201 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 परोपकार की भावनाएं दनरंिर समाप्त होिी जा रही ह।ैं पदण्डि दवद्यादनवास दमश्र का दनबंध सादहत्य ऐसे ही मानवीय मलू ्यों की पड़िाल करिा ह।ै वैसे िो दमश्र के दनबधं सादहत्य मंे दवर्य वदै वध्य की प्रधानिा ह,ै दकं ि उनकी समस्ि दचंिन दृदि भारिीय ससं ्कृ दि की मूल मान्यिाओ,ं हमारे आराध्यों और हमारे मागं दलक प्रिीकों को उद्घादटि करने के साथ-साथ मानवीय सवं ेिनाओ,ं परस्पर सहयोग की भावनाओं इत्यादि को अक्षण्ण बनाए रखने में भी बख़ूबी रमी ह।ै दमश्र का दनबंध सादहत्य माि भारिीय संस्कृ दि के लोक और िास्त्रीय पक्ष को ही उद्घादटि नहीं करिा; प्रत्यि हमें जीवन जीने की नई दृदि भी प्रिान करिा ह।ै गौरिलब है दक दमश्र के दनबधं सादहत्य का जब हम अवलोकन करिे हंै िो पािे हैं दक यह अपने में दवदवध संिभों को समेटे हएु ह।ै भार्ा, सादहत्य, संस्कृ दि, समाज, राजनीदि, ििषन इत्यादि मानवीय संिभों के व्यापक ििषन दमश्र के दनबंधों में अकसर होिे रहिे ह।ैं दवद्यादनवास दमश्र के मूल्य-बोध को समकालीन सिं भष मंे िेखने से पूवष यहाँ मूल्य एवं समकालीनिा का पररचयात्मक ज्ञान प्राप्त कर लने ा अत्यंि समीचीन प्रिीि होिा ह।ै अध्ययन की इसी कड़ी में विषमान संिभष मंे उनके दचंिन की प्रासंदगकिा पर सूक्ष्मिा से दवचार करने का प्रयास दकया जायेगा। मूल्य का अदवदच्छन्न रूप से संबंध दकसी वस्ि की उपािेयिा या अनपािये िा से ह।ै अथािष ् जब मानव अपनी सि् या असि् प्रदवदियों के द्वारा दकसी वस्ि की उपयोदगिा या अनपयोदगिा का दनधारष ण करिा ह,ै समदझये दक वही मलू ्य ह।ै वसै े िो इस िब्ि का प्रयोग अथष-िास्त्र में सवादष धक होिा ह,ै दकं ि ििषन और सादहत्य के क्षेि में भी इसका प्रयोग अदधकादधक होने लगा ह।ै मान, प्रदिमान, दनकि इत्यादि िब्ि भी इसके पयायष के रूप मंे हमंे िखे ने को दमलिे ह।ैं इनका अथष भी वस्िओं के गण-िोर् अथवा माप-पररमाप से ह।ै प्रदसद्ध िािषदनक पैररंग ने “प्रत्यके वस्ि, छोटी-छोटी दक्रयाए,ँ सजृ न, मनोदवकार”1 इत्यादि को मलू ्य की कोदट में स्थान दिया ह।ै बोध िब्ि ज्ञान के अथष को द्योदिि करिा ह।ै साथ ही यह अनभदू ि, सोच, दवचार, दचंिन और दवमिष के अथष को भी द्योदिि करिा ह।ै दकसी संिर वस्ि को िखे कर हमारा मन अनायास ही उसकी ओर आकृ ि होिा चला जािा है साथ ही दस्थदि और भावानरूप हमारे ऐदं रक ज्ञान के स्वरूप में भी पररविषन दिखाई िने े लगिा ह।ै मसलन यह दक प्रसन्न होकर हसँ ना, िखी होकर रोना ये मनष्ट्य के पररदस्थदिजन्य स्वभाव हैं यही ऐदं रक पररविषन है क्योंदक मानवीय संविे नाओं और भावनाओं का प्रत्यक्ष संबंध हमारी इदं रयों से होिा ह।ै प्रकृ दि और पररदस्थदि मंे जब भी पररविनष होिा ह,ै उसका प्रभाव हमारी इदं रयों पर अवश्य पड़िा ह।ै मनष्ट्य जब दकसी वस्ि या पिाथष के गण-धमष और मूल्यों से प्रभादवि होिा है िब वह उनके प्रदि आकृ ि होिा चला जािा ह।ै पररणाम स्वरूप वह वस्िओं या पिाथों से िािात्म्य स्थादपि करने की चेिा करिा है और जब वह अपने को उनके साथ एकाकार कर लेिा है िभी हमारी इदं रयाँ संवेदिि हो उठिी ह।ैं मानवीय इदं रयों के सवं ेदिि होने की इसी अवस्था को सादहत्य की भार्ा में बोध कहा गया ह।ै आलोचना के क्षिे में प्रयोग की जाने वाली समकालीनिा वह अवधारणा है, दजसको दकसी एक पररभार्ा के चौखटे मंे बाधं कर नहीं रखा जा सकिा। यह िब्ि एक कालवाचक संज्ञा ह,ै प्रत्यय ह।ै समकालीन का सिही अथष है, एक ही समय में रहने वाला व सामान यग मंे रहने वाला। यह अगं ्रेजी के ‘कान्टेम्पोरेरी’ (Contemporary) का दहिं ी पयाषय ह।ै वास्िव में ‘सम’ िब्ि का अथष ‘एक ही’ व ‘एक साथ’ और ‘कालीन’ का अथष ‘समय’ व ‘काल’ ह।ै इस प्रकार समकालीन का स्पि अथष एक ही समय में होने व रहने वाला ह।ै मानक दहिं ी िब्िकोि के अनसार समकालीन का अथष 1 ‘आदधदनक दहंिी सादहत्य दचंिन मंे मलू ्य दृदि का अंिरभाव: (भारिीय और पाश्चात्य सादहत्य दचिं न मंे दनदहि मूल्य दृदि के आधार पर)’, िेज इरं पाल कौर, प.ृ -39, वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 201
202 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ह,ै “जो उसी काल या समय मंे जीदवि अथवा विमष ान रहा हो, दजसमंे कछ और लोग भी दवदिि रहे हों। एक ही समय मंे रहने वाला। जैसे महाराणा प्रिाप अकबर के समकालीन थे।”1 वस्ििः समकालीनिा के अथष स्वरूप व उसकी पररभार्ा को लके र दवद्वानों में मिभिे िखे ने को दमलिा है; दकन्ि समकालीनिा को लेकर श्री कल्याण चन्र का मि दविरे ् रूप से उल्लेखनीय ह,ै दजनके अनसार “समकालीनिा में विमष ान बोध के साथ ही अिीि और भदवष्ट्य का दववेकसम्मि बोध होिा ह।ै यह दवदिि विमष ान बोध ही समकालीनिा को अदभव्यदक्त ििे ा ह।ै ”2 इस प्रकार समकालीनिा का सम्बन्ध अिीि से होिे हएु भी अपने दवदिि मलू ्यों के कारण विमष ान से बना रहिा ह।ै दवद्यादनवास दमश्र ने अपने दनबंधों में सत्य- धमष, िान-धम,ष िया-धमष, आनिं ित्त्व एवं प्राकृ दिक सौंियष की रक्षा पर अत्यदधक बल दिया है जो समकालीन सन्िभष में दवलप्त होिी नदै िक मलू ्यों का आधार स्िम्भ ह।ै उपयषक्त दबिं ओं पर दवचार करिे हएु दमश्र के मूल्य-बोध को समझना इस िोध आलेख का मलू प्रयोजन ह।ै (क) भारतीय व ंतन परंपरा मंे सत्य-धमा का स्िरूप और इसके प्रवत विद्यावनिास वमश्र का दृविकोण सत्य के वास्िदवक रूप को समझना दकसी भी भारिीय एवं पाश्चात्य िािदष नक के दलये सहज नहीं रहा ह।ै इसका सवाषदधक कारण यह है दक प्रत्येक वस्ि का अपना ही एक स्वरूप होिा ह।ै उिाहरण के िौर पर िखे ा जाए िो सत्य की वस्िगि सत्ता को भौदिक दवकासवाि , यथाथवष ाि या द्वदं ्वात्मक भौदिकवाि के चश्मे से िेखने का प्रयास यह दसद्ध करने के दलए दकया गया दक समस्ि जीव की व्यत्पदत्त दसफष और दसफष अनके जदै वक दक्रयाओं के घाि-प्रदिघाि से हुई ह।ै जीवन की वस्ि दस्थदि यही है दक िो परस्पर दवरोधी िदक्तयों के मध्य होने वाले सघं र्ष से एक िीसरी िदक्त का जन्म होिा ह।ै इस प्रकार जीवन का क्रम ऐसे ही चलिा रहिा है िो आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। जैन ििषन उपयषक्त समस्याओं का समाधान ढूँढने का प्रयास करिा ह।ै उसके अनसार सत्य अनके धमगष णयक्त होिा ह।ै वह इस दसद्धािं पर अदधक बल िेिा है दक कोई भी दवचार दनरपेक्ष सत्य नहीं होिा। हाँ, एक ही वस्ि के सबं धं में दृदि-अवस्था, गण आदि भिे ों या पररविषन के कारण दभन्न-दभन्न दवचार सत्य हो सकिे ह।ंै “अनन्िधमषकम् वस्ि”3 पदण्डि दवद्यादनवास दमश्र अपने दनबंधों के माध्यम से सत्य के दवदवध रूपों में समन्वय स्थादपि करने की चिे ा करिे ह।ंै दमश्र जब सत्य के स्वरूप पर दवचार करिे ह;ैं िो उनके दचंिन का िािषदनक पक्ष हमंे दिखायी िेिा ह।ै वे सत्य और असत्य को पथृ क-पथृ क करके िखे ना कोरा बौदद्धक श्रम का दनरथषक व्यय मानिे ह।ैं वे दकसी भी राष्ट्र को एक आििष रूप प्रिान करने के दलए ऐसे सत्य की वकालि करिे ह;ैं जो अखण्ड हो, किवष ्य की भावना से यक्त हो िथा मनष्ट्य-मनष्ट्य के मध्य समन्वय स्थादपि करने की उसमें अपार िदक्त हो। सत्य संबधं ी मान्यिाओं को उनके दनबधं ‘अहं अनिृ ाि् सत्यम् उपैदम’ में सहज ही िखे ा जा सकिा ह;ै दजसमें उन्होंने भारिीय संस्कृ दि की ग्रहणिीलिा (रदवड़ों के पूजा दवधान, दनर्ाि की दवनयिीलिा िथा दवजािीय सत्य) के सदम्मदलि रूप को रेखादं कि कर उसे ‘एकम् सदद्वप्रा बहधु ा विदन्ि’ के रूप में स्वीकार दकया ह।ै इस सिं भष मंे उन्होंने दलखा ह,ै “सत्य एक है और खण्ड ह।ै इसके पहलू कई हो सकिे ह।ैं िेि और काल के भेि से उन पहलओं के कई नक्िे भी हो सकिे ह;ैं पर सत्य अनके नहीं हो सकिा और उसके खण्ड नहीं दकये जा सकिे। सत्य के बारे में िद्ध-अिद्ध का अनपाि नहीं दनकाला जा सकिा। इरं , वाय, वरुण, अदनन और सयू ष यदि सत्य हंै िो दिव, उमा, दवष्ट्ण और िगाष भी उिने ही सत्य ह,ंै दनराकार और दनरंजन भी उिने ही सत्य ह,ंै कम-बेिी कोई नहीं। 1 सपं ािक वमाष रामचन्र, मानक दहंिी कोि, पांचवा खडं , प.ृ -298 2 चन्र कल्याण, समकालीन कदव और काव्य, प.ृ -10 3 ‘भारिीय ििनष ’, सलै िे चरं चटोपाध्याय एवं धीरेंर मोहन ित्त, प.ृ -112 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 202
203 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 हमारी सत्य-साधना ने यह सीखा ही नहीं सत्य का सत्य से दवरोध होिा ह,ै सत्य का सत्य से खण्डन होिा ह,ै सत्य का सत्य से भेि होिा ह।ै इस दलए जब रदवड़ों ने पूजा दवधान दिया, हमने उसे दसर आखँ ों दलया। दनर्ाि ने दवनय दिया, हमने उसे हृिय से लगाया। हमने दवजािीय सत्य को भी स्वीकार दकया। दकसी सत्य से इनकार नहीं दकया। सत्य का पमै ाना ह,ै सत्य की खोज, सत्य को पाने की कोदिि। सत्य को कायरिा का, पलायन का और वंचना का कवच नहीं पहनाया जा सकिा।1” इस उद्धरण मंे दनबधं कार ने सत्य को अदवभाज्य, कायरिा, पलायनिा एवं प्रवंचना रदहि मानकर इसे कालबद्ध चिे ना के साथ अंिभूषि करके िेखने का प्रयास दकया ह।ै उनकी दृदि में सत्य का चाहे कोई भी रूप क्यों न हो, इसका मख्य ध्येय मानवीय मूल्यों की रक्षा करना ही होना चादहए। सही अथों में िेखा जाए िो सादहत्य ही वह क्षेि ह,ै जो इनकी रक्षा भावात्मक और दवचारात्मक िोनों ही स्िर पर भली-भांदि करने का प्रयास करिा ह।ै राजनीदि िायि यह नहीं कर पािी; इसदलये वह कलदर्ि हो जािी ह।ै कहना न होगा दक सत्य बड़े साहस से आिा ह।ै अपना हृिय दनःसकं ोच भाव से दकसी के समक्ष खोलकर रख िने ा बड़े ही साहस का काम है और यह साहस हमारी राजनीदि की प्राचीन परम्परा में िेखने को दमलिा ह।ै कहा जािा है दक िकं िला-िष्ट्यिं -पि भरि ने अपने साि पिों मंे से दकसी एक मंे भी राजा का गण न पाकर ित्तक पि भरद्वाज दभमन्यू को हदस्िना पर का यवराज दनयक्त कर एक स्वच्छ लोकििं की स्थापना की थी। िीि यद्ध के िौरान जब दवश्व िो गटों मंे दवभादजि हो गया िब हमने गटदनरपेक्षिा की नीदि को अपनाकर दवश्व को एक संििे दिया था दक गटदनपेक्षिा दवश्व को सिं दलि करिी ह,ै जबदक गटबंिी असिं दलि। हमारी प्राचीन, दकं ि स्वच्छ लोकिांदिक व्यवस्था को अघोदर्ि साम्राज्यवािी िदक्तयों को अपनाने का आवान करिे हएु दवद्यादनवास दमश्र दलखिे ह-ंै -“िम्हारी िदक्त, िम्हारा वैभव, िम्हारा अदभमान, िम्हारा िावा झठू ा ह।ै िसू रों को आदश्रि बनाकर आश्रयिािा बनाने वाली िम्हारी सभ्यिा दमथ्या ह।ै उसे छोड़ो, सत्य को स्वीकार करो। एक-िसू रे से िराव, एक-िसू रे से छपाव छोड़ो। एक-िसू रे पर दवश्वास करना सीखो। एक-िसू रे को सच्चा जानना सीखो।”2 उल्लखे नीय है दक पदश्चम के िदक्तिाली ििे ों ने अपने दमथ्यादभमान एवं झूठे आश्वासन से िीसरी िदनया के िेिों के प्राकृ दिक ससं ाधनों पर एकादधकार करने की चेिा की। दमश्र ने इस उद्धरण के माध्यम से ऐसे िदक्तिाली िेिों द्वारा छल-छद्म की प्रवदृ त्त को त्यागकर उनसे एक-िसू रे के मध्य आत्मीय सबं धं कायम करने का आग्रह दकया ह।ै जैसादक दवद्वानों द्वारा उन्हें पलायनवािी करार ििे े हएु जीवन की पररविमष ान दस्थदि के प्रदि उिासीन होने का उनपर आरोप लगाया जािा रहा ह,ै इस सम्बन्ध मंे दमश्र जी का उक्त राजनीदिक दचंिन ऐसे भ्रामक धारणाओं का सटीक खण्डन करिा ह।ै (ख)िाम्यत,् िि, ियध्िम् की प्रवतष्ा और विद्यावनिास वमश्र िाम्यि,् ित्त, ियध्वम् (इदं रय दनग्रह, उिारिा ियालिा) अपने और पराये को जोड़ने वाली प्रवदृ त्त ह।ै इसका वास्िदवक अथष अपनपे न का िावा छोड़ना ह।ै उिाहरणाथष: भौदिक वस्िओं के प्रदि मोह को त्यागकर दनःस्वाथष भाव से न के वल उसे िसू रे को अदपषि कर िने ा ह,ै प्रत्यि समस्ि मानव-जादि के हृिय में सदहष्ट्णिा की भावना को जागिृ करना भी ह।ै भारिीय ससं ्कृ दि मंे िान धमष की प्रदिष्ठा का उत्कृ ि उिाहरण हमें महाभारिकाल में िेखने को दमलिा ह।ै इस काल में ययादि और कणष जसै ी िान-वीर के रूप मंे दवभूदियाँ हईु ,ँ दजन्होंने जन कल्याणाथष अिेर् हृिय से अपना सवषस्व 1 दमश्र दवद्यादनवास, (अहं अनिृ ाि् सत्यम् उपदै म), ‘िम चिं न हम पानी’, प.ृ - 3 2 वही, प.ृ -3 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 203
204 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 अदपषि कर दिया। दवद्यादनवास दमश्र भारि की इसी िान-धमष की परंपरा को परखिे हएु इसे आधदनक सिं भष मंे व्याख्याइि करने का प्रयास दकया ह।ै उन्होंने ‘िाम्यि्, ित्त ियध्वम्’ नामक दनबधं मंे अपने उद्गारों को इस प्रकार व्यक्त दकया ह-ै “मानव का जीवन-मंि िान ह।ै िान की पररभार्ा ह,ै अपनपे न का िावा छोड़ना। दजसे अपनी मानकर ममिा रखी उस वस्ि को सहज भाव से िसू रे को अदपिष कर िेना, यह िान अपने और पराये को जोड़ने वाली सदं ध ह।ै यह िान मानव का उसकी समस्ि िबलष िाओं से उद्धार है क्योंदक िान िेकर मनष्ट्य एकिम बड़ा हो जािा ह।ै ”1 दमश्र िान-धमष की साथकष िा िभी दसद्ध मानिे ह,ैं जब वह अपनपे न के िावे से रदहि समयानकू ल व राष्ट्रोदचि हो। उिाहरण के िौर पर िवे की और वासिवे को कं स के कारागहृ से मदक्त दिलाने व उसके अत्याचार का प्रदिकार करने हिे िरुणों, सहादगनों, मािाओ,ं दपिाओं के सयं क्त त्याग व बदलिान को सहज ही िेखा जा सकिा ह।ै आििायी कं स के अत्याचार से मथरा वादसयों को मदक्त दिलाना दबना उनके संयक्त त्याग व बदलिान के असभं व था। आधदनक सिं भष मंे जब हम इसका दवश्लेर्ण करिे हैं िो ज्ञाि होिा है दक आज इसका सबं धं दनदश्चि रूप से श्रम से जड़ा हआु ह।ै दकसी भी राष्ट्र को सिक्त बनाने के दलये उसके प्रदि मनसा, वाचा, कमषणा समदपषि होना पड़िा ह,ै िब कहीं एक दवकदसि राष्ट्र का दनमाणष होिा ह।ै परिंििा की बदे ड़यों से मक्त भारि को वैदश्वक मंच पर प्रदिदष्ठि िेिवादसयों द्वारा श्रम-िान करके ही दकया जा सकिा था। दमश्र ने अपने इसी दनबंध में ित्कालीन भारिवादसयों से श्रम-िान का आवान करिे हएु दलखा ह,ै “श्रम िो, श्रम िो, श्रम िो। अपने अिरे ् हृिय से िेि के दनमाणष की ईटं एक के ऊपर एक दबठलाने के दलये अपने पसीने का गारा िो, भवन अचल हो जायेगा। पसीना मदलन होिा ह।ै पर उस पसीने का िान उस मलीनिा के दलये चनौिी होिा ह।ै ”2 कहने का आिय यह है दक कोई भी पररवार, समाज व राष्ट्र अपना दवकासात्मक स्वरूप िभी धारण कर सकिा ह,ै जब व्यदक्त अपने आप को उसके कल्याणाथष मनसा, वाचा, कमणष ा प्रदिबद्ध हो जाए। (ग) विद्यावनिास वमश्र का आनंििािी दृविकोण पदण्डि दवद्यादनवास दमश्र िाम्यि्, ित्त, ियध्वम् की ही भांदि आनंि ित्त्व को एक ऐसी वस्ि के रूप में स्वीकार करिे ह,ैं दजसे आत्मसाि करके समस्ि वािों-प्रदिवािों से मक्त होने के साथ ही एक स्वस्थ दकं ि कल्याणकारी दवचारधारा की स्थापना की जा सकिी ह।ै आनंिवािी दवचारधारा माि भोगवाि को प्रश्रय नहीं िेिी, वह ‘परािं ः सखाय’ की भावना को लके र चलने वाली िदक्त भी ह।ै उनकी दृदि मंे आनिं वह ित्त्व ह,ै जो व्यदि दविरे ् की नहीं वरन् समदि के कल्याण की बाि करिा हो। उनके अनसार वह दवचारधारा जो माि व्यदि की मदक्त का समथनष करिी हो; वह खोखली ह।ै दमश्र की दृदि मंे ‘अदस्ित्त्ववािी’ दवचारधारा उनमें से एक ह।ै वे अदस्ित्ववाि के उस दसद्धािं के प्रबल दवरोधी प्रिीि होिे ह;ैं जो ईश्वरीय सत्ता को महत्व न िके र व्यदक्त की सत्ता को के वल स्वीकार ही नहीं करिा, वरन् मनष्ट्य जादि के दवकास की सवोत्तम सामादजक संस्था की अवधारणा का खंडन भी करिा ह।ै ‘व्यदि और समदि की सदं ध’ नामक दनबंध में उनकी आस्थावािी और आनंिवािी दृदि अत्यंि मखर हो उठी ह।ै उन्होंने दिव को आनिं के रूप में न के वल स्वीकार दकया ह,ै वरन् आनिं रूपी ईश्वर के प्रदि अपनी गहरी आस्था भी प्रकट की ह।ै इस सिं भष में उनके दनबधं से एक उद्धरण को िखे ा जा सकिा है “हम ईश्वर या समाज के स्थान पर मानव को प्रदिदष्ठि करने की बाि क्यों करिे ह?ैं ईश्वर, समाज और व्यदक्त मंे आनिं को प्रदिदष्ठि करने की बाि क्यों नहीं करि?े संप्रिाय से सपं ्रिाय का जन्म होगा, उससे अनावस्था आएगी। आनंि 1 दमश्र दवद्यादनवास, (िाम्यि,् ित्त ियध्वम्), ‘िम चन्िन हम पानी’, प-ृ 5 2 वही, प.ृ -5 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 204
205 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 या भूमा ऐसी दस्थदि ह,ै जहाँ से पनराविनष नहीं होिा दफर उसी के ऊपर क्यों न बल दिया जाए?”1 ध्यािव्य है दक पदण्डि दवद्यादनवास दमश्र की यह उदक्त आज दकिनी प्रासदं गक दिखाई ििे ी ह,ै यह कहने की आवश्यकिा नहीं। हमारे धादमषक और राजनीदिक मठाधीि अपनी-अपनी दवचारधारा और अपने-अपने संप्रिाय को के वल श्रेष्ठ दसद्ध करने मंे ही नहीं लगे हुए ह,ंै बदल्क इन्होंने कट्टरवाि को पल्लदवि और पदष्ट्पि करने का कायष भी दकया ह।ै (घ) विद्यावनिास वमश्र का सौंिया-बोध दमश्र सौंियष और कला के पारखी माने जािे ह।ंै ‘िम चिं न हम पानी’ दनबंध सगं ्रह मंे अवर-सदृ ि और मानव-सदृ ि के सौंियष के दवदवध रूपों के ििषन होिे ह।ैं उनके द्वारा इस रचना में कई लदलि िब्िावली प्रयक्त की गई ह;ै जो हमारे अंिःकरण मंे दस्थि लादलत्य-ित्त्व को संस्पिष करिी ह।ंै यथा- प्रफल्ल, मनोहर, सिं र, उिात्त, सर्मा, िीदप्त, प्रीदि इत्यादि। दवधािा ने जब मानव की रचना की िो उन्होंने उसे बदद्ध-दववके प्रिान करने के साथ-साथ उसे दृढ़ दनश्चयी और अिम्य साहसी भी बनाया। उसकी यही अपराजेय िदक्त समय-समय पर प्रकृ दि प्रित्त समस्ि उपािानों मंे उसे एक सौंियाषत्मक कृ दि के रूप में प्रदिष्ठादपि करिी रही ह।ै िमाम सांस्कृ दिक, धादमकष , राजनीदिक दवप्लवों या दमथकीय संिभष को िखे ें िो महाकाल द्वारा सदृ ि को जलमनन कर िेने के बावजूि भी उसकी ििमष दजजीदवर्ा कभी समाप्त नहीं हुई। उसकी आत्मा पदवि और िीदप्त की प्रखरिा अक्षण्ण बनी हुई ह।ै यही कारण है दक आज के इस घोर दनरार्ावािी यग में भी दवद्यादनवास दमश्र को उसकी अपराजेय िदक्त पर अटूट दवश्वास ह।ै उन्होंने ‘कला के पलने के पास’ नामक दनबंध में दलखा ह,ै “मनष्ट्य की आत्मा दकिनी अपराजये होिी है दक वह पीढ़ी-िर-पीढ़ी उपदे क्षि रहकर भी अपनी प्रखरिा िीप्त दकए रहिी ह।ै ”2 आज के सन्िभष में दमश्र जी का उक्त दवचार व्यदक्त को न दसफष आत्मबल प्रिान करिा है बदल्क उसे सकारात्मक बल भी ििे ा ह।ै पंदडि दवद्यादनवास दमश्र मानवीय सौंियष की महत्ता को िो स्वीकार करिे हैं दकं ि उनकी दृदि मंे सौंियष के उत्कर्ष के रूप में जगिीि वर ही ह।ैं समस्ि चराचर जगि में ईश्वरीय सत्ता सौंियष के रूप मंे दवद्यमान रहिी ह।ै मनष्ट्य के सख-िख म,ंे आिा-दनरािा म,ें प्रत्येक वस्ि में ईश्वरीय सत्ता का अनभव हमारा सामूदहक चेिन सदियों से करिा आया ह।ै यही इस ििे की मूल भावना ह।ै दमश्र ने सौंियष की एक माि प्रदिमदू िष ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार कर उससे भारिीय भाव या मनोदवकारों को सदं श्लि करिे हएु दलखा ह,ै “जगि के प्रदि भादर्ि सौंियष को जगिीि वर से पथृ क िेखकर उसे अमंगल मानने वाले दवचारकों की दृदि भारि की मूल संस्कृ दि के दलए एक अपररदचि और अनात्मीय दृदि ह।ै वस्ििः चराचर जगि के प्रत्यके अिं मंे मंगलमय प्रभ के अदस्ित्व और उल्लास की भावना ही भारि की मलू भावना ह।ै ”3 दवद्यादनवास दमश्र ईश्वरीय सत्ता को भारिीय ससं ्कृ दि का वाहक मानिे हैं दजसे हमारे सभ्यिा के दवकास मंे िेखा भी जा सकिा ह।ै इसदलए वे जगिीि वर को भारिीय संस्कृ दि से अलग करने की कल्पना का परजोर खंडन करिे ह।ैं इस रूप में वे भारिीय ससं ्कृ दि एवं सौन्ियष को ईश्वर का ही प्रदिरूप मानिे ह।ैं सार रूप मंे कहा जाए िो मनष्ट्य के दवकास में ससं ्कृ दि का महत्त्वपूणष योगिान ह,ै दकन्ि आज पाश्चात्य ससं ्कृ दि के प्रभाव मंे अपनी ही ससं ्कृ दि की उपेक्षा को दवद्यादनवास दमश्र 1 दमश्र, दवद्यादनवास, (व्यदि और समदि की संदध), ‘िम चन्िन हम पानी’, प.ृ -98 2 वही, प.ृ -76 3 वही, प.ृ -79 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 205
