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JANKRITI ISSUE 78-80

Published by jankritipatrika, 2022-01-23 18:13:39

Description: JANKRITI ISSUE 78-80

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151 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 गाधं ी जी के योगिशान की आधवनक प्रासंवगकता पिन न्र ससं ्कृ ि एवं प्राच्यदवद्या अध्ययन संस्थान जवाहरलाल नेहरूदवश्वदवद्यालय नई दिल्ली Email [email protected] Mob- 8126745596 सारांश: र्गाधं ी िी का अनासवि योर्ग और एकदश महाव्रत मानि के आध्यावत्मक आिरण तथा उत्कृ ष्ट िररत्र के वनमावण मंे सहायक ह।ै आि हम विस समाि में रहते हैं िहाँा िाररवत्रक पतन और मानिीय संिेदनाओं का ह्रास दखे ने को वमल रहा ह।ै इन सभी विषयों का समाधान र्गांधी िी के योर्गदशवन मंे ढूढं ा िा सकता ह।ै कै से हम समाि में रहते हुये व्यविर्गत पररितवन से समाविक पररितनव की क्ावन्त को िन्म दे सकते ह,ैं ये सारे विषय र्गाधं ी िी के आध्यावत्मक दशनव मंे प्रवतिवम्प्ित होते हैं । हमारा अपने राष्र के प्रवत क्या दावयत्ि है? इसे अर्गर िास्तविक रूप मंे समझना है तो र्गाधं ी िी के योर्गमय वििारों की सकू्ष्मता को िानना भी आिश्यक ह।ै िि तक हम अपने िीिन को योर्गमय नहीं िनायरंे ्गे ति तक हम राष्र के प्रवत कमणव ्यता का भाि विकवसत नहीं कर सकत।े र्गांधी िी का योर्गदशनव समाि के सभी िर्गव के वलये समान रूप से लार्गू होता है विसमें सिके विकास तथा िररत्र के वनमाणव की िात की र्गयी ह।ै िररत्रिान व्यवि ही राष्र को सही वदशा और दशा दने े में सक्षम ह।ै शोध बीज : अनाशवि, योर्गदशवन, महाव्रत, अष्टांर्गयोर्ग, स्िदेशी , स्िधमव, ब्रह्मियव । शोध आलेख भारिीय ज्ञान परम्परा का के न्रदबन्ि अध्यादत्मक दवर्यों का आधार ह।ै भारिीय सादहत्य िथा इदिहास का अध्ययन इस बाि का साक्षी है दक दनत्य आध्यादत्मक गवेर्णा और उस व्यदक्त का सम्यक् आचरण ही उसके सत्यिोधी पदृ थवी-पिों के जीवन का एक माि लक्ष्य होिा ह।ै जीवन को आध्यात्म के वक्षस्थल पर उिार कर ही जीवन की वास्िदवक साधना पणू ष हो पािी ह।ै गाधं ीजी का व्याख्यान सनकर हजारों व्यदक्त ििे सेवा की भावना से प्रेररि होकर िनिनािी गोदलयों के सामने खडे हो गये जो गांधी स्वयं गोली के हृिय वधे ी दवर् को हे ! राम कहकर पी गय,े महावीर और बद्ध ने अिल्य वभै व को छोडकर दिदिक्षा के साथ वनों मंे िप के भाव को स्वीकार दकया। वस्ििः ये सारे दवर्य सामान्य आचरण से सम्भव नहीं हंै अदपि आध्यादत्मक आचार से ही इनकी दसद्ध हो पािी ह।ै आध्यादत्मक आचारण से ही एक दृढ संकल्प का दनमाषण होिा ह।ै आध्यादत्मक आचरण को सामान्य व्यदक्त स्वीकार नहीं कर सकिा क्योंदक उसके दलये मन वाणी और कमष से जीवन को योगमय बनाना पडिा ह।ै योग के दवदभन्न आयामों पर जीवन के चररि की परीक्षा का प्रदिफल ही उसे दसद्ध कमयष ोगी बनाने मंे सहायक होिा ह।ै योगमय जीवन से आध्यादत्मक चररि के दनमाणष में दलये योगीपरुर् बनाने की आवश्यकिा होिी ह,ै और अन्ि मंे वही योगीपरुर् यग-परुर् के रूप में समाज की दििा और ििा पररवदिषि कर ििे ा ह।ै योगी से यग-परुर् बनने की दस्थदि मंे जीवन को सही दििा में दनिदे िि करने के दलये दकसी पथ प्रििकष की आवश्यकिा होिी है अथवा दकसी ऐसे उिीपक की जो हमारे जीवन की दििा बिल सके । गाधं ी जी के आध्यादत्मक चररि का यह एक दविेर् पहलू है जब उनके जीवन में राजचन्र जी का आगमन हुआ था। भारिीय ज्ञान परम्परा मंे गरु- दिष्ट्य परंपरा के अदिररक्त सत्सगं दि और वैचाररक मागिष िषन की उपरोक्त परंपरा भी बहिु ही जीविं रूप से दवद्यमान रही ह।ैं दजसमंे कछ दस्थियों मंे यदि िो व्यदक्तयों के बीच प्रत्यक्ष सवं ाि न भी हो रहा हो, िब उस प्रभावी व्यदक्त के गणििनष वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 151

152 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 से गणग्रहण का आििष सविष ा रहा ह।ै महान दिक्षादवि् दवनोबाभावे द्वारा इसे ‘गणििनष ’ कहा गया था। जनै धमष-ििनष के ग्रंथ समणसत्तं मंे कहा गया है – गणेवह साह अगणेवहऽसाह, वगण्हावह साहगण मं ऽसाह। वियावणया अप्पग-मप्पएणं, जो राग-िोसेवहं समो स पज्जो।। श्रमणधमा सूत्र ७ अथािष ् कोई भी गणों से ही साध होिा है और अगणों से असाध. अिः साध के गणों को ग्रहण करो और असाधिा का त्याग करो ।दनगषण भदक्त काव्यधारा के सिं कबीर जी ने भी एक साध व्यदक्त की संगदि के दवर्य मंे दलखा है दक - संगत कीजै साध की, कभी न वनष्ट्फल होय लोहा पारस परस ते, सो भी कं न होय ।। िोहािली- 623 महात्मा गाधं ी जब इनं लंडै से बैररस्टर की पढाई परू ी कर के लौटे थे िब 1891 ई. मंे पहली बार श्रीमि् राजचन्र से गाधं ी की मलाकाि हुयी थी। राजचन्र जी की िास्त्रीय ग्रन्थों में गढू पकड,दवर्यों के िकाषत्मक प्रदिपािन की िैली ने गांधी जी को इिना प्रभादवि दकया दक उन्होने श्रीमि् राजचन्र को अपने आध्यादत्मक गरू के रूप मंे चना। जबदक राजचन्र जी गाधं ी जी से माि 2 वर्ष ही बडे थ।े जब गाधं ी जी से उनकी पहली मलाकाि हुयी थी िब उनकी उम्र माि 24 वर्ष की थी। जन्म के बाि उनका नाम लक्ष्मीनंिन रखा गया था दजसे चार साल की उम्र में बिलकर उनके दपिा ने रायचिं कर दिया, बाि मंे वे खि को राजचरं कहने लगे जो रायचिं का ससं ्कृ ि रूप ह।ै श्रीमि् राजचरं के बारे मंे कहा जािा है दक उन्हें अपने दपछले कई जन्मों की बािें भी याि थी। उस समय पर उनकी पहचान परंपरागि जनै धमष के मदन के िौर पर नहीं बदल्क आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान िेने वाले संि के रूप में अदधक थी। गांधी जी का आध्यादत्मक साक्षात्कार करने का श्रेय भी राजचन्र जी को ही जािा ह।ै अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग म’े गाधं ी जी ने परू ा एक अध्याय श्रीमि् राजचन्र जी के ऊपर ही दलखा ह।ै थॉमथ वबे र ने के दम्िज दवश्वदवद्यायल से प्रकादिि प्रदसद्ध पस्िक 'गांधी एज़ वडसाइपल एडं मेंटोर' नामक अपनी पस्िक मंे दलखा है दक गांधी जी के जीवन मंे एक समय ऐसा भी आया जब उनका झकाव दहन्िू धमष से हट कर ईसाई िथा इस्लाम धमष के प्रदि हआु था। यहां िक की गाधं ी जी के मन में धमपष ररविनष करने िक का ख्याल भी आया। उस िौर मंे जब गांधी जी धादमषक उलझनों के बीच फं से थे िथा एक प्रकार की अध्यादत्मक और वचै ाररक उथल- पथल से गज़र रहे थे िब श्रीमि राजचंर के िब्िों से उन्हंे िादं ि दमली ।गाधं ी ने दलखा ह,ै \"उन्होंने मझे समझाया दक मैं दजस िरह के धादमषक दवचार अपना सकिा हूँ वो दहिं ू धमष के भीिर मौजूि ह,ैं आप समझ सकिे हंै दक मरे े मन मंे उनके दलए दकिनी श्रद्धा ह\"ै िब उन समस्ि संियों का दनवारण श्रीमि् राजचन्र जी ने ही दकया और साथ ही गाधं ी जी को दहन्िू धमष की महानिा का भी एक गूढ पररचय कराया। इसीदलये गांधी जी ने अपने दमि हने री पॉलक से कहा था दक वे श्रीमि् राजचन्र जी को अपने समय का सवषश्रषे ्ठ भारिीय मानिे ह।ंै अनासवक्त योग और आ ार योग का ज्ञान कई यगों पराना ह।ै वेिों, उपदनर्िों से लके र भगवान कृ ष्ट्ण के योगििनष िथा पिंजदल के योगसूि िक सभी ने मानव जीवन मंे योग की महत्ता का प्रदिपािन दकया ह।ै योग की छाया में मानव अपने आध्यादत्मक चररि के दनमाषण मंे सफल हो पािा ह,ै और साथ ही मानव जीनव के परम लक्ष्यों की खोज में अपनी ज्ञानात्मक चने िा से संसार के उत्थान मंे अपने कमों की दििा का अनकरण करिा ह।ै महदर्ष पिंलदज ने योग की पररभार्ा िेिे हुये दचत्त की वदृ त्तयों के दनरोध को योग माना िथा ‘योगवितिवृ िवनरोधः’(योगसूत्र.1.2) कहकर योगििनष के सूि का प्रणयन दकया। महात्मा गांधी जी वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 152

153 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 का योग ििनष वस्ििः भगवान कृ ष्ट्ण की भगवद्गीिा से काफी प्रभादवि ह।ै भगवान कृ ष्ट्ण ने भी आसदक्त को त्यागकर िथा दसदद्ध और अदसदद्ध मंे समान बदद्धवाला होकर सभी दस्थदियों मंे समत्व का भाव रखने की दस्थदि योग माना ह।ै योगस्थः कर कमाावण सङ् गं त्यक्त्िा धनञ्जय। वसि्ध्यवसद्धयोः समो भतू ्िा समत्िं योग उच्यते।। गीता,2.88 राष्ट्रदपिा महात्मा गॉधं ी ने भी अपने जीवन मंे कई वर्ों िक अनासदक्त योग का पालन दकया ह।ै गाधं ी जी ने भगवद्गीिा का सरल दहन्िी अनवाि दकया अपनी उस पस्िक को उन्होंने ‘अनासदक्त योग’ का नाम दिया। हालादं क महात्मा गांधी जी ने ‘अनासदक्त योग’ की प्रस्िावना की मंे इसे उपदनर्िों का सार स्वीकार दकया ह।ै गाधं ी जी ने इसी ग्रन्थ की प्रस्िावाना में दलखा है दक मझे गीिा का प्रथम पररचय एडदवन अनालष ्ड के पद्य के अनसार सन् 1888-89 मंे हआु था। दजससे गीिा का गजरािी अनवाि पढने की िीव्र इच्छा हयु ी और उसके यथा सम्भव अन्य अनवादिि संस्करणों को भी गांधी जी द्वारा पढा गया। उस समय भी गीिा के उच्चकोटी के संस्कृ ि अऩवाि टीकायें थी, और मेरा ससं ्कृ ि का ज्ञान भी अल्प है दफर भी मैने गीिा का अनवाि करने की धिृ िा क्यों की ? यह प्रश्न स्वयं गांधी जी का खि से था। गाधं ी जी का मानना था दक उन्होंने गीिा को दजस स्िर िक समझा उस स्िर िक उन्होंने खि िथा उनके सादथयों ने गीिा के अनकू ल आचारण करने का प्रयास भी दकया। गाधं ी जी ने गीिा को आध्यादत्मक ग्रन्थ माना िथा स्वीकार दकया दक उसके अनवाि आचरण मंे दनष्ट्फलिा रोज आिी है पर वह दनष्ट्फलिा हमारे प्रयत्न रहिे हुये ह,ै इस दनष्ट्फलिा में सफलिा की फू टिी हुयी दकरणें दिखायी ििे ी ह।ंै यह नन्हा सा समिाय दजस अथष को आचार में पररणि करने का प्रयत्न करिा है वह इस अनवाि मंे ह।ै गांधी जी के आध्यादत्मक आचार के पररविषन में गीिा का एक दविरे ् योगिान रहा ह।ै िास्त्रों के दसद्धान्िों की वास्िदवक सफालिा हमारे आचार के सकारात्मक पररविनष की सवोत्कृ ि सीमा ह।ै जो की गांधी जी के अनासदक्त योग प्रदक्रया में िखे ने को दमलिा ह।ै दसद्धान्ि से आचारण िक की सफलिा ही वस्ििः योग की सवोत्कृ ि प्रदक्रया ह।ै एकािश महाव्रत और अिांग योग आज से हजारों साल पहले महदर्ष पिजं दल योगसूि की रचना की दजसमें योग के द्वारा िरीर, मन और प्राण की िदद्ध िथा परमात्मा की प्रादप्त के दलए आठ प्रकार के साधन बिाये हंै, दजसे अिांग योग कहिे ह।ंै योग के ये आठ अगं हंै - यम, दनयम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समादध। इनमें पहले पांच साधनों का संबधं मख्य रूप से स्थलू िरीर से ह।ै ये सकू्ष्म से स्पिष माि करिे ह,ंै जबदक बाि के िीनों साधन सूक्ष्म और कारण िरीर का गहरे िक स्पिष करिे हएु उसमंे पररष्ट्कार करिे ह।ैं इसीदलए पहले साधनों - यम, दनयम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार को बदहरंग साधन और धारणा, ध्यान िथा समादध को अिं रंग साधन कहा गया ह।ै गांधी जी ने मानव जीवन को मलू ्यवान बनाने के दलये एकािि व्रिों की अवधारणा िी। गांधी जी द्वारा ये व्रि मख्य रूप से ने आश्रम मंे रहने वालों के दलए दनधारष रि थे। ये नयारह व्रि ह।ै अवहंसा सत्य, अस्तेय, िह्म या, असगं ्रह (अपररग्रह) शरीर श्रम, अस्िाि, सिात्र भय िजानं, सिाधमा समानत्ि,ं स्ििेशी, स्पशा भािना। गाधं ी जी ने अदहसं ा, सत्य अस्िेय, िह्मचयष, अपररग्रह, को अिांग योग के पहले चरण यम के भिों से ग्रहण दकया ह।ै तत्रावहंसासत्यास्तेयिह्म याापररग्रहा यमाः । योगसतू ्र,2.30 िरीर श्रम, अस्वाि, सविष भय वजषनम्, सवषधमष सामानत्वम,् स्विेिी, स्पिष भावनाओं को दमलाकर एकाििात्मक महाव्रिों का एक संकल्प िैयार दकया दजससे मानव जीवन को इन आध्यादत्मक उपबन्धों से एक सही दििा दमल सके । गांधी जी द्वारा इन महाव्रिों को इसक्रम मंे रखा गया दक, जो उत्तरोत्तर क्रम में एक िसू रे पर आदश्रि हंै जहां बहिु से महाव्रि वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 153

154 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 एक िसू रे से इस प्रकार सम्बदन्धि है दक, पवू ष महाव्रि को पणू ष दकये दबना अगले महाव्रि की दसदद्ध सम्भव नहीं हो पािी ह।ै 1.अवहसं ा – अदहसं ा सवषिा सवष प्रकार से सब भिू प्रादणयों के प्रदि पीडा िने े का अभाव ह।ै पिञ्जदल ने यम िथा दनयम के दलये अदहसं ा को मूल माना ह।ै “तत्रावहंसा सिाथा सिािा सिाभतू ानामवभरोहः” (योगसत्र,व्यासभाष्ट्य)। उत्तरे च यमदनयमास्िन्मूलास्िदत्सदद्धपरियैव ित्प्रदिपािनाय प्रदिपाद्यन्िे। अदहसं ा के सन्िभष मंे गांधी जी का मानना था दक अप्रादणयों का वध न करना ही इस व्रि के पालन के दलए काफ़ी नहीं ह।ै अदहसं ा का अथष है इस ससं ार मंे दनवास करने वाले सूक्ष्म जिं ओं से लेकर मनष्ट्य िक सभी प्रादणयों के प्रदि एक जसै ा भाव रखना। वस्ििःअदहसं ा नामक इस व्रि का पालन करनेवाला घोर अन्याय करनेवाले के प्रदि भी क्रोध नहीं करेगा, दकन्ि उस पर प्रेमभाव रखगे ा, उसका दहि चाहगे ा और करेगा। दकन्ि प्रमे करिे हुए भी अन्यायी के वि नहीं होगा, अन्याय का दवरोध करेगा, और वसै ा करने में वह जो कि िे उसे धैयषपवू कष और अन्यायी से द्वरे ् दकये दबना सहगे ा । 2.सत्य – महदर्ष पिञ्जदल ने अिागं योग के अन्िगषि यम के भिे ों मंे सत्य की पररभार्ा करिे हुये दलखा - ‘सत्यंा यथाथे िाङ्मनसे यथा दृष्टां तथानुतमतंा यथा श्रुतंा तथा िाङ् गमनश्चेतत’(योगसत्र,व्यासभाष्ट्य)। सत्य यथाथष वाणी और मन मंे अथाषि् जो िेखा गया ह,ै अनमान दकया गया है और सना गया ह।ै ठीक उसी के अनसार रहिा ह।ै गांधी जी ने सत्य के दवर्य में कहा दक व्यवहार में असत्य न बोलना या उसका आचरण न करना ही सत्य का अथष नहीं ह।ै दकन्ि सत्य ही परमेश्वर ह,ै और उसके अलावा और कछ नहीं ह।ै गाधं ी जी का मानना िथा दक इस िरह के सत्य की खोज और पजू ा के दलए ही िसू रे सभी दनयमों की आवश्यकिा रहिी है और उसी मंे से उनकी उत्पदत्त ह।ै इस िरह के सत्य का उपासक और सम्यक् आचारण करने वाला व्यदक्त कभी भी अपने कदल्पि ििे दहि के दलए भी असत्य नहीं बोलगे ा, असत्य का आचरण नहीं करेगा। सत्य के दलए वह सिवै प्रह्लाि के समान मािा दपिा, िथा गरुजनों की आज्ञा को उसके द्वारा अपना धमष समझा जायेगा। 3.अस्तेय -िास्त्रदवदध – दवरुद्ध उपाय से िसू रे का रव्य ग्रहण करना स्िये ह।ै ऐसा न करना िथा इसके प्रदि इच्छा का अभाव होना अस्िये ह।ै पिञ्जदल के योगसूि पर दलखे व्यासभाष्ट्य में विे व्यास ने इसे इसी रूप मे वदणिष दकया है – ‘स्तेयमशास्त्रपिशकंा द्रव्याणाां परतः स्िीकरणां तत्प्रततषेधः पनु रस्पृ ारूपमस्तेयतमतत’(योगसत्र,व्यासभाष्ट्य)। महात्मा गाधं ी जी ने कहा दक इस महाव्रि के पालन के दलए यही काफ़ी नहीं है दक िसू रे की वस्ि उसकी अनमदि के दबना न ली जाय। वस्ि दजस उपयोग के दलए दमली हो, उससे ज्यािा समय िक उद्दशे ्य से दभन्न रूप में उपयोग करना भी एक प्रकार की चोरी ह।ै 4.िह्म या- गप्तदे न्रय उपस्थ के संयम को पिञ्जदल ने िह्मचयष माना ह-ै ‘ब्रह्मचयं गुप्तेतरद्रयस्योपस्थस्य सयां मः’(योगसत्र,व्यासभाष्ट्य)। िह्मचयष के पालन के दबना ऊपर के व्रिों का पालन अिक्य ह।ै िह्मचारी दकसी स्त्री पर कदृदि न करे के वल इिना ही पयाषप्त नहीं ह,ै दकन्ि वह मन से भी दवर्यों का दचन्िन अथवा सेवन न करे। और दववादहि हो िो अपनी पत्नी या अपने पदि के साथ भी दवर्यभोग न करे, दकन्ि उसे दमि समझकर उसके साथ दनमषल सबं ंध रखे। अपनी पत्नी या िसू री स्त्री का अथवा अपने पदि या िसरे परुर् का दवकारमय स्पिष या उसके साथ दवकारमय भार्ण या िसू री दवकारमय चेिा भी स्थूल िह्मम्चयष का भगं ह।ै वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 154

155 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 5.अपररग्रह – दवर्यों में उपाजनष , रक्षण, हादन, आसदक्त िथा दहसं ादि िोर् िखे कर रव्यों को न ग्रहण करना अपररग्रह ह-ै ‘तिषयाणामजशनरक्षणक्षयसङ् गत संा ादोषदशशनादस्िीकरणमपररग्र ’(योगसत्र,व्यासभाष्ट्य)। गाधं ी जी ने अपररग्रह के दवर्यों को अस्िये से भी जोडकर िखे ा ह।ै इसको अलग व्रि मानिे हुये भी अस्िेय को अपररग्रह के साथ सम्मदलि माना ह।ै उनका मानना था दक अनावश्यक वस्ि दजस िरह ली नहीं जा सकिी, उसी िरह उसका सगं ्रह भी नहीं करना चादहये । इसदलए दजस वस्ि की जरूरि न हो, उसका सगं ्रह करना मिलब अपररग्रह के इस व्रि को भगं करना है । उिाहरण के दलये दजसका काम कसी के दबना चल जाए वह कसी न रखे; अपररग्रही प्रदिदिन अपना जीवन और भी सािा करिा जाय । अपररग्रह के िम पर ही व्यदक्त अपनी बेकार की आवश्यकिाओं को धीरे धीरे रोककर एक साधारण जीवन उच्च दवचार की भावना को सदृढ कर सकिा ह।ै 6.अस्िाि – भगवान की बनायी इस सदृ ि में भोग करने सहस्त्रों पिाथष मौजूि ह।ैं उन भोगों का आस्वािन भी सयं म और दनयम से करना जरूरी ह।ै गाधं ी जी ने अस्वाि को एक अलग प्रकार का महाव्रि माना है ।इस महाव्रि के बारे में गांधी जी ने कहा दक मनष्ट्य जब िक जीभ के रसों पर अपनी दवजय हादसल नहीं कर लेगा, िब िक उसके दलये िह्मचयष का पालन करना अदि कदठन ह।ै इसीदलये अस्वाि को अलग व्रि माना गया ह।ै जीवन में सयं म का स्थान ऐसे दवर्यों के प्रदि आदत्मक मजबूिी को धारण करने से भी ह।ै वस्ििः भोजन आदि भोग के दवर्य के वल िरीरयािा के दलये ही हो, भोग के दलये कभी नहीं। इसदलए उसे और्ध समझकर संयमपूवकष लेने की जरुरि ह।ै इस व्रि का पालन करनवे ाला, ऐसे मसाले वगैरह का त्याग करेगा, जो दवकार उत्पन्न करें। मांसाहार, िबं ाकू , भागं इत्यादि का आश्रम मंे दनर्ेध ह।ै इस व्रिमंे स्वाि के दलए उत्सव या भोजन के समय अदधक दखलाने के आग्रह का दनर्ेध ह।ै 7.स्ििशे ी – अपने ििे िथा ििे वादसयों के प्रदि अनराग की भावना का भी व्रि का संकल्प सिैव हमारे मन मंे सकं दल्पि होना चादहय।े यह भारि ििे जैसा हमारा स्विेि सिैव वन्िनीय ह।ै िन्िे सिा स्ििेशं एतादृशं स्ििेशम।् गङं ् गा पनावत भालं रेिा कवटप्रिेशम् ।। (गीत.प्रो.अवभराजराजेन्र वमश्र) गांधी जी ने स्वििे महाव्रि को वदणिष करिे हयु े दलखा दक मनष्ट्य सवषिदक्तमान प्राणी नहीं ह।ै इसदलए वह अपने पडोसी की सेवा करने मंे जगि की सेवा करिा ह।ै इस भावना का नाम स्विेिी ह।ै जो अपने दनकट के लोगों की सेवा छोड़कर िरू वालों की सेवा करने या लेने को िौड़िा ह,ै वह स्विेिी को व्रि को भंग करिा ह।ै इस भावना के पोर्ण से ससं ार सव्यवदस्थि रह सकिा ह।ै उसके भगं में अव्यवस्था घसी हुई ह।ै आज हम चाईनीज समानों का बदहष्ट्कार इस िम पर कर पा रहे हंै क्योंदक हम कछ स्िर िक अपने इस व्रि को समझने लगे हंै गाधं ी जी का यह िादकष क वाक्य वस्ििः आदज सादबि हो रहा है जब उन्होंने कहा था दक इस दनयम के आधार पर, जहाँ िक बने, हम अपने पडोस की िकान से व्यवहार रख;ें ििे मंे जो वस्ि बनिी हो या सहज ही बन सकिी हो, उसे दविेि से न लाय।ंे गांधी जी ने अपने िेि में बनी खािी को काफी महत्त्व दिया । दहन्िी के प्रदसद्ध कदव सोहनलाल दद्वविे ी ने इस अपने एक गीि के माध्यम से खािी को आधार बनाकर स्विेिी के प्रदि अपने भावों को इस प्रकार वदणिष दकया ह।ै खािी के धागे-धागे मंे अपनेपन का अवभमान भरा, माता का इसमंे मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा। (खािी गीत. सोहनलाल द्विेिी) स्वििे ी में स्वाथष को स्थान नहीं ह।ै कटम्ब को, िेि के दलए िहर को और जगि के कल्याण के दलए िेि को बदलिान कर दिया जाय। वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 155

156 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 8.अभय - गांधी जी ने इस महाव्रि को ‘सिात्र भय िजानम’् के रूप मंे वदणिष दकया है। गांधी जी ने कहा दक आप सत्य, अदहसं ा आदि व्रिों का पालन दबना दनभयष िा के नहीं कर सकिे ह।ैं जो सत्यपरायण रहना चाहिा ह,ै वह न जादि से, दबरािरी से, न सरकार स,े न चोर से, न गरीबी से और न मौिसे डरिा ह।ै हाल में जहाँ सविष भय व्याप रहा है, वहाँ दनभयष िा का दचन्िन और उसकी दिक्षा अत्यन्ि आवश्यक होने से, उसे व्रिों में स्थान दिया गया ह।ै 9.अस्पृश्यता – गांधी जी ने अपने समय में िेखा दक उस समय समाज मंे छू आ-छू ि चरम पर था उच्च वगष के लोगों द्वारा दनम्न वगष के लोगों पर जादि गि अस्पशृ ्यिा का प्रभाव काफी प्रभावी हो चका था । स्मदृ ि ग्रन्थों मंे वदणषि िाह्मण क्षदिय, वशै ्य िरू ों के किषव्य कहीं न कहीं समाज मंे अस्पशृ ्िा के प्रदि रूढीवािी दवचारों का आधार बना। जहां दकसी एक वगष दविेर् को अदधक महत्त्व के साथ वदणषि दकया गया वहीं िसू रे वगष को क्रमिः उससे नीचे के महत्त्व के साथ वदणिष दकया गया। एकमेि त शूरस्य प्रभः कमा समाविशत।् एतेषामेि िणानां शश्रूषामनसूययाः।। मनस्मृवत,1.91 दहन्िू धमष में अस्पशृ ्यिा की रूदढ़ ने जड़ जमा ली थी । गाधं ी जी ने इस अस्पशृ ्यिा को धमष नहीं अदपि अधमष की संज्ञा िी ह,ै िथा अस्पशृ ्यिा-दनवारण को अपने दनयम मंे स्थान दिया गया ह।ै अस्पशृ ्य माने जािे लोगों के दलए िसू री जादियों के बराबर ही आश्रम में स्थान ह।ै आश्रम में जादिभेि को स्थान नहीं ह।ै मान्यिा ऐसी है दक जादिभिे से दहिं धमष का नकसान हुआ ह।ै उसमंे दछपी हुई ऊँ चनीच और छू आ-छू ि की भावना अदहसं ा धमष के दलये भी घािक ह।ै 10.समानता गाधं ी जी ने दजस आश्रम व्यवस्था की कल्पना की उसमंे समानिा का आपना दविरे ् महत्त्व ह।ै अपने इस व्रि के साथ गाधं ी जी ने ‘सिाधमा समानत्िम’् की भावना को समाज के लोगों िक पहुचं ाया। साथ ही दजस आश्रम के दलये इस महाव्रि की अवधारणा को दवकदसि दकया उसमंे दबना दकसी भेि भाव के सभी वगष, वणष के लोग एक साथ रह सकिे थ।े गांधी जी ने समाज में फै ली रूदढयों असमानिाओं को िरू करने का प्रयत्न दकया िथा गण, कमष को आधार बनाकर समानिा का दवचार प्रकट दकया । चािवषण्यष से प्रभादवि मानदसकिा वाले समाज मे गांधी जी ने जन्मजाि श्रषे ्ठिा को स्वीकार न करिे हयु े गीिा में वदणिष कमष और गणों से श्रषे ्ठिा को प्राप्त करने का उपििे दिया। ातिाण्यं मया सिृ ं गणकमाविभागशः। तस्य कताारमवप मां विि्ध्यकताारमव्ययम।् । गीता4.13 सवषधमष सद्भाव के साथ आश्रम की ऐसी मान्यिा है दक जगि में प्रचदलि प्रख्याि धमष सत्य को व्यक्त करनवे ाले ह।ै हमारे मन मंे अपने धमष के दलए जसै ा मान है, वैसा ही प्रत्येक धमष के दलए रखना चादहए। जहाँ ऐसा समभाव हो वहाँ एकिसू रे के धमष का दवरोध सभं व नहीं होिा, और न परधमी को अपने धममष ंे लाने का प्रयत्न सभं व होिा ह।ै दकन्ि यही प्राथषना और यही भावना दनत्य रखनी उदचि है दक सभी धमों के िोर् िरू हों । 11.शारीररक श्रम - महात्मा गांधी जी द्वारा िारीररक श्रम का समाविे अपने इस महाव्रि में काफी बाि मंे दकया गया । गांधी की का मानना था दक मनष्ट्य को सामादजक रोह से बचने के दलये िारीररक श्रम अवश्य करना चादहये। साथ ही गाधं ी जी इस बाि के दलये ज्याि प्ररे रि करिे थे दक जो स्त्रीपरुर्ों िारीररक रूप से समथष हंै उनको अपना दनत्य का सारा काम, जो स्वयं ही कर लेने योनय हो, कर लेना चादहए और िसू रे की सवे ा दबना कारण नहीं लेनी चादहए। दकन्ि बालकों वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 156

