प्रेमचंदि मानसरोवर भाग 6 ह दंि ीकोश www.hindikosh.in
Manasarovar – Part 6 By Premchand य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि समाप्त ो चकु ी ंै। This work is in the public domain in India because its term of copyright has expired. यूनीकोड ससंि ्करण: सजंि य खत्री. 2012 Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012 आवरण धचत्र: ववककपीडडया (प्रेमचदिं , मानसरोवर झील) Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake). ह दिं ीकोश Hindikosh.in http://www.hindikosh.in
Contents य मेरी मतृ तममू म ै.....................................................................................4 राजा रदौल...............................................................................................12 त्यागी का प्रेम............................................................................................28 रानी सारंििा................................................................................................47 शाप...........................................................................................................70 मयाादा की वेदी.........................................................................................109 मतृ ्यु के पीछे ...........................................................................................130 पाप का अग्ननकिंु ड.....................................................................................144 आभषू ण ...................................................................................................158 जगु नु ू की चमक .......................................................................................183 गृ -दा ....................................................................................................197 िोखा .......................................................................................................221 लाग-डाट ..................................................................................................232 अमावस्या की रात्रत्र ...................................................................................240 चकमा......................................................................................................252 पछतावा ...................................................................................................262 आप-बीती.................................................................................................278 राज्य-भक्त...............................................................................................289 अधिकार-धचतंि ा ..........................................................................................311 दरु ाशा ......................................................................................................317
यह मेरी मतृ िमूमम है आज पूरे 60 वषा के बाद मुझे मातभृ मू म - प्यारी मातभृ ूमम के दशना प्राप्त ु ै। ग्जस समय मैं अपने प्यारे देश से त्रबदा ुआ था और भानय मझु े पग्चम की ओर ले चला था, उस समय मंै पूणा यवु ा था। मेरी नसों मंे नवीन रक्त संचि ामलत ो र ा था। हृदय उमंगि ों और बडी-बडी आशाओंि से भरा ुआ था। मुझे अपने प्यारे भारतवषा से ककसी अत्याचारी के अत्याचार या न्याय के बलवान ाथों से न ींि जुदा ककया था। अत्याचारी के अत्याचार और काननू की कठोरता ँ मुझसे जो चा े सो करा सकती ै, मगर मेरी प्यारी मातभृ मू म मुझसे न ींि छु डा सकती। वे मेरी उच्च अमभलाषाओिं और बडे-बडे ऊँ चे ववचार ी थे, ग्जन् ोंने मुझे देश-तनकाला हदया था। मनंै े अमेररका जा कर व ाँ खबू व्यापार ककया और व्यापार से िन भी खबू पदै ा ककया तथा िन से आनन्द भी खूब मनमाने लटू े। सौभानय से पत्नी भी ीसी ममली, जो सौंदया मंे अपना सानी आप ी थी। उसकी लावण्यता और सुन्दरता की ख्यातत तमाम अमेररका में फैं ली। उसके हृदय में ीसे ववचार की गिंुजाइश भी न थी, ग्जसका सम्बन्ि मुझसे न ो, मंै उस पर तन-मन से आसक्त था और व मेरी सवसा ्व थी। मेरे पाँच पतु ्र थे जो सनु ्दर, हृष्ट-पुष्ट और ममानदार थ।े उन् ोंने व्यापार को और भी चमका हदया था। मेरे भोले-भोले नन् ें-नन् ें पौत्र मेरी गोद मंे बैठे ु थे, जब कक मनंै े प्यारी मातभृ मू म के अग्न्तम दशना करने को अपने परै उठाये। मंै अनन्त िन, वप्रयतमा पत्नी, सपतू बेटे और प्यारे-प्यारे ग्जगर के टु कडे नन् ें-नन् ें बच्चे आहद अमूल्य पदाथा के वल इसीमल पररत्याग कर हदया कक मैं प्यारी भारत-जननी का अग्न्तम दशना कर लँ।ू मंै ब ुत बढू ा ो गया ूँ; दस वषा के बाद पूरे सौ वषा का ो जाऊँ गा। अब मेरे हृदय में के वल क ी अमभलाषा बाकी ै कक मैं अपनी मातभृ ूमम का रजकण बनँ।ू य अमभलाषा कु छ आज ी मेरे मन मंे उत्पन्न न ींि ुम, बग्ल्क उस समय भी थी, जब मेरी प्यारी पत्नी अपनी मिरु बातों और कोमल कटाषों ों से मेरे हृदय
को प्रफु ग्ल्लत ककया करती थी। और जब कक मेरे युवा पतु ्र प्रातःकाल आ कर अपने वदृ ्ध वपता को सभग्क्त प्रणाम करते, उस समय भी मेरे हृदय में क काँटा-सा खटखता र ता था कक मंै अपनी मातभृ ूमम से अलग ूँ। य देश मेरा देश न ीिं ै और मैं इस देश का न ीिं ूँ। मेरे पास िन था, पत्नी थी, लडके थे और जायदाद थी, मगर न मालूम क्यों, मझु े र -र कर मातभृ ूमम के टू टे झोंपडे, चार-छै बीघा मौरूसी जमीन और बालपन के लँगोहटया यारों का याद अक्सर सता जाया करती। प्रायः अपार प्रसन्नता औऱ आनन्दोत्सवों के अवसर पर भी य ववचार हृदय में चटु की मलया करता था कक यहद मैं अपने देश मंे ोता। 2 ग्जस समय मंै बम्बम में ज ाज से उतरा, मनंै े पह ले काले कोट-पतलून प ने टू टी-फू टी अगँ ्रेजी बोलते ु मल्ला देख।े कफर अगँ ्ररेजी दकु ान, ट्राम और मोटरगाडडयाँ दीख पडी। इसके बाद रबरटायरवाली गाडडयों की ओर मँु मंे चरु ट दाबे ु आदममयों से मुठभेड ुम। कफर रेल का ववक्टोररया टममना स स्टेशन देखा। बाद में मैं रेल में सवार ोकर री-भरी प ाडडयों के मध्य मंे ग्स्थत अपने गाँव को चल हदया। उस समय मेरी आखँ ों मंे आँसू भर आये और मंै खूब रोया, क्योंकक य मेरा देश न था। य व देश न था, ग्जसके दशना ों की इच्छा सदा मेरे हृदय मंे ल राया करती थी। य तो कोम और देश था। य अमेररका या इिंगलडंै था; मगर प्यारा भारत न ींि था। रेलगाडी जगिं लों, प ाडो, नहदयों और मदै ानों को पार करती ुम मेरे प्यारे गाँव के तनकट प ुँची, जो ककसी समय में फू ल, पत्तों और फलों की ब ुतायत तथा नदी- नालों की अधिकता से स्वगा की ोड कर र ा था। मंै उस गाडी से उतरा, तो मेरा हृदय बाँसों उछल र ा था- अब अपना प्यारा घर देखगूँ ा - अपने बालपन के
प्यारे साधथयों से ममलँूगा। मंै इस समय त्रबल्कु ल भलू गया था कक मैं 90 वषा का बढू ा ूँ। ज्यों-ज्यों मंै गाँव के तनकट आता था, मेरे पग शीघ्र-शीघ्र उठते थे और हृदय में अकथनीय आनन्द का ्ोत उमड र ा था। प्रत्येक वस्तु पर आँखें फाड-फाड कर दृग्ष्ट डालता। अ ाय य व ी नाला ै, ग्जसमंे म रोज घोडे न लाते थे और स्वयिं भी डू बककयाँ लगाते थे, ककन्तु अब उसके दोनों ओर काँटेदार तार लगे ु थ।े सामने क बँगला था, ग्जसमें दो अँग्रेज बन्दकू ें मलये इिर-उिर ताक र े थ।े नाले मंे न ाने की सख्त मना ी थी। गावँ मंे गया और तनगा ें बालपन के साधथयों को खोजने लगी, ककन्तु शोकय वे सब के सब मतृ ्यु के ग्रास ो चकु े थ।े मेरा घर - मेरा टू टा-फू टा झोंपडा - ग्जसकी गोद में मंै बरसों खेला था, ज ाँ बचपन और बेकफक्री के आनन्द लटू े थे और ग्जनका धचत्र अभी तक मेरी आँखों मंे कफर र ा था, व ी मेरा प्यारा घर अब ममट्टी का ढेर ो गया था। य स्थान गैर-आबाद न था। सैकडों आदमी चलते-चलते दृग्ष्ट आते थे, जो अदालत-कच री और थाना-पमु लस की बातें कर र े थे, उनके मुखों से धचन्ता, तनजीवता और उदासी प्रदमशात ोती थी और वे सब सािसं ाररक धचन्ताओंि से व्यधथत मालूम ोते थ।े मेरे साधथयों के समान हृष्ट-पुष्ट, बलवान, लाल चे रे वाले नवयवु क क ींि न देख पडते थे। उस अखाडे के साथ पर ग्जसकी जड मेरे ाथों ने डाली थी, अब क टू टा-फू टा स्कू ल था। उसमंे दबु ला तथा कातंि त ीन, रोधगयों की-सी सरू तवाले बालक फटे कपडे पह ने बठै े ऊँ घ र े थे। उनको देख कर स सा मेरे मखु से तनकल पडा कक न ींि-न ींि, य मेरा प्यारा देश न ींि ै। य देश देखने मैं इतनी दरू से न ींि आया ूँ - य मेरा प्यारा भारतवषा न ीिं ै। बरगद के पेड की ओर मंै दौडा, ग्जसकी सु ावनी छाया मंे मनंै े बचपन के आनन्द उडाये थे, जो मारे छु टपन का क्रीडास्थल और युवावस्था का सुखप्रद वासस्थान था। आ य इस प्यारे बरगद को देखते ी हृदय पर क बडा आघात प ुँचा और हदल मंे म ान शोक उत्पन्न ुआ। उसे देख कर ीसी-ीसी दःु खदायक
तथा हृदय-ववदारक स्मतृ तयाँ ताजी ो गईं कक घिटं ों पथृ ्वी पर बैठे -बैठे आँसू ब ाता र ा। ायँ य ी बरगद ै, ग्जसकी डालों पर चढकर मंै फु नधगयों तक प ुँचता था, ग्जसकी जटा ँ मारी झलू ा थींि और ग्जसके फल में सारे ससिं ार की ममठाइयों से अधिक स्वाहदष्ट मालमू ोते थ।े मेरे गले में बाँ ंे डाल कर खले नेवाले लँगोहटयाँ यार, जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, क ाँ ग ? ाय, त्रबना घरबार का मसु ाकफर अब क्या अके ला ी ूँ? क्या मेरा कोम भी साथी न ींि? इस बरगद के तनकट अब थाना था और बरगद के नीचे कोम लाल साफा बाँिे बैठा था। उसके आस-पास दस-बीस लाल पगडीवाले करबद्ध खडे थेय व ाँ फटे-परु ाने कपडे प ने, दमु भषा ों ग्रस्त पुरुष, ग्जसपर अभी चाबुकों की बौछार ुम थी, पडा मससक र ा था। मुझे ध्यान आया कक य मेरा प्यारा देश न ींि ै, कोम और देश ै। य योरोप ै, अमेररका ै, मगर मेरी प्यारी मातभृ मू म न ीिं ै - कदावप न ींि ै। 3 इिर से तनराश ो कर मैं उस चौपाल की ओर चला, ज ाँ शाम के वक्त वपता जी गाँव के अन्य बजु ुगों के साथ ुक्का पीते और ँसी-क क े उडाते थ।े म भी उस टाट के त्रबछौने पर कलाबाग्जयाँ खाया करते थे। कभी-कभी व ाँ पंिचायत भी बठै ती थी, ग्जसके सरपचिं सदा वपताजी ी ुआ करते थे। इसी चौपाल के पास क गोशाला थी, ज ाँ गावँ भर की गायंे रखी जाती थी और बछडों के साथ म य ीिं ककलोलंे ककया करते थ।े शोकय कक अब उस चौपाल का पता तक न था। व ाँ अब गाँवों में टीका लगाने की चौकी और डाकखाना था। उस समय इसी चौपाल से लगा क कोल् वाडा था, ज ाँ जाडे के हदनों मंे मख पेरी जाती थी और गडु की सगु न्ि से मग्स्तक पूणा ो जाता था। म और मारे साथी व ाँ गंिडररयों के मल बठै े बैठे र ते और गंिडररयाँ करनवे ाले मजदरू ों के
स्तलाघव को देख कर आचया ककया करते थे। व ाँ जारों बार मनंै े कच्चा रस और पक्का दिू ममला कर वपया था और व ाँ आस-पास के घरों की ग्स्त्रयाँ और बालक अपने-अपने घडे ले कर आते थे और उनमें रस भर कर ले जाते थे। शोक ै कक वे कोल् ू अब तक ज्यों के त्यों खडे ै, ककन्तु कोल् वाडे की जग पर अब क सन लपेटनवे ाली मशीन लगी थी और उसके सामने क तम्बोली और मसगरेटवाले की दकु ान थी। इन हृदय-ववदारक दृयों को देखकर मनैं े दु खत हृदय से, क आदमी से, जो देखने मंे सभ्य मालूम ोता था, पछू ा, 'म ाशय, मैं क परदेशी यात्री ूँ। रात भर लेटे र ने की मुझे आज्ञा दीग्ज गा?' इस पर आदमी ने मझु े मसर से पैर तक ग री दृग्ष्ट से देखा और क ने लगा कक 'आगे जाओ, य ाँ जग न ीिं ै।' मंै आगे गया और व ाँ से भी य ी उत्तर ममला, 'आगे जाओ।' पाँचवींि बार क सज्जन से स्थान माँगने पर उन् ोंने क मटु ्ठी चने मेरे ाथ पर रख हदये। चने मेरे ाथ से छू ट पडे और नेत्रों से अववरल अश्रु-िारा ब ने लगी। मखु से स सा तनकल पडा कक ' ायय य मेरा देश न ीिं ै, य कोम और देश ै। य मारा अततधथ-सत्कारी प्यारा भारत न ींि ै - कदावप न ीिं ै।' मनैं े क मसगरेट की डडत्रबयाँ खरीदी और क सुनसान जग पर बैठकर मसगरेट पीते ु पूवा समय की याद करने लगा कक अचानक मझु े िमशा ाला का स्मरण ो आया, जो मेरे ववदेश जाते समय बन र ी थी; मैं उस ओर लपका कक रात ककसी प्रकार व ींि काट लँ,ू मगर शोकय शोकयय म ान शोकययय िमशा ाला ज्यों की ज्यों खडी थी, ककन्तु उसमंे गरीब यात्रत्रयों के हटकने का स्थान न था। महदरा, दरु ाचार और द्यूत ने उसे अपना घर बना रखा था। य दशा देखकर वववशतः मेरे हृदय से क सदा आ तनकल पडी और मैं जोर से धचल्ला उठा कक न ींि, न ींि, न ींि और जार बार न ींि ै - य मेरा प्यारा भारत न ीिं ै। य कोम और देश ै। य योरोप ै, अमेररका ै; मगर भारत कदावप न ीिं ै। 4
अिँ ेरी रात थी। गीदड और कु त्ते अपने-अपने कका श स्वर में उच्चारण कर र े थे। मैं अपना दु खत हृदय लेकर उसी नाले के ककनारे जाकर बैठ गया और सोचने लगा - अब क्या करूँ य कफर अपने पतु ्रों के पास लौट जाऊँ और अपना शरीर अमेररका की ममट्टी में ममलाऊँ । अब तक य मेरी मातभृ मू म थी, मंै ववदेश में जरूर था ककन्तु मझु े अपने प्यारे देश की याद बनी थी, पर अब मैं देश- वव ीन ूँ। मेरा कोम देश न ीिं ै। इसी सोच-ववचार में मैं ब ुत देर तक घुटनों पर मसर रखे मौन र ा। रात्रत्र नेत्रों में ी व्यतीत की। घटंि ेवाले ने तीन बजाये और ककसी ने गाने का शब्द कानों मंे आया। हृदय गद्गद ो गया कक य तो देश का ी राग ै, य तो मातभृ मू म का ी स्वर ै। मंै तरु न्त उठ खडा ुआ और क्या देखता ूँ कक 15-20 वदृ ्धा ग्स्त्रया,ँ सफे द िोततयाँ पह ने, ाथों में लोटे मलये स्नान को जा र ी ंै और गाती जाती ै: ' मारे प्रभ,ु अवगनु धचत्त न िरो...' मंै इस गीत को सनु कर तन्मय ो ी र ा था कक इतने मंे मुझे ब ुत-से आदममयों की बोलचाल सुन पडी। उनमंे से कु छ लोगों ाथों मंे पीतल के कमंडि लु मलये ु मशव-मशव, र- र, गंिगे-गगंि े, नारायण-नारायण आहद शब्द बोलते ु चले जाते थे। आनन्ददायक और प्रभावोत्पादक राग से मेरे हृदय पर जो प्रभाव ुआ, उसका वणना करना कहठन ै। मनैं े अमेररका की चचिं ल से चिंचल और प्रसन्न से प्रसन्न धचत्तवाली लावण्यवती ग्स्त्रयों का आलाप सुना था, स ्ों बार उनकी ग्जह्वा से प्रेम और प्यार के शब्द सुने थे, हृदयाकषका वचनों का आनन्द उठाया था, मनंै े सुरीले पक्षषों यों का च च ाना भी सनु ा था, ककन्तु जो आनन्द, जो मजा और जो सखु मझु े इस राग में आया, व मुझे जीवन मंे कभी प्राप्त न ींि ुआ था। मनंै े खदु गुनगनु ा कर गाया: ' मारे प्रभु, अवगुन धचत्त न िरो...'