206 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 असगं ि ठहरािे ह।ैं उनकी स्पि धारणा है दक सभ्यिा के दवकास में दजिना महत्व हमारी प्राचीन संस्कृ दि का ह,ै उिना ही महत्व ईश्वरीय सत्ता का भी ह।ै मानव-सौंियष की ही भादं ि प्रकृ दि के प्रदि दवद्यादनवास दमश्र का अगाध प्रमे उनके दनबंधों मंे स्थान-स्थान पर दिखायी िेिा ह।ै ध्यान िने े योनय बाि यह है दक सौंियष के आस्वािन के दलये उन्होंने अपने अहं को त्यागने पर अदधक बल दिया ह।ै यही कारण है दक लखे क दवधं ्य प्रििे की सर्मा की पोर की सघनिा में खो सा गया ह।ै लेखक का प्रकृ दि के प्रदि जो अगाध प्रमे ह;ै वह इस बाि की ओर प्ररे रि करिा है दक हम प्रकृ दि के समस्ि उपािानों से प्रमे कर इनकी रक्षा कर पाररदस्थदिकी ििं को सिं दलि बनाये रखने के दलये सिैव प्रयत्निील रहना चादहए क्योंदक यदि प्रकृ दि सरदक्षि रहगे ी; िो मानव-सदृ ि सरदक्षि रहगे ी और यदि मानव-सदृ ि सरदक्षि रहगे ी िो ही हमारे जीवन-मलू ्य भी सरदक्षि रहगंे ।े प्राकृ दिक या कलात्मक सौंियाषनभदू ि के दलए समस्ि ज्ञान और अहकं ार को त्यागना पड़िा ह।ै ईश्वर प्रित्त उन समस्ि उपािानों से एकाकार होना पड़िा है, जो हमारे अिं ःकरण मंे दचर दस्थि आनिं -ित्त्व को जागिृ करिी रहिी ह।ंै सौंियष की साकारिा िभी हो सकिी है, जब हम उनके साथ ििाकार हो जािे ह।ंै प्रकृ दि के साथ हमारा सामजं स्य िभी सभं व हो सकिा है जब हममें ग्रहणिीलिा, उत्कं ठा के साथ-साथ हमारे व्यदक्तत्व में मौनिीलिा, धैयिष ीलिा और दवनम्रिा हो। दवद्यादनवास दमश्र इस संिभष में दलखिे ह-ंै “जब िक अपने को ग्रहणिील और उत्कं दठि बनाकर हम दवजन का सौंियष दनरखने नहीं जािे, िब िक वह सौंियष हमारे दलए अगोचर बना रहिा ह।ै हमारे मौन रहने पर ही वह बोल पड़िा ह।ै हमारे ठहर जाने पर वह गदििील हो जािा है और हमारे दवनीि हो जाने पर ही वह स्फीि हो उठिा ह।ै ”1 प्राकृ दिक सौंियष के प्रदि इिनी सूक्ष्म दृदि दवद्यादनवास दमश्र जैसे कला मनोवैज्ञादनक की ही हो सकिी ह।ै दमश्र सौंियानष भदू ि की उसी ििाकाररिा की बाि करिे हंै; दजनका उल्लेख आचायष रामचंर िक्ल ने अपने दनबंध-सगं ्रह ‘दचिं ामदण’ के प्रथम भाग के दनबंध ‘कदविा क्या ह’ै मंे दकया ह,ै मदक्तबोध ने भी अपनी रचना ‘एक सादहदत्यक की डायरी’ के प्रथम लेख ‘िीसरा क्षण’ मंे भी इसी ििाकाररिा की बाि की ह।ै यह ििाकाररिा ही ईश्वर, प्रकृ दि, और मनष्ट्य के मध्य समन्वय स्थादपि करिी ह।ै वनष्ट्कषातः कहा जा सकिा है दक दवद्यादनवास दमश्र का मूल्य-बोध आििष मूलक दृदि से पररचादलि ह;ै दकं ि यह जीवन की पररविमष ान दस्थदियों-पररदस्थदियों को नये रूप मंे व्याख्यादयि भी करिा ह।ै आििष मलू क प्रवदृ त्त, दजसमें (सत्य, िान, िया, करुणा, प्रेम) के भाव अिं दनदष हि होिे ह;ैं उनकी रक्षा पर अत्यदधक बल िेने के साथ ही “धारयदि इदि धमःष ” सूदक्त से प्रेररि होकर उन्होंने भारिीय ससं ्कृ दि के भाव-परुर् कहे जाने वाले ‘राम’ और ‘यदधदष्ठर’ को किवष ्यदनष्ठ और सत्य-धमष के प्रिीक के रूप में स्वीकार कर विमष ान पीढ़ी को उनके आििों पर चलिे रहने का सिं ेि भी दिया ह;ै िादक व्यदि और समदि द्वारा अपने राष्ट्र के कल्याणाथष मनसा, वाचा, कमणष ा समदपिष हुआ जा सके । दमश्र के मलू ्य-बोध की एक अन्य महत्त्वपणू ष उपलदब्ध यह भी है दक वे अखण्डिावािी दृदि को सवादष धक उपयक्त मानिे ह;ंै िभी िो उनके दचिं न मंे दवश्वबंधत्त्व की भावना सवादष धक दिखायी ििे ी ह।ै िरअसल दवश्व की िो धरी िदक्तयाँ जब एक-िसू रे को िोल रही थीं; िब भारि के ित्कालीन प्रधानमंिी पदण्डि नहे रू द्वारा गटदनरपके ्षिा की नीदि अपनाये जाने को उन्होंने उदचि ठहरािे हएु महात्त्वाकाकं ्षी िदक्तयों की िंभभरी प्रचेिाओं की कट आलोचना की ह।ै उनकी दृदि में मानव धमष वही ह;ै जो लोलपिा को त्यागकर पररवार से समाज, समाज से राष्ट्र िथा राष्ट्र से दवश्व कल्याण की भावना को 1 दमश्र, दवद्यादनवास, (कला के पलने के पास), ‘िम चन्िन हम पानी’, प.ृ -79 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 206
207 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 अपना सके । हमारे दवचार से ऐसा व्यापक दृदिसंपन्न दनबंधकार न िो माि अिीिोन्मखी ही हो सकिा है और न ही वह समकालीन चनौदियों से घबरा ही सकिा ह।ै दवद्यादनवास दमश्र माि अिीि या विषमान के दवर्य मंे ही नहीं सोचि,े बदल्क अिीि से सीख लेकर भदवष्ट्य के पररणामों के दवर्य मंे भी दचिं निील दिखाई िेिे ह।ैं यह कहने में िदनक भी दहचक नहीं दक दवद्यादनवास दमश्र के लखे न का मूल्य बोध आज दवलप्त होिी नैदिक मलू ्यों की आधारदिला ह।ै आधदनकीकरण के इस िौर मंे, जहाँ मानवीय संविे नाओं का पिन व वैयदक्तक स्वाथष का चरम िेखने को दमलिा ह,ै ऐसे में दवद्यादनवास दमश्र के मूल्य बोध को आत्मसाि करने की आवश्यकिा जान पड़िी ह।ै इिना ही नहीं, दवद्यादनवास दमश्र की दचंिन दृदि राष्ट्रवाि के रूप में सिवै राष्ट्रीय एकिा व राष्ट्र दहि का ही समथनष करिी है जो विषमान समय में दकसी भी राष्ट्र के दवकास व उन्नदि के दलए परम आवश्यक ह।ै इस रूप में दवद्यादनवास दमश्र का मलू ्य बोध आज न दसफष प्रासंदगक है अदपि अत्यंि आवश्यक भी जान पड़िा ह।ै सिं भा-ग्रथं सू ी 1. चन्र, कल्याण, 1996. समकालीन कदव और काव्य, दचंिन प्रकािन, कानपर, उत्तर प्रिेि 2. िजे इरं पाल कौर, (1993), ‘आधदनक दहिं ी सादहत्य दचिं न मंे मूल्य दृदि का अिं रभाव: (भारिीय और पाश्चात्य सादहत्य दचंिन में दनदहि मूल्य दृदि के आधार पर)’, इलाहाबाि दवश्वदवद्यालय द्वारा डी.दफल. की उपादध हिे प्रस्िादवि िोध-प्रबंध 3. दमश्र, दवद्यादनवास, 2000. िम चंिन हम पानी, नेश्नल पदब्लदिंग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण 4. मदक्तबोध, गजाननमाधव, 2008. एक सादहदत्यक की डायरी, भारिीय ज्ञान-पीठ, दिल्ली, आठवाँ ससं ्करण 5. वमाष, रामचन्र (सपं ािक), 1993. मानक दहिं ी कोि (पाचं वा खडं ), दहिं ी सादहत्य सम्मले न, प्रयाग, उत्तर प्रििे 6. िक्ल, रामचरं , 2002. ‘दचिं ा-मदण’ (भाग 1), लोक भारिी प्रकािन, इलाहाबाि, प्रथम संस्करण1 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 207
208 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िािों के िायरे और कं िर नारायण डॉ. अनंत विजय पालीिाल अम्बडे कर दवश्वदवद्यालय दिल्ली में अध्यापन ईमेल – [email protected] फ़ोन नंबर - 7982058044 सारांश वहदं ी सावहत्य की अन्य विधाओं की तरह ही कविता को भी 'िाद' के दायरे मंे सकं ु वित करने के प्रयास हुए ह।ंै रिनाकारों ि आलोिकों के खेमे से र्गुिरती कविता पर वकसी न वकसी िाद की महँाु र िस्पा दी िाती ह।ै र्गटु वनरपके ्ष रिना या रिनाकार का अवस्तत्ि एक संकट का विषय ह।ै कंु िर नारायण िसै े रिनाकार भी इस सकं ट से र्गिु र िकु े ह।ंै इन्हे भी िादों के दायरे मंे समेटने के तमाम प्रयास वकए र्गए। अवस्तत्ििाद से लेकर माक्सिव ादी प्रभाि तक के तमर्गे उन्हंे वदए िा िकु े ह।ैं इस शोध आलखे मंे कंु िर नारायण की कविताओं पर 'िादों' के प्रभाि को विश्लेवषत करने का प्रयास वकया र्गया ह।ै बीज शब्ि सावहत्य, कँाु िर नारायण, रिनाकार, अवस्तत्ििाद शोध आलेख - दहन्िी कदविा पर वािग्रस्ि होने के आरोप नये नहीं ह।ंै सादहत्यकारों व आलोचकों के अपने-अपने खेमे रहे ह।ंै यह प्रवदृ त्त इस किर हावी है दक गट-दनरपके ्ष रहकर कोई भी रचनाकार चदचिष नहीं हो सकिा। दहिं ी सादहत्य मंे रचनाकारों को अक्सर उनके दलखे अनसार इसमंे बाँधने का प्रयास दकया जािा रहा ह।ै कछ थोड़े से कदव जो इस गटबिं ी से िरू रहकर स्वििं रचना को महत्व ििे े हैं उनमें कँ वर नारायण भी एक ह।ैं ऐसा नही है दक कँ वर नारायण पर वािग्रस्ि होने के आरोप नहीं लग।े उनकी दवदभन्न रचनाओं को भी अदस्ित्ववाि, माक्सषवाि, यथाथषवाि आदि ििनष ों के िायरे मंे बाधँ ने की कोदिि की गयी ह।ै लेदकन कँ वर नारायण के दवर्य मंै यह स्पि है दक जहाँ वे दकसी ििनष का नकार नहीं करिे वहीं उसे अपने ऊपर लािना भी उन्हें पसंि नहीं ह।ै िीसरा सप्तक के वक्तव्य में वे स्पि रूप से कहिे हैं दक -“कलाकार या वैज्ञादनक के दलये जीवन में कछ भी अग्राह्य नहीं : उसका क्षिे दकसी वाि या दसद्धांि दविेर् का संकदचि िायरा न होकर वह संपूणष मानव-पररदस्थदि है जो उसके दलये अदनवायष वािावरण बनािी है और दजसे उसका दजज्ञास स्वभाव बराबर सोचिा-दवचारिा रहिा ह|ै ”1 निं दकिोर नवल जसै े कछ आलोचकों ने कँ वर नारायण को अदस्ित्ववािी कहा है मख्यि: ‘चक़व्यहू ', ‘पररविे : हम िम' और ‘आत्मजयी' की कदविाओं के आधार पर । लेदकन के . सदच्चिानन्ि इसे संिेह की दृदि से िेखिे ह।ंै वे कहिे हैं - “मंै इससे इकं ार नहीं करिा दक कँ वर नारायण ने भी कई िसू रे कदवयों की िरह जो पाचँ वंे ििक के उत्तराधष और छठें ििक में उभर कर सामने आए दकके गािष , साि , मासेल और यास्परे स को पढ़ा होगा और अदस्ित्ववािी दवचारधारा के प्रभाव में अस्थायी िौर पर दनरािा, आिंका, स्वििं िा की दचिं ा और अनदस्ित्व के दवरुद्ध अदस्ित्व के संघर्ष के साथ अपना िािात्म्य स्थादपि दकया होगा, िथादप स्वयं एक कदव के रूप मंे ऐसे वगीकरणों को मैं संिहे की दृदि से िेखिा रहा हूँ |”2. वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 208
209 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िरअसल अदस्ित्ववाि पर उस पराने िकष वाि का प्रभाव है जो द्वंिवाि का दवरोधी ह।ै आत्मगि और वस्िगि यथाथष सम्बद्ध न होकर उसके दलये अलग हंै, भूि और चेिना, व्यदक्त और समाज इसी िरह दवदच्छन्न इकाइयाँ ह।ैं अदस्ित्ववाि पर सामन्िकालीन धादमकष अंधदवश्वासों का गहरा असर ह।ै इस नज़ररये से िेखा जाए िो कँ वर नारायण दकसी भी िरह अदस्ित्वािी नहीं ठहरि।े िरअसल दकसी भी लेखन के पीछे वक़्िी हालाि बहिु हि िक असर डालिे ह।ैं भारि स्विंि हो चका था लदे कन भदवष्ट्य को लेकर अभी भी कई आिकं ाएँ िरे ् थीं। भयानक गरीबी, भखमरी और बरे ोजगारी से दनरािा, कं ठा,आिंका का उभरना स्वाभादवक था। गावं से महानगरों की ओर पलायन, पररवार और सामादजक संबधं ों का टूटना और इससे उत्पन्न मानदसक पीड़ा के मद्दने जर लोगों का आत्महत्या िक के दलये प्ररे रि हो जाना, ये कछ ऐसी चीजंे थीं जो दहिं ी के 'नई कदविा' के िौर मंे उभर कर सामने आ रही थीं जमनष , फ्रंे च और अगं ्रेज़ी सादहत्य में िो आत्महत्या की ओर नजर िौड़ाने वालो की एक लम्बी परम्परा है लदे कन दहन्िी के 'नई कदविा' के िौर में भी इस पररपाटी को ढोने वाले कदवयों की कमी नहीं ह।ै कँ वर नारायण के समकालीन अदधकिर कदवयों ने इस अदस्ित्ववािी ििनष को अपनाया। अदस्ित्ववािी ििषन मंे भले ही वस्िजगि मिृ हो, मानव-चिे ना ही सि् हो लदे कन व्यवहार में कदव के दलये मिाष चीज़ंे जानिार हंै और जानिार चीज़ंे मिाष ह।ैं लक्ष्मीकांि वमाष दलखिे ह-ैं “आज मंै प्रेि हूँ क्योंदक मैं अपनी मौि से नहीं मरा हूँ मनैं े की है आत्महत्या जान-बझू कर!” दगररजाकमार माथर - “दकसी ने भी मरे ी अदं िम आत्महत्या नहीं िखे ी|” अिोक वाजपये ी - “लगािार - मैं मर रहा हूँ मर रहा है एक – संसार|” वहीं कँ वर नारायण “आत्मजयी' के “मतृ ्य मखात्प्रयक्तम' में दलखिे हैं - “नदचके िा को लगा वह प्रदिभा अभी मरी नहीं , न कठोर हईु , न उसमें काल की अनन्ििा व्यापी ह:ै उसमें अपनत्व की एक सघन व्यथा अभी बाकी ह”ै यह सही है दक कँ वर नारायण के आत्मजयी मंे कई जगहों पर अदस्ित्ववािी लक्षण दिखाई िे जािे हैं दकन्ि यह पूरी रचना अदस्ित्ववािी नहीं कही जा सकिी। िरअसल कँ वर नारायण नयी कदविा के भीिर अदस्ित्ववाि की भारिीय व्याख्या में लगे हएु थ।े अदस्ित्ववािी नयी कदविा मंे मतृ ्य, दनरािा, आक्रोि, उबकाई दलजदलजापन, िगषनध, वमन आदि जसै े वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 209
210 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मनष्ट्य के स्थायी भाव बन गए थ।े इस दलहाज स कँ वर नारायण संभवि: उस िौर के अके ले ऐसे कदव थे दजन्होंने आधदनक अदस्ित्वबोध को ििषन, परंपरा व इदिहास मंे खोजने का साथषक प्रयास दकया। आत्मजयी की भूदमका मंे कँ वर नारायण ने यह स्वीकार दकया है दक उसका धादमषक या िािदष नक पक्ष दविरे ् दचिं ा का दवर्य नहीं, बदल्क मानवीय अनभव ज़्यािा महत्वपणू ष ह।ै आज का मनष्ट्य दजस िबाव से गजर रहा है नदचके िा उसका प्रिीक ह।ै िरअसल आत्मजयी काव्य का दवस्िार कछ इस प्रकार का है दक उसमें भारिीय विे ान्ि के साथ अदस्ित्वािी पक्ष भी जड़े हुए लगिे हैं लदे कन प्रदक्रया मंे िोनों ही पक्षों में अन्िर ह।ै कहा जाए िो यह अदस्ित्ववाि के बजाए अदस्ित्व-बोध के ज़्यािा दनकट ह।ै उनका मनष्ट्य कबीर के मनष्ट्य के करीब है जो प्रदिक्षण संप्रिायवाि , बाह्माचार और बाहरी भिे भाव पर कठोर आघाि करिा रहिा ह।ै कँ वर नारायण अपनी प्रारदम्भक कदविाओं मंे अदस्ित्ववािी उपमानों से पूणिष ः मक्त नहीं कह जा सकिे जैसे इस कदविा में - समय के कें चल सरीखा रास्िा मारकर खाया हआु -सा पड़ा चारों ओर खाली नगर-पंजर... लंज िीवारें... सहारे डरी, दसकड़ी पड़ी कछ परछाइया।ँ ... ित्कालीन कदविा की ऐसी पररपाटी को िखे िे हुए रामदवलास िमाष ने अदस्ित्ववािी ििनष मंे न्यूरोदसस के कछ हल्के - फल्के लक्षणों की पहचान की ह।ै वे दलखिे हैं - “सड़कों का उछलना-कू िना, लमै ्प पोस्टों की बािें करना न्यरू ोदसस को छू ने वाले दिवास्वप्न माि ह.ैं ..... जब सड़कों का यह हाल है िब िीवारें िसू रो की बािें करंे उन पर दवचार करंे यह वादज़ब ही ह।ै उनके कान बहुिदिनों से ह।ैं ''3 उनके इस िंज में कं वर जी की यह कदविा भी िादमल थी- मंडेरों के कं धे दहलिे हंै झरोखे झाँकिे हैं िीवारें सनिी हैं महे राबें जमहाई लेिी ह।ंै ( अनात्मा िहे : फिेहपर सीकरी ) रामदवलास िमाष ने सभं वि: यह पंदक्त व्यंनयात्मक रूप में दलखी दक 'उनके (िीवारों) बहुि दिनों से कान ह।ैं ' िरअसल यह कदविा उन खण्डहरों का मानवीकरण माि नहीं ह।ै इसमें अिीि की वे मानवीय सवं िे नाएँ हैं जो आज उपदे क्षि ह।ैं उनमें वह खामोि स्पंिन है जो अिीि को विषमान से जोड़िी ह।ैं कँ वर नारायण ने अपनी कदविाओं को लके र दकसी पक्ष या खमे े की जरूरि कभी महससू नहीं की। यह उस िौर मंे बड़े जोदखम की चीज थी, दजसमंे हर िसू रा कदव दकसी न दकसी वाि' का झडं ा थामे खड़ा था। अपना स्वर ऊँ चा रखने के दलये िसू रों से िेज चीखना, विे ना या संिास व्यक्त करने के दलये दलजदलजे और अश्लील िब्िों का चयन करना उन्हें कभी गँवारा नहीं हुआ। कँ वर नारायण की कदविाएँ दकसी की नीयि पर िक नहीं करिी हंै लेदकन उन्हें पिा है िसू रों की सोच इससे दवपरीि ह।ै इसदलये वे बार-बार गलि समझे जाने, पीदड़ि दकये जाने, बिे खल दकये जाने के दचि अपनी कदविाओं मे ले आिे हंै - वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 210
211 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वे सब दमलकर मेरी बहस की हत्या कर डालिे हंै ज़रूरिों के नाम पर और पछू िे हंै दक दजिं गी क्या है दजिं गी को बिनाम कर। ( जरूरिों के नाम पर ) कोई गश्ि लगा रहा है मरे ी यािों मंे - मैं पहरे मंे हू।ँ ( दवकल्प-2 ) कहीं यह भी कोई जमष न हो ( आसन्न सकं ट मंे ) बहिु ों के मामले मंे बहिु ों से अलग राय रखना! झूठ या सच से नहीं इस िरह यकीन रखने वालों के बहुमि से डरिा हूँ आज भी! (आज भी) इस प्रकार कँ वर नारायण के अदस्ित्ववािी ििनष के बारे मंे दवष्ट्ण खरे की यह पंदक्तयाँ ज्यािा सटीक लगिी हैं दक - “कँ वर नारायण की यह और ऐसी कदविाएँ कोई काफ़्का-काम्यनू मा छद्म नहीं ह,ै वे िरअसल एक बफीला चीत्कार हंै जो चीजों को िखे समझ पाने वाले बीसवीं सिी के मदस्िष्ट्क मंे लगािार गजूँ िा रहिा ह।ै ''4 यहाँ िखे ने की बाि यह है दक कँ वर नारायण दवचारधाराओं को अस्वीकार करिे हए भी दवचार पक्ष पर बल िेिे ह।ैं कछ इसी िरह माक्सवष ाि से पूणिष ः: सहमि न होिे हुए भी माक्सषवाि की जरूरि पर बल ििे ह।ैं क्योंदक उनका मानना है दक ऐसी अनके दवचारधाराएँ आज भी हंै जो एक िेि नहीं परू ी मानव-जादि के दलये महत्व रखिी ह।ंै माक्सष , फ्रायड, आइन्सटीन आदि के दवचारों का िायरा उनके ही िेि नहीं बदल्क उनके दवर्यों के बाहर भी उस परू े दचंिन में व्याप्त है दजसे हम आधदनक कहिे ह।ैं 5 कँ वर नारायण माक्सष के इसी आधदनक दचिं न के पक्षधर हंै दजसके के न्र में मानव-जादि ह।ै वह उस वगष-व्यवस्था के दखलाफ हंै जहाँ व्यदक्त ऊँ चे और नीचे पायिानों से पहचाना जािा ह।ै वह िोर्क और िोदर्ि की पहचान भलीभांदि जानिे है साथ ही इस िोर्ण के दखलाफ िीखी बचे नै ी भी ज़ादहर करिे हैं - कया हम अभी भी उन्हीं नीचाइयों में खड़े हंै जहाँ ऊँ चाइयों का असर पड़िा ह?ै रूसी क्रांदि के इिने ििक बाि और भारि में चले िमाम आिं ोलनों के बावजिू भी ऊँ चाइयों का दनयम बिस्िूर जारी ह।ै समाज मंे मौजिू स्िरीकरण ही हर आिमी की दनयदि को िय करिा ह।ै 'लापिा आिमी का हुदलया' कदविा मंे कँ वर नारायण इस मल्क के एक आिमी की विषमान दस्थदि को इसी संिभष में बयाँ करिे हैं - वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 211
212 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 रंग गेहआूँ , ढगं खेदिहर उसके माथे पर चोट का दनिान उम्र पछू ो िो हज़ार साल से कछ ज़्यािा बिलािा ह।ै िेखने मंे पागल-सा लगिा-है नहीं कई बार ऊँ चाइयों से दगरकर टूट चका है इसदलये िखे ने पर जड़ा हुआ लगगे ा दहन्िस्िान के नक्िे की िरह। ( लापिा का हुदलया ) िरअसल यह ऐसी सत्ता है जो कबीलाई ससं ्कृ दि से आज िक दसफष अपने मखौटे बिलिी आई ह।ै वगष-संघर्ष का यह इदिहास आदिम यग से विमष ान िक आज भी स्थायी ह।ै सत्ता की ऐसी ही नमाइि को वे इदिहास से विमष ान िक लके र आिे हंै - अब दकसी बाि को लेकर दचंिा करना व्यथष है वे आ गए ह।ंै उन्होंने दफर एक बार हमें जीि दलया ह।ै उनके जत्थे अब लूट की खली छू ट के दलये बेिाब ह।ंै ( बबषरों का आगमन ) इस िरह माक्सषवािी चिे ना से प्रभादवि कँ वर नारायण की कई अन्य कदविाएँ भी ह।ैं लेदकन उनका मानना है दक लेखक दवचारधाराओं से िटस्थ रहिे हएु भी उनसे दवचारित्व ग्रहण कर सकिा है, िादक उसकी मधे ा में दवचार स्वाितं्र्य की जगह हमिे ा सरदक्षि रह।े 'पररविे : हम िम' की भूदमका मंे वे कहिे हंै -\"मानवीय मलू ्यों की रक्षा के दलये कछ सामादजक दनयमों को मानना अदनवायष हो जािा है, लेदकन ये दनयम चाहे समाज के हों, चाहे राज्य के , इस सीमा िक मान्यनहीं हो सकिे दक व्यदक्त की स्विंििा मंे बाधक हो जायें।''6 व्यदक्त स्विंििा को लेकर माक्सष की यह खीझ भी प्रदसद्ध है दक, मदश्कल िो यह है दक मैं माक्सवष ािी नहीं, माक्सष हू।ँ इस प्रकार कँ वर नारायण 'माक्सवष ाि' को परू ी िरह खाररज कभी नहीं करिे बदल्क सादहत्य में उसकी जबरिस्ि उपदस्थदि को वे स्वीकार करिे हंै क्योंदक यह भी सत्य है दक दजिनी आलोचना माक्सषवाि ने आकृ ि की उिनी िायि दकसी और दवचारधारा ने नहीं की। अन्िि: कँ वर नारायण की वाम-दवचारधारा के सबं धं में ‘दवष्ट्ण खरे' की यह पदं क्तयाँ ज़्यािा सटीक लगिी हैं “वे वामपंथी नहीं है लेदकन यदि अन्याय, अत्याचार, बबरष िा , िानािाही िथा फासीवािी मानदसकिा के दवरुद्ध दबना गराषए, रंेके या छँछआए खड़ा रहना प्रदिबद्धिा है िो कँ वर नारायण की पक्षधरिा असंदिनध ह।ै ''7. ‘िीसरा सप्तक' मंे प्रकादिि वक्तव्य में कँ वर नारायण ने सन् 1959 में ही कहा था दक कदविा मरे े दलए कोई भावकिा की हाय-हाय न होकर यथाथष के प्रदि एक प्रौढ़ प्रदिदक्रया की मादमषक अदभव्यदक्त ह।ै सम्भविः इसदलये कँ वर नारायण की कदविाएँ चीख-पकार से िरू यथाथष को उसकी संवेिना के साथ प्रस्िि करिी ह।ंै उनके यहाँ यथाथष के वल वो नहीं जो नजरों के समक्ष है या जो स्वयं भोगा हुआ ह।ै बदल्क उनका मानना है दक “कदविा यथाथष को नज़िीक से िखे िी मगर िरू वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 212
213 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 की सोचिी ह।ै वह एक बारीक मगर ज़रूरी फकष करिी है जीवन-यथाथष और जीवन-सत्य के बीच।... एक कदव मंे अगर िरू िक सोच सकने की िाकि नहीं है िो उसकी कदविा या िो यथाथष की सिह को खरोंचकर रह जाएगी, या दकसो भी आििष से दचपककर।''8 कदविा मंे यह िरू िक सोच सकने की िाकि के वल इस पर दनभषर नहीं करिी दक कदव अपने चारों ओर की दजंिगी का दकिना सही-सही दचिण करिा है बदल्क इस पर दक वह अपने बाह्य और आन्िररक यथाथष का दकिना संदिलि रूप हमें िे पािा ह।ै साधारण िब्िों मंे कहंे िो कदविा यथाथषपरक होिे हएु भी अत्यिं आत्मीय और दनजी भी हो सकिी है जैसे दनराला की सरोज-स्मदृ ि। आत्मीयिा या दनजिा यथाथषवाि का एक दहस्सा हो सकिे हैं दकं ि आवश्यक ििष नहीं। यहाँ यथाथष को लके र कदवयों के अपने नजररये भी िेखे जा सकिे हंै जहाँ अज्ञये कहिे हैं दक 'दजिना िम्हारा सच ह,ै उिना ही कहो' वहीं कँ वर नारायण कहिे हंै दक - क्या वह हाथ जो दलख रहा है उिना ही है दजिना दिख रहा? या उसके पीछे एक और हाथ भी है उसे दलखने के दलये बाध्य करिा हुआ? ( सिहें ) कल दमलाकर नयी कदविा के यथाथष ने जहाँ दिल्प की अदभजात्यिा को िोड़ा वहीं कदविा में संज्ञाएँ भी 'आमजन' के बीच से ही ली जाने लगीं। सवेश्वर, नागाजनष , धदू मल और रघवीर सहाय ने इसे और ज़्यािा सावधानी से दनभाया। “हरचरना', “मसद्दीलाल” या “रामिास' जसै े चररि रघवीर की कदविा मंे बराबर आए। कँ वर नारायण की कदविा मंे भी ऐसे चररि हमसे टकरािे ह,ैं जैसे 'सम्मिीन', 'रहमि अली िाह', 'ढोढ़ँ भाई' आदि। िरअसल यह नई कदविा का यथाथष है दजसके िखे ने के चश्मे अलग ह।ंै उसमंे अिीि का दवरोध नहीं बदल्क उससे सवं ाि ह,ै िकष ह।ै उनका यह सवं ाि, यह िकष उन सभी वािों, दवचारधाराओं से भी है दजन्होंने अिीि से लेकर विमष ान िक मनष्ट्यिा को यद्ध और उन्माि दिये ह।ंै सभ्यिाएँ िब भी थीं, आज भी ह,ंै पिन िब भी हुआ था और आज भी हो रहा ह।ै ऐसे मैं नदचके िा के माध्यम से कदव के वल इिना ही वरिान चाहिा है - यह िदनया- यह भदवष्ट्य िमको सािर वापस दमल सके अगर िो एक दृदि चादहये जीवन बच सके अधं ेरा हो जाने, स-े बस। िरअसल इन स्थादपि वािों , ििषनों के बीच और उनसे इिर भी कँ वर नारायण का अपना रचना संसार है जो के वल मनष्ट्य पर िरु होिा है और लगािार उसी के साथ चलिा रहिा ह।ै उनके दलये यह समाज, इसमें होने वाले यद्ध, सत्ता की िौड़, मारकाट, दहसं ा, सांप्रिादयकिा इन सभी के बाि जो अदं िम हि ह,ै वह है घर। यह दकसी भी लक्ष्य की अदं िम हि ह,ै दकसी भी जीि का अदं िम प्रमाण। इस पररप्रके्ष्य मंे कँ वर नारायण पूरी मनष्ट्यिा के दलये यही बयान िजष करना चाहिे हैं दक- घर रहगें ,े हमी उनमैं न रह पाएँगे वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 213