157 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 की अथवा पंग लोगों की और वदृ ्ध स्त्रीपरुर्ों की सेवा प्राप्त हो िो उसे करने की सामादजक दजम्मिे ारी को उठाना प्रत्यके समझिार मनष्ट्य का धमष ह।ै इस आििष का अवलम्बन करके आश्रम में वही मजिरू रखे जािे ह,ंै जहाँ अदनवायष हो, और उनके साथ मादलकनौकर का व्यवहार नहीं रखा जािा। िारीररक श्रम के मानवीय मनोदवज्ञान को गांधी जी ने अपने महाव्रि मंे समादहि दकया ह।ै वनष्ट्कषा गांधी जी का अनासदक्त योग और एकिि महाव्रि मानव के आध्यादत्मक आचरण िथा उत्कृ ि चररि के दनमाणष में सहायक ह।ै आज हम दजस समाज मंे रहिे हैं वहाँ चाररदिक पिन और मानवीय सवं ेिनाओं का ह्रास िखे ने को दमल रहा ह।ै इन सभी दवर्यों का समाधान गाधं ी जी के योगििषन में ढूंढा जा सकिा ह।ै कै से हम समाज मंे रहिे हुये व्यदक्तगि पररविषन से समादजक पररविनष की क्रादन्ि को जन्म िे सकिे ह,ंै ये सारे दवर्य गांधी जी के आध्यादत्मक ििनष में प्रदिबदम्बि होिे हैं । हमारा अपने राष्ट्र के प्रदि क्या िादयत्व है? इसे अगर वास्िदवक रूप में समझना है िो गांधी जी के योगमय दवचारों की सूक्ष्मिा को जानना भी आवश्यक ह।ै जब िक हम अपने जीवन को योगमय नहीं बनायंेगे िब िक हम राष्ट्र के प्रदि कमषण्यिा का भाव दवकदसि नहीं कर सकि।े गांधी जी का योगििनष समाज के सभी वगष के दलये समान रूप से लागू होिा है दजसमें सबके दवकास िथा चररि के दनमाणष की बाि की गयी ह।ै चररिवान व्यदक्त ही राष्ट्र को सही दििा और ििा िेने मंे सक्षम ह।ै सन्िभा ग्रन्थ सू ी 1. अनािदक्त योग, मोहन िास कमषचन्ि गाधं ी, सस्िा सादहत्य मंडल प्रकािन,2014 2. सत्य के साथ मेरे प्रयोग, महात्मा गांधी, प्रभािप्रकािन,2020 3. मनस्मदृ ि, व्या० स्वामी ििनष ान्िसरस्विी, पस्िक मदन्िर मथरा, स०ं 2019 4. श्रीमद्भनवद्गीिा, गीिा प्रसे गोरखपर,स2ं 024 5. योगििनष , पिञ्जदल, गीिा प्रेस गोरखपर, स.ं 2064 6. पािञ्जलयोगििनष म्,(व्यासभाष्ट्य), चौखम्भा सभारिी प्रकािन,2020 7. िोहावली,िलसीिास,सम्पा हनमान प्रसाि पोद्दार, गीिाप्रसे गोरखपर,2012 8. श्रमणसिू , उपाध्याय अमर मदन, श्रीसन्मदि ज्ञान पीठ आगरा। वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 157

158 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ििोपंत ठेंगड़ी का धमा सम्बन्धी वि ार समीत कमार गप्ता पी.एच.डी. िोधाथी गाधँ ी एवं िांदि अध्ययन महात्मा गाँधी अन्िरराष्ट्रीय दहिं ी दवश्वदवद्यालय, वधाष, महाराष्ट्र सपं कष न.-6386852048, 8604644279 ईमेल:- [email protected] शोध सार:- भारतीय संस्कृ वत ने िीिन के भौवतक और अभौवतक का आध्यावत्मक िीिन मलू ्यों की ऐसी समवन्ित व्यिस्था का विकास वकया ह,ै िो व्यवि को विकास की प्ररे णा दते ी ह।ै भारतीय वहन्दू धमव के िीिन पद्धवत को धमव, अथव, काम और मोक्ष के िार भार्गों में विभावित वकया र्गया ह,ै विसमें धमव का पद सिशव ्रषे ्ठ ह।ै िारों के अपने-अपने वनयत समय पर करने का विवध-विधान भी ह।ै धमव दशे , काल, युर्ग इत्यावद मंे एक सामान िना रहा है वकन्तु कभी-कभी प्राणी को यह ज्ञात करना मवु श्कल हो िाता वक क्या धमव है क्या अधमव है ऐसे समय को धमव संकट कहा िाता है और वफर प्राणी अपने कु ल, अपनी परम्प्परा, अपने रीवत-ररिाि अनसु ार ही उस समय में अपने कायव को सम्प्पावदत करते ह।ै वहन्द/ू सनातन धमव मात्र धमव नही एक िीिन-पद्धवत ह,ै एक िीिन-शलै ी ह,ै िो अवत प्रािीन ह।ै संप्रदाय और धमव में िहतु अंतर ह।ै संप्रदाय एक विशेष काल, विशेष पररवस्थवत मंे वनवमतव व्यिस्था ह,ै इसका कोई न कोई अविष्कारकताव/ससं ्थापक व्यवि है वकन्तु धमव व्यवि के हर पल, हर क्षण वकये र्गए उच्ि मलू ्य को स्थावपत करने िाला कायव है। बीज-शब्ि:- धमव, वहन्दू धमव, संप्रदाय, रािधमव, िीिन-पद्धवत, धमं-वनरपके ्षता आमख ित्तोपंि ठंेगडी ने धमष और धमष-दनरपेक्षिा के दवर्य मंे उसी िरह सोचिे है जसै ा ही हमारे पराणों, उपदनर्िों, और धमष-ग्रंथों में पररलदक्षि दकया गया ह।ै ठंेगड़ी सके लररज्म के दहिं ी अनवाि धमषदनरपेक्षिा िब्ि को भी ससंदकि रूप से िखे िे ह।ै उनका ऐसा मानना है की ‘िब्िों की अपनी एक संस्कृ दि होिी ह’ै दजसके वास्िदवक अथष को समझने के दलए इस ससं ्कृ दि के पररदस्थदिगि और पररविे के संिभों मंे िखे ना आश्यक होिा ह।ै दकसी दविेर् पररदस्थदि, पररविे , दचंिनए व परम्पराओं से उत्पन्न कोई िब्ि और उसकी पूरी संकल्पना को दभन्न राष्ट्रीय-सामादजक पररवेि, परदस्थदियों, परम्पराओ,ं दचंिन एवं ससं ्कृ दिगि सन्िभों पर थोपा नहीं जा सकिा ह।ै संयोग से धमषदनरपेक्षिा िब्ि के भार्ानवाि के साथ ऐसा ही अनथष हआु ह।ै यरू ोप मंे राज्य सिा और चचष सिा के बीच अपने वचषस्व को स्थादपि करने के दलए सघं र्ष हो रहे थे, िभी इस सेकलररज्म(सके लर-स्टेट) या धमष-दनरपके ्ष जैसे िब्ि का दनमाणष हुआ। पोप जब अपने आप को ईश्वर का ििू बिाकर राज्य सत्ता पर भी अपने अदधपत्य को स्थादपि रखना चाहिा था और लोगों में अपने दवचार, स्वििं िा और अदधकारों की मजं रू ी भी पोप से लेनी पड़िी थी, िभी राज्य सत्ता को अपने अदधकार और अदधपत्य वादपस पाने के दलए पोपिंि से संघर्ष करना पड़ा। अिं िः राज्य सत्ता को अपने अदधकार और पोपिंि से आज़ािी दमली। िभी जीवन के समस्ि भौदिक आवश्यकिाओं के दलए राज्यसत्ता अपने कानून और अपने दनयम का दनमाणष दकया िथा राज्य को धमष-दनरपेक्ष की राह पर अग्रसर दकया। चँदू क यूरोप में इसाई धमष का ही वचसष ्व और इसाईयि और राज्यसत्ता में ही सघं र्ष था और यह संघर्ष एक ही धमष के प्रदि उसके ससं ्कृ दि और उसके सपं ्रिाय के प्रदि सघं र्ष रहा। भारि में कभी भी एक धमष और एक ही धमष से सम्बदन्धि कोई भी राज्यसत्ता संचादलि नहीं हईु ह।ै प्राचीन समय से वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 158

159 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 विषमान िक कोई भी राज्यसत्ता, सम्राट अिोक को छोड़कर, दकसी दविरे ् धमष को प्रचाररि, प्रसाररि नहीं दकया। भारि सदियों से धमष और संप्रिाय के दवदभन्निा को बनाएं रखा हुआ ह।ै धमं, ररदलजन का दहिं ी अनवाि है िथा भारिीय ग्रंथो में भी धमष की पररभार्ा के दवर्य में बहुि स्पि नही कहा गया है क्यूंदक धमष िब्ि इिना व्यापक है दक इसकी व्याख्या से ही इसको समझने का प्रयास दकया जा सकिा ह।ै ठंेगडी ने ररदलजन को एक उच्चिर अदृश्य िदक्त के प्रदि आस्था का नाम दिया है जो दकसी दविरे ् पगै म्बर, प्रविषक, दकसी दविरे ् प्रकार की पूजा-अचनष ा पद्धदि और दकसी दविरे ् मान्यिाओं से जडी होिी ह।ै उस दविरे ् परम्परा, पद्धदि, उच्चिर अदृश्य िदक्त के मि को मानने वालों के एक पथ प्रििषक होिे ह,ैं जो उनके आचरण करने वाले या मानने वाले और उसी पद्धदि से पजू ा-अचनष ा एवं उन सभी मान्यिाओं को मानने वालों के दलए स्वगष और न मानने वालों के दलए नरक के िंड का अपराधी मानने का दवधान ह।ै इस प्रकार के धमषदचंिन एकांगी, अहवं ािी और सकं ीणष है जो भेिमूलक धारणा से प्रदिस्फदटि होिी ह,ै यही धारणा मनष्ट्य को जादिगि उच्चिर और दनम्निर वगों में बांटिी ह।ंै इसके दवपरीि धमष की अवधारणा बहुि ही व्यापक ह,ै यह दकसी दविरे ्, पजू ा-अचषना पद्धदि, दकसी दविेर् मान्यिा, दकसी दविेर् मि या उपासना पद्धदि िक ही दसदमि नही रह जािा ह।ै इसके अंिगिष उच्चिर सत्य की प्रादप्त के दलए दकये गए प्रयास का आिर दकया जािा ह,ै दफर चाहे उसका कछ भी नाम क्यों न हो, उसकी कोई भी उपासना पद्धदि क्यों न हो। धमष की वह उिार संकल्पना जहां प्रयके को अपनी आस्था के अनरूप आचारण करने की स्विंििा प्रिान करिी है िथा िसू रों के प्रदि सदहष्ट्णिा की भी सीख प्रिान करिी ह।ै धमष अपने व्यापक स्वरुप में उन सभी मूल्यों और कायों को अपने अंिर समादहि करिा है दजनका लक्ष्य मनष्ट्य माि के उत्थान के दलए दकये जाने वाले समस्ि कायष ह,ै दजनका लक्ष्य लोक-मगं ल, लोक दहि, और लोक कल्याण से सम्बंदधि ह।ै मनष्ट्य जादि का यह दृदिकोण सावकष ादलक ही नहीं अदपि सवषभौदमक एवं सावलष ौदकक भी ह।ै धमष की इस िरह के उिाहरण दबना दकसी भेिभाव, दबना दकसी पक्षपाि के दसफष मानव होने के नािे प्राप्त होिा ह,ै जो दकसी भी सम्प्रिाय, दकसी भी जादि, दकसी भी ससं ्कृ दि, दकसी भी ररदलजन के पजू न और अचनष करने वाले हो, सभी के प्रदि समान व्यव्हार और समान दवकास एवं कल्याण की दृदि होिी ह।ै इसी अथष में धमष को िाश्वि और सनािन कहा जािा ह।ै जो दकसी भी काल मंे, दकसी भी पररदस्थदि म,ंे दकसी भी क्षेि और ररदलजन के हो, बस उसकी कामना मानव माि का कल्याण करना ह।ै इसी से धमष को मानव-धमष कहलािा ह।ै ररदलजन का सम्बन्ध व्यदक्तगि आस्था से ह,ै जो एक दविेर् काल, पररदस्थदि, संस्कृ दि एवं मान्यिा से दनकल कर आई ह,ै दजसकी एक ही पूजन-अचनष पद्धदि है और दजसके अनसरण करने वाले को उसके दनयम और परम्परा को मानना अदनवायष ह।ै दकन्ि धमष को व्यदक्त से समाज िक प्रसार प्राप्त होिा ह,ै धमष व्यदक्तगि के साथ-साथ सामादजक आवरण भी प्राप्त करना होिा है क्यूंदक उसकी संस्कृ दि कल्याणकारी ह,ै उसकी प्रकृ दि मानव-दहि ह,ै उसका दवचार लोक-मगं ल ह।ै सावषभौदमक होने की दस्थदि में उच्च-दनम्न का कोई स्थान नहीं ह।ै धमष जब राजधमष के रूप में िेखा जािा है िो इस धमष के अिं गिष किवष ्य, न्याय, दवदध, लोकदहि, जनकल्याण के साथ- साथ श्रेष्ठ परम्पराओं और जीवन मलू ्यों के रूप मंे प्रिदििष होिा ह।ै राज्य से सम्बदन्धि धमष दवदध से सम्बन्ध रखिा ह,ै दजसमें जन-उत्थान और जनिा की सख-समदृ द्ध के दलए कल्याणकारी दनदि-दनयम को दनदमिष करने के सम्बन्ध में ह।ै लोकदहि में दकये गए राज्य के इस कायष को राजा के दहि में भी है क्यंूदक राजा का दहि उसी में है दजसमें प्रजा का दहि ह।ै वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 159

160 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 यदि प्रजा के आँखों में आंसू है िो राजा की आंखें भी सखी नहीं रह सकिी है और राजा सखी नहीं है िो दफर प्रजा उससे कभी भी सख की और लोकदहि या कल्याण की कामना नहीं कर सकिी ह,ै क्यदूं क जो राजा स्वयं सखी नही रहगें ा वह प्रजा या अन्य दकसी के सख का ध्यान या दनदि-दनमाणष नहीं कर पायगे ा। इस प्रकार का धमष का स्वरुप राजधमष के अंिगषि समादहि ह।ै ित्तोपंि ठंेगड़ी की ही िरह श्री राम जोइस ने भी यह माना है दक “जब धमष िब्ि का का प्रयोग राजा के किषव्यों और अदधकारों के सन्िभष मंे दकया जािा है िो उसका अथष सवं धै ादनक काननू (राज-धमष) से होिा ह।ै ” अिः यह कहा जा सकिा है दक िादं ि और जनिा की समदृ द्ध िथा समिायक्त समाज की स्थापना के दलए धमरष ाज्य की आवश्यकिा ह।ै िब धमष िब्ि राज्य सम्बदन्धि के रूप मंे प्रयोग का के वल एक ही आिय है काननू का िासन कायम करना ह।ै ित्तोपिं ठेंगड़ी का यह मानना है दक धमष के दबना कोई भी राज्य चल ही नहीं सकिा है क्यदूं क धमष अदि सकू्ष्म और कल्याणकारी है और दबना जन-कल्याण कारक के दकसी राज्य का कोई अदस्ित्व ही नहीं माना जािा ह,ै व्यवस्था(िासन/काननू ) चाहे जो भी हो, दजस काल मंे हो, जैसी भी हो, सभी व्यवस्थाओं मंे लोक कल्याण और उच्च जीवन मूल्यों को प्राप्त करना लक्ष्य रखा जािा रहा ह।ै उनका मानना है दक राज्य का धमष दनरपेक्ष होना या राज्य का दनधमी होना सभं व ही नही है क्योंदक राज्य का मलू धमष लोकदहि है और उसमंे दवदध, न्याय, किषव्य, लोकदहि और जन- कल्याण के स्थादयत्व को बनाये रखना ह।ै चँदू क धमष दनरपके ्ष या दनधमी का िात्पयष राज्य दकसी भी धमष से सम्बन्ध नहीं रखेगा और सभी धमों का सम्मान या आिर करेगा। यह अनवाि प्रायः माना जािा है दकन्ि ठेंगड़ी जी इसे संप्रिाय दनरपके ्ष के रूप मंे िेखिे है उनका कहना है दक ‘सवष धमष सम्भाव’ के स्थान पर सवष सपं ्रिाय सम्भाव की दृदि होिी ह।ै उनका कहना है दक सम्पणू ष मानव जादि का िो एक ही धमष है मानवधमष है दकन्ि सप्रियों की दवदभन्निा अलग-अलग होिी ह।ै अलग-अलग संप्रिाय के अलग-अलग दविरे ् पजू ा अचनष ा दवदध होिी ह,ै उनकी दविेर् मान्यिा अलग-अलग होिी ह,ै उन सभी के दविेर् रीदि-ररवाज अलग अलग होिे ह,ैं उनके दविेर् उपासना के दसद्धांि अलग-अलग होिा ह।ै इसदलए सवष धमष सम्भाव नहीं माना जायगे ा, क्यूंदक राज्य धमष के अिं गिष मानव-कल्याण और उनके उच्च जीवन मलू ्यों की प्रादप्त ह।ै दकन्ि सभी संप्रिाय के अपनी-अपनी दविेर् मान्यिा और दविरे ् जीवन-मूल्य ह।ै सनातन धमा/वहन्िू धमा:- सवोच्च न्यायालय के भूिपूवष न्यायधीि श्री गजेन्र गडकर ने कहा है दक “ संसार के िसरे अन्य मजहबों या ररदलजन की िरह दहन्िू धमष का कोई एक पगै म्बर नहीं ह।ै यह दकसी एक िेविा की पूजा का दवधान भी नहीं करिा। दहन्िू धमष दकसी एक िािषदनक अवधारणा का पोर्क ही नहीं है और न ही यह दकसी िरह के उपासना सम्बन्धी कमषकाण्डों या पूजा पद्धदि को अपनाने पर बाि िेिा ह।ै सच िो यह है दक वह दकसी भी मजहब, पथं या मि मिािं र की संकदचि परम्परागि दविरे ्िाओं को स्वीकार नहीं करिा। अिः दहन्िू धमष को िो एक जीवन-यापन की श्रषे ्ठ प्रणाली के अदिररक्त अन्य कछ भी नहीं कहा जा सकिा ह।ै ” सनािन धमष के साथ दहन्िू धमष का प्रयोग दपछले िो हजार वर्ों से दकया जाने लगा ह।ै आदखर सनािन धमष के साथ दहन्िू िब्ि को लगाने की आश्यकिा क्यों पड़ी? इसके उत्तर में ठेंगड़ी जी कहिे है दक जब दवदभन्नि जादिया,ं धादमषक मि- मिान्िरों एवं मान्यिाओं वाले भारि आने लगी िो उन्होंने अपने एक दविेर् पूजा-उपासन, रीदि-ररवाज, मान्यिा, दसद्धांि वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 160

161 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 का उपयोग एवं उसके प्रदि समदपिष नामकरण के साथ दृदि-गोचर हो रहे थे। इसदलए सनािन धमष के साथ दहन्िू िब्ि का प्रयोग दकया जाने लगा, जो उनके मान्यिाओ,ं पजू ा-अचनष ा, जीवन-पद्धदि इत्यादि रखिे थे। वैसे दहन्िू िब्ि दसफष इस बाि का प्रिीक है दक मानव-जीवन के उत्थान की िाश्वि आचार-सदं हिा की संकल्पना सबसे पहले दहन्िओं ने की। दसद्धांिो और आदवष्ट्कारों के नाम जैसे वजै ्ञादनकों- आदवष्ट्कारकों के नाम पर रखा जािा ह,ै जो उसने दकया ह,ै जैसे- न्यटू न का दसद्धािं , फै राडे का दसद्धािं , वसै े ही जीवन-प्रणाली या मानव-जीवन उत्थान की िाश्वि आचार-सदं हिा मंे दहन्िओू ं का नाम सवपष ्रथम रूप में जोड़ा जािा ह।ै इसीदलए सनािन धमष के साथ दहन्िू िब्ि जड़ा हआु ह।ै व्यापक, जिर और सबको साथ लेकर चलने वाली दहन्िू राजनीदि को कभी भी व्यदक्तगि या सम्प्रिायगि दवश्वासों और मान्यिाओं को दकसी पर भी आरोदपि दकया जाये यह दहन्िू धमष को स्वीकार नहीं ह।ै यह धमष सभी सम्प्रिायों के न के वल उनके मान्यिाओं को अपने अपने व्यदक्तगि और समहू गि मनाने की आजािी ही नही ििे ी बदल्क उन्हंे अपने अपने दवश्वासों और मान्यिाओं को अपने दवश्वास और कमष क्षिे में जारी रखने दक प्रेरणा भी ििे ी ह।ै दहन्िू धमष अपनी-अपनी नैदिक- अध्यादत्मक और दवश्वासों को मानन,े उसे बिलने, एक जैसा जो व्यदक्त चाहे वैसा मानने की परू ी छट िेिा ह।ै व्यदक्त दजस दकसी को अपनाकर अपने लक्ष्य और जीवन मूल्यों को प्राप्त कर सके उसका समथनष करिा ह।ै इसी से स्विंििा के बाि भारि दहन्िू बाहुल्य ििे होने बाि भी धमष दनरपेक्षिा के गण को अपनाएं हुए ह।ै भारि आज़ािी के बाि ही इससे अलग हएु िोनों राष्ट्र(पादकस्िान और बांनलािेि) अपने-अपने बाहुल्यिा के साथ धादमकष राज्य के रूप में घोदर्ि दकये हएु ह।ै दहन्िू जन-मानस प्रकृ िया सदहष्ट्ण और सपं ्रिाय दनरपके ्ष ह।ै सभी धमों का सम्मान और उनके मानने वालों के दबच एकिा और सौहाियष का दृदिकोण दहन्िू धमष मंे प्राचीनिम समय से चली आ रही परम्परा के अनसार ही मानिे ह।ै अभी परे ििे में जो दहन्िू जागरण की लहर फै ली है उसे धमष दनरपेक्षिा दवरोधी, रूदढ़वािी, सांप्रिादयक और अल्पसंख्यक दवरोधी दसद्ध करने के जो राष्ट्रव्यापी प्रयास है वह घदृ णि स्वाथों की िच्छ राजनीदि द्वारा सम्पणू ष दहन्िू मानस की घोर उपके ्षा और अवमानना की घदृ णि और िराग्रहपणू ष कचिे ा माि ह।ै वनष्ट्कषा:- दनष्ट्कर्िष ः हम कह सकिे है दक ित्तोपिं ठेंगड़ी ने दजस प्रकार से धमष मी व्याख्या और उसके प्रदि अन्य सपं ्रिाय की भावना और उनके परािन का जो सम्बन्ध है वह अदि प्राचीन ह।ै धमष के वल एक रीदि-ररवाज या दफर एक पजू ा-अचनष ा का माध्यम माि नहीं है बदल्क धमष एक जीवन पद्धदि ह,ै एक समहू बोध है जो आदिकाल से मनष्ट्य के और उनके प्रदि अपने दवचार और व्यव्हार को अलग-अलग रखिे हुए भी सामजं स्य और सहयोग, प्रमे और द्वरे ् से रदहि रहकर, सदहष्ट्ण और सौहाियष के साथ मानव होने नािे रह कर और जीवन के परम लक्ष्यों को प्रादप्त कर सकिे ह।ै उसमें भी दहन्िू धमष की जो व्याख्या उन्होंने पराणों, धमषग्रथं ों में व्याख्यादयि होने वाले स्वरूपों में दकया ह।ै वह अदि सकू्ष्म और मादमकष ह।ै धमष व्यदक्त का व्यदक्तगि भी हो सकिा हऔै र धमष समहू का समूहगि ही हो सकिा ह।ै धमष एक न्याय का स्वरुप ह।ै धमष सत्य की ओर ले जाने वाला साधन ह।ै धमष राज्य के कल्याणकारी कायषक्रम के रूप में भी ह।ै धमष लोकदहि मंे दनदि-दनमाषण करने मंे ह।ै धमष िेि की उन्नदि की ओर ले जाने वाला वह ज्ञान है जो दववके ानंि के स्वरों मंे ह।ै धमष मानव-मानव के प्रमे मंे है और प्रमे ही सदृ ि का आधार स्वरुप ह।ै मानव जीवन की सबसे महत्वपणू ष खोज सत्य की खोज ह,ै और उसी सत्य को खोजने की प्रदक्रया धमष ही ह।ै वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 161

162 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सन्िभा ग्रन्थ सू ी:- 1. ठंेगड़ी,ित्तोपिं .(1994),स्विेिी,स्वििे ी जागरण मंच, नई दिल्ली 2. ठंेगड़ी,ित्तोपंि.(1992),भावी भारि का दनमाणष , नेिनल आगेनाइजिे न ऑफ़ बकंै वकष सष, नागपर 3. ठेंगड़ी,ित्तोपंि.(2011), दवचारिपषण, भारिीय श्रम िोध मंडल, पणे 4. ठंेगड़ी,ित्तोपिं .(1992), दहन्िू राष्ट्र दचिं न, लोकवाणी दप्रंदटंग प्रसे नयाटोला, पटना 5. ठंेगड़ी,ित्तोपंि.(1985), परानी नींव नया दनमाषण, जागदृ ि प्रकािन, गादजयाबाि वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 162

163 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िैविक िाङ्मय मंे वनवहत प्रजातांवत्रक वसद्धान्त ड़ॉ. शम्भ कमार झा सहायकाचायष विे -दवभाग ज.रा.रा.ससं ्कृ ि दवश्वदवद्यालय, जयपर सारांश: प्रिातंत्र, लोकततं ्र, र्गणततं ्र, िनतन्त्र ये शब्द पयावय हंै । संस्कृ त िाङ्मय का प्रारंभ िेद से होता है । िदे में लोकतंत्र के अनके ों संदभव प्राप्त होते हैं । िैवदक लोकतंत्र मंे रािा प्रमुख होता था । रािा एिं रािा से संिवन्धत िस्तओु ं की प्राथनव ा िैवदक सभ्यता में प्राप्त होती ह।ै बीज शब्ि: ससं ्कृ त, िदै , लोकतंत्र, िनतंत्र शोध आलेख प्रजािंि, लोकिंि, गणिंि, जनिन्ि ये िब्ि पयाषय हैं । संस्कृ ि वाङ्मय का प्रारंभ वेि से होिा है । वेि मंे लोकििं के अनेकों संिभष प्राप्त होिे हंै । वैदिक लोकिंि में राजा प्रमख होिा था । राजा एवं राजा से सबं दन्धि वस्िओं की प्राथषना वदै िक सभ्यिा में प्राप्त होिी ह।ै राजा की स्िदि का कारण स्पि करिे हएु आचायष यास्क दनरुक्त में कहिे ह-ंै “यज्ञ संयोगाराजा स्तवतं लभेत । राजसंयोगाि् यद्धोपकरणावन । तेषां रथः प्रथमगामी भिवत ।”1 अथाषि यज्ञ संपािन के कारण राजा की स्िदि की जािी है ऐसे पण्यात्मा राजा के साथ दजस दकसी वस्ि का सबं धं होिा है उसकी भी दस्थदि की जािी है । यज्ञ िब्ि का वैदिक वाङ्मय में अनेक अथष प्राप्त होिा है । संपणू ष वदै िक वांनमय यज्ञ पिाथष का ही दववेचन कर रहा है । प्रकृ ि संिभष मंे यज्ञ का अथष त्याग ह-ै “रव्यं ििे ता त्यागः” राजा और प्रजा िोनों ही त्यागी हो । लोकििं मंे राजा भी प्रथमिः प्रजा है । पारस्कर गहृ ्य सूि में एक मिं पढ़ा गया ह-ै “सोम एि नो राजेमा मानषी प्रजाः।”2 राजा सौम्य स्वभाव वाला हो िो प्रजा भी सौम्य स्वभाव वाली होिी है । चाणक्य नीदि िपणष में भी स्पि रूप से उक्त भाव को प्रकट दकया गया ह-ै रावज्ञ धवमावण धवमाष्ाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनितान्ते यथा राजा तथा प्रजा ॥3 महाभारि के िांदि पवष मंे कहा गया है राजा का व्यवहार प्रजा के दलए आििष होिा है । पराक्रमहीन राजा के राज्य मंे अदधकारीगण प्रजा का अदहि करिे ह-ैं 1 दनरुक्त.9/2/14 2 पारस्कर गहृ ्यसिू 3 चाणक्यनीदि वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 163