मेरे हृदय में कफर उत्सा आया कक ये तो मेरे प्यारे देश की ी बातंे ै। आनन्दाततरेक से मेरा हृदय आनन्दमय ो गया। मंै भी इन आदनममयों के साथ ो मलया और 6 मील तक प ाडी मागा पार करके उसी नदी के ककनारे प ुँचा, ग्जसका नाम पततत-पावनी ै, ग्जसकी ल रों मंे डू बकी लगाना और ग्जसकी गोद मंे मरना प्रत्येक ह न्दू अपना परम सौभानय समझता ै। पततत-पावनी भागीरथी गगिं ा मेरे प्यारे गाँव से छै -सात मील पर ब ती थी। ककसी समय में घोडे पर चढकर गिंगा माता के दशानों की लालसा मेरे हृदय सदा र ती थी। य ाँ मनंै े जारों मनषु ्यों को इस ठंि डे पानी मंे डु बकी लगाते ु देखा। कु छ लोग बालू पर बैठे गायत्री-मंति ्र जप र े थ।े कु छ लोग वन करने में संलि नन थ।े कु छ माथे पर ततलक लगा र े थे और कु छ लोग सस्वर वदे मतिं ्र पढ र े थे। मेरा हृदय कफर उत्साह त ुआ और मैं जोर से क उठा - ाँ, ाँ, य ी मेरा प्यारा देश ै, य ींि मेरी पववत्र मातभृ ूमम ै, य ी मेरा सवशा ्रेष्ठ भारत ै और इसी के दशना ों की मेरी उत्कट इच्छा थी तथा इसी की पववत्र िूमल के कण बनने की मेरी प्रबल अमभलाषा ै। 5 मंै ववशषे आनन्द में मनन था। मनैं े अपना परु ाना कोट और पतलून उतार कर फैं क हदया और गिंगा माता की गोद में जा धगरा, जसै े कोम भोलाभाला बालक हदन भर तनदाय लोगों के साथ र ने के बाद सन्ध्या को अपनी प्यारी माता की गोद मंे दौड कर चला आये और उसकी छाती से धचपट जाय। ाँ, अब मंै अपने देश में ूँ। य मेरी प्यारी मातभृ ूमम ै। ये लोग मेरे भाम ै और गगंि ा मेरी माता ै। मनंै े ठीक गगंि ा के ककनारे क छोटी-सी कु टी बना बनवा ली ै। अब मझु े राम- नाम जपने के और कोम काम न ीिं ै। मैं तनत्य प्रातःसायंि गंिगा-स्नान करता ूँ
और मेरी प्रबल इच्छा ै कक इसी स्थान पर मेरे प्राण तनकले और मेरी अग्स्थयाँ गगंि ा माता की ल रों की भंेट ो। मेरी स्त्री और मेरे पुत्र बार-बार बुलाते ै; मगर अब मंै य गंगि ा माता का तट और अपना प्यारा देश छोडकर व ाँ न ीिं जा सकता। अपनी ममट्टी गिंगा जी को ी सौपँूगा। अब ससंि ार की कोम आकािंषों ा मझु े इस स्थान से न ींि टा सकती, क्योंकक य मेरा प्यारा देश ै और य ी प्यारी मातभृ ूमम ै। बस, मेरी उत्कट इच्छा य ी ै कक मैं अपनी प्यारी मातभृ ूमम मंे ी अपने प्राण ववसजना करूँ । ***
राजा हरदौल बदुिं ेलखिडं में ओरछा परु ाना राज्य ै। इसके राजा बिुंदेले ैं। इन बंिदु ेलों ने प ाडों की घाहटयों मंे अपना जीवन त्रबताया ै। क समय ओरछे के राजा जुझारमसंि थे। ये बडे सा सी और बुवद्धमान थे। शा ज ाँ उस समय हदल्ली के बादशा थ।े जब लोदी ने बलवा ककया और व शा ी मलु ्क को लटू ता-पाटता ओरछे की ओर आ तनकला, तब राजा जझु ारमसंि ने उससे मोरचा मलया। राजा के इस काम से गुणग्रा ी शा ज ाँ ब ुत प्रसन्न ु । उन् ोंने तुरन्त ी राजा को दग्क्खन का शासन-भार सौंपा। उस हदन ओरछे में बडा आनन्द मनाया गया। शा ी दतू खलअत और सनद ले कर राजा के पास आया। जझु ारमसंि को बड-े बडे काम करने का अवसर ममला। सफर की तैयाररयाँ ोने लगीिं, तब राजा ने अपने छोटे भाम रदौलमसंि को बुला कर क ा, 'भैया, मंै तो जाता ूँ। अब य राज-पाट तमु ् ारे सुपदु ा ै। तमु भी इसे जी से प्यार करनाय न्याय ी राजा का सबसे बडा स ायक ै। न्याय की गढी में कोम शत्रु न ींि घसु सकता, चा े व रावण की सेना या इन्र का बल लेकर आये; पर न्याय व ी सच्चा ै, ग्जसे प्रजा भी न्याय समझ।े तमु ् ारा काम के वल न्याय ी करना न ोगा बग्ल्क प्रजा को अपने न्याय का वववास भी हदलाना ोगा और मंै तमु ् ंे क्या समझाऊँ , तुम स्वयंि समझदार ो।' य क कर उन् ोंने अपनी पगडी उतारी और रदौलमसंि के मसर पर रख दी। रदौल रोता ुआ उनके परै ों से मलपट गया। इसके बाद राजा अपनी रानी से ववदा ोने के मल रतनवास आ । रानी दरवाजे पर खडी रो र ी थी। उन् ें देखते ी पैरों पर धगर पडी। जझु ारमसंि ने उठा कर उसे छाती से लगाया और क ा, 'प्यारी, य रोने का समय न ीिं ै। बिंदु ेलों की ग्स्त्रयाँ ीसे अवसर पर रोया न ीिं करती। मवर ने चा ा, तो म-तुम जल्द ममलंेगे। मझु पर ीसी ी प्रीतत रखना। मनंै े राज-पाट रदौल को सौंपा ै, व अभी लडका ै। उसने अभी दतु नया न ीिं देखी ै। अपनी सला ों से उसकी मदद करती र ना।'
रानी की जबान बंदि ो गम। व अपने मन में क ने लगी, ' ाय य क ते ै, बुंिदेलों की ग्स्त्रयाँ ीसे अवसरों पर रोया न ीिं करती। शायद उनके हृदय न ींि ोता, या अगर ोता तो उसमंे प्रेम न ींि ोता।' रानी कलेजे पर पत्थर रख कर आसँ ू पी गम और ाथ जोडकर राजा की ओर मसु ्कराती ुम देखने लगी, पर क्या व मसु ्करा ट थी। ग्जस तर अँिेरे मदै ान में मशाल की रोशनी अँिेरे को और भी अथा कर देती ै, उसी तर रानी की मसु ्करा ट उसके मन के अथा दःु ख को और भी प्रकट कर र ी थी। जुझारमसिं के चले जाने के बाद रदौलमसंि राज करने लगा। थोडे ी हदनों मंे उसके न्याय और प्रजावात्सल्य ने प्रजा का मन र मलया। लोग जुझारमसिं को भूल ग । जझु ारमसंि के शुत्र भी थे और ममत्र भी; पर रदौलमसंि का कोम शत्रु न था, सब ममत्र ी थे। व ीसा ँसमुख और मिुरभाषी था कक उससे जो बातें कर लेता, व ी जीवन भर उसका भक्त बना र ता था। राज भर में ीसा कोम न था जो उसके पास तक न प ुँच सकता ो। रात-हदन उसके दरबार का फाटक सबके मल खुला र ता था। ओरछे को कभी ीसा सववा प्रय राजा नसीब न ुआ था। व उदार था, न्यायी था, ववद्या और गणु का ग्रा क था; पर सबसे बडा गणु जो उसमंे था, व उसकी वीरता थी। उसका व गणु द दजे को प ुँच गया था। रदौल अपने गणु से अपनी प्रजा के मन का भी राजा ो गया, जो मुल्क और माल पर राज करने से भी कहठन ै। इस प्रकार क वषा बीत गया। उिर दग्क्खन में जझु ारमसंि ने अपने प्रबििं से चारों ओर शा ी दबदबा जमा हदया, इिर ओरछे में रदौल ने प्रजा पर मो न-मितं ्र फँू क हदया। 2 फाल्गनु का म ीना था, अबीर और गलु ाल से जमीन लाल ो र ी थी। कामदेव का प्रभाव लोगों को भडका र ा था। रबी ने खेतों में सुन ला फशा त्रबछा रखा था
और खमल ानों में सनु ले म ल उठा हद थे। सिंतोष इस सनु ले फशा पर इठलाता कफरता था और तनग्चिंतता इस सुन ले म ल में तानंे अलाप र ी थी। इन् ींि हदनों हदल्ली का नामवर फे कै त काहदरखाँ ओरछे आया। बडे-बडे प लवाल उसका लो ा मान ग थ।े हदल्ली से ओरछे तक सकैं डों मदाना गी के मद से मतवाले उसके सामने आ ; पर कोम उससे जीत न सका। उससे लडना भानय से न ीिं मौत से लडना था। व ककसी इनाम का भूखा न था। जैसा ी हदल का हदलेर था, वैसा ी मन का राजा था। ठीक ोली के हदन उसने िूम-िाम से ओरछे में सचू ना दी कक खदु ा का शरे हदल्ली का काहदरखाँ ओरछे आ प ुँचा ै। ग्जसे अपनी जान भारी ो, आ कर अपने भानय का तनपटारा कर ले। ओरछे के बडे-बडे बुिंदेले सरू मा व घमिंड-भरी वाणी सनु कर गरम ो उठे । फाग और डफ की तान के बदले ढोल की वीर-ध्वतन सुनाम देने लगी। रदौल का अखाडा ओरछे के प लवानों और फे कै तों का सबसे बडा अड्डा था। सिधं ्या को य ाँ सारे श र के सरू मा जमा ु । कालदेव और भालदेव बुिंदेलों की नाक थे, सैकडों मदै ान ु । ये ी दोनों प लवान काहदरखाँ का घमडिं चूर करने के मल ग । दसू रे हदन ककले के सामने तालाब के ककनारे बडे मैदान मंे ओरछे के छोटे-बडे सभी जमा ु । कै से-कै से सजीले, अलबेले जवान थे - मसर पर खशु रंिग बाँकी पगडी, माथे पर चिदं न का ततलक, आखँ ों मंे मदाना गी का सरूर, कमर में तलवार। और कै से-कै से बूढे थे - तनी ुम मँछू ें , सादी पर ततरछी पगडी, कानों से बँिी ुम दाहढयाँ, देखने में तो बढू े, पर काम में जवान, ककसी को कु छ न समझनेवाले। उनकी मदाना ा चाल-ढाल नौजवानों को लजाती थी। र क के मँु से वीरता की बातंे तनकल र ी थीिं। नौजवान क ते थे - देखें आज ओरछे की लाज र ती ै या न ीं।ि पर बूढे क ते - ओरछे की ार कभी न ींि ुम, न ोगी। वीरों का य जोश देख कर राजा रदौल ने बडे जोर से क हदया - खबरदार, बिंदु ेलों की लाज र े या न र े; पर उसकी प्रततष्ठा में बल न पडने पा - यहद ककसी ने औरों को य क ने का अवसर हदया कक ओरछे वाले तलवार से न जीत सके तो िाँिली कर बैठे , व अपने को जातत का शत्रु समझ।े
सयू ा तनकल आया था। का क नगाडे पर चोट पडी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछाल कर मँु तक प ुँचा हदया। कालदेव और काहदरखाँ दोनो लँगोट कसे शरे ों की तर अखाडे मंे उतरे और गले ममल ग । तब दोनों तरफ से तलवारंे तनकली और दोनों के बगलों मंे चली गम। कफर बादल के दो टु कडों से त्रबजमलयाँ तनकलने लगी। पूरे तीन घटिं े तक य ीिं मालमू ोता र ा कक दो अँगारे ै। जारों आदमी खडे तमाशा देख र े थे और मैदान मंे आिी रात का- सा सन्नाटा छाया ुआ था। ाँ, जब कभी कालदेव धगर दार ाथ चलाता या कोम पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गदान आप ी आप उठ जाती; पर ककसी के मँु से क शब्द भी न ींि तनकलता था। अखाडे के अदिं र तलवारों की खीचंि तान थी; पर देखने वालों के मल अखाडे से बा र मदै ान मंे इससे भी बढ कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रततष्ठा के ववचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दःु ख का शब्द मँु से बा र न तनकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कहठन काम था। का क काहदरखाँ 'अल्ला ो-अकबर' धचल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ी कालदेव के मसर पर त्रबजली धगर पडी। कालदेव के धगरते ी बंिुदेलों को सब्र न र ा। र क के चे रे पर तनबला क्रोि और कु चले ु घमंिड की तस्वीर खींिच गम। जारों आदमी जोश मंे आ कर अखाडे पर दौडे, पर रदौल ने क ा - खबरदारय अब कोम आगे न बढे। इस आवाज ने परै ों के साथ जंिजीर का काम ककया। दशाकों को रोक कर जब वे अखाडे मंे ग और कालदेव को देखा तो आखँ ों मंे आँसू भर आ । जख्मी शेर जमीन पर पडा तडप र ा था। उसके जीवन की तर उसकी तलवार के दो टु कडे ो ग थ।े आज का हदन बीता, रात आम; पर बदंिु ेलों की आँखों मंे नीदंि क ाँ। लोगों ने करवटें बदल कर रात काटी जसै े दःु खत मनषु ्य ववकलता से सुब की बाट जो ता ै, उसी तर बंिदु ेले र -र कर आकाश की तरफ देखते और उसकी िीमी चाल पर झँझु लाते थ।े उसके जातीय घमिंड पर ग रा घाव लगा था। दसू रे हदन