214 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 समय होगा, हम अचानक बीि जाएँग।े सिं भा ।) दमश्र, यिीन्र(सं), कँ वर नारायण उपदस्थदि-2, वाणी प्रकािन, दिल्ली, ससं ्करण, 2002, प.ृ 424. 2) दमश्र, यिीन्र(स)ं , ‘कँ वर नारायण उपदस्थदि-2’, वाणी प्रकािन, दिल्ली, ससं ्करण-2002, प.ृ 377. 3) िमा,ष रामदवलास , नई कदविा और अदस्ित्ववाि , राजकमल प्रकािन, दिल्ली, ससं ्करण-2012, प.ृ 22-23. 4) खरे, दवष्ट्ण, ‘मझे एक मनष्ट्य की िरह पढ़ो’, आलोचना की पहली दकिाब, नेिनल पदब्लदिगं हाउस, नई दिल्ली, प्रथम स-ं 1983, प.ृ 84. 5) श्रीवास्िव, परमानिं , ‘समकालीन दहिं ी आलोचना’ , “आधदनक समय-रचनात्मकिा”, कँ वर नारायण, सादहत्य अकािमे ी, प.ृ 178. 6) नारायण, कँ वर, भदू मका- पररविे : हम िम, वाणी प्रकािन, ििृ ीय संस्करण, 2006, प.ृ 07. 7) खरे, दवष्ट्ण, ‘मझे एक मनष्ट्य की िरह पढ़ो’, आलोचना की पहली दकिाब, नेिनल पदब्लदिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम स-ं 1983, प.ृ 91. 8) नारायण, कँ वर, ‘सामादजक यथाथष और कदविा का आत्मसंघर्ष: कछ नोट्स’, समकालीन दहिं ी आलोचना, सपं ािक- परमानंि श्रीवास्िव, सादहत्य अकािमे ी, प.ृ 179. वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 214
215 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ितामान बेरोजगारी का नया कलेिर और अन्िेषण उपन्यास की प्रासवं गकता पजू ा मिान(पीएच.डी. िोधाथी) प्रो. आलोक गप्त (िोध दनिेिक) दहन्िी अध्ययन कंे र गजराि कें रीय दवश्वदवद्यालय मो. 7428524687 ईमेल- [email protected] साराशं प्रस्तुत शोध आलेख िेरोिर्गारी पर के वन्द्रत है। िरे ोिर्गारी विससे आि का हर यिु ा िझू रहा ह।ै उच्ि वशक्षा प्राप्त करने के िाििदू भी यिु ाओं को िह मुकाम नहीं वमल रहा विसके िे हकदार ह।ै समाि और शासन व्यिस्था से उनका संघषव वनरंतर िारी ह।ै िेरोिर्गारी की पीिा एक ओर उनके भविष्य को र्गतव मंे धके ल रही है तो दसू री तरफ उनके स्िावभमान पर भी प्रहार कर रही ह।ै शैवक्षक संस्थानों से लेकर रोिर्गार कायावलयों तक मंे भ्रष्टािार के विषाणु इस कदर िढ़ र्गए हैं वक आम व्यवि कवठन पररश्रम के िाििदू भी असफल ह।ै यह आलखे िरे ोिर्गारी से उत्पन्न युिाओं की आंतररक और िाह्य प्रकृ वत दोनों को उद्घावटत करता ह।ै बीज शब्ि िेरोिर्गारी, स्िावभमान, वशक्षा, व्यिस्था, भ्रष्टािार और वहसं ा। शोध आलेख “एक बाि बिाओ,ं हमारे जो इिने साल बबािष हएु , उसे कौन वापस करेगा? इन वर्ों मंे हमने दजंिगी नहीं जाना। हमने नहीं जाना दक सख क्या होिा ह?ै हमने नहीं जाना सकू न क्या ह।ै उस समय को दफर से कोई वापस िेगा? वे दिन जब हम अपने आिमी होने को सबसे ज्यािा दिद्दि से महससू कर सकिे थे। लोगों के सामने उसे दसद्ध कर सकिे थे- वे बमे िलब के बीि गए। वह वक्त हमंे दफर दमल सकिा ह?ै यदि िह्मा या यमराज जो भी हों,-कहे हमारी उम्र िस वर्ष बढ़ गयी िो भी बाि बन नहीं सकिी। हमारे खराब हएु यौवन के वर्ष ह,ंै िान दिए वर्ष िब के होंगे जब कोई मतृ ्य का इिं जार करिा ह,ै दजिं गी का नहीं।”1 ‘अन्िेषण’ उपन्यास मंे कही यह बाि आज के प्रत्यके यवा मन के भीिर लगािार कौंध रही ह।ै चाहे वह िीस की उम्र पार कर चका कोई यवक हो या अिाइस की िहलीज पर खड़ी अपने सौन्ियष को पीछे छोड़िी एक लड़की। गावँ की पगडंदडयों को पार कर पक्की सड़क पर चलने का जो अिम्य साहस इस वगष ने दिखाया है िथा अपने परखों द्वारा दकये संघर्ष को सम्मान में पररवदििष करने का जो संकल्प इन्होंने दलया है क्या वह सब िखे िे ही िखे िे धरािायी हो जायगे ा? क्या दपिसृ त्तात्मकिा को चनौिी िके र उच्च दिक्षा संस्थानों िक पहुचं ी लड़दकयां घर की िहे री मंे दफर से कै ि हो जाएगं ी? दिन-राि प्रदिरोध को उके रिी उनकी धारिार कलम वक्त की मार से अवरुद्ध हो जाएगी? क्या उनके सनहरे सपने दकसी भयंकर दिवास्वप्न मंे िब्िील होकर रह जाएगं े? इस िरह के हजारों प्रश्न है दजनसे आज का यवा वगष दनरंिर जूझ रहा ह।ै लगािार बढ़ रही बरे ोजगारी की िर और आए दिन सरकार द्वारा दनजीकरण को महत्त्व िने ा साफ-साफ बिला रहा है दक विमष ान यवा वगष का भदवष्ट्य कहाँ िक सरदक्षि ह।ै बेरोजगारी की यह पीड़ा न दसफष यवा वगष मंे आत्मदवश्वास की कमी को बढ़ा रही है अदपि पाररवाररक ररश्िों से भी उन्हंे कोसों िरू करिी जा रही ह।ै रोज खत्म होिी मानवीय संवेिनाएँ इस बाि की गवाही स्पि रूप से ििे ी प्रिीि हो रही ह।ै यवाओं के नि होिे कै ररयर को लके र यवा लेखक गंगासहाय मीणा वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अंक) / 215
216 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 अपने एक लखे में दलखिे ह-ंै “यवा भारि सकं ्रमण के िौर से गजर रहा ह।ै एक िरफ दिदक्षि व प्रदिदक्षि यवाओं की सखं ्या में िजे ी से इजाफा हो रहा ह,ै वहीं िसू री िरफ बेरोजगारी की िर भी बढ़ रही ह।ै हर नया आंकड़ा बढ़िी बेरोजगारी की िास्िां बयान करिा ह।ै एनएसओ की िाजा ररपोटष बिा रही है दक जनवरी से माचष 2019 की दिमाही में िहरी क्षिे ों में बेरोजगारी की िर मंे इजाफा हआु ह।ै ”2 बरे ोजगारी की इसी िलख सच्चाई को उजागर करिा एक अनठू ा उपन्यास है ‘अन्वरे ्ण’। िद्भव के संपािक अदखलिे द्वारा सन् 1992 में रदचि यह उपन्यास बहे ि प्रासदं गक ह।ै उपन्यास आदि से अिं िक भारिीय यवाओं के खत्म होिे कै ररयर की बाि दसरे से उठािा है। दजसकी कथा के कंे र में एक ऐसा व्यदक्त (नायक) है जो उच्च दिदक्षि है दकन्ि नौकरी न दमलने के कारण घोर दनरािाजनक दस्थदि में ह।ै एक िरह से यह व्यदक्त(नायक) समस्ि बेरोजगार नवयवकों का प्रिीक मॉडल भी ह।ै दिन-राि अपनी असफलिाओं और दनरािाओं से जझू िा वह जीवन के प्रत्येक क्षिे में सघं र्ष करिे हएु आगे बढ़िा ह।ै उपन्यास का फ्लैप भी नायक की इसी अंिहीन दजजीदवर्ा की ओर संके ि करिा ह-ै “सहज मानवीय उजाष से भरा इसका नायक एक चररि नहीं, हमारे समय की आत्मा की मदक्त की छटपटाहट का प्रिीक ह।ै उसमें खून की वही सखी ह,ै जो रोज-रोज अपमान, दनरािा और असफलिा के थपेड़ों से काली होने के बावजूि, सिि संघर्ों के महासमर में मँह चराकर जड़िा की चप्पी मंे प्रविे नहीं करिी, बदल्क अँधरे ी िदनया की भयावह छायाओं में रहिे हुए भी उस उजाले का अन्वेर्ण करिी रहिी ह,ै जो विमष ान बबषर और आत्महीन समाज मंे लगािार गायब होिी जा रही है।”3 उपन्यास की िरुआि ही कथानायक की बढ़िी उम्र और बढ़िी बेरोजगारी के साथ होिी है। उम्र के साथ बढ़िी बरे ोजगारी न दसफष उसे मानदसक रूप से प्रिादड़ि करिी है अदपि िारीररक रूप से भी वह खि को कमजोर महसूस करिा ह।ै नायक द्वारा कहा गया यह वाक्य ‘मैं वजन्िगी के उन्तीसिें साल मंे हँ या मंै मृत्य के उन्तीसिें साल में हँ।’4 हमारे समय का सबसे िासिपूणष वाक्य ह।ै जीवन में कछ न कर पाने के कारण उसके मन मंे दनरंिर छटपटाहट होिी रहिी ह।ै नौकरी के अभाव में वह न िो खि सख की अनभूदि कर पािा है और न ही अपने मािा-दपिा को कोई सख िे पािा ह।ै वह माँ के दलए रंग-दबरंगी साड़ी नहीं ला सकिा और न ही दपिा के दलए कोई कीमिी घड़ी। इिने वर्ों बाि दमली पूवष प्रदे मका दवनीिा को मंैगो जूस िक नहीं दपला सकिा। यहाँ िक दक मकान-मादलक का दकराया भी समय पर नहीं चका पािा। एक िरह से वह जीवन के हर क्षिे मंे खि को असमथष महससू करिा ह।ै इस संिभष मंे हरे प्रकाि उपाध्याय दलखिे ह-ंै “कथाकार अदखलिे का पहला उपन्यास अन्वेर्ण िरअसल भयावह बेरोजगारी और कै ररयरवाि के बीच व्यवस्था से जझू िे उस सघं र्ष और सरोकार की िलाि की कोदिि ह,ै जो कहीं िीप्त िो अपनी आभा के साथ है मगर उसके लापिा हो जाने का खिरा सामने पेि ह।ै ”5 यह हमारे समाज का एक क्रू रिम सच है दक दजसके पास नौकरी है लोगों की नजरें सबसे पहले उसी पर पड़िी है उसी के ठाठ-बाट के सब िीवाने हएु जािे हंै जबदक वहीं एक बेरोजगार व्यदक्त घोर पररश्रम करने के बावजूि भी खि को उस पायिान पर खड़ा हुआ नहीं पािा। उसका दिमागी दववके एकिम िनू ्य हो जािा है पररणामस्वरूप वह खि को समाज से परे कर लिे ा ह।ै कछ ऐसी ही हालि कथा के नरे ेटर की भी ह।ै नौकरी न दमलने के कारण गाँव या आस-पास के लोगों की बािंे उसे कील की भांदि चभू िी ह।ै वह समाज की नजरों से बचकर कहीं दछपना या िरू भाग जाना चाहिा ह।ै जब भी कोई उससे उसकी नौकरी के बारे में पछू िा है िो वह स्वयं को यद्ध मंे हारे हएु दसपाही की भांदि पािा ह।ै दजसके घाव में हो रहे ििष का अंिाजा लगा पाना बेहि कदठन ह।ै चाय पर िोस्िों के सामने वह खि पर लोगों द्वारा की जाने वाली मारक दटपण्णी को बिािे हएु कहिा ह-ै “आजकल क्या कर रहे हो ?” यह सवाल मरे े दलए सबसे ज्यािा दहसं क, क्रू र और वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 216
217 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िैत्यकर था। जब भी कोई मझसे पछू िा, मैं लहूलहान और कचला हुआ हो जािा।”6 असफलिा के इस पल पर खड़े हएु कई बार वह आत्महत्या करने की भी सोचिा है लदे कन पीछे मड़ जब वह अपने िोस्िों को िेखिा िो उसे महससू होिा है दक बरे ोजगारी के इस रणक्षेि मंे वह अके ला नहीं है बदल्क उसके िोस्ि भी हाथों मंे ज्ञानरूपी िलवार दलए वर्ों से प्रिीक्षारि है। चाय के मध्य बािचीि में मईि (िोस्ि) िवे ेन्र की आत्महत्या का दजक्र छेड़िे हुए कहिा ह-ै “दपछले साल, नवम्बर मंे िेवेन्र ने आत्महत्या कर ली।”....राखी में बहन नहीं आई िो वह बहन के घर राखी बँधाने खाली हाथ गया था। बहन ने राखी बाधँ िी और कहा, िम हमारी हसँ ी क्यों उड़वािे हो? वह िरअसल उसी क्षण मर गया था लदे कन उसने आत्महत्या रास्िे में की। हालादँ क बहन कोई अके ली वजह नहीं थी। बहन की िरह बहिु लोगों ने उसे मारा था। वह बहुि बार मरा था लदे कन आत्महत्या उसने रास्िे मंे की।”7 अदखलिे ने उपन्यास मंे नायक िथा उसके िोस्िों के माध्यम से आज के यवा समाज की दिन-ब-दिन खराब होिी मन:दस्थदि और बढ़िी आत्महत्याओं की ओर भी संके ि दकया ह।ै बेरोजगारी व्यदक्त को समाज की नजरों मंे ही िदमंिा नहीं करिी बदल्क वह उसके प्रमे को पाने मंे भी बाधक बनिी ह।ै बेरोजगार यवक के सामने दववाह एक बड़ी समस्या ह।ै जीवन के संघर्ष में पढ़िे-पढ़िे वह उम्र के उस पड़ाव पर पहुचँ जािा है जहाँ ‘नौकरी’ और ‘दववाह’ िोनों ही व्यदक्त की जरूरि ह।ै चदंू क उपन्यास का नायक एक मध्यवगीय पाि है ऐसे मंे उसके दलए सरकारी नौकरी अलािीन के जािई दचराग से कम नहीं है क्योंदक यह दचराग ही उसके प्रेमदववाह िक पहुचँ ने का िीर्षिम साधन ह।ै प्रस्िि उपन्यास मंे नायक का प्रेम दवनीिा ह।ै वह उसे पाना चाहिा ह।ै उसे पाने का के वल एक ही आधार है और वह है ‘नौकरी’| वह नौकरी पाना चाहिा है क्योंदक उसे पिा है दक यदि नौकरी नहीं दमली िो दवनीिा भी नहीं दमलगे ी। प्रेम को पाने के दलए वह (कथानायक) अपनी पढ़ाई के िौरान ही नौकरी के फामष भरिा रहिा है िादक नौकरी प्राप्त करके दवनीिा से जल्ि से जल्ि िािी कर सके , लेदकन नौकरी पाना उिना आसान नहीं है। अपनी इसी आत्मपीड़ा को अदभव्यक्त करिे हएु वह कहिा ह-ै “मरे ा एम.ए का ररजल्ट दनकल आया। मैं नौकरी को पाना चाहिा था क्योंदक मैं दवनीिा को पाना चाहिा था। मंै चाहिा था कोई नौकरी कर उससे िािी कर लूँ। लदे कन नौकरी खफा थी।”8 नौकरी न दमलने के साथ प्रेम न दमलने की दजस िखि िासिी का दचिण उपन्यासकार ने दकया है वह कहीं न कहीं हमारे िथाकदथि समाज की िोहरी मानदसकिा का पररचय िेिी ह।ै दिदक्षि यवाओं मंे बढ़ रही इस बेरोजगारी को लेकर डॉ. परमशे ्वर दसहं अपनी पस्िक ‘भारिीय कृ दर्’ मंे दलखिे हंै दक- “इस समय अदधकािं पढ़े-दलखे यवा रोजगार की िलाि में इधर-उधर भटकिे रहिे ह।ैं एक अनमान के अनसार ििे की दवदभन्न दिक्षण संस्थाओं से प्रदिवर्ष 7 लाख के लगभग छाि अपनी दिक्षा समाप्त करके दनकलिे हैं और इसमें से दसफष आधे लोग ही रोजगार प्राप्त कर पािे हैं। इस प्रकार दिदक्षि वगष मंे बेरोजगारी दनरन्िर बढ़िी जा रही है। एक गैर सरकारी सवेक्षण के अनसार इस समय िेि मंे लगभग एक करोड़ से भी अदधक दिदक्षि लोग बेरोजगार ह।ै िेि में िकनीकी अथवा औद्योदगक दिक्षा की कमी, के कारण भी दिदक्षि बेरोजगारी िजे ी से बढ़ रही ह।ै ”9 लखे क ने नायक के माध्यम से दिखाया है दक दकस प्रकार एक बरे ोजगार व्यदक्त खि को समाज के सामन,े पररवार िथा प्रदे मका के सामने असहज महससू करिा ह।ै दकस प्रकार बरे ोजगारी की बढ़िी लकीरें उससे उसका आत्मबल और स्वादभमान छीनिी जािी है। जीवन के हर क्षिे मंे वह खि को भीड़ से दघरे हुए नहीं बदल्क एकिम अके ला कमजोर पािा है दजसके अच्छे-बरे की खबर िक लेने वाला कोई साथी मौजिू नहीं होिा। यदि कछ साथ होिी है िो वह रेदगस्िान की िरह िरू -िरू िक पसरी बेरोजगारी दजसकी रेिीली हवाएं नायक को दनरंिर सखू ािी रहिी ह।ै ऐसी दस्थदि मंे वह अपने वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 217
218 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 पराने दिनों को याि करिे हएु सोचिा है दक पहले वह अपने िोस्िों के बीच दकिना मिहूर था- “एक वक्त था दक मेरे िोस्िों ने मरे े बारे मंे मिहरू दकया था दक मैं जीवन के दकसी भी इलाके मंे प्रवेि करँू, सफलिा किम चमू गे ी। सचमच, मरे े दमिों का िावा था दक मंै चाहूँ िो बहुि बड़ा लखे क बन सकिा ह?ूँ मंै चाहूँ िो बहुि बड़ा अफसर बन सकिा हू।ँ मैं चाहूँ िो बड़ा स्मगलर बन सकिा हू।ँ मैं चाहूँ िो बहिु बड़ा अदभनेिा बन सकिा हू।ँ मैं जो भी चाहू,ँ बन सकिा हू।ँ ”10 आज दजस िरह से समाज में बेरोजगारी की बाढ़ आई हुई है उसका सीधा जड़ाव भ्रिाचार एवं ररश्विखोरी से ही ह।ै बड़ी-बड़ी ससं ्थाएं घसू के िम पर ही फल-फू ल रही ह।ै दजिनी िजे ी से दवकास की गदि बढ़ रही है उससे कहीं अदधक िजे गदि से प्रत्येक क्षिे मंे भ्रिाचार के बीज पनप रहे ह।ैं लेखक ने कथानायक के दपिा के माध्यम से भ्रिाचार एवं बढ़िी घसू प्रवदृ ि को दिखाया ह।ै बटे े के नौकरी न लगने पर एक दपिा की मज़बरू ी और िासनििं के प्रदि उनका दवरोधी रवैया साफ िौर पर िेखा जा सकिा ह-ै “आजकल भ्रिाचार है, बेईमानी ह।ै दबना पसै ा-कौड़ी के कोई काम होिा नहीं...िो ये जो सत्ताइस हजार ह,ैं इनसे अगर कोई नौकरी दमल जाए िो बाि करो ...|”11 बरे ोजगार बटे े के हाथ मंे रूपये थमािे हुए दपिा का यह वाक्य दजिना सवं िे निील है उिना ही व्यवस्था पर प्रहारक भी। उपन्यासकार द्वारा उठाया गया यह प्रसगं आज उिना ही ज्वलंि है दजिना की पहले था। विषमान व्यवस्था अपने दजस कदत्सि एजंेडे के चलिे यवाओं के भदवष्ट्य को लील रही है उसका भीिरी ढाँचा अत्यंि भ्रि, दहसं क, क्रू र और अमानवीय है दजसमें बिलाव की आवयश्किा है वरना वह दिन िरू नहीं दजस दिन संपूणष भारि अधं कारमय हो जायगे ा। इस प्रकार आदि से अिं िक बरे ोजगारी की भयावहिा को प्रिदििष करिा यह उपन्यास अपने समय का बेहि महत्त्वपूणष आख्यान है जो कभी न खत्म होने वाली बरे ोजगारी की भयावहिा के साथ-साथ भ्रि ििं पर भी िीव्र प्रहारक के रूप मंे खड़ा होिा ह।ै साथ ही औपन्यादसक नायक के जररये ििे के हर उस यवक-यविी की बाि भी दसरे से उठािा है दजनके विमष ान और भदवष्ट्य पर बरे ोजगारी का संकट मडं रा रहा ह।ै इस दृदि से यह कहने में कोई अदिश्योदक्त नहीं होगी दक अन्वेर्ण आज के आिमी के भीिर िबे हुए प्रश्नों एवं िबी हईु चेिना की मखर अदभव्यदक्त का सिक्त रूप ह।ै सिं भा सू ी: 1. अदखलिे , ‘अन्िषे ण’, राधाकृ ष्ट्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण-1992 पषृ ्ठ सखं ्या-96 2. (patrika. com/c/46222762, epaper, बधवार, 27नवम्बर 2019) 3. अदखलेि, ‘अन्िषे ण’, राधाकृ ष्ट्ण पपे रबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण-1992, फ्लपै 4. वही, पषृ ्ठ सखं ्या-10 5. वही, पषृ ्ठ संख्या-277 6. वही, पषृ ्ठ संख्या-85 7. वही, पषृ ्ठ सखं ्या-97 8. वही, पषृ ्ठ संख्या-27 9. डॉ. दसहं , परमेश्वर, ‘भारतीय कृ वष,’ कै लदवन पदब्लके िन, दिल्ली, ससं ्करण-2015, पषृ ्ठ सखं ्या-102 10. अदखलिे , ‘अन्िषे ण’, राधाकृ ष्ट्ण पेपरबकै ्स, नई दिल्ली, ससं ्करण-1992 पषृ ्ठ सखं ्या-13 11. वही, पषृ ्ठ संख्या-104 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 218
219 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मन के वकवमयागार र नाकार िोस्तोिस्की और मवक्तबोध…. डॉ. भारती शक्ला हवाबाग कॉलेज, जबलपर, मध्य प्रििे ईमले : [email protected] मोबाईल: 9407851719 साराशं फ्योदोर दोस्तोिस्की से मवु ििोध की र्गहरी वमत्रता है दोनों के िीि सदी के अंतराल के िाद भी मुवििोध की कहावनयों को पढ़कर यह िात समझी िा सकती ह।ै इसं ान को परत दर परत खोलना और उसके साथ हाथ पकिकर िलते हएु ये लेखक िीिन की प्रवतकू लताओं से िझू ते हुए भी सपने-िनु ना नहीं छोित।े टुकिे-टुकिे विदं र्गी को एक कु शल कारीर्गर की तरह संिदे नाओं के धार्गों सेतुरपाई करते हएु िोिते िलते हैं विसमंे िीिन रमा हआु ह।ै कहावनयों में मनषु ्य और उसका िीिन इस तरह िहता महसूस होता है वक पाठक उस िहाि मंे स्तब्ध, कौतहू ल से भरा, अपने आप से िात करता, िहता िला िाता ह।ै ये कहावनयां िीिन के ठोस अनुभिों की कहावनयां हैं विसके कें द्र में मनुष्य ह।ै इन लेखकों ने अपने समय की अंतवकथा को र्गहन और विस्ततृ फलक पर समझा/देखा और अवभव्यि वकया। तमाम वििादों, टारं ्ग खीिने की ईष्याओं के िीि आवथकव कष्टों के िीि, प्रवतद्ववं द्वता के कटु अनुभिों के िीि भी दोस्तोिस्की ने अपनी रिनात्मक सफलता के वशखर को पाया। मवु ििोध को िीते िी अपनी विकट प्रवतभा को सम्प्मान दने े िाली न तो सावहवत्यक दवु नया वमली, न िौवद्धक दवु नया। ‘वपस र्गया दो पाटों के िीि ऐसी रेविडी है नीि’ कहने िाले इस अदभतु रिनाकार ने फासीिादी िेहरा भी देखा पंूिीिाद की विद्रुपता भी दखे ी और िौवद्धकों का दोर्गलापन भी...। इन दोनो लखे कों की कु छ कहावनयों िैसे दोस्तोिस्की की वदल का कमिोर,एक अटपटी घटना, एक थी विनीता और मवु ििोध की विपात्र,विदं र्गी की कतरन, क्लाड ईथरली को इस आलेख का आधार िनाया ह।ै मवु ििोध मनषु ्य के र्गहनतम र्गहु ालोक से उसके अंतरंर्ग भाि के सूक्ष्म तारों को िुनकर विस तरह साक्षात खिा कर देते हंै उसे पढ़ते हुए हमशे ा दोस्तोिस्की याद आते हैं मन के कहीं िहतु र्गहरे तार इन दोनो सिकव ों को िोिते ह।ैं बीज शब्ि वहरास, र्गहु ालौक, अन्तश्चते ना, औपवनिवे शक मानस, आक्ातं , आत्मतंत्री, वनिावसन, वनःसंर्ग, वतरस्कृ त, िार शाही, आत्मदमन, विद्रूप स्िप्न वित्र। शोध आलेख िोस्िोवस्की एवं मदक्तबोध की कहादनयां आत्मकथात्मक हैं जैसे खि की खि से बोल रहे हों, परंि सही मायने म,ें जसै े ‘नलोब’ पर खड़े होकर परू ी िदनया को िेखिे हंै जहां से पूरी िदनया उनके साथ और वो परू ी िदनया के साथ चल पड़िे ह।ैं ‘मदक्तबोध गहरे अंिद्विं और िीव्र सामादजक अनभूदि के कदव ह।ैं मदक्तबोध गोि हीन व्यदक्त हंै दहिं ी मंे उनका कोई पवू जष नहीं खोजा जा सकिा ह।ै उनके पूवषज टॉलस्टाय, िोस्िोवस्की, गोकी इत्यादि थे।’ मदक्तबोध ने जीवन के संिासों से भागने की कोदिि नहीं की, िखों मंे डूबे नहीं बदल्क उनके सामने खड़े हुए ये अनभूदियां उनकी रचनात्मकिा का अदभन्न दहस्सा बन और उनकी दवकट अदभव्यदक्तयों मंे कड़वी िवा की िरह िादमल हईु । ‘आजकल सिं ास का िावा बहुि दकया जा रहा है अगर मदक्तबोध का एक चौथाई िनाव भी कोई झले िा िो उनसे आधी उम्र में मर जािा और दबना कछ दकए ही मर जािा।’ वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 219