164 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 राजा रािसरूपेण व्याघ्ररूपेण मवन्त्रणः। सेिकाः श्वानरूपेण यथा राजा तथा प्रजा ॥1 उक्त प्रकरण मंे आगे कहा गया है प्रजा मे,ं राज्य मंे योग क्षमे व्यादधयाँ, मरण एवं भय आदि का मूल कारण राजा ही होिा ह-ै राजमलू ं महोत्साहो योगिेम सिृियः। प्रजास व्याधयिैि मरणं भयावन ॥ राष्ट्र की उत्पदत्त के दवर्य मंे अथववष ेि में कहा गया है राष्ट्र की उत्पदत्त परमशे ्वर से हईु है । उसने ही सवषप्रथम राष्ट्रीय भावना िी िथा राष्ट्रीय भावना के साथ ही ििओं का सहं ार हो गया- आ ते राष्ट्रवमह रोवहतोऽहाषीि् व्यास्थन्मधृ ो अभयं ते अभूत् ।2 राष्ट्र को सदृढ़ बनाने के दलए कछ दनयम कहे गए ह-ैं “सत्यं बहृ दृतमग्रं िीिा तपो िह्म यज्ञः”3 बृहत्सत्य- सत्य को जीवन के प्रत्यके व्यवहार में अपनाना आवश्यक है । ऋतम् उग्रम-् प्राकृ दिक व्यवस्था का आिर करना । िीिा- लक्ष्य को पूरा करने के दलए कदटबद्ध रहना । तप- िपस्वी जीवन का होना । िह्म- विे का आिर करना, आदस्िक होना, ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना । यज्ञ- प्राकृ दिक सनािन यज्ञ को िेखिे हुए स्वयं को यदज्ञय बनाना त्यागमूलक जीवन व्यिीि करना । सवोत्तम राष्ट्र के दलए आवश्यक है दक उसकी प्रजा िजे बल सम्पन्न हो । राष्ट्र में सख समदृ द्ध के दलए घी, िधू आदि की समदृ द्ध हो । सा नो भूवमवस्त्िवषं बलं राष्ट्रे िधातूिमे । यस्यामापः परर राः समानीरहोरात्रे अप्रमािं िरवन्त । सा नो भूवमभारू रधारा पयो िहामथो उित ि ासा ॥4 राष्ट्र मंे उँच, नीच का भेि नहीं रहना चादहए िथा परस्पर मैिी भाव से प्रजा रहे- “असबं ाधं बध्यतो मानिानाम”् 5 कौदटल्य के अनसार ऊँ चे स्थानों पर नवीन राष्ट्र दवकदसि करना चादहए दजसमंे अन्य िेिों के लोग बसने के दलए प्ररे रि दकए जाए । राष्ट्र के अदधक जनसखं ्या वाले स्थानों से लोगों को बलाकर बसाया जाए परन्ि यहाँ यह ध्यािव्य है दक प्रत्येक ग्राम मंे कम से कम 100 कृ र्क अदधक से अदधक 500 कृ र्क आवश्यक रूप से बसाया जाय । “भूतपिू ामभूतपिू ं िा जनपिं परिशे ापिाहेन स्ििशे ावमष्ट्यन्िनमानेन िा वनिेशयेत् । शरू कषाकप्रायं 1 महाभारि, िादन्िपवष 2 अथवषविे .13/1/5 3 अथववष िे .12/1/1 4 अथववष ेि.12/1/8-10 5 अथववष िे .12/1/2 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 164

165 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 कलशतािरं पञ् शतकलपरं ग्रामं क्रोशवद्वक्रोशसीमानमन्योन्यारिं वनिेशयेत।् ”1 िब्िकल्परूम मंे राष्ट्र का अथष दवर्य बिाया है । वाचस्पत्यम् में प.ं श्री िारानाथ ने राष्ट्र िब्ि का अथष जनपि बिलाया है । दकसी भी राष्ट्र की समदृ द्ध के दलए सभी दवद्वानों ने साि अवयवों की चचाष की है दजसे सप्तागं कहिे हैं । िक्रनीदि के अनसार- सप्तांगमच्यते राज्यं तत्र मूधाा नपृ ः स्मृतः।2 1. स्वामी- राजा 2. अमात्य- मन्िी अथवा परोदहि 3. जनपि या राष्ट्र- भदू म एवं प्रजा 4. िग-ष प्राचीर, खाई एवं राजधानी 5. कोि- आय का स्रोि 6. िण्ड- सने ा सरक्षाकमी 7. दमि- पडोसी राष्ट्र लोकिन्ि अथवा प्रजािन्ि में राजा का चयन प्रमख कायष होिा है । राजा विं परम्परा से हो अथवा योनयिा व पराक्रम से गद्दी पर आसीन हो उभय व्यवस्था मंे प्रजा की सहमदि आवश्यक मानी गई है । ऐिरेय िाह्मण मंे एक आख्यादयका पढी गई है ििनसार- िवे िा व असर यद्ध करिे थे । िेविा असरों से परादजि हो गये । िेवों ने दवचार दकया दक राजा न होने के कारण हम परादजि होिे हैं अिः राजा का चयन करंे । सवषसम्मदि से सोम को अपना राजा बनाया । अथवषविे के ििृ ीय काण्ड के चिथष सूक्त के प्रथम से सप्तम मन्ि िक प्रदक्रया वदणषि है । अथवषविे के अनसार प्रजाएँ िझको राज्यिासन चलाने के दलए राजा बनािी है । िम राज्य के सवोच्च स्थान पर बैठकर िजे स्वीिा के काम करिे हएु प्रजा को यथायोनय धन प्रिान कर । राजा का दनवाषचन सवसष म्मदि से होिा था । िेवों ने सवसष म्मदि से इन्र को राजा बनाया था । विश्वाः पतृ ना अवभभूतरं नरं सजूस्ततिररन्रं जजनि राजसे । क्रत्िा िररष्ं िरं आमररमतोग्रमोवजष्ं तिसं तरवस्िनम् ॥3 राजा का दनवाचष न दनवाचष न सदमदि करिी थी । इस हिे से कहा गया है सदमदि िझे स्थायी राजा बनािी है िू स्थायी और अच्यि होकर ििओं को दनपट कर िथा ििवि् व्यवहार करने वाले को भी नि कर- ध्रिोऽच्यतः प्र मृणीवह शत्रनू ्छत्रयू तोऽधरान् पाियस्ि । सिाा विशः समं नसः सध्री ीध्रािाय ते सवमवत कल्पतावमह ॥4 इन प्रमाणों से स्पि हो जािा है िासक प्रजा प्रसाि यावि ही िासन कर सकिा था । राजा होने के दलए यह आवश्यक माना जािा था दक वह प्रजा का दप्रय व्यदक्त हो । राजा प्रजा को प्रसन्न करने के दलए िथा समथषन प्राप्त करने के दलए प्रयत्निील रहिे थे- एह यात िरणः सोमो अवग्नबाृहस्पवतिासवभरेह यात । 1 कौदटल्य अथषिास्त्र.2/1 2 िक्रनीदि.1/61 3 अथवषवेि.20/54/1 4 अथववष ेि.6/88/3 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 165

166 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 अस्य वश्रयमपसंयात सिं उरस्य.................॥1 दनवाषचन प्रदक्रया के अदिररक्त कछ लोग राजपि को गद्दी का सवषथा अदधकारी मानिे थे । दनवाचष न की पद्ददि को अनदचि समझिे थे । इन िोनों प्रथाओं मंे पयाषप्त संघर्ष की सूचना भी दमलिी है । कभी कभी राजा के पि सम्बन्धी लोग दनवादष चि राजा को पिच्यि कर ििे े थे साथ ही दनवाषदसि भी कर िेिे थे । प्रजा दनवाषदसि राजा को ही चाहिी थी अिः इसके दलए आन्िोलन सघं र्ष आदि करिी थी फलिः प्रजा सफल होकर दनवाषदसि राजा को गद्दी पर बैठािी थी । अथवषविे के ििृ ीय काण्ड मंे इस पर दवस्िार से प्रकाि डाला है । दनवाषचन पद्धदि का दवरोध करने वाले चाहे अपने हो या पराये उनको दिरस्कृ ि करके हटाया जािा था- यस्ते ह्वं वििित् सजातो यि वनियः। अपाञ् वमन्र ते कृ त्िाथेमवमहाय गमय ॥2 प्रजािदन्िक व्यवस्था अत्यन्ि सदृढ थी क्योंदक स्वाथी राजा को अपरुद्ध या दनरुद्ध दकया जा सकिा था । राजा प्रजा की भावना एवं इच्छा पर आदश्रि थे । प्रजा की भलाई न करने वाला राजा प्रजा द्वारा पिच्यि कर दिये जािे थे । ििपथ िाह्मण में ‘ििरीि’ नामक राजवंि की चचाष है जो िसपरुर्वंि परम्परागि राजिासन करने वाले को राज्य से अपरुद्ध कर दिया गया- “ििरीतहा पौंसायनः िशपरषं राज्यापरद्ध आस”3 राजा का किाव्य- राष्ट्र का प्रमख राजा प्रजा के दहि मंे सविष ा कायष करंे । उसकी सूचना भारदव अपने काव्य में ििे े ह-ैं “वक्रयास यक्तै नाृप ार िषैः......” राजा प्रजा के पारस्पररक रोह को िमन करे । राजा का मन प्रजा में लगा रहे इस हिे से उसे ‘नमृ णः’ कहा गया ह-ै “त्िं नृवमनाृमणो....”4 अपरुद्ध राजा यज्ञ याजन करने के बाि पनः सत्ता के योनय होिे थे । पनः सत्ता प्राप्त करने के दलए अनेक प्रकार के यज्ञ वदै िक संदहिाओं मंे वदणषि है । श्रीमद्दवे ी भागवि में कथा आिी है दजसमंे यवराज दववाहमण्डप से एक कन्या का अपहरण कर लिे ा है इस िष्ट्कृ त्य को िखे कर वदिष्ठ की आज्ञा से राजा उस यवराज को राज्य से दनवादष सि कर ििे ा है । इसी पराण मंे एक अत्यन्ि प्रदसद्ध कथा है- इन्र िह्महत्या पाप से व्यदथि होकर प्रायदश्चत्त करने मानसरोवर में कमलनाल में अवदस्थि होकर अदृश्य हो गए । इन्र एक सवोच्च पि है जो ररक्त निी रह सकिा । िेविाओं ने मन्िणा कर सवषसम्मदि से ‘नहरु ्’ को इन्र पि पर प्रदिष्ठादपि कर दिया । नहुर् सत्तासीन होकर उन्मत्त हो गया । वेि एवं वदै िक मागों का दिरस्कार करने लगा । अनाचार यक्त होकर इन्राणी से सम्बन्ध स्थादपि करना चाहा । िेवगरु बहृ स्पदि के आग्रह पर नहरु ् को पिच्यि कर दिया गया । साथ ही नहरु ् का अदस्ित्त्व भी समाप्त हो गया । कथा के दवश्लेर्ण से ज्ञाि होिा है प्रजा 1 अथवषवेि.6/73/1-3 2 अथववष ेि.3/3/6 3 ििपथ िाह्मण 4 अथववष ेि.20/37/3 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 166

167 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सवोपरर है । उद्दण्ड िासक के दलए प्रजािन्ि में कोई स्थान नहीं है । ऐिरेय िाह्मण मंे 9 प्रकार के िासन प्रणादलयों का वणषन है- “राजावधराजाय प्रसह्य सावहने.........स्िवस्त साम्राज्य,ं भोज्यं, स्िराज्य,ं िैराज्यं, पारमेष््य,ं राज्यं महाराज्यमावधपत्यमयं समन्तपयाायी.........”1 1. साम्राज्य- सम्राट के अन्िगिष छोटे राजाओं का िासन । 2. भोज्य- के दन्रय िासन के द्वारा प्रजा के दलए भोजन, आवास, योग-क्षमे की सम्पूणष व्यवस्था । 3. स्वराज्य- प्रजा के प्रदिदनदधयों द्वारा सञ्चादलि । 4. वैराज्य- पचं ों के दनणषय से िादसि व्यवस्था । 5. पारमेष्ठ्य- प्रजा के द्वारा िासन संचालन हिे राजा की दनयदक्त । असन्िि होने पर पिच्यि कर िेना । 6. राज्य- इसमें प्रजा राजा की दनजी सम्पदत्त मानी जािी थी । राजा सवषिन्ि स्विन्ि होिा था । 7. महाराज्य- यह बडा राज्य था । इसके अन्िगषि छोटे-छोटे राज्य होिे थे । 8. आदधपत्यमय- इस िासन मंे राज्यसत्ता अदधकाररयों के हाथ में होिी थी । 9. समन्िपयायष ी- सामन्ि अथािष ् सने ाध्यक्ष सदै नक िासन । दनरंकि िासन होिा है । प्रजा को बहिु िःख उठाने पडिे हंै । इसके अदिररक्त यजवेि के नौवें अध्याय में जनराज्य का उल्लेख प्राप्त होिा है । यह जनिन्ि है । इसमें राज्य के िि नहीं होिे । इसमंे जनिा में श्रषे ्ठ िदक्त होिी ह-ै “इमन्ििे ा असपत्नं सिध्िं महते ित्राय महते ज्यैष््याय महते जानराज्यायेन्रस्ये-वन्रयाय इमममष्ट्य पत्रममष्ट्यै पत्रमस्यै विश एष िोऽमी राजा सोमोऽस्माकं िाह्मणानां राजा।”2 जनराज्य सवोत्कृ ि माना गया है । अथवषविे मंे जनराज्य के राजाओं का सश्रवा से यद्ध हुआ था िथा इस यद्ध मंे जनराज्य के राजा परादजि हएु थे । सम्राट् लोग जनराज्य से द्वेर् करिे थे िथा जनराज्य को सैदनक कायवष ाही कर परास्ि कर ििे े थे । जनराज्य के राजाओं के पास यद्ध की समग्री कम होिी थी अिः इनके सामदू हक प्रयत्न करने पर भी सश्रवा परादजि नहीं हुए । इस यद्ध में 60 हजार 99 सैदनक जनराज्य के मरे थे- त्िमेता जनराज्यो वद्विाशाबन्धना सश्रिसोपजग्मषः। षविं सहस्रा निवतं नि श्रतो वन क्रे ण रथ्या िष्ट्पिािृणक् ॥3 अन्ििः समस्ि प्रमाणों के आधार पर कह सकिे हैं प्रजा रञ्जन ही िासन का प्रमख िादयत्त्व है । अदननपराण मंे राजा की समानिा एक गदभणष ी स्त्री से की गई है । दजस िरह एक गदभषणी स्त्री सभी प्रकार के किों को सहन करके अपनी सन्िान को सखी रखने का प्रयास करिी है ठीक उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा के दहि के दलए अपनी सभी सखों का पररत्याग कर ििे ा है । यथा- 1 ऐिरेय िाह्मण.8/15 2 यजवेि 3 अथववष ेि.20/21/9 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 167

168 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वनत्यं राजा तथा भाव्यं गवभाणी सह धवमाणी । यथा स्िं सखमत्सजृ ्य गभास्य सखमािहेत् ॥1 वाङ्मय का अवलोकन करने पर स्पि हो जािा है दक सत्ता में िेवीयाँ भी भाग ग्रहण करिी थी । िवे ीयों मंे सयू ाष, सरमा, निी, वाक् , सरस्विी, इन्राणी, इडा, वक्िी,वरुणानी, सरण्य,ू उर्ा प्रमख थी । इससे प्रिीि होिा है दस्त्रयों का प्रिासन मंे महत्त्वपूणष स्थान था । कालो िषात पजान्यः पृवथिी सस्यशावलनी । िेशोऽयं िोभरवहतः मानिाः सन्त वनभायाः॥ िजानः सज्जनो भयू ात् सज्जनः शावन्तमाप्नयात् । शान्तोमच्येत बन्धेभ्यो मक्तिान्यावन्िमो येत् ॥ सिे भिन्त सवखनः सिे सन्त वनरामयाः। सिे भरावण पश्यन्त मा कविद्दःखभाग्भिेत् ॥ सिं भा 1. दनरुक्त.9/2/14 2. पारस्कर गहृ ्यसूि 3. चाणक्यनीदि 4. महाभारि, िादन्िपवष 5. अथवषवेि.13/1/5 6. अथववष ेि.12/1/1 7. अथववष ेि.12/1/8-10 8. अथववष िे .12/1/2 9. कौदटल्य अथषिास्त्र.2/1 10. िक्रनीदि.1/61 11. अथवषवेि.20/54/1 12. अथवषविे .6/88/3 13. अथववष िे .6/73/1-3 14. अथववष िे .3/3/6 15. ििपथ िाह्मण 16. अथवषविे .20/37/3 17. ऐिरेय िाह्मण.8/15 18. यजविे 19. अथववष ेि.20/21/9 20. अदननपराण.220/4 1 अदननपराण.220/4 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 168

169 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 बौद्ध सघं के विकास यात्रा मंे राजव्यिस्था जगन्नाथ कमार यािि ररसचष फे लो, बौद्ध अध्ययन दवभाग दिल्ली दवश्वदवद्यालय, दिल्ली ईमेल- [email protected] मोबाइल- 9971648192 सारांश ‘संघ’ िौद्ध धमव के वत्ररत्न में से एक माने िाते ह।ंै ज्यादातर विद्वानों ने िौद्ध दशनव एिं इवतहास तथा पावल भाषा एिं सावहत्य सम्प्िन्धी अध्ययन वकया हैं। िुद्ध के महापररवनिाणव के िाद िौद्ध धमव का मुख्य कंे द्र ‘संघ’ ही था और इसी से इसे एक आकार भी वमला। इसके िाििदू िौद्ध धमव की विवशष्ट विशेषताओं मंे से एक संघ तथा इसके विकास यात्रा को अक्सर नज़रंदाज़ वकया र्गया। सघं को महज़ एक आध्यावत्मक स्थान के रूप मंे पररभावषत वकया र्गया, िो वनिावण प्रावप्त में लर्गे िदु ्ध के अनयु ावययों के वलए महज़ एक आिासीय स्थान था। िि हम इसके विकास यात्रा का अध्ययन करते ह,ंै िो इस शोध कायव का क्षेत्र ह,ै तो सघं महज़ अध्यात्म में उलझा एक समुदाय के रूप में सामने नहीं आता ह,ै िवल्क विवभन्न रािव्यिस्था मसलन- राितन्त्र एिं अल्पततं ्र के समानातं र िलता हुआ अपने र्गंतव्य स्थान यानी र्गणतंत्रात्मक प्रणाली को अपनाता हुआ प्रतीत होता ह।ै दसू रे शब्दों में कहा िाए तो रािव्यिस्था के विवभन्न रूपों से र्गज़ु रता हुआ सघं का विकास यात्रा ही इस शोध कायव का विषय है। बीज शब्ि िौद्ध धमव, सघं , रािव्यिस्था, लोकतंत्र, राितन्त्र, अल्पततं ्र, वभक्षु, समुदाय। प्रस्तािना ‘सघं ’ दभक्ष एवं दभक्षदणयों का एक समिाय ह,ै जहाँ रहकर वह जीवन के मख्य ध्येय ‘दनवाषण’ प्रादप्त की उम्मीि में धादमषक अनष्ठान करिे ह।ैं संघ की कल्पना सभं विः वर्ाषवास से हुआ होगा। बद्ध के समय बाररि के मौसम मंे सभी दभक्षओं को िीन महीने के दलए एक स्थान पर एकदिि हो, इकट्टे रहना अदनवायष था, दजसे वर्ावष ास का नाम दिया गया। बद्ध और बौद्ध दभक्ष पररव्राजक परम्परा से जड़े रहे ह।ैं दजसके िहि व्यदक्त अपनी पाररवाररक जीवन त्याग कर ससं ार की रहस्यमय सत्य के िलाि मंे इधर-उधर घमू िे ह।ंै इससे पवू ष यानी पराने ढगं के पररव्राजकों का कोई संघ नहीं था, उनके अनिासन के दनयम भी नहीं थे और ऐसा कोई आििष भी नहीं था, दजसके दलए उन्हंे प्रयास करना पड़िा। इदिहास में पहली बार िथागि ने अपने दभक्खओं का एक संघ अथवा भ्रािसृ ंघ बनाया, उनके दलए अनिासन के दनयम बनाए और आििष भी दनदश्चि दकए, दजनका उन्हें पालन करना और लक्ष्य प्राप्त करना होिा था।1 िरुआिी िौर मंे मख्यिः कस्बाई क्षिे ों मंे बद्ध या दभक्षओं को िान के रूप मंे दिए गए पाकष (दवहार) से संघ कायष करिा था, जहाँ बद्ध और दभक्ष सदहि 1 डॉ. बी. आर. अम्बडे कर, बद्ध और उनका धम्म, पजे - 359 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 169

170 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 उनके अनयायी उपििे सनने को एकदिि होिे थे। दफ़लहाल हमारा उद्दशे ्य बौद्ध सघं के दवकास के दवदभन्न चरणों मंे मौजूि राजव्यवस्था के बीज का आकलन करना ह।ै लेदकन इससे पहले हमंे राजव्यवस्था के दवदभन्न रूप को जान लने ा भी महत्वपणू ष होगा। यनू ानी दवद्वानों ने राजव्यवस्था को मख्य रूप से िीन भागों में व्याख्या दकया ह-ै पहला- राजिाही(राजिन्ि) यानी एक के द्वारा िासन, िसू रा- अदभजाि वगष (अल्पिंि) यानी समाज के कछ व्यदक्तयों द्वारा सचं ादलि िासन प्रणाली और आदखर में, लोकिंि यानी जनिा का िासन प्रणाली।1 बौद्ध सघं अपने दवकास मंे इन सभी राजकीय व्यवस्था से गजरिे हुए, अिं िः एक लोकििं ात्मक व्यवस्था कायम करिा ह।ै कािी प्रसाि जायसवाल इस बाि को स्थादपि करिे हएु कहिे हंै दक उन्होनें (बद्ध) अपना धादमषक सघं स्थादपि करने में राजनीदिक सघं का नाम और संघटन या रचना-प्रणाली भी ग्रहण की थी।2 सभं विः इसके पीछे एक और वजह रहा होगा दक बद्ध का जन्म एक गणिंिात्मक प्रणाली वाले राज्य में हआु था। जादहर ह,ै यह प्रणाली उन्हें प्रभादवि दकया होगा क्योंदक उस समय यही एक ऐसी व्यवस्था थी, जो समाविे ी एवं बहजु न दहिाय पर आधाररि थी। बौद्ध संघ एक समिाय के रूप मंे: बौद्ध संघ के दवकास मंे प्रथम दभक्ष से दभक्ष संघ के सफ़र का अध्ययन करना उदचि होगा। यह पहले धमोपिेि के साथ िरू होिा ह,ै जब सारनाथ मंे बद्ध द्वारा पाचं दभक्षओं को प्रव्रदजि दकया जािा ह।ै दजसे ‘धम्मचक्कप्पवत्तन’ कहा जािा ह।ै बाि मंे एक वर्ाषवास के िौरान कई लोगों ने एक साथ बद्ध को अपना गरु मान प्रव्रदजि हुआ। उस बाररि के मौसम में िदनया में साठ दभक्षओं की उत्पदत्त हुई। उसे संबोदधि करिे हुए बद्ध ने कहा: “दभक्खओ!ं दजिने भी दिव्य और मानर् बंधन ह,ैं मैं उन सबों से मक्त ह।ूँ िम भी दिव्य और मानर् बन्धनों से मक्त हो। दभक्षओ!ं बहुि जनों के दहि के दलए, बहिु जनों के सख के दलए, लोक पर िया करने के दलए, िवे िाओं और मनष्ट्यों के प्रयोजन के दलए, दहि के दलए, सख के दलए दवचरण करो। एक साथ िो मि जाओ। हे दभक्षओ!ं आदि मंे कल्याण- (कारक), मध्य मंे कल्याण-(कारक) और अंि मंे कल्याण-(कारक) इस धमष का उपििे करो। अथष सदहि व्यजं न-सदहि, के वल (अदमश्र) पररपणू ष पररिद्ध िह्मचयष का प्रकाि करो। अल्प िोर् वाले प्राणी भी ह,ंै धमष के न श्रवण करने से उनकी हादन होगी। सनने से वह धमष के जानने वाले बनंगे े।”3 बद्ध की इस उद्घोर्णा से हमंे पिा चलिा है दक बौद्ध धमष की नीदि अपने स्वाथष की सेवा के दलए नहीं, बदल्क लोगों के सख और लाभ के दलए थी। यह बौद्ध धमष का प्रारंदभक चरण था, जहाँ दकसी िरह की संगठन बनाने की आवश्यकिा नहीं थी। बौद्ध धमष के प्रारंदभक चरण के िौरान बद्ध को दनदश्चि रूप से स्वयं संघ निे ा कहा जा सकिा ह।ै अन्य समाजों की 1 ओ.पी. गाबा, राजनीदि दसद्धांि की रूपरेखा, पेज-33 2 कािी प्रसाि जायसवाल, दहन्िू राज्य-िंि, पेज- 34 3 दवनय दपटक (अनवाि- राहलु साकं ृ त्यायन), पजे -87 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 170

171 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िरह बौद्ध धमष के प्रारंदभक चरण में भी कोई िासकीय दनकाय नहीं था। कानून और कायदष वदध दनधारष रि नहीं थ।े लदे कन सभी दभक्षओं ने सावषभौदमक सत्य का पालन दकया, दजसे उन्होंने अपने जीवन और कायदष वदध के रूप मंे अपनाया था। उनके जीवन का कोई लक्ष्य या उद्देश्य नहीं था, क्योंदक वे सवोच्च लक्ष्य दनवाषण (दनब्बान) प्राप्त कर चके थे। उनके जीवन का उद्दशे ्य सामान्य जन को लाभ पहचुँ ाना था। बौद्ध धमष मंे राजव्यवस्था का कोई रूप नहीं था, लेदकन अगर हम राजव्यवस्था के वगीकरण के साथ प्रारंदभक बौद्ध धमष के कायष पद्धदि की िलना करे िो इसे एक राजिाही (राजिांदिक पद्धदि) के समक्ष खड़ी की जा सकिी ह।ै बद्ध ने सभी दभक्षओं को खि से दनिेदिि दकया और उनके अनयादययों ने उन्हें एक आििे क के रूप में माना। उनके द्वारा जारी की गई नीदि लोगों के दहि और खिी के दलए थी। दभक्षओं ने दबना दकसी दसफाररि, काननू , आििे के बद्ध द्वारा घोदर्ि नीदि के अनसार काम दकया। उनके काम करने का पररणाम बौद्ध दभक्षओं और अनयादययों की वदृ द्ध के रूप में प्रकट हईु और लोगों ने बद्ध के अनसरण में स्वयं को समदपिष कर दिए। इसे हम इस रूप में भी िेख सकिे हैं दक दभक्ष संघ की स्थापना के पहले चरण के िौरान दनणयष लने े की िदक्त दबना दकसी परामिष, वािाषलाप या बैठक के सीधे बद्ध के हाथों में था। इस प्रकार, संघ को चलाने और दनयंदिि करने का एकमाि अदधकार बद्ध के पास ही था। बौद्ध सघं के विकास का िूसरा रण: पहले बद्ध खि ही व्यदक्तयों को उपसंपिा एवं प्रबज्या िेकर दभक्ष या दभक्षणी बनािे थ।े दकन्ि समय के साथ अनयादययों की सखं ्या मंे इजाफ़ा होिा गया, दजससे स्वाभादवक िौर पर दसफष बद्ध द्वारा दकया जाना संभव नहीं रह गया होगा। दजसके कारण दभक्षओं को भी उपसम्पिा और प्रबज्या िेने की अनमदि िी गई। जसै ा दक धम्मचक्कप्पवत्तन सत्त के उपसम्पिा कथा मंे कहा गया ह:ै “उस समय दभक्ष नाना दििाओं से नाना िेिों से प्रिज्या की इच्छाओं वाल,े उपसम्पिा की उपके ्षा वाले आिे थे दक बद्ध उन्हंे प्रिदजि करंे, उपसम्पन्न करें। इससे दभक्ष भी परेिान होिे थे और प्रिज्या और उपसंपिा चाहने वाले भी। ध्यानावदस्थि बद्ध के दचत्त मंे दवचार हुआ दक क्यों न दभक्षओं को ही अनमदि िे िँू, दक हे दभक्ष! िम्हीं उन-उन दििाओं म,ें उन िेिों में जाकर प्रिज्या िो, उपसंपिा करो। उपसंपिा िने े का प्रकार यह ह-ै पहले दसर, िाढ़ी मंडवा, कार्ाय वस्त्र पहना, दभक्षओं की पाि- विं ना करा, उकडूं बठै ा, हाथ जोड़वा कर ‘ऐसे बोलो’ कहना चादहए- ‘बद्ध की िरण जािा ह,ूँ धमष की िरण जािा ह,ूँ सघं की िरण जािा ह।ूँ ’ इन िीन िरणा-गमनों से प्रिज्या और उपसंपिा िेने की अनमदि िेिा ह।ूँ ”1 इस कथन से यह स्पि होिा है दक दभक्ष अन्यों लोगों को प्रिज्या और उपसम्पिा िे सकिा था, दजसे खि की उपसम्पिा प्राप्त दकये कम-से-कम िस साल हो गये थ।े सघं मंे प्रविे का पणू ष अदधकार, जो पहले बद्ध का किषव्य था, जब दभक्षओं को दिया गया वहाँ से बौद्ध सघं का िसू रा चरण िरू होिा ह।ै जैसे-जसै े यह समिाय बढ़िा गया, बौद्ध आिेिानसार प्रत्यके सिस्य को उपसम्पिा समारोह में भाग 1 वहीं, पजे -87-88 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 171