ज्यों ी सयू ा तनकला, तीन लाख बिदुं ेले तालाब के ककनारे प ुँच।े ग्जस समय भालदेव शरे की तर अखाडे की तरफ चला, हदलों मंे िडकन-सी ोने लगी। कल जब कालदेव अखाडे मंे उतरा था, बंदिु ेलों के ौसले बढे ु थे; पर आज व बात न थी। हृदय में आशा की जग डर घसु ा ुआ था। काहदरखाँ कोम चटु ीला वार करता तो लोगों के हदल उछल कर ोठों तक आ जात।े सयू ा मसर पर चढा जाता था और लोगों के हदल बैठ जाते थ।े इसमंे कोम सदंि े न ीिं कक भालदेव अपने भाम से फु तीला और तजे था। उसने कम बार काहदरखाँ को नीचा हदखलाया; पर हदल्ली का तनपणु प लवान र बार सँभल जाता था। पूरे तीन घंिटे तक दोनों ब ादरु ों मंे तलवारें चलती र ी।िं का क खटाके की आवाज ुम और भालदेव की तलवार के दो टु कडे ो ग । राजा रदौल अखाडे के सामने खडे थे। उन् ोंने भालदेव की तरफ तजे ी से अपनी तलवार फंे की। भालदेव तलवार लेने के मल झकु ा ी था कक काहदरखाँ की तलवार उसकी गदान पर आ पडी। घाव ग रा न था, के वल क 'चरका' था; पर उसने लडाम का फै सला कर हदया। ताश बिंुदेले अपने-अपने घरों को लौटे। यद्यवप भालदेव अब भी लडने को तैयार था; पर रदौल ने समझा कर क ा कक भाइयों, मारी ार उसी समय ो गम जब मारी तलवार ने जवाब दे हदया। यहद म काहदरखाँ की जग ोते तो तन त्थे आदमी पर वार न करते और जब तक मारे शत्रु के ाथ मंे तलवार न आ जाती, म उस पर ाथ न उठाते; पर काहदरखाँ मंे य उदारता क ाँ? बलवान शत्रु का सामना करने मंे उदारता को ताक पर रख देना पडता ै। तो भी मने हदखा हदया ै कक तलवार की लडाम मंे म उसके बराबर ै और अब मको य हदखाना ै कक मारी तलवार में भी वसै ा ी जौ र ै। इसी तर लोगों को तसल्ली देकर राजा रदौल रतनवास को ग । कु लीना ने पूछा - लाला, आज दंिगल का क्या रंिग र ा? रदौल ने मसर झकु ा कर जवाब हदया - आज भी व ी कल का-सा ाल र ा।
कु लीना - क्या भालदेव मारा गया? रदौल - न ीिं, जान से तो न ीिं पर ार ो गम। कु लीना - तो अब क्या करना ोगा? रदौल - मंै स्वयंि इसी सोच मंे ूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पडा था। मारे पास िन न था, पर अपनी वीरता के सामने म राज और िन कोम चीज न समझते थे। अब म ककस मँु से अपनी वीरता का घमिंड करंेगे? ओरछे की और बुिंदेलों की अब जाती ै। कु लीना - क्या अब कोम आस न ीिं ै? रदौल - मारे प लवानों मंे वैसा कोम न ीिं ै जो उससे बाजी ले जा । भालदेव की ार ने बदिुं ेलों की ह म्मत तोड दी ै। आज सारे श र मंे शोक छाया ुआ ै। सकै डो घरों मंे आग न ींि जली। धचराग रोशन न ींि ुआ। मारे देश और जातत की व चीज ग्जससे मारे मान था, अब अतिं तम सासँ ले र ी ै। भालदेव मारा उस्ताद था। उसके ार चकु ने के बाद मेरा मैदान में आना िषृ ्टता ै; पर बंदुि ेलों की साख जाती ै, तो मेरा मसर भी उसके साथ जा गा। काहदरखाँ बेशक अपने ुनर मंे क ी ै, पर मारा भालदेव कभी उससे कम न ीि।ं उसकी तलवार यहद भालदेव के ाथ मंे ोती तो मदै ान जरूर उसके ाथ र ता। ओरछे में के वल क तलवार ै जो काहदरखाँ की तलवार का मँु तोड सकती ै व भयै ा की तलवार ै। अगर तमु ओरछे की नाक रखना चा ती ो तो उसे मझु े दे दो। य मारी अितं तम चषे ्टा ोगी। यहद इस बार भी ार ुआ तो ओरछे का नाम सदैव के मल डू ब जा गा। कु लीना सोचने लगी, तलवार इनको दँ ू या न दँ।ू राजा रोक ग ंै। उनकी आज्ञा थीिं कक ककसी दसू रे की परछाम भी उस पर न पडने पा । क्या ीसी दशा में मंै उनकी आज्ञा का उल्लिघं न करूँ तो वे नाराज ोंगे? कभी न ीं।ि जब वे सनु ंेगे कक
मनैं े कै से कहठन समय में तलवार तनकाली ै, तो उन् ंे सच्ची प्रसन्नता ोगी। बदंिु ेलों की आन ककसको इतनी प्यारी न ीिं ै? उनसे ज्यादा ओरछे की भलाम चा ने वाला कौन ोगा? इस समय उनकी आज्ञा का उल्लंघि न करना ी आज्ञा मानना ै। य सोच कर कु लीना ने तलवार रदौल को दे दी। सबेरा ोते ी य खबर फै ल गम कक राजा रदौल काहदरखाँ से लडने के मल जा र े ै। इतना सनु ते ी लोगों मंे सनसनी-सी फै ल गम और चौंक पड।े पागलों की तर लोग अखाडंे की ओर दौड।े र क आदमी क ता था कक जब तर म जीते ै म ाराज को लडने न ीिं देंगे; पर जब लोग अखाडे के पास प ुँचे ता देखा कक अखाडे मंे त्रबजमलयाँ चमक र ी ै। बुंिदेलों के हदलों पर उस समय जैसी बीत र ी थी, उसका अनुमान करना कहठन ै। उस समय उस लम्बे-चौडे मैदान मंे ज ाँ तक तनगा जाती थी, आदमी ी आदमी नजर आते थे; पर चारों ओर सन्नाटा था। र क आखँ अखाडे की तरफ लगी ुम थी और र क का हदल रदौल की मंिगल-कामना के मल मवर का प्राथी था। काहदरखाँ का क- क बार जारों हदलों के टु कडे कर देता था और रदौल की क- क काट से मनों में आनंिद की ल रें उठती थी। अखाडों में दो प लवानों का सामना था और अखाडे के बा र आशा और तनराशा का। आ खर घडडयाल ने प ला प र बजाया और रदौल की तलवार त्रबजली बन कर काहदर के मसर पर धगरी। य देखते ी बुिदं ेलें मारे आनदिं के उन्मत्त ो ग । ककसी को ककसी की सुधि न र ी। कोम ककसी से गले ममलता, कोम उछलता और कोम छलागँ ंे मारता था। जारों आदममयों पर वीरता का नशा छा गया। तलवारे स्वयंि म्यान से तनकल पडी, भाले चमकने लगे। जीत की खशु ी में सैकडों जानें भेंट ो गम। पर जब रदौल अखाडे से बा र आ और उन् ोंने बदुिं ेलों की ओर तजे तनगा ों से देखा तो आन-की-आन मंे लोग सँभल ग । तलवारें म्यान मंे जा तछपी। खयाल आ गया, य खशु ी क्यों, य उमिगं क्यों और य पागलपन ककस मल ? बिंदु ेलों के मल य कोम नम बात न ीिं ुम। इस ववचार ने लोगों का हदल ठिं डा कर हदया। रदौल की इस वीरता ने उसे र क बंदिु ेलें के हदल में मान-प्रततष्ठा की ऊँ ची जग पर त्रबठाया, ज ाँ न्याय और उदारता भी उसे न प ुँचा सकती थी। व प ले ी से
सववा प्रय थे और अब व अपनी जातत की वीरवर और बदिंु ेला हदलावरी का मसरमौर बन गया। 3 राजा जुझारमसिं ने भी दक्षषों ण मंे अपनी योनयता का पररचय हदया। वे के वल लडाम में ी वीर न थे, बग्ल्क राज्य-शासन मंे भी अद्ववतीय थ।े उन् ोंने अपने सुप्रबंिि से दक्षषों ण प्रांितों को बलवान राज्य बना हदया और वषा भर के बाद बादशा से आज्ञा लेकर वे ओरछे की तरफ चले। ओरछे की यादें उन् ंे सदैव बेचनै करती र ी। आ ओरछाय व हदन कब आ गा कक कफर तरे े दशना ोगेय राजा मगंि ्जलंे मारते चले आते थे, न भूख थी, न प्यास, ओरछे वालों की मु ब्बत खीिचं े मलये आती थी। य ाँ तक कक ओरछे के जगिं लों मंे आ प ुँच।े साथ के आदमी पीछे छू ट ग । दोप र का समय था। िूप तजे थी। वे घोडे से उतरे और क पेड की छाँ में जा बैठे । भानयवश आज रदौल भी जीत की खुशी मंे मशकार खले ने तनकले थे। सैकडो बिदंु ेला सरदार उनके साथ थ।े सब अमभमान के नशे में चरू थ।े उन् ोंने राजा जझु ारमसंि को अके ले बैठे देखा; पर वे अपने घमंिड मंे इतने डू बे ु थे कक इनके पास तक न आ । समझा कोम यात्री ोगा। रदौल की आँखों ने भी िोखा खाया। वे घोडे पर सवार अकडते ु जुझारमसिं के सामने आ और पूछना चा ते थे कक तमु कौन ो कक भाम से आखँ ंे ममल गम। प चानते ी घोडे से कू द पडे और उनको प्रणाम ककया। राजा ने भी उठ कर रदौल को छाती से लगा मलया; पर उस छाती में अब भाम की मु ब्बत न थी। मु ब्बत की जग मष्याा ने घेर ली थी और व के वल इसीमल कक रदौल दरू से नंिगे पैर उनकी तरफ न दौडा, उसके सवारों ने दरू ी से उनकी अभ्यथना ा की। संधि ्या ोते- ोते दोनों भाम ओरछे प ुँच।े राजा के लौटने का समाचार पाते ी नगर में प्रसन्नता की दंिदु भु ी बजने लगी। र जग आनिंदोत्सव ोने लगा और तुरती-फु रती श र जममगा उठा।
आज रानी कु लीना ने अपने ाथों से खाना बनाया। नौ बजे ोंगे। लौंडी ने आ कर क ा - म ाराज, भोजन तैयार ै। दोनों भाम भोजन करने ग । सोने के थाल में राजा के मल भोजन परोसा गया और चादँ ी के थाल में रदौल के मल । कु लीना ने स्वयिं भोजन बनाया था, स्वयिं थाल परोसे थे और स्वयंि ी सामने लाम थी; पर हदनों का चक्र क ो, या भानय के दहु दान, उसने भूल से सोने का थाल रदौल के आगे रख हदया और चादँ ी का राजा के सामन।े रदौल ने कु छ ध्यान न हदया, व वषा भर से सोने के थाल मंे खाते-खाते उसका आदी ो गया था, पर जुझारमसिं ततलममला ग । जबान से कु छ न बोले; पर तीवर बदल ग और मँु लाल ो गया। रानी की तरफ घरू कर देखा औऱ भोजन करने लगे। पर ग्रास ववष मालूम ोता था। दो-चार ग्रास खा कर उठ आ । रानी उनके तीवर देख कर डर गम। आज कै से प्रेम से उसने भोजन बनाया था, ककतनी प्रतीषों ा के बाद य शुभ हदन आया था, उसके उल्लास का कोम पारावर न था; पर राजा के तीवर देख कर उसके प्राण सखू ग । जब राजा उठ ग और उसने थाल देखा, तो कलेजा िक से ो गया और पैरों तले से ममट्टी तनकल गम। उसने मसर पीट मलया - मवरय आज राज कु शलतापवू का कटे, मुझे शकु न अच्छे हदखाम न ीिं देत।े राजा जझु ारमसंि शीश म ल मंे लेटे। चतरु नाइन ने रानी का शंिगृ ार ककया और मुस्करा कर बोली - कल म ाराज से इसका इनाम लँगू ी। य क कर व चली गम; परंितु कु लीना व ाँ से न उठी। व ग रे सोच में पडी ुम थी। उनके सामने कौन-सा मँु ले कर जाऊँ ? नाइन ने ना क मेरा शंिगृ ार कर हदया। मेरा शंिगृ ार देख कर वे खुश भी ोंगे? मुझ से अपराि ुआ ै, मैं अपराधिनी ूँ, मेरा उनके पास इस समय बनाव-शिंगृ ार करके जाना उधचत न ीिं। न ीिं, न ीिं; आज मझु े उनके पास मभखाररनी के भेष में जाना चाह । मंै उनसे षों मा मागँ ँगू ी। इस समय मेरे मल य ी उधचत ै। य सोच कर रानी बडे शीशे के सामने खडी ो गम, व अप्सरा-सी मालमू ोती थी। सिंुदरता की ककतनी ी तसवीरें उसने देखी थीिं; पर उसे इस समय शीशे की तसवीर सबसे ज्यादा खबू सरू त मालमू ोती थी।