220 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 जारिाही का िमन झेलिे िमाम प्रदिकू लिाओं के बाि िोस्िोवस्की को जीवन काल मंे ही गौरवमय उिात्त मकाम हादसल हुआ। रूस के साथ परू ी िदनया ने उनका अदभवािन दकया, दकं ि मदक्तबोध सत्ता, फासीवाि एवं समकालीनों की उपके ्षा का, र्ड्यिं का और छल का दिकार हएु , उन्हें उनकी मतृ ्य के बाि मलू ्यादं कि दकया गया। इसदलए जरूरी है दक िदनया के फलक पर मदक्तबोध नाम के िारे को अब उसकी सही जगह पर रखा जाए। सामादजक असगं दियों और प्रदिकू लिाओं से अदभन्निः समय को पढ़िे हएु ,उस समय की दवकटिाओं ने उन चररिों को गढ़ा जो आज भी हमारे इिष-दगिष मौजिू ह।ैं सजृ न के उद्भट मानवीय क्षणों के रोमाचं से ये सजकष गजरिे ह।ंै इनका दवश्वास है दक मानव मन मूलिः दवरोही है और उसकी आत्मा मदक्त के दलए दनरंिर छटपटािी है उसे समझौिों से बेहिर नि हो जाना लगिा ह।ै इनकी कहादनयों में नफासि ओढ़े कमीनगी से भरे चररि, झठू और पाखडं से ढकं ी आत्मछदबयां, अपने-आप से िरू भागिे और भीड़ में अपने-आपको ढूंढ़िे, पहचान पाने/बनाने के संघर्ष से गजरिे, समझौिों को नकारिे, कृ िज्ञिाओं को ढोिे, अदभजात्यपन ओढ़ नकीले नाखूनों से ररश्िों को कोंचिे, मौका परस्ि लोग दनरािाओं के स्याह िालाब के दकनारे बठै े प्यार को, जीवन को, आल्हाि को जीिे लोग, आत्मादभमानी दस्त्रयां, असरक्षाओं से दघरे भयभीि लोगों का गहन मनोवैज्ञादनक दवश्लेर्ण दमलिा ह।ै समाज के िोगलपे न, पाखंडपणू ष आचरण की िासिी को दबना दकसी परायेपन के अपने कं धों पर ढोिे ह,ैं क्योंदक वे मानिे हंै दक मदक्त अके ले मंे अके ले को नहीं दमलिी। यािना के रास्िे ही मनष्ट्य अकदल्पि प्राप्त और कररश्माई िक पहुचं िा है मनष्ट्य ऐसा प्राणी है जो हर हाल में जीने का आिी हो जािा है मेरे दवचार से यह मनष्ट्य की सबसे अच्छी पररभार्ा ह।ै ' पिनिील जीवन मलू ्यों और मनष्ट्य की गररमा को खोिे समय के साक्षी हंै ये लेखक।साक्षी िो एक समय के बहुि से लोग होिे हैं पर उसकी रग-रग से वादकफ उसके दखलाफ खड़े होने वाले ये कलाकार, मानव आत्मा के जासूस बन अवचिे न के बीहड़ जगं लों के गहा लोक मंे एक दचत्तिा और आल्हाि के साथ िादखल होिे ह।ैं उनका जीवन और सादहत्य िो अलग पटल नहीं है जो जी रहे थे वही दलख रहे थे। दनजिाओं को समग्रिा मंे और समग्रिा को दनजिा में समटे े ये रचनाकार लगािार लड़िे ह।ंै हर रचना अगली लड़ाई को बयां कर रही होिी है उिासी और दनरािाओं से गजरिे ह,ंै परंि दजंिगी को परू ी िल्लीनिा, से पूरी प्रखरिा से व्यक्त करिे ह।ंै गहरी उिासी को समटे े दजंिगी की िमाम बचे ैदनयों की गवाह इन रचनाओं को पढ़िे हुए दसर पर जसै े घन पड़िे ह।ैं एकांदिक अधं रे े में डूब से जािे हैं परंि मन की परिों की यह सघन पड़िाल आिंदकि नहीं, सजग कर िेिी है जीवन सत्यों के प्रदि। ‘एक घनघोर बाररि से टकरािी हईु सबह का गीला सन्नाटा उनके जीवन की िून्यिा को बढ़ािा ह।ै गली में िौड़िा लड़का वह गली मंे भाग रहा है मानो हजारों आिमी उसके पीछे लगे हों, भाले लके र, वरदछयां लेकर वह हांफ रहा ह।ै मानो लड़िे हुए हार रहा हो, वह पीछे िेखिा है उसका पीछा करने वाला कोई भी िो नहीं है, पर ऐसा कौन था जो उसका पीछा कर रहा था। लगािार पीछा कर रहा था? िखे िा हूं हजारों प्रश्न लाल बरों से उसके ह्रिय के अंधकार मागष पर वगे के कारण संू-संू करिे हएु उसका पीछा कर रहे ह।ंै उसको व्याकल कर िेिे हंै और वह दनस्सहाय उसमंे दघर जािा है और दनकल नहीं पािा।’ इस िरह आक्रामक स्वप्न दचिों की िीघष ऋं खला मदक्तबोध की अंिश्चेिना का अदभन्न दहस्सा ह,ै जहां से व्याकल संवेगों से भरे चररि आकार लिे े ह।ंै दजिं गी की किरनों को समटे िे हएु यही दनसंग व्याकलिा िोस्िोवस्की के वास्या और अकािष ी (कहानी दिल का कमजोर) मैं भी दिखाई ििे ी है अवलोकन की गहरी िीघष प्रदक्रया िोनों लेखकों मंे अंिरभक्त ह।ै भावनाओं के अिं द्वंि को उन्होंने हमेिा एक (कन्फे िन) आत्म स्वीकृ दि की िरह दलखा। ‘वे चमकीले वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 220
221 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 कमरों से बचिे थे, भीड़ से वे जल्ि से जल्ि भाग दनकलना चाहिे थे अपने िंबाकू की गंध, दकिाब और कागजों से भरे कमरे मंे पहुचं ने के दलए अके ले-अके ला होने के दलए।’ िोस्िोवस्की वंदचिों के प्रदि गहरी दवनम्रिा अनभव करिे ह,ंै वंदचिों पर दलखिे हुए दजिनी उिासी अनभव करिे हैं उिना ही खौलिा हुआ मदस्िष्ट्क और रोिा हुआ मन उनके अंिर हलचल मचाए रखिा। वे दनरंिर उन िो िदनयाओं के बीच संघर्ष करिे ह,ैं जो उनका परम आिं ररक ह,ै जो अिादकष क ह,ै जो सवं ेिनाओ,ं पीड़ाओं और प्यार से भरा हुआ ह,ै जो उनकी आत्मा का घरे ा ह,ै जहाँ िकष नहीं भावानभूदियों का सघन लोक ह।ै िसू री ओर बाहरी िदनया जो बोदझल िकष - किकष , कायष- कारण, नफे -नकसान पर दटकी हुई ह।ै वहाँ वे असहज हो जािे ह।ैं िीव्र आत्मसंघर्ष के क्षणों से गजरिे हएु मानवीय सपं णू षिा को स्पिष करिे ह।ंै इस िरह िोनों रचनाकार अपने कालखडं के दविेर् प्रदिदनदध ह।ैं िोस्िोवस्की अंिमनष की घनी दृदि की पैनी प्रदिभा रखिे हैं और मदक्तबोध दवचारधारात्मक सरोकारों के साथ मानस पटल पर उिरने वाली संविे ना और बौदद्धक सजं ्ञान के संदश्लि रचनाधमी दचिं क ह।ंै िोस्िोवस्की रूस की जार िाही के िौर में लखे कों, बदद्धजीदवयों की भदू मका को लेकर गोदष्ठयों मंे दवचार रखिे थे। दनकोलस प्रथम के राज्यारोहण के साथ ही उसने िो स्िरों पर खदफया आयोग का गठन दकया। प्रथम दकसानों (गलामों) की समस्याओं को समझने के दलए िूसरा बदद्धजीदवयों पर नजर रखने के दलए खदफया सगं ठन बनाया। िोस्िोवस्की को एक गोष्ठी मंे पढ़े गए पि के आधार पर दगरफ्िार दकया गया। इस गोष्ठी मंे उनसे पूछा गया दक यदि िासों के पास अपनी मदक्त के दलए दवरोह के अलावा कोई दवकल्प नहीं हो िो उन्हें क्या करना चादहए? िब उन्हें दवरोह करना पड़ेगा, िोस्िोवस्की का यह स्पि मि था। इसी दनभीकिा के दलए 12 अप्रैल 1949 को उन्हें दगरफ्िार दकया गया।' िोस्िोवस्की का अमानवीय यािनाओं का सफर साइबरे रया िक चला। बस मतृ ्यिडं से यह सजा कठोर सश्रम कारावास मंे बिल िी गई इस बाि की खिी थी। इन कदठन दिनों में भी िोस्िोवस्की लगािार दलखिे रह।े नई कहादनयां, नए उपन्यासों की आधार भदू मका यहां ियै ार होिी रही। ‘मतृ ्यिडं दिए जाने के 5 दमनट पूवष भी फ्योिोर सोच रहे थे यह 5 दमनट व्यथष नहीं जाने िने ा चादहए उससे अदधक से अदधक ग्रहण करना चादहए अनादि, अनिं , आलोक में लीन होने से पहले उसकी सारी सादत्वकिा का आनंि जी लेना चादहए।' यह एक सजकष का अप्रदिम आनंि लोक था जब उसकी आय महज 27 वर्ष थी। एक लेखक की डायरी मंे वह दलखिे हंै क्या आप जानिे हंै मतृ ्य िडं का क्या मिलब होिा ह?ै दजन्हंे छू िा हआु उनके बगल से नहीं गजरा वह इसे नहीं समझ सकिे। मतृ ्य िडं से मदक्त यानी जीवन.. दजसे िोस्िोवस्की हर पल जीना चाहिे थे। साइबेररया की ओर जािे हुए वो अपने भाई को पि दलखिे हैं मेरे भाई मंै दनराि नहीं हूं जीवन हर कहीं जीवन है जीवन हमारे अिं र है हमारे बाहर नहीं, वहां भी मंै मनष्ट्य के बीच मनष्ट्य की िरह रहगूं ा और हमेिा रहूगं ा दकसी भी पररदस्थदि में कमजोर नहीं पड़ना, दगर नहीं पड़ना, जीवन का सही अथष यही ह।ै यह बाि पनः रेखांदकि करने योनय मझे लगी। मतृ ्य को इिने करीब से िेखने के बाि कठोर कारावास के बिं ी के रूप में जािा यह नौजवान फ्योिोर िोस्िोवस्की मनष्ट्य की नब्ज पकड़े दबना उसे पढ़ लेने वाला गहन संविे निील रचनाकार कै से बना यह समझा जा सकिा ह।ै यही कारण है दक जीवन के प्रदि इिने उत्कट प्यार से भरे हुए जनूनी चररि िोस्िोवस्की गढ़ पाए। वो जसै े अबोध भाव बोध से िादकष क िदनया की अनिं िा को भिे ने का प्रयास करिे हैं और सफल भी होिे हैं उनके उपन्यासों, कहादनयों के कछ पाि वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 221
222 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 असामान्य नजर आिे हैं परंि यह असमान्यिा इस किर मानवीय ह,ै इस किर इमानिारी से भरी हुई है दक हमारा सामादजक/िदनयािारी से भरा मानस दनरुत्तर हो जािा ह।ै इस महारथ के साथ िोस्िोवस्की उिनी ही सहजिा से मनष्ट्य के अिं मषन में घसकर अदनवचष नीय अनभव क्षण और अनापेदक्षि रहस्य खोज लािे ह।ंै वहीं मदक्तबोध प्रकृ दि की दवराटिा और दवज्ञान की घसपैठ को स्वीकारिे हुए मनष्ट्य िक पहचुं िे हंै वे िदनयािार आिमी की सामादजकिा की िल्यदक्रया करिे हंै और उसके मानस की अनचीन्हीं अिोध्य अनभूदियों और क्षणों से एकाकार होिे हंै उनके चररि हमारे अगल बगल में बैठे लोग और हम ही हंै परंि हम अपने अिं मषन के उस गहा लोक की कभी कल्पना नहीं कर पािे, इन गहन अनभदू ियों को व्यक्त करने में जब पारंपररक भादर्क सरं चना और िकनीकी साथ नहीं ििे ी िब फें टेसी के गूढ़ गहन माध्यम से जीवन के सहज अनभवों को सवं ेिनात्मक स्पिों के साथ व्यक्त करिे ह।ैं ‘कोई भी प्रिीक िब िक भावोत्तजे ना पिै ा करिा है जब िक उसकी जड़ंे सामादजक अनभवों की धरिी मंे समाई रहिी ह।ै माि व्यदक्तगि धरािल पर िो हजारों प्रिीक खड़े दकए जा सकिे ह।ंै मदक्तबोध की फंै टेसी की जड़ें धरिी में धसं ी हंै उनके दबम्ब और प्रिीक स्वप्नलोक से नहीं दजंिगी की िासदियों से आए ह।ंै 'मरे े दिमाग मंे सवं ेिनाओं और भावों के अजीब रास्िे गदलयां और पगडंदडयां एक िसू रे से दमलिी है दफर समानािं र चलने लगिी है दफर एक-िसू रे की ओर िौड़ पड़िी हुई परस्पर काटिी हुई दभन्न दििाओं की ओर दनकल जािी है ख्याल जब बहिु िेज हो जािे हैं िो वह वेिनाओं का रूप धारण कर लेिे ह।ंै ' मदक्तबोध की रचना प्रदक्रया िथा दचंिन धारा का मख्य आधार प्रथम एवं दद्विीय महायद्ध की सामादजक समस्या का फलक रहा ह।ै ' इस यद्ध मंे भारि को जबरिस्िी झौंका गया। इन यद्धों का असली चररि उनके साम्राज्यवािी दहि थे दजसमंे भारि को कबेर के खजाने की िरह इस्िेमाल दकया गया। दद्विीय दवश्वयद्ध से उपजे, छलावे, िदक्त संपन्नों के दवरप चहे रे िथा उस समय के आदथषक-सामादजक हालाि के बीच फं सा सवं िे निील मनष्ट्य। मदक्तबोध, भारि के परू े मदक्तसगं ्राम को क्रादं ि की िरह जी रहे थे और उसी िरह उसमें िादमल थे। क्रांदि जो आमूलचलू बिलिी है गलाम दिलो-दिमाग से मक्त ििे का संघर्ष और स्वप्न, दजसके कंे र में मनष्ट्य की गररमा और उसकी मदक्त थी यह मादलकों के बिलने के दलए दकया गया सघं र्ष नहीं था, बदल्क परू े व्यदक्त, चररि और समाज-चररि के रूपािं रण का सपना था, जो क्रांदिकारी नौजवानों ने िेखा था परन्ि आजािी के ित्काल बाि दकसानों, मजिरू ों, उत्पीदड़िों का दजस िरह से िमन दकया गया, घनघोर व्यदक्तवािी पंूजीवािी चररि ने पूरे ििे को जकड़ दलया, वहां से ियै ार हुई असरदक्षि, खंदडि चररि, अवसरवािी समझौिों की ििष पर जीवन जीने की अपररहायष ििष से भरे मनष्ट्यों की भीड़...। अपने सख साधन जटाने, सफल जीवन जीने चमकीले पूंजीवाि (चांि का मंह टेढ़ा) की आकर्कष िदनया मंे फं से मध्यम वगष की प्रचडं वयै दक्तकिा दनजिा के साथ किम दमलाने मंे मदक्तबोध अयोनय थे। यह अयोनयिा ऐसे िमाम संवेिनिील लोगों के जीवन की ििष की िरह थी, मदक्तबोध के अदधकािं समकालीन रचनाकार इस समझौिे से भरी िदनया मंे िादमल हो गए थे, परंि मदक्तबोध ‘दहिं स्िान के एक कोने मंे बैठा हुआ मैं एक साधारण ईमानिार मनष्ट्य उक्त वास्िदवकिा से बचे नै हो उठा ह।ूं मैं कभी अपनी टूटी-फू टी गहृ स्थी के सामान को िखे ने लगिा हूं अपने फटेहाल बच्चों की सूरि की ओर िखे ने लगिा ह।ूं दिन भर की दचंिा में घलने वाली अपनी स्त्री की ओर िेखकर करुणा से भर उठिा हूं और कभी अपने स्वििे के प्रदि किषव्य मागष पर चलने के दलए स्वयं के बदलिान की बाि सोचने लगिा ह.ूं .. जी हां, वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 222
223 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िायलॉक ने बेसोदनयों से दसफष एक पौंड गरम-गरम जीदवि िेह मांस मांगा था लदे कन आजािी के बाि 1947 से 1960- 61 के आज के दहिं स्िानी िायलॉक िो पूरी की परू ी िेह मागं रहे ह।ैं ' मदक्तबोध बगे ाने समय के सबसे अबोध िीव्र संवगे ों से भरे और संविे निील लखे क हंै उन्होंने गला िबाए जाने की घटन को महसूस दकया था। अयोनय व्यापाररक बौदद्धकों के बीच, ििं के बीच यह अजनबीयि मंे खोया रचनाकार था।मदक्तबोध आजािी के बाि दनदमिष हुए मध्यमवगष, दनम्न मध्यवगष की स्वप्न हीनिा को सब कछ सहन कर जीने की बाध्यिा भरी चप के बीच, ममाषन्िक व्याकलिा के साथ उपदस्थि थे परंि यह चप्पी पलायन कारी चप नहीं थी बदल्क एक अनोखी दृढ़ और स्थाई कोमलिा भरी चप्पी थी जो कभी नहीं मरझािी। दवचारधारात्मक संवेिनात्मक ठोस अदभव्यदक्त का अखंड मौन था जो व्यवस्था के दवरुद्ध और समाज के उत्पीड़िों के साथ था।' िोस्िोवस्की की कहानी दिल का कमजोर िो दमिों की गहरी दमििा की काव्यात्मक िखंृ ला है जो िरू से अंि िक आल्हाि और उिासी से भरी हुई है एक दमि की िरंगे िसू रे िक दबना कहे पहुचं रही ह।ैं 65 पषृ ्ठों की यह कहानी पढ़िे समय मन चाहिा रहिा है कहानी खत्म ना हो। वास्या और आकादष ि दनम्न मध्यम वगष के चररि हैं कठोर पररश्रम करके जीवन यापन करने वाले िो यवा चररि हैं उनकी पंूजी दसफष उन का श्रम है । लीजा के प्रदि वास्या का प्रेम उसे जीवन की अनोखी अनचीन्ही अनभूदि में डूबा ििे ा है यह प्रमे इिना गहरा और एकादं िक है दक वास्या उसके खोने की कल्पना माि से डर जािा ह।ै वास्या के अिं र की ईमानिारी, उसकी दनमलष िा दजिनी प्रेम के प्रदि समदपषि है उससे थोड़ा भी कम महत्व उसके दलए उसके काम का नहीं है एक ओर प्रेम है िसू री ओर कृ िज्ञिा, िोनों के खो जाने के भय से आक्रािं है वास्या। िरअसल यह उसकी मासदू मयि भरी सरलिा ह,ै उसकी पदवििा ह,ै जो उसे हर सबं धं को पूरे सौन्ियष, कौिहू ल और समचू े पन के साथ जीने और पाने का आनंि िेिी ह।ै यह वही नके दनयदि है जो उसे हर हाल मंे ररश्िों के प्रदि पूणष समपणष रखने के दलए बाध्य करिी है यह कृ िज्ञिा ही िह्माडं की समचू ी रचनात्मक ऊजाष से उसे जोड़िी है वास्या िोस्िोवस्की का यवा अिं मनष है जब वे माररया के प्रदि एकदनष्ठ प्रमे में पड़ जािे हैं । ये कहानी मनष्ट्य का सकू्ष्म मनोदवज्ञान ह;ै जब हम अपने-आप से िरू अपने- आप के दखलाफ आत्मघाि और आत्म िमन में पड़े अपने-आप को नि कर रहे होिे हंै िब अपने आपसे अपनी पहचान/मलाकाि सबसे िष्ट्कर हो जािी ह।ै ये कहानी ईमानिार मध्यवगीय आिमी की कृ िज्ञिा को व्यक्त करिी िीघष कदविा है दजसमें टूट कर जीने की इच्छा भी है पररदस्थदियों के साथ संघर्ष की अिम्य दजजीदवर्ा भी है दबना ििष दमििा का सौंियष है और है जीवन का सगं ीि। उिासी मंे डबाने वाली कहानी, जीने का कोई आििवष ािी फं डा नहीं बिािी। जो घट रहा है उसे मनोभावों की िीव्रिा, सवं ेगों से स्पिष करिी है बस। मदक्तबोध द्वारा दलदखि ‘दवपाि’ को वैसे िो एक िीघष कहानी कहा जािा है परन्ि यह ‘एक लघ उपन्यास या एक लंबी कहानी या डायरी का एक अंि या लबं ा रम्य गद्य या चौंकाने वाला एक दविेर् प्रयोग कछ भी संज्ञा इसे िी जा सकिी ह,ै पर इन सबमंे से दविेर् ह,ै यह कथा कृ दि दजसका प्रत्येक अिं अपने आप मंे पररपूणष और इिना जीवंि है दक पढ़ना आरंभ करें िो परू ी पढ़ने का मन हो और कहीं भी छोड़ें िो लगे दक एक पणू ष रचना पढ़ने का सख दमला। ‘क्योंदक मंै कदविा/कहानी की जड़ें िात्कादलक दजिं गी में उसमंे रचे-बसे इसं ानों मंे खोज रहा था।' दवपाि सरल दजंिदगयों के िल्ख अनभवों से भरा आख्यान ह।ै मंै अनगढ़ और खरिरा ह।ूं मदक्तबोध का यह खरिरापन उनकी कहादनयों, कदविाओं की ऊजाष है, जहां से यह िय होिा है दक कदव समाज के दकस पक्ष के साथ खड़ा वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 223
224 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ह।ै मैं बचपन से मानस दवश्लेर्ण को अपना दवर्य बनािा रहा ह।ूं यह मानस दवश्लेर्ण दवपाि की आधार भूदम ह।ै क्लाड ईथरली कहानी अपराध बोध को अलग-अलग पहलओं से परखिी ह।ै समझौिों और बचे ारगी के बीच मनष्ट्य का, मनष्ट्य की िरह दिखाई ििे े रहने का पाखंड, भर समाज में अपने आपको जीदवि रखने के प्रयासों की ऊहापोह से भरे मानव मन को मदक्तबोध दवपाि मंे दवस्िार ििे े हंै और मनष्ट्य के सामादजक अिं षदवरोधों, कमीनगी से भरी आत्म स्वीकृ दियों, जीवन जीने की बाध्यिाओं से दनदमषि समझौिों के आििवष ािी मलम्मों को परि-िर-परि आवेग भरी फें टेसी के जररए खोलिे ह.ंै .. सब ओर सघन-आत्मीय नीला एकािं फै ला हुआ है और उसके अधं रे े नीले मंे फू टे-टूटे आंगन मंे दखली हईु रािरानी महक रही है और उस अहािे मंे जो पीली धधं भरी दखड़की ह,ै उसमें से मंै सड़क पर झांक कर िेखिा हूं दक बाि क्या ह?ै यह झांक कर िखे ना दकसी िीवार के आरपार िेखना नहीं ह,ै बदल्क मध्य वगष के मन की परिों के उस ओर झांकना ह।ै 'यह दृश्य मेरे अंिःकरण मंे ससं ्कारिील गरीबी की सारी वेिना, कि, ममिा, भावावेि, आदलगं न-चबं न, दनस्सहायिा और कठोर दनममष आत्मदनयंिण के मानव दचिों के साथ जड़ा हुआ ह।ै दिल फाड़ िने े वाले रोमांस, किम- किम पर नैदिक प्रश्नों के सींग उठाने वाली जीवन पररदस्थदियां, बेिहािा आंसू, भद्दे लगने वाले आंसू और उन्हें थामकर रखने वाली जबरिस्ि डांट, दिल के भीिर बैठा हआु एक चाबकबाज हडे मास्टर जो उच्छश्रखंृ ल प्रवदृ त्तयों को मगाष बनाकर खड़ा कर िेिा ह।ै इन सबसे दमलकर मध्यवगष का जीवन बना ह।ै दजिं गी की यंिणाओं को चेिन-अचेिन ढोिे लोगों के जीवन में मदक्त का ख्याल भी मन के िहखाने में िब जािा ह।ै िदनया के अनकू ल अदभनय करिे हुए गलामी की सीमाओं मंे ही मदक्त को अपचदयि कर जीने के रास्िे दनकालिे ह।ैं दस्थदि भिे और स्वभाव भिे के अनसार पछंू दहलाने की अलग-अलग बोदलयां ह।ैं मध्य वगष की िटस्थिा भरी चप भी उसे दकसी एक िरफ खड़ा करिी ही ह।ै चप्पी की भी अपनी भार्ा ह,ै जो गलामी का बिसरू ि रूप है इसके बाि पैिा हुई ररक्तिा, अपने मनष्ट्य होने की पदि जरूर करिी ह।ै रचनाकार अपनी दनजिा को दवस्िार ििे े हुए एक नवीन रूप स्थापना एक निू न व्यदक्त प्रदिष्ठा की टोह मंे दनकल पड़िा है अपार आकाि के बीच सिीघष फै ली पृथ्वी के वहृ ि वक्ष पर। 'जीवन की प्रवाहमान ििमष आकांक्षा से प्ररे रि यह मानवमन उत्कट हो पड़िा ह।ै िन्मय हो जािा है, आत्म दवस्मिृ हो जािा ह।ै अपने ही सजृ न के , अपने ही नाि के प्रेम के आविे मय अत्यच्च दबन्ि पर यह जड़ चेिन का यद्ध हमारे सारे आध्यात्म का मलू आधार ह।ै ' आजािी के बाि संवेिनिील रचनाकार एक अलग सकं ट को अनभव कर रहा था। घर मंे ,व्यदक्त के मन प्राण मे।ं िसू री ओर महाजनी सभ्यिा और पदश्चमी सभ्यिा की अराजकिा के िबाव मंे नामी-दगरामी लोग इनकम टैक्स चोरी करिे ह।ैं नौकरिाह ररश्विखोरी करिा है, व्यापारी िोर्ण और व्यदभचार करिे हंै और सत्ता मंे बठै ा नेिा-मिं ी जनिा को धोखा िेने का र्ड्यंि रचिा ह।ै ििे के अंिर गहरािे सांस्कृ दिक, आदथकष , बौदद्धक खोखलपे न को मदक्तबोध वैयदक्तक सीमा में नहीं िखे िे, बदल्क साम्राज्यवािी दहिों के बढ़िे वचषस्व के नीचे औपदनवदे िक दिमागों की घटनाटेक कायवष ादहयों और दनयि के सकं टों के रूप मंे िेख/समझ रहे थे। दवपाि ऐसे ही वैचाररक संकट/सघं र्ष से गजरिे मनष्ट्यों के आत्मसवं ाि की कहानी ह,ै जो अपने अंिर चल रही िदवधाओ,ं आत्मालोचनाओं और नलादन से दनरंिर गजरिा ह,ै यही कारण है दक बार-बार स्याह अधं ेरे में डूबिे मन को अगले ही क्षण दिए की दटमदटमािी लौ दिखाई िने े लगिी ह,ै पूरी कहानी म।ंे दवपाि बदद्धजीदवयों के आत्म के दन्रि हस्िक्षपे ों, उनके आत्ममनध एकालापों, अिं षदवरोधों, उनके काइयांपन, अवसरवािी चररि की घदटया राजनीदि की क्षब्धिा वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 224
225 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 से भरी कहानी ह।ै अपने डरपोक, स्वाथी चररि मंे ढके समाज को बिलने के दलजदलजे िब्िाडंबर मंे डूबे ये वगष छद्म सामिादयकिा, सरै सपाटा और िफरी मंे जीवन की पूणषिा को पा लिे ा ह।ै अिं र से खिबिािे समाज मंे रहकर भी एक अत्यंि िीव्र दनस्संगिा और अजनबीपन महसूस करिा ह।ै ये महदफलंे जो िाम पांच बजे से लेकर राि के बारह-एक बजे िक चलिी रहिीं, उस अभाव का पररणाम थीं, दजसे अके लापन कहिे ह।ैं अपने को ‘एक अटपटी घटना’ कहानी नौकरिाही की ऐसे ही गलाम दिमागों की कहानी ह।ै गलामी की नब्ज को िोस्िोवस्की ने बचपन में ही पकड़ दलया था। ‘उन्हंे प्रिादड़ि करना, आिेि िने ा बिं करो, वे अपनी पीठ सीधी करंेगे और संवेिनिील मनष्ट्य हो जायेंग,े जो अपनी गहराइयों में वे ह।ंै ’ िोस्िोवस्की मनष्ट्य के अिं मष न की यािनाओं के ख्याल से आक्रािं थे। यह कहानी अदभजात्य वगष के िीन उच्चादधकाररयों के छोटे से समारोह से िरू होिी ह।ै िो अदधकारी साफ िौर से यह स्वीकार करिे हंै दक वे मानवीयिा दनभा नहीं पायंगे े, दकन्ि ईवान इल्यीच मानवीयिा को दनभाने का िावा करिा ह।ै रईसों के दवद्यालय में उसने दिक्षा पाई थी और ‘बेिक वहां से थोड़ा ही ज्ञान प्राप्त दकया था, दफर भी उसने नौकरी में सफलिा प्राप्त कर ली और जनरल के ओहिे िक पहचुं गया था। मरे ी दृदि मंे मानवीयिा ही मख्य ह,ैं यह याि रखिे हुए अपने मािहिों के प्रदि मानवीयिा दक वे भी इसं ान ह।ंै मानवीयिा से ही सब कछ की रक्षा होगी और सब कछ ठीक हो जायेगा।’ मानवीयिा यादन मानव प्रेम। जारिाही से आजाि रूस, दिदक्षि वगष मंे ऊं चे पिों पर पहुचं ने की होड़ लगी ह।ै आदभजात्यपन और नौकरिाही की िौड़ में जीि गये, अभी-अभी बने जनरल ईवान इल्यीच आसमान में उड़ने की पींगे भरिा नौजवान, अपनी वाह-वाही, प्रिंसा उसे ऊजाष से भर ििे ी और अपनी मदं जल िक न पहुचं पाने की जरा सी भी नाकामयाबी उसे व्यथिष ा बोध से भर ििे ी। यादन पि, पसै ा, प्रदिष्ठा उसकी धमदनयों में रक्त संचार पैिा करिे और बढ़ािे। छद्म लोकदहिवािी बुजषआ वगष के ये चररि िरअसल िदनया कचररि िरअसल िदनया को अपनी ििों पर बेहिर बनाने के मनोकू ल सपनों मंे डूबे, समाज में दबखरे दमलिे ह।ंै इस अंि िक पहचुं ने के पूवष दनम्न मध्यमवगीय पररवार के आदथषक, सासं ्कृ दिक, मानदसक भगू ोल से गजरना बहिु रोचक दकन्ि उिासी से भरा ह।ै िरअसल यह कहानी व्यवस्था और जन (आम आिमी) के बीच की कहानी ह।ै एक अपमादनि कर रहा है, एक जो हो रहा ह,ै दजसके पीछे खड़ा है साम्राज्यवािी स्याह पहाड़ जो सबको धके ल रहा ह।ै दजसके नीचे गलामी सा जीवन जीिे लोगों की अपार भीड़ ह।ै उस भीड़ के करुण पक्ष की कहानी कहने वाले रचनाकार हैं िोस्िोवस्की और मदक्तबोध। मानव की अवमानना को दनरूदपि करने के दलए िोस्िोवस्की मानव आत्मा मंे वह गहनिाएँ व्यक्त करिा ह,ै दजनकी कल्पना भयानक ह।ै उसके चररि हर िरह के स्वाग्रह के दवकृ ि रूप को प्रिदिषि करिे ह।ंै दकसी मध्यवगीय या मध्यवगीय सामंिी समाज मंे (19वीं ििी के रूस की भादं ि) और अदधक स्पि साम्राज्यवाि के काल के पंूजीवािी समाज मंे जहां मानव की (या परू े राष्ट्र िक की) अवमानना ऊं चे से ऊं चे स्िर पर पहुचं जािी ह।ै वहां िोस्िोवस्की द्वारा उद्घादटि मनोवजै ्ञादनक अवस्था दविेर्िः िीक्ष्ण ह।ै मदक्तबोध की कहानी क्लॉडईथरली जो दहरोदिमा नागासाकी पर बम बरसाने वाले हवाई जहाज का पायलट ह,ै प्रिीक रूप में परू ी कहानी का कें रीय चररि ह।ै बबरष नरसंहार के बाि क्लाड ईथरली की अंिरात्मा बेचेन हो उठिी ह।ै मदक्तबोध इस बचे नै ी को हर उस संविे निील कलाकार मंे पढ़िे ह,ंै जो कछ कहना चाहिा ह,ै परन्ि कह नहीं पा रहा ह।ै वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 225