172 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 लने े का समान अदधकार दिया गया। समय बीिने के साथ न के वल संघ में सिस्यों का प्रविे हआु , बदल्क उनके िीदक्षि और पयषवके ्षण की भी आवश्यकिा महससू हुई। यवा दभक्ष को अपनी पसंि के उपििे क चनने की अनमदि िी गयी। यदि इस चरण की िलना दकसी राजनीदिक प्रणाली के साथ दकया जाए िो यह अदभजाि वगष की ओर बढ़ रहा प्रिीि होिा है क्योंदक बौद्ध आििे के मामलों मंे िदक्त एक व्यदक्त से अब कछ योनय दभक्षओं के हाथों में स्थानािं ररि की जा रही ह।ै दजनके पास उच्च दजम्मिे ारी और मिि करने की क्षमिा ह।ै हालाँदक वह अपनी सामादजक दस्थदि के कारण नहीं, बदल्क अपने गणों के कारण उच्च ह।ैं ऐसे दभक्षओं के समूहों को अल्पिंिात्मक व्यवस्था कहा जा सकिा ह।ै संघ के सिस्यों में उच्च गण दवकदसि करने के दलए कछ ििें बनाई गई। जो लोग उपाध्याय हो सकिे हंै, उनकी अवदध बद्ध के वचन द्वारा सीदमि थी: “दभक्षओ!ं अनमदि ििे ा ह,ूँ चिर और जानकार िस या िस से अदधक वर्ष वाले दभक्ष को उपसम्पिा करने की।”1 धीरे-धीरे बौद्ध के व्यवदस्थि संघ मंे व्याप्त समस्याओं के संिभष में कानून और दनयम जारी दकए गए। वे अके ले बद्ध द्वारा िैयार नहीं दकए गए थे, बदल्क दभक्षओं के गणों में सधार के उद्देश्य से अदस्ित्व में आया होगा। बौद्ध सघं के विकास का तीसरा रण: बौद्ध सघं का छोटा समाज समय के साथ बड़ा होिा गया। धीरे-धीरे बद्ध और दभक्षओं के कायष बढ़िे गए। बिलिी सामादजक पररदस्थदियों के कारण काम करने के िरीकों में भी पररविनष आया। सघं मंे प्रवेि के दनयम भी बिल गए। संघ में प्रवेि कायष या उपसम्पिा दवदध जो पहले सीधे दभक्षओं के हाथों होिा था, उसे बिल कर अब सघं को हस्िांिररि कर िी गयी। यह िदक्त के पररविषन का िीसरा चरण था। िरुआि मंे िदक्त के वल बद्ध के हाथों में थी। िसू रे चरण मंे यह िदक्त कछ वररष्ठ और उच्च योनयिा प्राप्त दभक्षओं को हस्िािं ररि कर िी गयी। िरुआिी िौर मंे दनणयष लेना जो एक व्यदक्तगि प्रदक्रया थी, िीसरे चरण मंे इसे सघं के हाथों सौंप िी गयी। दनणषय लने े की िदक्त मंे लगािार पररविषन को हम राजव्यवस्था के अलग-अलग रूपों मंे पािे ह।ंै पहली की िलना एक राजिंि से की जा सकिी ह,ै दजसमंे एक व्यदक्त के हाथों मंे िदक्त दनदहि थी। िसू रे चरण मंे राजिंि की िदक्त कलीनिंि या अदभजाि वगष में स्थानांिररि होिी जान पड़िी ह,ै दजसमंे दनणषय लेने की िदक्त कछ लोगों के हाथों मंे आ जािी ह।ै िीसरी के रूप में कछ की िदक्त को कई मंे स्थानािं ररि कर िी जािी ह,ै दजसे हम गणिंिात्मक या लोकििं ात्मक रूप कह सकिे ह।ंै िीसरे चरण मंे बौद्ध संघ की कायषिैली लोकिांदिक प्रदक्रया के रूप में सामने आिी ह,ै दजसे बद्ध द्वारा दनदमिष दकया गया था। सघं मंे प्रविे की अनमदि प्राप्त करने के दलए सभी पूणष सिस्यों की सहमदि जरुरी कर िी गई। जैसादक ‘दवनय दपटक’ में महावनग के पहले अध्याय ‘महास्कं धक’ में सघं मंे प्रवेि की दवदध ‘उपसम्पिा’ का दविरे ् वणनष ह।ै मख्यिः इसे िीन चरण में वदणिष दकया गया ह-ैं ज्ञदप्त, अनश्रावण और धारणा। जो प्रकार ह-ै 1 वहीं., पजे -101 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 172

173 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 (क)ज्ञदप्त- भन्िे! सघं मरे ी बाि सने। यह इस नामवाला, इस नामवाले आयष्ट्मान का उपसम्पिा चाहनेवाला (दिष्ट्य) दवध्नकारक बािों से िद्ध ह।ै इसके पाि-चीवर पररपूणष ह।ंै यह इस नामवाला उम्मीिवार इस नामवाले दभक्ष को उपाध्याय बना संघ से उपसम्पिा चाहिा ह।ै यदि संघ उदचि समझे िो इस नामवाले उम्मीिवार को इस नामवाले आयष्ट्मान के उपाध्यायत्व में उपसम्पिा िंे-यह सचना ह।ै (ख) अनश्रावण- 1. भन्िे! सघं मेरी बाि सने। यह इस नामवाला दिष्ट्य, इस नामवाले आयष्ट्मान का उपसंपिा चाहनवे ाला दिष्ट्य आन्िररक बािों से पररिद्ध दहया, इसके पाि-चीवर पररपूणष ह।ंै यह इस नामवाले आयष्ट्मान के उपाध्यायत्व मंे उपसम्पिा चाहिा ह।ै सघं इस नामवाले उम्मीिवार को इस नामवाले आयष्ट्मान के उपाध्यायत्व मंे उपसपं िा ििे ा ह।ै दजस आयष्ट्मान को इस नामवाले उम्मीिवार की इस नामवाले आयष्ट्मान के उपाध्यायत्व में उपसपं िा पसिं ह,ै वह चप रह।े दजसको पसंि नहीं ह,ै वह बोले। 2. िसू री बार भी इसी बाि कहिा हू-ँ पूज्य संघ मरे ी बाि सन.ंे .....। 3. िीसरी बार भी इसी बाि को कहिा हू-ँ पजू ्य संघ मरे ी बाि सनं.े .....दजसको पसंि नहीं ह,ैं वह बोले। (ग) धारणा- इस नामवाले उम्मीिवार को इस नामवाले आयष्ट्मान के उपाध्यायत्व में उपसंपिा सघं ने िी। सघं को पसिं ह,ै इसदलए चप ह-ै ऐसा मंै इसे धारण करिा हू।ँ 1 सघं में प्रवेि की इस दवदध से साफ पिा चलिा है दक बद्ध अपने संघ में दकस प्रकार का लोकिंि लाने की कोदिि कर रहे थे। सघं के दकसी भी बठै क में कम-से-कम बीस लोगों का होना अदनवायष था। दजसे ‘कोरम’ का दनयम कहा जािा था। यदि कोई कायष कोरम के दबना होिा था िो उसे मान्य नहीं माना जािा था। संघ के आन्िररक प्रिासदनक कायष भी इसी दवदध से चलिा था। यदि दकसी प्रश्न पर मिभेि हो, िब उसके पक्ष और दवपक्ष में भार्ण होिे थे, और बहसु म्मदि द्वारा उसका दनणषय दकया जािा था। कभी-कभी वोट द्वारा भी आम सहमदि बनायी जािी थी। चल्लवनग में िीन प्रकार के वोदटंग प्रदक्रया बिाए गए ह-ै गढ़क, सकणषजल्पक और दवविृ क।2 उपयषक्त वदणिष िथ्य ठीक आज के ससं िीय लोकिंि से दमलिा जलिा ह।ैं जसै े संसिीय काल मंे चने गए सभी प्रदिदनदधयों को िादमल होना होिा ह।ंै कोई भी दनयम बनाने से पहले उसे प्रस्िादवि दकया जािा ह।ै वाि-दववाि होिा ह।ै दफर वोदटंग के आधार पर बहमु ि सादबि की जािी ह।ै उसके बाि ही कोई दनयम िेि दहि में लागू दकया जािा ह।ै दजस प्रकार वत्तषमान ससं िीय काल में सभी प्रदिदनदधयों को उपदस्थि रहने के दलए राजनीदिक पादटषयाँ ‘दव्हप’ जारी करिी ह,ैं ठीक वसै े ही संघ के दकसी अदधवेिन में कोरम पूरा करने के दलए एक दभक्ष-कमचष ारी की दनयदक्त होिी थी, दजसे ‘गणपरू क’ कहा जािा था।3 संघ दवकास प्रदक्रया मंे अपने सिस्यों मंे हो रहे लगािार सधारों के माध्यम से प्रगदि कर रहा था। दभक्षओं के प्रत्येक गलि कायष या अनदचि कारषवाई को सघं सभा द्वारा दवचार िथा सधार के दलए प्रस्िि दकया जािा था। बौद्ध संघ क्रदमक एवं दनरंिर दवकास और सकं ्रमण की प्रदक्रया के माध्यम से अदस्ित्व मंे आया। यह एक ऐसा समाज था दजसमें व्यदक्त जीदवि एवं स्वस्थ रहने के दलए आवश्यक बहिु ही कम साधनों पर दजन्िा रहिे थ।े सघं समानिा आधाररि संस्था थी। यह सच है दक बद्ध ने सघं के दवकास मंे दकसी राजनीदिक व्यवस्था का समथनष नहीं दकया, दकन्ि इससे 1 वही, पजे - 105-06 2 वही, पजे - 414-15 3 सत्यके ि दवद्यालंकार, प्राचीन भारि की िासन-संस्थाएँ और राजनीदिक दवचार, पजे -105 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 173

174 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ित्कालीन और बाि की राजनीदिक पररदस्थदियाँ जरुर प्रभादवि हईु । वनष्ट्कषा: दवदिि है दक बद्ध राजव्यवस्था के दकसी प्रकार के बारे में सीधे िौर पर कछ नहीं कहा। लेदकन अब यह भी दसद्ध हो चकू ा है दक वह गणिंिात्मक प्रणाली के दहमायिी थे। यही वजह रहा दक सघं के अंिर न दसफष दनरंिर पररविनष होिा रहा ह,ै बदल्क वह अपने हर पररविषन में एक नया व्यवस्था का पररक्षण करिा रहा है और अिं िः बहुजन दहिाय के उद्दशे ्य से ‘लोकिांदिक प्रणाली’ को अपनािा ह।ै सघं के इस दवकास यािा से इस िथ्य को और मजबिू ी दमलिा है दक बद्ध महज़ एक धादमषक और सामादजक क्रांदिकारी नहीं, बदल्क सघं के प्रिासदनक कायष के रूप में अपनाए गए प्रणाली के माध्यम से राजनीदिक क्षेि में भी वह परोक्ष या अपरोक्ष हस्िक्षेप कर रहे थे। संिभा सू ी: 1. साकं ृ त्यायन, राहुल (अन.). (2010). विनय वपटक, गौिम बक सटंे र, दिल्ली 2. अम्बडे कर, डॉ. बी. आर. (2016). िदु ्ध और उनका धम्प्म, बद्धम् पदब्लिसष, जयपर 3. गाबा ओ.पी. (2010). रािनीवत वसद्धातं की रूपरेखा, मयरू पेपरबैक्स, नौएडा 4. जायसवाल, कािी प्रसाि. (2016). वहन्दू राज्य-ततं ्र, दवश्वदवद्यालय प्रकािन, वाराणसी 5. दवद्यालकं ार, सत्यके ि. (1975). प्रािीन भारत की शासन-ससं ्थाएँा और रािनीवतक वििार, श्री सरस्विी सिन, मसूरी वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 174

175 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मध्यकालीन महाजनी सभ्यता में पीतित गरीब वकसान और सूरदास - अवनल कमार सहायक प्राध्यापक (अवतवथ) दिल्ली दवश्वदवद्यालय ई मेल : [email protected] िरू भार् : 8750158144 शोध सारांश : आि के यरु ्ग में अन्न दाता वकसान कॉपोरेट के वशकं िे में वकस तरह फं सता िा रहा है यह िर्ग िावहर ह।ै वपछले कई महीनों से दशे के विवभन्न राज्यों से वदल्ली की ओर वकसान कू ि कर रहे ह।ैं सरकार के द्वारा लाये र्गये तीनों कृ वष कानूनों से दशे का वकसान नाखशु है विसका पररणाम है वकसान आदं ोलन। भारत में कृ वष रोिर्गार का िहुत ििा स्रोत है वकन्तु आि खते ी- वकसानी घाटे का सौदा होती िा रही ह।ै महािनों एिं सहकारी िंैकों से किव लेकर िो फसल िोई िाती है उसका उवित दाम तक वकसानों को नहीं वमल पाता। ऐसी वस्थवत में वकसानों के समक्ष ििी समस्या यह आ िाती है वक िह अपने और अपने पररिार का पटे पाले या महािनों आवद से वलया र्गया किव िकु ाए? वकसानों की इसी द्वदं ्वात्मक मानवसकता का ही पररणाम है आत्महत्या। आि के वकसानों की समस्या मध्यकालीन सामतं ी पररिशे के वकसानों से वभन्न नहीं ह।ै आि कॉपोरेट िर्गत वकसानों की प्रर्गवत की िवे िया िना हुआ है उसका शोषण करने से नहीं िकू रहा है उसी प्रकार सरू के युर्ग में महािनी सभ्यता वकसानों पर अपनी कू दृवष्ट िमाएं हएु िैठी थी। मशंु ी प्रेमिदं ने विस महािनी सभ्यता में र्गरीि वकसानों को पीवित होते हएु वदखाया है उसी प्रकार कृ ष्ण भि कवि सरू दास िी ने भी समय की सीमा मंे रहते हऐु कही प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष इस महािनी सभ्यता की शोषणिादी प्रिवृ त्त को परू े यथाथव रूप में विवत्रत वकया था विस पर विस्ततृ ििाव मेरे इस मौवलक शोधालखे मंे की र्गई ह।ै यह लेख मेरा मौवलक प्रयास है और इस लेख में सहायक, पसु ्तक एिं पवत्रका का उद्धरण स्पष्टतः संदभव के रूप मंे दे वदया र्गया ह।ै शोध विस्तार : सूरिास की सादहदत्यक दृदि मूलिः ग्रामीण क्षेि और उसमंे बसने वाले दनरीह दकसानों पर आधाररि थी। इनका सम्पणू ष सादहत्य कहीं प्रत्यक्ष िो कहीं परोक्ष या सांके दिक रूप से इन्हीं दवर्यों के इिष- दगिष चक्कर काटिा ह।ै मध्यकालीन पररविे मंे ग्रामीण जीवन पर सामिं ी िासन और अदिक्षा, अज्ञानिा िथा स्वाथानष ्धिा का िोहरा िबाव था दजसमंे आचं दलक जन- जीवन को आदथकष , धादमषक, राजनीदिक, सामादजक और मानदसक आदि सभी स्िरों पर गलाम बनने को मजबूर दकया। एक िरफ िो क्रू र सामन्ि अपने फायिे के दलए ग्रामीणों का िोर्ण कर रहे थें, वहीं कछ ऊँ चे वगष के िाह्मण, पूजँ ीपदि, जमींिार आदि िोर्क प्रवदृ त्त के लोग बहिे पानी मंे हाथ धो रहे थे, दजसके कारण लोगों को न दसफष दवििे ी(बाहरी आक्रमणकारी), अदपि ििे ी मार भी सहनी पड़ रही थी, दजसने उनके आत्म- दवश्वास की कमर िोड़ िी थी। िजांचल की जनिा इिनी अज्ञानी, इिनी भोली- भाली थी दक िासन प्रणाली के िो महं े कि को वह समझ नहीं पा रही थी और सामादजक बराइयों िथा क्रू र सामन्िों के िो पाटों के बीच बरी िरह दपसिी जा रही थी। वह दकसान जो अपने खनू - पसीने से भूदम को सींचिा था, रोपिा था और परू े ििे की जनिा के दलए अनाज पैिा करिा था, सामन्िों की भूदम कर व्यवस्था के कारण वही अब नीलामी और बिे खली की ठोकरंे खा रहा था, भूदम हीन हो रहा था। वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 175

176 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सरू के काव्य में दजस दकसान- जीवन का दचिण ह,ै उसका एक दविेर् सामादजक और ऐदिहादसक सन्िभष ह।ै वह सन्िभष सामंिी व्यवस्था का ह,ै दजसके भीिर दकसान- जीवन के अनभव का स्वरूप बना ह।ै सरू की दविेर्िा यह है दक उन्होंने सामिं ी- व्यवस्था के सन्िभष के साथ दकसान- जीवन के अनभवों का दचिण दकया है। उसमें सामंिी- व्यवस्था के अत्याचार और दकसानों की यािना को मूिष और इदन्रयग्राह्य बनाने के दलए रूपक का सहारा दलया गया ह।ै एक रूपक में दकसानों की दनधषनिा के कारण लगान िने े मंे असमथषिा, सामन्िों की लटू और उनके कपटी कमचष ाररयों के अनाचार का वणषन दनम्नदलदखि पि में है- \"अदधकारी जम लेखा मागं ,ै िािै हौं आधीनौ। घर मंे गथ नदहं भजन दिहारौ, जोन दिए मैं छू टौं। धमष जमानि दमल्यौ न चाह,ै िािै ठाकर लटू ौ। अहकं ार पटवारी कपटी, झूठी दलखि बही। लागै धरम, बिावै अधरम, बाकी सबै रही। सोइ करौ ज बसिै रदहयै, अपनौ धररयै नाउं। अपने नाम की बरै ख बाधं ौ, सबस बसौं इदहं गाउं।\"1 सरू कालीन समाज- दनरन्िर धीरे- धीरे कई वगों मंे बंटिा जा रहा था। प्रत्येक ऊं चा वगष अपने से दनचले वगष पर अदधकार जमािा था। अदधकार की श्रेणी मख्यिः जादि, धमष और अथष पर आधाररि थी, दजसका पररणाम यह हुआ की सबसे गरीब िबके के दकसान, मजिरू और श्रदमकों का जीवन िासन और िोर्ण के अनदगनि िहों के नीचे िबिा- दपसिा और संकदचि होिा जा रहा था। जमींिार, काररंिे, पटवारी, साहुकार इत्यादि के रूप में सरू िास ने अपने सादहत्य मंे इन्हीं िहों का बड़ा ही सकू्ष्म दचिण दकया है और बड़ी स्पििा से दिखाया है दक उनके पंजो के नीचे दकस िरह दकसान लगान और कभी न खत्म हो सकने वाले ऋण- भार से िबा हुआ ह।ै मैनेजर पाडं ेय दलखिे है- \"सामिं ी- व्यवस्था मंे लगान की लूट के साथ सूिखोरी की प्रथा भी दकसानों को िबाह करिी रही ह।ै भारिीय दकसान- जीवन के नए- पराने सभी बड़े लखे कों की रचनाएं इस बाि की गवाही िेिी ह।ंै \"2 सूरिास ऋण की प्रथा की क्रू रिा से भली- भादं ि पररदचि ह,ंै इसीदलए उन्होंने दलखा- \"सबै क्रू र मोसों ऋण चाहि, कहौ कहा दिन िीजै। दबना दियै िख िेि ियादनदध, कहौ कौन दवदध कीज।ै \"3 इसी ऋण और ब्याज से दकसान जीवन में महाजनी पूँजीिाि या महाजनी सभ्यता का प्रवेि हुआ। इस महाजनी सभ्यिा ने लोगों को इिना हृियहीन और सवं िे नािून्य बना दिया था दक यही दकसान जो खि उधार लेने पर ब्याज के बोझ के नीचे िबा रहिा ह,ै महाजनों को गररयािा ह,ै उनकी हृियहीनिा एवं अमानदर्किा पर िाने कसिा ह,ै खि िो- चार पैसे जमा हो जाने पर उसी व्यवहार को अपनाने लगिा ह।ै प्रेमचंि ने इसे ही महाजनी सभ्यिा कहा ह।ै दजस सभ्यिा में धन ही सब कछ ह।ै मानव के भाव पणू िष ः मूल्यहीन हो गए ह।ंै जहां पैसे के कारण मनष्ट्य स्वयं को भी बचे िा ह,ै उसके ईमान का, धमष का कोई मोल नहीं, िोर्ण ही िोर्ण चहु ओर व्याप्त ह,ै वहां भावकिा से कोई सरोकार नहीं। 1 सरू सागर (भाग-1) पि 185 2 भदक्त आिं ोलन और सूरिास का काव्य, मैनेजर पाडं ेय, पषृ ्ठ 297 3 सरू सागर ( भाग-1), पि 196 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 176

177 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 भारिीय दकसानों की सबसे ज्वलिं समस्या ऋण के बोझ से मक्त होने की ह।ै सरू कालीन या प्रमे चन्िकालीन ही नहीं बदल्क आज भी अदधकांि दकसान महाजनी समस्या के पाट के नीचे बरी िरह दपस रहे हैं क्योंदक “कज़व वह मेहमान ह,ै जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लिे ा।”1 मंिी प्रेमचंि ने अपने दनबन्ध 'महाजनी सभ्यिा' मंे महाजनी सभ्यिा की दविरे ्िाओं को बिािे हएु दलखा ह-ै \"इस महाजनी सभ्यिा मंे सारे कामों का गरज महज पसै ा होिा ह।ै दकसी ििे पर राज दकया जािा ह,ै िो इसदलए दक महाजनों, पंजू ीपदियों को ज्यािा-से-ज्यािा नफा हो। इस दृदि से मानों आज िदनया मंे महाजनों का ही राज ह।ै मनष्ट्य- समाज िो भागों मंे बंट गया ह।ै बड़ा दहस्सा िो मरने और खपने वालों का ह,ै और बहुि ही छोटा दहस्सा उन लोगों का, जो अपनी िदक्त और प्रभाव से बड़े समिाय को अपने वि में दकए हुए ह।ै \"2 िसू रा दसद्धांि बिािे हुए मंिी प्रेमचिं आगे कहिे है दक- \"इस सभ्यिा का िसू रा दसद्धािं है \"दबजनसे इज दबजनेस\" अथाषि व्यवसाय ह,ै उसमंे भावकिा के दलए गंजाइि नहीं। पराने जीवन दसद्धांि मंे वह लिमार साफगोई नहीं ह,ंै जो दनलजष ्जिा कही जा सकिी है और इस नवीन दसद्धािं की आत्मा ह।ै जहां लने - िने का सवाल ह,ै रुपये- पसै े का मामला ह,ै वहां न िोस्िी की गहार ह,ै न मरौवि का, न इसं ादनयि का। 'दबजनेस' में िोस्िी कै सी। जहां दकसी ने इस दसद्धान्ि की आड़ ली और लाजवाब हुए। दफर आपकी जबान नहीं खल सकिी।\"3 प्रमे चन्ि ने दजस समय महाजनी सभ्यिा पर दनबंध दलखा और महाजनों िथा साहकू ारों के अत्याचारों के दचि कथा-सादहत्य के माध्यम से प्रस्िि दकए, वामपंथी आलोचकों ने उनकी प्रगदििीलिा को एक ख़ास नज़ररए से मूल्यादं कि दकया। सरू महाजनी सभ्यिा के इस रुख से अच्छी िरह पररदचि थे। दस्थदि यह थी दक महाजन क़ज़ष का पैसा वापस न दमलने के बिले में मविे ी िो खोल ही ले जािा था, घर में बचे-खचे चारा-पानी को भी हज़म कर जाने की इच्छा उसमें पयापष ्त बलविी थी। ज़मीनिारों और पटवाररयों के अत्याचार की कथाएं प्रमे चिं सादहत्य मंे पयापष ्त महत्त्व रखिी ह।ंै सरू का दकसान प्रेमचिं के दकसान से कछ कम पीदड़ि नहीं ह।ै गाँव की ऊसर ज़मीन पर खिे ी करने से दकिनी उपज हो सकिी है यह सहज ही महससू दकया जा सकिा ह।ैं पचं जन यदि कारकन से दमलकर मन-ही-मन र्ड़यिं रचें और ज़मीनिार खिे के कागजाि माँगने लगे,िो बचे ारे दकसान की दकिनी ियनीय दस्थदि होगी। सूरकालीन समय में दजस भूदम पर दकसान का अदस्ित्व और जीदवका अवलदम्बि थी, वही भूदम क्रमिः हाथ से दनकले जाने पर दकसान की अवस्था सोचनीय होिी जा रही थी। उसका दवश्वास टूटिा जा रहा था और इससे उसकी आदथकष दस्थदि, सांस्कृ दिक दस्थदि, सामादजक स्िर दनम्निम कोदट का होिा जा रहा था। अनावदृ ि, अदिवदृ ि और प्राकृ दिक प्रकोपों से जान बचाकर जो फसल घर में आिी थी, सामन्िों की नीदि के अनरूप उसे भी लगान के रूप मंे दनगल दलया जािा था, वह भी अत्यंि दनियष िा से , दिस पर 'करेला पर नीम चढ़े' का काम हमारे िेि के िथाकदथि पूंजीपदि और जमींिार, जमीनिारों के काररंिे जो इस्लादमक िासकों एवं सामन्िों की दनियष िा और कठोरिा से रत्तीभर भी कम न रहने की प्रदियोदगिा मंे थ।े मध्यकालीन घोर अन्धकारवािी उस यग मे,ं सामंिवािी िासन के िबाव में पूरे ििे की ऐसी अवस्था हो 1 गोिान, पषृ ्ठ 338 2 महाजनी सभ्यिा, प्रमे चिं , पषृ ्ठ 132 3 महाजनी सभ्यिा, प्रेमचिं , पषृ ्ठ 135 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 177

178 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 गई थी, दक अब धीरे-धीरे लोगों में चरमराहट और सगबगाहट पिै ा होने लगी थी। बेबसी और परवििा ने सभी को पगं बना दिया था िो दकसानों की क्या पूछ। उन पर िो एक नहीं, िो नहीं, िीन नहीं, िासन करने वाले िजषनों प्राथी थे, वह भी दनिषयिा से दनरंकििा से दिस पर भखू े पेट, खाली िन और सैकड़ों बधं न लािकर। बहिु िेर िक िरसिे रहने के बाि पानी पीकर भी व्यदक्त को वह सख नहीं दमलिा, जो प्यास के िरंि बाि दमलिा है और अगर उसे पिा हो दक वह पानी भी दसफष िखे ने के दलए ह,ै िब िो कोई बाि ही नहीं। यही ििा उन गरीब दकसानों की हो रही थी। दजस फसल के दलए वे रक्त- मासं सखाकर काम करिे थ,े उसको िखे कर भी उन्हंे खिी नहीं ह,ै जो प्राकृ दिक, स्वच्छ माहौल गांवों का वरिान ह,ै उसको पाकर भी उन्हें सख नहीं। उनकी समस्ि इदं रयां सन्न पड़ गई है, इदं रयों ने इिना बिाशष ्ि दकया है दक अब उस पर कछ असर नहीं पड़िा। दकसानों के खदलहान में अनाज है दकं ि वे जानिे हैं दक उनके दसर पर लगान का बोझ भी ह,ै परू ा खदलहान खाली करने के बाि भी लगान के रुपये बाकी थे, उन्हें चकाने के दलए महाजन से ऋण दलया था उसका मूल और सूि भी चकू ाना ह,ै आदखर अनाज मंे एक िाना भी िो अपना नहीं दफर खि क्योंकर हो? उसकी इदन्रयां दिदथल क्यों न हो? जब पेट ही खाली हो िो इदं रयों मंे िदक्त का सचं ार कहां से हो? सूरकालीन समाज में सामन्िों और जमींिारों की िोर्कवािी प्रवदृ त्त के कारण कृ दर् की उन्नदि ठप्प हो गई थी। महाजनी सभ्यिा के दवकास के कारण जो दकसानों के दलए अदहिकारी थीं क्योंदक दकसान की उपज को उद्योग- धंधे के दलए सस्िे िामों पर खरीिा जािा था, दजससे दकसानों को िो फायिा नाम- माि का होिा था, पर सामन्िों एवं महाजनों को लगान और ऋण के रूप मंे कई गना अदधक लाभ प्राप्त होिा था। दकसानों का जीवन हादिये पर पहचुं चका था, जहाँ उन्हंे बचने के दलए कीचड़ मंे सनना ही पड़िा। अपनी जान बचाने के दलए दकसानों को या िो मजिरू बनना पड़िा था, या अपनी जान गवं ानी पड़िी। वस्ििः मध्यकालीन उस यग मंे उद्योग एवं व्यापार के दवकास के साथ- साथ दनम्न समझे जाने वाली स्वावलंबी जादियों (जलाहा, बनकर, चमकष ार, नवाले आदि) का दवकास आरम्भ हो चका था। पजूं ीवाि के आगमन, उसके आगमन के साथ हमारी नैदिकिा में पररविषन और मूल्यों मंे दगरावट को बाबा सरू िास बड़ी दिद्दि से महसूस कर रहे थ।े सूरिास इस महाजनी सभ्यिा के दवरोधी थे और इस सभ्यिा से उत्पन्न समस्याओं के कारण दचंदिि भी थ।े उनका मख्य दवर्य था समाज मंे व्याप्त आदथषक िोर्ण का पिाफष ाि करना और गावं में रहने वाले दकसानों की दस्थदि को आम जनिा िक पहुचं ाकर उसमें मूलभिू बिलाव करना। यही कारण है दक बाबा सूरिास ने अपने सादहत्य में प्रत्यक्ष और सांके दिक िोनों ही रूप मंे महाजनों की शोर्किादी मनोिदृ ि को, दकसानों की दस्थदि को, भारि के दवदभन्न अंचलों की दस्थदि को और कृ दर् व्यवस्था को अपने कव्य में पूरी दनष्ठा से दचदिि दकया ह।ैं सिं भा 1. सूरसागर (भाग-1) पि 185 2. भदक्त आंिोलन और सरू िास का काव्य, मनै ेजर पांडेय, पषृ ्ठ 297 3. सरू सागर ( भाग-1), पि 196 4. गोिान, पषृ ्ठ 338 5. महाजनी सभ्यिा, प्रमे चंि, पषृ ्ठ 132 6. महाजनी सभ्यिा, प्रमे चंि, पषृ ्ठ 135 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 178

