर फै ली गयी, लोग दौड़ पड़।े औषधियॉ ँॉ प ले ी रख ली गयी थी।ंि सॉपँॉ का मतंि ्र जाननेवाले कई आदमी बलु ा भलये गये थे। सभी ने दवाइयॉ ॉँ दी।िं झाड़-फँू क शुरु ुई। औषधियॉ ँॉ भी दी गयी, पर काल के समान ककसी का वश न चला। शायद मौत सॉपॉँ का वेश िर कर आयी थी। ततलोततमा ने सनु ा तो भसर पीट भलया। व ववकल ोकर जनवासे की तरफ दौड़ी। चादर ओढने की भी सधु ि न र ी। व अपने पतत के चरणों को माथे से लगाकर अपना जन्म सफल करना चा ती थी। घर की ल्स्त्रयों ने रोका। माता भी रो- रोकर समझाने लगी। लेककन बाबू जगदीशचन्द्र ने क ा-कोई रज न ीिं, जाने दो। पतत का दशयन तो कर ले। य अभभलाषा क्यों र जाय। उसी शोकाल्न्वत दशा मंे ततलोततमा जनवासे में प ुँूची, पर व ॉ ँॉ उसकी तस्कीन के भलए मरनवे ाले की उकटी सॉसॉँ ंे थी। उन अिखलु े नेत्रों में असह्य आतमवदे ना और दारुण नैराश्य। इस अद्भतु घटना का सामाचार दरू -दरू तक फै ल गया। जड़वादोगण चककत थे, य क्या माजरा ै। आतमवाद के भक्त ञा ातभाव से भसर ह लाते थे मानों वे धचत्रकालदशी ंै। जगदीशचन्द्र ने नसीब ठोंक भलया। तनश्चय ो गया कक कन्या के भाग्य में वविवा र ना ी भलखा ै। नाग की पूजा साल मंे दो बार ोने लगी। ततलोततमा के चररत्र में भी एक ववशषे अंितर दीखने लगा। भोग और वव ार के हदन भल्क्त और देवारािना मंे कटने लगे। तनराश प्राखणयों का य ी अवलम्ब ै। तीन साल बीत थे कक ढाका ववश्वववद्यालय के अध्यापक ने इस ककस्से को कफर ताजा ककया। वे पशु-शास्त्र के ञा ाता थे। उन् ोंने साँपू ों के आचार-व्यव ार का ववशेष रीतत से अध्ययन ककया। वे इस र स्य को खोलना चा ते थे। जगदीशचंदि ्र को वववा का सदंि ेश भेजा। उन् ोंने टाल-मटोल ककया। दयाराम ने और भी आग्र ककया। भलखा, मनै े वञै ा ातनक अन्वेषण के भलए य तनश्चय ककया ै। मैं इस ववषिर नाग से लड़ना चा ता ूँ। व अगर सौ दॉतँॉ ले कर आये तो भी मझु े कोई ातन न ीिं प ुूँचा सकता, व मझु े काट कर आप ी मर जायेगा। अगर व
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