226 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 छद्म महानिाओं के िमगे आत्मा की आवाज को िबा ििे े ह।ैं सही मायने में राष्ट्रीयिा की दवकृ ि सांस्कृ दिक अवधारणा मनष्ट्यिा के उग्र स्वरों को िो फू टने ही नहीं िेिी, हल्की सी बिबिाहट को भी नकारिी ह,ैं दजस िरह आज, पथृ ्वी पर यद्ध को खत्म करने की आकाकं ्षा रखने वाले लोग कारावासों मंे फें क दिए जािे ह,ंै पागल करार दिए जािे ह।ंै दहसं ा, यद्ध, मतृ ्य से बजबजािी िदनया का सच और इससे मक्त प्रेम से भरी मानवीय िदनया के आकांक्षी संवेिनिील मनष्ट्य के द्वदं ्वों की पड़िाल है ये कहानी, दजसमें छपा व्यंनय बोध अंिर संिास पैिा करिा ह।ै 'आजकल हमारे अवचेिन मंे हमारी आत्मा आ गयी ह।ै चिे न मंे स्वदहि और अदधचेिन में समाज से सामंजस्य का आििष, भले ही वह बरा समाज क्यों न हो। यही आज के जीवन दववके का रहस्य ह।ै ' क्लाड ईथरली के आत्मसंिास को मदक्तबोध मनष्ट्य के अिं र बची हुई बचे नै ी और पश्चािाप की िरह सामादजक पररप्रके्ष्य मंे संविे नात्मक अदभप्रायों के साथ कहानी का दवर्य बनािे ह,ैं जो कहानी की अिं षवस्ि को पनरष चना की प्रदक्रया से जोड़ ििे ी ह।ै यादन भोगे जाने वाले जीवन से जीवन की पनरष चना का सारिः एक होकर भी उससे अलग होना और अलग होकर भी सारिः एक होना। ‘दवदिि से सामान्य में रूपांिररि करने की प्रदक्रया जो अनभूि सत्य को सारभूि एकात्मकिा मंे बिल िेिा ह।ै इस िरह वास्िदवक जीवन से पनषरदचि जीवन का जो सारभिू अभिे ह,ै जो सारभूि एकात्मकिा ह,ै उससे कथाकार सामान्यीकरण की ओर बढ़ जािा है, दजसके मूल मंे लोकानभदू ि से संप्रक्त मानस का उिात्तीकरण ह।ै 'इस िरह वयै दक्तक अनभदू ियां साधारणीकृ ि हो लोकानभूदि का दहस्सा बन जािी ह।ंै ’ दहरोदिमा परू ी िरह ध्वस्ि हो गया क्लाडइथरली अपनी कारगजारी िखे ने उस िहर गया, उस भयानक बिरंग बिसरू ि कटी लािों के िहर को िेखकर उसका दिल टकड़े-टकड़े हो गया उसे पिा नहीं था दक उसके पास ऐसा हदथयार है और उस हदथयार का यह अंजाम होगा। उसके दिल में दनरापराध जनों के प्रेिों, िवों, लोथड़ों, लािों के कटे- फटे चेहरे िरै ने लगे उसके हृिय मंे करुणा उमड़ने लगी। उधर अमरीकी सरकार ने उसे इनाम दिया और वह वार हीरो हो गया, लेदकन उसकी आत्मा कहिी थी दक उसने पाप दकया जघन्य पाप दकया। उसे िंड दमलना ही चादहए। वह वॉर हीरो था, महान था, क्लाड इथरली महानिा नहीं, िडं चाहिा था..। आत्मनलादन और बेचनै ी को दलए आत्महिं ा क्लाड इथरली इस अपराध बोध से मक्त होना चाहिा ह,ै कहानी एक दवर्ािमय लय के साथ आगे बढ़िी ह।ै मदक्तबोध दनरािाओ,ं उिादसयों के बीच संभावनाओं में जीने वाले कथाकार ह।ैं इथरली के इस अपराध बोध को फंे टेसी के रास्िे आम-आिमी एवं बौदद्धक समाज के संवेिनिील वगष के साथ खड़ा कर ििे े ह।ंै ‘हमारे अपने मन हृिय मदस्िष्ट्क मंे ऐसा ही एक पागल खाना ह,ै जहां हम उच्च पदवि और दवरोही दवचारों और भावों को फंे क ििे े हंै दजससे दक धीरे-धीरे या िो वे खि बिल कर समझौिावािी पोिाक पहन सभ्य भर हो जायंे यानी िरुस्ि हो जाएँ या उसी पागलखाने में पड़े रह।े ’ सामादजक अनकू लन की गहन प्रदक्रया से गजरिी िदनया, जो आिमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सन दलया करिा है और उसे बयान करके छट्टी पा लेिा ह,ै वह लखे क हो जािा ह,ै आत्मा की आवाज को लगािार जो सनिा है और कहिा नहीं ,वह भोला-भाला-सीधा-साधा बेवकू फ ह,ै जो उसकी आवाज बहुि ज्यािा सना करिा है और वैसा करने लगिा ह।ै समाज दवरोधी ित्वों में यों ही िादमल हो जाया करिा है, लेदकन जो अपनी आत्मा की आवाज जरूरि से ज्यािा सन कर हमिे ा बचे ैन रहा करिा है और उस बचे ैनी में भीिर के हकु ्म का पालन करिा ह,ै वह दनहायि पागल ह,ै पराने जमाने मंे सिं हो सकिा था, आजकल उसे पागलखाने मंे डाल दिया जािा ह।ै ' वहीं एक बहुि बड़ा वगष धीरे-धीरे पररदस्थदियों से अनकू दलि हो, सत्ता प्रायोदजि प्रमे और करुणा का समथकष बन अंध राष्ट्र भदक्त का पख्िा प्रचारक बन जािा ह।ै इस िरह सत्तागि दहसं ा ििे की सरक्षा की गारंटी बन पदवििा का वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 226
227 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 जामा पहन लोकदहि में िब्िील हो जािी ह।ै पाप और पण्य मंे फं सी ये वैचाररक दहसं ाएं समाज को ििादब्ियों पीछे घसीट ले जािी ह।ैं हमारे यहां आधदनक सभ्यिा में गहरी खामोिी है सबको महानगरों मंे दबना कहे मालूम है दक वे सभ्य अमरीका के लघ मानव बनिे जा रहे हंै जो अमरे रका की नकली संस्कृ दि या सभ्य कालोदनयां अपने ड्राइगं रूम या अपने महानगरों या उद्योग कंे रों में बस रहे हंै वे लघ मानव है वे जनसाधारण थोड़े होना चाहिे हैं लघ मानव जनसाधारण से ऊं चा होिा ह।ै ' यह आजािी के बाि का सकं ट है जहां बदद्धजीवी सदवधा परस्िी, आत्मसख, आत्मोपलदब्ध के दिकार हो गए। दववके कहीं खो सा गया अनत्तररि सन्नाटा समाज मंे पसरिा चला गया हम मलू प्रश्नों को छोड़ इिष-दगिष भटकिे रहे आधदनक िदनया का यह क्षब्ध रूप था, जहां घटन है परायापन है भयाक्रांि मानस है अजीब जल्िबाजी है पाने की नहीं, हड़पने की। पूंजीपदियों की मरियों मंे समिाय का बढ़िा आयिन। आजािी के ित्काल बाि का यह दनरािाजनक दृश्य सम्मख था, जो कहानी नहीं थी सच था। ‘मैं स्वस्थ मन से आत्मसघं र्ष करिा रहा पर एक व्यदक्त का आत्म संघर्ष पूरे मध्य वगष में बढ़िे हुए गलि रुझान को रोक नहीं सकिा। यही मेरे समय का आधदनकिा बोध का संकट ह।ै ’ आत्म दनवाषसन जब मनष्ट्य अपने-आप को दनवाषदसि, पराया, अलग पािा ह।ै मदक्तबोध की कहानी उस आत्मदनवाषसन की ही कहानी ह,ै जब पंजू ीवािी िंि के सम्मख एक समचू ा मनष्ट्य उसकी सवं ेिनाएं, उसकी भावकिायें िनू ्य मंे बिल गई। यह आत्म दनवासष न मन के अिं र घदटि होने वाली कोई मनोवजै ्ञादनक पररघटना भर नहीं, उत्पीदड़ि समाज का दनदवषकल्प सच है ‘और दफर हम िोनों के बीच िूररयां चौड़ी होकर गोल होने लगी। हमारे साथ हमारे ‘दसफर’ भी चलने लगे अपने-अपने िून्यों की दखड़दकयां खोल कर मैनं े हम िोनों ने एक-िसू रे की िरफ िखे ा दक आपस मंे बाि कर सकिे हैं या नहीं?’ मदक्तबोध की कदविा बढ़िे-बढ़िे डायरी हो जािी है और डायरी चलिे-चलिे कहानी। यही कारण है दक कहीं भी मदक्तबोध अनपदस्थि नहीं।'()फ्योिोर िोस्िोवस्की और मदक्तबोध अपने उलझे स्वप्न दचिों की यािाओं से ही मनष्ट्य की यथाथष भावनाओं की कथा कहिे ह।ैं हमारी आजािी िब्िों में, सदं वधान मं,े कानूनों में ही सीदमि है जीदवकाएं हमंे अघोदर्ि रूप से गलाम बना िेिी ह,ैं जहां अपनी बाि कहने की स्वििं िा हम खो िेिे हैं हम अपने श्रम के साथ-साथ दवचार, अदभव्यदक्त और समय भी बचे ने बाध्य ह।ैं अन्यथा जीदवका हाथ से जािे िरे नहीं लगिी। ििे ने पंजू ीपदियों की अधीनिा स्वीकार की उस वचसष ्व की चमकीली सिह के नीचे अंधरे े में डूबी आत्म दनवाषदसि िदनया अपने आप से जिा अपने आप से िरू होिी गई पर यह मदक्त नहीं थी। आजािी के बाि सवं ेिनिील बौदद्धक यकायक अपने अनपयोगीपन के ख्याल से थराष उठा था बिले हुए सत्ता चररि ने क्रांदि का स्वप्न दलए बठै े लोगों के भयमक्त इरािों को धदकया कर ठेल दिया था। इस व्यदक्त पूजक समय मंे बहिु बड़ा वगष आइसोलिे न का दिकार हआु । सभ्यिा, प्रमे और सांप्रिादयकिा के दवराट भाव की जगह सिं ास, घटन लने े लगी जहां से गहरी चप्पी ने आकार ग्रहण करना िरू कर दिया था ‘प्रत्येक आकर्षण इश्क नहीं है यह मैं समझिा हूं मझे सचमच समझ नहीं आिा दक दजिं गी क्यों ह।ै महीने मंे िनख्वाह दमलिे ही मैं अपनी भादभयों िोस्िों की पदत्नयों और उनके बच्चों को दखलौने ला ििे ा हूं दखलौने िेकर भी कोई सिं ोर् नहीं होिा आदखर अंिर के खालीपन को भरने के दलए ही िो यह सब दकया गया ह।ै ’ अगर दजिं गी मन बहलाव है िो बाज आया ऐसे मन बहलाने से क्योंदक इस िरह का बहलाव दसफष खालीपन और उिासी छोड़ जािा ह।ै जीवन मंे यदि कें र ना हो िो बड़ी भारी कोलाहल भरी भीड़ में रहिे हुए भी आप अके ले हंै और यदि वह है िो रेदगस्िान के सूने मैिानों मंे भी सहचरत्व प्राप्त है और दजिं गी हरी भरी ह।ै ' वनष्ट्कषा वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 227
228 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ये रचनाकार दजस समय दलख रहे थे वह समय सिं भष महत्वपणू ष ह।ंै िोस्िोवस्की ‘जारिाही’ की आक्रामकिा के बीच पूजं ीवाि के बढ़िे प्रभाव के साथ बिली हुई सामादजक प्रदक्रया एवं सामादजक मूल्यों को अदभव्यदक्त िे रहे थे जहां ‘गलामी’ थी, अदभव्यदक्त की परिंििा थी, समाज के चेिस कहे जाने वाले वगष की भयाकलिा थीं समझौिा परस्िी थी , सादहदत्यक िदनया की सकं ीणष, दचरौरीभरी गला काट स्पधाष थी िो लगािार भखू , अभाव, अपमान, और अदभजात्य वगष की छद्म उिारिा भी थी, जहां उन्हंे रहना सजा से कम नहीं था। ‘िोस्िोवस्की चमकीले कमरों से बचिे थ,े घर लौटने पर वे अपने को सोफा पर फें क िेिे और अपने सादथयों की ईष्ट्याष के बारे मंे सोचिे, गोदष्ठयों में अपने अपमान के बारे में सोचि।े सादहत्य की िदनया के िलछट। दहम्मि है िो सामने से वार करंे, लदे कन पीठ मंे छरा भोंकने से बख्ि।ें पदश्कन ने कटाक्ष करिे हएु दलखा था ‘िम्हारे दलए िम्हारा बिनष अदधक कीमिी ह,ै क्योंदक इसमें िम्हारा भोजन पकिा ह-ै ‘चीख कर िोस्िोवस्की ने कहा था’ दबल्कल जरूरी है न दसफष मरे े दलए, बदल्क मेरे पररवार के दलए बदल्क सभी के दलए। कला के सौन्ियष पर मनध होने के पहले मंै इसमंे खाना पकािा हू।ं मेरा कत्तषव्य है दक सबसे पहले सामिं ों-िोर्कों के दखलाफ अपना और अपनी जनिा का पेट भरंू।' सवं ेिनिील कलाकार की यह आत्मीय दजि थी उनकी प्रदिबद्धिा थी, दजसे उन्होंने परू ी ईमानिारी से दनभाया। रोजमराष के जीवन की हर घटना में उन्हें अनके संके ि दिखिे थे अच्छे-बरे, दजनके साथ लगािार उनका मानदसक द्वंद्व चलिा, ये सकं े ि िरअसल िीव्र आविे से भरे सजृ न के क्षण थ।े वे उन अंिररम क्षणों मंे मूदछषि हो जािे, भयानक यािना से गजरिे ये सजृ न के अप्रदिम मानवीय क्षण थे, जब वे एक साथ भौदिक और पारलौदकक अनभूदि की गहन सवं िे नाओं के बीच होिे। यह िोस्िोवस्की के सपं ूणष लखे न की मूलभिू कं जी ह।ै उनकी कहादनयों के चररि यहीं से जन्म लिे े ह,ंै घोर अनदै िक, अदवश्वसनीय, चालाक, र्ड्यंिकारी और बहिु बरे। क्योंदक वो मानिे थे- पाठक को हसं ाने के साथ उसके हृिय को छू ना, उसे आसं ओं के बीच मस्कराने को मजबरू करना। एक लेखक के दलए जरूरी ह।ै मदक्तबोध स्विंि भारि में स्वििं िा को ढूढ़ं िा, मनष्ट्य की गररमा को खोजिा, लपं ट उठाईगीर सभ्यिा के बीच गम हो गए ईमानिार आिमी को खोजिा, दहरास थका हआु , उिास कर िने े वाला रचनाकार ह।ै ‘क्या मैं दजसे आधदनक भारि की रैदजडी की कदविा कहिा हू-ं यह फें टेसी उसी की अधूरी कथा या दमथ नहीं ह?ै मरे े भीिर भी सपनों का एक भारि बिं ह,ै एक द्वार-द्वार दबलखिा भारि वर्ष अधरू ा छटपटा रहा ह।ै ' 'जो है उससे बेहिर चादहए इस समाज को साफ करने के दलए मेहिर चादहए’ कहने वाले मदक्तबोध समाज मंे दनदहि गिं दगयां जो जीवन-मलू ्य की िरह दजंिदगयों से अदभन्निा के साथ जड़ गई थीं से दनटपने का स्वप्न भर नहीं पालि,े आत्ममलू ्याकं न से भी गजरिे ह-ंै क्या 'मैंने अभी िक नौजवानी के अपने दिलो दिमाग की िाकि को दबजली में रूपांिररि दकया ह?ै क्या मनैं े बजं र धरिी की दजंिगी में इश्क और इकं लाब की रूहादनयि की फसल खड़ी की ह?ै दिलो दिमाग की िाकि को मानवीय दबजली में रूपांिररि करने वाला दबजलीघर कहां ह?ै ' मदक्तबोध के समय संिभों में दवभाजन की िासिी, एक भयानक, दविीणष करने वाले सच की िरह उपदस्थि ह।ै इसके बावजूि मदक्तबोध के सादहत्य मंे इसकी अनपदस्थदि के कारणों को खोजना होगा। सम्भविः इस िथ्य का आकं लन करने के दलए दभन्न दृदिकोण से ित्कालीन समय को समझने की जरूरि ह।ै मदक्तबोध गहरे बािलों के बीच चमकिे सयू ष की िलाि दनरंिर करिे रह,े उन्हंे जीवन पर दवश्वास था,उन्हंे पिा था दक ये बेचनै चमकिे हीरे इस व्यवस्था और समाज मंे दिरस्कृ ि ह-ंै अच्छे आिमी क्यों िख भोगे- इिने नेक आिमी और इिने अभाग!े िदनया मंे बरे आिदमयों की संख्या नगण्य ह,ै अच्छे आिदमयों के सबब दजंिगी बहुि खूबसरू ि चीज ह।ै वह वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 228
229 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 जीने के दलए ह,ै मरने के दलए नहीं। मंै मानदसक रंगों के पीछे पागल हो जािा। धूप की गहराई या घनापन इिना अदधक हो जािा है दक उसको छोड़कर अपनी वस्ि प्राप्त कर लेना सरल काम नहीं ह।ै दकन्ि साहस और रोमाचं गदलवर की यािा सा होिा है घनपे न को छेिने की दहम्मि करिा कोलबं स का साहदसक अदभयान होिा ह।ै छेिने की दहम्मि करना इिना आकर्कष उन्मािक होिा ह।ै यह मदक्तबोध की रचना प्रदक्रया थी, जो मन के अिलािं ो पर चलिी, दकन्ि खड़ी जमीन पर होिी। इस सघन प्रदक्रया के िौरान वे दजस मानदसक आवेग और उत्तजे ना से गजरिे, वही उनके अंिररम सजृ न के क्षण होिे, जो परू ी िरह से थका िेने वाले िार-िार कर िने े वाले क्षण होिे, परन्ि यही थकान नवोन्मेर् से भर भी िेिी।‘कदविा दलखने के बाि जो भयानक मनःदस्थदि मझे ग्रस्ि कर लेिी है उसका िजषबा बहिु कम लोगों को ह।ै मैं उस प्रदिभा रूप के पीछे िौड़ पड़िा हू,ं चादहए, हां चादहए मझे वही प्रदिभा चादहए। मझे छोड़ िीदजए, मझे जाने िीदजए उस नव्यिर के पास।’ िोस्िोवस्की और मदक्तबोध की कहादनयां आत्मकथात्मक ह।ै मदक्तबोध के अदिदप्रय रचनाकारों मंे िोस्िोवस्की िादमल थे। चररि का मरे ा अध्ययन का िरीका िोस्िोवस्की सा रहा ह।ै हम िोनों िािषदनक हंै, धधं के बीच आत्मसघं र्ष दकया करिे ह।ंै ' इन लेखकों ने अपने समय की अंिषकथा को गहन और दवस्ििृ मैिान पर समझा/िेखा और अदभव्यक्त दकया। िमाम दववािों, टांग खीचने की ईष्ट्याओं के बीच आदथषक किों के बीच, प्रदिद्वंदद्विा के कट अनभवों के बीच भी िोस्िोवस्की ने अपनी रचनात्मक सफलिा के दिखर को पाया। जनवरी 1981 की एक राि जब वे अपने डेस्क पर काम कर रहे थे, उनके हाथ से कलम छू ट कर िले ्फ के नीचे लढ़क गई, जैसे ही िोस्िोवस्की ने झक कर उठाना चाहा, उन्हंे गले के ऊपर गमष उबाल चढ़िा महसूस हआु , उन्होंने अपने ओठं पौंछे वह रक्त था यहां से उनकी अंदिम यािा का िखि पक्ष आरंभ हआु - ‘िो दिन लगािार दबगड़िी हालि के साथ िोस्िोवस्की मतृ ्य से जूझिे रह,े परन्ि आदखरी सांस िक सादहत्य और समाज के बीच पूरी दजिं ादिली से रहिे-रहिे अलदविा कह जािे ह।ंै ’ मदक्तबोध को जीिे जी अपनी दवकट प्रदिभा को सम्मान िने े वाली न िो सादहदत्यक िदनया दमली, न बौदद्धक िदनया। ‘दपस गया िो पाटों के बीच ऐसी रेदजडी है नीच’ कहने वाले इस अिभि रचनाकार ने फासीवािी चेहरा भी िेखा पंूजीवाि की दवरपिा भी िेखी और बौदद्धकों का िोगलापन भी...। मदक्तबोध ‘अपनी िरफ बढ़िी हईु मतृ ्य को साफ िेख रहे थे, उससे दजंिगी की जकड़ कम नहीं हईु थी, यह दकसी भी िरह जीवन से अटके रहने का घदटया मोह नहीं था। ऐसा नहीं दक जीवन के सारे संिभष कटकर दसफष आत्ममोह बचा हो। आत्म मोह अदं िम क्षण िक उस आिमी मंे नहीं आया। वह दसफष जीवन संिभों मंे उलझा हआु था।'इन महान रचनाकारों को व्यवस्था और समाज ने दकसी काम के योनय नहीं समझा, जसै े-िसै े घदटया नौकरिाही की मािहिी करिे इन्होंने दनरंिर आदथषक किों मंे जीवन दबिा दिया, दकिना क्षब्ध होिा है मन ये पढ़कर, दकिना िमनष ाक है ये दकसी भी स्वस्थ समाज के दलए। मनष्ट्य को पढ़ने वाले, मनष्ट्य के सवोत्तम सजषक ने फटे जूिों मंे पूरी दजंिगी दबिा िी, पर वो झके नहीं। दवरोह मनष्ट्य को न दसफष रचिा ह,ै वह दजिं ा होने का संके ि ह,ै वह उसे मानवीय गररमा भी ििे ा ह।ै मदक्तबोध भी ‘वे मरे, हारे नहीं’ मरना कोई हार नहीं होिी।' 1821 मंे जन्म और 1881 में मतृ ्य महज 60 वर्ष की आय मंे िोस्िोवस्की दविा हो दलए- ‘उनकी दजंिगी जैसे अदवश्वसनीय घटनाओं और प्रारब्ध का रंगमचं थी, दजसमंे गहरी दनरािा, दवक्षोभ, प्रमे , सौन्ियष, वंचना, मतृ ्य एक के बाि एक गजरिे रह।े अपने आिं ररक जीवन को उन्होंने रूस की अंिरात्मा और दनयदि से जोड़ दिया। इसी ने उन्हें िदक्त िी दक वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 229
230 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वे गहन द्वंद्वों से भरे अपने जीवन को महान कथाकृ दियों में रूपांिररि कर िं।े मानवीय चिे ना के दजन अिलािं ों में वे उिरे, वह उनके जीवन अनभवों की पररणदि थी।' 1917 में जन्म और 1964 मंे माि सिैं ालीस साल की उम्र में बड़ी बचे ैनी भरी दविा ली मदक्तबोध ने। मौकापरस्िों, चाटकारों के बीच ‘मालवा के पठारों मंे पैिा हआु एक मामूली आिमी, दजसने एक मामूली जीवन दजया और एक िखि मतृ ्य मंे दजसके जीवन की पीड़ाओं का अंि हुआ। कै से जीवन को बिलने की रचना प्रदक्रया का पाठ बन गया? क्या था उस जीवन मंे, दजसने सफलिा के चक्करिार घरे ों की बजाय समाज के रूपािं रण के अदनन स्फदलगं अपनी रचनाओं में इकिे दकए? भावी क्रादं ि के अदननकाष्ठ वह बीनिा रहा।’ मन के कीदमयागार इन रचनाकारों की रचना एवं रचना प्रदक्रया उनके समय और व्यवस्था को समझने का यह प्रयास ह,ै उनकी जीवन िैली में एकसापन लगभग नहीं था; हां, पर िंबाकू की गधं िोनों को मोहिी थी। सिं भा 1- िोस्िोवस्की: हने री िने ेट: अनवाि,वल्लभ दसद्धाथष 2- फयोडोर िोस्िोवस्की:कहादनयां: रिगू ा प्रकािन,अनवाि- डॉ मध 3- मदक्तबोध की आत्मकथा: दवष्ट्नचंर िमाष 4- वही 5- परसाई रचनावली:3 6- दवपाि 7- मदक्तबोध रचनावली -3,4,5 8 -. E पदिका- रचना कार से 9- मदक्तबोध:काठ का सपना वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 230
231 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मध्यम िगीय पररिार में ब पन (विशेष सन्िभा प्रेम ंि की कहावनयां) अवभषेक रंजन, िोधाथी, दहिं ी दवभाग, मौलाना आजाि निे नल उिषू दवश्वदवद्यालय, हिै राबाि संपकष सिू :9958308724 ईमेल : [email protected] साराशं प्रेमिदं वहदं ी कथा सावहत्य मंे अग्रणी लखे क माने िाते ह।ै कथा सावहत्य को प्रेमिदं ने अपनी लेखनी से उत्कृ ष्ट िनाया ह।ै प्रेमिदं की कथा सावहत्य की अर्गर िात हो तो हम पाते है वक प्रमे िदं की कहावनयों में िाल मनोविज्ञान का ििा ही उत्कृ ष्ट िणनव वमलता ह।ै प्रमे िंद ने अपनी कहावनयों मंे िालकों के ििपन का िो स्िरूप प्रस्तुत वकया है िह उनकी कहानी लेखन शैली की उत्कृ ष्टता को दशातव ा है। प्रेमिंद की कहावनयो में ििपन का स्िरूप अलर्ग-अलर्ग पररवस्थवतयों में अलर्ग-अलर्ग तरह से वनकल कर आता ह।ै प्रेमिदं ने विस तरह से एक िालक के ििपन को दशावया है उससे यह स्पष्ट होता है वक प्रेमिंद ने िहतु पहले ही भविष्य का आकलन कर वलया था। प्रमे िंद की कहावनयो से स्पष्ट है वक उन्होंने अपनी कहावनयों मंे विस ििपन का िणवन प्रस्तुत वकया है िह सामान्य नहीं है। बीज शब्ि प्रेमिंद, सावहत्य, कहानी, ििपन, समाि, प्रस्तािना प्रमे चंि दहिं ी कथा सादहत्य मंे अग्रणी लखे क माने जािे ह।ै कथा सादहत्य को प्रेमचिं ने अपनी लेखनी से उत्कृ ि बनाया ह।ै प्रेमचंि की कथा सादहत्य की अगर बाि हो िो हम पािे है दक प्रमे चंि की कहादनयों मंे बाल मनोदवज्ञान का बड़ा ही उत्कृ ि वणषन दमलिा ह।ै प्रेमचंि ने अपनी कहादनयों मंे बालकों के बचपन का जो स्वरूप प्रस्िि दकया है वह उनकी कहानी लखे न िैली की उत्कृ ििा को ििािष ा है। प्रेमचंि की कहादनयो में बचपन का स्वरूप अलग-अलग पररदस्थदियों मंे अलग-अलग िरह से दनकल कर आिा ह।ै प्रमे चंि ने दजस िरह से एक बालक के बचपन को ििाषया है उससे यह स्पि होिा है दक प्रमे चिं ने बहिु पहले ही भदवष्ट्य का आकलन कर दलया था। प्रमे चिं की कहादनयो से स्पि है दक उन्होंने अपनी कहादनयों में दजस बचपन का वणषन प्रस्िि दकया है वह सामान्य नहीं है। प्रमे चिं की कहादनयों में बालक बचपन मंे ही वयस्क होिा दिखाई िेिा है। इसके अदिररक्त प्रेमचंि की कहादनयों में बालक की सोच एक वयस्क की सोच बनिी है। प्रमे चिं की कहादनयों का बालक सामान्य बचपन नहीं जीिा बदल्क अपने बचपन में ही संघर्ष करिा दिखाई पिा ह।ै चाहे वह बालक ईिगाह का ‘हादमि’ हो या बड़े भाई साहब के ‘हलधर’। वहीं नािान िोस्ि का ‘के िव’ और उसकी बहन ‘श्यामा’ की नािादनयाँ हो अथवा रामलीला के ‘बालक प्रेमचंि’ हो िोनों के बचपन में काफी अंिर और दवदिििा दिखाई पड़िी ह।ै प्रमे चंि ने जहा गल्ली डंडा के माध्यम से बालक के बचपन में पारंपररक खले ों के महत्व को स्पि दकया है और यह बिाने का प्रयास दकया है दक विमष ान पररप्रके्ष्य मंे ििे ी खेलों का कोई महत्व नहीं रह गया है। छोटा से छोटा बालक हो या कोई वयस्क सभी दवलायिी खले ों की िरफ अपना ध्यान आकृ ि कर रहे ह।ै मध्यम िगीय पररिार मंे ब पन यहाँ प्रेमचंि की दजन कहादनयों का चयन दकया गया ह,ै उनमें से अदधकांिि: कहानी का पाररवाररक पररवेि मध्यम वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 231