179 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ‘काल खड़ा वसर ऊपरे’: आज के संिभा में कबीर डॉ. वबमलंेि तीथंकर एसोदसएट प्रोफे सर दहिं ी दवभाग, दहिं ू कॉलजे दिल्ली दवश्वदवद्यालय, दिल्ली – 110007 [email protected] +91-9873404932 साराशं किीर को पढ़ना और िानना है तो सिसे पहले िानना होर्गा उनके समय के समाि को और उसके भीतर के अतं विवरोधों को। किीर की कविता सािवकावलक कविता ह।ै किीर सामाविक, सासं ्कृ वतक और ऐवतहावसक पररितवन की अपार सभं ािना के साथ अग्रसर होते ह।ंै उनकी सिसे ििी खावसयत है वक िह िनु ौवतयों को भी स्िीकार करते हैं और िनु ौती भी देते ह।ैं किीर अवतरेक के कवि नहीं ह,ैं वििादधमी अक्खि के रूप मंे वदखाई देते किीर संिाद की संस्कृ वत के िाहक ह।ंै िात-िात पर साधो, भाई, अिध,ु पांडे िसै े संिोधन इसके र्गिाह ह।ंै बीज शब्ि संस्कृ वत, समय, समाि, किीर, मुवि, सघं षव शोध आलेख आज कबीरिास के दबना हर बाि अधरू ी रहगे ी, कबीरिास हमारे समय की अदनवायिष ा ह।ंै हमारे समय में उपजे सवालों के उत्तर कबीरिास के यहां सीधे-सीधे दमलिे ह।ंै आधदनक काल में सबसे अदधक इस सिं कदव को पढ़ा और गना जा रहा ह।ै कबीर संज्ञा ह,ैं कबीर ज्ञान और अनभव के प्रिीक ह।ैं प्रदिदष्ठि आलोचक परुर्ोत्तम अग्रवाल दलखिे हंै – “किीर को पढ़ने के वलए उन्हें अििू ा िनाने के प्रलोभनों से मुि होना सिसे पहले िरूरी ह।ै मध्यकाल मंे होते हएु भी किीर, अिीि िात है वक आधवु नक से लर्गते ह।ैं वनरक्षर होते हएु भी किीर, अिीि िात है वक ‘ज्ञानी िी’ कहे िाते ह।ैं मुसलमान िशं में िन्म होने पर भी अिीि िात है वक रामानंद के वशष्य िनते ह।ैं … इस तरह की अिि-र्गिि माकाव िातों के आवद स्रोतों की खोि स्ियं ही रोिक और रोमािं क ह।ै यह खोि तभी की िा सकती ह,ै ििवक आप दशे भाषा स्रोतों पर कृ पा करने की ििाए उनका सासं ्कृ वतक सार और आि से समझने की कोवशश करंेर्गे। मंैने यही कोवशश की ह।ै मैंने किीर को ‘िवकत’ होकर पढ़ने या उनका मनमाना इस्तेमाल करने की कोवशश नहीं, उन्हें ऐसे लर्गाि से पढ़ने की कोवशश की ह,ै विसमंे विरह के वलए विख्यात कवि से विरह की भी पूरी र्गंिु ाइश ह।ै किीर को धमरव ्गरु ु िनाने की ििाय उनके कवि व्यवित्ि के साथ संिाद करने की कोवशश की ह।ै ”1 यह एक बनिा हुआ रास्िा है दजसके माध्यम से कबीर के पास पहचुं ा जा सकिा ह।ै परुर्ोत्तम अग्रवाल ऐसे समय मंे कबीर को लके र उपदस्थि होिे हंै जब समय पीछे की दििा मंे चलने की 1 अग्रवाल, परुर्ोत्तम; अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, चौथा संस्करण, 2016, पषृ ्ठ संख्या 7 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 179

180 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ियै ारी कर रहा ह।ै िरअसल, इस उत्तर-औपदनवेदिक समय में मध्यकालीन सिं ों की बिे रह याि आिी ह।ै यह समय हमारी आत्मिदक्त, आत्मदवश्वास और आत्म बोध को कमजोर कर रहा है। सवाल यह है दक इसके दबना हम क्या कर सकिे हंै ? सहस्त्र वर्ों की साधना-िपस्या के बाि आत्मदवश्वास अदजषि होिा है। बाहरी सत्ता से टकराना थोड़ा कदठन होिा है दकं ि आत्मा के द्वदं ्व से लड़ना सबसे भयावह और कदठन होिा ह।ै आत्म सघं र्ष की लड़ाई में हमें मध्यकाल की सिं परंपरा सहायक प्रिीि होिी ह।ै संिों की वादणयों से साहस दमलिी ह,ै आत्मदवश्वास और आत्म-िदक्त संवदधिष होिी ह,ै हमारे पैरों में बल आ जािा है। कबीरिास आत्मबोध के कदव हंै। यद्यदप दकन्हीं अथों और प्रसगं ों में आचायष रामचंर िक्ल उनके योगिान को स्वीकार िो करिे हैं दकं ि कदव होने पर संिहे व्यक्त करिे हंै – “भाषा िहतु पररष्कृ त और पररमावितव न होने पर भी किीर की उवियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाि और िमत्कार ह।ै प्रवतभा उनमंे ििी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं।”1 आचायष रामचरं िक्ल कबीर की प्रदिभा से बहे ि प्रभादवि थे। दकं ि उनकी भार्ा पर सवाल खड़ा कर रहे थे। बिौर कदव िक्ल जी ने िलसी को प्रदिदष्ठि दकया ह।ै िरअसल, कबीरिास का यह मलू ्याकं न एक समय के दलए उन्हें ओझल कर ििे ा ह।ै दकं ि बिले हएु समय मं,े कबीर एक नए रूप मंे हमारे सामने आिे हंै और उन्हें सभी ने स्वीकार भी दकया है। लेदकन कबीर अनभै साचं ा के सिं कदव थ।े इनकी वाणी से भारि की सम्यक सासं ्कृ दिक इदिहास उद्घादटि होिा था। परुर्ोत्तम अग्रवाल कबीर को पूणिष ः कदव मानिे हंै और साथ ही उनकी कदविा के बारे मंे िो टूक राय भी ििे े हैं – “किीर की कविता मंे प्रखर सामाविकता और वनतातं वनिी प्रमे ानुभूवत तेल और पानी की तरह नहीं िल और िदंू की तरह दीख पिती ह।ै उनका ज्ञानकोष वहदं ू परंपरा और नाथपथं ी साधना के साथ-साथ इस्लाम से भी अच्छे खासे पररिय का प्रमाण दते ा है। ... किीर की काव्य सिं ेदना राम भािना, काम भािना और समाि भािना को एक साथ धारण करती ह।ै इन तीनों के सिनव ात्मक सह- अवस्तत्ि को पढ़े विना किीर को पढ़ने के दािे व्यथव हंै।”2 कबीर को पढ़ना और जानना है िो सबसे पहले जानना होगा उनके समय के समाज को और उसके भीिर के अंिदवरष ोधों को। कबीर की कदविा सावषकादलक कदविा ह।ै कबीर सामादजक, सासं ्कृ दिक और ऐदिहादसक पररविनष की अपार संभावना के साथ अग्रसर होिे ह।ैं उनकी सबसे बड़ी खादसयि है दक वह चनौदियों को भी स्वीकार करिे हंै और चनौिी भी िेिे ह।ैं कबीर अदिरेक के कदव नहीं ह,ंै दववािधमी अक्खड़ के रूप में दिखाई िेिे कबीर सवं ाि की ससं ्कृ दि के वाहक ह।ंै बाि-बाि पर साधो, भाई, अवध, पांडे जैसे सबं ोधन इसके गवाह ह।ैं कबीर ने हर िरह की चोट खाई थी। इसदलए वे बहुि संविे निील ह।ंै यह अनायास नहीं है दक जब आचायष हजारी प्रसाि दद्ववेिी कबीर को लके र आिे हंै िो उनका पररचय कछ इस िरह करािे हंै – “भवि के अवतरेक मंे उन्होंने कभी अपने को पवतत नहीं समझा; क्योंवक उनके दैन्य में भी आत्मविश्वास साथ नहीं छोि दते ा था। उनका मन विस प्रेम रूपी मवदरा से मतिाला िना हुआ था, िह ज्ञान के र्गुण से तैयार की र्गई थी। इसवलए अधं श्रद्धा, भािकु ता और वहस्टाररक प्रेमोन्माद का उनमंे एकातं अभाि था। यरु ्गाितारी शवि और विश्वास लके र पदै ा हएु थे और यरु ्ग प्रितवक की दृढ़ता उनमंे ितमव ान थी। इसवलए िे युर्ग प्रितवन कर सके थे। एक िाक्य में उनके व्यवित्ि को कहा िा सकता ह:ै िह वसर से पैर तक मस्त मौला थे – िपे रिाह, दृढ़, उग्र, कु सुमादवप कोमल, िज्रादवप कठोर।”3 कबीरिास ने रूढ़ अथों में चीजों को स्वीकार नहीं दकया बदल्क रूदढ़यों को िोड़ने का काम दकया। 1 िक्ल, रामचरं ; दहिं ी सादहत्य का इदिहास, नागरी प्रचाररणी सभा, कािी, सािवां ससं ्करण, पषृ ्ठ सखं ्या 45 2 अग्रवाल, परुर्ोत्तम; अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, चौथा ससं ्करण, 2016, पषृ ्ठ सखं ्या 20 3 दद्वविे ी, हजारी प्रसाि; कबीर, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, नौवीं आवदृ त्त, 2002, पपे र बकै , पषृ ्ठ संख्या 135 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 180

181 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 कबीर दकसी के सपने के ििे में नहीं जीना चाहिे थे बदल्क अपने सपनों का िेि बनाने के दलए आजीवन संघर्ष करिे रह।े यही बाि परंपरावादियों को परेिान करिी ह।ै दकं ि ध्यान िेने की बाि है दक कबीर बद्ध से होिे हुए गांधी िक मंे दिखाई ििे े ह।ैं कबीर ने बद्ध के सपनों को बढ़ाया था और गांधी ने बद्ध और कबीर के सपनों को। गांधी जी का चरखा प्रयोग और ग्राम स्वराज कबीर के सपनों का दवस्िार था। कबीरिास सपनों की िदनया के यूटोदपया को सबके सामने उपदस्थि कर रहे थ।े अदहसं ा, सत्याग्रह, सवे ा भावना, मानविा, कमष पर दवश्वास, गणों का दवकास आदि राष्ट्रीय आिं ोलन का मूल मंि बन सका िो इसके पीछे कहीं न कहीं कबीर दिखाएं पड़िे ह।ैं कबीर के भीिर यायावरी संस्कार थे। इस यायावरी ने इन्हंे िदनया से जोड़ रखा था। गाधं ी जी के होने मंे कबीर की बड़ी भदू मका थी। कबीरिास पदवििा को हदथयार बना रहे थे। कबीर का स्वप्नलोक, समिामूलक समाज और मनष्ट्य को उपदस्थि करने के दलए प्रयत्निील था। मध्यकालीन समय और समाज के भीिर गलामी के कई स्िर बने हुए थे और उनके रहिे मदक्त की बाि सोचना भी कदठन था। कबीर लौदकक मदक्त के दहमायिी थ।े इसदलए कबीर की कदविा के भीिर से लोक-मदक्त की अनगजंू बहुि साफ सनाई पड़िी ह।ै उन्होंने राम के माध्यम से मदक्त सघं र्ष का दबगल फंू का। कबीर अमानवीय होिी व्यवस्था को बहुि साफगोई के साथ उद्घादटि भी करिे हैं और उससे मदक्त का आवान भी करिे ह।ंै अस्वीकार और असहमदि का अपार साहस कबीर के भीिर था। यही कबीर को कबीर बनािा ह।ै मध्यकालीन संिों मंे कबीर-सा साहस दवरले सिं ों में था। कबीर उस गांव मंे रहने से इकं ार कर िेिे हैं जो गांव अमानवीयिा और िोर्ण का प्रिीक रूप मंे मौजूि ह।ै कहना न होगा गांव आज भी लगभग उसी रूप में ह।ंै यही वजह है दक आज भी गांवों से पलायन जारी है – “िािा अि न िसहु इहु र्गाउ। / घरी-घरी का लखे मारं ्गे काइथु िते ू नाउ। / धमवराय िि लखे ा मारं ्ग िाकी वनकसी भारी।। / पि वक्सनिा भावर्ग र्गए लै िाध्यौ िोउ दरिारी।। / कहवह किीर सनु ह रे सतं हु खते वह करौ वनिरे ा।। / अिकी िार िखवस िंदे को िहरु र न भि िल फे रा।।”1 इस नलोबल होिी िदनया के भीिर के गांवों के भीिर आज भी िोर्ण जारी ह।ै इसदलए आज दफर कबीर याि आिे हैं और कबीर का अमर िेिवा भी याि आिा ह।ै कबीर कहिे हैं दक इस गांव से बेहिर हमारा ‘अमर िेसवा’ ह,ै वह एक ऐसा िेि है जहां समिामलू क समाज व्यवस्था है – “िहिां से आयो अमर िह दसे िा। / पानी न पान धरती अकसिा, िांद न सूर न रैन वदिसिा। / िाम्प्हन न छत्री न सूद्र िसै िा, मरु ्गल पठान न सैयद सखे िा। / आवद िोवत नवहं और र्गनेसिा, ब्रह्म विस्नु महशे न ससे िा। / िोर्गी न िर्गम मवु न दरिेसिा / आवद न अंत न काल कलसे िा। / दास किीर ले आए संदसे िा / सार सब्द र्गवहं िलौ िवह दसे िा।”2 क्या यह आश्चयष में डालने वाली बाि नहीं है दक इस उत्तर-आधदनक समय मंे िमाम कोदििों के बाि भी ऐसा ििे नहीं बन पा रहा है (स्वप्नलोक मंे ही सही) यह समय दवर्मिा और दवभिे से स्िरीकृ ि समाज व्यवस्था को दमटा पाने में असफल रहा ह,ै इस बाि को स्वीकार करना चादहए। और दफर इसके समाधान हिे रास्िे की िलाि भी करनी चादहए। िायि इस अंधेर समय में कबीर का अमर िेसवा एक सही दवकल्प बनकर िदनया को बिल सके । कबीर कल्पना के भाव लोक में खोए रहने के बजाय यथाथष के धरािल पर उिरिे हैं वह भी पूरे िमखम के साथ। कबीर नारा नहीं गढ़िे हंै बदल्क संघर्ष की जमीन िैयार करिे ह।ैं जान-बझू कर पटरी बैठाने के दलए समन्वय का रास्िा नहीं पकड़िे ह।ैं वे टकरािे हैं उन मूल्यों से, उन ससं ्थानों स,े उन सत्ताओं से जो हमारी अदस्मिा और आत्मदवश्वास को कमजोर कर वचषस्व की सत्ता कायम करने की कोदिि करिी ह।ै कबीर उनके दलए चनौिी हैं िो आम आिमी के दलए मदक्त के वाहक ह।ंै इस टकराव से पहले कबीर आवान करिे हैं अपने समाज को, उनके भीिर चेिना फूं किे ह।ैं िरअसल सोए हुए समय और समाज के सहारे कौन-सा मदक्त संघर्ष संभव है ? इसदलए कबीर चिे ावनी के अंिाज में कहिे हंै – “काल खिा वसर ऊपरे, 1 िास, श्याम संिर; कबीर ग्रथं ावली, वाणी प्रकािन, प्रथम ससं ्करण, 2014, पपैर बकै , पषृ ्ठ संख्या - 2 दद्वविे ी, हजारी प्रसाि; कबीर, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, नौवीं आवदृ त्त, 2002, पेपर बैक, पषृ ्ठ संख्या 266-267 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 181

182 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िार्गु विराने मीत। / िाका घर है र्गैल मंे, सो कस सो वनिीत।”1 (पि सखं ्या 204) कई बार कबीर को पीड़ा भी होिी है। वह भी िख फलक पड़िा है – “सवु खया सि संसार है खाये अरु सोि।ै दवु खया दास किीर है िार्गे अरु रोिै।।”2 (पि सखं ्या 200) कबीर समदिवािी कदव ह।ंै वे सामूदहक मदक्त की बाि करिे ह।ंै अज्ञानिा और अबोधिा भयकं र रोग ह।ै कबीर के सामने कई िरह की चनौदियां थीं। लोकििं और आधदनकिा के जमाने में जब हमारे भीिर भ्रम की टाटी लगी हुई ह,ै िो वह राजिाही और मध्यकालीन िौर था। यथादस्थदिवािी समय में कबीर का सारी चीजों को बेपिष करना और सच को साहस के साथ रखना कम बड़ी बाि नहीं थी। कबीर के पास कोई सीधा-साधा फॉमूषला नहीं था और न ही कोई बड़ा मठ था दजसका भरोसा रख वह आगे बढ़ रहे हों। उनके मन में भी संिय था इसदलए वह भी आग्रह करिे हैं उस ईश्वर से जो जीवनहार बन सकिा था। उससे पूछिे हैं – “कै से वदन कवटहंै ितन िताये िइयो। / एवह पार र्गंर्गा ओवह पार िमुना,। विििां मिइया हमका छिाय िइयो। / अंिरा फाररके कार्गि िनाइन, / अपनी सरु वतया वहयरे वलखाये िइयो। / कहत किीर सुनो भाई साधो, / िवहयां पकरर के रवहया िताये िइयो।”3 (पि संख्या 185) कबीर का बहिु आत्मीय सबं ोधन है साधो और भाई। इसी से कबीर के मन की कोमलिा को समझा जा सकिा ह।ै कबीर सबसे संवाि करिे हएु आगे बढ़िे ह।ंै संवाि की ससं ्कृ दि टूटने नहीं िेिे ह।ंै चाहे वह दवरोधी ही क्यों न हो। उससे भी जोरिार सवं ाि करिे ह।ंै यह कबीर के यहां का लोकििं ह।ै यही कबीर हंै जो पाडं े से पूछ बठै िे हंै – “पाडं े िूवझ वपयहु तुम पानी/ िदे कतिे छावं ि दऊे पांडे, इ सि मन के भरमा। / कहवहं किीर सनु ह हो पाडं े, ई तमु्प्हरे हैं करमा।।”4 (पि सखं ्या 150) कबीरिास िाह्मण समाज से जमकर सवाल करिे हैं। उनके मदक्त-मागष को भ्रामक भी बिािे हैं। मलू िः कबीरिास मदक्त की अवधारणा को नए ढगं से प्रस्िि करिे ह,ंै दजसका संबधं लोक से भी है और परलोक से भी ह।ै कबीर के यहां मदक्त इकहरी नहीं ह।ै वह मानर् जन्म और इस लोक को बहुि ही सवं िे नात्मक ढंग से महत्व ििे े हैं िथा इसकी साथकष िा की बाि भी करिे ह।ैं इसदलए संग्रह पर दनग्रह की बाि करिे ह।ैं जन्म-जन्मों का वही खािा नहीं बनािे हंै। कई चीजंे कबीर के यहां बहिु ही स्पि ह।ैं इसदलए वह अिं िः मानवीयिा के पक्षधर हो जािे ह।ैं मनष्ट्यिा ही हमें मदक्त दिला सकिी ह।ै मनष्ट्य का सेवा धमष उसे दवदिि बना सकिा ह।ै कबीरिास कहिे हैं – “मानस िन्म दलु वभ है कोइ न िारै िारर / िो िन फल पाके भुइ वर्गरवहं िहरु र न लार्गै डारर।”5 (पि सखं ्या 110) “बहरु र नदहं आवना या िसे / जो जोगए बहरु र नदहं आये पठवि नादहं संिेस।”6 (पि संख्या 137) कबीरिास न िो उलझिे हंै और न ही उलझािे हैं। इसदलए सारे बाह्याडंबरों और सामादजक िाने-बाने को खोलकर सच से साक्षात्कार करा िेिे हंै। हमारे भीिर के भटकाव को एक िरफ खत्म करिे हंै िो िसू री भटकाने वाली चीजों और मान्यिाओं को एक दसरे से खाररज कर िेिे ह।ैं कबीरिास राम-रहीम की एकिा और गगं ा जमनी िहजीब की बाि एक साथ उठािे ह।ंै दहिं -ू मदस्लम यह ऐसे यनम है दजससे भारिीयिा मजबिू होिी ह।ै लेदकन धमष की राजनीदि और 1 दद्ववेिी, हजारी प्रसाि; कबीर, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, नौवीं आवदृ त्त, 2002, पेपर बैक, पषृ ्ठ सखं ्या 259 2 वहीं 3 वही, पषृ ्ठ संख्या 254 4 वही, पषृ ्ठ सखं ्या 242 5 िास, श्याम संिर; कबीर ग्रंथावली, वाणी प्रकािन, प्रथम संस्करण, 2014, पपरै बैक, पषृ ्ठ सखं ्या – 243 6 दद्वविे ी, हजारी प्रसाि; कबीर, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, नौवीं आवदृ त्त, 2002, पपे र बैक, पषृ ्ठ संख्या 238 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 182

183 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सत्ता की आकांक्षा इसे अलगाने का काम करिी ह।ै कबीरिास बहुि साफ कहिे हैं – “कोई रहीम कोई राम िखाने कोई कहे आदेस / नाना भेष िनाय सिै वमली ढूढं ी वफरे िहुँा दसे । / कहे किीर अंत न पहै ो विन सतर्गुरु उपदेस।।”1 (पि संख्या 137) इिना ही नहीं – “वहदं ू तरु क की एक राह ह,ै सतर्गुरु इहै िताई। कहवं ह किीर सनु हु हो सतं ो राम न कहहे ु खुदाई।”2 (पि संख्या 247) इिना प्रवाह ह,ै इिनी समस्याएं हैं दक सबसे टकराने वाले कबीर भी कई बार यह कहिे हंै – “यह िर्ग अधं ा मंै के वह समझािो।”3 (पि सखं ्या 254) दफर भी कभी हार नहीं मानिे ह।ैं कबीर अपराजेय ह।ंै इस आपाधापी के िौर में कबीर बार-बार एक सिं र लोक के स्वप्न के साथ दिखाई ििे े ह।ैं कबीर का दिया हुआ स्वप्न अनहि नाि की िरह अिं स में गजू रहा ह,ै सिैव हमंे सजग सदक्रय सजीव बनाए हुए ह।ै हमारे दलए सबसे बड़ी आिा हैं कबीर – “सवख कह घर सिसे न्यारा, िहं परू न परु ुष हमारा / िहां न सखु , दखु , सािं झूठ नहीं पाप न पुन्न पसारा / नवहं वदन रैन िंद नवहं सूरि, विना िोवत उवियारा।”4 (पि सखं ्या 236) कबीर की कदविा के करीब जाने का समय है। कबीर को नए ढगं से पढ़ने और समझने की जरूर ह।ै राजसत्ता और पूजं ीसत्ता के ‘नलोबल मॉडल’ से सीधे कोई टकरा रहा है िो वह है कबीर का ‘अमरपर िसे वा’। संभव है लोक मंे ‘अमरपर िेसवा’ की चचाष हो। इस पर दवमिष हो िो िदनया न दसफष बिल सकिी है बदल्क बहिु न्यारी भी हो सकिी ह।ै समय कबीर से दकनारा होने का नहीं बदल्क कबीर के पास जाने का है। संिभा 1. अग्रवाल, परुर्ोत्तम; अकथ कहानी प्रमे की, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, चौथा संस्करण, 2016 2. िक्ल, रामचरं ; दहिं ी सादहत्य का इदिहास, नागरी प्रचाररणी सभा, कािी, सािवां संस्करण 3. दद्ववेिी, हजारी प्रसाि; कबीर, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, नौवीं आवदृ त्त, 2002, पपे र बैक 4. िास, श्याम संिर; कबीर ग्रथं ावली, वाणी प्रकािन, प्रथम ससं ्करण, 2014, पपरै बकै 5. दद्ववेिी, हजारी प्रसाि; कबीर, राजकमल प्रकािन, दिल्ली, नौवीं आवदृ त्त, 2002, पपे र बैक 6. िास, श्याम सिं र; कबीर ग्रंथावली, वाणी प्रकािन, प्रथम संस्करण, 2014, पपरै बकै 1 वहीं 2 वही, पषृ ्ठ संख्या 271 3 वही, पषृ ्ठ सखं ्या 273 4 वही, पषृ ्ठ संख्या 268 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 183

184 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वहन्िी सावहत्येवतहास की समस्याएँ प्रिीन िमाा पीएच.डी, दहन्िी,अबं ेडकर दवश्वदवद्यालय, दिल्ली फोन न. 9899670330,8810341549 ई. मेल [email protected] शोध सारांश- इवतहास िाहे सावहत्य का हो या देश का, िह वसफव त्यों से नहीं िनता िवल्क उसमें त्यों से अवधक महत्ि व्याख्याओं का होता ह।ै इवतहासिोध की परंपरा मंे सवक्य पररितनव शुक्ल िी ने ‘वहन्दी सावहत्य का इवतहास’ में प्रत्यक्षिादी या विधये िादी दृवष्टकोण से वकया। विसके अतं र्गतव िावत, िातािरण तथा क्षण तीन तत्िों को सिावव धक महत्ि वदया। शकु ्लिी के उपरांत कई इवतहासकारों ने इवतहास वलखे। िह सभी इवतहास शुक्ल के इवतहास को कंे द्र मंे रखकर ही वलखे र्गए है हालावं क इवतहासिोध की दृवष्ट से इतने खरे नहीं उतर पाए वसिाए हिारी प्रसाद वद्विेदीिी के । बीज शब्ि – इवतहासिोध, भावषक सकं ्मण, इवतहास, अपभ्रशं , िधं ुत्ि, सावहत्यवे तहास, ििसव ्ि, पौरुष, त्य, ससं ्कृ वत, विभािन, पररकल्पना। शोध आलेख इदिहास मंे अिीि की घटनाओं और प्रवदृ त्तयों का कालक्रमानसार दववचे न और दवश्लेर्ण होिा ह।ै इदिहास में घटनाओं और िथ्यों का समावेि दकया जािा ह,ै दकन्ि यह सब दमलकर इदिहास नहीं कहलािा। इदिहास चाहे सादहत्य का हो या ििे का, वह दसफष िथ्यों से नहीं बनिा बदल्क उसमंे िथ्यों से अदधक महत्व व्याख्याओं का होिा ह।ै प्रदसद्ध इदिहासकार ई.एच.कार ने अपनी पस्िक ‘इदिहास क्या ह’ै मंे दलखा है दक, ”इदिहास, इदिहासकार और िथ्यों की दक्रया-प्रदिदक्रया की एक अनवरि प्रदकया है, अिीि और विमष ान के बीच एक अंिहीन सवं ाि ह।ै ”1 स्पि है दक घटना प्रवाह मंे एक िकष स्थादपि करना इदिहास कहलािा है। यदि दहन्िी सादहत्यदे िहास की समस्याओं पर दवचार करे िो हम पािे है दक उन्नीसवीं ििाब्िी से पूवष भक्तमाल, कालीिास हजारा, कदवमाला, चौरासी वषै्ट्णव की वािाष, िो सौ बावन वैष्ट्णव की वािाष इत्यादि रचनाओं मंे इदिहास लेखन की आरंदभक झलक दिखाई पड़िी ह,ै ये सभी रचनाएँ इदिहासबोध के स्िर पर प्रभाव िून्य ह।ैं उन्नीसवीं सिी में इदिहास लखे न की औपचाररक िरूआि हुई। दजसमें गासाष ि िासी का ‘इस्िवार ि ला दलिरेत्यर ऐन्िई ऐन्िस्िानी’ दिवदसंह संेगर का ‘दिवदसहं सरोज’ आदि इदिहासबोध से यक्त नहीं ह।ै जॉजष दग्रयसनष और दमश्रबन्ध के प्रयास में इदिहासबोध के प्रदि सजगिा दिखाई पड़िी है। लेदकन इनके इदिहास मंे भी इदिहासबोध की दनश्चयात्मक व्याख्या प्रस्िि नहीं ह।ै इदिहासबोध की परंपरा मंे सदक्रय पररविनष आचायष रामचन्र िक्ल ने अपनी पस्िक ‘दहन्िी सादहत्य का इदिहास’ में प्रत्यक्षवािी या दवधेयवािी दृदिकोण से दकया। दजसके अिं गिष जादि, वािावरण िथा क्षण िीन ित्वों को सवादष धक महत्व दिया। िक्ल के उपरांि कई इदिहासकारों ने इदिहास दलखे। वह सभी इदिहास िक्ल के इदिहास को कें र मंे रखकर ही दलखे गए हंै हालांदक इदिहासबोध की दृदि से इिने खरे नहीं उिर पाए दसवाए हजारी प्रसाि दद्वविे ी के , हमें यह भी ध्यान रखना आवश्यक होगा दक हजारी प्रसाि दद्वविे ी का इदिहास कोई इदिहास नहीं है बदल्क भदू मका माि ह।ै बच्चन दसंह ने कहा है दक, ”न िो आचायष रामचन्र िक्ल के ‘दहन्िी सादहत्य का इदिहास’ को लेकर कोई िसू रा इदिहास दलखा जा सकिा है और न उसे छोड़कर।“2 दहन्िी सादहत्य के इदिहास के आरंभ को लके र दवद्वानों मंे काफी मिभिे रहा ह।ै कछ दवद्वान दहन्िी सादहत्य को वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 184