सदंिु रता और आत्मरुधच का साथ ै। जल्दी त्रबना रंिग के न ीिं र सकती। थोडी देर के मल कु लीना सदुंि रता के मद से फू ल उठी। व तन कर खडी ो गम। लोग क ते ैं कक सिंदु रता में जादू ै और व जाद,ू ग्जसका कोम उतार न ीं।ि िमा और कम,ा तन और मन सब संदुि रता पर न्योछावर ै। मंै सुिंदर न स ी, ीसी कु रूपा भी न ीिं ूँ। क्या मेरी सदुिं रता में इतनी भी शग्क्त न ीिं ै कक म ाराज मेरा अपराि षों मा करा सके ? ये बा ु-लता ँ ग्जस समय गले का ार ोंगी, ये आँखें ग्जस समय प्रेम के मद से लाल ो कर देखेंगी, तब क्या मेरे सौंदया की शीतलता उनकी क्रोधिग्नन को ठिं डा न कर देगी? पर थोडी देर मंे रानी को ज्ञात ुआ। आ य मैं क्या स्वप्न देख र ी ूँय मेरे मन मंे ीसी बातंे क्यों आती ंैय मंै अच्छी ूँ या बरु ी उनकी चरे ी ूँ। मझु से अपराि ुआ ै, मुझे उनसे षों मा माँगनी चाह । य शिंगृ ार और बनाव इस समय उपयकु ्त न ींि ै। य सोच कर रानी ने सब ग ने उतार हद । इतर मंे बसी ुम रेशम की साडी अलग कर दी। मोततयों से भरी मागँ खोल दी और व खबू फू ट-फू ट कर रोम। ायय य ममलाप की रात ववयोग की रात से भी ववशेष दःु खदातयनी ै। मभखाररनी का भेष बना कर रानी शीश म ल की ओर चली। पैर आगे बढते थे, पर मन पीछे टता जाता था। दरवाजे तक आम, पर भीतर पैर न रख सकी। हदल िडकने लगा। ीसा जान पडा मानो उसके परै थराा र े ैं। राजा जुझारमसिं बोले - कौन ै? - कु लीनाय भीतर क्यों न ींि आ जाती? कु लीना ने जी कडा करके क ा -म ाराज, कै से आऊँ ? मंै अपनी जग क्रोि को बठै ा पाती ूँ? राजा - य क्यों न ींि क ती कक मन दोषी ै, इसीमल आँखें न ीिं ममलने देतीिं। कु लीना - तनस्सिदं े मुझसे अपराि ुआ ै, पर क अबला आपसे षों मा का दान माँगती ै। राजा - इसका प्रायग्चत करना ोगा।
कु लीना - क्योंकर? राजा - रदौल के खून से। कु लीना मसर से परै तक काँप गम। बोली - क्या इसीमल कक आज मेरी भलू से ज्योनार के थालों में उलटफे र ो गया? राजा - न ीिं, इसमल कक तमु ् ारे प्रेम में रदौल ने उलटफे र कर हदया। जसै े आग की आचँ से लो ा लाल ो जाता ै, वैसे ी रानी का मँु लाल ो गया। क्रोि की अग्नन सद्भावों को भस्म कर देती ै, प्रेम और प्रततष्ठा, दया और न्याय सब जल के राख ो जाते ै। क ममनट रानी को ीसा मालमू ुआ, मानो हदल और हदमाग खौल र े ै, पर उसने आत्मदमन की अंिततम चषे ्टा से अपने को सँभाला, के वल बोली - रदौल को अपना लडका और भाम समझती ूँ। राजा उठ बठै े और कु छ नमा स्वर से बोले - न ींि, रदौल लडका न ींि ै, लडका मंै ूँ, ग्जसने तुम् ारे ऊपर वववास ककया। कु लीना मुझे तमु से ीसी आशा न थी। मझु े तमु ् ारे ऊपर घमडिं था। मैं समझता था, चाँद-सयू ा टल सकते ै, पर तमु ् ारा हदल न ीिं टल सकता, पर आज मुझे मालूम ुआ कक व मेरा लडकपन था। बडों ने सच क ा ै कक स्त्री का प्रमे पानी की िार ै, ग्जस ओर ढाल पाता ै, उिर ी ब जाता ै। सोना ज्यादा गरम ोकर वपघल जाता ै। कु लीना रोने लगी। क्रोि की आग पानी बन आखँ ों से तनकल पडी। जब आवाज वश मंे ुम, तो बोली - आपके इस सिदं े को कै से दरू करूँ ? राजा - रदौल के खनू से। रानी - मेरे खून से दाग न ममटेगा?
राजा - तुम् ारे खून से और पक्का ो जा गा। रानी - और कोम उपाय न ीिं ै? राजा - न ी।ंि रानी - य आपका अतंि तम ववचार ै? राजा - ाँ, य मेरा अिंततम ववचार ै। देखो, इस पानदान में पान का बीडा रखा ै। तमु ् ारे सतीत्व की परीषों ा य ी ै कक तमु रदौल को इसे अपने ाथों से खला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय तनकलेगा जब इस इस घर से रदौल की लाश तनकलेगी। रानी ने घणृ ा की दृग्ष्ट से पान के बीडे को देखा और व उल्टे पैर लौट आम। रानी सोचने लगी - क्या रदौल के प्राण लँ?ू तनदोष, सच्चररत्र वीर रदौल की जान से अपने सतीत्व की परीषों ा दँ?ू उस रदौल के खनू से अपना ाथ काला करूँ जो मझु े ब न समझता ै? य पाप ककसके मसर पडगे ा? क्या क तनदोष का खून रिंग न ला गा? आ य अभागी कु लीनाय तुझे आज अपने सतीत्व की परीषों ा देने की आवयकता पडी ै और व ीसी कहठन? न ीिं, य पाप मुझसे न ोगा। यहद राजा मझु े कु लटा समझते ै, तो समझें, उन् ें मुझ पर सिदं े ै, तो ो। मुझसे य पाप न ोगा। राजा को ीसा सिदं े क्यों ुआ? क्या के वल थालों के बदल जाने से? न ींि, अवय कोम और बात ै। आज रदौल उन् ें जिगं ल में ममल गया। राजा ने उसकी कमर में तलवार देखी ोगी। क्या आचया ै, रदौल से कोम अपमान भी ो गया ो। मेरा अपराि क्या ै? मुझ पर इतना बडा दोष क्यों लगाया जाता ै? के वल थालों के बदल जाने से? े मवरय मंै ककससे अपना दःु ख क ूँ? तू ी मेरा साषों ी ै। जो चा े सो ो; पर मुझसे य पाप न ोगा।
रानी ने कफर सोचा - राजा, क्या तुमु् ् ारा हृदय ीसा ओछा और नीच ै? तमु मुझसे रदौल की जान लेने को क ते ो? यहद तुमसे उसका अधिकार और मान न ींि देखा जाता, तो क्यों साफ-साफ ीसा न ीिं क ते? क्यों मरदों की लडाम न ींि लडते? क्यों स्वयिं अपने ाथ से उसका मसर न ीिं काटते और मझु से व काम करने को क ते ो? तमु खबू जातने ो, मैं य न ीिं कर सकती। यहद मझु से तमु ् ारा जी उकता गया ै, यहद मैं तमु ् ारी जान की जिजं ाल ो गम ूँ, तो मझु े काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊँ गी, पर मवर के मल मेरे मसर पर इतना बडा कलंकि न लगने दो। पर मैं जीववत ी क्यों र ूँ, मेरे मल अब जीवन मंे कोम सखु न ीिं ै। अब मेरा मरना ी अच्छा ै। मैं स्वयिं प्राण दे दँगू ी, पर य म ापाप मझु से न ोगा। ववचारों ने कफर पलटा खाया। तुमको पाप करना ी ोगा। इससे बडा पाप शायद आज तक सिसं ार में न ुआ ो, पर य पाप तुमको करना ोगा। तमु ् ारे पततव्रत पर सिंदे ककया जा र ा ै और तमु ् ें इस सदंि े को ममटाना ोगा। यहद तमु ् ारी जान जो खम मंे ोती, तो कु छ जा न था। अपनी जान देकर रदौल को बचा लेती; पर इस समय तमु ् ारे पततव्रत पर आँच आ र ी ै। इसमल तमु ् ें य पाप करना ी ोगा, और पाप करने के बाद ँसना और प्रसन्न र ना ोगा। यहद तुम् ारा धचत्त ततनक भी ववचमलत ुआ, यहद तमु ् ारा मुखडा जरा भी मवद्धम ुआ, तो इतना बडा पाप करने पर भी तमु संदि े ममटाने में सफल न ोगी। तुम् ारे जी पर चा े जो बीत,े पर तमु ् ंे य पाप करना ी पडगे ा। परिंतु कै से ोगा? क्या मैं रदौल का मसर उताऊँ गी? य सोच कर रानी के शरीर मंे कँ पकँ पी आ गम। न ींि, मेरा ाथ उस पर कभी न ींि उठ सकता। प्यारे रदौल, मैं तमु ् ंे खला सकती। मैं जानती ूँ, तमु मेरे मल आनंदि से ववष का बीडा खा लोगे। ाँ, मैं जानती ूँ, तमु 'न ीिं' न करोगे, पर मझु से य म ापाप न ींि ो सकता। क बार न ींि, जार बार न ींि ो सकता। 4
रदौल को इन बातों की कु छ भी खबर न थी। आिी रात को क दासी रोती ुम उसके पास गम और उसने सब समाचार अषों र-अषों र क सनु ाया। व दासी पानदान ले कर रानी के पीछे -पीछे राजम ल के दरवाजे पर गम थी और सब बातंे सनु कर आम थी। रदौल राजा का ढंिग देख कर प ले ी पडता गया था कक राजा के मन मंे कोम-न-कोम काँटा अवय खटक र ा ै। दासी की बातों ने उसके सदंि े को और भी पक्का कर हदया। उसने दासी से कडी मना ी कर दी कक साविानय ककसी दसू रे के कानों मंे इन बातों की भनक न पडे और व स्वयंि मरने को तैयार ो गया। रदौल बंिदु ेलों की वीरता का सरू ज था। उसकी भौं ों के ततनक इशारे से तीन लाख बिदुं ेले मरने और मारने के मल इकट्ठे ो सकते थे, ओरछा उस पर न्योछावर था। यहद जझु ारमसंि खुले मदै ान उसका सामना करते तो अवय मँु की खात,े क्योंकक रदौल भी बदिंु ेला था और बंुिदेला अपने शत्रु के साथ ककसी प्रकार की मँु देखी न ींि करते, मारना-मरना उसके जीवन का क अच्छा हदलब लाव ै। उन् ंे सदा इसकी लालसा र ी ै कक कोम में चुनौती दे, कोम में छे ड।े उन् ंे सदा खनू की प्यास र ती ै और व प्यास कभी न ीिं बुझती। परंितु उस समय क स्त्री को उसके खून की जरूरत थी और उसकी सा स उसके कानों में क ता था कक क तनदोष और सती अबला के मल अपने शरीर का खनू देने मंे मँु न मोडो। यहद भयै ा को य सिदं े ोता कक मैं उनके खनू का प्यासा ूँ और उन् ें मार कर राज पर अधिकार करना चा ता ूँ, तो कु छ जा न था। राज्य के मल कत्ल और खनू , दगा और फरेब सब उधचत समझा गया ै, परिंतु उनके इस संिदे का तनपटारा मेरे मरने के मसवा और ककसी तर न ीिं ो सकता। इस समय मेरा िमा ै कक अपना प्राण दे कर उनके इस संिदे को दरू कर दँ।ू उनके मन मंे य दखु ाने वाला सदंि े उत्पन्न करके भी यहद मंै जीता ी र ूँ और अपने मन की पववत्रता जनाऊँ , तो मेरी हढठाम ै। न ींि, इस भले काम में अधिक आगा-पीछा करना अच्छा न ींि ै। मैं खुशी से ववष का बीडा खाऊँ गा। इससे बढकर शूरवीर की मतृ ्यु और क्या ो सकती ै?