232 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वगीय ह।ै दजन कहादनयों की यहाँ चचाष की जा रही है उनमंे एक समानिा दिखाई पड़िी है और वह दक उन सभी कहादनयों में मध्यम वगष का दचिण दकया गया ह।ै कहानी ‘ईिगाह’ मंे दजस मध्यम वगीय पररवार का वणषन दकया गया है वह पररवार गरीबी की मार झेल रहा है दजसकी वजह से उस पररवार के बालक ‘हादमि’ का बचपन अभावों मंे कटिा ह।ै हादमि को अच्छे कपड़े उपलब्ध नहीं हो पािा है िथा िो वक्त का भोजन भी ठीक से नहीं दमल पिा ह।ै जब हादमि की िािी उसे ईिगाह के दलए भजे िी है िब उस दिन भी वह पराने कपड़े और फटे हएु जिू े पहन कर ईिगाह जािा ह।ै यहाँ िक की बालक हादमि के पास इिने पसै े भी नहीं होिे है दक वह ईिगाह मंे दमठाईयां खा सके । उसके िोस्ि उसे दमठाई दिखा-दिखा कर दचढ़ािे ह।ै बालक हादमि अपने हम उम्र सादथयों को खबू मजे करिा िेखिा है िो उसका भी मन होिा है दक वह भी उनकी िरह अच्छे-अच्छे दखलौने खरीिे, दमठाई खाए िथा झला झूले दकन्ि हादमि स्वयं को दकसी िरह समझा कर मना लेिा ह।ै बालक हादमि का बचपन परू ी िरह से संसाधनों के अभाव में बीि रहा होिा है। उसकी िािी भरसक प्रयास करिी है दक वह हादमि को दकसी चीज़ की कमी नहीं होने िे और बालक हादमि को ऐसा न लगे की उसके पास कछ नहीं ह।ै एक मदस्लम पररवार में बालक का बचपन दजस पररदस्थदि मंे बीििा ह,ै उसका सबसे उत्कृ ि उिाहरण ‘ईिगाह’ कहानी ह।ै विमष ान पररप्रेक्ष्य में अगर हम इस कहानी के आधार पर मदस्लम समाज के बालक के बचपन की बाि करे िो पािे है दक आज के समय मंे भी मदस्लम पररवार के बालकों की बचपन अदधक अच्छी नहीं ह।ै इस कहानी के दवपरीि आज मदस्लम समाज के बालक का बचपन पणू िष : नि हो रहा ह।ै आज के समय में मदस्लम पररवार में बालकों की दिक्षा पर भी ध्यान नहीं दिया जािा ह।ै इसके अदिररक्त बालकों को बचपन से ही काम-धंधे मंे लगा दिया जािा ह।ै ‘चोरी’ कहानी के आधार पर यह दनष्ट्कर्ष प्राप्त होिा है दक एक मध्यम वगीय पररवार में बचपन बड़े ही आििों एवं कड़े दनयमों के साथ बीििा ह।ै बालक प्रेमचंि और उनके चचरे भाई जब एक रुपया की चोरी करिे है िो उसके दलए उन्हें सजा दमलिी ह।ै विमष ान पररप्रेक्ष्य में अगर हम बाि करे िो पािे है की आज भी एक मध्यम वगीय पररवार में बालकों को बालपन से ही दनयमों एवं आििों का पाठ पढाया जािा है दजससे बालक बाहर नहीं दनकल पािा है। इन दनयमों और आििों में बालक का बचपन भी कई बार नि हो जािा है। जब पररवार मंे दनयम और आििों को अदधक महत्व दिया जाये िो इससे स्पि होिा है दक उस पररवार मंे बालकों के स्वयं कछ करने की स्वििं िा नहीं होिी ह।ै ऐसे पररवार में बालकों को वही करने दिया जािा है जो दक पररवार के बड़े-बजगष कहिे ह।ै इस दस्थदि में बालक स्वयं को बंधन में पािा और दजससे बालक दवकास प्रदकया भी प्रभादवि होिी है। ‘चोरी’ कहानी का बालक और उसका भाई अपने घर मंे बहिु िर कर रहिे है दजसकी वजह से वे न िो अपनी मजी से खेल पािे है और न ही कहीं घूम पािे ह।ै विमष ान मंे समाज की दबगड़िे पररवेि को िेखा कर यह भी कहा जा सकिा है दक बालकों को अपने घर से बाहर भी नहीं दनकलने दिया जािा है क्योंदक मािा-दपिा को लगिा है दक उनका बालक समाज मंे दजन बालकों के सपं कष में आएगा और उनसे चीजों को सीखगे ा जो दक उसके व्यदक्तत्व को प्रभादवि करेगा। इसदलए मध्यम वगीय पररवार के बालकों पर अदधक दनयिं ण रखा जािा है और उन्हें अनिासन एवं आििष का पाठ पढ़ाया जािा ह।ै ‘नािान िोस्ि’ कहानी का मध्यम वगीय पररवार यह ििाषिा है दक वे अपने बच्चों पर भी दनयंिण रखना चाहिे ह।ै इस कहानी का बालक भी अपनी बचपन की िमाम गदिदवदधयों में दलप्त ह।ै बालक के िव की माँ के िव और उसकी बहन पर नज़र रखिी है दक कहीं िोनों बच्चे दकसी प्रकार की िरारि िो नहीं करिे है। ‘बड़े भाई साहब’ कहानी िो भाइयों की कहानी ह,ै जो दक छािावास मंे रहकर पढ़ाई करिे हैं। भाई-बहन के बीच एक वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 232
233 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िरह की सामान्य लड़ाई प्रायः ही चलिी रहिी ह,ै भाई-बहन हों या बहन-बहन हों, उनके बीच एक अलग ही िरह का झगड़ा होिा रहिा ह।ै प्रस्िि कहानी ‘बड़े भाई साहब’ कछ अलग िरह के मनोदवज्ञान की कहानी ह,ै एक ही छािावास मंे रहने वाले सगे भाई अलग िरह की दज़न्िगी जीना पसिं करिे ह।ैं बड़े भाई साहब के मन में कहीं-न-कहीं असफल होने की कं ठा ह,ै दजसे वह छोटे भाई पर उिारना चाहिा ह।ै छोटा भाई मस्िमौला ह,ै वह पढ़ाई के बोझ को खेलने, पिगं उड़ाने मंे या दफर दमिों के बीच खादलस गप्पबाजी में दबिाना चाहिा ह।ै हालाँदक इसका यह मिलब नहीं है दक छोटा भाई पढ़ाई मंे अच्छा नहीं ह।ै पहले यह कहावि बहुि प्रचदलि थी दक ‘खेलोर्गे-कू दोर्गे होर्गे खराि.....पढोर्गे-वलखोर्गे होर्गे निाि।’ बड़े भाई साहब इस कथन पर बहुि दवश्वास करिे ह,ंै इसीदलए वे दिन-राि पढ़ाई में लगे रहिे ह।ैं बावजूि इसके उनके साथ असफलिा लगािार बनी रहिी ह।ै छोटे और बड़े भाई के बीच ज्यों-ज्यों कक्षाओं का अिं र कम होिा जािा ह,ै उनमंे एक िरह की िरू ी भी आने लगिी ह,ै छोटा भाई जहाँ बेदफक्र होकर पवू षवि अपने िदै नक जीवन में लगा रहिा ह,ै वही बड़ा भाई अपने असफलिाओं के बीच इस डर में जी रहा है दक उसका छोटा भाई कहीं दबगड़ न जाए। भारिीय समाज की नदै िकिाओं का ही प्रभाव है दक बड़े बही या बहन एक िरह से द्वैिीयक अदभभावक की िरह होिे ह,ंै छोटे भाई-बहन का उनसे डरना स्वभादवक होिा हैं। छािावास में रहने वाले ये िोनों भाई एक सामान्य मध्यमवगीय पररवार से आिे है, उनकी जरूरिें सामान्य रूप से उनके मािा-दपिा परू ी करिे ह।ैं आधदनक यग मंे भी िखे े िो पिे हैं दक पढ़ाई और कै ररयर को लेकर आज की पीढ़ी एक भयंकर िबाव मंे जी रही ह।ै छोटे बच्चों का स्कू ली बस्िा उसके खि के भार से ज्यािा होिा ह।ै लगािार बढ़िी आबािी ने आज की पीढ़ी को कै ररयर को ले कर एक िरह के डर मंे जीने को मजबूर दकया ह।ै प्रस्िि कहानी भी इसी िरह के िवाब से गजरिी दिखिी ह,ै अगं ्रेज़ी की पढ़ाई का िबाव ििे ा रहिा है। वास्िव में उस समय भी पढ़ाई को एक बोझ की िरह ही दलया जािा था, नैदिक मूल्यों का बहुि िबाव होिा था, छोटी-छोटी बािंे दकसी के चररि का मूल्याकं न करने के दलए काफी होिी थी। खेलना या घूमना अच्छी आििों मंे नहीं आिा था, बड़े भाई होने के कारण छोटा भाई कई बार बदे फक्र भी रहिा था। ‘रामलीला’ कहानी का बालक भी कछ इसी िरह का बेदफक्र स्वभाव का बच्चा था। सामान्य बच्चे की िरह उसमे समाज और अन्य चीजों को लेकर दजज्ञासा और उत्सकिा भी बराबर थी। प्रेमचंि की कहादनयों के चररि प्रायः ग्रामीण पषृ ्ठभूदम से आिे ह,ैं इसदलए उनके आस-पास पाया जाने वाला वािावरण भी कोई आसाधारण नहीं होिा, बदल्क जीवन की सामान्य घटनाएँ ही होिी ह।ैं जीवन के प्रथम चरण मंे हर बच्चा दजज्ञास और किहू ल से पररपूणष होिा ह,ै उसे हर चीज़ नई लगिी ह,ै अच्छी लगिी ह।ै दकसी का रोकना-टोकना उसे दबल्कल नहीं भािा। समाज के भीिर होने वाले सामादजक- सांस्कृ दिक कायष भी उसे बहुि लभािे ह।ंै चँदू क दजम्मेिाररयाँ उसे दमली नहीं होिी ह,ैं इसदलए वह इनमें िादमल होने के दलए लालादयि रहिा ह।ै प्रस्िि कहानी मंे बालक को रामलीला बहिु पसंि थी, जो उसके घर के सामने ही हुआ करिी थी। बालक प्रमे चंि समाज मंे होने वाले अिं दवरष ोधी व्यवहारों से िखी भी होिा ह।ै रामलीला में राम का चररि दनभाने वाले की उपेक्षा और नाचने वाली स्त्री की िरफ लोलप दनगाह रखने वाले लोगों की वह मन ही मन बहिु भत्सनष ा करिा ह।ै अपने बचाए पसै े को वह अपने ‘राम’ को िे ििे ा ह,ै यह सोचकर दक उनके कछ काम आ जायगे ा। समाज के अिं दवषरोधी व्यवहार, लालच और भोग-दवलासपणू ष व्यवहार को बालक बहिु जल्ि समझ लिे ा ह।ै जब हम समाजीकरण की प्रदक्रया पर दवचार करिे ह,ंै िो पािे हंै दक कोई भी बालक दजस व्यवहार को अपने आस-पास पािा ह,ै उसी व्यवहार को अपनािे हएु जीवन भर उसका पालन करिा ह।ै इस िरह कई बार कछ रुदढ़वािी दवचारों और दनयमों पर कोई सवाल उठाया ही नहीं जा सकिा, चीजंे ऐसे ही चलिी रहिी हंै। बालक प्रेमचंि को अपने दपिा से भी अभूि गस्सा था, क्योंदक उन्होंने राम जी की पजू ा के बजाए एक नाचने वाली स्त्री का ज्यािा सम्मान दकया, जो प्रमे चंि की नजर मंे गनाह करने जैसा था। बालक एक सपं न्न पररवार से ह,ै उसके दपिा सख्ि दमजाज के है। सवाल पछू ना या घमू ना-दफरना उसके दपिा को वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 233
234 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 दबलकल पसिं नहीं। भारिीय समाज मंे यह अजीब सा दनयम है दक अदभभावक का सख्ि होना जरूरी ह,ै नहीं िो वह दबगड़ जाएगा। उन्हंे अपनी वदृ ्धावस्था में यह दिकायि रहिी है दक बच्चे अपने पररवार मंे व्यस्ि रहिे है और वदृ ्धों को समय ही नहीं ििे े। वास्िादवकिा यह है दक उनमंे जड़ाव हो ही नहीं पािा। सयं क्त पररवार परंपरा मंे बच्चे को दविेर् िरीके से नहीं िेखा जािा, बदल्क उसका काम दसफष पढ़ाई करना और भोजन करना माि होिा ह.ै ...उसकी दकसी जरूरि को भी बहिु दविरे ् िजे के साथ नहीं सना जािा। जबदक बच्चों के मनोदवज्ञान, उनकी जरूरिों और उनके व्यवहार को समझने के दलए उनके साथ बािचीि करना और उनके दक्रया-कलापों पर नजर रखना आवश्यक होिा है। बच्चे को उसके दकसी कायष या गलिी के दलए िदण्डि दकया जाना भी गलि ह,ै कई बार इससे वह कं दठि होिा है या दहन-भावना से ग्रस्ि हो जािा ह।ै खेल को भी उसके जीवन का अदभन्न दहस्सा बनाया जाना चादहए, दजससे उसका िारीररक और मानदसक दवकास सिं दलि रूप से हो सके । ‘िो भाई’ कहानी का वािावरण बादक कहादनयों से थोड़ा अलग है। के िार और माधव, जो बचपन मंे एक-िसू रे को इिना प्रेम करिे थे दक एक-िसू रे के दबना जीवन की कल्पना भी नहीं करना चाहिे थे। खाना, खेलना, पढ़ना, सोना, नहाना इत्यादि सारे कायष वे िोनों एक-िसू रे के साथ ही करिे थे। जैसे-जैसे वे बढ़िे गए, उनका प्रमे भी बढ़िा गया। समस्या िब होिी ह,ै जब उन िोनों का दववाह होिा ह।ै के िार की पत्नी चपं ा और माधव की पत्नी श्यामा के आिे ही पररवार में दवघटन प्रारंभ हो गया। िोनों भाइयों के बीच बटँ बारा हुआ और साथ ही उनके बीच का प्रमे भी दवभादजि हो गया। स्त्रीवािी नज़ररए से िेखें िो यह दववादिि कहानी ह,ै क्योंदक यहाँ दस्त्रयों को पररवार िोड़ने का कारण बिाया गया है। वही अगर सामान्य नजर से िखे ंे िो पािे है दक िोनों भाइयों के प्रमे का दवस्थापन हो गया था, और उनकी जगह उनकी पदत्नयों ने ले ली थी। वास्िदवकिा यह है दक जीवन के अलग-अलग स्िरों पर जसै े ही हमारी पररदस्थदियाँ और जरूरिें बिलिी ह,ंै हम प्राथदमकिाएं भी बिल िेिे ह।ैं भारिीय समाज व्यवस्था मंे इस िरह का पाररवाररक दवभाजन कोई नई बाि नहीं, िोनों भाई आगे चलकर एक-िसू रे के दखलाफ रहने लगिे ह।ैं हाँलादक उनकी पदत्नयों को भी कछ हि िक इस बाि के दलए दजम्मिे ार माना जा सकिा है दक अपने पदियों को भड़काने में उनका भी हाथ होिा ह,ै लदे कन धैयषपवू षक दजस मद्दे को सलझाया जा सकिा था, उसमें िश्मनी पैिा हो जािी ह।ै िोनों भाई एक-िसरे का नकसान करन,े सम्पदि हडपने की योजना बनािे पाए जािे ह।ैं आज 21वीं में भी संयक्त पररवार इसी िरह टूटिे जा रहे ह,ंै नगरीकरण, महगँ ाई, एकल पररवार व्यवस्था के फायिे इत्यािी ने लगािार पररवारों को दवभादजि दकया ह।ै संयक्त पररवार के टूटने और एकल पररवार प्रथा के भदवष्ट्य को प्रेमचिं ने प्रस्िि कहानी के माध्यम से बहुि पहले ही घोदर्ि कर दिया था। ‘कजाकी’ कहानी मंे भी एक संपन्न पररवार के बालक की कथा दमलिी ह,ै दजसमंे वह अपने जीवन के अलग-अलग िौर मंे अपने से छोटे वगष के लोगों के साथ दमलिा है और उनसे उसका लगाव हो जािा है। अदधकारी दपिा और गदृ हणी मािा के अनिासन मंे जी रहा बच्चा कहीं-कहीं बहिु संविे निील भी दिखाई ििे ा ह।ै बच्चा अभी स्कू ल नहीं जािा बदल्क उसकी दिक्षा-िीक्षा का कायष घर पर ही चल रहा है। ‘कजाकी’ नाम का चररि उसके दपिा के मािहि काम करिा था। कजाकी को बालक से बहुि प्रेम था, एक दनदश्चि समय पर वह बालक के पास हर दिन पहुचँ िा ह,ै उसके साथ खले िा ह,ै उसके दलए कछ न कछ चीजें भी लािा ह।ै कहानी का मूल ित्व यह है दकएक दिि का स्नहे जादि, धमष, वगष या नस्ल के इिर दसफष स्नेह की िरफ झकिा ह,ै लाभ-हादन से उसको कोई मिलब नहीं होिा। बालक को कजाकी से अलग-अलग दवर्यों पर कहानी सनना भी पसिं था, अपने मािा-दपिा के अनिासन से हटकर वह कजाकी के साथ स्वयं बहुि को आज़ाि महसूस करिा ह।ै बच्चे अपने िोस्ि मन्नू के साथ भी बहुि समय दबिािा था, उसके साथ प्राय: प्रचदलि खेल खले ा करिा था। दपिा जी द्वारा कजाकी को नौकरी से दनकालना बालक को बहिु िखी कर िेिा ह,ै उसके व्यवहार को वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 234
235 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सन्न कर ििे ा ह।ै बच्चे अपने बालपन में लाभ-हादन या ऊँ च-नीच की भावना से परे होिे ह,ंै इसदलए िो उन्हंे इश्वर का िसू रा रूप भी माना जािा है। ‘गल्ली डंडा’ कहानी का बालक अपने बचपन मंे बहुि अके लापन महससू करिा ह।ै सम्पन्न पररवार होने के कारण बालक के मािा-दपिा अपने काम मंे व्यस्ि रहिे ह,ै जबदक दपिा को अपने पि की दचंिा भी रहिी है दक वह भदवष्ट्य में क्या करेगा। बालक को गल्ली डंडा खले ना पसंि ह,ै दजसे वह समाज के छोटे िबके के बच्चों के साथ खले िा ह।ै बच्चा अंग्रेज़ी माध्यम के स्कू ल में पढ़िा ह,ै जो उसकी उच्च आदथकष दस्थदि को अदभव्यक्त करिा ह।ै ‘गया’ उसका बालपन का साथी है और गल्ली डंडा खले का दनयदमि साथी भी। दपिाजी के िबािले के साथ ही उसके िोस्ि भी बिलिे रहिे ह,ंै लेदकन ‘गया’ की स्मदृ ि उसके मन में लगािार बनी रहिी है। यवावस्था में जब वह वापस गया से दमलिा ह,ै िो दफर से गल्ली डंडा खेलने की ख्वादहि जादहर करिा ह,ै परन्ि यह स्वाभादवक रूप से संभव नहीं हो पािा। बालक पढ़-दलखकर बड़ा अदधकारी बन चकू ा है और गया दकसी का दनजी मजिरू , उनके बीच सामादजक-आदथषक पररदस्थदियों की मोटी दिवार खड़ी हो चकी ह।ै गया, बालक को अफसर या साहब मानिा है, उसके साथ मन से खले नहीं पािा, लदे कन अपने वगष के लोगों में वह सहज रहिा है। कहानी का सन्ििे यह है दक बचपन में िो हम सब दजससे चाहें उससे दमििा कर लं,े खाने-पीने का साथ बना लंे या दवद्यालय मंे साथ रह,ंे परन्ि बड़े होिे ही माहौल बिल जािा ह।ै समाज व्यवस्था के कछ दनयम अभी भी वैसे ही ह,ैं जैसे वे कछ सिी पहले रहे होंगे। वनष्ट्कषा: प्रमे चंि की कहादनयों में बाल जीवन को लके र बहिु अलग-अलग पररदस्थदियाँ दमलिी ह।ंै कछ बािें और दनयम जो पहले जसै े थ,े वैसे ही आज भी ह,ंै कछ भी बिलाव नहीं आया ह।ै अदभभावक आज भी बच्चों को डर, िबाव और गरै जरूरी अनिासन मंे रखना चाहिे ह,ै पर वे यह नहीं समझिे दक दजस चीज़ को दजिना िबाया जािा ह,ै उसकी प्रदिदक्रया उिनी ही दवपरीि होिी है। समाज के अलग-अलग पाररवाररक पषृ ्ठभूदम से आने वाले बच्चों का सामाजीकरण भी अलग-अलग होिा ह।ै सामादजक दनयम, परम्पराए,ँ रूदढ़याँ, दक्रयाकलाप... जो भी बच्चा िेखिा ह,ै वही सीखिा है और उसी का व्यवहार अपने जीवन में करिा ह।ै सन्िभा ग्रथं सू ी 1. प्रमे चंि. (2013). मानसरोिर भार्ग 1. प्रकािन ससं ्थान. नई दिल्ली. 2. प्रेमचिं . (2013). मानसरोिर भार्ग 2. प्रकािन संस्थान. नई दिल्ली. 3. प्रेमचिं . (2013). मानसरोिर भार्ग 3. प्रकािन ससं ्थान. नई दिल्ली. 4. प्रमे चिं . (2013). मानसरोिर भार्ग 4. प्रकािन ससं ्थान. नई दिल्ली. 5. प्रेमचिं . (2013). मानसरोिर भार्ग 5. प्रकािन ससं ्थान. नई दिल्ली. 6. प्रेमचिं . (2013). मानसरोिर भार्ग 6. प्रकािन संस्थान. नई दिल्ली. 7. प्रेमचिं . (2013). मानसरोिर भार्ग 7. प्रकािन ससं ्थान. नई दिल्ली. 8. प्रमे चंि. (2013). मानसरोिर भार्ग 8. प्रकािन संस्थान. नई दिल्ली. वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 235
236 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ‘आँ की जाँ ’ के मायने.... मनीषा िोधाथी, दहिं ी दवभाग दिल्ली दवश्वदवद्यालय ई-मेल [email protected] साराशं िीसिीं सदी के आरम्प्भ से ही दवलत लेखकों ि विंतकों ने िणवव्यिस्था ि िावत के मूल आधार पर ही प्रश्नविन्ह खडा कर वदया। िेिनै िी ने इस िावत के प्रश्न को कहानी \"आाँि की िािाँ \" में ििी ही िारीकी से उिार्गर वकया ह।ै इसमंे िताया है वक सिणव व्यवि वकतना ही पढ़-वलखा या वििारों से प्रोग्रेवसि क्यों न हो लवे कन िह वफर भी िावतिाद का कट्टर समथकव होता ह।ै यह कहानी िताती है वक कै से आि भी दवलत कही िाने िाली िावतयााँ सिणों की नज़रों में समाि के उसी पायदान पर मौिूद है िहाँा सामाविक संरिनाओं ने उन्हंे स्थान वदया था। इसवलए आि भी व्यवि को कमव या श्रम के आधार पर नहीं अवपतु िावतर्गत आधार पर मान ि प्रवतष्ठा वमलती ह।ै बीज शब्ि दवलत, समाि, व्यिस्था, िावतया,ाँ िणवव ्यिस्था, संघषव, अवस्मता शोध आलेख भारिीय समाज में वणषव्यवस्था वदै िक काल से ही दवद्यमान रही है । समाज मंे वणवष ्यवस्था के अिं गषि िदलि की दस्थदि के वल सवे ाभाव की रही है । वहाँ वह वणषव्यवस्था के श्रेष्ठ कहे जाने वाले िीन आधार स्िंभों िाह्मण, क्षदिय व वशै ्यों की सवे ा के दलए ही उत्पन्न माना गया है । विमष ान समय मंे भी भारिीय समाज वणवष ्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से बेिक न अपनाने का िावा करिा हो लेदकन अप्रत्यक्ष या मानदसक रूप में इसकी जड़ंे आज भी उस के अंिर बहिु गहरे से पसरी हुई है । इन जड़ों को भरपरू पानी व खाि भी अपने ही समाज के अन्िगषि आने वाले लोग िे रहे हंै । िेखा जाए िो भारिीय समाज में यह जादि व्यवस्था अत्यिं जदटल व रूढ़ ह,ै यदि हम सूक्ष्मिा से भारिीय समाज को जानने की कोदिि करंेगे िो पाएगं े दक यह के वल भारि मंे ही अपने इस रूप में मौजिू है अन्य िेिों मंे नहीं। आज भारि ने दकिनी भी िरक्की क्यों न की हो लदे कन इिनी िरक्की अभी िक भी नहीं कर पाया है दक इस वणवष ्यवस्थावािी मानदसकिा या इसकी उपज जादिगि व्यवस्था को समाप्त कर सके । हम इक्कीसवीं सिी में पैर रखने के बाि बेिक गलामी से िो आज़ाि हो गए हों लेदकन जादिगि अपमान से हमारे ही समाज का िदलि कहे जाने वाला िबका आज भी मक्त नहीं हो पाया ह।ै न ही हम स्वयं इस जादिगि भेि को दमटा पाए ह।ैं यह जादि आधाररि भेि कछ जादियों को िो श्रेष्ठ सादबि करिा है लेदकन कछ िथाकदथि दनम्न जादियों पर असभ्य होने का ठप्पा लगाकर उन्हें सभ्य समाज से अलग खड़ा कर ििे ा ह।ै इसदलए िदलि सादहत्य मंे स्वयं िदलि सादहत्यकारों ने अपनी समस्याओं व संघर्ष को उजागर करना िरू दकया ह,ै क्योंदक यह सादहत्य समिा, स्वििं िा एवं बन्धत्व की भावना को लके र चलिा ह।ै इसका ही पररणाम है दक जादि के प्रश्न को िदलि सादहत्य के अिं गष ि बड़ी ही मखरिा व उत्तेजना के साथ उठाया गया ह।ै वास्िव में \"'जावत' व्यिस्था का एक ौखटा है वजसे िाह्मणों ने तैयार वकया और उसपर स्ियं अपनी प्रवतष्ा की मौहर लगा िी। उन्होंने जावत वनयम इतने मजबतू वकये वक जावत का उल्लंघन करने िाले के वलए िडं व्यिस्था वनधााररत की। वहन्िू धमा जावतिाि का वहमायती है।\"1 बीसवीं सिी के आरम्भ से ही िदलि लेखकों व दचिं कों ने वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 236