185 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सािवीं ििाब्िी से मानिे ह,ैं क्योंदक सािवीं ििाब्िी में पूवषविी अपभ्रंि के लक्षण दिखाई िने े लगिे ह।ंै ऐसे दवद्वानों में जॉजष दग्रयसनष , दमश्रबन्ध, दिवदसंह संेगर, पंदडि राहलु साकं ृ त्यायन, डॉ. नगेंर और डॉ. रामकमार वमाष िादमल ह।ंै आचायष हजारी प्रसाि दद्ववेिी व आचायष रामचन्र िक्ल िोनों दहन्िी सादहत्य का आरंभ िसवीं ििाब्िी से मानिे ह।ंै दद्वविे ी जी की दृदि में इसका कारण भादर्क है, जबदक आचायष रामचन्र िक्ल अपभ्रंि को परानी दहन्िी मानिे हैं दकन्ि काफी समय िक सांप्रिादयक रचनाएँ होिी रही, दजन्हंे सादहत्य नहीं माना जा सकिा। इसीदलए वास्िदवक रूप से दहन्िी सादहत्य का आरंभ सवं ि् 1050 या 993 ई. के आस-पास से आरंभ हुआ। गणपदि चन्रगप्त और हरीिचन्र वमाष दहन्िी सादहत्य का आरंभ बारहवीं ििाब्िी से मानिे हैं और इसका कारण यह बिािे हैं दक बारहवीं सिी के आस-पास अपभ्रिं व अवहट्ट से गजरिे हुए दहन्िी भार्ा परानी दहन्िी के िौर में प्रवेि कर चकी थी। वहीं सनीदि कमार चटजी, उिय नारायण दिवारी िथा नामवर दसहं दहन्िी सादहत्य का आरंभ भार्ा वजै ्ञादनक आधार पर चौिहवीं सिी से मानिे हैं क्योंदक इस समय िक भादर्क संक्रमण का िौर पणू षिः समाप्त हो चका था और दहन्िी अपने वास्िदवक रूप में आ चकी थी। अि: दहन्िी सादहत्य का आरम्भ िसवीं ििाब्िी के आस-पास माना जािा है क्योंदक िसवीं ििाब्िी के आरंभ में भादर्क संक्रमण एक दनदश्चि समय िक पहचुँ चका था। इसी समय आधदनक दहन्िी के आरंदभक लक्षण भी दिखाई िने े लगे थे। दहन्िी सादहत्यदे िहास में काल दवभाजन का सवषप्रथम प्रयास जॉजष दग्रयसनष ने दकया। उन्होंने सम्पूणष सादहत्य को नयारह कालों में दवभक्त दकया। इस दवभाजन की समस्या यह थी दक इसमें कई कालखंड गैर-सादहदत्यक आधारों पर स्थादपि दकए गए थे। चारणकाल का दनदश्चि समय 700 से 1300 ई. बिाया दकन्ि िेर् कालों का दनदश्चि दवभाजन न कर सके । इसदलए यह दवभाजन अव्यवदस्थि माना जािा ह।ै दमश्रबंध ने आदिकाल को आरंदभक काल कहिे हएु उसका समय 643 से 1387 ई. बिाया ह।ै इस काल दवभाजन की मूल समस्या यह है दक यह अत्यंि जदटल एवं अिादकष क ह।ै आचायष िक्ल ने आदिकाल को ‘वीरगाथाकाल नाम’ दिया। इसका समय 1050 से 1375 सवं ि् माना ह।ै उन्होंने इसके पीछे िकष दिया है जो इस प्रकार है, “पररदस्थदि के अनसार दिदक्षि जनसमहू की बिली हुई प्रवदृ त्तयों को लक्ष्य करके दहन्िी सादहत्य के इदिहास के कालदवभाग और रचना की दभन्न–दभन्न िाखाओं के दनरूपण का एक कच्चा ढ़ाचा खड़ा दकया गया था।”3 हजारी प्रसाि दद्वविे ी भी िक्ल की िरह सादहत्य का आरंभ िसवीं ििाब्िी से मानिे ह।ैं गौरिलब है दक आदिकाल के नामकरण को लके र हजारी प्रसाि दद्वविे ी की वचै ाररक दृदि आचायष रामचन्र िक्ल से दभन्न ह।ै आचायष रामचन्र िक्ल ने ‘वीरगाथाकाल’ नाम बारह पस्िकों के आधार पर रखा। जोदक चार रचनाएँ अपभ्रिं की और आठ रचनाएँ िेिभार्ा (बोलचाल) की ह।ंै प्रश्न यह उठिा है दक दजन बारह पस्िकों के आधार पर ‘वीरगाथाकाल’ नाम रखा गया उसमंे से कई धादमकष उपििे परक रचनाएँ हैं। दजसको वह सादहत्य की कोदट से बाहर रखिे हैं। दजसका उल्लखे यह बिाने के दलए करिे है दक अपभ्रिं भार्ा का आरंभ कब से हुआ। इसी आधार पर हजारी प्रसाि दद्ववेिी दवरोध करिे हएु कहिे हैं दक, “दजन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का वीरगाथाकाल नाम रखा गया, उनमें से िो कछ नोदटस माि से बहुि अदधक महत्वपूणष नहीं, और कछ िो पीछे की रचनाएँ है या पहले की रचनाओं के दवकृ ि रूप ह।ैं इन पस्िकों को नवीन मान दलया गया ह।ै ”4 ‘कीदिषपिाका’ जैसे रचनाएँ आज िक उपलब्ध नहीं हईु ह।ैं रासो सादहत्य की कई रचनाएँ भार्ा के आधार पर आदिकाल के बाि दसद्ध होने लगी हैं और कई ऐसी रचनाएँ सामने आने लगी है जो िक्ल के समय में उपलब्ध नहीं थीं, और यदि होिी िो िायि उनके दनणयष को बिल ििे ी। वहीं अमीर खसरो और दवद्यापदि को आचायष िक्ल फटकर सादहत्य में रखिे हंै जबदक उन बारह रचनाओं में अमीर खसरो, दवद्यापदि की रचनाएँ सदम्मदलि ह।ै अि: दद्वविे ी द्वारा आदिकाल नाम पर सहमदि बन चकी हैं क्योंदक इसमंे आरंदभक होने के साथ-साथ पूवजष होने का एहसास भी िादमल ह।ै भदक्तकाल मंे सगण सादहत्य िक आिे-आिे आचायष िक्ल की दृदि मंे पररविषन दिखाई पड़िा ह।ै िलसीिास, सूरिास को ‘जी’ कहकर सम्मान िेिे ह।ैं वही दनगणष सादहत्य में सिं ों को नाम से ही सबं ोदधि करिे ह।ंै आचायष िक्ल वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 185

186 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 रचनाकारों से ज्यािा रचना को महत्व िेिे ह।ंै इसी कारण कबीर उनकी आलोचना का पाि बनिे हंै। िलसीिास का वह बड़ा समथषन करिे है क्योंदक िलसीिास और िक्ल जादि से िाह्मण ह।ै अगर िेखा जाए िो कबीर भी दवधवा िाह्मणी के अनचाहे गभष थे। भार्ा के स्िर पर भी आचायष िक्ल कबीर को नकार ििे े ह।ैं उनकी भार्ा को सधक्कड़ी और फटकार वाली भार्ा कहिे ह।ंै कबीर दजस समय समाज से टकरा रहे थे उस समय सभ्य भार्ा का प्रयोग उदचि नहीं था इसदलए वह जनिा के उस बड़े भाग को संभालिे है जो प्रमे भाव और भदक्तरस से िून्य पड़िा जा रहा था। बहरहाल भदक्तकाल के उद्भव को लेकर भी द्वंद्व िखे ा जा सकिा ह।ै आचायष िक्ल कहिे है दक, “िेि में मस्लमानों का राज्य प्रदिदष्ठि हो जाने पर दहन्िू जनिा के हृिय में गौरव, गवष और उत्साह के दलए वह अवकाि न रह गया। उसके सामने ही उसके िेवमदं िर दगराए जािे थ,े िेवमदू ियाँ िोड़ी जािी थी और पजू ्य परुर्ों का अपमान होिा था और वह कछ भी नहीं कर सकिे थे। ऐसी ििा मंे वह अपनी वीरिा के गीि न िो वे गा ही सकिे थे और न दबना लदज्जि हएु सन ही सकिे थे। आगे चलकर जब मदस्लम साम्राज्य िरू िक स्थादपि हो गया िब परस्पर लड़ने वाले स्विंि राज्य भी नहीं रह गए। इिने भारी राजनीदि उलटफे र के पीछे दहन्िू जनसमिाय पर बहिु दिनों िक उिासी सी छाई रही। अपने पौरुर् से हिाि जादि के दलए भगवान की िदक्त और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अदिररक्त िसू रा मागष ही क्या था ?”5 स्पि है दक आचायष िक्ल भदक्त काल का उद्भव इस्लाम प्रदिदक्रया के रूप में िेखिे है। हजारी प्रसाि दद्वविे ी एक बार दफर आचायष रामचन्र िक्ल के मि से असहमदि जिािे हुए कहिे है दक, “अगर इस्लाम नहीं आया होिा िो भी इस सादहत्य का बारह आना वैसा ही होिा जसै ा आज ह।ै “6 लेदकन दद्ववेिी चार आना छोड़िे ह,ै कहीं न कहीं वे भी भदक्तकाल का अद्भव मसलमानों से मानिे ह।ंै रीदिकाल का वगीकरण भी दववािस्पि रहा है। रीदिकाल को दमश्रबधं ने ’अलकं ृ ि काल’ दवश्वनाथ प्रसाि दिवारी ने ‘िंगृ ार काल’, रमािंकर िक्ल रसाल ने ‘कलाकाल’ और दग्रयषसन ने ‘रीदिकाव्य’ नाम से संबोदधि दकया। यह सभी नाम दकसी एक प्रवदृ त्त के आधार पर रखे गए इसदलए इन सभी नामों पर असहमदि बनिी ह।ंै आचायष रामचन्र िक्ल द्वारा ‘रीदिकाल’ ही मान्य ह।ै गहराई से दवचार दकया जाए िो यह समस्या हमारे समक्ष उत्पन्न होिी हैं दक वीरकाव्य व नीदिकाव्य उस समय दलखे जा रहे थे दकन्ि िोनों प्रवदृ त्त अदिमहत्वपणू ष होिे हएु भी एकिम गौण बन जािी ह।ंै रीदिकाल की िरूआि का प्रसगं भी दववािस्पि ह।ै आचायष िक्ल ने के िविास को रीदिपरम्परा का प्रविषक नहीं माना। कारण बिाया दक वे अलंकारवािी आचायष ह,ैं रसवािी नहीं, बदल्क िथ्य यह है दक के िविास की रचना ‘रदसकदप्रय’ पणू िष : रसवािी रचना ह।ै िथा अन्य रसवािी आचायो ने भी अलंकारवािी रचनाएँ दलखी ह।ैं बहरहाल इस बाि का दजक्र करना आवश्यक है दक दहन्िी सादहत्य के इदिहास की सबसे बड़ी समस्या िथ्यों की प्रामादणकिा हंै। दहन्िी सादहत्य के इदिहास मंे कई िथ्य प्रामादणक रूप से उपलब्ध नहीं हंै। उिाहरण के दलए कबीर के जन्म-मतृ ्य की घटनाए,ँ जायसी के रचनाओं की मूल प्रदियाँ, सरू िास के अधं त्व का प्रश्न, रासो सादहत्य की प्रामादणकिा िथा घनानन्ि की रचनाओं की पूरी सूची जैसे कई प्रश्न हैं दजनके दनधाषरण की प्रदकया दनरंिर चल रही ह।ैं आधदनकिा का आरंभ भारिने ्ि यग से माना जािा ह,ै लेदकन आधदनकिा की िरुआि एक ििाब्िी पवू ष ही हो गई थी। दिदटि िासन ने भारिीय दिक्षा प्रणाली पर ज़ोर दिया। माध्यदमक दिक्षा और दवश्वदवद्यालय दिक्षा अंग्रजे ी भार्ा मंे िी जाने लगी। अगं ्रजे ो ने भारि मंे फू ट डालो की नीदि अपनाकर बगं ाल, उड़ीसा और दबहार राज्यों के अलावा पूणिष : भारि पर अपना वचषस्व स्थादपि कर दलया। अंग्रेजो की इस कू टनीदि का दवरोह भारिेन्ि यग के कदवयों की रचनाओं में स्पिि: दिखाई ििे ा ह।ंै यह दवरोह पद्य की बजाय गद्य मंे अदधक िखे ा जा सकिा है। भारिेन्ि यग मंे काव्य की भार्ा िजभार्ा और गद्य की भार्ा खड़ी बोली रही। उन्नीसवीं ििाब्िी में भारिीय सकं ्रमण के दजस िौर से गजरा इसे कछ दचंिक पनजागष रण कहिे ह,ैं कछ पनरुत्थान कहिे है और कछ अन्य नवजागरण। रामस्वरूप चिवेिी के िब्िों में, वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 186

187 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 “पनजाषगरण िो जािीय ससं ्कृ दि की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊजाष ह।ै ”7 एक ओर भारिीय ससं ्कृ दि है िो िसू री ओर पाश्चात्य ससं ्कृ दि। यह भारिीय ससं ्कृ दि अध्यात्म प्रधान व मध्यकालीन िौर से गजर रही थी। जबदक पाश्चात्य संस्कृ दि वजै ्ञादनक िथा मिीनी क्रांदि के आधार पर भौदिकवाि िथा पजंू ीवाि का प्रदिदनदधत्व कर रही थी। उनका अध्यात्म पक्ष कमजोर जरूर था, लदे कन वैज्ञादनक िादकष क दिक्षा, इहलौदकक मानदसकिा, समानिा स्वििं िा, न्याय व बधं त्व के आधदनक आििष थे। जो ित्कालीन भारिीय समाज के दलए िलषभ थे। इन िोनों की टकराहट से पाश्चात्य संस्कृ दि अध्यात्म से प्रभादवि हुई। वही भारिीय संस्कृ दि ने आधदनक दिक्षा व भौदिकिा सीखी। दद्ववेिी यग मंे राष्ट्रीयिा का स्वर और प्रखर हो गया। अक्सर यह आरोप लगाया जािा है दक छायावाि मंे राष्ट्रीयिा का स्वर मिं रहा। दवचार करने पर पािे है दक छायावाि का मूल उत्स भारिीय स्वधीनिा संघर्ष मंे ह।ै ध्यान िने े वाली बाि है दक कदविा मंे छायावाि और भारिीय राजनीदि मंे महात्मा गाधं ी का आगमन लगभग एक ही साथ हआु । नगंेर के अनसार, “ दजन पररदस्थदियों ने हमारे ििनष और कमष को अदहसं ा की ओर प्ररे रि दकया, उन्होंने ही भाव (सौन्ियष) वदृ त्त को छायावाि की ओर।”8 इसका मिलब यह नहीं है दक छायावाि और गाधं ी जी की जीवन दृदि समान है या स्वाधीनिा संग्राम मंे जो भूदमका गांधी जी की थी, वही छायावाि की दहन्िी सादहत्य के संिभष मंे। लदे कन स्वाधीनिा संग्राम में छायावाि और गांधी िोनों की पररकल्पना उस िौर मंे लगभग समान कही जा सकिी ह।ंै सत्य यह है दक छायावािी काव्य में राष्ट्रीय जागरण सांस्कृ दिक जागरण के रूप में आिा ह।ै इस सासं ्कृ दिक जागरण की अदभव्यदक्त दनराला की ‘जागो दफर एक बार’, पंि की ‘प्रथम रदश्म’, महािेवी वमाष की ‘जाग िझको िरू जाना’ और प्रसाि की ‘प्रथम प्रभाि’, ‘अब जागो जीवन के प्रभाि’, ‘बीिी दवभावरी जाग री’ आदि में िेखा जा सकिा ह।ै छायावाि िब्ि को लके र भी हमारे समक्ष समस्या उत्पन्न होिी है। दवदभन्न दवद्वानों ने छायावाि के संबंध में अपनी मान्यिाएँ िी ह,ै लेदकन आज िक कोई दनदश्चि पररभार्ा िय नहीं हुई ह।ै महावीर प्रसाि दद्वविे ी मानिे है दक, ”छायावाि से लोगों का क्या मिलब है, कछ समझ में नहीं आिा। िायि उनका मिलब है दक दकसी कदविा के भावों की छाया यदि कही अन्यि जाकर पड़े िो उसे छायावािी कदविा कहना चादहए।”9 वहीं िांदिदप्रय दद्वविे ी छायावाि को गाधं ी से जोड़कर पहचान दिलाने की कोदिि करिे ह।ै आचायष रामचरं िक्ल िरुआिी दिनों िक छायावाि को ‘मधचया’ष कहिे रह।े बाि में दनराला की कृ दि ‘राम की िदक्तपजू ा’ प्रसाि की ‘कामायनी’ से पररदचि होने के बाि अपनी धारणा को बिल िेिे है। जो इस प्रकार ह,ै ”इस रूपात्मक आभास को यूरोप में छाया (फै न्टसमाटा) कहिे थ।े इसी से बगं ाल में िह्मसमाज के बीच उक्त वाणी के अनकरण पर जो आध्यादत्मक गीि या भजन बनिे थे वे ‘छायावाि’ कहलाने लगे। धीरे-धीरे यह िब्ि धादमषक क्षिे मंे वहाँ के सादहत्यक्षेि में आया और दफर रवीन्र बाबू की धूम मचने पर दहन्िी के सादहत्य क्षिे से भी प्रकट हआु ।”10 इस कथन से स्पि है दक छायावाि पर दजिना प्रभाव गांधी जी का पड़ा। उिना ही रवीन्रनाथ जी का भी। दहन्िी सादहत्य के इदिहास को नए दवमिों और नए दृदियों का दववचे न करने के दलए िक्ल के इदिहास से बाहर आना आवश्यक ह।ै आधदनक काल मंे हमारे समक्ष नई समस्याएँ आ खड़ी हुई। सबसे बड़ी समस्या भार्ाई स्िर पर थी। दहन्िी को भारि की राष्ट्रभार्ा बनाने का ज़ोर अपनी लय में था। भारि भार्ा और समाज िोनों के दलए लड़ रहा था। भारि को आज़ािी िो दमल गई थी लदे कन दहन्िी भार्ा राष्ट्रभार्ा नहीं बन पाई। आज़ािी के बाि हमने जो स्वप्न िेखे, वह स्वप्न बनकर ही रह गए। भारि अब अपनों के हाथों का गलाम बन गया था। रोटी, कपड़ा और मकान जसै ी रोज़मराष की बदनयािी चीजें, दजसके दलए भारि ने लंबी लड़ाई लड़ी वह भी प्राप्त नहीं हईु । ईश्वर की जगह मनष्ट्य कें र में आ गया था। उनकी समस्याओं और दवरोह को नागाजनष , रघवीर सहाय, धदू मल, आदि सादहत्यकारों ने अपनी रचनाओं मंे व्यक्त दकया। सन् 1980 के बाि स्त्री दवमिष और िदलि दवमिष सादहत्य में स्थान पाने लगे। अक्सर यह सवाल उठाया जािा है दक स्त्री सादहत्य को मख्य धारा के सादहत्य से दवमख रखा गया। परंि दवचार करने पर पािे है दक िरूआिी िौर से ही स्त्री वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 187

188 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सादहत्य में बनी हुई है जसै े मीरा, महािवे ी वमाष, मन्नू भण्डारी, मिृ ला गगष आदि। िदलि सादहत्य को लेकर भी एक प्रश्न बराबर उठिा रहिा है दक गैर-िदलि सादहत्यकार की िदलि संबंधी रचना को िदलि सादहत्य की श्रेणी में रखा जाए या नहीं ? दजस प्रकार परुर्ों द्वारा दलखा गया स्त्री सादहत्य को सादहत्य की श्रेणी में महत्व दिया जािा है दफर गैर-िदलि सादहत्यकार की िदलि सबं ंधी रचना पर इिनी बहस क्यों ? एक समस्या यह है दक प्रवासी सादहत्य को लके र रुदच का आभास दिखिा ह।ै दहन्िी सादहत्य में प्रवासी सादहत्यकारों को जो स्थान दमलना चादहए वह स्थान उन्हे नहीं दमलिा। दविेिों मंे रहकर भी दहन्िी भार्ा और सादहत्य का झण्डा कई वर्ो से फहराया जा रहा है। वह अिलनीय ह।ै एक ओर समस्या यह है दक मंचीय कदविा को सादहत्य की कोदट में रखा जाए या नहीं ? इस सिं भष में मनै जे र पाण्डेय कहिे है दक, “जो भड़ौिी और दविरू ्क की प्रवदृ ि का हास्य व्यंनय है ऐसे कदवयों को आप जानिे हंै और मैं भी जनिा हूँ दक अपनी पत्नी को पचास गिं ी गादलयां िेकर हास्य पैिा करिे ह।ंै ऐसी कदविाओं को कदविा कै से मानंेगें। इसदलए जो हास्य व्यंनय की गभं ीर और दवचारणीय कदविाएं ह।ैं उनके दलए जगह हो सकिी ह।ंै ”11 अंि मंे यह कहा जा सकिा है दक स्वििं िा से पूवष जो इदिहास दलखे गए उनकी मलू समस्या में स्विंििा और हमारी परंपरा का सवाल था। स्विंििा के बाि कई सादहत्येदिहास दलखे गए उनकी मलू समस्या सामादजक, सांस्कृ दिक और परंपरा थी। दजसको रामस्वरूप चिवेिी, बच्चन दसहं , और समन राजे अपने इदिहास मंे दविेर् रूप से व्याख्यादयि करिे ह।ंै संिभा ग्रथं सू ी- 1) कार,ई.एच., 2016, इदिहास क्या ह,ै मकै ादमलन इदं डया दलदमटेड प्रकािन, पषृ ्ठ सखं ्या: 21 2) दसंह, बच्चन, 2016, दहन्िी सादहत्य का िसू रा इदिहास, राधाकृ ष्ट्ण प्रकािन, पषृ ्ठ सखं ्या: भूदमका (vii) 3) िक्ल, रामचरं , 2012, दहन्िी सादहत्य का इदिहास, लोकभारिी प्रकािन, पषृ ्ठ संख्या: भदू मका (xv) 4) प्रिाप दसंह, योगरंे , 2016, दहन्िी सादहत्य का इदिहास और उसकी समस्याएँ, वाणी प्रकािन, पषृ ्ठ संख्या: 36 5) िक्ल, रामचरं , 2012, दहन्िी सादहत्य का इदिहास, लोकभारिी प्रकािन, पषृ ्ठ संख्या: 39 6) प्रिाप दसंह, योगेंर, 2016, दहन्िी सादहत्य का इदिहास और उसकी समस्याएँ, वाणी प्रकािन, पषृ ्ठ सखं ्या: 90 7) चिविे ी, रामस्वरूप, 2011, दहन्िी सादहत्य और संवेिना का दवकास, लोकभारिी प्रकािन, पषृ ्ठ संख्या: 79 8) अमरनाथ, 2018, दहन्िी आलोचना की पाररभादर्क िब्िावली, राजकमल प्रकािन, पषृ ्ठ सखं ्या: 151 9) वही, पषृ ्ठ संख्या: 151 10) िक्ल, रामचरं , 2012, दहन्िी सादहत्य का इदिहास, लोकभारिी प्रकािन, पषृ ्ठ सखं ्या: 456 11) समसामदयक सजृ न पदिका, अप्रैल-जनू 2012, वर्ष िो, अंक िो, पषृ ्ठ सखं ्या: 145 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 188

189 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मवक्तबोध द्वारा विकवसत कला का समाजशात्र डॉ. सधाशं भूषण नाथ वतिारी एसोदिएट प्रोफे सर, दहन्िी आयभष ट्ट कालजे दिल्ली दवश्वदवद्यालय साराशं मवु ििोध मलू तः कला के समािशास्त्री ह।ैं कविता उनके वसद्धान्तों को स्थावपत करने का साधन िसै ी प्रतीत होती ह।ै इसप्रकार, कला के समािशास्त्री होने के साथ-साथ मुवििोध ने कविता का समािशास्त्र भी वनवमतव वकया ह।ै इसे विश्व सावहत्य को भारत की दने के रूप मंे देखा िा सकता ह।ै मवु ििोध की व्यािहाररक समीक्षाएँा उनके द्वारा प्रस्तावित कला के समािशास्त्र को कविता पर सत्यावपत करती ह।ैं ‘कामायनीः एक पुनविविार’ तथा उनके द्वारा की र्गयी अन्य समीक्षाओं को इसके प्रमाण के रूप में वलया िा सकता ह।ै इसवलए मवु ििोध के द्वारा वनवमतव और व्याख्यावयत कला और खासकर कविता के समािशास्त्र पर वििार करना यहााँ आिश्यक हो िाता ह।ै बीज शब्ि मवु ििोध, समाि, समािशास्त्र, कला, वििार, सावहत्य शोध आलेख यरू ोप मंे सादहत्य का समाजिास्त्र उपन्यास के आधार पर दनदमषि हआु और इसमें उपन्यास की पररभार्ा की बड़ी भदू मका रही दजसमें इसे आधदनक यग का महाकाव्य कहा गया। इसने रूप और अिं वषस्ि से संबद्ध कई प्रश्नों को जन्म दिया। इस कथन की व्याख्या ने समाज और सादहत्य के अनदगनि पक्षों को सामने लाकर रख दिया। एक पक्ष िो यह था दक वह समाज है दजसने महाकाव्य की जगह उपन्यासों को स्थादपि दकया। कहा जा सकिा है दक समाज के वल अंिवषस्ि का ही दनधाषरण नहीं करिा, वह सादहदत्यक रूपों का भी दनधारष ण करिा ह।ै िो िसू रा इसका अथष यह भी है दक सादहत्य की अिं वषस्ि ही सादहदत्यक रूपों का भी दनधाषरण करिी ह।ै यह कई प्रकार से माक्सवष ािी दवचारधारा के फलस्वरूप दवकदसि हईु है जहाँ आधार ही अदधरचना का दनधारष ण करिा ह।ै आधार और अदधरचना के बीच के द्वंिात्मक सबं धं को स्वीकार करिे हएु भी माक्सषवािी आलोचना ने सादहत्य को अन्िवषस्ि के दन्रि बना दिया। रूप अदधरचना का अंग होने के चलिे उपेक्षा का दिकार रहा। यह महज सयं ोग नहीं दक रूप अपने आप में सादहत्य जगि का उपेदक्षि िब्ि बन कर रह गया। मदक्तबोध पर बहुि कम दवचार दकया गया ह।ंै यदि हआु भी है िो वह उनके कदव रूप को लके र ही अदधक हआु ह।ै परन्ि मदक्तबोध मूलिः कला के समाजिास्त्री ह।ैं कदविा उनके दसद्धान्िों को स्थादपि करने का साधन जसै ी प्रिीि होिी ह।ै इसप्रकार, कला के समाजिास्त्री होने के साथ-साथ मदक्तबोध ने कदविा का समाजिास्त्र भी दनदमिष दकया ह।ै इसे दवश्व सादहत्य को भारि की िने के रूप में िेखा जा सकिा ह।ै मदक्तबोध की व्यावहाररक समीक्षाएँ उनके द्वारा प्रस्िादवि कला के समाजिास्त्र को कदविा पर सत्यादपि करिी ह।ैं ‘कामायनीः एक पनदवचष ार’ िथा उनके द्वारा की गयी अन्य समीक्षाओं को इसके प्रमाण के रूप में दलया जा सकिा ह।ै इसदलए मदक्तबोध के द्वारा दनदमषि और व्याख्यादयि कला और खासकर कदविा के समाजिास्त्र पर दवचार करना यहाँ आवश्यक हो जािा ह।ै सादहत्य का एक बहुचदचषि प्रश्न यह रहा है दक उसकी पररभार्ा दकस प्रकार से की जाए। क्या के वल कालजीवीपन सादहत्य कालजयीपन का आधार ह?ै एडोनो ने बहुि ही साथषक रूप में कह डाला दक कलाएँ समाज का प्रदिदसद्धान्ि प्रस्िि करिी ह।ंै सादहत्य की इससे साथषक पररभार्ा नहीं की जा सकिी ह।ै परन्ि यह प्रदिदसद्धान्ि कै से बनिा ह?ै हगे ेल वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 189