क्रोि मंे आकर मारू के भय बढाने वाले शब्द सुनके रणषों ेत्र में अपनी जान को तुच्छ समझना कहठन न ींि ै। आज सच्चा वीर रदौल अपने हृदय के बडप्पन पर अपनी सारी वीरता न्योछावर करने को उद्यत ै। दसू रे हदन रदौल ने खबू तडके स्नान ककया। बदन पर अस्त्र-शस्त्र सजा मसु ्कराता ुआ राजा के पास आया। राजा भी सो कर तरु ंित ी उठे थे, उनकी अलसाम ुम आँखंे रदौल की मतू ता की ओर लगी ुम थी। सामने सगिं मरमर की चौकी पर ववष ममला पान सोने की ततरी मंे रखा ूँ था। राजा कभी पान की ओर ताकते और कभी मूतता की ओर, शायद उनके ववचार ने इस ववष की गाँठ और उस उस मतू ता में क संिबिंि पैदा कर हदया था। उस समय जो रदौल का क घर मंे प ुँचे तो राजा चौंक पड।े उन् ोंने सँभल कर पछू ा - इस समय क ाँ चले? रदौल का मुखडा प्रफु ग्ल्लत था। व ँस कर बोला - कल आप य ाँ पिारे ै, इसी खुशी मंे मैं आज मशकार खले ने जाता ूँ। आपको मवर ने अग्जत बनाया ै, मुझे अपने ाथ से ववजय का बीडा दीग्ज । य क कर रदौल ने चौक पर से पानदान उठा मलया और उसे राजा के सामने रखकर बीडा लेने के मल ाथ बढाया। रदौल का खला ुआ मुखडा देख कर राजा की मष्याा की आग और भी भडक उठी। दषु ्ट, मेरे घाव पर नमक तछडकने आया ैय मेरे मान और वववास को ममट्टी मंे ममलाने पर भी तरे ा जी न भराय मझु से ववजय का बीडा माँगता ैय ाँ, य ववजय का बीडा ै; पर तरे ी ववजय का न ीिं, मेरी ववजय का। इतना मन मंे क कर जुझारमसंि ने बीडे को ाथ मंे उठाया। वे क षों ण तक कु छ सोचते र े, कफर मसु ्करा कर रदौल को बीडा दे हदया। रदौल ने मसर झकु ा कर बीडा मलया, उसे माथे पर चढाया, क बार बडी ी करुणा के साथ चारों ओर देखा और कफर बीडे को मँु मंे रख मलया। क सच्चे राजपतू ने अपना पुरुषत्व
हदखा हदया। ववष ला ल था, कंि ठ के नीचे उतरने ी रदौल के मखु डे पर मदु ानी छा गम और आखँ ें बुझ गम। उसने क ठंि डी साँस ली, दोनों ाथ जोड कर जझु ारमसंि को प्रणाम ककया और जमीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की ठिं डी-ठंि डी बँूदंे हदखाम दे र ी थी और साँस तजे ी से चलने लगी थी; पर चे रे पर प्रसन्नता और संितोष की झलक हदखाम देती थी। जुझारमसिं अपनी जग से जरा भी न ह ले। उनके चे रे पर मष्याा से भरी ुम मुस्करा ट छाम ुम थी; पर आखँ ों पर आसँ ू भर आ थे। उजले े और अँिरे े का ममलाप ो गया था। ***
त्यागी का प्रेम लाला गोपीनाथ को यवु ावस्था मंे ी दशना से प्रेम ो गया। अभी व इंिटरमीडडयट क्लास में थे कक ममल और बका ले के वैज्ञातनक ववचार उनको कंि ठस्थ ो गये थ।े उन् ें ककसी प्रकार के ववनोद-प्रमोद से रुधच न थी। य ाँ तक कक कालेज के कक्रके ट-मचै ों मंे भी उनको उत्सा न ोता था। ास-परर ास से कोसों भागते थे और उनसे प्रेम की चचाा करना तो मानो बच्च के जूजू से डराना था। प्रातःकाल घर से तनकल जाते और श र से बा र ककसी सघन वषृ ों की छाँ मंे बैठकर दशना का अध्ययन करने मंे तनरत ो जात।े काव्य, अलकिं ार, उपन्यास सभी को त्याज्य समझते थ।े शायद ी जीवन मंे उन् ोंने कोम ककस्से-क ानी की ककताब पढी ो। इसे के वल समय का दरु ुपयोग ी न ीिं, वरन ्ु मन और बवु द्ध- ववकास के मल घातक ख्याल करते थे। इसके साथ ी व उत्सा ीन न थ।े सेवा-सममततयों मंे बडे उत्सा से भाग लेत।े स्वदेशवामसयों की सेवा के ककसी अवसर को ाथ से न जाने देत।े ब ुिा मु ल्ले के छोटे-छोटे दकु ानदारों की दकु ान पर जा बैठते और उनके घाटे-टोटे, मंिदे-तजे े की रामक ानी सनु त।े शैनेः-शैनःे कालेज से उन् ें घणृ ा ो गयी। उन् ंे अब अगर ककसी ववषय से प्रेम था, तो व दशना था। कालेज की ब ुववषयक मशषों ा उनके दशना ानुराग मंे बािक ोती। अत व उन् ोंने कालेज छोड हदया और काग्रधचत्त ोकर ववज्ञानोपाजना करने लगे। ककन्तु दशानानरु ाग के साथ ी साथ उनका देशानरु ाग भी बढता गया और कालेज छोडने के थोडे ी हदनों के पचात व अतनवायता ः जातत-सेवकों के दल मंे सग्म्ममलत ो ग । दशान में भ्रम था, अवववास था, अिंि कार था, जातत- सेवा में सम्मान था, यश था और दोनों की सहदच्छा ँ थींि। उनका व सदनुराग जो बरसों से वैज्ञातनक वादों के नीचे दबा ुआ था; वायु के प्रचिंड वगे के साथ तनकल पडा। नगर के सावजा तनक षों ेत्र मंे कू द पड।े देखा तो मदै ान खाली था। ग्जिर आँख उठात,े सन्नाटा हदखाम देता। ध्वजािाररयों की कमी न थी; पर सच्चे हृदय क ीिं नजर न आते थ।े चारों ओर से उनकी खींचि ोने लगी। ककसी सिंस्था के मंति ्री बन,े ककसी के प्रिान, ककसी के कु छ, ककसी के कु छ। इसके आवेश में
दशना ानुराग भी ववदा ुआ। वपजिं रे मंे गानेवाली धचडडया ववस्ततृ पवता रामशयों मंे आ कर अपना राग भलू गम। अब भी व समय तनकाल कर दशानग्रथंि ों के पन्ने उलट-पलट मलया करते थे, पर ववचार और अनशु ीलन का अवकाश क ायँ तनत्य मन मंे य सगंि ्राम ोता र ता कक ककिर जाऊँ ? उिर या इिर? ववज्ञान अपनी ओर खींचि ता, देश अपनी ओर खीिंचता। क हदन व इसी उलझन मंे नदी के तट पर बठै े ु थे। जलिारा तट के दृयों और वायु के प्रततकू ल झोंको की परवा न करते ु वगे के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढा चली जाती थी; पर लाला गोपीनाथ का ध्यान इस तरफ न था। व अपने स्मतृ तभिडं ार से ककसी ीसे तत्वज्ञानी परु ुष को खोज तनकालना चा ते थे, ग्जसने जातत-सेवा के साथ ववज्ञान-सागर मंे गोते लगा ों। स सा उनके कालेज के क अध्यापक पिंडडत अमरनाथ अग्नन ोत्री आ कर समीप बैठ ग और बोले - कह लाला गोपीनाथ, क्या खबरंे ै? गोपीनाथ ने अन्यमनस्क ो कर उत्तर हदया - कोम नम बातंे तो न ींि ुम। पथृ ्वी अपनी गतत से चली जा र ी ै। अमरनाथ - म्यतु नमसपल वाडा निबं र 21 मंे जग खाली ै, उसके मल ककसे चनु ना तनग्चत ककया ै? गोपी - दे ख , कौन ोता ै। आप भी खडे ु ै? अमर - अजी मझु े तो लोगों ने जबरदस्ती घसीट मलया। न ीिं तो मुझे इतनी फु सता क ा।ँ गोपी - मेरा भी य ी ववचार ै। अध्यापकों का कक्रयात्मक राजनीतत में फँ सना ब ुत अच्छी बात न ी।ंि
अमरनाथ स व्यनिं य से ब ुत लग्ज्जत ु । क षों ण के बाद प्रततकार के भाव से बोले - तुम आजकल दशान का अभ्यास करते ो या न ींि? गोपी - ब ुत कम। इसी दवु विा में पडा ुआ ूँ कक राष्ट्रीय सेवा का मागा ग्र ण करूँ या सत्य की खोज में जीवन व्यतीत करूँ । अमर - राष्ट्रीय ससिं ्थानों में सग्म्ममलत ोने का समय अभी तमु ् ारे मल न ीिं आया। अभी तमु ् ारी उम्र ी क्या ै? जब तक ववचारों में गाम्भीया और मसद्धांितों पर दृढ वववास न ो जा , उस समय तक के वल षों णक आवेशों के वशवती ो कर ककसी काम में कू द पडना अच्छी बात न ी।िं राष्ट्रीय सेवा बडे उत्तरदातयत्व का काम ै। 2 गोपीनाथ ने तनचय ककया कक मैं जातत-सेवा में जीवनषों पे करूँ गा। अमरनाथ ने भी य ी फै सला ककया कक मंै म्यतु नमसपैमलटी मंे अवय जाऊँ गा। दोनों का परस्पर ववरोि उन् ें कमा-षों ते ्र की ओर खीचिं ले गया। गोपीनाथ की साख प ले ी से जम गम थी। घर के िनी थे। शक्कर और सोने-चाँदी की दलाली ोती थी। व्यापाररयों मंे उनके वपता का बडा मान था। गोपीनाथ के दो बडे भाम थ।े व भी दलाली करते थे। परस्पर मेल था, िन था, संितानें थी। अगर न थी तो मशषों ा और मशक्षषों त समदु ाय मंे गणना। व बात गोपीनाथ की बदौलत प्राप्त ो गम। इसमल उनकी स्वच्छिं ता पर ककसी ने आपग्त्त न ीिं की, ककसी ने उन् े िनोपाजना के मल मजबूर न ीिं ककया। अत व गोपीनाथ तनग्चंति और तनद्ावंिद्व ो कर राष्ट्र-सेवा मंे क ींि ककसी अनाथालय के मल चदिं े जमा करते, क ींि ककसी कन्या-पाठशाला के मल मभषों ा माँगते कफरत।े नगर की काग्रेस कमेटी ने उन् ें अपना मंित्री तनयुक्त ककया। उस समय तक काग्रेस ने कमषा ों ते ्र मंे पदापणा न ींि ककया था। उनकी कायशा ीलता ने इस जीणा सिसं ्था का मानो पुनरुद्धार कर हदया। व प्रातः से सिंध्या और ब ुिा प र रात तक इन् ीिं कामों मंे मलप्त र ते थ।े चिंदे
का रग्जस्टर ाथ मंे मलये उन् ंे तनत्यप्रतत साझँ -सवरे े अमीरों और रमसों के द्वार पर खडे देखना क सािारण दृय था। िीरे-िीरे ककतने ी युवक उनके भक्त ो ग । लोग क त,े ककतना तनःस्वाथ,ा ककतना आदशावादी, त्यागी, जातत-सेवक ै। कौन सुब से शाम तक तनःस्वाथा भाव से के वल जनता का उपकार करने मल यों दौड-िूप करेगा? उनका आत्मोत्सगा प्रायः द्ववे षयों को भी अनरु क्त कर देता था। उन् ंे ब ुिा रमसों की अभरता, असज्जनता, य ाँ तक कक उनके कटु शब्द भी स ने पडते थे। उन् ें अब ववहदत ो गया कक जातत-सेवा बडे अिंशों तक के वल चंिदे माँगना ै। इसके मल ितनकों की दरबारदारी या दसू रे शब्दों में खुशामद भी करनी पडती ै, दशना के उस गौरवयकु ्त अध्ययन और इस दानलोलपु ता मंे ककतना अंितर था? क ाँ ममल और कंे ट; स्पेन्सर और ककड के साथ कांित मंे बठै े ु जीव और प्रकृ तत के ग न गढू ववषय पर वाताालाप और क ाँ इन अमभमानी, असभ्य, मखू ा व्यापाररयों के सामने मसर झुकनाय व अंितःकरण से उनसे घणृ ा करते थ।े व िनी थे और के वल िन कमाना चा ते थे। इसके अततररक्त उनमें और कोम ववशेष गणु न था। उनमें अधिकांशि ीसे थे ग्जन् ोंने कपट-व्यव ार से िनोपाजना ककया था। पर गोपीनाथ के मल व सभी पूज्य थे, क्योंकक उन् ीिं की कृ पादृग्ष्ट पर उनकी राष्ट्र-सेवा अवलग्म्बत थी। इस प्रकार कम वषा व्यतीत ो ग । गोपीनाथ नगर के मान्य पुरुषों में धगने जाने लगे। व दीनजनों के आिार और दु खयारों के मददगार थ।े अब व ब ुत कु छ तनभीक ो ग थे और कभी-कभी रमसों को भी कु मागा पर चलते देख कर फटकार हदया करते थे। उनकी तीव्र आलोचना भी अब चिदं े जमा करने मंे उनकी स ायक ो जाती थी। अभी तक उनका वववा न ुआ था। व प ले ी से ब्रह्मचया व्रत िारण कर चकु े थे। वववा करने से साफ इनकार ककया। मगर जब वपता और अन्य बंिि ुजनों ने ब ुत आग्र ककया, और उन् ोंने स्वयंि कम ववज्ञान-ग्रिथं ों में देखा कक इंिहरय-दमन स्वास्थ्य के मल ातनकारक ै, तो असमंजि स में पड।े कम फ्ते सोचते ो ग और व मन में कोम बात पक्की न कर सके । स्वाथा और
परमाथा मंे सघिं षा ो र ा था। वववा का अथा था अपनी उदारता की त्या करना, अपने ववस्ततृ हृदय को सकंि ु धचत, न कक राष्ट्र के मल जीना। व अब इतने ऊँ चे आदशा का त्याग करना तनदिं ्य और उप ासजनक समझते थे । इसके अततररक्त अब व अनेक कारणों से अपने को पाररवाररक जीवन के अयोनय पाते थ।े जीववका के मल ग्जस उद्योगशीलता, ग्जस अनवरत पररश्रम और ग्जस मनोवगृ ्त्त की आवयकता ै, व उनमें न र ी थी। जातत-सेवा मंे भी उद्योगशीलता और अध्यवसाय की कम जरूरत न थी, लेककन उनमंे आत्म-गौरव का नन न ोता था। परोपकार के मल मभषों ा माँगना दान ै, अपने मल पान का क बीडा भी मभषों ा ै। स्वभाव में क प्रकार की स्वच्छंि ता आ गम थी। इन त्रुहटयों पर परदा डालने के मल जातत-सेवा का ब ाना ब ुत अच्छा था। क हदन सरै करने जा र े थे कक रास्ते मंे अध्यापक अमरनाथ से मुलाकात ो गम। य म ाशय अब म्युतनमसपल बोडा के मितं ्री ो ग थे और आजकल इस दवु विा मंे पडे ु थे कक श र मंे मादक वस्तओु ंि के बेचने का ठीका लँू या न लँू। लाभ ब ुत था, पर बदनामी भी कम न थी। अभी तक कु छ तनचय न कर सके थ।े इन् ें देख कर बोले - कह लाला जी, ममजाज अच्छा ै नय आपके वववा के ववषय मंे क्या ुआ? गोपीनाथ ने दृढता से क ा - मेरा इरादा वववा करने का न ींि ंै। अमरनाथ - ीसी भलू न करना। तुम अभी नवयुवक ो, तमु ् ें सिसं ार का कु छ अनुभव न ींि ै। मनंै े ीसी ककतनी ममसालें देखी ै, ज ाँ अवववाह त र ने से लाभ के बदले ातन ी ुम ै। वववा मनषु ्य को समु ागा पर रखने का सबसे उत्तम सािन ै, ग्जसे अब तक मनषु ्य ने आववष्कृ त ककया ै। उस व्रत से क्या फायदा ग्जसका पररणाम तछछोरापन ो। गोपीनाथ ने प्रत्युत्तर हदया - आपने मादक वस्तओु िं के ठीके के ववषय मंे क्या तनचय ककया?