237 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 वणषव्यवस्था व जादि के मलू आधार पर ही प्रश्नदचन्ह खडा कर दिया। बचे ैन जी ने इस जादि के प्रश्न को कहानी \"आचँ की जाचँ \" में बड़ी ही बारीकी से उजागर दकया ह।ै इसमें बिाया है दक सवणष व्यदक्त दकिना ही पढ़-दलखा या दवचारों से प्रोग्रेदसव क्यों न हो लदे कन वह दफर भी जादिवाि का कट्टर समथषक होिा ह।ै यह कहानी बिािी है दक कै से आज भी िदलि कही जाने वाली जादियाँ सवणों की नज़रों में समाज के उसी पायिान पर मौजिू है जहाँ सामादजक संरचनाओं ने उन्हें स्थान दिया था। इसदलए आज भी व्यदक्त को कमष या श्रम के आधार पर नहीं अदपि जादिगि आधार पर मान व प्रदिष्ठा दमलिी ह।ै ओमप्रकाि वाल्मीदक के िब्िों में “ ‘जावत’ ही जहाँ मान- सम्मान और योग्यता का आधार हो, सामावजक श्रेष्ता के वलए महत्त्िपूणा कारक हो ,िहाँ यह लड़ाई एक विन में नहीं लड़ी जा सकती है।”2 चँदू क भारिीय समाज में जादिवाि हाल के वर्ों की ही िंे नहीं ह,ै यह िो लम्बी प्रदक्रया के िहि चली आ रही परंपरा के रूप मंे पहले से ही दवद्यमान ह।ै दवदभन्न धमषग्रंथों को पढने के उपरान्ि आप जानगें े दक कै से समाज में यह पहले से ही मौजूि था। अजय नावररया दलखिे ह,ैं “धमाग्रथं ों के अध्ययन से पता लता है वक िाह्मणों,िवत्रयों,िैश्यों मंे भी आपस मंे छआछू त का लन था, िाह्मण जावत के लोग आपस मंे भी श्रेष्-हीन मानते हुए िाह्मणों के साथ ही अस्पशृ ्यता का व्यिहार करते थे।”3 लदे कन इसके बावजूि जादिगि भेिभाव का सबसे ज्यािा भक्तभोगी िदलि वगष ही रहा ह।ै इसका पररचय कहानी में भारद्वाज की मानदसकिा से दमलिा ह।ै व्यदक्त के दलए आज भी कहीं न कहीं मानविा से ज्यािा जादि मायने रखिी ह।ै कहानी का सवणष पाि भारद्वाज, बालक रोिन के िरीर पर होने वाली बीमाररयों के इलाज से कहीं ज्यािा उसकी जादि का पिा लगाने के दलए व्याकल ह।ै वह कहिा ह-ै \"मझे तो सबसे बड़ी व्यावध यानी इसकी जावत का पता करना है,इसकी जावत और धरम का पता लगाना परम आिश्यक है।\"4 भारिीय समाज मंे यही वह महत्तवपूणष दबंि है दजसके चलिे समाज मानवीयिा की राह से भटक गया ह।ै साथ ही इस कहानी में दपछड़ी जादियों के साथ सदियों से होिे आ रहे अन्याय का भी पिाषफाि दकया गया ह।ै इस संिभष में व्यनं यात्मक रूप से जो प्रश्न सागर से दकया है वह इसी अन्याय की ओर इिारा करिा ह।ै वह कहिा ह-ै “क्या महज इिेफ़ाक़ है वक सभी अमीर सिणों के बेटे ही बेटे और गरीबों-िवलतों के घर बेवटयां ही बेवटया।ं \"5 इसकी जवाबिेही के रूप मंे कहना अनदचि न होगा दक यह महज इत्तेफाक नहीं है बदल्क िदलिों के साथ सदियों से हो रहे अमानवीय व्यवहार, भिे भाव या उनके दखलाफ हो रही सादजि का यथाथष वणनष ह।ै जहाँ गरीबों-िदलिों के दहस्से दसफष बेदटयां इसदलए आिी है िादक भारद्वाज जसै े सवणष समाज की नाक कटने से बची रह।े यह वह नाक है दजसका दजम्मा हमारे समाज ने दसफष बेदटयों के ही हवाले दकया है बेटों के नहीं। इसदलए उस नाक को बचाये रखने के दलए बदे टयों को भ्रणू हत्या उपहार स्वरूप जन्म से पहले ही िे िी जािी ह।ै यहाँ प्रश्न उठाना जायज़ है की क्या िदलिों की कोई नाक नहीं होिी और अगर नहीं होिी िो क्यों नहीं होिी उसके पीछे क्या कारण मौजूि ह?ै भारद्वाज ने एक वाक्य कहा है, “आजकल लडवकयां इटं रकास्ट मैररज भी कर लेती हंै।”6 यहाँ यह समझना आवश्यक है ,की यह वाक्य दकस सन्िभष में कहा गया ह,ै चँदू क अगर लड़दकयां इटं रकास्ट मरै रज कर भी लेिी हैं िो भी उन्हंे भ्रूण हत्या के हवाले कर िेना कहाँ िक उदचि ह।ै साथ ही क्या इटं रकास्ट मरै रज दसफष लडदकयाँ ही करिी हंै लड़के नहीं। यहाँ भी मसला इटं रकास्ट मरै रज के अथष में अपने से दनम्न जादि से दववाह कर लेने का है, मिलब भारिीय समाज की जादि आधाररि संरचना ही ह।ै आज यह प्रायः कई जगह िेखने को दमल जािा है जहां इटं रकास्ट मैररज कर लने े पर लड़के और लड़की को मौि की सजा दमलिी ह।ै वही समाज आज भी कहीं-कहीं िेखने को दमलिा ह।ै यहाँ ‘कहीं-कहीं’ कहने का मिलब है दक समाज में सब जगह ऐसा नहीं होिा लेदकन छोटे कस्बों और गावँ ों मंे प्रायः ऐसा िेखने को दमल जािा ह।ै कहानी में भी जादियिा के व्यहू में दघरे सवणों में यह मानदसकिा दिखाई ििे ी है दक लडदकयां वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 237
238 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 इटं रकास्ट मरै रज कर लिे ी हंै इसदलए उन्हंे पहले ही मौि के घाट उिार िेने मंे ही उनकी व उनके समाज की भलाई ह।ै बड़े िःख की बाि है की आज़ािी के इिने सालों बाि भी हमारा समाज जादि व्यवस्था से मक्त नहीं हो पाया है इसदलए ऐसे ज्ञान-दवज्ञान के भी कोई मायने नहीं है जो दकसी की जादि न बिा सके । भारद्वाज का मानना है , “जब इतना कछ डॉक्टर कर रहे हैं तो क्या जावत का राज नहीं बता सकें गे?”7 इस सन्िभष मंे यदि डॉक्टर जादि नहीं बिा सकिे िो ऐसा ज्ञान-दवज्ञान उनके दलए व्यथष ही सादबि होिा ह।ै आज यह ज्ञान-दवज्ञान भी व्यदक्त को लूटने-खसोटने में पीछे नहीं ह।ै यही इस कहानी में भी उद्घादटि दकया गया ह।ै ऐसा कहा जािा है दक डॉक्टर भी भगवान् का ही एक रूप होिा है जो व्यदक्त को िदनया मंे लाने का सौभानय प्राप्त करके आया है पर आज वही डॉक्टर मोटी-मोटी फीस वसूलने के दलए मरीज़ को िमाम िरह के मज़ष बिा कर अपनी जेबें गमष कर रहे ह।ंै जेबों की भरपाई के दलए वे खनू ,दिल व मासं -मज्जा की जाँच से भी जादि का पिा लगाने का िावा कर रहे ह।ैं जब भारद्वाज डॉक्टर से कहिा ह,ै “डॉक्टर साहब, क्या खून की ररपोटा से बच् े की जावत का पता ला?”8 जवाब में डॉक्टर उससे कहिा है, “अभी तो नहीं, पर ऐसा कौन सा रोग है जो वडटेक्स न होता हो, पेशेंस रवखये ........... ाहे तो बच् े को एक महीने के वलए भती करा िीवजए। आपकी एसोवसएशन लाख-िो लाख तो अफोडा कर ही सकती है।”9 इसदलए पैसों के कारण ही मेदडकल स्पेिदलस्टों ने बच्चे की जाचँ प्रदक्रया िज़े कर िी थी। इसके अलावा कहानी मंे आरदक्षि वगष के िहि आने वाले डॉक्टरों के प्रदि अनारदक्षि वगष के डोक्टरों का क्षोभनीय रवैया भी िेखने को दमलिा ह।ै यह फासला भी के वल जादिगि खाई ने ही पैिा दकया ह।ै वहाँ यह मान दलया जािा है दक एस.सी व एस.टी कोई डॉक्टर-वोक्टर नहीं होिे ह,ंै क्योंदक वे िो आरक्षण पाकर डॉक्टर बने होिे ह।ंै यहाँ िक दक वे िो िन्य अकं प्राप्त करने ओपर भी एम.बी.बी.एस बन जािे ह।ंै यहाँ मिलब साफ़ है दक इन्ही लोगों ने मदे डकल व्यवस्था की िििष ा की हुई है न दक भ्रिाचार मंे दलप्त डॉक्टरों ने। इस सन्िभष में यहाँ पनीिा जैन के िब्ि यहाँ एकिम सटीक प्रिीि होिे ह,ैं “ितामान समय में आरिण आवि के कारण िवलत समाज की आवथाक वस्थवत मंे पररितान आया है वकन्त उनके सामवजक,सासं ्कृ वतक अवस्मता पर अभी भी प्रश्नव ंह मौजूि है। उच्छ वशवित समाज मंे भी जावतिािी मानवसकता होना उसकी जड़ता को िशााता है।”10 सामान्यिः िदलिों का आदथषक पक्ष कमजोर ही रहा ह।ै लदे कन दफर भी यह आदथषक कमजोरी उन्हंे इिना बीमार नहीं बनािी दजिना हमारे ही समाज से दमलने वाला यह जादिगि अपमान बनािा ह।ै भारिीय समाज मंे मौजिू जादिवाि इिनी गहराई िक अपनी जड़ंे जमाये हुए है दक व्यदक्त मरना िो पसिं कर सकिा है लेदकन जीवन बचाने के दलए दकसी िदलि व्यदक्त का खनू का सहारा लेना नहीं। कहानी में बनारसी दिवारी को जब खनू चढ़ाया जा रहा था और उसे पिा चला दक खून दकसी अछू ि व्यदक्त का है िो उसने खून चढाने से ही साफ़ मना कर दिया। उसने कहा, “डॉक्टर साहब मर जाऊँ गा परन्त वकसी भंगी- मार का खून नहीं ढ़ाऊं गा।”11 यह उसी समाज का बनारसी दिवारी है जो फोथष क्लास कमषचारी के नवजाि दिि के रूप मंे के वल लड़कों को िो अपना सकिा है लेदकन दकसी िदलि के खनू के सहारे नया जीवन पाना उदचि नहीं समझिा। भारिीय सदं वधान धमष दनरपके ्षिा की बाि करिा है पर क्या भारि धमष दनरपके ्ष है , क्योंदक यहाँ िो धमष मंे भी उच्च जादि वालों का बोलबाला ह।ै भारिीय समादजक संरचना में मौजिू जादि एवं धमष िोनों ऐसी सच्चाई है दजस से इस समाज की सभी गदिदवदधयां सचं ादलि व बादधि होिी ह।ै सन् 1927 में आम्बेडकर ने महाड़ आन्िोलन दसफष इसदलए चलाया था दजससे िदलिों को मदन्िर मंे प्रविे दिला सकंे । उस आन्िोलन में सफलिा पाने के बावजिू आज भी कई जगह िदलिों का वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 238
239 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मदन्िर में प्रवेि वदजषि ह।ै कहानी मंे रोिन की जािी का पिा चलने से उसे मदन्िर प्रवेि की अनमदि सवणष समाज का भारद्वाज नहीं िने े ििे ा ह।ै उसके दलए पहले बच्चे की जादि जानना आवश्यक ह।ै इसदलए भारद्वाज के दृदिकोण मंे,“बच् े को कॉलोनी के मवन्िर के अन्िर नहीं, सीवढ़यों के नी े बैठने की व्यिस्था करा िेनी ावहए , जब तक इसकी जावत ज्ञात नहीं होती तब तक यह बच् ा िाह्मण तो नहीं माना जा सकता और तब तक इसे रखा तो शरू - अवतशूर अथिा अछू त की तरह ही जाएगा।”12 इसदलए भारद्वाज को मेदडकल साइसं पर भरोसा है दक यदि बच्चे के अगं -अगं की जाँच होगी िो दकसी न दकसी अंग से बच्चे की जादि पिा चल ही जायेगी। अिं में यह कहानी भारिीय समाज मंे व्याप्त इस जादिवािी खाई को पाटने का कायष भी करिी ह।ै इसमें सिं रैिास के हवाले से कहा गया है दक दजस िरह चांडाल के गणवान होने पर, वह भी पूजने योनय है उसी िरह िदलि भी अगर गणवान है िो वह भी उिना ही पूजनीय ह।ै इस सन्िभष मंे िेखा जाय िो गणवान िदलि भी कहाँ पजू े जा रहे ह।ंै दकसी भी िदलि सादहत्यकार को व्यदक्तगि िौर पर जानंगे े िो पायेंगे दक िमान ओहिे व िकै ्षदणकिा के आधार पर भले ही उन्होंने समाज में सादहत्य मंे अपना स्थान बनाया हो लदे कन दफर भी कई जगह जादिगि आधार पर उन्हें ित्कार ही दमला। ऐसा कहा जािा है दक िदलि गंिे रहिे हंै लदे कन साफ़-सथरा होने के बाि भी मख्धारा का समाज उन्हंे अपने समकक्ष कहाँ ला पा रहा है ? “ख़ास बात यह है वक इस अनिेखेपन का मख्य कारण ‘जन्म’ अथाात जन्म के कारण एक ख़ास जावत (िवलत) मंे होना रहा है।”13 िदलि सादहत्य के अंिगषि दसफष 'आँच की जाचँ ' नहीं बदल्क ऐसी बहुि सी कहादनयाँ है जहाँ व्यदक्त को के वल और के वल जादि के कारण अपमान और उत्पीड़न दमला ह।ै इसके दलए आवश्यक है दक वणवष ्यवस्था के स्वरुप को विमष ान पररपेक्ष्य में समझा जाए। प्राचीनकाल मंे वणषव्यवस्था के चार आधार स्िभं िाह्मण,क्षदिय,वैश्य िथा िरू थे िो विमष ान समौय मंे इनका स्थान जनरल, ओबीसी, एससी िथा एसटी ने ले दलया ह।ै इसदलए दसफष रूप बिला है व्यवस्था वही की वही ह।ै इस व्यवस्था का उन्मूलन वास्िदवक रूप से िभी सभं व है जब सवणष िथा अवणष एक साथ दमलकर जादि व्यवस्था से ऊपर उठ मानविा को प्राथदमकिा िंेगे , क्योंदक “श्रेणीबद्ध समाज-र ना में मनष्ट्य की पह ान मनष्ट्य के रूप मंे नहीं की जाती , जावत के रूप में होती है। इस कारण श्रेणीबद्ध समाज-र ना को नि कर समतािािी समाज का वनमााण िवलत सावहत्य का स्िप्न है।”14 िरअसल िदलि सादहत्य का आधार आम्बडे कर की वैचाररकी और फले का ििनष ह।ै इन िोनों के मूल मंे समानिा,स्विंििा व बन्धत्व रहा ह।ै इस श्रणे ीबद्ध समाज को िोड़ने के दलए भारिीय समाज में इन िीनों ित्त्वों का व्याप्त होना आवश्यक है अन्यथा समाज मंे दवर्मिा ही दवद्यमान रहगे ी । यह कहानी या कहंे दक सम्पूणष िदलि सादहत्य ही जादि व्यवस्था के िंग गदलयारों से होकर गजरा है इसदलए वे भली-भािँ ी पररदचि हंै दक िदलिों को मनष्ट्यों की कोदट में लाने वाले सभी रास्िे काँटों से भर दिए गए ह।ंै इसदलए िदलि सादहत्यकार उन रास्िों को साफ़ करने मंे लगे हुए हंै दजससे उन्हंे भी मनष्ट्यों की कोदट मंे लाया जा सके । इसके दलए समाज में व्यदक्तयों के परस्पर समानिा, स्वििं िा व बंधिा की भावना का होना अत्यंि आवश्यक ह।ै दनष्ट्कर्ष रूप से कहा जा सकिा है ‘आचँ की जाँच’ कहानी भारिीय समाज की उस सच्चाई कप उजागर करिी है जो आज भी समाज में अपनी जड़ंे ज्यो की त्यों जमाए पड़े है। वह सच्चाई है जादि-व्यवस्था। कहानी बिािी है दक कै से भारिीय सामादजक सचं रना मंे ही पहले से रची-बसी जादि-व्यवस्था , कै से आज भी अपना काम कर रही है। व्यदक्त के मानदसक पक्ष और समाज की सम्पणू ष व्यवस्था में यह जादि-व्यवस्था बहिु गहरे-से पसरी हुई ह।ै प्रोग्रदे सव व्यदक्त भी इस जादि-व्यवस्था से इस किर जकड़ा हुआ है दक कहने को िो वह इस व्यस्था मंे कहीं मौजिू ही नहीं है वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 239
240 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 लदे कन वास्िदवक रूप से वह इस से दघरा हुआ ह।ै समिामलू क समाज दनमाषण के दलए इस व्यवस्था का दवनाि होना आवश्यक है अन्यथा समाज का एक िबका ‘जादि’ के कारण अपमादनि ही होिा रहगे ा। समिामलू क समाज के दलए जरूरी है की मख्यधारा उर हादिये के समाज को दमलकर मंच पर एक साथ आना होगा होगा और सबसे ऊपर दसफष और दसफष मनष्ट्यिा को रखना होगा। सन्िभा सू ी 1. मस्के साक्षांि, परम्परागि वणष-व्यवस्था और िदलि सादहत्य, वाणी प्रकािन, नयी दिल्ली, पषृ ्ठ सखं ्या-20 2. वाल्मीदक ओमप्रकाि, जूठन, राधाकृ ष्ट्ण प्रकािन, नयी दिल्ली, पषृ ्ठ सखं ्या-82 3. सपं ािक-संजय सहाय. हसं , अंक-4, नवम्बर 2019, पषृ ्ठ संख्या-5 4. बेचनै श्योराज दसहं , मरे ी दप्रय कहादनया,ँ राजपाल एंड सन्ज प्रकािन, दिल्ली, पषृ ्ठ संख्या-108 5. वही पषृ ्ठ संख्या-109 6. वही पषृ ्ठ 7. वही पषृ ्ठ 8. वही पषृ ्ठ सखं ्या-112 9. वही पषृ ्ठ सखं ्या 109-110 10. संपािक-ऋदत्वक राय, लमही, अंक-3, जनवरी-माचष 2020, पषृ ्ठ सखं ्या-284 11. बेचनै श्योराज दसहं , मेरी दप्रय कहादनया,ँ राजपाल एंड सन्ज प्रकािन, दिल्ली, पषृ ्ठ सखं ्या-112 12. वही पषृ ्ठ सखं ्या 13. संपािक-श्योराज दसहं बेचनै , सामादजक न्याय और िदलि सादहत्य,वाणी प्रकािन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्य-105 14. सपं ािक-संजीव कमार, आलोचना, अंक-66, जलाई-दसिम्बर 202, पषृ ्ठ संख्या-38 वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अंक) / 240
241 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 जैनेन्र की कहावनयों में स्त्री, ‘जान्ह्वी’ के विशेष सन्िभा में कमकम पाण्डेय िोधाथी, पीएच. डी. (दहन्िी) जवाहरलाल नेहरू दवश्वदवद्यालय नई दिल्ली – 110067 मोबाइल न.ं – 9868325939 ईमले : [email protected] साराशं आधवु नक काल मंे कहावनयों के माध्यम से समाि की कई मखु ्य समस्याओं को पाठकों के सामने प्रस्तुत करने का कायव कहानीकारों ने वकया ह।ै िनै ेन्द्र कु मार को प्रेमिन्दयरु ्गीन कहानीकारों में प्रमुख स्थान प्राप्त ह।ै िनै ेन्द्र कु मार मनोिैज्ञावनक कहानीकार के रूप मंे प्रवसद्ध ह।ंै इनकी कहावनयों के पात्रों में िाह्य की अपेक्षा आतं ररक तथा मनोिजै ्ञावनक द्वन्द्व दखे ा िा सकता ह।ै इनके पात्र समाि की रूवढ़िादी परम्प्पराओं के विरूद्ध कोई िाह्य विद्रोह या क्ावन्त नहीं करत।े िे अपनी मनोिैज्ञावनक मनःवस्थवत के माध्यम से पाठकों के वििारों को प्रभावित करते ह।ंै िैनेन्द्र की कहावनयों में स्त्री पात्रों को प्रमखु ता वमली ह।ै इनकी अवधकतर कहावनयों के नाम स्त्री पात्रों के नाम पर रखे र्गए ह।ंै िनै ने ्द्र कु मार की कहावनयों में ‘िान्वी’ का मुख्य स्थान ह।ै इसकी नावयका समाि की दवकयानुसी परम्प्पराओं को न मानते हएु अपनी विन्दर्गी अपने वहसाि से िीती ह।ै ये स्त्री पात्र भले ही समाि मंे क्ावन्तकारी के रूप में सामने न आए हों परन्तु अपनी मनोिजै ्ञावनक तथा आंतररक मनःवस्थवत के माध्यम से पाठकों पर विशेष प्रभाि डालती हंै तथा समाि में पररितनव का एक नया आयाम खिा करती ह।ंै बीज शब्ि रूवढ़िादी, परम्प्परा, मनोिैज्ञावनक, मनःवस्थवत, दाशववनकता, िैिाररकता, नैवतक-मयावदा, तादात्म्प्य, सम्प्िद्ध, यौन-नवै तकता। शोध आलेख जैनेन्र ने कहानी को वचै ाररकिा एवं िािदष नकिा का एक नया धरािल प्रिान दकया। दहन्िी कहानी को नई चिे ना से लसै करिे हुए उन्होंने कथावस्ि को सामादजक धरािल से ऊपर उठाकर व्यदक्तगि एवं मनोवैज्ञादनक भूदम पर प्रदिदष्ठि दकया। उन्होंने प्रमे चन्ि की परम्परा में जीिे हुए भी अपने लखे न की एक पि व्यदक्तवािी परम्परा स्थादपि की। पहली बार दहन्िी कहानी में मनष्ट्य के व्यदक्तत्व को प्रदिदष्ठि करिे हएु व्यदक्त के अदस्ित्व के प्रश्न को जीवन के मलू भिू प्रश्न और उनकी साथकष िा से सम्बद्ध कर िखे ा गया ह।ै मनोदवज्ञान की सहायिा से जैनेन्र मनष्ट्य के आिं ररक जगि मंे प्रविे कर उसकी थाह लने े लगिे ह।ंै जनै ने ्र की कहादनयों मंे स्त्री मख्य दवर्य बनकर आिी ह।ै इन्होंने अपनी नादयका को घर एवं पदिव्रत्य की चहारिीवारी से मक्त कर नारी के रूप में दचदिि दकया है और उनकी यह मदक्त नदै िक-मयाषिाओ,ं दविरे ्कर यौन- नदै िकिा के अदिक्रमण के सन्िभष में िखे ने को दमलिी ह।ै ‘जान्वी’, ‘रत्नप्रभा’, ‘प्रदिमा’ आदि इनकी प्रमख नारी के दन्रि कहादनयाँ ह।ंै जनै ेन्र ने अपनी कहादनयों में स्त्री के कई रूपों को दिखाया ह।ै पत्नी, प्रदे मका, बेटी परन्ि हर रूप मंे ही नारी की वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 241
242 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 दकस प्रकार उपेक्षा की जािी ह,ै उसे िबाया जािा ह,ै उसके सम्मान को कचला जािा है इसका यथाथष दचिण दकया ह।ै नारी को ही नारी के दवरोध में दिखाया गया ह।ै इन्होंने अपनी कहादनयों ‘दिवणे ी’ ‘एकराि’ आदि के दवर्य से अलग हटकर एक नए सन्िभष मंे नारी के चररि को ििाषया ह।ै जान्वी अपनी इच्छानसार अपनी दजन्िगी जीना चाहिी ह।ै वह समाज के बन्धनों में बधं कर अपनी दजन्िगी को खत्म नहीं करना चाहिी। वह दजससे प्रेम करिी है उसी के प्रदि समदपिष ह,ै उसके अलावा वह दकसी और से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिी, वह अपने प्रेमी की याि मंे ही परू ा जीवन गजारना चाहिी ह।ै उसका प्रमे ी दकसी कारण या समाज की िदकयानूस बािों, बन्धनों की वजह से उससे दववाह नहीं कर पािा दफर भी जान्वी को एक आिा की दकरण दिखाई िेिी ह।ै उसकी आिा दनम्न पदं क्तयों में दिखाई ििे ी है – ‘िो नैना मि खाइयो दपउ दमलन की आस’। कौओं के साथ उसका अपनापा ििािष ा है दक वह सकं ीणष दवचार वाले मनष्ट्यों के साथ रहने से अच्छा उस पक्षी के साथ रहना पसन्ि करिी है दजसे समाज ने अिभ और मखू ष माना ह।ै लदे कन जान्वी का रोज-रोज कौओं को दखलाना उन रूदढ़बद्ध मान्यिाओं और प्रेम के िश्मन समाज की मान्यिाओं का श्राद्ध करने की ओर ईिारा करिा ह।ै कौओं को खाना एक दविरे ् पक्ष मंे दखलाया जािा है और जान्वी है दक हर रोज दखलािी ह।ै वह के वल प्रेम के िश्मन समाज से ही नहीं धादमषक मान्यिाओं के भी परे जाकर अपना दवरोह दिखािी ह।ै वह उन कौओं के साथ अपना िािात्म्य िेखिी थी, उनके साथ वह भी उड़ जाना चाहिी ह।ै उड़िे हुए कौओं को िखे कर वह इस समाज िथा संसार से जसै े कहीं िरू चली जािी ह,ै परन्ि जल्िी ही उसे सच्चाई का आभास हो जािा है और वह दफर से वहीं खड़ी हईु अपने को पािी ह।ै इस कहानी का पाि ‘मं’ै कहिा है – “उसके िेखने मंे सचमच कछ दिखिा ही था, यह मैं नहीं कह सकिा। पर, कछ ही पल के अनन्िर वह मानो विषमान के प्रदि, वास्िदवकिा के प्रदि चेिन हो आयी।”(1) प्रेम करना समाज में जैसे गनाह माना जािा ह।ै जब जान्वी अपनी सच्चाई पि के माध्यम से िजनन्िन को बिा िेिी है िो उसकी चाची कहिी है – “वह लड़की आिनाई मंे फँ सी थी। पढ़ी-दलखी सब एक जाि की होिी ह।ंै ”(2) ऐसा लगिा है जसै े जान्वी ने प्रेम नहीं कोई अपराध कर दिया हो। यह के वल उस समय की सोच नहीं है बदल्क आज भी जब हमारा समाज इिना आगे दनकल चका है, दिदक्षि हो चका है दफर भी उसकी मानदसकिा में कोई ज्यािा अन्िर दिखाई नहीं ििे ा। आज भी अगर कोई लड़की प्रमे करिी है िो समाज उसे िरह-िरह के उलाहने िेिा है, उसे कलक्षणी, कलंदकनी आदि नामों से सम्बोदधि दकया जािा ह।ै जान्वी मंे जसै ी चाची है वसै ी स्त्री आज भी हमारे समाज मंे दमल जायगंे ी। अपने पािों के सम्बन्ध मंे जनै ेन्र कहिे हैं – “मरे ा पाि पररदस्थदियों को धक्का िके र िोड़ने मंे उिना उद्यि मालूम नहीं होिा। पररदस्थदि में दमसदमिािा ह,ै लड़िा-झगड़िा है िो ऐसा मालूम होिा है दक वह अपने साथ ज्यािा लड़िा- झगड़िा है – बाहर के साथ कम लड़िा है – चेिना पररदस्थदियों का उपयोग करके अपने को दवकदसि कर सकिी ह।ै पररदस्थदि को टक्कर िेकर उसमंे छेि या िरार करके चिे ना दवकास पािी ह,ै ऐसा मैं नहीं मानिा।”(3) परन्ि जनै ेन्र की ‘जान्वी’ अपनी पररदस्थदि मंे दमसदमिािी नही है बदल्क अपनी सच्चाई दनःसकं ोच बिािी ह।ै वह एक पि अपने भावी पदि िजनन्िन को दलखिी है – “आप जब दववाह के दलए यहाँ पहचुँ ंेगे िो मझे प्रस्िि भी पाएगँ ।े लेदकन मरे े दचत्त की हालि इस समय ठीक नहीं है और दववाह जैसे धादमषक अनष्ठान की पाििा मझमें नहीं ह।ै एक अनगिा आपको दववाह द्वारा दमलनी चादहए वह जीवन संदगनी भी हो। वह मंै हूँ या हो सकिी हूँ इसमंे मझे बहिु सन्िेह ह।ै ”(4) वह दजस िरह वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयकं ्त अकं ) / 242