190 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 की िब्िावली में यह अिं दवषरोधों से बनिा ह।ै परन्ि इसकी एक प्रदक्रया ह।ै अिः इसके बनने की प्रदक्रया पर दवचार आवश्यक ह।ै एक सीमा के बाि इन िोनों प्रश्नों को अलगाया नहीं जा सकिा ह।ै जब व्यदक्त ही सामादजक होिा है िो उसके कमष को वैयदक्तक कह कर सिं ोर् नहीं दकया जा सकिा ह।ै व्यदक्त और समाज का संबधं ही संसाररकिा का िाना- बाना रचिा ह।ै और, इसी आधार पर सादहत्य का सजृ न होिा ह।ै अिः व्यदक्त और समाज के अन्िःसंबंध को समझे दबना सादहत्य सजृ न को नहीं समझा जा सकिा ह।ै मदक्तबोध ने दलखा है दक ‘‘काव्य-रचना के वल व्यदक्तगि मनोवजै ्ञादनक प्रदक्रया नहीं ह,ै वह एक सांस्कृ दिक-प्रदक्रया ह।ै दफर भी वह एक आदत्मक प्रयास ह,ै उसमें जो सासं ्कृ दिक मलू ्य पररलदक्षि होिे ह,ैं वे व्यदक्त की अपनी िेन नहीं, समाज की या वगष की िने होिे ह।ैं ’’1 मदक्तबोध ने काव्य रचना को सासं ्कृ दिक कहकर कई प्रश्नों को जन्म दिया ह।ै सांस्कृ दिक होने के कारण वह वगीय या सामादजक कमष ह।ै लदे कन उसे आदत्मक प्रयास कहकर मदक्तबोध ने सादहत्य को व्यदक्तत्व के अदभप्राय के साथ जोड़ कर िखे ा ह।ै यह कई प्रकार से आत्म के दनमाषण की प्रदक्रया का दवश्लेर्ण ह।ै व्यदक्त और उसकी दवश्वदृदि के दनमाषण मंे उसकी ससं ्कृ दि की भूदमका का मूल्याकं न भी ह।ै अिः सादहत्य को इन िोनों के द्विं में ही िेखा जाना चादहए। समाज और व्यदक्त के इसी द्विं के बीच व्यदक्त का मनोवजै ्ञादनक रूप भी ह।ै इस सांस्कृ दिक, वैयदक्तक, मनोवजै ्ञादनक और सामादजक कमष को ही सादहत्य कहिे ह।ंै मदक्तबोध ससं ्कृ दि को उसके दवस्ििृ रूप में स्वीकार करिे ह।ंै ससं ्कृ दि की सबसे दवदधवि पररभार्ा िने े का कायष टाइलर ने दकया। टाइलर की दप्रदमदटव कल्चर सन् 1874 मंे छपी थी। और कछ ही दिनों मंे यह पस्िक लोकदप्रय हो गयी थी। टाइलर ने दलखा दक संस्कृ दि या सभ्यिा नवृ ंिदवज्ञान के रूप में ग्रहण करने पर समाज के एक सिस्य के रूप मंे व्यदक्त द्वारा अदजषि ज्ञान, दवश्वास, कला, नदै िकिा, दनयम, परम्परा और क्षमिाओं और आििों की जदटल समग्रिा ह।ै 2 मदक्तबोध जब काव्य-रचना के आदत्मक प्रयास में सासं ्कृ दिक मलू ्य खोजिे हैं िब वे संस्कृ दि को इसी व्यापक अथष में दवश्लेदर्ि कर रहे होिे ह।ंै इस अथष में मदक्तबोध द्वारा की गयी संस्कृ दि समीक्षा का क्षिे बहिु व्यापक ह।ै इसे उनके द्वारा की गयी रचनाओं और आलोचनाओं में भी िेखा जा सकिा ह।ै काव्य-रचना-प्रदक्रया काव्य के अदस्ित्व मंे आने की प्रदक्रया ह।ै अथािष ् दजन-दजन स्रोिों-अवस्थाओं से होकर रचना अदस्ित्व में आिी है उन्हें दवश्लेदर्ि करने की प्रदक्रया ह।ै इसमंे व्यदक्तत्व की प्रमख भूदमका होिी ह।ै यह व्यदक्त समाज- सापेक्ष होिा ह।ै मदक्तबोध की दविरे ्िा इस बाि मंे है दक उन्होंने व्यदक्तत्व के सामादजक-मनोवजै ्ञादनक रूप को ही काव्यरचना का आधार स्वीकार दकया ह।ै इसप्रकार, मदक्तबोध ने इस व्यदक्तत्व को नया आयाम दिया ह।ै मदक्तबोध का आत्म माक्सवष ाि से लगाव-अलगाव के बाि दनदमषि हआु ह।ै रचना एक आदत्मक-प्रयास ह।ै मदक्तबोध ने आत्म को सामादजक या वगीय चररि के रूप मंे दवश्लेदर्ि दकया ह।ै वगीय चररि से संचादलि होने के कारण वह आत्मा के अदभप्राय से भी सचं ादलि ह।ै रचना-प्रदक्रया को वगीय अदभप्राय से सचं ादलि आदत्मक प्रयास कहकर मदक्तबोध ने रचना को स्विः स्फटन मानने वालों का दवरोध िो दकया ही ह,ै साथ ही काव्य को स्वांिः सखाय कहने वालों का भी प्रदिरोध दकया ह।ै अथािष काव्य-रचना एक अदभप्रेि प्रयास ह।ै वह रचनाकार के वगीय अदभप्राय से सचं ादलि ह।ै वगीय दहिों की रक्षा उसका लक्ष्य ह।ै रचनाकार के उद्देश्यों से अलगाकर सादहत्य को नहीं िेखा जा सकिा ह।ै ऐसा कहिे हएु मदक्तबोध ने यह स्पि रूप से कह दिया है दक आत्म, दजसके 1 मदक्तबोध रचनावली, राजकमल प्रकािन, 1980 भाग 2 Primitive Culture, Tylor, Edward B., ESTES & LAURIAT, 1874, page 1 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 190

191 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 अदभप्राय की रचना मंे महत्त्वपणू ष भदू मका ह,ै को दकनारे रखकर कला को नहीं समझा जा सकिा ह।ै और िब, आत्म के दवकास की प्रदक्रया पर दवचार दकए बगरै काव्य की रचना-प्रदक्रया पर चचाष का कोई अथष ही नहीं रह जािा ह।ै आत्म के दवकास की प्रदक्रया ही रचनाकार की दवश्वदृदि का दनमाणष करिी ह।ै यही लखे क की प्रदिबद्धिा को स्पि करिी ह।ै यही उसके ज्ञान का आधार ह।ै ससं ार के बोध का आधार ह।ै काव्य-रचना को आदत्मक प्रयास कहिे हुए मदक्तबोध ने एक ही साथ काव्य-रचना के अंिगिष कई िरह के द्विं ों का आरंभ कर दिया ह।ै एक अथष मंे यह आत्मा और रचना के बीच के द्वंिात्मक सबं धं को स्वीकृ दि िने ा ह।ै यह आत्म और वाह्य जगि के बीच के द्वंि का स्वीकार भी ह।ै िसू रे अथष में यह आत्म के सामादजक और मनोवैज्ञादनक रूप के बीच का द्वंि ह।ै यह आत्म की सामादजकिा है िो यह आत्म का आंिररक स्वरूप भी ह।ै आदत्मक प्रयास होने के कारण रचना आत्म के दनमाणष और उसके दवकास के सभी दनयमों से संचादलि होिी ह।ै व्यदक्तत्व के दवकास का अपनी प्रदक्रया ह।ै वह सांस्कृ दिक परम्पराओं और विषमान की अपेक्षाओं के द्विं ात्मक सघं र्ष से मक्त भी नहीं ह।ै यह व्यदक्तत्व चिे ना का ही िसू रा या थोड़ा व्यावहाररक नाम ह।ै माक्सवष ाि में इसका दनधाषरण सामादजक यथाथष के द्वारा होना बिाया गया ह।ै इसे आधार और अदधरचना के साथ भी रखकर िेखा गया ह।ै परन्ि मदक्तबोध इसमें सांस्कृ दिक परम्परा के हस्िक्षेप को भी महत्वपणू ष घटक के रूप मंे रखिे ह।ंै माक्सषवाि मंे दमथ्या-चिे ना का दसद्धािं भी ह।ै साथ ही रचना-प्रदक्रया के सासं ्कृ दिक-प्रदक्रया होने का अथष उसे मानव-कमों के सह-अदस्ित्व मंे िेखना ह।ै मानव-कमों की सम्पूणिष ा को समझने के दलए कमष को प्रेररि करने वाले ित्त्वों का दववेचन भी आवश्यक ह।ै ज्ञान के दवकास के साथ ही मानव जीवन का दवकास होिा ह।ै कमष और ज्ञान आपस मंे गहरे जड़े हएु होिे ह।ंै कदव कमष इसी अथष मंे ज्ञान कमष ह।ै अिः रचना-प्रदक्रया कई अथों मंे ज्ञान-प्रदक्रया ही ह।ै मदक्तबोध ने आत्मदनमाषण की प्रदक्रया को लेकर बहुि कछ दलखा ह।ै एक सादहदत्यक की डायरी, जो उनकी रचनावली के चौथे भाग में सदम्मदलि ह,ै में िीसरा क्षण िीर्षक मंे वे आत्म की वदृ त्तयों का उद्घाटन करिे ह।ैं दलखिे है दक ‘मनष्ट्य का व्यदक्तत्व एक गहरा रहस्य ह’ै ....1 मदक्तबोध चिे ना की दवदभन्न वदृ त्तयों को अपनी िब्िावली के अनरूप प्रयोग मंे लािे ह।ैं बदद्ध, ज्ञान और हृिय जसै े िब्ि चिे ना के पयायष वाची रूप में प्रयक्त होिे ह।ंै िो बहुि प्रचदलि िब्ि भी उनके यहाँ चेिना की वदृ त्तयों को दिखाने के दलए प्रयक्त दकए जािे ह-ैं ‘संवेिनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेिन’। आत्मा उनके दलए वस्िित्व से जड़ी ह।ै यह ज्ञानमीमांसा से जड़े हएु िब्ि ह।ैं लदे कन के वल वाह्यजगि के आभ्यिं रीकरण िक ज्ञान को सीदमि कर िेना मदक्तबोध की रचना-प्रदक्रया की एक पक्षीय व्याख्या ह।ै आत्म के दवकास मंे एक अन्य ित्व भी है जो आत्म को सकं दचि करिा चलिा ह।ै कभी उिात्त बनािा चलिा ह।ै यह आत्म का ऐदिहादसक स्वरूप है जो सासं ्कृ दिक परम्परा की िने ह।ै माक्सषवाि मंे एक बहुि ही प्रचदलि िब्ि है दडक्लास। आत्म का यह सासं ्कृ दिक रूप इसी दडक्लास या वगष-पररविषन का दवरोधी ह।ै मदक्तबोध की कदविा िह्मराक्षस या उनके दनबधं में के िव का रूप इसी का पयाषय ह।ै अथाषि आत्म का दवकास उसकी सांस्कृ दिक परम्परा से टकराकर ही होिा ह।ै उनके द्वारा दवश्लेदर्ि कला के िीन क्षण मख्यिः रचना-प्रदक्रया के ही िीन क्षण ह।ंै ये क्षण आत्मा के अदस्ित्व और अदभव्यदक्त के भी िीन क्षण ह।ैं इसकी जदटलिा को स्पि करने के दलए मदक्तबोध ने जगह-जगह इसकी व्याख्या भी की है और हर जगह कछ अदधक गहराई के साथ। ‘‘कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट िीव्र अनभव क्षण। िसू रा क्षण है 1 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पेज 75 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 191

192 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 उस अनभव का अपने कसकिे-िखिे हुए मलू ों से पथृ क हो जाना और एक फैं टेसी का रूप धारण कर लने ा, मानो वह फैं टेसी अपनी आखों के सामने खड़ी हो। िीसरा और अंदिम क्षण है उस फंै टेसी के िब्ि-बद्ध होने की प्रदक्रया का आरम्भ और उस प्रदक्रया की पररपूणावष स्था िक की गदिमानिा।’’1 कला के िीन क्षण मख्यिः ज्ञान और अदभव्यदक्त की प्रदक्रया से जड़े हुए ह।ैं कहने की आवश्यकिा नहीं है दक मदक्तबोध दहन्िी सादहत्य के एक सिक्त ज्ञानमीमासं क ह।ैं पहला क्षण ‘जीवन के उत्कट िीि अनभव’ का ह।ै अथािष ् जीवन मंे अपनी सम्पूणिष ा में अदजषि उन िमाम अनभवों में से कछेक ‘िीव्र और उत्कट अनभव’ का क्षण ह।ै वाह्य का आभ्यिं रीकरण दनरपके ्ष नहीं होिा ह।ै अनभव अदभप्रिे हुआ करिा ह।ैं इस वाक्य का मलू ाथष अनभव िब्ि की व्याख्या से ही स्पि होिा ह।ै ज्ञान-प्रदक्रया का यह पहला क्षण ज्ञान को अनभव के स्िर पर उद्भूि और दवकदसि करिा ह।ै यहां दकसी भी प्रकार के जन्मजाि ज्ञान या स्विः प्रमादणि प्रत्ययों का खंडन ह।ै सहज-प्रत्ययों (इन्नटे आइदडयाज) का यह दवरोध अनभूदि को यथाथष से प्रमादणि करिा ह।ै चेिना में ऐसा कछ भी नहीं है जो पहले वाह्य जगि में नहीं था। ज्ञान एक आगन्िक ह-ै जन्मजाि नहीं। ज्ञान आगन्िक िो है पर परू ा बाह्य जगि हमारी चिे ना का अंग नहीं बन जािा ह।ै हम अपने दलए उपयोगी अनभवों को ही बचा कर रखिे ह।ंै उपयोदगिा का दनधारष ण वगीय आधार पर होिा ह।ै वास्िव मंे चिे ना उसके द्वारा अदजषि ज्ञान ह।ै एक दृदिकोण है दजसके आधार पर व्यदक्त समाज से साक्षात्कार करिा ह।ै चिे ना अपनी वदृ त्तयों के साथ-साथ एक उत्पाि भी ह।ै माक्सष ने कांदरब्यिू न टू ि दक्रदटक आफ पोदलटकल इकानामी की भदू मका में दलखा था दक “सामादजक उिप् ािन करिे हुए मनष्ट्य दनदश्चि संबधं ों को भी बनािा है और ये सबं ंध अदनवायष होिे हैं और उसकी इच्छाओं से स्विंि भी होिे ह।ैं उत्पािन के ये संबंध भौदिक उिप् ािन की िदक्तयों के दवकास की दनदश्चि अवस्था के अनरूप होिे ह।ैं उत्पािन के संबधं ों का यह पूणष योग दकसी समाज के आदथषक आधार को बनािा ह-ै वास्िदवक आधार, दजसपर वधै ादनक और राजनीदिक अदधरचना खड़ी होिी है और जो सामादजक चिे ना के दवदवध रूपों को अनरुप होिी ह।ै “2 यह पूरे माक्सवष ाि की राजनीदिक अथवष ्यवस्था का आधार ह।ै माक्सष ने आगे दलखा है दक “भौदिक जीवन मंे उत्पािन की अवस्थाएँ जीवन के सामादजक,राजनीदिक और आध्यादत्मक प्रदक्रया के सामान्य स्वरूप को दनधारष रि करिी ह।ै यह मनष्ट्य की चेिना नहीं है जो उसके अदस्ित्व को दनधाषररि करिी ह,ै बदल्क, उसके दवपररि, उनका सामादजक अदस्ित्व उनकी चेिना का दनधारष ण करिा ह।ै 3 चेिना की रुदचयों से सहमदि या असहमदि ही िीव्र या उत्कट अनभूदि की श्रणे ी हो सकिी ह।ै चिे ना की रुदच का अथष चेिना के उसके अदभप्राय से ह।ै चेिना की रुदच प्रथमिः वैयदक्तक होिी ह।ै चेिना के ज्ञानात्मक आधार के दवकास के साथ-साथ उसकी रुदच सामादजक (वगीय) होने लगिी ह।ै यहीं वगीय अदभप्राय ज्ञान की कोदटयों का दनधाषरण भी करिा ह।ै ‘‘भले ही इस िथ्य के प्रदि हमारे समीक्षकगण नाक-भौं दसकोड़ें, कहे दक यह दविेिी दवचारधारा ह,ै पर यह दनिान्ि सत्य है दक हमारा चररि वग-ष चररि होिा ह,ै और हमारा दृदिकोण हमारे वग-ष क्षेि में चल रही दवचारधाराओं और भाव परम्पराओं द्वारा दवकदसि होिा ह।ै ’’4 मदक्तबोध ने बड़ी ही ईमानिारी के साथ यह स्वीकार दकया है दक यह दवििे ी दवचारधारा ह।ै यह व्यदक्त के सामाजीकरण की प्रदक्रया भी ह।ै 1 वहीं, पषृ ्ठ 85 2 A Contribution to the critique of political Economy, Marx, Karl, Progress Publishers Moscow, 1959, page 2 3 A Contribution to the critique of political Economy, Marx, Karl, Progress Publishers Moscow, 1959, page 2 4 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पेज 75 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 192

193 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ‘कला के िसू रे क्षण’ में मदक्तबोध कहिे हैं -‘‘ज्यों ही यह घटना होिी है अनभव के मूल अपनी िखिी हईु भदू म से पथृ क हो जािे ह।ैं अथािष ् वे दनरे वैयदक्तक न रहकर अपने से परे हो जािे ह।ैं ’’1 यह वस्िजगि के दनवयै दक्तक स्वरूप का आगमन ह।ै यहाँ वस्िएँ गौड़ हो जािी हैं और उनसे जड़ा हआु अदभप्राय प्राथदमक। यह वस्िओं को कोिक मंे डाल ििे ा ह।ै ज्ञानी इसे एडमंड हसु लष के िेके दटंग का सरलीकृ ि रूप करार िे सकिे ह।ैं पर मदक्तबोध अपनी भार्ा मंे यह कह रहे हैं दक यहाँ वस्िओं के स्थान पर उनसे जड़े हएु कमष प्रधान हो जािे ह।ंै यहाँ मानदसक कमष प्रधान हो जािे ह।ैं अथाषि् दवचार-प्रदक्रया का आरम्भ कला के िसू रे क्षण से होिा ह।ै यहाँ वस्ि अपने मूल से पथृ क् होकर ‘इदं रय-प्रित्तों की दस्थदि मंे पहचुँ जािे ह।ंै यहीं से ज्ञानाजनष िरू होिा ह।ै ज्ञान प्रदक्रया भार्ा की मांग करिी ह।ै भार्ा के आगमन के साथ पररदस्थदिगि िकष के भीिर ससं ्कृ दि की समीक्षा का आरम्भ होिा ह।ै यह सब कला का िसू रा क्षण ह।ै िो दफर कला के प्रथम क्षण में क्या होिा ह?ै पहला क्षण बाह्य का आभ्यंिरीकरण करिा ह।ै मदक्तबोध कहिे हैं -‘‘संवेिना, बोधिदक्त, कल्पना और इच्छाएँ ये मनष्ट्य की आभ्यिं र िदक्तयां ह,ंै उसकी अिं र की चेिना की अगं भिू ह।ंै इन सभी िदक्तयों या प्रवदृ त्तयों का बाह्य से जब सदम्मलन होिा ह,ै िब वह प्रदक्रया िरू होिी है दजसे मंै बाह्य का आभ्यिं रीकरण कहिा ह।ूँ ’’2 यह कथन अत्यिं महत्वपूणष ह।ै मदक्तबोध ने यह नहीं कहा दक ज्ञानदे न्रयों के बाह्य से सदम्मलन के साथ ही बाह्य का आभ्यंिरीकरण होिा ह।ै मदक्तबोध का कहना है दक मनष्ट्य की आभ्यंिर िदक्तयाँ दजनमंे संविे ना, बोधिदक्त, कल्पना और इच्छाएँ सदम्मदलि ह,ंै का बाह्य से सदम्मलन होने पर बाह्य का आभ्यिं रीकरण होिा ह।ै कहना न होगा दक मनष्ट्य के वगीय अदभप्राय से ही उसकी आभ्यिं र िदक्तयाँ संचादलि होिी ह।ैं ‘बाह्य का आभ्यिं रीकरण’ मदक्तबोध द्वारा दवश्लेदर्ि ‘कला का पहला क्षण’ ही ह।ै ज्ञान-प्रदक्रया की इन िोनों अवस्थाओं के बीच चेिना कायषरि होिी ह।ै चिे ना ही यथाथष का अमूिनष करिी है और अपने अदभप्राय के अनरूप यथाथष सजृ न भी करिी ह।ै यह प्रदक्रया ‘फंै टेसी’ दनमाणष की ह।ै मदक्तबोध अदभप्राय से फैं टेसी को जोड़िे हुए भी उसके स्वप्न या महज कल्पना कहे जाने का खंडन करिे ह।ंै फैं टेसी मंे प्रवादहि हो रहा अदभप्राय फंै टेसी को रूप-रंग िेिा है और िब फैं टेसी अपने दिल्प के दवपरीि अथष को अदभव्यक्त कर पािी ह।ै यहां फंै टेसी महज कल्पना नहीं रह जािी बदल्क गहरे संविे नात्मक उद्दशे ्यों से सचं ादलि होने के कारण वह यथाथष को अदधक गहराई िक स्पि करिी ह।ै कहना न होगा दक चेिना ही फंै टेसी को अदभप्राय प्रिान करिी ह।ै यह एक बार पनः अन्िवसष ्ि द्वारा रूप का अदिक्रमण ह।ै यह माक्सवष ािी सोच की ही पररणदि ह।ै फंै टेसी भाववािी दिल्प होने के बाि भी यथाथवष ािी दृदिकोण से सचं ादलि होने के कारण यथाथषवािी बनी रहिी ह।ै उसका रूप पक्ष गौण हो जािा ह।ै यह चेिना का अदभप्राय वगीय चररि धारण करने के कारण जहां चिे ना का दनमाणष करिा है वहीं यह चिे ना की सीमा- रेखा भी खींचिा ह।ै व्यदक्तत्व का दवस्िार होने से ही ऐसा हो पािा ह।ै यह अदभप्रिे के साथ-साथ समीक्षात्मक भी होिा जािा ह।ै मदक्तबोध के दलए ‘आभ्यंिर का बाह्यीकरण’ मानदसक-कमष िो है परन्ि यह मानदसक-कमष मदस्िष्ट्क और भार्ा िोनों के अपने ससं ्कारों से बंधकर चलिा ह।ै भार्ा अपने अदभप्राय के अनरूप चेिना के अदभप्राय की सजरष ी भी करिी ह।ै कई प्रकार से यह मानव-ज्ञान की सीमाओं का भार्ा द्वारा दनधारष ण भी ह।ै अदधरचना के दवदवध रूपों की व्याख्या भी ह।ै 1 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पेज 85 2 वहीं वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 193

194 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मदक्तबोध ने सादहत्य के इन्हीं दसद्धांिों को आधार बनाकर कला का समाजिास्त्र दनदमषि दकया। यह एक ऐसा सादहत्य- दसद्धान्ि जो पूवषविी सादहदत्यक धारा के दवरोध मंे खड़ा हुआ। उसका दवरोध स्वभादवक था। मदक्तबोध की व्याख्या को जड़ माक्सषवादियों की नजर से िेखना सभं व नहीं था। दवरोध माक्वाषिी खेमंे से भी हआु । चेिना की अवस्थाओं पर दविरे ् बल ििे े हएु मदक्तबोध ने कई जगह बाह्य-जगि को नपे थ्य मंे डाल दिया। हम इसे यथाथष की ‘िकै े दटंग’ भी कह सकिे ह।ैं कई बार यह भाववाि के करीब आिी दिखिी ह।ै मदक्तबोध ने बाह्य जगि को िैके ट करने के बाि यथाथष की दजस िरह से व्याख्या की उसमें यथाथष अदधक गदििील होकर उपदस्थि हुआ। अिः उन्होंने यथाथष की सूक्ष्म व्याख्या की ह।ै कहना न होगा दक यह उनकी िरू िदििष ा का पररचय ििे ा ह।ै स्थलू की सकू्ष्म व्याख्या करिे हएु मदक्तबोध ने ज्ञान-प्रदक्रया को सवाषदधक महत्त्व दिया । मदक्तबोध की सबसे बड़ी िाकि यह थी दक कदविा के समाजिास्त्री होने के साथ-साथ उनमें अपने दसद्धांिों को कलात्मक रूप से रखने की आिि-सी थी। चेिना के अिं र की िदक्तयों का बाह्य से सदम्मलन आभ्यिं र की प्रदक्रया िरू करिा ह।ै आभ्यिं रण एक िरफा नहीं ह।ै मानव-मदस्िष्ट्क और वस्ि-जगि के बीच के संबधं ों का दनवाषह ही आभ्यंिरीकरण का आधार ह।ै ‘सवं ेिना, बोधिदक्त, कल्पना और इच्छाए’ँ चिे ना के भीिर एक प्रकार की अंिवैयदक्तकिा का आग्रह करिे हएु अदस्ित्व मंे होिे ह।ंै यह वगीय-चिे ना अपने उद्दशे ्यों के अनरूप बाह्य का आभ्यिं रीकरण करिा ह।ै परन्ि यथाथष जगि् अपने अनरूप चेिना का दनमाषण करिे हएु चेिना मंे हस्िक्षपे भी करिा ह।ै ‘अधं रे े म’ें की यह पंदक्तया-ँ ‘‘पहचानिा ह/ूँ बाहर जो खड़ा है !!/ यह वही व्यदक्त ह,ै जी हा,ँ / जो मझे दिलस्मी खोह मंे दिखा था।/ अवसर – अनवसर/ प्रकट जो होिा ही रहिा/ मरे ी सदवधाओं का/ न िदनक ख्याल कर।’’1 यथाथ,ष कई बार चेिना के उद्दशे ्य को िर-दकनार कर अपने उद्दशे ्य को चिे ना पर प्रक्षेदपि करिा ह।ै मदक्तबोध कला के इस पहले क्षण को कई जगह उद्घाटन का भी क्षण कहिे ह,ैं क्योंदक यह सवं ेिना, इच्छा, कल्पना आदि वदृ त्तयों के उद्घाटन के साथ प्रारंभ होिा ह।ै अथाषि् बाह्य-जगि् हमारे अदभप्राय का उद्घाटन करके ही ज्ञान का दवकास करिा ह।ै ऐसा करिे हुए अदभप्राय कई बार बिलिा भी जािा ह।ै और िब बाह्य -जगि का बोध उसी रूप मंे नहीं होिा दजस रूप मंे वह वस्ििः उपदस्थि होिा ह।ै उसके होने और उसके आभ्यंिर मंे आए अिं र का एक कारण व्यदक्त की वगीय-चिे ना का अदभप्रायबद्ध हस्िक्षेप होिा ह।ै इसके साथ ही बाह्य जगि की गदििीलिा भी अपनी दवचारधारा और उसके अनरूप अदभप्राय रखिी है और आभ्यंिरीकरण की प्रदक्रया में अपने िई ंहस्िक्षपे करिी ह।ै आभ्यंिर की प्रारंदभक दस्थदि दजसे हम ‘दनदवकष ल्प दस्थदि’ कह सकिे ह-ैं अदभप्राय-यक्त होने के चलिे सामान्य और दविेर् म,ंे ज्ञान और सवं िे ना में अिं र नहीं करिा। यह एक प्रकार का कच्चा माल होिा है दजसपर चिे ना का अदभप्राय कायषरि होकर इसे दविेर्ण यक्त करिा है और दविेर्ण-यक्त होने के साथ ही यह सदवकल्प दस्थदि दनराकार से पनः साकार हो उठिी ह।ै यहीं से कला का िसू रा क्षण िरू होिा ह।ै कला के िसू रे क्षण का आरम्भ ही अमिू नष से- अथािष यथाथष के अमिू नष से होिा ह।ै मदक्तबोध की इस मान्यिा को अगर सावधानी से न दववेदचि करें िो उन्हंे भाववािी कहने मंे कोई परेिानी न होगी। परन्ि ऐसा मदक्तबोध की ज्ञान-प्रदक्रया संबधं ी सोच का दनरािर होगा। यह मदक्तबोध द्वारा की गई यथाथष की सिं दलि और दवकसनिील व्याख्या का भी दनरािर होगा। कला के िसू रे क्षण मंे ‘यथाथष का अपने मलू ों से पथृ क हो जाना’ मदक्तबोध के दलए यथाथष के भाव का सजृ न है जो जाने-अनजाने अपने को चेिना में पनः प्रस्िि करिा चलिा ह।ै मदक्तबोध यहाँ यह कहना चाहिे हैं दक यथाथष अपने मूलों 1 मदक्तबोध रचनावली भाग 2 पजे 323-324 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 194