अमरनाथ - अभी तक कु छ न ीिं। जी ह चकता ै। कु छ न कु छ बदनामी तो ोगी ी। गोपीनाथ - क अध्यापक के मल मंै इस पेशे का अपमान समझता ूँ. अमरनाथ - कोम पेशा खराब न ींि ै, अगर ममानदारी से ककया जा । गोपीनाथ - य ाँ मेरा आपसे मतभेद ै। ककतने ी ीसे व्यवसाय ंै ग्जन् ें क सुमशक्षषों त व्यग्क्त कभी स्वीकार न ीिं कर सकता। मादक वस्तुओंि का ठीका उनमें क ै। गोपीनाथ ने आ कर अपने वपता से क ा - मैं कदावप वववा न करूँ गा। आप लोग मुझे वववश न करें, वरना पछताइ गा। अमरनाथ ने उसी हदन ठीके के मल प्राथना ापत्र भेज हदया और व स्वीकृ त भी ो गया। 3 दो साल ो ग ंै। लाला गोपीनाथ ने क कन्या-पाठशाला खोली ै और उसके प्रबिंि क ै। मशषों ा की ववमभन्न पद्धततयों का उन् ोंने खूब अध्ययन ककया ै और इस पाठशाला में व उनका व्यव ार कर र े ै। श र मंे य पाठशाला ब ुत ी सववा प्रय ै। उसने ब ुत अंिशों मंे उस उदासीनता का पररशोि कर हदया ै जो माता-वपता को पुत्रत्रयों की मशषों ा की ओर ोती ै। श र के गणमान्य परु ुष अपनी लडककयों को स षा पढने भेजते ै। व ाँ की मशषों ा- शैली कु छ ीसी मनोरिंजक ै कक बामलका ँ क बार जाकर मानो मिंत्रमनु ि ो जाती ै। कफर उन् ंे घर पर चैन न ीिं ममलता। ीसी व्यवस्था की गम ै कक तीन-चार वषों में ी कन्याओिं का गृ स्थी के मखु ्य कामों से पररचय ो जा । सबसे बडी बात
य ै कक य ाँ िमा-मशषों ा का भी समुधचत प्रबििं ककया गया ै। अबकी साल से प्रबििं क म ोदय ने अगँ ्रेजी की कषों ा ँ भी खोल दी। क समु शक्षषों त गुजराती मह ला को बबंि म से बलु ाकर पाठशाला उनके ाथ में दे दी ै। इन मह ला का नाम ै आनिंदी बाम। वविवा ै। ह दंि ी भाषा से भली-भाँतत पररधचत न ींि ै; ककिं तु गुजराती मंे कम पसु ्तकें मलख चकु ी ै। कम कन्या-पाठशालाओिं में काम कर चकु ी ै। मशषों ा-संबि िंि ी ववषयों मंे अच्छी गतत ै। उनके आने से मदरसे मंे औऱ भी रौनक आ गम ै। कम प्रततग्ष्ठत सज्जनों ने जो अपनी बामलकाओंि को मिसं रू ी और ननै ीताल भेजना चा ते थे, अब उन् ंे य ाँ भरती करा हदया ै। आनंदि ी रमसों से घरों मंे जाती ैं और ग्स्त्रयों में मशषों ा का प्रचार करती ै। उनके वस्त्राभूषणों से सुरुधच का बोि ोता ै। ंै भी उच्चकु ल की, इसमल श र में उनका बडा सम्मान ोता ै। लडककयाँ उन पर जान देती ंै, उन् ें माँ क कर पकु ारती ंै। गोपीनाथ पाठशाला की उन्नतत देख-देखकर भूले न ीिं समात।े ग्जससे ममलते ै, आनिदं ी बाम का ी गणु गान करते ै। बा र से कोम सुववख्यात परु ुष आता ै, तो उससे पाठशाला का तनरीषों ण अवय कराते ै। आनिदं ी की प्रशिंसा से उन् ंे व ी आनिंद प्राप्त ोता ै, जो स्वयिं अपनी प्रशंिसा से ोता ै। बाम जी को भी दशान से प्रेम ै, और सबसे बडी बात य ै कक उन् ें गोपीनाथ पर असीम श्रद्धा ै। व हृदय से उनका सम्मान करती ै। उनके त्याग और तनष्काम जातत-भग्क्त ने उन् ें वशीभतू कर मलया ै। व मँु पर उनकी बडाम न ीिं करती; पर रमसों के घरों में बडे प्रेम से उनका यशोगान करती ै। ीसे सच्चे सेवक आजकल क ाँ? लोग कीतता पर जान देते ै। जो थोडी-ब ुत सेवा करते ैं, हदखावे के मल । सच्ची लगन ककसी में न ी।िं मंै लाला जी को परु ुष न ींि देवता समझती ूँ। ककतना सरल, सिंतोषमय जीवन ै। न कोम व्यसन, न ववलास। भोर से सायिंकाल तक दौडते र ते ै, न खाने का कोम समय, न सोने का समय। उस पर कोम ीसा न ींि, जो उनके आराम का ध्यान रख।े बेचारे घर ग , जो कु छ ककसी ने सामने रख हदया, चुपके से खा मलया, कफर छडी उठाम और ककसी तरफ चल हद । दसू री औरत कदावप अपनी पत्नी की भातँ त सेवा-सत्कार न ीिं कर सकती।
दश रे के हदन थे। कन्या-पाठशाला मंे उत्सव मनाने की तैयाररयाँ ो र ी थीिं। क नाटक खले ने का तनचय ककया गया था। भवन खबू सजाया गया था। श र के रमसों को तनमंति ्रण हद ग थ।े य क ना कहठन ै कक ककसका उत्सा बढा ुआ था, बाम जी का या लाला गोपीनाथ का। गोपीनाथ सामधग्रयाँ कत्र कर र े थे, उन् ंे अच्छे ढंिग से सजाने का भार आनंदि ी ने मलया था, नाटक भी इन् ींि ने रचा था। तनत्य प्रतत उसका अभ्यास कराती थी और स्वयिं क पाटा ले रखा था। ववजयदशमी और गम। दोप र तक गोपीनाथ फशा और कु मसया ों का इिंतजाम करते र े। जब क बज गया और अब भी व ाँ से न टले तो आनिंदी ने क ा - लाला जी, आपको भोजन करने को देर ो र ी ै। अब सब काम ो गया ै। जब कु छ बच र ा ै, मुझ पर छोड दीग्ज । गोपीनाथ ने क ा - खा लँूगा। मंै ठीक समय पर भोजन करने का पाबिंद न ींि ूँ। कफर घर तक कौन जा । घिंटों लग जा ँगे। भोजन के उपरातंि आराम करने का जी चा ेगा। शाम ो जा गी। आनदिं ी - भोजन तो मेरे य ाँ तैयार ै, ब्राह्मणी ने बनाया ै चल कर खा लीग्ज और य ींि जरा देर आराम भी कर लीग्ज । गोपीनाथ - य ाँ क्या खा लँूय क वक्त न खाऊँ गा, तो ीसी कौन-सी ातन ो जा गी? आनंदि ी - जब भोजन तैयार ै, तो उपवास क्यों कीग्ज गा। गोपीनाथ - आप जा ँ, आपको अवय देर ो र ी ै। मंै काम मंे ीसा भूला कक आपकी सुधि ी न र ी। आनिंदी - मंै भी क जनू उपवास कर लँूगी तो क्या ातन ोगी?
गोपीनाथ - न ींि-न ीिं, इसकी क्या जरूरत ै? मैं आपसे सच क ता ूँ, मैं ब ुिा क ी जून खाता ूँ। आनिंदी - अच्छा, मंै आपके इनकार का माने समझ गम। इतनी मोटी बात अब तक मझु े न सझू ी। गोपीनाथ - क्या समझ गम? मंै छू तछात न ींि मानता। य तो आपको मालमू ी ै। आनदंि ी - इतना जानती ूँ, ककिं तु ग्जस कारण से आप मेरे य ाँ भोजन करने से इनकार कर र े ै, उसके ववषय में इतना तनवदे न ै कक मझु े आपसे के वल स्वामी और सेवक का सिंबिंि न ींि ै। मझु े आपसे आत्मीयता का सबंि ंिि ै। आपका मेरे पान-फू ल को अस्वीकार करना अपने क सच्चे भक्त के ममा को आघात प ुँचाना ै। मैं आपको इसी दृग्ष्ट से देखती ूँ। गोपीनाथ को अब कोम आपग्त्त न ो सकी। जाकर भोजन ककया। व जब तक आसन पर बैठे र े, आनंिदी बठै ी पंिखा झलती र ी। इस घटना की लाला गोपीनाथ के ममत्रों ने यों आलोचना की, म ाशय तो व ींि('व ींि' पर खूब जोर देकर) भोजन भी करते ै। 4 शनैःशनैः परदा टने लगा। लाला गोपीनाथ को अब परवशता ने साह त्य-सेवी बना हदया था। घर से उन् ें आवयक स ायता ममल जाती थी; ककिं तु पत्रों और पत्रत्रकाओिं तथा अन्य अनके कामों के मल उन् ंे घरवालों से कु छ मागँ ते ु ब ुत सकंि ोच ोता था। उनका आत्म-सम्मान जरा-जरा सी बातों के मल भाइयों के सामने ाथ फै लाना अनुधचत समझता था। व अपनी जरूरतंे आप पूरी करना
चा ते थे। घर पर भाइयों के लडके इतना कोला ल मचाते कक उनका जी कु छ मलखने मंे न लगता। इसमल जब उनकी कु छ मलखने की इच्छा ोती तो बेखटके पाठशाला में चले जात।े आनिंदी बाम व ींि र ती थी। व ाँ न कोम शोर था, न गलु । कािंत मंे काम करने मंे जी लगता। भोजन का समय आ जाता तो व ीिं भोजन भी कर लेत।े कु छ हदनों के बाद उन् ंे बैठकर मलखने में असुवविा ोने लगी ( आँखंे कमजोर ो गम थी) तो आनिंदी ने मलखने का भार अपने मसर ले मलया। लाला सा ब बोलते थे, आनिंदी मलखती थी। गोपीनाथ की प्ररेणा से उन् ोंने ह दंि ी सीखी थी और थोडे ी हदनों में इतनी अभ्यस्त ो गम थी कक मलखने में जरा भी ह चक न ोती। मलखते समय कभी-कभी उन् ंे ीसे शब्द और मु ावरे सझू जाते कक गोपीनाथ फडक-फडक उठते, लेख में जान-सी पड जाती। व क ते, यहद तमु स्वयिं कु छ मलखो, तो मझु े ब ुत अच्छा मलखोगी। मंै तो बेगारी करता ूँ। तमु ् े परमात्मा की ओर से य शग्क्त प्रदान ुम ै। नगर के लाल-बुझक्कडों मंे इस स काररता पर टीका-हटप्प णयाँ ोने लगी पर ववद्वज्जन अपनी आत्मा की शुधचता के सामने मष्याा के व्यनंि य की कब परवा करते ै। आनिदं ी क ती - य तो सिसं ार ै, ग्जसके मन में आ , क े; पर मंै उस परु ुष का तनरादर न ींि कर सकती ग्जस पर मेरी श्रद्धा ै। पर गोपीनाथ इतने तनभीक न थे। उनकी सुकीतता का आिार लोकमत था। व उनकी भत्सना ा न कर सकते थ।े इसमल व हदन के बदले रात को रचना करने लगे। पाठशाला में इस समय कोम देखनवे ाला न ोता था। रात की नीरवता में खबू जी लगता। आराम-कु रसी पर लेट जात।े आनंिदी मेज के सामने कलम ाथ में मलये उनकी ओर देखा करती। जो कु छ उनके मखु से तनकलता तुरिंत मलख लेती। उनकी आखँ ों से ववनय और शील, श्रद्धा और प्रेम की ककरण-सी तनकलती ुम जान पडती। गोपीनाथ जब ककसी भाव को मन में व्यक्त करने के बाद आनदंि ी को ओर ताकते कक व मलखने के मल तैयार ै या न ींि, तो दोनों व्यग्क्तयों की तनगा ममलती और आप ी झुक जाती। गोपीनाथ को इस तर काम करने की ीसी आदत पडती जाती थी कक जब ककसी कायवा श य ाँ आने का अवसर न ममलता तो व ववकल ो जाते थ।े
आनंदि ी से ममलने से प ले गोपीनाथ को ग्स्त्रयों का कु छ भी ज्ञान था, व के वल पुस्तकों पर अवलंित्रबत था। ग्स्त्रयों के ववषय में प्राचीन और अवाचा ीन, प्राच्य और पाचात्य, सभी ववद्वानों का क ी मत था - य मायावी, आग्त्मक उन्नतत की बािक, परमाथा की ववरोधिनी, वगृ ्त्तयों को कु मागा मंे ले जानेवाली, हृदय को सकंि ीणा बनानवे ाली ोती ै। इन् ींि कारणों से उन् ोंने इस मायावी जातत से अलग र ना ी श्रेयस्कर समझा था; ककिं तु अब अनुभव बतला र ा था कक ग्स्त्रयाँ सिमं ागा की ओर भी ले जा सकती ै, उनमंे सद्गणु भी ो सकते ै। व कत्तवा ्य और सेवा के भावों को जागतृ भी कर सकती ै। तब उनके मन मंे प्रन उठता कक यहद आनंदि ी से मेरा वववा ोता तो मझु े क्या आपग्त्त ो सकती थी। उसके साथ तो मेरा जीवन बडे आनदिं से कट जाता। क हदन व आनंिदी के य ाँ ग तो मसर में ददा ो र ा था। कु छ मलखने की इच्छा न ुम। आनिंदी को इसका कारण मालूम ुआ तो उसने उनके मसर पर िीरे-िीरे तले मलना शुरू ककया। गोपीनाथ को अलौककक सखु ममल र ा था। मन में प्रेम की तरंिगंे उठ र ी थीिं, नते ्र, मुख, वाणी- सभी प्रेम में पगे जाते थे। उसी हदन से उन् ोंने आनंिदी के य ाँ आना छोडे हदया। क सप्ता बीत गया और न आ । आनदिं ी ने मलखा - आपसे पाठशाला संिबििं ी कम ववषयों में राय लेनी ै। अवय आइ । तब भी न ग । उसने कफर मलखा - मालूम ोता ै आप मुझसे नाराज ैय मनैं े जानबझू कर तो कोम ीसा काम न ीिं ककया, लेककन यहद वास्तव में आप नाराज ै तो मैं य ाँ र ना उधचत न ीिं समझती। अगर आप अब भी न आ िंगे तो मंै द्ववतीय अध्यावपका को चाजा देकर चली जाऊँ गी। गोपीनाथ पर इस िमकी का भी कु छ असर न ीिं ुआ। अब भी न ग । अतंि में दो म ीने तक खचंि े र ने के बाद उन् ें ज्ञात ुआ कक आनदिं ी बीमार ै और दो हदन से ववद्यालय न ीिं आ सकी। तब व ककसी तका या यगु ्क्त से अपने को न रोक सके । पाठशाला में आ और कु छ झझकते, सकु चात,े आनदिं ी के कमरे में कदम रखा। देखा तो चपु चाप पडी ुम थी। मुख पीला था, शरीर घुल गया था। उसने उनकी ओर दयाप्राथी नेत्रों से देखा। उठना चा ा पर अशग्क्त ने उठने न हदया। गोपीनाथ ने आरा कंि ठ से क ा - लेटी र ो, लेटी र ो, उठने की जरूरत न ींि, मैं बैठ जाता ूँ। डाक्टर सा ब आ थे?