243 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 सत्य कहने का साहस दिखािी है ऐसा चररि जैनने ्र ने बहिु कम कहादनयों में दिखाया ह।ै जान्वी के दनणयष को सफल बनाने मंे िजनन्िन की भी महत्त्वपूणष भदू मका ह।ै क्योंदक वह कोई उपभोग की वस्ि नहीं खरीि रहा था बदल्क उसे जीवन संदगनी चादहए। इससे स्पि होिा है दक िजनन्िन ररश्िों की अहदमयि को भली प्रकार समझिा ह।ै यदि िजनन्िन दववाह के प्रस्िाव को स्वीकार कर लिे ा िो ‘जान्वी’ भी ‘घँघू रु’, ‘एकराि’ आदि कहादनयों की नादयकाओं की िरह ही होिी दजनका मन प्रमे ी के प्रदि स्नहे रखिा है परन्ि दजन्हें सामादजक िबाव ने िन को िथाकदथि पदि को िेने के दलए दववि कर दिया। जनै ने ्र ने अपनी कहानी ‘जान्वी’ में आधदनक नारी का दचिण दकया ह।ै जो अपने मूल्यों पर जीवन जीना चाहिी है िथा इस समाज की झूठी मान्यिाओं से लड़िे हुए अपने जीवन को समाज की बदल नहीं चढ़ने ििे ी। जान्वी के पि से िजनन्िन में आए बिलाव पर मधरेि दलखिे हंै – “जान्वी के दलखे उस पि को अपने से अलग नहीं करिा। प्रमे अपने प्रभाव में कै सा संक्रामक होिा है इसका अनमान इसी से लगाया जा सकिा है दक बहिु ठाठ से रहने वाले िजनन्िन में एक चमत्कारी पररविषन होिा ह।ै ”(5) िजनन्िन जान्वी की सहजिा िथा सच्चाई से उससे प्रेम करने लगिा ह।ै उसका प्रेम माि जान्वी के िरीर को पाना नही ह,ै वह जानिा है दक उसके मन में दकसी और के दलए प्रमे ह,ै वह िािी से इन्कार कर िेिा ह।ै जान्वी के सच कहने के साहस िथा सािगी ने िजनन्िन को भी बिल दिया। जान्वी जैसी पाि दहन्िी कहानी में पहले नहीं हुई। मधरेि दलखिे हैं – “जान्वी अपने दप्रय की अन्िहीन प्रिीक्षा मंे िाश्वि दवरह का प्रिीक बनकर खड़ी ह।ै अपनी दस्थदियों से न िो वह असंिि दिखिी है और न ही सकं े ि से व्यदं जि पाररवाररक, सामादजक अवरोधों के प्रदि उसके मन में कहीं दवरोह की चेिना ह।ै वह अपनी सम्पूणष दनष्ठा के साथ प्रमे के दलए समदपिष एक ऐसी नादयका है जो इससे पहले दहन्िी कहानी में दिखाई नहीं िेिी।”(6) जैनेन्र ने दजस िरह से जान्वी का चररि पाठकों के सामने रखा है वह अपने-आप मंे एक दवरोह है और ऐसे लोगों को जान्वी जवाब िेिी है जो स्त्री को अपना गलाम समझिे ह।ैं ऐसा नहीं है दक जान्वी को यािनाएँ नहीं उठानी पड़ी होंगी लदे कन उसके साहस ने स्त्री को एक नया मागषििनष दिया जो स्त्री के संकोच को खल कर व्यक्त करने के दलए प्ररे णा ििे ी ह।ै वह दजस िरह दबना समाज से डरे अपने प्रेम की सच्चाई अपने भावी पदि को बिािी है वह इस समाज के मानिण्डों के प्रदि दवरोह ही ह।ै आज के समय में जब दक प्रेम करने पर ऑनर दकदलंग िथा खाप पचं ायि द्वारा सजा सनाई जािी ह।ै ऐसी घटनाएँ हर रोज आिी ह,ंै ऐसे मंे उस समय के समाज मंे दजसमंे इिना दवकास भी नहीं हुआ था जान्वी अपने मानिण्डों पर जीिी ह।ै वह समाज द्वारा थोपे गए बन्धनों मंे बंधने से इन्कार करने का साहस दिखािी ह।ै जैनने ्र ने जान्वी के माध्यम से आधदनक नारी का चररि प्रस्िि दकया ह।ै परन्ि उस समय जो पररदस्थदियाँ थीं उससे हमारा विमष ान समाज बहिु आगे नहीं दनकल पाया ह।ै इस दृदि से जनै ने ्र की कहानी आज भी प्रासंदगक ह।ै सन्िभा ग्रन्थ- 1. जैनने ्र रचनावली, सपं ािक – डॉ. दनमषला जनै , भारिीय ज्ञानपीठ प्रकािन, खण्ड-4, पेज नं. – 496 2. वही, पजे नं. – 499 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 243
244 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 3. कहानी : अनभव और दिल्प, जैनेन्र कमार, पवू ोिय प्रकािन, नई दिल्ली, पेज नं. – 46-47 4. जैनने ्र रचनावली, डॉ. दनमलष ा जनै , भारिीय ज्ञानपीठ, खण्ड-4, पजे न.ं – 499 5. कहानीकार जैनेन्र कमार, मधरेि, समान्िर प्रकािन, पजे नं. – 89 6. वही, पजे नं. - 87 वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अकं ) / 244
245 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 छायािािी कविताओं मंे मातभृ वू म का व त्रण डॉ. जावहिल िीिान पोस्ट डॉक्टरल फे लो भारतीय सामाविक विज्ञान अनसु ांधान पररषद नई वदल्ली सारांश आधवु नक वहदं ी सावहत्य का स्िवणमव काल छायािादी काव्य में ही दृवष्टर्गोिर होता ह।ै छायािादी काव्य सावहत्य का िन्म उथल-पुथल भरी पररवस्थवतयों में हुआ था । इस धारा को िन्म के समय से ही पूणव विकास काल तक अपनी पहिान िनाने हते ु ििे-ििे झंझािातों का सामना करना पिा। ििवक छायािादी काव्य मंे राष्रीय िार्गरण, विश्व िंधतु ्ि, उदात्त भािनाओं की िसै ी सदुं र संभािना है िसै े वकसी भी काव्यधारा के सावहत्य में दलु भव ह।ै छायािादी काव्य र्गांधी युर्ग की वमट्टी में अकं ु ररत पवु ष्पत पल्लवित हआु । र्गाधं ी युर्ग राष्रीय िेतना का उत्कषव काल था। भारत के स्िवणवम अतीत का र्गौरि र्गान, भारत के ितमव ान दयनीय दशा का वित्रांकन एिं भारत के उज्ििल भविष्य का रूपाकं न; इन तीनों भािों को एक सतू ्र में िाधं ने िाला कालक्म है छायािाद। इस प्रकार स्पष्ट है वक छायािादी काव्य में राष्रीय िते ना की समुवित अवभव्यवि हईु ह।ै बीज शब्िः राष्रीय िेतना, मातभृ वू म, पुनिारव ्गरण, स्िततं ्रता, विश्व िधं ुत्ि शोध आलेख जनदन जन्मभदू म स्वगोदिदप गररयसी प्राचीन काल से लेकर आज िक के इदिहास को िेखा जाए िो व्यदक्त अपनी मािभृ दू म के प्रदि पणू ष दनष्ठावान और आत्म बदलिान एवं समपणष की भावना से प्ररे रि होिा दिखाई िेिा ह।ै यही आत्मसमपषण एवं बदलिान की भावना ही उसे अपने अदस्ित्व के प्रदि जागिृ करिी ह।ै आधदनक दहिं ी सादहत्य का स्वदणषम काल छायावािी काव्य मंे ही दृदिगोचर होिा है छायावािी काव्य सादहत्य का जन्म उथल-पथल भरी पररदस्थदियों मंे हुआ था । इस धारा को जन्म के समय से ही पूणष दवकास काल िक अपनी पहचान बनाने हिे बड़े-बड़े झझं ाबािों का सामना करना पड़ा। एक िरफ िो दविेिी साम्राज्य की क्रोधदृदि का दिकार बनना पड़ा िो िसू री िरफ से दहिं ी सादहत्य के िथाकदथि मठाधीि और महान आलोचक एवं दवद्वानों के दवद्वेर्-भावना और पक्षपाि का दिकार होना पड़ा । जबदक छायावािी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, दवश्व बंधत्व, उिात्त भावनाओं की जसै ी सिं र संभावना है वैसे दकसी भी काव्यधारा के सादहत्य में िलभष ह।ै छायावाि दहिं ी सादहत्य के दक वह काव्यधारा है जो लगभग सन 1918 से 1936 िक की प्रमख यगवाणी रही। जयिंकर प्रसाि, सयू षकांि दिपाठी दनराला, सदमिानिं न पंि, महािवे ी वमाष इस काव्य धारा के प्रदिदनदध कदव माने जािे ह।ैं छायावाि नामकरण का श्रये मकटधर पांडेय को जािा ह।ै इन्होंने ‘श्री िारिा’ पदिका मंे एक दनबधं प्रकादिि दकया था दजस दनबंध मंे उन्होंने छायावाि िब्ि का प्रथम प्रयोग दकया था। ऐदिहादसक दृदि से दजसे गांधी यग कहा जािा है सादहदत्यक दृदि से उसे ही छायावािी यग की सजं ्ञा िी जािी ह।ै िात्पयष यह है दक छायावािी काव्य गाधं ी यग की दमट्टी मंे अकं ररि पदष्ट्पि पल्लदवि हआु । गाधं ी यग राष्ट्रीय चिे ना का उत्कर्ष काल था। उस समय भारिीय जनमानस मंे राष्ट्रप्रेम का समर दहलोरंे मार रहा था। छायावािी काव्य से यह आिा करना स्वाभादवक ही था दक वह अपने यग का प्रदिदनदधत्व करिे हुए राष्ट्रीय चेिना की पणू ष अदभव्यदक्त करंे । वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अकं ) / 245
246 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 छायावािी काव्य में राष्ट्रीय चेिना की अदभव्यदक्त के मख्य िीन भाव भदू मयाँ ह-ंै भारि के स्वदणषम अिीि का गौरव गान, भारि के विषमान ियनीय ििा का दचिांकन एवं भारि के उज्जवल भदवष्ट्य का रूपाकं न। इन िीनों भावों को एक सिू मंे बांधने वाला कालक्रम ही नहीं मनोवैज्ञादनक क्रम भी है छायावाि। ििादब्ियों से गलामी के बधं न मंे जकड़े हुए भारिवादसयों मंे व्याप्त हीनिा की भावना को िरू कर उसमंे आत्म गौरव और आत्मदवश्वास का सचं ार करने के दलए भारि के स्वदणमष अिीि का गौरव-गान आवश्यक था । इसे अपनी पूणषिा िक पहुचं ाने के दलए मािभृ ूदम वंिना, राष्ट्रीय एवं जागरण सिं ेि के गीिों को भी जोड़ा गया ह,ै महाकदव दनराला ‘खंडहर के प्रदि’ नामक कदविा में भारि के महामानवों का स्मरण दिलािे हएु कहिे ह-ंै आिष भारि! जनक हूँ मंै जदै मदन पिंजदल व्यास ऋदर्यों का मेरी ही गोि पर सहसा दवनोि कर िेरा ही बढ़ाया मान राम-कृ ष्ट्ण भीमाजनष िेि मंे नर िवे ों ने । छायावािी कदवयों की राष्ट्रीय गीिों में राष्ट्रप्रेम और मािभृ ूदम विं ना की सीधी और सहज अदभव्यदक्त हुई ह।ै प्रसाि के ‘दहमादर िगं श्रंगृ से आंगन में उसे प्रथम दकरणों का िे उपहार’, दनराला के ‘भारदि ििे जय भारि िेि’ िथा ‘भारि मािा ग्रामवादसनी’ आदि गीिों को प्रमाण स्वरूप प्रस्िि दकया जा सकिा ह।ै मािभृ दू म की विं ना करिे हुए प्रसाि जी गा उठिे ह-ैं अरुण यह मधमय िेि हमारा। जहां पहुचं अनजान दक्षदिज को दमलिा है एक सहारा । वसिवे कटंबकम का आििष पिं जी की इन पदं क्तयों में रिव्य ह-ै क्यों न एक हो मानव मानव सभी परस्पर, मानविा का दनमाणष करें जग में लोकोत्तर। इस प्रकार स्पि है दक छायावािी काव्य मंे राष्ट्रीय चेिना की समदचि अदभव्यदक्त हुई ह।ै आजािी की लड़ाई के िौर के सादहत्य का प्रमख भाव िेिप्रेम और राष्ट्रीयिा की भावना ही थी । िेि प्रेम का सीधा संबंध मािभृ दू म के प्रदि अनराग और िादयत्व बोध से होिा है । दनराला की कदविाएं मािभृ दू म के प्रदि अनराग भाव से भरी पड़ी है । कभी अपनी वाणी को मािभृ दू म की वेिना से गौरवादन्वि करिे हैं और हर कं ठ से जन्मभूदम की पकार सनना चाहिा है । दजससे चारों दििाओं में जन्मभदू म की विं ना की लहरंे उठिी महसूस हों- बिं ू पि संिर िव छंि नवल स्वर गौरव । जननी, जनक- जननी- जननी, मािभृ ूदम भार्े। जागो नव अंबर भर, (गीदिका) दवििे ी आक्रांिा उसे पि िदलि जन्मभूदम के चरणों मंे जीवन समदपषि करके उसके आसं ओं को पोछ िेने की कामना कदव करिा ह-ै नर जीवन के स्वाथष सकल बली हो िरे े चरणों पर माँ मेरे श्रम-सदं चि सब फल वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 246
247 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 ..................................... दृग जल से पा बल, बदल कर िँू जनदन, जन्म-श्रम-संदचि फल । बदलिान चाहिी है जन्मभूदम खेलोगे जान ले हथले ी पर (महाराज दिवाजी का पि) अपना पूरा जीवन, परू ी िदक्त िेि के दलए लगा िने े की इच्छा। कदठन पररदस्थदियों को झले सकने, प्राण दनछावर कर िेने की कामना ही जसै े कदव के जीवन का लक्ष्य ह।ै वह ईश्वर से प्राथषना करिा है िो भी अपने दलए नहीं भारि की स्विंििा के दलए सरस्विी की वंिना करिे हुए कहिा है दक ििे को वरिान िो दक हर िरफ स्विंििा का अमिृ मिं गंजायमान होिा सनाई िे । भारि का नवदनमाणष करो दजससे हर िरह के अज्ञान और अधं कार के बंधन नि हो जाए, इसके जीवन में नई गदि नया कं ठ और नयी मदक्त का अवसर भर िो - वर िे वीणा वादिनी वर िे । दप्रय स्वििं - रव अमिृ -मंि नव भारि में भर िे। छायावािी काव्य में यह राष्ट्रीयिा मख्यिः सांस्कृ दिक धरािल पर प्रदिदष्ठि हईु है । कदववर पंि ने इस ओर सकं े ि करिे हएु दलखा है “छायावािी यग मंे दहन्िी काव्य भारिीय पनजाषगरण की चिे ना िथा लोक जागरण के आवान के साथ सांस्कृ दिक परम्पराओं को भी यगबोध के अनरूप नवीन वाणी िे सका है और उसका सजृ न अपना अलग महत्व रखिा ह।ै ” सासं ्कृ दिक जागरण की अदभव्यदक्त प्रसाि की ‘प्रथम प्रभाि ‘ ‘अब जागो जीवन के प्रभाि ‘ ‘बीिी दवभावरी जाग री ‘आदि कदविाओं मंे है । इसकी अदभव्यदक्त हम पिं , दनराला और महािवे ी वमाष की ‘जाग िझको िरू जाना’ जैसी कदविाएं इस दृदि से दवचारणीय ह।ै लहर में सकं दलि प्रसाि की कदविा ‘अब जागो जीवन के प्रभाि’ पर दवचार करें िो प्रसाि की राष्ट्रीय चेिना स्वच्छंििावाि की मूल चेिना से अदभन्न जान पड़ेगी- अब जागो जीवन के प्रभाि वसधा पर ओस बने दबखरे । दहमकन आसं ू जो क्षोभ भरे उर्ा बटोरिी अरुण गाि।। कदव जयिंकर प्रसाि उपयषक्त पदं क्त के माध्यम से ििे वादसयों को जगाने की बाि कर रहे ह।ंै वह ििे वादसयों को राष्ट्रीय आिं ोलन मंे िादमल होने को प्रेररि कर रहे ह।ैं वह कह रहे हंै दक दजस प्रकार सयू ष राि के अंधकार को समाप्त करिा है , उसी प्रकार िम भी जागो और पराधीनिा रूपी राि को समाप्त करो। अभी िक के दवश्लेर्ण पर ध्यान िंे िो लगेगा दक हम राष्ट्रीय चिे ना को छायावाि में एक सांस्कृ दिक चिे ना के रूप मंे ही िेख रहे थ।े प्रसाि का मािभृ ूदम प्रमे स्वििे के सौंियष के अछू िे दचिों के रूपों में व्यक्त हुआ ह।ै संपणू ष भारि उनके दलए सौंियष का भंडार ह।ै भारि के प्राकृ दिक सौंियष पर मनध होकर कदव ने भाव दवभोर हो ििे के सौंियष का दचिण दकया ह-ै अरुण यह मधमय िेि हमारा । जहां पहुचं अनजान दक्षदिज को दमलिा एक सहारा।। कदव के प्यारे िेि मंे जब जब दविेिी िदक्त का आदधपत्य या आक्रमण हआु , िब िब कदव की लेखनी दृढ़ होकर लोगों के जनमानस िक पणू ष संग्राम मंे बलवीर बनकर िादमल होने के दलए पकारिी रही ।ऐसी ही पकार दसकं िर के आक्रमण के उपरांि प्रणय गीि मंे िेखने को दमलिी ह-ै दहमादर िगं श्रंगृ से प्रबद्ध िद्ध भारिी वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 247
248 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 स्वयंप्रभा समज्ज्वला स्विंििा पकारिी ।। प्रणय गीि में िेिवादसयों को िि का डटकर सामना करने की प्ररे णा िी गई ह।ै भारि के अमर वीरों िथा साहसी यवाओं का आवान दकया गया है दक वह ििे मंे घस आए दवििे ी ििओं का वीरिापूवकष सामना करंे। कदव जयिंकर ने ‘ बीिी दवभावरी जाग री’ के माध्यम से भी लोगों को जागृि करने के दलए प्ररे रि दकया है- बीिी दवभावरी जाग री अबं र पनघट में डबो रही िारा घट उर्ा नागरी।। कदव इन पदं क्तयों में भी जनमानस को स्वििं िा सगं ्राम में िादमल होने को प्रेररि कर रहा ह।ै कदव का कहना है दक अब गलामी रूपी राि को छटने का समय आ गया है । अब आजािी रूपी उर्ा का फै लना ह।ै अिः सभी ििे वासी एक साथ दमलकर दविेदियों का सामना कर उन्हंे अपने ििे से भगा िें और सूयष की िरह अपने मािभृ दू म पर फै ल जाए। छायावािी कदवयों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने मािभृ दू म के प्रदि प्रेम को अदभव्यक्त दकया ह।ै माखनलाल चिविे ी अपनी कदविा पष्ट्प की अदभलार्ा में दलखिे ह-ंै चाह नहीं, मैं सरबाला के गहनों मंे गूंथा जाऊं , चाह नहीं, प्रमे ी माला में दबंध प्यारी को ललचाऊँ , चाह नहीं, सम्राटों के िव पर हे हरर,डाला जाऊं , चाह नहीं, िवे ों के दसर पर चढू,भानय पर इठलाऊं मझे िोड़ लेना बनमाली, उस पथ में िने ा िम फें क मािभृ ूदम पर िीि चढ़ाने, दजस पथ जावंे वीर अनेक । आचायष िक्ल ने कदविा क्या है नामक दनबंध में दलखा है दक जो अपने ििे के वन, निी पवषिों से प्रमे नहीं करिे वह हजार बार िेि प्रमे , िेि प्रेम रटिे रहे उनकी िेि भदक्त अवास्िदवक ही होिी है । भारि के प्राकृ दिक भूगोल के भीिर भारि मािा की कल्पना वास्िव में नवजागरण के सादहत्य की दवदिि उपलदब्ध ह।ै भारि का ऐसा ही दचि खींचिे हएु उसके बौदद्धक, प्राकृ दिक , सासं ्कृ दिक उत्थान, समदृ द्ध और दवजय की कामना दनराला करिे हैं । महाकदव दनराला ने यगीन आवश्यकिा को दृदिगि रखकर राष्ट्रीयिा को संस्कृ दि के स्वरूप में ढ़ालकर दचदिि दकया । भारिी वंिना, यमना के प्रदि, मािवृ न्िना, जागो दफर एक बार, दिल्ली, खण्डहर के प्रदि, छिपदि दिवाजी का पि, राम की िदक्त पूजा, िलसीिास आदि में राष्ट्रीयिा का भव्य स्वरूप दृदिगोचर होिा है । भारि भूदम को मािा मानकर स्िदि करिे हएु दलखिे ह-ंै भारदि, जय दवजय करे कनक-िस्य-कमल धरे लंका पि-िल-िि िल गदजषिोदमष सागर जल धोिा िदच चरण यगल स्िव कर बहु अथष भरे ।1 भारि की गररमामय ससं ्कृ दि की उपके ्षा एवं दिरस्कार करके पाश्चात्य सभ्यिा की चकाचंैध के मोहजाल में आत्म दवस्मिृ हो अंधाधधं िौड़िी भारिीय पीढ़ी को चिे ावनी ििे े हुए उसे सवष संहारक बिाया ह-ै वर्ष 7, अकं 78-80, अक्टूबर-दिसबं र 2021 (सयंक्त अकं ) / 248
249 ‘जनकृ वत’ अंिरराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविरे ्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 िम ने मख फे र दलया, सख की िषृ्ट्णा से अपनाया है सरल, ले बसे नव छाया मंे नव स्वप्न ले जगे भूले वे मक्तगान, सामगान, सधापान । महाप्राण दनराला की यग चिे ना से अनप्रादणि कदविा में भारि की राजनैदिक, आदथकष िथा सांस्कृ दिक पररदस्थदियों को आत्मसाि करने वाली दमली है । ‘िलसीिास’ मंे इदिहास पर नयी दृदि डालिे हएु कदव ने कससं ्कारों के विीभूि हो पिन के कगार पर खड़ी भारिीय ससं ्कृ दि की िलना को ित्कालीन दस्थदि से करके भारि के सांस्कृ दिक वभै व के सूयष के अस्ि होने का दचिण कर सावधान दकया- भारि के नभ का प्रभा पूयष िीिलच्छाय सासं ्कृ दिक सूयष अस्िदमि आज के - िमस्िूयष दिड़मंडल । दहिं ी सादहत्य मंे छायावािी कदविा के उद्भव के सौ वर्ों (1918-2018) बाि भी छायावािी काव्य आज भी इिर काव्य दवधाओं के मध्य अपनी कलात्मक और अलंकृ ि भावादभव्यदक्त के दलए कालजयी काव्य सादहत्य के रूप में दवद्यमान ह।ै छायावािी काव्य में िदक्त के आवाहन का एक और रूप इस यग के जागरण गीिों में दमलिा ह।ै पनजाषगरण चेिना की बड़ी सकू्ष्म और प्रीदिकर अदभव्यदक्त इन गीिों मंे हईु ह।ै मनष्ट्य की और प्रकृ दि की भी सप्त चिे ना को जगाने का उपक्रम यहाँ कदव ने सामान्यिरू प्रिदमि और कभी-कभी ओज की मरा में दकया ह।ै छायावािी काव्य में एक बड़ी सखं ्या इन प्रभािी और जागरण गीिों की है, दजनमंे एक और िदक्त और चैिन्य का आवाहन है और एक िसू रे िथा समकालीन संिभष में वे राष्ट्रीय स्वाधीनिा के सघं र्ष से जड़े ह।ैं ‘प्रथम प्रभाि, आँखों से अलख जगाने को, अब जागो जीवन के प्रभाि!, बीिी दवभावरी जाग री!’ (प्रसाि), ‘जागो दफर एक बार, दप्रय, मदरि दृग खोलो!, जागा दििा ज्ञान, जागो जीवन धदनके !’ (दनराला), ‘जाग बेसध जाग, जाग िझको िरू जाना!‘ (महािवे ी)’, ‘प्रथम रदश्म, ज्योदि भारि’ (सदमिानंिन पंि), जसै ी अनके जागरण की कदविाएँ स्मरण हो आिी ह।ैं इनमंे से कछ गीिों मंे व्यदक्तगि प्रणय और राष्ट्र-जागरण के भाव एक-िसू रे में घल-दमल गए ह।ंै मानवीय प्रणय और ििे -प्रमे का सदं श्लि रूप वस्ििरू छायावािी काव्य से पहले ही श्रीधर पाठक, नरेि दिपाठी आदि स्वच्छंििावािी कदवयों की रचनाओं मंे दमलने लगिा ह,ै रामनरेि दिपाठी के खडं काव्य ‘पदथक‘ और ‘स्वप्न‘ का दवधान मख्यिरू इसी वस्ि पर दवकदसि हआु ह।ै मख्य बाि यह है दक छायावािी काव्य के इस बहुि बड़े अिं में पनजागष रण की चेिना सीधे प्रकट होिी ह।ै गीिों के अदिररक्त लंबी कदविाओं के खंडों मंे जागरण का यह स्वर गँूजिा ह।ै ‘आसँ ू‘ के परविी दहस्से में एक परू े का परू ा खडं प्रािरूकालीन दबंबों के बीच जागरण- बेला का दचिण करिा ह-ै वह मेरे प्रमे दवहसं िे जागो, मरे े मधवन मंे दफर मधर भावनाओं का कलरव हो इस जीवन म!ें वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयकं ्त अंक) / 249
250 ‘जनकृ वत’ अिं रराष्ट्रीय मादसक पदिका (दविेर्ज्ञ समीदक्षि), ISSN: 2454-2725 मरे ी आहों में जागो सदस्मि मंे सोने वाले! छायावािी कदवयों ने परिंि यग मंे आखँ े खोली थीं। उस समय भारि में स्वाधीनिावािी आिं ोलन अपने चरमोत्कर्ष पर थ।े वस्ििः छायावाि का जन्म ही स्वाधीनिा की चेिना से हुआ। दिदटि सरकार ने राष्ट्रीय आिं ोलनों को कचलने के दलए रोलटे ऐक्ट, जदलयाँवाला बाग हत्याकांड, साइमन कमीिन, भगि दसहं को फासँ ी जसै े वीभत्स कायों को अजं ाम दिया। पररणामस्वरूप भारिीय जनिा मंे अंग्रजे सरकार के प्रदि आक्रोि और बढ़िा गया। समाज का प्रत्येक वगष आजािी के दलए बचे नै हो उठा। यह बेचैनी छायावािी काव्य में भी सवषि िखे ी जा सकिी ह।ै छायावािी कदवयों पर अपने विषमान से पलायन का आरोप भी लगाया जािा है जो किादप उदचि नहीं ह।ै प्रसाि, पंि, दनराला आदि ने भारिीय जनमानस मंे मािभृ ूदम-प्रमे , राष्ट्रीयिा, आत्म-गौरव, बदलिान एवं स्वाधीनिा की भावना को जगाने का साहसी कायष दकया। इन कदवयों मािभृ ूदम के प्रदि प्रेम के स्वर को अद्योपरांि सविष िेखा जा जकिा ह।ै छायावादि कदवयों ने अपने विषमान से आँखे मिूँ कर अिीि के स्वदणषम आलोक मंे ऊध्वषगमन नहीं दकया। उनके ऐदिहादसक िथा पौरादणक प्रबंध काव्यों का भाव-बोध भी िियगीन समाज की यथाथषपरक भूदम पर आधाररि ह।ै ‘राम की िदक्त पूजा’ एवं ‘िलसीिास’ नामक लम्बी कदविाओं मंे भारिीय स्वाधीनिा आंिोलन की अद्भि झलक ह।ै छायावािी कदवयों में दनराला का व्यदक्तत्व सवाषदधक क्रांदिकारी ह,ै उन्होंने बािल के माध्यम से दवप्लव कर आवान कर िीन-हीन िोदर्ि जनिा में क्रादं ि की भावना का संचार दकया - जीणष बाहु, है िीणष िरीर, िझको बलािा कृ र्क अधीर, ऐ दवप्लव के वीर ! चसू दलया है उसका सार, हाड़-माि ही है आधार ह,ै ऐ जीवन के पारावार! मख्यिः दनराला के क्रादं िकारी काव्य की दवर्य-वस्ि सवहष ारा वगष के िदलि, गरीब, मजिरू , दकसान रहे ह।ैं छायावािी यग में रदचि ‘वह िोड़िी पत्थर’, ‘िीन’, ‘गरीबों की पकार’, ‘दभक्षक’, ‘िीन’, ‘दवधवा’ आदि कदविाएँ इसका ज्वलंि प्रमाण ह।ैं ‘जन्मभूदम’ ‘स्वाधीनिा पर’, ‘बािल-राग’, ‘महाराज दिवाजी का पि’, ‘राम की िदक्तपूजा’, ‘िलसीिास’, ‘दिल्ली’ ‘जागो दफर एक बार’, ‘आवाहन’ आदि कदविाएं भारिीय स्वाधीनिावािी आंिोलन से अनप्रेररि ह।ंै दनराला की भाँदि अन्य छायावािी कदवयों ने भी अपने काव्य के माध्यम से स्वाधीनिावािी आिं ोलन में महत्वपूणष भूदमका दनभायी। इनमें प्रसाि, पिं , रामकमार वमाष आदि ने बढ़ चढ़कर दहस्सा दलया। इन्होंने प्राचीन भारिीय इदिहास के स्वदणषम विृ ािं ों के माध्यम से ससं ्कृ दि की अभूिपवू ष झाकँ ी प्रस्िि की िथा जनिा में स्वाधीनिा की भावना को जाग्रि दकया। इस िरह छायावाि ने प्रत्यक्ष रूप से भी समकालीन राष्ट्रीय आंिोलन को प्रदिदबदम्बि और प्रभादवि करने में महत्वपणू ष कायष दकया। यह जरूर है दक सभी कदवयों ने समान रूप से इस भाव की कदविाएँ नहीं दलखीं, लेदकन यह सच है दक सभी कदवयों ने राष्ट्रीय आिं ोलन के दकसी दकसी पहलू को यथािदक्त दचदिि करने की कोदिि की। इन सबमंे दनराला सबसे आगे रह।े दनराला की कदविा मंे प्रकृ दि, प्रेम और सौंियष के साथ िियगीन समाज, ससं ्कृ दि िथा स्वाधीनिावािी आिं ोलन की झलक को भी साफ िेखा जा सकिा ह।ै ‘राम की िदक्त पजू ा’ ‘महाराज दिवाजी का पि’, ‘दिल्ली’ जसै ी कदविाओं में स्वाधीनिावािी आंिोलन की झलक साफ नजर आिी ह।ै दनराला ने भारिीय जनमानस मंे आत्म गौरव, स्वादभमान और वर्ष 7, अंक 78-80, अक्टूबर-दिसंबर 2021 (सयंक्त अंक) / 250
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