195 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 से कट जािे हैं और उनका भाव िरे ् रह जािा है दजसको संचादलि करने का कायष दवचारधारा के द्वारा होिा ह।ै यहाँ मनष्ट्य की दवश्वदृदि के आधार पर अपने मूलों से पृथक हएु यथाथष को दििा दमलिी ह।ै मदक्तबोध इस दवश्वदृदि के आधार में दस्थि दवचारधारा के दलए नये िब्ि-यनम का प्रयोग करिे ह।ैं वे इसे सवं ेिनात्मक-उद्दशे ्य कहिे ह।ैं यथाथष िो प्रदिक्षण पररवदििष ह।ै ऐसे में यथाथष के भाव का सजृ न वगरै इस अमूिनष के सम्भव नहीं ह।ै मदक्तबोध इस भाव के सजृ न में ‘सवं ेिनात्मक उद्दशे ्यों’ की भूदमका का स्वागि करिे ह।ैं यह स्वीकृ दि ही उन्हंे भाववादियों से पथृ क करिी ह।ै संविे नात्मक-उद्दशे ्य ही चिे ना का उद्देश्य ह।ै इसी के आधार पर कला के िसू रे-िसू रे क्षण में फंै टेसी का दनमाषण होिा ह।ै एक ऐसी फैं टेसी का दनमाणष जो अमिू ष यथाथष का भाव-रूप होने के कारण, अपने पनप्रषस्िदि की प्रदक्रया के फलस्वरूप आखं ों के सामने बिले हुए यथाथष में भी उपदस्थि होिी ह।ै िो क्या यहां एक दस्थरिा नहीं ह?ै मदक्तबोध को इस खिरे का ज्ञान ह।ै नागाजनष ने िनू ्यवाि की व्याख्या मंे एक ही निी में िो बार स्नान न कर पाने को यथाथष का मलू स्वरूप माना ह।ै स्वयं द्वदं ्वात्मक-भौदिकवाि गदििील यथाथष का पक्षधर ह।ै इसके अनरूप ही मदक्तबोध फंै टेसी की दस्थरिा का खडं न करिे ह।ंै साथ ही उसके गदििील स्वरूप के अजषन मंे ‘संविे नात्मक-उद्दशे ्यों’ की भूदमका को महत्त्वपूणष मानिे ह।ंै फंै टेसी की गदििीलिा सवं िे नात्मक-उद्दशे ्यों के अनरूप बनी रहिी ह।ै माक्सषवाि मंे अदधरचनाओं में वैचाररक उद्दशे ्य समाया रहिा है और वही उसको दििा िेिा ह।ै मदक्तबोध दलखिे ह-ंै ‘‘फैं टेसी में एक सवं िे नात्मक उद्दशे ्य समाया रहिा ह।ै उसमें एक सवं िे नात्मक दििा होिी ह।ै फंै टेसी के भीिर यह दििा और उद्दशे ्य उस फैं टेसी का ममष प्राण ह।ै 1 मदक्तबोध आगे दलखिे हैं दक “दििा और उद्देश्य का ममष धारण कर फैं टेसी गदिहीन नहीं रह सकिी। फंै टेसी गदिहीन-दस्थर दचि नहीं ह।ै उद्देश्य और उद्देश्य की दििा के कारण ही वह गदिमय ह।ै ’’2 इस प्रकार, ज्ञान-प्रदक्रया में चल रहे फैं टेसी के स्वरूपगि अमूिषन की सीमा का दनधाषरण प्रित्त-वस्िएँ और वैयदक्तक- अदभप्राय, इन िोनों की अपनी दस्थदि के अनसार ही होिा ह।ै इस आधार पर फंै टेसी अमिू ष होिे हएु भी मूिष होिी ह।ै सच िो यह है दक ऐसा करिे हुए वह अपने संवेिनात्मक-उद्दशे ्यों को ही स्पि कर रही होिी ह।ै फंै टेसी का यह स्वरूपगि पररविषन हमंे यथाथष का अदभप्रिे भाव प्रिान करिा ह।ै यह भाव कछ ऐसे अपररविनष िील मूल्यों पर दनदमषि होिा है जो दक पररविषन की दस्थदि मंे भी अपनी अदभप्रिे अदस्मिा बनाए रखिे ह।ैं इस प्रकार फंै टेसी को न िो कलावादियों से और न ही अदस्ित्ववादियों से प्रभादवि समझना चादहए। यह प्लटे ो का यथाथवष ािी प्रत्यय भी नहीं ह।ै फंै टेसी में अिं दनषदहि-दृदि दजसे हम अदभप्राय कह रहे हंै वह दकसी भी रूप में यथाथष से दनरपेक्ष नहीं ह।ै वह अदभप्रिे ह।ै ज्ञान-प्रादप्त के दलए ह।ै एक चनौिी है दजसका एक व्यापक समीक्षात्मक आधार ह।ै स्वयं मदक्तबोध दलखिे ह-ैं ‘‘ज्यों ही यह घटना होिी ह,ै अनभव के मूल अपनी िखिी हईु भूदम से पथृ क हो जािे ह।ंै अथािष ् वे दनरे वैयदक्तक न रहकर अपने से परे हो जािे ह।ैं ’’3 अनभूि का अपने यथाथष से अलगाव भार्ा मंे होिा ह।ै मदक्तबोध इस कारण की ओर भी संके ि कर रहे ह।ंै भार्ा एक सामादजक यथाथष ह।ै अिः वैयदक्तकिा का अदिक्रमण िो अवश्यम्भावी ह।ै साथ ही यहां व्यदक्त की समीक्षात्मक-चेिना का आग्रह भी है दजसका दनमाषण वगीय चेिना के आधार पर सभं व बना ह।ै इस प्रकार वैयदक्तक से दनवैयदक्तक िक की इस यािा मंे अंिवयै दक्तकिा का आग्रह करने वाले कछ अनभव ही होिे ह।ंै यह चिे ना के अदभप्राय का समीक्षात्मक स्वरूप है दजसने समाज के आधार और अदधरचना की समीक्षा की ह।ै यह व्यदक्त के वगीय अदभप्राय का आगमन ही नहीं 1 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पजे 75 2 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पजे 89 3 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पेज 85 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 195

196 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वरन् उसके प्रबल होने की सचू ना िेिा ह।ै स्वयं मदक्तबोध कहिे ह-ैं ‘‘जो फैं टेसी अनभव की व्यदक्तगि पीड़ा से पथृ क होकर अथािष ् उनसे िटस्थ होकर अनभव के भीिर की ही सवं ेिनाओं द्वारा उत्सदजिष और प्रक्षदे पि होगी; वह एक अथष मंे वैयदक्तक होिे हएु भी िसू रे अथष मंे दनिान्ि दनवयै दक्तक होगी। इस फंै टेसी मंे अब एक भावात्मक-उद्दशे ्य के द्वारा ही वस्ििः फैं टेसी को रूप-रंग दमलेगा।“1 दकन्ि यह होिे हएु भी वह फंै टेसी यथाथष मंे भोगे गए वास्िदवक अनभव की प्रदि-कृ दि नहीं हो सकिी। वैयदक्तक से दनवैयदक्तक होने के िौरान ही उस फैं टेसी ने कछ ऐसा नवीन ग्रहण कर दिया दक दजससे वह स्वयं भी वास्िदवक अनभव से स्विंि बन बठै ी। फैं टेसी अनभव की कन्या है और उस कन्या का अपना स्वििं दवकासमान व्यदक्तत्व ह।ै वह अनभव से प्रसूि ह,ै इसदलए वह उससे स्विंि ह।ै ’’2 यह चिे ना के दवकास का दसद्धािं ह।ै अनभव से प्रसूि होकर भी वह उन दवदिि अनभवों से स्वििं ह।ै यह अनभूदि का दवदिि से सामान्यीकरण ह।ै इसमें महत्त्वपणू ष दस्थदि वयै दक्तक से दनवैयदक्तक होने की ह।ै फंै टेसी के स्विंि दवकासमान-व्यदक्तत्व का अजनष इसी िौरान होिा ह।ै ‘नयी कदविा का आत्मसघं र्ष िथा अन्य दनबंध’ में मदक्तबोध ने फंै टेसी को ‘संदश्लि जीवन-दचििाला’ कहा ह।ै उनकी धारणा है दक ‘‘कल्पना उिीप्त होकर, संवेिना से आलप्त उस मलू ित्त्व को समरूप अनभवों और जीवन-मूल्यों से सशं ्लेदर्ि करिी हुइ एक ‘संदश्लि जीवन-दचििाला उपदस्थि कर िेिी ह।ै यह कला का िसू रा क्षण है दक दजसमें हमारे विे नात्मक हिे और संवेिनात्मक अदभप्राय दकसी व्यापक मादमषक जीवन से न्यस्ि हो जािे हैं और हमारे दलए वह आत्म- ित्त्व इिना अदधक महत्त्वमय मालूम होिा है दक हम उसकी अदभव्यदक्त के दलए छटपटािे ह।ैं ’’3 वेिनात्मक-हिे ही सवं िे नात्मक-अदभप्राय का सजृ न करिा ह।ै यह इदं रय-प्रित्तों के द्वारा एक ऐसे जीवन-ससं ार का सजृ न करिा है जो हमारे अदभप्राय का अदिक्रमण कर बाहर आना चाहिा ह।ै यह जीवन-संसार ही वह ‘संदश्लि जीवन- दचििाला’ है दजसकी गदििीलिा अब अदभप्रिे संवेिना से स्वििं होकर स्वचादलि हो चली ह।ै इस ‘सदं श्लि-जीवन- दचििाला’ में दकसी एक दचि-दविेर् का के न्र मंे आगमन या प्रस्थान रचनाकार के संवेिनात्मक-अदभप्राय और दचि की अपनी गदििीलिा से प्रसिू अदभप्राय के बीच के सबं धं ों के आधार पर संचादलि होिा ह।ै इसमंे बहिु कछ भदू मका भार्ा की होिी ह।ै यहीं से कला का िीसरा क्षण प्रारंभ होिा ह।ै कला का िीसरा क्षण भार्ा का क्षण ह।ै कई रूपों मंे यह अदभप्राय की अदभव्यदक्त का क्षण ह।ै कला के िसू रे क्षण मंे अंिदवरष ोध मख्यिः चिे ना के अदभप्राय और फैं टसे ी की सरं चना के अनरूप दनदमषि उसके अदभप्राय के बीच था। उस गदििीलिा और भार्ा के द्वंि का आरंभ इस िीसरे क्षण मंे होिा ह।ै मदक्तबोध के अनसार इस िीसरे क्षण में फैं टेसी के िब्िबद्ध होने की प्रदक्रया का प्रारंभ होिा ह।ै अिः इसमंे जदटलिा स्वाभादवक ह।ै कहना न होगा दक इस प्रदक्रया मंे अिं दवषरोधों की एक श्रखंृ ला-सी होिी ह-ै भार्ा, रूप, अिं वषस्ि और रचनाकार सभी अपने अदभप्राय के साथ उपदस्थि होिे ह।ैं यही नहीं, इन सबकी सीमाएँ भी यहाँ एक ही साथ खड़ी होिी ह।ंै इसी क्षण मंे रूप और अंिवसष ्ि का अिं समष ्बन्ध अपने को महत्त्वपूणष दस्थदि मंे पािा ह।ै परन्ि इन सबसे होकर जो दवकसनिील बनिा ह,ै वह है चिे ना का अदभप्राय - जो कई बार अपने अदभप्राय का पनसजषृ न कर चका होिा ह।ै कटिे-छटिे जो कछ भी बचा रहिा है वह रचनाकार का ही सच होिा ह।ै यही सच उसे दिल्पगि दवदवधिा मंे भी बचा लिे ा ह।ै यथाथषवािी दिल्प और यथाथवष ािी दृदिकोण में अंिर उसी के चलिे बना रहिा ह।ै मदक्तबोध कहिे ह-ंै ‘‘यथाथवष ािी दिल्प और यथाथवष ािी दृदिकोण मंे अंिर ह।ै यह बहिु ही संभव है दक यथाथषवािी दिल्प के दवपरीि जो भाववािी दिल्प है - उस दिल्प में जीवन को समझने की दृदि यथाथषवािी रही 1 वहीं 2 वहीं 3 मदक्तबोध रचनावली भाग 5 पजे 329 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 196

197 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 हो।’’1 कला के इस िीसरे रूप मंे भार्ा और रूप के इस सजृ न के क्षण म,ंे जो कछ भी बचकर अथषवान बनिा है वह इन सभी रूपों से दवकदसि रचनाकार का संवेिनात्मक-समीक्षात्मक-अदभप्राय ही ह।ै भार्ा सामादजक होिी ह।ै भार्ा-प्रदक्रया का आरंभ सामादजक-सासं ्कृ दिक प्रदक्रया का आरंभ ह।ै भार्ा अपने िई अदभप्राय का संिोधन करिी ह।ै सादहदत्यक रूप भी अदभप्राय का सिं ोधन करिा ह।ै अिं वसष ्ि रूप के अनरूप ही रचना मंे आिा है और रूप भी अिं वसष ्ि के अनसार बिलिा ह।ै ‘‘कदव की यह फंै टेसी भार्ा को समदृ ्ध बना िेिी ह,ै इसमंे नए अथष- अनर्गं भर ििे ी ह।ै िब्ि को नए दचि प्रिान करिी ह।ै इस प्रकार कदव िीसरे क्षण के िौरान भार्ा का दनमाणष भी करिा ह।ै ’’2 चदू क भार्ा सामादजक है अिः इसमंे हस्िक्षेप भी सामादजक-प्रदक्रया में हस्िक्षपे ह।ै यह व्यदक्त द्वारा अदजिष आिावाि है दजसमंे वह समाज का समीक्षक ह।ै वह दकसी भी प्रकार के वचसष ्व के दखलाफ खड़ा ह।ै और िब कदविा या रचना समाज मंे एक प्रदिवाि की िरह उपदस्थि होिी ह।ै भार्ा की अपनी सामादजकिा उसके वैयदक्तक-स्वरूप का दनर्धे करिी ह।ै दवटगंेसटाईन ने िो सवं िे ना की भार्ा को दनवैयदक्तक कहा ह।ै यह ध्यान िने ा चादहए दक यह दनदमिष भार्ा उस रचनाकार से प्रसूि होकर भी उससे स्विंि होिी ह।ै यह भार्ा वयै दक्तक नहीं होिी- हो भी नहीं सकिी। यह मदक्तबोध के भार्ा संबधं ी सोच की सीमा ह।ै इस प्रकार, मदक्तबोध के यहां रचनाप्रदक्रया जीवन-प्रदक्रया से जड़ी ह।ै रचना जीवन से अदभन्न ह।ै इसका स्वरूप जीवन- प्रदक्रया की िरह सदं श्लि ह।ै मदक्तबोध द्वारा रचना-प्रदक्रया का दववेचन जीवन-संिभों में उपदस्थि पूरी ज्ञान-प्रदक्रया का दववेचन ह।ै यह अिं ःकरण के आयिन का सजृ न ह।ै यह ज्ञान और अदभव्यदक्त की सीमा दनधारष ण भी ह।ै मदक्तबोध द्वारा रचना की सीमा रेखा खीचना जीवन की सीमा-रेखा भी ह।ै मदक्तबोध द्वारा दकए गए रचना प्रदक्रया संबधं ी दववेचन में यथाथष का जो अमिू षन हआु है उसका स्पि सैद्धादन्िक दववचे न उनके लेखन मंे उपदस्थि नहीं ह।ै अिः यह कई प्रकार के भ्रमों को जन्म ििे ा ह।ै यथाथष को ‘िैके ट’ में डालकर मदक्तबोध ने चिे ना के दवज्ञान को दवकदसि करने का जो प्रयास दकया है वह महत्त्वपूणष है लेदकन उसके सैद्धादन्िक पक्ष का भी उन्हंे दवश्लेर्ण करना चादहए था। यह मदक्तबोध के रचना प्रदक्रया संबधं ी दवमिष की सीमा कही जा सकिी ह।ै मनष्ट्य जादि का इदिहास उसके कमष का इदिहास ह।ै मनष्ट्य के कमष की दििा उसके अदभप्रेि अथष की दििा की ओर अथाषि् संप्ररे ्ण को पाने की दििा मंे होिी ह।ै इसे कमष का उद्दशे ्य कहना अदधक उदचि होगा। कमष के दवदवध-रूपों में ही हम स्वयं को पररभादर्ि कर पािे ह।ंै इस अथष म,ें मानव-कमष की दििा मंे पररविषन उसके संप्रेर्णीय अथष में उत्पन्न बाधा के कारण होिा है और सपं ्ररे ्ण में बाधा आने का एक प्रमख कारण, व्यदक्त के स्िर पर, दसद्धान्ि और व्यवहार में आया अंिर ह।ै व्यवहार भौदिक जगि की वस्ि ह।ै यह सावभष ौदमक ह,ै क्योंदक इसमंे अिवयै दक्तकिा की मागं सम्प्रेर्णीय अथष मंे होिी ह।ै अथाषि् व्यदक्त अपने को सम्प्रेदर्ि करने के दलए िसू रे व्यदक्त के साथ सह-अदस्ित्व की दस्थदि बनािा ह।ै यह अदभप्रिे भी ह,ै क्योंदक व्यवहार का अथष संवेिनात्मक कमष से ह।ै सामादजक व्यवहार ज्ञान और दसद्धान्ि से सम्बद्ध ह।ै इसे मदक्तबोध की सीमा कहा जा सकिा ह।ै और इसे मदक्तबोध का माक्सवष ाि से प्रस्थान भी कहा जा सकिा ह।ै सादहत्य में अिं दनषदहि दवश्व-दृदि ही कई प्रकार से सभी संवेिनात्मक कमों का आधार ह।ै वही सामादजक व्यवहार भी ह।ै इसप्रकार, दसद्धान्ि और व्यवहार िोनों ही सामादजक-प्रदक्रया के बीच दनदमिष होिे ह।ंै इसमें कोई संिहे नहीं है दक िोनों के दवकास के अपने-अपने दनयम ह।ंै अिः िोनों मंे एक एकात्म अपदे क्षि ह।ै यह िािात्म्य व्यदक्त के स्िर पर भी अपदे क्षि ह।ै 1 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पेज 88 2 मदक्तबोध रचनावली भाग 4 पेज 93 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 197

198 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 व्यदक्त का दसद्धान्ि भी उसी सामादजक-प्रदक्रया का अगं है दजसमंे उसका व्यवहार अथवष ान बनिा ह।ै अथष एक सामादजक दनदध ह।ै इसके द्वारा सामादजकिा का ही सम्प्ररे ्ण होिा ह।ै दसद्धान्ि और व्यवहार के िािात्म्य में आया अिं र सम्प्ररे ्ण की समस्या उत्पन्न करिा ह।ै यह अदभव्यदक्त की समस्या भी ह।ै अदभव्यदक्त की समस्या रचना में अिं दनदष हि अदभप्राय के दििा दनधारष ण की समस्या भी ह।ै अिः यहां यह महत्त्वपूणष हो जािा है दक रचना की समीक्षा मंे इस पर भी दवचार दकया जाए दक वह क्यों और दकसके दलए ह।ै पणू षिः स्थादपि हो चकी स्वािं ःसखाय रचनाएँ भी ‘‘स्व’’ की सामादजकिा की व्याख्या मंे उिरिी जािी ह।ैं अिः आवश्यकिा है दक इस ‘स्व’ के सामादजक दनमाणष की प्रदक्रया की भी व्याख्या की जाए। कहना न होगा दक इस ‘स्व’ का दनमाषण सामादजक संवाि के धरािल पर होिा ह।ै यह प्रश्न आधार और अदधरचना के अंिःसंबधं से जड़ा हुआ ह।ै मदक्तबोध के यहाँ यह रूप और वस्ि के दववाि के रूप में मौजूि ह।ै वे दलखिे हंै दक ‘‘ित्त्व और रूप का प्रश्न इसीदलए हमारे सामने आिा है, उसे आना चादहए। एक चनौिी खड़ी होिी है वास्िदवक जीवन से; िसू री चनौिी खड़ी होिी है हमारी अदभव्यदक्त िैली की सीमाओं और िब्ि-सम्पिा की अक्षमिाओं मंे स।े (इन सीमाओं के पीछे अदभरुदच की सीमा काम कर रही ह)ै ये चनौदियाँ बहुि बड़ी ह,ैं बहिु दविाल ह,ैं संभव है कई पीदढ़याँ खप जाए।ँ दकन्ि काम िो करना ही होगा।’’1 िो क्या इसे मदक्तबोध द्वारा दवकदसि कला के समाजिास्त्र के रूप में नहीं िखे ा जा सकिा जहाँ रूप और वस्ि िोनों अपनी-अपनी सीमाओं के भीिर दवकदसि होिे दिखिे ह।ंै यहाँ व्यदक्त कोई दनरपके ्ष सत्ता नहीं, बदल्क एक महत्त्वपूणष घटक है जो अपने सांस्कृ दिक-मनोवजै ्ञादनक रूप में अपनी वगीय चेिना के साथ उपदस्थि होकर सादहदत्यक रूपों का दनधारष ण करिा ह।ै वह वस्ि का भी दनमाषण करिा ह।ै मदक्तबोध दलखिे हंै “संक्षपे मे,ं ित्त्व अपना रूप लेकर उपदस्थि होिा ह।ै दकन्ि न यह ित्त्व दस्थर है और न यह रूप। यह हृिय में समिील ित्त्वों और अनभवों से सयं क्त होिा हुआ व्यापक अथमष त्ता से अपने को पररपूणष करिा जािा ह।ै “2 यहाँ एक बाि ध्यान िने े की है दक रूप और वस्ि का संबंध दकसी कायष-कारण दसद्धान्ि पर आधाररि नहीं ह।ै यह व्यापक सामादजक-सांस्कृ दिक प्रदक्रया का दहस्सा ह।ै अिः आवश्यकिा है रूप और अिं वसष ्ि के अन्िःसबं धं की समझ और उसके अदभग्रहण की। इनमंे से दकसी एक को आधार बनाकर की गई समीक्षा एक िरफा दनणषय ही िेगी। कई लेखों मंे िो मदक्तबोध ने प्रश्न भी उठाए ह-ंै ‘‘कला के वस्ि और रूप’ के सबं धं में दवचार करिे हुए मेरा मन कछ बािों पर रुक जािा ह।ै पहली बाि िो यह है दक क्या कारण है दक यग-दविरे ् में कछ दविरे ्-दविरे ् दवर्यों पर ही कदविा दलखी जािी है, कलाकृ दियों के दवर्य ठहरे-ठहराए रहिे ह।ैं ’’3 मदक्तबोध का यह प्रश्न रचनाओं के वस्ि की समानधदमिष ा को लके र ह।ै मदक्तबोध एक और प्रश्न करिे ह-ैं ‘‘काव्य के ‘वस्ि और रूप’ के संबंध मंे सोचिे हएु मंै दकन्हीं दविेर् बािों पर रुक जािा ह।ूँ वस्ि का अथष क्या ह?ै क्या वस्ि से हमारा अदभप्राय काव्य-दवर्य से ह?ै दकन्ि दवर्य स्वयं अपने-आपमंे काव्य का दवर्य नहीं होिा। उिाहरण के दलए, िलसी का मानस और वाल्मीदक की रामायण, िोनों का दवर्य एक होिे हुए भी, मरे े खयाल से, िोनों के काव्यगि वस्ि-ित्त्व अलग-अलग ह।ैं “4 कहना न होगा दक दवर्य और वस्ि का एक बड़ा अिं र सवं िे नात्मक उद्दशे ्यों के आगमन के साथ ही उत्पन्न हो जािा ह।ै रचना मंे अदभप्रिे के दवपरीि जो कछ भी हो जािा है उसका कारण भी यही ह।ै कई अथों मंे यह रूप और वस्ि के द्वारा अपने भाव का सजृ न ह।ै यह ‘रूप और वस्ि’ द्वारा अपनी दवचारधारा का, अपने अदभप्राय का सजृ न िो है ही, साथ ही 1 मदक्तबोध रचनावली भाग 5 पेज 109 2 वहीं 3 वहीं, पजे 121 4 वहीं पजे 106 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 198

199 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 साथ रचनाकार के हस्िक्षेप और उसके पीछे रचनाकार के दवचारधारात्मक अदभप्राय की सीमा का दनधाषरण भी ह।ै ‘रूप और वस्ि’ में इसके बावजिू एक िीसरा पक्ष भी उपदस्थि होिा है वह है सीमाकं न का क्षिे । वस्ि की सीमारेखा उसकी भार्ा खीचिी ह।ै इस भार्ाई स्वरूप का अन्वरे ्ण-सत्यापन सामादजक - सासं ्कृ दिक प्रिीकों के भाव का सजृ न और उसकी समीक्षा के उपरांि ही हो सकिा है। “कला के मनस्ित्त्व अन्िितष्त्व-व्यवस्था का ही एक भाग ह।ै यह अन्िितष्त्व-व्यवस्था आत्मसािकृ ि जीवन-जगि ही ह।ै अिएव, कला के मनस्ित्त्व भी आत्मसािकृ ि जीवन-जगि का ही अगं ह।ै आत्मसािकृ ि जीवन-जगि और बाह्य जीवन जगि मंे हमेिा द्वंि होिा ह,ै दफर सामजं स्य होिा ह।ै “1 इसप्रकार मदक्तबोध ने कला का समाजिास्त्र िो दवकदसि दकया ही ह,ै कला के आधार पर कदविा के समाजिास्त्र को सत्यादपि कर दिखाया भी ह।ै यह उनका सवाषदधक महत्त्वपूणष योगिान ह।ै संिभा 1. मदक्तबोध रचनावली, राजकमल प्रकािन, 1980 भाग 2. Primitive Culture, Tylor, Edward B., ESTES & LAURIAT, 1874, page 1 3. A Contribution to the critique of political Economy, Marx, Karl, Progress Publishers Moscow, 1959, page 2 1 भाग-5 पेज 108-109 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 199

200 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 विद्यावनिास वमश्र के मूल्य-बोध का समकालीन संिभा: (तम िं न हम पानी के विशेष सिं भा मंे) रोशन कमार प्रसाि पीएच.डी दहिं ी अलीगढ़ मदस्लम दवश्वदवद्यालय ईमले - [email protected] सपं कष - 8126595934 सारांश समकालीन सन्दभव मंे विद्यावनिास वमश्र का वितं न हमारे परंपरार्गत् नैवतक मलू ्यों को मात्र समझने का माध्यम ही नहीं ह,ै अवपतु मनुष्य को एक स्िच्छ िीिन िीने की प्ररे णा देने िाला वििारात्मक सूत्र भी ह।ै दरअसल वमश्र का मूल्य-िोध प्रािीन िाङं ्मय से प्रेरणा पाकर निीन विंतन-धारा से के िल प्रभावित ही नहीं हुआ ह,ै िवल्क और भी अवधक विकवसत हुआ ह।ै इस रूप मंे िे भारतीय सांस्कृ वतक वितं नधारा के पुरोधा भी माने िाते ह।ैं भारतीय संस्कृ वत ि वितं न आि विज्ञान ि तकनीक के यरु ्ग में क्या प्रासवं र्गकता रखता है अथिा मनषु ्य मंे सहयोर्ग ि भािनात्मक संिदे ना का ह्रास वकस स्तर तक हो उठा है इसकी स्पष्ट झलक िउनके लेखन ि विंतन में देखने को वमलती ह।ै वमश्र के लेखन में मात्र भारतीय ससं ्कृ वत का शास्त्रीय और लोक पक्ष ही प्रस्ततु नहीं होता, अवपतु इसमें िीिन िीने की नई दृवष्ट भी समावहत नज़र आती ह।ै भाषा, सावहत्य, ससं ्कृ वत, समाि, रािनीवत, दशनव इत्यावद मानिीय संदभों के व्यापक दशनव उनके वनिधं ों में होते रहते ह।ैं विद्यावनिास वमश्र के लेखन की विशषे ता भी यही है; िो परंपरार्गत मनषु ्य को आधवु नकता से ि आधवु नक मनषु ्य को उसकी परंपरा की िि से िोिती ह।ै सन् 1957 मंे प्रकावशत वमश्र के वनिंध-संग्रह ‘तुम िदं न हम पानी’ पर आधाररत यह शोध आलखे उनकी वितं नधारा के माध्यम से मानिीय मलू ्यों की परख ि उसकी पहिान को रेखांवकत करता ह।ै साथ ही समकालीन सन्दभव में उनके मलू ्य-िोध की प्रासवं र्गकता का विश्लेषण भी प्रस्तुत करता ह।ै बीज शब्ि मूल्य-िोध, समकालीनता, दान-धमव, र्गटु वनपेक्ष, आनदं िाद, सौंदयव-िोध शोध आलेख जब हम मानवीय मलू ्यों के पररविषमान दस्थदि पर दवचार करिे ह;ंै िो अनायास ही हमारा ध्यान; मानव-जीवन के दवकास के उस ऐदिहादसक काल-खण्ड की ओर चला जािा ह;ै जहाँ से उसकी जय-यािा प्रारंभ होिी ह।ै आदिम मनष्ट्य द्वारा कृ दर् के आदवष्ट्कार दकये जाने से सबसे पहला काम यह हुआ दक इस क्रांदिकारी उपलदब्ध के पररणामस्वरूप मानव-मानव के मध्य परस्पर आदथषक सहयोग की भावना का जन्म हआु । पर क्या? माि आदथषक उपािानों के सहारे जीवन को दटकाऊ बनाया जा सकिा था? नहीं। अस्ि उसने आदथषक-सहयोग के साथ-साथ परस्पर मानवीय सबं धं ों को सिक्त आधार िने े या यों कहें दक अपने जीवन को व्यवदस्थि करने के दलए कबीलों व कनबों का दनमाणष दकया। कहना न होगा दक जसै े- जैसे वह सभ्यिा का दवकास करिा गया, प्रकारािं र से उसके जीवन-स्िर में दनरंिर बिलाव आिा गया। वह अपनी ििषम दजजीदवर्ा के बल पर आदि मानव से मानव और मानव से महामानव के रूप मंे अपने को स्थादपि करने के दलए दनरंिर प्रयत्निील रहा। आज मनष्ट्य ने अपनी प्रबल इच्छा िदक्त और बौदद्धक कौिल के बल पर दवज्ञान एवं प्रौद्योदगकी के साथ-साथ ज्ञान की एक वहृ ि् परंपरा का दवकास दकया ह।ै यह मानव की महान उपलदब्ध का एक पहलू ह।ै िसू रा पक्ष यह है दक भले ही आज उसने ज्ञान–दवज्ञान के दवदभन्न क्षेिों मंे असाधारण उपलदब्धयाँ क्यों न प्राप्त कर ली हों, परंि आज के इस यांदिक यग में कहीं-न-कहीं हमारी सवं ेिनाए,ं मनष्ट्य को आपस मंे जोड़ने वाली परस्पर सहयोग, समन्वय एवं वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 200


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