ममश्राइन ने क ा - जी ाँ, दो बार आ थे। दवा दे ग ै। गोपीनाथ ने नुसखा देखा। डाक्टरी को सािारण ज्ञान था। नसु खे से ज्ञात ुआ - हृदयरोग ै। औषधियाँ सभी पषु ्टकर और बलवद्धका थी।िं आनिदं ी की ओर कफर देखा। उसकी आँखों से अश्रिु ारा ब र ी थी। उनका गला भी भर आया। हृदय मसोसने लगा। गद्गद ोकर बोले - आनंिदी, तमु ने मुझे प ले इसकी सचू ना न दी, न ीिं तो रोग इतना न बढने पाता। आनंदि ी - कोम बात न ींि ै, अच्छी ो जाऊँ गी, जल्दी ी अच्छी ो जाऊँ गी। मर भी जाऊँ गी तो कौन रोनेवाला बठै ा ै। य क ते-क ते व फू ट-फू टकर रोने लगी। गोपीनाथ दाशातनक था, पर अभी तक उनके मन के कोमल भाव मशधथल न ु थे। किं वपत स्वर से बोले - आिंनदी, सिंसार में कम-से-कम क ीसा आदमी ै जो तमु ् ारे मल अपने प्राण तक दे देगा। य क ते-क ते व रुक ग । उन् ंे अपने शब्द और भाव कु ठ भद्दे और उच्छृ ंि खल से जान पड।े अपने मनोभावों को प्रकट करने के मल व इन सार ीन शब्दों की अपेषों ा क ीिं अधिक काव्यमय, रसपूणा, अनरु क्त शब्दों का व्यव ार करना चा ते थे; पर व इस वक्त याद न पडे? आनदंि ी ने पलु ककत ोकर क ा - दो म ीने तक ककस पर छोड हदया था? गोपीनाथ - इन दो म ीनों में मेरी जो दशा थी, व मंै ी जानता ूँ। य ी समझ लो कक मनैं े आत्म त्या न ीिं की, य ीिं बडा आचया ै। मनैं े न समझा था कक अपने व्रत पर ग्स्थर र ना मेरे मल इतना कहठन ो जा गा। आनिंदी ने गोपीनाथ का ाथ िीरे से अपने ाथ में लेकर क ा - अब तो कभी इतनी कठोरता न कीग्ज गा?
गोपीनाथ - (सधिं चत ोकर) अतिं क्या ै? आनंिदी - कु छ भी ोय गोपीनाथ - कु छ भी ोय अपमान, तनदिं ा, उप ास, आत्मवेदना। आनदंि ी - कु छ भी ो, मंै सब कु छ स सकती ूँ, और आपको भी मेरे ेतु स ना पडगे ा। गोपीनाथ - आनिंदी, मैं अपने को प्रेम पर बमलदान कर सकता ूँ, लेककन अपने नाम को न ीिं। इस नाम को अकलिकं कत रखकर मंै समाज की कु छ सेवा कर सकता ूँ। आनदिं ी - न कीग्ज । आपने सब कु छ त्याग कर य कीतता लाभ की ै, मंै आपके यश को न ीिं ममटाना चा ती। (गोपीनाथ का ाथ हृदयस्थल पर रखकर) इसको चा ती ूँ। इससे अधिक त्याग की आकािंषों ा न ींि रखती? गोपीनाथ - दोनों बातें क साथ सभिं व ैं? आनिंदी - सभिं व ै। मेरे मल संिभव ै। मैं प्रेम पर अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर सकती ूँ। 5 उसके पचात लाला गोपीनाथ ने आनदिं ी की बरु ाम करनी शुरू की। ममत्रों से क ते, उनका जी अब काम में न ींि लगता। प ले की-सी तनदे ी न ींि ै। ककसी से क ते, उनका जी अब य ाँ से उचाट ो गया ै, अपने घर जाना चा ती ै, उनकी इच्छा ै कक मुझे प्रतत वषा तरक्की ममला करे और उसकी य ाँ गिुजं ाइश न ीिं। पाठशाला को कम बार देखा और अपनी आलोचना में काम को
असिंतोषजनक मलखा। मशषों ा, सिगं ठन, उत्सा , सपु ्रबिंि सभी बातों मंे तनराशाजनक षों तत पाम। वावषका अधिवशे न में जब कम सदस्यों नें आनिंदी की वेतन-ववृ द्ध का प्रस्ताव उपग्स्थत ककया तो लाला गोपीनाथ ने उसका ववरोि ककया। उिर आनिंदी बाम भी गोपानाथ के दखु डे रोने लगी। य मनुष्य न ीिं ै, पत्थर का देवता ै। उन् ें प्रसन्न करना दसु ्तर ै, अच्छा ी ुआ कक उन् ोंने वववा न ींि ककया, न ीिं तो दु खया इनके नखरे उठाते-उठाते मसिार जाती। क ाँ तक कोम सफाम और सपु ्रबििं पर ध्यान देय दीवार पर क िब्बा भी पड गया, ककसी कोने-खतु रे में क जाला भी लग गया, बरामदों में कागज का क टु कडा भी पडा ममल गया तो आपके तीवर बदल जाते ै। दो साल मनैं े ज्यों-त्यों करके तनबा ा; लेककन देखती ूँ तो लाला सा ब की तनगा हदनोंहदन कडी ोती जाती ै। ीसी दशा मंे य ाँ अधिक न ीिं ठ र सकती। मेरे मल नौकरी में कल्याण न ींि ै, जब जी चा ेगा, उठ खडी ूँगी। य ाँ आप लोगों से मेल-मु ब्बत ो गम ै, कन्याओंि से ीसा प्यार ो गया ै कक छोडकर जाने को जी न ीिं चा ता। आचया था कक और ककसी को पाठशाला की दशा मंे अवनतत न दीखती थी, वरन ्ु ालत प ले से अच्छी थी। क हदन पडिं डत अमरनाथ की लाला जी से भंेट ो गम। उन् ोंने पछू ा - कह , पाठशाला खूब चल र ी ै न? गोपीनाथ - कु छ न पतू छ । हदनोंहदन दशा धगरती जाती ै। अमरनाथ - आनदंि ी बाम की ओर से ढील ै क्या? गोपीनाथ - जी ा,ँ सरासर। अब काम करने में उनका जी न ीिं लगता। बठै ी ुम योग और ज्ञान के ग्रिथं पढा करती ै। कु छ क ता ूँ तो क ती ै, मैं अब इससे और अधिक कु छ न ींि कर सकती। कु छ परलोक की भी धचतंि ा करूँ कक चौबीस घटिं े पेट के िििं ों मंे लगी र ूँ? पेट के मल पाँच घटिं े ब ुत ै। प ले कु छ हदनों तक बार घिंटे करती; पर व दशा स्थाम न ीिं र सकती थी। य ाँ आकर मनैं े
स्वास्थ्य खो हदया। क बार कहठन रोगग्रस्त ो गम। क्या कमेटी ने मेरा दवा- दपना का खचा दे हदया? कोम बात पछू ने भी न आया? कफर अपनी जान क्यों दँ?ू सुना ै, घरों में मेरी बद ोम भी ककया करती ै। अमरनाथ माममका भाव से बोले - य बातें मुझे प ले ी मालमू थीिं। दो साल और गुजर ग । रात का समय था। कन्या-पाठशाला के ऊपर वाले कमरे में लाला गोपीनाथ मेज के सामने कु रसी पर बैठे ु थे, सामने आनदंि ी कोच पर लेटी ुम थी। मखु ब ुत म्लान ो र ा था। कम ममनट तक दोनों ववचार में मनन थे। अिंत मंे गोपीनाथ बोले - मनंै े प ले ी म ीने में तुमसे क ा था कक मथरु ा चली जाओ। आनिदं ी - व ाँ दस म ीने क्योंकर र ती। मेरे पास इतने रुप क ाँ थे और न तुम् ीिं ने कोम प्रबिंि करने का आवासन हदया। मनंै े सोचा - तीन-चार म ीने य ाँ और य ाँ र ूँ। तब तक ककफायत करके कु छ बचा लँूगी, तुम् ारी ककताब से भी कु छ ममल जा ंिगे। तब मथरु ा चली जाऊँ गी; मगर य क्या मालमू था कक बीमारी भी इसी अवसर की ताक में बठै ी ुम ै। मेरी दशा दो-चार हदन के मल भी सँभली और मंै चली। इस दशा में तो मेरे मल यात्रा करना असंिभव ै। गोपी - मझु े भय ै कक क ीिं बीमारी तूल न खीचिं ।े सगंि ्र णी असाध्य रोग ै। म ीने दो म ीने य ाँ और र ने पड ग तो बात खलु जा गी। आनदिं ी - (धचढकर) खलु जा गी, खुल जा । अब इससे क ाँ तक डरूँ ? गोपीनाथ - मंै भी न डरता अगर मेरे कारण नगर की कम ससंि ्थाओंि का जीवन संिकट में न पड जाता। इसमल बदनामी से डरता से डरता ूँ। समाज के य बंििन तनरे पाखिंड ंै। मंै उन् ें सिंपूणता ः अन्याय समझता ूँ। इस ववषय मंे तुम मेरे ववचारों को भली-भातँ त जानती ो; पर करूँ क्या? दभु ाना यवश मनंै े जातत-सेवा का भार अपने ऊपर ले मलया ै और उसी का फल ै कक आज मझु े अपने माने
ु मसद्धांितों को तोडना पड र ा ै और जो वस्तु मझु े प्राणों से भी वप्रय ै, उसे यों तनवाामसत करना पड र ा ै। ककिं तु आनिदं ी की दशा सँभलने की जग हदनोंहदन धगरती ी गम। कमजोरी से उठना-बैठना कहठन ो गया था। ककसी वदै ्य या डाक्टर को उसकी अवस्था न हदखाम जाती थी। गोपीनाथ दवा ँ लाते थे, आनंदि ी उनका सेवन करती और हदन- हदन तनबला ोता जाती थी। पाठशाला से उसने छु ट्टी ले ली थी। ककसी से ममलती-जलु ती भी न थी। बार-बार चषे ्टा करती कक मथरु ा चली जाऊँ , ककंि तु क अनजान नगर में अके ले कै से र ूँगी, न कोम आगे, न पीछे । कोम क घटूँ पानी देनेवाला भी न ीि।ं य सब सोचकर उसकी ह म्मत टू ट जाती थी। इसी सोच- ववचार और ैस-बैस मंे दो म ीने और गुजर ग और अिंत मंे वववश ोकर आनिंदी ने तनचय ककया कक अब चा े कु छ मसर पर बीत,े य ाँ से चल ी दँ।ू अगर सफर मंे मर भी जाऊँ गी तो क्या धचतंि ा ै। बदनामी तो न ोगी। उनके यश को कलकंि तो न लगेगा। मेरे पीछे ताने तो न सुनने पडेगं े। सफर की तयै ाररयाँ करने लगी। रात को जाने का मु ूता था कक स सा संधि ्याकाल से ी प्रवसपीडा ोने लगी और नयार बजते-बजते क नन् ा-सा दबु ला सतवासँ ा बालक प्रसव ुआ बच्चे के ोने की आवाज सुनते ी लाला गोपीनाथ बेत ाशा ऊपर से उतरे और धगरते-पडते घर भागे। आनदंि ी ने इस भेद को अितं तक तछपा रखा, अपनी दारुण प्रसवपीडा का ाल ककसी से न क ा। दाम को भी सचू ना न दी; मगर जब बच्चे के रोने की ध्वतन मदरसे में गँजू ी तो षों णमात्र मंे दाम सामने आ खडी ो गम। नौकरातनयों को प ले से शंिका ँ थींि। उन् ंे कोम आचया न ुआ। जब दाम ने आनदिं ी को पकु ारा तो व सचते ो गम। देखा तो बालक रो र ा ै। 8 दसू रे हदन दस बजत-े बजते य समाचार सारे श र में फै ल गया। घर-घर चचाा ोने लगी। कोम आचया करता था, कोम घणृ ा करता, कोम ँसी उडाता था। लाला
गोपीनाथ के तछरान्वेवषयों की सिखं ्या कम न थी। पंडि डत अमरनाथ उनके मु खया थे। उन लोगों ने लाला जी की तनदिं ा करनी शुरू की। ज ाँ दे ख व ीिं दो-चार सज्जन बठै े गोपनीय भाव से इसी घटना की आलोचना करते नजर आते थ।े कोम क ता था, इस स्त्री के लषों ण प ले ी से ववहदत ो र े थ।े अधिकाशंि आदममयों की राय मंे गोपीनाथ ने य बरु ा ककया। यहद ीसा ी प्रेम ने जोर मारा था तो तनडर ोकर वववा कर लेना चाह था। य काम गोपीनाथ का ै, इसमें ककसी को भ्रम न था। के वल कु शल-समाचार पछू ने के ब ाने से लोग उनके घर जाते और दो-चार अन्योग्क्तयाँ सुनाकर चले आते थ।े इसके ववरुद्ध आनिदं ी पर लोगों को दया आती थी। पर लाला जी के ीसे भक्त भी थे, जो लाला जी के माथे पर य कलंिक मढना पाप समझते थ।े गोपीनाथ ने स्वयंि मौन िारण कर मलया था। सबकी भली-बरु ी बातंे सुनते थे, पर मँु न खोलते थ।े इतनी ह म्मत न थी कक सबसे ममलना छोड दे। प्रन था, अब क्या ो? आनंदि ी बाम के ववषय मंे तो जनता ने फै सला कर हदया। ब स य थी कक गोपीनाथ के साथ क्या व्यव ार ककया जा । कोम क ता था, उन् ोंने जो कु कमा ककया ै, उसका फल भोगें। आनदंि ी बाम को तनयममत रूप से घर में रखंे। कोम क ता, मंे इससे क्या मतलब, आनदंि ी जानंे और व जानंे। दोनों जसै े के तैसे ंै, जैसे उदम वैसे भान, न उनके चोटी न उनके कान। लेककन इन म ाशय को पाठशाला के अदिं र अब कदम न रखने देना चाह । जनता के फै सले साषों ी न ींि खोजत।े अनुमान ी उनके मल सबसे बडी गवा ी ै। लेककन प.िं अमरनाथ और उनकी गोष्ठी के लोग गोपीनाथ को इतने सस्ते न छोडना चा ते थे। उन् ंे गोपीनाथ से परु ाना द्वषे था। य कल का लौंडा दशान की दो-चार पुस्तकंे उलट-पलटकर, राजनीतत में कु छ शुदबदु करके लीडर बना ुआ त्रबचरे, सनु री ीनक लगा , रेशमी चादर गले में डाले, यों गवा से ताके , मानों सत्य और प्रेम का पुतला ै। ीसे रिंगे मसयाने की ग्जतनी कलम खोली जा , उतना ी अच्छा। जातत को ीसे दगाबाज, चररत्र ीन, दबु ला ात्मा सेवकों से सचते कर देना चाह । पिंडडत अमरनाथ पाठशाला की अध्यावपकाओिं और नौकरों से
त कीकात करते थ।े लाला जी कब आते थे, कब जाते थे, ककतनी देर र ते थे, य ाँ क्या ककया करते थे, तमु लोग उनकी उपग्स्थतत में व ाँ जाने पाते थे या रोक थीिं? लेककन य छोटे-छोटे आदमी, ग्जन् ें गोपीनाथ से सतिं षु ्ट र ने का कोम कारण न था ( उनकी सख्ती की नौकर लोग ब ुत मशकायत ककया करते थ)े इस दरु वस्था में उनके ीबों पर परदा डालने लगे। अमरनाथ ने प्रलोभन हदया, डराया, िमकाया, पर ककसी ने गोपीनाथ के ववरुद्ध साषों ी न दी। उिर लाला गोपीनाथ ने उसी हदन से आनदंि ी के घर आना-जाना छोड हदया। दो फ्ते तक तो व अभाधगनी ककसी तर कन्या पाठशाला में र ी। पंिर वें हदन प्रबिंि क सममतत ने उसे मकान खाली करने की नोहटस दे दी। म ीने भर की मु ल्लत देना भी उधचत न समझा। अब व दु खया क तगंि मकान में र ती थी, कोम पूछनेवाला न था। बच्चा कमजोर, खदु बीमार, कोम आगे न पीछे , न कोम दःु ख का सगंि ी न साथी। मशशु को गोद में मलये हदन के हदन बेदाना-पानी पडी र ती थी। क बहु ढया म री ममल गम थी, जो बतना िोकर चली जाती थी। कभी-कभी मशशु को छाती से लगा रात की रात र जाती; पर िन्य ै उसके ियै ा और संति ोष कोय लाला गोपीनाथ से मँु में मशकायत थी न हदल में। सोचती, इन पररग्स्थततयों मंे उन् ें मझु से परािंमुख ी र ना चाह । इसके अततररक्त और उपाय न ीि।ं उनके बदनाम ोने से नगर की ककतनी बडी ातन ोती। सभी उन पर संिदे करते ै; पर ककसी को य सा स तो न ींि ो सकता कक उनके ववपषों मंे कोम प्रमाण दे सके य य सोचते ु उसने स्वामी अभेदानदिं की क पुस्तक उठाम और उसके क अध्याय का अनुवाद करने लगी। अब उसकी जीववका कमात्र य ी आिार था। स सा िीरे से ककसी ने द्वार खटखटाया। व चौंक पडी। लाला गोपीनाथ की आवाज मालमू ुम। उसने तुरिंत द्वार खोल हदया। गोपीनाथ आकर खडे ो ग और सोते ु बालक को प्यार से देखकर बोले - आनिदं ी, मंै तमु ् ें मँु हदखाने लायक न ींि ूँ। मैं अपनी भीरुता और नतै तक दबु ला ता पर अत्यंित लग्ज्जत ूँ। यद्यवप मैं जानता ूँ कक मेरी बदनामी जो कु छ ोनी थी, व ो चकु ी। मेरे नाम
से चलनवे ाली ससिं ्थाओंि को जो ातन प ुँचनी थी, प ुँच चकु ी। अब असभिं व ै कक मंै जनता को अपना मँु कफर हदखाऊँ और न व मझु पर वववास ी कर सकती ै। इतना जानते ु भी मुझमें इतना सा स न ींि ै कक अपने कु कृ त्य का भार मसर ले लँ।ू मंै प ले सामाग्जक शासन की रत्ती भर परवा न करता, पर अब पग-पग उसके भय से मेरे प्राण तक काँपने लगते ैं। धिक्कार ै मझु पर कक पग-पग पर उसके भय से मेरे प्राण तक कापँ ने लगते ै। धिक्कार ै मुझ पर कक मुझ पर तमु ् ारे ऊपर ीसी ववपग्त्तयाँ पडी, लोकतनदिं ा, रोग, शोक, तनिानता सभी का सामना करना पडा और मंै यों अलग-अलग र ा मानो मझु से कोम प्रयोजन न ीिं ै; पर मेरा हृदय ी जानता ै कक उसको ककतनी पीडा ोती थी। ककतनी ी बार आने का तनचय ककया और कफर ह म्मत ार गया। अब मझु े ववहदत ो गया कक मेरी सारी दाशता नकता के वल ाथी की दातँ थी। मझु मंे कक्रया-शग्क्त न ींि ै; लेककन इसके साथ ी तुमसे अलग र ना मेरे मल असह्य ै। तमु से दरू र कर मंै ग्जिंदा न ीिं र सकता, प्यारे बच्चे को देखने के मल मंै ककतनी ी बार लालातयत ो गया ूँ; पर य आशा कै से करूँ कक मेरी चररत्र ीनता का ीसा प्रत्यषों प्रमाण पाने के बाद तमु ् ंे मझु से घणृ ा न ो गम ोगी। आनदिं ी - स्वामी, आपने मन मंे ीसी बातों का आना मझु पर घोर अन्याय ै। मंै ीसी बवु द्ध- ीन न ींि ूँ कक के वल अपने स्वाथा के मल आपको कलंिककत करूँ । मंै आपको अपना इष्टदेव समझती ूँ और सदैव समझँूगी। मंै भी अब आपके ववयोग-दःु ख को न ींि स सकती। कभी-कभी आपके दशान पाती र ूँ, य ी जीवन की सबसे बडी अमभलाषा ै। इस घटना को पंिर वषा बीत ग ै। लाला गोपीनाथ तनत्य बार बजे रात को आनदंि ी के साथ बठै े ु नजर आते ै। व नाम पर मरते ैं, आनदंि ी प्रेम पर। बदनाम दोनों ै, लेककन आनिंदी के साथ लोगों की स ानभु तू त ै, गोपीनाथ सबकी तनगा से धगर ग ै। ाँ, उनके कु छ आत्मीयगण इस घटना को के वल मानुषीय समझकर अब भी उनका सम्मान करते ैं; ककंि तु जनता इतनी सह ष्णु न ीिं ंै।
रानी सारंधा अँिेरी रात के सन्नाटे में िसान नदी चट्टानों से टकराती ुम। ीसी सु ावनी मालूम ोती थी जसै े घमु रु -घुमुर करती ुम चग्क्कयाँ। नदी के दाह ने तट पर क टीला ै। उस पर क परु ाना दगु ा बना ुआ ै, ग्जसको जगंि ली वषृ ों ों ने घरे रखा ै। टीले के पूवा की ओर छोटा-सा गाँव ै। य गढी और गाँव दोनों क बुिंदेला सरकार के कीतत-ा धचह्न ै। शताग्ब्दयाँ व्यतीत ो गम, बुदंि ेलखिंड के ककतने ी राज्यों का उदय और अस्त ुआ, मुसलमान आ और बुिंदेला राजा उठे और धगरे - कोम गावँ , कोम इलाका ीसा न था, जो इन दवु सा ्थाओिं से पीडडत न ो; मगर इस दगु ा पर ककसी शतु ्र की ववजय-पताका न ल राम और इस गाँव का ववरो का भी पदापणा न ुआ। य उसका सौभानय था। अतनरुद्धमसंि वीर राजपूत था। व जमाना ी ीसा था जब मनुष्यमात्र को अपने बा ुबल और पराक्रम ी का भरोसा था। क ओर मुसलमानों की सेना ँ पैर जमा खडी र ती थींि दसू री ओर बलवान राजा अपने तनबला भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर र ते थ।े अतनरुद्धमसिं के पास सवारों और वपयादों का क छोटा-सा, मगर सजीव दल था। इससे व अपने कु ल और मयादा ा की रषों ा ककया करता था। उसे कभी चैन से बैठना नसीब न ोता था। तीन वषा प ले उसका वववा शीतला देवी से ुआ था; मगर अतनरुद्ध वव ार के हदन और ववलास की रातंे प ाडों मंे काटता था और शीतला उसकी जान की खैर मनाने मंे। व ककतनी बार पतत से अनरु ोि कर चुकी थी, ककतनी बार उसके पैरों पर धगर कर रोम थी तमु मेरी आखँ ों से दरू न ो, मझु े ररद्वार ले चलो, मुझे तुम् ारे साथ वनवास अच्छा ै, य ववयोग अब न ीिं स ा जाता। उसने प्यार से क ा, ग्जद से क ा, ववनय की; मगर अतनरुद्ध बिंदु ेला था। शीतला अपने ककसी धथयार से उसे परास्त न कर सकी।
2 अँिेरी रात थी। सारी दतु नया सोती थी, तारे आकाश मंे जागते थ।े शीतला देवी पलिंग पर पडी करवटें बदल र ी थी औऱ उसकी ननद सारिंिा फशा पर बैठी मिरु से गाती थी - त्रबनु रघुवीर कटत नह िं रैन शीतला ने क ा - जी न जलाओ। क्या तमु ् ंे भी नींिद न ीिं आती। सारंििा - तुन् ें लोरी सुना र ी ूँ। शीतला - मेरी आखँ ों से तो नीदंि लोप ो गम। सारिंिा - ककसी को ढूँढने गम ोगी। इतने मंे द्वार खुला और क गठे ु बदन के रूपवान परु ुष ने भीतर प्रवेश ककया। व अतनरुद्ध था। उसके कपडे भीगे ु थे, और बदन पर कोम धथयार न था। शीतला चारपाम से उतर गम जमीन पर बैठ गम। सारिंिा ने पूछा - भयै ा, य कपडे भीगे क्यों ै? अतनरुद्ध - नदी तरै कर आया ूँ। सारंििा - धथयार क्या ु ? अतनरुद्ध - तछन ग । सारिंिा - और साथ के आदमी?
अतनरुद्ध - सब ने वीर-गतत पाम। शीतला ने दबी जबान से क ा - मवर ने ी कु शल ककया। मगर सारिंिा के तीवरों पर बल पड ग और मखु -मिंडस गवा से सतजे ो गया। बोली - भैया, तमु ने कु ल की मयाादी खो दी। ीसा कभी न ुआ था। सारिंिा भाम पर जान देती थी। उसके मँु से य धिक्कार सनु कर अतनरुद्ध लज्जा और खदे से ववकल ो गया। व वीराग्नन; ग्जसे षों ण भर के मल अनुराग ने दबा मलया था, कफर ज्वलंित ो गम। व उल्टे पावँ लौटा और य क कर बा र चला गया कक सारिंिा, तमु ने मझु े सदैव के मल सचते कर हदया। य बात मुझे कभी न भूलेगी। अँिेरी रात थी। आकाश-मिडं ल में तारों का प्रकाश ब ुत ििुँ ला था। अतनरुद्ध ककले से बा र तनकला। पल भर नदी के उस पार जा प ुँचा और कफर अंििकार में लपु ्त ो गया। शीतला उसके पीछे -पीछे ककले की दीवारों तक आम; मगर जब अतनरुद्ध छलागँ मार कर बा र कू द पडा तो व ववरह णी चट्टान पर बैठ कर रोने लगी। इतने में सारिंिा भी व ींि आ प ुँची। शीतला ने नाधगन की तर बल खा कर क ा - मयादा ा इतनी प्यारी ै? सारंििा - ाँ। शीतला - अपना पतत ोता तो हृदय में तछपा लेती। सारिंिा - ना, छाती में छु रा चभु ा देती। शीतला ने ीिंठकर क ा - चोली में तछपाती कफरोगी, मेरी बात धगर मंे बािँ लो।
सारिंिा - ग्जस हदन ीसा ोगा, मंै भी अपना वचन पूरा कर हदखाऊँ गी। इस घटना के तीन म ीने पीछे अतनरुद्ध म रौनी को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारंििा का वववा ओरछा के राजा चंपि तराय से ो गया, मगर उस हदन की बातंे दोनों मह लाओंि के हृदय-स्थल मंे काँटे की तर खटकती र ी। 3 राजा चिंपतराय बडे प्रततभाशाली परु ुष थे। सारी बिंुदेला जातत उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभतु ्व को मानती थी। गद्दी पर बठै ते ी उन् ोंने मुगल बादशा ों को कर देना बंदि कर हदया और वे अपने बा ुबल से राज्य-ववस्तार करने लगे। मसु लमानों की सने ा ँ बार-बार उन पर मले करती थीिं, पर ार कर लौट जाती थीं।ि य ी समय था कक जब अतनरुद्ध ने सारिंिा का चपिं तराय से वववा कर हदया। सारिंिा ने मँु -मागँ ी मरु ाद पाम। उसकी य अमभलाषा कक मरे ा पतत बुंदि ेला जातत का कु ल-ततलक ो, पूरी ो गम। यद्यवप राजा ने रतनवास में पाचँ रातनयाँ थींि, मगर उन् ें शीघ्र ी मालूम ो गया कक व देवी, जो हृदय में मेरी पूजा करती ै, सारिंिा ै। परिंतु कु छ ीसी घटना ँ ुम कक चपंि तराय को मुगल बादशा का आधश्रत ोना पडा। वे अपना राज्य अपने भाम प ाडमसंि को सौंपकर दे ली चले ग । य शा ज ाँ के शासन-काल का अतिं तम भाग था। शा ाजादा दारा मशको राजकीय कायों को सँभालते थे। युवराज की आखँ ों मंे शील था और धचत्त में उदारता। उन् ोंने चपंि तराय की वीरता की कथा ँ सनु ी थी, इसमल उनका ब ुत आदर- सम्मान ककया और कालपी की ब ुमूल्य जागीर उनको भंेट की, ग्जसकी आमदनी नौ लाख थी। य प ला अवसर था कक चिपं तराय को आ -हदन के लडाम-झगडे
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